हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 34 ☆ लॉक डाउन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  समसामयिक एवं प्रेरक आलेख  लाॅकडाऊन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 34 ☆

☆ लाॅकडाऊन ☆

आज हम बड़ी विपत्ति में फंसे हुए हैं। हम क्या पूरा संसार दुनिया इटली, अमेरिका जो एक पावर फुल देश है फ्रांस, जर्मनी, युगांडा सब अपने-आप में एक सम्पूर्णता को बनाए रखे हुए हैं, पर एक  छोटे से वाइरस ने सबको जड़ से हिलाकर रख दिया है हम उससे हार गए हैं। डर कर लाॅकडाऊन हो  गए हैं। हाहाकार मचा हुआ है हर तरफ  अब हमारा बैंक बैलेंस सोना, चांदी, हीरे, बड़ी – बड़ी बिल्डिंग, रेस्टोरेंट, फाईव  स्टार होटल में खाना, एक से एक मंहगे कपड़े, जूते, चैन, फोरव्हीलर सब जहाँ का तहाँ रखा हुआ है हमारे किसी काम का नहीं है। हम एक जोड़ी कपड़ों में अपना समय निकाल रहे हैं। सारी चीजें अलमारी में पड़ी हुई हैं ।क्यों हुआ ऐसा कभी सोचा नहीं – कभी नहीं।

अब जब हमने सोचा ही नहीं तो प्रकृति को सोचना पड़ा है।

देखिए नदियाँ अपने आप साफ स्वच्छ हो चली हैं और झीलों का क्या कहना- सुंदर अठखेलियां कर रही हैं। सड़क – मार्ग, नालियाँ,  गांव,  शहर सभी अपना बेलेंस बना चुके हैं।समाज के सभी ठेकेदारों ने खूब कोशिश की स्वच्छता को बनाए रखने की पर नहीं हो सका प्रकृति ने रास्ता निकाल लिया । सब कुछ अपने आप हो रहा। पशु-पक्षी जो साँस लेने मैं भी अचकचा रहे थे सभी बेहतर उड़ान भरने  लगे हैं। गहरी साँस के साथ ऊँचे – ऊँचे उड़ने लगे हैं एक मानव ही है जो एक छोटे से वाईरस के कारण घर में दबा बैठा है। हम तो बहुत पीछे आते हैं।  बड़े बड़े शहर भी कुछ कर पाए नहीं यहाँ तो नाना पाटेकर का डायलॉग काम कर रहा है “एक मच्छर वाला ” न कर सका वह  वाइरस  ने क्र दिखाया। यह कह सकते हैं  कि हमारे कर्मो का ही फल है जो प्रकृति ने हमें दिया है।

अरे अब तक जो हुआ सो हुआ।  अब भी कुछ अच्छे कर्मों से सभी कुछ सुधारा जा सकता है।

धन नहीं, सम्पति नहीं, सभी का सामंजस्य  प्रकृति बना रही है। अच्छा बोलिए, मदद करिए, नियम से रहिए यह आदत जब अपने इस लाॅकडाऊन मे पड़ जाऐगी तो सच मानिए कि फिर कोई भी वायरस हमें छू ही नहीं सकेगा अपनी सुरक्षा हम स्वयं कर सकेंगे।

यदि इस लाॅकडाऊन मे निर्मल मन मदद करने की प्रवृत्ति और नियम को आजमा लिया तो मानकर चलिए हम भी उन बड़े देशों जैसे हो जाएँगे जो आज एक उच्च स्तरीय  के माने – जाने जाते हैं।

कोरोना का डर घर में ही नहीं बल्कि पूरे देश में गांव में भी है गाँव का आदमी बाहर से किसी को अपने गाँव में पहुंचने नहीं देता एकदम रास्ता रोक देता है।

आज प्रकृति मुस्कुरा रही है क्योंकि उसने  सामंजस्य स्थापित कर लिया है और यह मानकर चलिए जब हम लाॅकडाऊन से बाहर होंगे तो हमें भी नियम पालने मे चलने मे असुविधा न होगी

अच्छा सोचिए, अच्छा करिए तब देखिये आप क्या  से क्या  होंगे और हमारा भारत कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा।

हम एक बेहतर पड़ोसी, बेहतर बेटा, बेहतर पिता बनकर तैयार हो जायेगे। और आगे आने वाले सभी समस्याओं का सामना और समाधान निश्चित रूप से कर पाएंगे।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 5 – हकीकत में एक पत्थर हूँ ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता हकीकत में एक पत्थर हूँ . 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 5 –हकीकत में एक पत्थर हूँ ☆

 

मैं अभागा पत्थर पहाड़ों से गिरता पड़ता तलहटी पर आ कर रुक गया,

यहां पहुंचने तक मेरे अनगिनत टुकड़े हो गए,

खुद की दुर्दशा देख खून के आंसू रोता,

तभी कुछ लोगों की नजर मुझ पर पड़ी, पास आकर मुझे देखने लगे ||

 

मैं हतप्रत रह गया लोग मुझे भगवान की स्वयंभू प्रतिमा बताने लगे,

भगवान के नाम का जयकारा लगने लगा,

चारों तरफ लोगों का हुजूम इकट्ठा होने लगा,

लोग मुझे पानी से नहला मंत्रोचारण के साथ माला प्रसादचढ़ाने लगे ||

 

चमत्कारी मूर्ति समझ मेरे दर्शन को लोग दूर-दूर से आने लगे,

तिलक सिंदूर से मेरी पूजा करने लगे,

कुछ लोग नारियल बांध मन्नत मांगने लगे,

कुछ दिनों बाद लोग वापिस आकर नारियल-धागा खोलने लगे ||

 

मन्नत पूरी होने की ख़ुशी में लोग यहां आकर सवामणि करने लगे,

कुछ समझ नहीं आ रहा लोग ये सब क्या करने लगे,

जिस्म का दूसरा टुकड़ा अपनी दुर्दशा पर रो रहा,

रोज नारियल की चोट खाता, लोग उसी पर नारियल फोड़ने लगे ||

 

मुझे बोलता तू तो अब भगवान हो गया, मेरा तो उद्दार कर दे,

क्या करूं भला? मैं खुद हिल नहीं पाता बूत बने खड़ा हूँ,

मैं कुछ नहीं करता, ना जाने कैसे लोगों की मन्नत पूरी होती है,

जिस दिन टूट जाऊँगा, लोग मुझे उठा फेकेंगे फिर में वापिस तेरे जैसा हो जाऊंगा ||

 

लोगों का हुजूम बढ़ता गया  हमेशा भीड़ रहने लगी,

लोगों को भले अन्धविश्वास में, कुछ तो खुशियां मिलने लगी,

लोग मुझे रोज नई पोशाक पहनाते और प्रसाद चढ़ाते,

लोगों की नजर में भगवान हूँ, हकीकत में पत्थर हूँ पत्थर था  पत्थर ही रहूंगा ||

 

प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 42 ☆ ग़ज़ल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  “ग़ज़ल  ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 42 ☆

☆ ग़ज़ल  ☆

 

प्यासी रूह को मुकम्मल करे ऐसा मुनफ़रिद सुराग है यह

यूं फूंककर हवाओं से न बुझाओ कि जलता चराग है यह

 

कांपते दिल को दे जो सुकून, तड़पते लबों को आराम

समझो तो कुछ भी नहीं, समझो तो दहकती आग है यह!

 

वैसे भी बुझाए कहाँ बुझे हैं मोहब्बत के जलते शोले?

धधकती हुई लौ दिल में छुपाये सुलगता अलाव है यह!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 35 ☆ व्यंग्य संग्रह – आप कैमरे की नजर में हैं – श्री हरीश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री हरीश कुमार सिंग जी  के  व्यंग्य -संग्रह  “आप कैमरे की नजर में हैं ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 35 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – आप कैमरे की नजर में हैं 

पुस्तक –  आप कैमरे की नजर में हैं ( व्यंग्य-संग्रह) 

व्यंग्यकार – श्री हरीश कुमार सिंग 

पृष्ठ संख्या  – 128

 ☆  व्यंग्य– संग्रह – आप कैमरे की नजर में हैं – श्री हरीश कुमार सिंग  –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

इस सप्ताह व्यंग्य के सशक्त सुस्थापित हरीश सिंग की नई व्यंग्य कृति नजर अपनी अपनी पढ़ने का अवसर मिला .  अखबारो, पत्र पत्रिकाओ सोशल मीडिया में इनमें से अधिकांश पर मेरी नजर पड़ चुकी हैं . जो व्यंग्यकार केवल १२८ पृष्ठो में ४८ प्रभावी व्यंग्य लिखने की क्षमता रखता है उसे पढ़ना कौतुहल से भरपूर होता है . बड़े कम शब्दो में टू द पाईंट व्यंग्य लिखना हरीश जी की खासियत समझ आती है . वे व्यंग्य समूहो, टेपा सम्मेलन जैसे आयोजनो से जुड़े हुये लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं .संपादको व पाठको को उनके समसामयिक व्यंग्य पसंद आते हैं .

संग्रह  के व्यंग्य विषय देखिये मार्निग वाक, ओपनिंग आफ न्यू हास्पिटल, बच्चों हम शर्मिंदा हैं, अफसर कल्चर, संकट में विचारधारा, व्हाट्सएप, मी टू, आप कैमरे की नजर में हैं, रिश्वत ड़िश्तेदार और राजनीति, हिंदी की विनती, लिव इन रिलेशन, शीर्षक व्यंग्य नजर अपनी अपनी, काव्य गोष्ठी, बिन बाबा चैन कहां, हनी ट्रैप, ये सारे ऐसे विषय हैं जो हमारे परिवेश या बाक्स न्यूज के रूप में हम सबकी नजरों से गुजरे हैं . इन विषयो को अपने मन के डार्करूम में डेवेलप कर एक चित्रमय व्यंग्य झांकी दिखाने का काम घटना के तीसरे चौथे दिन ही हरीश जी की कलम करती रही . फिर संकलित होकर पुस्तक बन गई .

सीमित शब्द सीमा में सहज घटनाओ से उपजी मानसिक वेदना  को वे प्रवाहमान संप्रेषण देते हैं, पाठक जुड़ता जाता है, सरल कटाक्षो का मजा लेता है, जो समझ सकता  है वह व्यंग्य में छिपा अंतर्निहित संदेश पकड़ लेता है, व्यंग्य पूरा हो जाता है .

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 55 – सिद्धेश्वरी के दोहे  ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  शब्दों पर आधारित अप्रतिम  “ सिद्धेश्वरी के दोहे   ।   इस सर्वोत्कृष्ट  प्रयास  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 55 ☆

☆ सिद्धेश्वरी के दोहे 

 

1. भूकंप 

आया भूकंप  धरती फटी, मची त्राहि-त्राहि

सहे प्रकृति का कोप सब, समय सूझे कुछ नाहि

 

2.कुटिया

कहे कबीर कुटिया भली, भवन महल अटारी

दो गज जमीन सोइये, मीठी नींद सवारी

 

3.चौपाल

चौपालों में बैठ दादा, कहते राम कहानी

राज छोड़ वनवास गये, कैकयी टेढ़ी जबानी

 

4.नवतपा

नवतपा की ताप बहुत, हाहाकार मचाय

भरी दोपहरी न निकले, शरीर अपने बचाय

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 55 ☆ श्वासांची दरी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  श्वासांची दरी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 55 ☆

☆ श्वासांची दरी☆

 

का तुझ्या माझ्यात श्वासांची दरी ?

लाव ओठी तू जराशी बासरी

 

सूर कानी मधुर आले कोठुनी

राधिका होते पुन्हा ही बावरी

 

अर्पिली देवा तुला मी ही फुले

अन् सुगंधी होत आहे टोकरी

 

राउळी गेलोच नाही मी कधी

रोज येतो सूर्यनारायण घरी

 

विठ्ठलू जाते जनीचे फिरवितो

भक्तिची माया असे ही ईश्वरी

 

माणिकाचे घालु का मी लोणचे ?

पोट भरण्या लागते रे भाकरी

 

ग्रीष्म मातीने किती हा सोसला

धाडल्या आता सरी तू भूवरी

 

ईद्र देवाची कृपा ही जाहली

रानभर होती पसरली बाजरी

 

घाबरावे अंधकारा का तुला ?

धीर देते ही प्रभा तर केशरी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 10 – ही रैना ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘ही रैना ’ 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 10 ☆ 

☆ ही रैना 

 

ही रैना

नवी नवेली

छैलछबिली

नखरेवाली

अलगद खाली

उतरून आली

तरल पाउली

चरचरावर

टाकीत आपुले

विलोल विभ्रम

मांडित अवघा

रंगरूपाचा

अपूर्व उत्सव

नाचनाचली

रंगरंगली

झिंगझिंगली

झुलत राहिली

 

बापुडवाणी

होऊन

पडली

क्षितीज कडेला

पुन्हा सकाळी

ही रैना

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

बांच सको तो बांच लो ,आंखों का अखबार।

प्रथम पृष्ठ से अंत तक ,लिखा प्यार ही प्यार ।।

 

नयन तुम्हारे वेद सम,  चितवन  है श्लोक ।

पा लेता हूं यज्ञ फल, पलक पुराण विलोक।।

 

नयन देखकर आपके, हुआ मुझे एहसास।

जैसे ठंडी आग में, झुलस रही हो प्यास ।।

 

आंखों के आकाश में, घूमे सोच विचार।

अंत:पुर आंसू बसे, पलके पहरेदार ।।

 

आंखों आंखों दे दिया, मन का चाहा दान।

आंखों में ही डूब कर, हुआ कुंभ का स्नान ।।

 

इन आंखों में क्या भरा, हरा किया जो काठ।।

सहमति हो तो डूब कर, कर लूं पूजा-पाठ ।।

 

खुली आंख देखा किए, दुनिया का दस्तूर ।

अभी अभी जो था यहां, अभी अभी है दूर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 7 – पानी की पीर ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “पानी की पीर ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #7 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ पानी की पीर  ☆

 

एक बहिन  ::  गगरी

कलशा   ::  एक भाई

लौट रही पनघट से

मुदिता भौजाई

 

प्यास बहुत गहरी

पर उथली घडोंची

पानी की पीर

जहाँ गई नहीं पोंछी

 

एक नजर छिछली पर

जगह-जगह पसरी है

सम्हल सम्हल चलती

है  घर  की   चौपाई

 

कमर कमर अँधियारा

पाँव पाँव दाखी

छाती पर व्याकुल

कपोल सदृश पाखी

 

एक छुअन गुजर चुकी

लौट रही दूजी

लम्बाया इंतजार

जो था चौथाई

 

नाभि नाभि तक उमंग

क्षण क्षण गहराती है

होंठों  ठहरी तरंग

जैसे उड़ जाती है

 

इठलाती चोटी है

पीछे को उमड़ घुमड़

आज  इस नई संध्या

जैसे बौराई

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 55 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – लोक शिक्षण ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 55

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – लोक शिक्षण ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

आपके लेखन में प्रारंभ से लोक शिक्षण पर बहुत बल है। कई लोगों का मानना है कि इस उद्देश्य के प्रबल आग्रह के कारण आपके लेखन की साहित्यिक महत्ता या गरिमा क्षतिग्रस्त हुई है, आत्म समीक्षा के एकांत क्षणों में क्या आपको भी ऐसा लगता है ?

हरिशंकर परसाई-

एक तो इसका कारण यह हो सकता है कि मैं 10-12 साल शिक्षक रहा हूं, तो जो मेरे अंदर शिक्षक था, वह मरा नहीं या मैं शिक्षक का ही रोल प्ले करता रहा। मेरे लेखन में लोक शिक्षण है और मैं अभी भी ये मानता हूं कि लोक शिक्षण बहुत आवश्यक है, जो देश में वर्तमान हालात चल रहे हैं उसके लिए मैं उसी बात को दोषी मानता हूं कि राजनैतिक दलों ने,  ट्रेड यूनियन्स ने, विश्वविद्यालयों ने लोक शिक्षण नहीं कराया। लोगों को शिक्षित नहीं किया गया। वैज्ञानिक दृष्टि नहीं दी गई, तर्क नहीं दिए गए। इतिहास सही ढंग से नहीं समझाया गया। समाज की रचना को ठीक से नहीं समझाया गया। अन्धविश्वासों को नहीं मिटाया गया, पुरानी परंपराओं के प्रति विरक्ति नहीं पैदा की गई। ये लोक शिक्षण होता है जो वास्तव में नहीं हुआ, हमारे देश में लोक शिक्षण नहीं हुआ, इसलिए हम आज भी देख रहे हैं कि हमारे देश के ऊपर संकट ही संकट हैं। लोक शिक्षण दो प्रकार का होता है, एक तो सीधा, स्पष्ट और दूसरा परोक्ष या सांकेतिक। मेरे लेखन में कहीं शायद सीधा डायरेक्ट कोई शिक्षण आ गया हो, कोशिश मैंने यही की है कि परोक्ष रूप से शिक्षण करूं, अपने व्यंग्य के द्वारा या स्थितियों का चित्रण करके मैं रख दूं और उससे पढ़ने वाला शिक्षक हो जावे, ये मैंने कोशिश की। अब इससे मेरे साहित्य की मौलिकता घटी या बढ़ी है, मैं नहीं कह सकता हूं,  हो सकता है घटी हो, मान लेता हूं, परन्तु मैं लोक शिक्षण को साहित्य में आवश्यक मानता हूं।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

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