मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 26 – झुळूक ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता झुळूक )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #26☆ 

 

☆  झुळूक ☆ 

 

नभ दाटूनीया येता

मज तूच आठवते

आठवणी स्मरताना

मन पुन्हा हेलावते. . . . !

 

शहारतो बोलताना

जातो कबुली देऊन

आहे प्रेम तुझ्यावर

शब्द जाती ओठातून. . . . !

 

ऐकताच बोल माझे

येतो पाऊस ही गाली

थेंब थेंब पावसाचे

गाती प्रेमाचीच गाणी. . . . !

 

झुळुकही गंधाळते

वाट पाहे उत्तराची

मौनांतून कळे सारे

वेळ होते परतीची. . . . !

 

असा चाले मनामध्ये

पाठ शिवणीचा  खेळ

तुझ्या माझ्या गं मेघांचा

कधी जमणार मेळ ?

 

© सुजित कदम, पुणे

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 27 – मी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक  पुरानी कविता  “सोनपरी .  सुश्री प्रभा जी  ने  की लेखनी में  वर्तमान ही नहीं अपितु बीते हुए दिनों के संस्मरणात्मक लेखन की अद्भुत क्षमता है।  उनकी कविता के एक एक शब्द और एक एक पंक्तियाँ  हमें स्वप्न सा अहसास दिलाती हैं।  ऐसा अनुभव होता है जैसे वे क्षण चलचित्र की भांति हमारे नेत्रों के समक्ष व्यतीत हो रहे हों।  वे पुराने दिन, वो गांव का घर, वो स्वप्निल वातावरण और ऐसे में स्वप्नों में सोनपरी का आगमन।  अद्भुत, अद्भुत कविता । मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 28 ☆

☆ सोनपरी ☆ 

(एक जुनी कविता)

 

मी झोपेत असते की जागेपणी?

मनाच्या गुहेत दाटून येतात,

असंख्य आठवणी!

एक चिमुकलं गाव मला साद घालतं,

तेव्हा आठवणींचे कळप

बेलगाम धावू लागतात,

शेतातून, मळ्यातून, फळांच्या बागातून, चिरेबंदी वाड्यातून!

आठवत रहाते….बैठकीची खोली,

माजघर, स्वयंपाकघर….खोल्याच खोल्या…

शेणानं सारवलेली हिरवीगार जमीन,

माडीवर जाणारा लाकडी जीना,

दारंच दारं….खिडक्याच खिडक्या….

दारादारास अडविणारा उंबरठा!

वाड्याभोवती दाट झाडी,

पिंपर्णीच्या झाडाखाली..

आजोबांची काळी घोडी!

पक्षांची किलबिल, ओढ्याची खळखळ…

मुलं माणसं, लगबग, वर्दळ!

पेटलेल्या चुली, पाट्यावरचं वाटण,

रांजणातलं लोणी, साखरेच्या गोणी,

धान्यांची पोती, शेंगा चे ढीग,

सारेच होते शिगोशिग!

तेव्हाच तिथे शिरली मनात,

एक स्वप्नाळू सोनपरी,

गोष्ट फार जुनी नाही,

याच काही वर्षातली !

सोनपरी चा नाॅस्टेल्जिया छेडत रहातो,

तिच धून, तिच गाणी….

मी झोपेत असते की जागेपणी?

मनाच्या गुहेत दाटून येतात….

असंख्य आठवणी!

 

-प्रभा सोनवणे

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 8 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 8 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

मशीनों को लेकर गांधीजी के विचारों पर लोगों ने समय समय पर प्रतिक्रियाएं दीं। इसका संकलन महादेव हरी भाई देसाई ने हिन्द स्वराज के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना में इस प्रकार लिखा है:

‘हिन्द स्वराज’ की प्रसंशाभरी समालोचना में सब लेखकों ने एक बात का जिक्र किया है : वह है गांधीजी का यंत्रों के बारे में विरोध। समालोचक इस विरोध को नामुनासिब और अकारण मानते हैं। मिडलटन मारी कहते हैं : ‘ गांधीजी अपने विचारों के जोश में भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, लेकिन इंसान की बनायी हुई एक अकुदरती- कृत्रिम चीज है। उनके उसूल के मुताबिक़ तो उसका भी नाश करना होगा।‘ डिलाइल बंर्स कहते हैं : ‘यह तो बुनियादी विचार-दोष है। उसमे छिपे रूप से यह बात सूचित की गयी है कि जिस किसी चीज का बुरा उपयोग हो सकता है, उसे हमें नैतिक दृष्टी से हीन मानना चाहिए। लेकिन चरखा भी तो एक यंत्र ही है। और नाक

पर लगाया गया चश्मा भी  आँख की मदद करने को लगाया गया यंत्र ही है। हल भी यंत्र है। और पानी खींचने के पुराने से पुराने यंत्र भी शायद मानव जीवन को सुधारने के मनुष्य की हज़ारों बरस की लगातार कोशिश के आख़िरी फल होंगे। किसी भी यंत्र का बुरा उपयोग होने की संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमे रही हुई नैतिक हीनता यंत्र की नहीं, लेकिन उसका उपयोग करने वाले मनुष्य की है।‘

इन आलोचनाओं का सन्दर्भ लेते हुए महादेव हरी भाई देसाई लिखते हैं कि मुझे इतना तो कबूल करना चाहिए कि गांधीजी ने  अपने विचारों के जोश में’ यंत्रो के बारे में अनगढ़ भाषा इस्तेमाल की है और आज अगर वे इस पुस्तक को फिर से सुधारने बैठे तो उस भाषा को खुद बदल देंगे।  क्योंकि मुझे यकीन है कि मैंने ऊपर समालोचकों के जो कथन दिए हैं उनको गांधीजी स्वीकार करेंगे; और जो नैतिक गुण यंत्र का इस्तेमाल करनेवाले रहें हैं, उन गुणों को उन्होंने यंत्र के गुण कभी नहीं माना। मिसाल के तौर पर १९२४  में उन्होंने जो भाषा इस्तेमाल की थी वह ऊपर दिए हुए दो कथनों की याद दिलाती है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने आगे उसी साल दिल्ली में गांधीजी का रामचंद्रन के साथ जो संवाद हुआ उसका पूरा ब्योरा  अपनी इस प्रस्तावना में लिखा है।

स्वयं गांधीजी ने १९२१ में कहा कि ‘ मिलों के सम्बन्ध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तान की आज की हालत में मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए । (गांधीजी के यह विचार हिन्द स्वराज के परिशिष्ट -1 में लिखे हैं)।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 26 – ये भगोड़े दिन……. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “ये भगोड़े दिन…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 25☆

☆ ये भगोड़े दिन……. ☆  

 

रोज आते

मुँह चिढ़ाते

चिहुंकते से

फिर, निकल जाते

भगौड़े दिन ।

 

की शिकायत

सूर्य पहरेदार से

विहंसकर उसने कहा

क्यों, झांकते हो द्वार से,

अजब बहुरूपिया

पकड़ पाना असंभव

शीत,वर्षा,घाम, सुख-दुख

रूप इस फनकार के।

मुखोटे अनगिन, पहिन

सब को झिंजोड़े दिन

चिहुंकते से ……….।

 

रोज छिप जाता

अंधेरी खोह में, और

प्रातः फिर निकल आता

किसी की टोह में,

कौन सी बेचैनियां

तिल-तिल जलाये

व्यथित मन,भटके दिवस भर

किस अबूझ,व्यामोह में।

उबाते मन, डुबाते से

ये निगोड़े दिन

चिहुंकते से………।

 

गुणनफल और जोड़

विस्मृत हो गए

भाग दे कर, घटाने से जो

बचा है शेष, सपने धो गए,

वक्त प्रहरी गिन रहा

सांसें निरंतर

मन-पटल पर, विरक्ति के

बीज, अपने बो गए।

आवरण खुशफहमियों के

व्यर्थ ओढ़े दिन

चिहुंकते से ,

फिर निकल जाते

भगोड़े दिन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 4 ☆ कविता ☆ वतन के सिपाही ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है वतन  के सिपाही पर एक कविता  / गीत  “ वतन के सिपाही ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 4 ☆

☆ कविता/ गीत  – वतन के सिपाही  ☆

 

वतन के सिपाही फना हो ग‌ए हैं.

वो धरणी को शैय्या समझ सो ग‌ए हैं.

 

देती है माँ पुत्र, बेटा व भाई भी

सुहागिन का सिंदूर तक ले ग‌ए हैं.

 

तपे खूब चिंगारी, अंगार सह कर

मिले घाव सरहद पै’ सब सह ग‌ए हैं

 

अपमान, की मौन पीड़ा सही है

बनाकर वो इतिहास खुद खो ग‌ए हैं

 

बिछड़े हैं वे, देशवासी दुखी हैं

ग‌ए, आँसुओं से वो मुख धो ग‌ए हैं

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆ वक्त के उस मोड़ पर ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “वक्त के उस मोड़ पर ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆

☆ वक्त के उस मोड़ पर

वक़्त के किसी-किसी मोड़ पर

ये आदमी भी

न जाने कौनसी छोटी-छोटी चीज़ों में

ख़ुशी ढूँढ़ लेता है, है ना?

 

कभी वो सहर की ताज़गी से मंत्रमुग्ध हो

कोई मुहब्बत की ग़ज़ल गुनगुनाने लगता है,

कभी वो दरिया की लहरों संग बहते हुए

अपने अलफ़ाज़ को साज़ दे देता है,

कभी वो बारिश की नन्ही-नहीं बूंदों में

अपने अक्स को खोज मुस्कुरा उठता है,

कभी वो लहराती हुई सीली हवाओं से

न जाने क्या गुफ्तगू करने लगता है,

कभी वो ऊंचे खड़े हुए दरख़्त को देखते हुए

उसकी हरी-हरी पत्तियों सा खिलखिला उठता है,

कभी वो शाम के केसरियापन से रंगत चुरा

अपनी बातों में उसे चाशनी सा घोल देता है,

और कभी-कभी तो सारी रात बिता देता है

दूधिया चाँदनी के इठलाने को निहारते हुए!

 

शायद ये आदमी

वक़्त के उस मोड़ पर

जान लेता है

कि वो मात्र एक सूखा हुआ पत्ता है

और वो ज़िंदगी के आखिरी पल जी रहा है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #28 – सदरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “सदरा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 28 ☆

☆ सदरा ☆

 

चुलीत नाही आग म्हणूनी जळतो आहे

आयुष्याचा मला निखारा छळतो आहे

 

जुनाट गळक्या छपरावरती धुके उतरले

पत्र्याच्या डोळ्यांतुन अश्रू गळतो आहे

 

तारुण्याला सावरणारा पदर फाटका

पिसाटलेला चहाड वारा चळतो आहे

 

तुझे पावसा रूप असे की वैरी कोणी

संसाराची करून माती पळतो आहे

 

डोंब भुकेचा ज्याला त्याला छळतो आहे

संसाराचा अर्थ कुणाला कळतो आहे

 

सफेद सदरा चारित्र्याचा किती जपावा

चिखल फेकिने सदरा माझा मळतो आहे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह) ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  व्यंग्यकार श्री विनोद कुमार विक्की की प्रसिद्ध पुस्तक “मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह पुस्तक 43 विषयों पर लिखित व्यंग्य संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)  

पुस्तक – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)

लेखक – विनोद कुमार विक्की
प्रकाशक –  दिल्ली पुस्तक सदन दिल्ली
आई एस बी एन ८३‍८८०३२‍६४‍६
मूल्य –  ३९५ रु प्रथम संस्करण २०१९

☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ऐसे समय में जब पुस्तक प्रकाशन का सारा भार लेखक के कंधो पर डाला जाने लगा है, दिल्ली पुस्तक सदन ने व्यंग्य, कहानी, उपन्यास , जीवन दर्शन आदि विधाओ की अनेक पाण्डुलिपियां आमंत्रित कर, चयन के आधार पर स्वयं प्रकाशित की हैं.

दिल्ली पुस्तक सदन का इस  अभिनव साहित्य सेवा हेतु अभिनंदन. इस चयन में जिन लेखको की पाण्डुलिपिया चुनी गई हैं, विनोद कुमार विक्की युवा व्यंग्यकार इनमें से ही एक हैं, उन्हें विशेष बधाई. अपनी पहली ही कृति भेलपुरी से विनोद जी नें व्यंग्य की दुनियां में अपनी सशक्त  उपस्थिति दर्ज की थी.

आज लगभग सभी पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते हैं. उनकी अपने समय को और घटनाओ को बारीकी से देखकर, समझकर, पाठक को गुदगुदाने वाले कटाक्ष से परिपूर्ण लेखनी, अभिव्यक्ति हेतु  उनका विषय चयन, प्रवाहमान, पाठक को स्पर्श करती सरल भाषा विनोद जी की विशिष्टता है.

मूर्खमेव जयते युगे युगे प्रस्तुत किताब का प्रतिनिधि व्यंग्य है. सत्यमेव जयते अमिधा में कहा गया शाश्वत सत्य है, किन्तु जब व्यंग्यकार लक्षणा में अपनी बात कहता है तो वह मूर्खमेव जयते युगे युगे लिखने पर मजबूर हो जाता है. इस लेख में वे देश के वोटर से लेकर पड़ोसी पाकिस्तान तक पर कलम से प्रहार करते हैं और बड़ी ही बुद्धिमानी से मूर्खता का महत्व बताते हुये छोटे से आलेख में बड़ी बात की ओर इंगित कर पाने में सफल रहे हैं. इसी तरह के कुल ४३ अपेक्षाकृत दीर्घजीवी विषयो का संग्रह है इस किताब में. अन्य लेखो के शीर्षक  ही विषय बताने हेतु उढ़ृत करना पर्याप्त है, जैसे कटघरे में मर्यादा पुरुषोत्तम, आश्वासन और शपथ ग्रहण, चुनावी हास्यफल, सोशल मीडिया शिक्षा केंद्र, मैं कुर्सी हूं, सेटिंग, पुस्तक मेला में पुस्तक विमोचन, हाय हाय हिन्दी, अरे थोड़ा ठहरो बापू, जिन्ना चचा का इंटरव्यू, फेसबुक पर रोजनामचा जैसे मजेदार रोजमर्रा के सर्वस्पर्शी विषयो पर सहज कलम चलाने वाले का नाम है विनोद कुमार विक्की. आशा है कि किताब पाठको को भरपूर मनोरंजन देगी, यद्यपि जो मूल्य ३९५ रु रखा गया है, उसे देखते हुये लगता कि प्रकाशक का लक्ष्य किताब को पुस्तकालय पहुंचाने तक है.

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 28 – गुदड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  इस भौतिकवादी  स्वार्थी संसार में ख़त्म होती संवेदनशीलता पर एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “गुदड़ी”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 28 ☆

☆ लघुकथा – गुदड़ी ☆

अमरनाथ और भागवती दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन यापन कर रहे थे। उनका एक बेटा सरकारी नौकरी पर था। बड़े ही उत्साह से उन्होंने अपने बेटे का विवाह किया। बहू आने पर सब कुछ अच्छा रहा, परंतु वही घर गृहस्थी की कहानी।  बूढ़े मां बाप को घर में रखने से इनकार करने पर बेटे ने सोचा मां पिताजी को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं। और कभी कभी देखभाल कर लिया करेंगे।

अमरनाथ और भागवती बहुत ही सज्जन और पेशे से दर्जी का काम किया करते थे। भागवती ने बचे खुचे कपड़ों से एक गुदड़ी बनाई थी। जिसे वह बहुत ज्यादा सहेज कर रखती थी। हमेशा अपने सिरहाने रखे रहती थी। जब वृद्ध आश्रम में जाने को तैयार हो गए तो बेटे ने कहा…. तुम्हें घर से कुछ चाहिए तो नहीं। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटे मुझे मेरी गुदड़ी दे दो। जो मैं हमेशा ओढती हूं।  बेटे को बहू ने टेड़ी नजर से देखकर कहा.. वैसे भी यह गुदड़ी हमारे किसी काम की नहीं है, फेंकना ही पड़ेगा दे दो। फटी सी गुदड़ी को देख अमरनाथ भी बोल पड़े.. क्यों ले रही हो जहां बेटा भेज रहा है। वहां पर कुछ ना कुछ तो इंतजाम होगा। परंतु भागवती अपनी गुदड़ी को लेकर गई।

वृद्ध आश्रम पहुंचने पर मैनेजर ने उन दोनों को रख लिया और सभी वृद्धजनों के साथ रहने को जगह दे दी। दोनों रहने लगे।

कुछ दिनों बाद इस सदमे को अमरनाथ बर्दाश्त नहीं कर सके और अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। बेटे ने खर्चा देने से साफ मना कर दिया। अस्पताल में खर्च को लेकर वृद्धा – आश्रम वालों भी कुछ आनाकानी करने लगे। तब भागवती ने कहा.. आप चिंता ना करें पैसे मैं स्वयं आपको दूंगी। उन्होंने सोचा शायद  बुढ़ापे की वजह से ऐसा बोल रही हैं।

भागवती ने अपनी गुदड़ी एक तरफ से सिलाई खोल नोटों को निकालने लगी। जो उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में बचाकर उस गुदड़ी पर जमा कर रखी थी। सभी आश्चर्य से देखने लगे अमरनाथ जल्द ही स्वस्थ हो गए। पता चला कि खर्चा पत्नी भागवती ने अपने गुदड़ी से दिए।

उन्होंने आश्चर्य से अपने पत्नी को देखा और कहा.. तभी मैं कहूं कि रोज  गुदड़ी की सिलाई कैसे खुल जाती है और रोज उसे क्यों सिया  किया जाता है। अब समझ में आया तुम वास्तव में बहुत समझदार हो। भागवती ने  हंस कर कहा.. घर के कामों में बच  जाने के बाद जो बचत होती थी मैं भविष्य में नाती पोतों के लिए जमा कर रही थी, परंतु अब बेटा ही अपना नहीं रहा। तो इन पैसों का क्या करूंगी। यह आपकी मेहनत की कमाई आपके ही काम आ गई।

स्वस्थ होकर दोनों वृद्ध आश्रम को ही अपना घर मानकर रहने लगे। बेटे को पता चला उसने सोचा मां पिताजी को घर ले आए उसके पास और भी कुछ सोने-चांदी और रुपए पैसे होंगे। परंतु अमरनाथ और भागवती ने घर जाने से मना कर दिया उन्होंने हंसकर कहा मैं और मेरी ‘गुदड़ी’ भली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 25 – व्यंग्य – प्रमोशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक व्यंग्य “प्रमोशन। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 25 ☆

☆ व्यंग्य – प्रमोशन  

प्रशासनिक अधिकारियों को दिए जाते हैं टारगेट …….।  टारगेट पूर्ति करा देती है प्रमोशन।

सरकार ऊपर से योजनाएँ अच्छी बनाकर भेजती है पर टारगेट के चक्कर में मरते हैं बैंक वाले या गरीब या किसान………….

शासकीय योजनाओं में एक योजना आई थी आई आर डी पी ( Integrated Rural Development Programme (‘IRDP)। गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के लिए योजना अच्छी थी पर जिला स्तर पर, और ब्लाक स्तर पर अधिकारियों, कर्मचारियों और बैंक वालों का सात्विक और आत्मिक को-आर्डिनेशन नहीं बनने से यह योजना असफल सी हो गयी। ज्यादातर लोन डूब गए तो बाद में लोग ‘IRDP‘ को कहने लगे “इतना रुपया तो डुबाना ही पड़ेगा” 

योजना असफल होने में एक छुपी हुई बात ये भी थी कि इस योजना में जो भी आई ए एस अपना एनकेन प्रकारेण टारगेट पूरा कर लेता था उनकी सी आर उच्चकोटि की बनती थी और उनका प्रमोशन पक्का हो जाता था और इधर बैंक वालों के लिए लोन देना आफत बन जाता था। हरित-क्रांति और सफेद-क्रांति का पलीता लगने के ये भी कारण रहे होंगे,शायद।

एक बार शासकीय योजनाओं में जबरदस्ती लोन दे देने का फैसला लेने वाली  आए ए एस मेडम का किस्सा याद आता है। मेडम ने अपना टारगेट पूरा करने का ऐसा प्रेशर बनाया कि जिले के सब बैंक वाले परेशान हो गए।  जिला मुख्यालय में एक होटल में मींटिग बुलाई गई। सब बैंकर रास्ता देखते रहे। वे दो घन्टे मींटिग में लेट आईं।  सबने देखा मेडम की ओर देखा। आजू बाजू बैठे लोगों ने फुसफुसाते हुए कहा लगता है पांव भारी हैं। यहाँ तक तो ठीक था और सब बैंकर्स मीटिंग में होने वाली देरी से चिंतित भी लगे कि शाखा में सब तकलीफ में होंगे।  स्टाफ कम है, बिजली नहीं रहती, जेनरेटर खराब रहा आता है। खैर,  मीटिंग चालू हुई तो सब बैंकरों पर मेडम इतनी जमके बरसीं कि कुछ लोग बेहोश होते-होते बचे। जबकि बैंकर्स की कोई गलती नहीं थी। मेडम हाथ धोकर बैंकर्स के पीछे पड़ गईं बोली – “मुझे मेरे टारगेट से मतलब है। ऐरा गैरा नथ्थू  खैरा, किसी को भी लोन बांट दो, चाहे पैसा वापस आए, चाहे न आए।  हमारा टारगेट पूरा होना चाहिए।“ नहीं तो फलां-फलां किसी भी एक्ट में फंसाकर अंदर किये जाने का डर मेडम ने सबको प्रेम से समझा दिया। मेडम बैंकर्स के ऊपर बेवजह इतनी गरजी बरसीं कि मीटिंग की ऐसी तैसी हो गई।

मेडम के मातहत और अन्य विभागों के लोग भी शर्मिंदगी से धार धार हो गए। उनके विभाग वालों ने भी फील किया कि बैंक वालों की कोई गलती नहीं है। विभागों से प्रकरण बनकर बैंक में जमा भी नहीं हुए और मेडम प्रमोशन के चक्कर में बेचारे बैंक वालों को उटपटांग भाषा में डांट रहीं हैं और धमकी दे रही है।

उनको देख देखकर सबको दया भी आ रही थी पर किया क्या जा सकता था। सातवाँ या आंठवा महीना चल रहा था……….. बाद में पता चला मेडम लम्बी छुट्टी पर जाने वाली हैं इसलिए छुट्टी में जाने के पहले सौ परसेंट टारगेट पूरा करना चाह रहीं हैं। क्यूंकी अभी उनका प्रमोशन भी डयू है।

हालांकि दो साल बाद पता चला कि उनका प्रमोशन हो गया था। पर पूरे जिले के नब्बे परसेंट गरीब और किसान डिफ़ॉल्टर लिस्ट पे चढ़ गए थे। ऐसे में किसान आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या करेगा।

बैकों की दुर्गति और बैंकर्स के हाल!

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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