हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 33 ☆ होना नहीं उदास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद रचना ‘होना नहीं उदास ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 33 – साहित्य निकुंज ☆

☆ होना नहीं उदास 

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी, पथिक तुम्हारे पास।

पहले पहल कदम रखने पर

गिरते हैं इंसान ।

धीरे-धीरे होती जाती

हिम्मत से पहचान ।।

हिम्मतवाले पांव मचलते, चलता रहे प्रयास।

पांव चूमकर कंकर कांटे

मांगेंगे वरदान।

वैष्णवता की लाज बचाने

कर देना एहसान ।।

आज सभी कुछ मिल सकता है, मिले नहीं विश्वास।

उल्टे सीधे बढ़ते जाना

जिनको नहीं कुबूल।

जाहिर है उनके होते हैं

अपने सिद्ध उसूल ।।

किसी तरह कुछ पा जाने को कहते नहीं विकास।

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी पथिक तुम्हारे पास।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “संसार”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆

☆ संसार ☆

 

संवाद

द्योतक रहे विचार के ,अपने यह संवाद

हों अक्सर संवाद बिन,जग से रोज विवाद

 

पेट

दौलत से धनवान का,कभी न भरता पेट

देते किंतु गरीब को,प्रतिदिन ही अलसेट

 

संसार

हम सब को प्यारा लगे,मायाबी संसार

धन दौलत में लिप्त हो,भूल गए आचार

 

उजियार

लड़ें तिमिर से सदा हम,मन में रख उजियार

तभी सफलता मिलेगी,समझो मेरे यार

 

नेपथ्य

जीवन के इस मंच पर,दिखे न पूरा सत्य

झूठ संवरता ही रहा,सत्य गया नेपथ्य

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प चौवीस # 24 ☆ पिंपळपान ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  व्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक  भावप्रवण कविता  “पिंपळपान”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

☆ समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प चौवीस # 24 ☆

☆ पिंपळपान ☆

 

वयानुसार सारच बदलत

बदलत नाहीत आठवणी

पिंपळपान जपलेले

बालपणीची करते उजळणी.

कितीही झाल जीर्ण तरीही

जाळीमधून उलगडते

क्षण क्षण जपलेले

सांभाळताना  गडबडते.

पुस्तकात जपलेले

पिंपळपान दिसले की

आठवणींना फुटतो पाझर

असे होतो तसे होतो

भावनांचा सुरू जागर.

जपून ठेवलेले पिंपळपान

कुणी म्हणते  लक्ष्मी वसे

कुणी म्हणते आहे खवीस

वाईट शक्ती तिथे वसे.

हिरवेगार पिंपळपान

आकार त्याचा ह्रदयाकार

सतत वाटते जवळचे

स्पर्श त्याचा शब्द सार. . . !

हिरवे असो वा पिवळे

घेते लक्ष वेधून

पिंपळपान  आयुष्याचे

मनामनात बसे लपून

मनामनात बसे लपून

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 19 ☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “सलमा बनाम सोन चिरैया”।  यह लघुकथा  मात्र लघुकथा ही नहीं अपितु मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा है, जिसे डॉ ऋचा जी की कलम ने  सांकेतिक विराम देने की चेष्टा की है और इसमें वे पूर्णतः सफल हुई हैं। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 19 ☆

☆ लघुकथा –सलमा बनाम सोन चिरैया 

 

सलमा बहुत हँसती थी, इतना कि चेहरे पर हमेशा ऐसी खिलखिलाहट जो उसकी सूनी आँखों पर नजर ही ना पड़ने दे। गद्देदार सोफों, कीमती कालीन और महंगे पर्दों से सजा हुआ आलीशान घर? तीन मंजिला विशाल कोठी, फाइव स्टार होटल जैसे कमरे। हँसती हुई वह हर कमरा दिखा रही थी  — ये बड़े बेटे साहिल का कमरा है, न्यूयार्क में है, गए हुए ८ साल हो गए, अब आना नहीं चाहता यहाँ।

फिर खिल-खिल हँसी — इसे तो पहचान गई होगी तुम — सादिक का गिटार, बचपन में कितने गाने सुनाता था इस पर, उसी का कमरा है यह,  वह बेंगलुरु में है- 6 महीने हो गए उसे यहाँ आए हुए, मैं गई थी उसके पास। वह आगे बढी — ये गेस्ट रूम है, ये हमारा बेडरूम —- पति ? – —  अरे तुम्हें तो पता ही है सुबह ९ बजे निकलकर रात में १० बजे ही वो घर लौटते हैं – वही हँसी, खिलखिलाहट, आँखें छिप गई।

और ये कमरा मेरी प्यारी सोन चिरैया का — सोने -सा चमकदार पिंजरा कमरे में बीचोंबीच लटक रहा था, जगह – जगह छोटे झूले लगे थे। सोन चिरैया इधर – उधर उड़ती, झूलती, दानें चुगती और पिंजरे में जा बैठती।  कमरे का दरवाजा खुला हो तब भी वह बाहर नहीं उड़ती।

सलमा बोली – दो थीं एक मर गई, ये अकेली कब तक जिएगी पता नहीं? इस बार उसकी आँखें बोलीं थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 32 ☆ आलेख – गांधी जी और गाय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर एक विचारोत्तेजक आलेख  “गांधी जी और गाय”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद इस सामयिक किन्तु  शिक्षाप्रद  आलेख  के लिए। इस आलेख  को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन आलेख के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 32 ☆ 

☆ आलेख – गांधी जी और गाय  ☆

भारतीय संस्कृति में गाय की कामधेनु के रूप की परिकल्पना है.  गाय ही नही लगभग प्रत्येक जीव जन्तु हमारे किसी न किसी देवता के वाहन के रूप में प्रतिष्ठित हैं. इस तरह हमारी संस्कृति अवचेतन में ही हमें जीव जन्तुओ के संरक्षण का पाठ पढ़ाती है. गौवंश के पूजन को आदर्श बनाकर भगवान श्री कृष्ण ने राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए गौवंश की महत्ता का प्रतिपादन किया. भगवान शिव ने गले में सर्प को धारण कर विषधर प्राणी तक को स्नेह का संदेश दिया और बैल को नंदी के रूप में  अपने निकट स्थान देकर गौ वंश का महत्व स्थापित किया.

यथा संभव हर घर में गौ पालन दूध के साथ ही धार्मिक आस्था के कारण किया जाता रहा है. मृत्यु के बाद वैतरणी पार करने के लिये गाय का ही सहारा होता है यह कथानक प्रेमचंद के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का कथानक है. आज भी विशेष रूप से राजस्थान में  घरों के सामने  गाय को घास खिलाने व पानी पिलाने के लिये नांद रखने की परम्परा देखने में आती है. १८५७ की क्रांति के समय पहली बार गाय के प्रति आस्था राजनैतिक रूप से मुखर हुई थी. बाद में लगातार अनेक बार यह हिन्दू मुस्लिम विरोध का कारण  बनती रही है. क्षुद्र स्वार्थ के लिये कई लोग इस भावना को अपना हथियार बना कर समाज में विद्वेष फैलाते रहे हैं.  अनेक साम्प्रदायिक दंगे गाय को लेकर हुये हैं. पिछले कुछ समय से गौ रक्षा के नाम पर माब लिंचिंग जैसी घटनाये मीडीया में शोर शराबे के साथ पढ़ने मिलीं. यह वर्ष महात्मा गांधी के जन्म का १५० वां साल है. गांधी जी वैश्विक विचारक के रूप में सुस्थापित हैं. यद्यपि स्वयं गांधी जी बकरी पाला करते थे व उसी का दूध पिया करते थे किंतु गाय को लेकर उन्होनें समय समय पर जो विचार रखे वे आज बड़े प्रासंगिक हो गये हैं, तथा समाज को उनके मनन, चिंतन की आवश्यकता है.

महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम गौ रक्षा की बात सार्वजनिक तौर पर करते हुए 1921 में यंग इंडिया में लिखा ‘गाय करुणा का काव्य है. यह सौम्य पशु मूर्तिवान करुणा है. यह करोड़ों भारतीयों की मां है. गाय के माध्यम से मनुष्य समस्त जीव जगत से अपना तादात्म्य स्थापित करता है. गाय को हमने पूजनीय क्यों माना इसका कारण स्पष्ट है. भारत में गाय मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र है. वह केवल दूध ही नहीं देती बल्कि उसी की वजह से ही कृषि संभव हो पाती है. ‘गाय बचेगी तो मनुष्य बचेगा। गाय नष्ट होगी तो उसके साथ, हमारी सभ्यता और अहिंसा प्रधान संस्कृति भी नष्ट हो जाएगी.

एक बार साबरमति आश्रम में एक बछड़े की टांग टूट गई. उससे दर्द सहा नहीं जा रहा था, ज़ोर-ज़ोर से वह कराह रहा था.पशु डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए, कहा कि उसे बचाया नहीं जा सकता. उसकी पीड़ा से गांधी बहुत परेशान थे.जब कोई चारा न बचा तो उसे मारने की अनुमति दे दी. अपने सामने उस जहर का इंजेक्शन लगवाया, उस पर चादर ढंकी और शोक में अपनी कुटिया की ओर चले गए. कुछ  लोगों ने इसे गोहत्या कहा. गांधी को गुस्से से भरी चिट्ठियां लिखीं. तब गांधी ने समझाया कि इतनी पीड़ा में फंसे प्राणी की मुक्ति हिंसा नहीं, अहिंसा ही है, ठीक वैसे ही, जैसे किसी डॉक्टर का ऑपरेशन करना हिंसा नहीं होती.

गांधी जी बहुत पूजा-पाठ नहीं करते थे, मंदिर-तीर्थ नहीं जाते थे, लेकिन रोज सुबह-शाम प्रार्थना करते थे. ईश्वर से सभी के लिए प्यार और सुख-चैन मांगते थे.

उनके आश्रम में गायें रखी जाती थीं. गांधी गोसेवा को सभी हिंदुओं का धर्म बताते थे. जब कस्तूरबा गंभीर रूप से बीमार थीं, तब डॉक्टर ने उन्हें गोमांस का शोरबा देने को कहा. कस्तूरबा ने कहा कि वे मर जाना पसंद करेंगी, लेकिन गोमांस नहीं खाएंगी. गाय के प्रति  उनकी ऐसी आस्था थी.

यंग इंडिया व हरिजन में उनके समय समय पर छपे लेखो को पढ़ने से समझ आता है कि, गांधी जी उस ग्रामस्वराज की कल्पना करते थे जहां कसाई अपनी कमाई के लिये गौ हत्या पर नही वरन केवल अपनी स्वाभाविक मृत्यु मरी हुई गायों के उन अवयवो के लिये कार्य करे जो मरने के बाद भी गौमाता हमारे उपयोग के लिये छोड़ जाती है. इसके लिये वे कसाईयो को वैकल्पिक संसाधनो से और सक्षम बनाना चाहते थे. वे कानूनन गौ हत्या रोकने के पक्ष में नही थे. गौ रक्षा से गांधी जी की सार्व भौमिक व्यापक दृष्टि का तात्पर्य समूचे विश्व में गाय ही नही सारे जीव जंतुओ के संरक्षण से था. आज गो सेवा के नाम पर सरकारें व कई संस्थायें बहुत सारा काम कर रही हैं, जरूरी है कि गाय दो संप्रदायो में वैमनस्य का नही मेल मिलाप के प्रतीक के रूप में स्थापित की जावे, क्योंकि गाय हमेशा से मानव जाति के लिये स्वास्थ सहित विभिन्न प्रयोजनो के लिये बहुउपयोगी थी और रहेगी.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 4 ☆ चलाचल- चलाचल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सामयिक  व्यंग्य रचना “चलाचल- चलाचल। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 4☆

☆ चलाचल- चलाचल

बड़ा बढ़िया समय चल रहा है । पहले कहते थे कि दिल्ली दूर है पर अब तो बिल्कुल पास बल्कि यूँ कहें कि अपना हमसाया  बन कर सबके दिलों दिमाग में रच बस गयी है ; तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । सबकी नज़र दिल्ली के चुनाव पर ऐसे लगी हुयी है मानो वे ही सत्ता परिवर्तन के असली मानिंदे हैं ।

इधर शाहीन बाग चर्चा में है तो दूसरी ओर लगे रहो मुन्ना भाई की तर्ज पर कार्यों का लेखा- जोखा फेसबुक में प्रचार – प्रसार करता दिखायी दे रहा है । वोटर के मन में क्या है ये तो राम ही जाने पर देशवासी अपनी भावनात्मक समीक्षा लगभग हर पोस्ट पर कमेंट के रूप में अवश्य करते दिख रहे हैं । अच्छा ही है इस बहाने लोगों के विचार तो पता चल रहें हैं ।  देशभक्ति का जज़्बा किसी न किसी बहाने सबके दिलों में जगना ही चाहिए क्योंकि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि न गरीयसी ।

मजे की बात तो ये है कि लोग आजकल कहावतों और मुहावरों पर ज्यादा ही बात करते दिख रहे हैं  । और हों भी क्यों न  यही कहावते, मुहावरे ही तो गागर में सागर भरते हुए कम शब्दों से जन मानस तक पहुँचने की गहरी पैठ रखते हैं । बघेली बोली में एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है-

सूपा हँसय ता हँसय या चलनी काहे का हँसय जेखे बत्तीस ठे छेदा आय ।

बस यही दौर चल रहा है एक दूसरे पर आरोप – प्रत्यारोप का एक पक्ष सूपे की भाँति कार्य कर रहा है तो दूसरा चलनी की तरह । अब तो हद ही हो गयी  लोग आजकल विचारों का जामा बदलते ही जा रहें , कथनी करनी में भेद तो पहले से ही था अब तो ये भी कहे जा रहे हैं हम आज की युवा पीढ़ी के लिखने- पढ़ने वाले हैं सो कबीर के दोहे

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब ।

पल में परलय होयगा,  बहुरि करेगा कब्ब ।।

को भी बदलने का माद्दा रखते हैं और पूरी ताकत से कहते हैं –

आज करे सो काल कर, काल करे सो परसो ।

फिकर नाट तुम करना यारों,  जीना  हमको बरसो ।।

वक्त का क्या है चलता ही रहेगा  बस जिंदगी आराम से गुजरनी चाहिए । चरैवेति – चरैवेति कहते हुए लक्ष्य बनाइये पूरे हों तो अच्छी बात है अन्यथा अंगूर खट्टे हैं कह के  निकल लीजिए पतली गली से । फिर कोई न कोई साध्य और साधन ढूंढ कर चलते- फिरते रहें नए – नए विचारों के साथ ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “वीर सुभाष कहाँ खो गए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ 

 

वीर सुभाष कहाँ खो गए

वंदेमातरम गा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

कतरा-कतरा लहू आपका

काम देश के आया था

इसीलिए ये आजादी का

झण्डा भी फहराया था

गोरों को भी छका-छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान मान करवाया था

 

सत्ता के भुखियारों को अब

कुछ तो सीख सिखा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

कितनी श्रद्धा से लेते

आज तो नेता कहने से ही

बीज घृणा के बो देते

वतन की नैया डूबे चाहे

अपनी नैया खे लेते

बने हुए सोने की मुर्गी

अंडे भी वैसे देते

 

नेता जैसे शब्द की आकर

अब तो लाज बचा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

जंग कहीं है काश्मीर की

और जला पूरा बंगाल

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक यहां होगा

नहीं हो सकें मीठे गान

 

जन्मों-जन्मों वीर सुभाष

सबमें ऐक्य करा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

लिखते-लिखते ये आँखें भी

शबनम यूँ हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखातीं हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएँ

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर-मर जाती हैं

 

देखो इस तसवीर को आकर

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 34 – वापसी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यंग्यात्मक  किन्तु शिक्षाप्रद लघुकथा  “वापसी । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #34☆

 

☆ लघुकथा – वापसी ☆

 

” यमदूत ! तुम किस ओमप्रकाश को ले आए ? यह तो हमारी सूची में नहीं है. इसे तो अभी माता-पिता की सेवा करना है , भाई को पढाना है. भूखे को खाना खिलाना है और तो और इसे अभी अपना मानव धर्म निभाना है .”

” जो आज्ञा , यमराज.”

” जाओ ! इसे धरती पर छोड़ आओ और उस दुष्ट ओमप्रकाश को ले आओ. जो पृथ्वी के साथ-साथ माता-पिता के लिए बोझ बना हुआ है .”

यमदूत नरक का बोझ बढ़ाने के लिए ओमप्रकाश को खोजने धरती पर चल दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 33 – शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण  कविता “शब्द पक्षी…!” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #33☆ 

☆ शब्द पक्षी…! ☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द पानावर

मुक्त विहार करत नाहीत तोपर्यंत

आणि ..

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता ,चलबिचल

हुरहुर अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 33 – नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  माँ नर्मदा वंदना  “ नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 33☆

☆ नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा ☆  

 

नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा

सुंदरम, निर्मलं, मंगलम नर्मदा।

 

पूण्य  उद्गम  अमरकंट  से  है  हुआ

हो गए वे अमर,जिनने तुमको छुआ

मात्र दर्शन तेरे पुण्यदायी है माँ

तेरे आशीष हम पर रहे सर्वदा। नर्मदा—–

 

तेरे हर  एक कंकर में, शंकर बसे

तृप्त धरती,हरित खेत फसलें हंसे

नीर जल पान से, माँ के वरदान से

कुलकिनारों पे बिखरी, विविध संपदा। नर्मदा—–

 

स्नान से ध्यान से, भक्ति गुणगान से

उपनिषद, वेद शास्त्रों के, विज्ञान से

कर के तप साधना तेरे तट पे यहाँ

सिद्ध होते रहे हैं, मनीषी सदा। नर्मदा—–

 

धर्म ये है  हमारा, रखें स्वच्छता

हो प्रदूषण न माँ, दो हमें दक्षता

तेरी पावन छबि को बनाये रखें

दीप जन-जन के मन में तू दे मां जगा। नर्मदा—–

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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