हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि  – वसंत पंचमी विशेष – माँ शारदा शतश: नमन  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – वसंत पंचमी विशेष – माँ शारदा शतश: नमन  

[1]

शुभ्र परिधानधारिणी, पद्मासना
हर शब्द, हर अक्षर तुम्हें अर्पण,
उज्ज्वल हंस पर विराजमान
दुग्धधवला महादेवी,
माँ शारदा को शतश: नमन।

[2]

मानसरोवर का अनहद
शिवालय का नाद कविता,
अयोध्या का चरणामृत
मथुरा का प्रसाद कविता,
अंधे की लाठी
गूँगे का संवाद कविता,
बारम्बार करता नमन ‘संजय’
माँ सरस्वती साक्षात कविता।

[3]

मौसम तो वही था,
यह बात अलग है
तुमने एकटक निहारा
स्याह पतझड़,
मेरी आँखों ने चितेरे
रंग-बिरंगे बसंत..,
बुजुर्ग कहते हैं,
देखने में और दृष्टि में
अंतर होता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कवितासंग्रह ‘योंही’ एवं ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 32 ☆ वसंत पंचमी विशेष – बसंत ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी वसंत पंचमी  पर्व पर विशेष कविता  ‘ बसंत ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 32 – साहित्य निकुंज ☆

☆ बसंत 

माघ माह की पंचमी,

आया है ऋतु राज,

सरस्वती को पूजते ,

लोग घरों में आज।।

 

बसंत

बसंत आता है

मन को लुभाता है

चहुँ ओर

फ़ैल रही है हरियाली

झूम रही है डाली डाली

धरती ने हरीतिमा का किया शृंगार

मन में उठी उमंग की फुहार

प्रेम प्यार की कोपलें फूटी

खिलने लगे फूल और कलियाँ

छा गई सब ओर खुशियाँ

फ़ैली है बसंत की महक

गूंज रही पक्षियों की चहक

जीवन में खिलने लगे नये रंग

लगा लिया कलियों ने अंग

देखो आ गया बसंत

आ गया बसंत।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 23 ☆ वसंत पंचमी विशेष – सरस्वती वंदना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है वसंत पंचमी  पर विशेष  कविता / गीत “सरस्वती वंदना”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 23 ☆

☆ वसंत पंचमी विशेष – सरस्वती वंदना ☆

 

चारु      हासिनी     वाग्वादिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

शीश मुकुट मोहक मणि सोहे।

गल  मोतिन  की  माला  मोहे।।

ज्ञान-बुद्धि   दे   ज्ञान   दायिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।

 

धूप-दीप, फल  मेवा  अर्पित।

भक्ति-भाव से विनय समर्पित।।

महका  दे  उर  पुष्प  वाहिनी।।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

शब्द-शब्द,कविता-आराधन।

नव गीतों का करे सृजन मन।।

रस भावों की सुभग स्वामिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

ब्रम्हा-विष्णु,महेश उपासक।

शब्द-शिल्प,स्वर-लय आराधक।।

शशिवदना हे कमल वासिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

आन विराजो कलम दृष्टि में।

शब्द-नाद  संगीत-सृष्टि  में।।

माँ विमला”संतोष” दायिनी

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

चारु     हासिनी     वाग्वादिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 18 ☆ लघुकथा – साजिश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “साजिश”।  समाज में व्याप्त इस कटु सत्य को पीना इतना आसान नहीं है किन्तु,  सत्य आखिर सत्य तो है और नकारा नहीं जा सकता।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 18 ☆

☆ लघुकथा –साजिश 

बुढ़ापा … उम्र के इस दौर में वे दोनों किसी तरह जी रहे थे। एक बेटी और दो बेटों का भरा-पूरा परिवार था। वह घर जिसमें हमेशा चहल-पहल, हो-हल्ला मचा रहता था अब सन्नाटे में डूबा रहता। वृद्ध  दंपति के पास करने को कुछ नहीं था, करते क्या, शरीर भी तो साथ नहीं देता। सोचने को था बहुत कुछ बच्चों की बेशुमार यादें। पहले बेटी फिर ढ़ेरों मन्नतों के बाद दो बेटे  — कुलदीपक ?

जीवन पर्यंत जिम्मदारियों का निर्वाह, यथासंभव ……जी तोड़ कोशिश कर और अब …. अमावस की घोर कालिमा-सी वृद्धावस्था।

शुक्ल जी बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बेटी को तो पराया धन मानते ही थे। बेटों के आगे भी कभी हाथ नहीं फैलाया। यह बात दूसरी है कि बेटी की शादी और बेटों को पढाने-लिखाने में तन और धन दोनों से खाली हो चुके थे। संतान के लिए जितना करो उतना कम।

अब बारी बेटों की। गेंद उनके पाले में – देखें कैसी खेलते हैं जीवन की यह पारी। दिनेश तो पढाई पूरी होते ही विदेश चला गया था। राहुल शहर में होकर भी पास नहीं था। कई बार शुक्ल जी ने फोन करके कहा – एक बार देख जा माँ को, दिन-पर-दिन तबियत बिगड़ती जा रही है। तुझे देखने को तरसती है। व्यस्त हूँ, जरूर आऊँगा – जैसे टालू उत्तर फोन पर शुक्ल जी सुनते रहे। मोबाईल युग है – सुख-दुःख फोन पर बँटते हैं। आवाजें पास, दिल दूर-दूर।

शुक्ल जी की बेटी रंजना को आज भी याद हैं पापा के वे शब्द – ‘बेटी ! हम पति-पत्नी मर जाएंगे लेकिन बेटों के सामने दया की भीख नहीं मांगेगे।’ माँ की भीगी आँखों की निरीहता भूली नहीं जाती। कैसी अकथनीय वेदना छिपी थी उन बूढी आँखों में।

माँ के अंतिम संस्कार की तैयारी चल ही रही थी कि ‘पापा नहीं रहे’ – वाक्य उसके कानों में पड़ा, दो उल्टियां हुई और सब खत्म। वह सन्न रह गयी।

पड़ोस की स्त्रियां बोली – ‘कितनी सौभाग्यशाली है सुहागिन मरी’ पुरुष बोले – ‘अच्छा हुआ शुक्ल जी पत्नी के जाते ही चल दिए, बहुओं का राज नहीं देखना पड़ा’, रंजना सच जानती थी। स्वाभिमान से जीने की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को उनके बेटों ने बेमौत मार डाला।

रंजना अपना दुःख कहे भी तो किससे ???

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 30 ☆ बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक सामायिक  आलेख  “बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद इस सामयिक किन्तु  शिक्षाप्रद  आलेख  के लिए। इस आलेख  को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन आलेख के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 31 ☆ 

☆ बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई

 

तिरंगे की छाया में खडे, बंद गले का जोधपुरी सूट पहने, सफेद टोपी लगाये गर्व से अकड़े हुये मुख्य अतिथि  ने परेड की सलामी ली. उद्घोषणा हुई आकाश की असीम उंचाईयों तक ट्राई कलर का संदेश पहुंचाने के लिये गैस के गुब्बारे “बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स” छोड़ कर हर्ष व्यक्त किया जावेगा. सजी सुंदर दो लडकियां ने केसरिया, सफेद, हरे गुब्बारो के गुच्छे मुख्य अतिथि की ओर बढ़ाये. शौर्य, देश भक्ति और साहस के प्रतीक ढ़ेर सारे केसरिया गुब्बारे सबसे अधिक उंचाई पर थे, सफेद गुब्बारो के धागे कुछ छोटे थे. उद्घोषक की भाषा  में सफेद रंग के ये गुब्बारे शांति, सदभावना और समन्वय को प्रदर्शित करते इठला रहे थे. इन्हीं सफेद गुब्बारो में एक गुब्बारा गहरे नीले रंग का भी था जो तिरंगे के अशोक चक्र की अनुकृति के रुप में गुच्छे में बंधा था. वही अशोक चक्र जो सारनाथ के अशोक स्तंभ से समाहित किया गया है हमारे तिरंगे में. यह चक्र राष्ट्र की गतिशीलता, समय के साथ प्रगति तथा अविराम बढ़ते रहने को दर्शाता है. सबसे नीचे हरे रंग के खूब सारे फुग्गे थे. देश के कृषि प्रधान होने, विकास और उर्वरता के प्रतीक का रंग है तिरंगे का हरा रंग.  मुस्कुराते हुये मुख्य अतिथि जी ने बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स छोड दिये. कैमरा मैन एक्शन में आ गया, लैंस जूम कर, आकाश में गुब्बारो के गुम होते तक जितनी बन पड़ी उतनी फोटो खींच ली गईं. समाचार के साथ ऐसी फोटो न्यूज को आकर्षक बना देती है. नीले आसमान के बैकग्राउंड में, सूरज की सुनहली धूप के साथ, बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई की फोटो खबर में देशभक्ति का जज्बा पैदा कर देती है. जब ओजस्वी उद्घोषणा होती है “झंडा उंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा” तो सचमुच स्टेडियम में उपस्थित हर किसी का सीना थोड़ा बहुत जरूर फूल जाता है.

पर कौन से अदृश्य हाथ हैं जो तिरंगे की तीनो रंग की पट्टियो की सिलाई उधाड़कर उन्हें अलग अलग करने पर आमादा है ? कौन सी ताकतें हैं जो जगह जगह बाग उजाड़ने में जुटी हुई हैं ? कौन है जो कहला रहा है कि  इस हिस्से को उस हिस्से से अलग कर दो ? तिरंगे का साया तो हमेशा से समता का पाठ पढ़ाता आया है. संविधान में केवल अधिकार नहीं कर्तव्य भी तो दर्ज हैं. देश का जन गण मन तो वह है, जहां फारूख रामायणी अपनी शेरो शायरी के साथ राम कथा कहते हैं. जहां मुरारी बापू के साथ ओस्मान मीर, गणेश और शिव वंदना गाते हैं. फिल्म बैजू बावरा का  भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज, इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूंनी हैं,  तथा गायक मोहम्मद रफी हैं. तिरंगे ने कभी भी इन संगीत के महारथियों से उनकी जाति नही पूछी. आज के हालात पर बेचैन तिरंगे ने उस भीड़ से पूछा जो उसे हिला हिला कर आजादी की मांग कर रही थी कि मेरे साये में यह जातिगत भीड़ क्यों ? तो किसी से उत्तर मिला कि ऐसा केवल सोशल मीडीया पर दिख रहा है, जन गण मन तो आज भी वैसा ही है. आसमान के अनंत सफर पर ट्राईकलर बैलून बंच  ने कहा  आमीन ! काश सचमुच ऐसा ही हो ! यदि ऐसा है तो समझ लो कि इस भ्रामक सोशल मीडिया की उम्र ज्यादा नही है. क्योकि झूठ की जड़े नही होती, यह शाश्वत सत्य है.  बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई साहस, शांति अविराम प्रगति और विकास का संदेशा लिये कुछ और ऊपर उड चला. आयोजन में बच्चे ड्रिल कर रहे थे और बैंड बजा रहा था इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  वसंत पंचमी के अवसर पर एक अतिसुन्दर रचना   “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ 

 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ! दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 33 – व्यवहार  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू को दर्शाती लघुकथा  “व्यवहार  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #33☆

☆ लघुकथा – व्यवहार ☆

माँ बेटी से परेशान थी और बेटी माँ. दोनों को एक दूसरे की आदतें नहीं सुहाती थी. इस से दोनों को नींद में चलने व बोलने की बीमारी हो गई थी.

“यह बूढ़िया भी न जाने कब तक जीएगी. यह मर क्यों नहीं जाती. ताकि इस की टोका टोकी से मुक्ति मिलें. यह जब तब मेरे मोबाइल में तांक झांक करती रहती है. मैं किस से बात करती हूँ,  क्या करती हूँ. कहां जाती हूँ. इसे मुझसे से क्या लेना देना है. ………..’’ यह बड़बड़ाते हुए बेटी बरामदें में टहल रही थी.

इधर माँ कह रही थी, “इस लड़की को न जाने क्या रोग लग गया. न जाने किस किस से बातें करती रहती है. कहीं किसी लड़के के साथ भाग गई या उस से मुंह काला करवा लिया तो मेरी नाक कट जाएगी. भगवान ! मैं क्या करूं ताकि इस नासपीटी को इस बीमारी से छुटकारा मिल जाए”,  कहते हुए माँ भी बरामदे में टहलते टहलते आ गई.

दोनों नींद में टहल रही थी. तभी दोनों एक दूसरे से टकरा गई.

अचानक हड़बड़ा कर माँ बेटी की नींद खुल गई.

“मां ! तू यहाँ क्या कर रही है? ”

“अरे ! तू यहां क्या कर रही है ?”’’ दोनों हड़बड़ा कर एक दूसरे से बोली.

“माँ! मैं तो जल्दी उठ कर पानी भरना चाहती थी ताकि तू परेशान न हो. तुझे आराम मिले. हर माँ की सेवा करना बेटी का फर्ज होता है.”

“अच्छा नासपीटी”, माँ ने मन ही मन बड़बड़ाते हुए कहा,  “बेटी ! तू सो जा चिंता मत कर. मैं पानी भर लूंगी. तू दिन भर पढ़ लिख कर थक जाती है. इसलिए तू आराम कर.” मां ने बुरा सा मुंह बना कर कहा. मगर, यह ध्यान रखा कि उस का मुंह बेटी न देख ले.

“अच्छा  माँ,  मेरी प्यारी माँ,  “बुरासा मुंह बनाते हुए बेटी अपनी मां से लिपट गई. मगर,  दोनों नींद में कही गई अपनी अपनी भावनाएं दबा गई. आखिर व्यवहारिकता का यही सलीका है.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 3 ☆ चिड़चिड़ी खिचड़ी* ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “चिड़चिड़ी खिचड़ी*। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 3☆

☆ चिड़चिड़ी खिचड़ी

 

सुबह – सुबह  से खिचड़ी खाने  को  मिल  जाए तो  दिमाग़ ख़राब हो जाता है । ऐसी बीमारी लगी  है जिसका कोई इलाज ही नहीं ।  शक लाइलाज  बीमारी  होती  है सुना  था  पर आजकल तो रोग और रोगी दोनों ही बदल गए हैं तकनीकी का युग है सो बीमारी भी  चार कदम आगे बढ़ गयी  ।

बातों ही बातों में स्वीटी से पूछा  कि बेटा कोई नयी खबर तो नहीं आयी,  आजकल सबसे पहले  युवा पीढ़ी ही  खबर सुनाती है । अब तो सारे विद्वान  विश्लेषक बन अपनी राय ट्विटर व , फेसबुक पर ही पोस्ट करते हैं । सभी अपने – अपने कारनामे इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से प्रदर्शित कर लाइक , कमेंट और शेयर की अनोखी चाह रखते हैं ।

अरे दादा कल सारा दिन मोबाइल डब्बा था न खुल  रहा था न ही बन्द हो रहा था शाम को कलाकारी करके सुधार डाला बड़ी मुश्किल से सुधरा,   जैसे  ही खुला लग रहा था क्या पढ़ूँ और क्या छोड़ दूँ ??  कुछ दिमाग काम ही नहीं कर रहा था, इतने मैसेज आ चुके थे । बड़ी मुश्किल से कुछ पढ़ा कुछ हटाया तब कहीं जाकर मोबाइल सही हुआ  फिर रात में नींद ही न आये तो मैनें सोचा कुछ काम ही कर लिया जाए  वैसे भी बड़े बूढ़े कहते हैं काल से सो आज कर ।

स्वीटी को छेड़ते हुई भाभी  ने  कहा *ननद रानी इसमें इंफेक्शन हो जाता है, जब ऐसा हो  तो इसको स्प्रिट में डुबोकर रखा करो और साथ ही ओ आर एस  घोल  भी पिला दिया करो……*

मुस्कुराते हुए  स्वीटी ने कहा स्प्रिट की जरूरत नहीं उसे थोड़ा सुकून से  रहने की जरूरत पड़ती है ।

बुजुर्ग हो गया  है क्या छोटे भाई ने छेड़ते हुए कहा ?

ज्यादा बुजुर्ग तो नहीं है लेकिन इसकी तबियत ठीक नहीं रहती  है ।

बिन माँगी सलाह देने में होशियार अम्मा जी ने कहा  योगशाला  में भेजो, नियमित प्राणायाम व आसन से चमत्कारिक लाभ होगा ।

वाह, अब सही हो गया,  काम-वाम मत बताया करो इन्हें , कौन बोला ??

इतनी फिक्र करके वही काम करता है जो घर को अपना समझता है , बहना  को घर  प्रमुख होना चाहिए बड़े भाई ने कहा ।

जी दादा सही कहा आपने ।

नमन है इनकी कर्मठता और लगनशीलता को छोटे भाई ने कहा ।

झूठ बोलने की आदत नहीं गयी बचपन से, सच बोलना कब सीखोगी । किसी ने सिखाया नहीं क्या ? बड़े भाई ने मुस्कुराते हुए बहना  से कहा ।

मैनें ये कब कहा कि नहीं  सिखाया गठबन्धन की सरकार ऐसे ही चलती है । आपने सत्य बोलना कहाँ से सीखा  स्वीटी ने पूछा ।

असल में मैंने खिचड़ी की तरह सीखा। मिक्चर होकर, कई जगह ,कई लोगों से और अभी भी खिचड़ी ही चल रही है।

मुझे भी लगता है खिचड़ी की तरह ही सत्य सीखना पड़ेगा । पर मुझे ये कैसे पता चलेगा का कि कहाँ- कहाँ सत्य के पकवान व खिचड़ी पकी ताकि मैं भी वहीं जा कर सीख सकूँ ।

खिचड़ी  ज्यादा दिनों तक लोग पसंद नहीं करते कोई विशिष्ट व्यंज्जन बनना ही श्रेयस्कर होता है आप तो मालपुआ बनाना सीखें ।  *माल संग पुआ* वाह क्या बात है ?  छोटे भाई ने कहा ।

तुम्हे  खिचड़ी पकानी भी है और खानी भी है,

कहीं जाने की जरूरत नहीं बस चुपचाप पेट भरती  रहो दादा ने  कहा ।

मुझे खिचड़ी पकाना नहीं आता,

सही कहा…. कुछ अच्छा सा आइटम बताइए ।

पसंद अपनी अपनी, मेरी कभी खाने में कोई चीज पसंद की रही ही नहीं जो मिल गया सो खा लिया,  इस घर में आने के बाद पसंद क्या होती है ये मैंने जाना भाभी ने कहा ।

मतलब बहुत जल्द ही हम भी पसंद की चीजें खाने लगेंगे ।

केवल सर्वोत्तम ही पसंद आयेगा । भाभी ने हँसते हुए कहा ।

काहे मेहनत कर रही हो बिटिया जिसके यहां भी अच्छा बने खा आओ । कोई भी तुम्हे मना  नहीं करेगा ,अम्मा जी ने कहा ।

गलत राय मत दो अम्मा जी , जिसने भी खिचड़ी पकाई उसमें से आधे से ज्यादा को तो दादा ने  परेशान किया बाकी को  आपने भाभी ने गम्भीर होते हुए कहा ।

बिल्कुल अम्मा जी कभी- कभी तो मैं ऐसा ही करती हूँ, बगल में आंटी रहती हैं जब कुछ अच्छा बना होता है जाकर खा आते हैं । मतलब मुझे खिचड़ी नहीं पकानी है ।

आपने सच बोलना नहीं सिखाया बस । बाकी तो सब आपने ही सिखाया ,फिर झूठ  मेरे नहीं तुम्हारे बड़के भैया के शब्दों में ,मानना पडे़गा, भाभी ने कहा ।

सबको खुश रखती हैं भाभी। सकारात्मकता कहेंगे इसे छोटा भाई कहने लगा ।

बहुत से वाक्य व्यंग्य के उल्कापात की तरह गिर रहे हैं । इऩके चक्कर में मत पड़ो । कहीं की नहीं रहोगी । उड़ीसा में खिचड़ी प्रसाद होता है । कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती खिचड़ी वाले खुद प्रसाद/ज्ञान बाँटते घूमते हैं दादा ने कहा ।

तभी पिताजी ने  बात को  समाप्त  करने के उद्देश्य से कहा खिचड़ी हमारा राष्ट्रीय व्यंजन है स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक… तुम खाने से मतलब रखो ।

दादा लोग हैं न ,मुझे पकानी नहीं आती मैं तो प्रचारक हूँ ।

बहुत हो  गयी चर्चा ,अब करो खर्चा ।

हींग का देय बघार, कम  डाल  मिर्चा ।।

सब खिलखिला कर हँस पड़े ।

 

छाया सक्सेना ‘ प्रभु ‘

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 32 – मराठी क्षणिकाएं ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  एक तीन मराठी “मराठी क्षणिकाएं ” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #33☆ 

☆ मराठी क्षणिकाएं ☆ 

 

लेकराला कुशीत घेतल्यावर

मिळणार सुख हे

कित्येक वेळा

निःशब्द करून जातं…..!

♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦

माझ्या

कमावत्या हातात

जेव्हा मी .. .

लेकराचा इवलासा

हात पकडतो ना.. .

तेव्हा खरंच

श्रीमंत झाल्यासारखं वाटतं….!

♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦

हल्ली हल्ली शब्दांचाही

विसर पडू लागलाय

हे आयुष्या तुला संभाळता संभाळता….,

अक्षरांचा हात सुटू लागलाय..

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 32 – आओ कविता-कविता खेलें….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक व्यंग्यात्मक कविता  “आओ कविता-कविता खेलें….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 32☆

☆ आओ कविता-कविता खेलें…. ☆  

 

आओ कविता-कविता खेलें

मन से या फिर बेमन से ही

एक, दूसरे को हम झेलें।

 

गीत गज़ल नवगीत हाइकु

दोहे, कुण्डलिया, चौपाई

जनक छन्द, तांका-बांका

माहिया,शेर मुक्तक, रुबाई,

 

लय,यति-गति,मात्रा प्रवाह संग

वर्ण गणों के कई झमेले। आओ कविता….

 

छंदबद्ध कुछ, छंदहीन सी

मुक्तछंद की कुछ कविताएं

समकालीन कलम के तेवर

समझें कुछ, कुछ समझ न पाएं

 

आभासी दुनियां में, सभी गुरु हैं

नहीं कोई है चेले। आओ कविता……..

 

वाह-वाह करते-करते अब

दिल से आह निकल जाती है

इसकी उधर, उधर से इसकी

कॉपी पेस्ट चली आती है,

 

रोज समूहों से मोबाइल

सम्मानों के खोले थैले। आओ कविता….

 

उन्मादी कवितायें, प्रेमगीत

कुछ हम भी सीख लिए हैं

मंचों पर पढ़ने के मंतर

मनमंदिर में टीप लिए हैं,

 

साथी कई और भी हैं इस

मेले में हम नहीं अकेले।  आओ कविता….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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