मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 27 – ईश स्तवन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  ईश्वर की स्तुति  स्वरुप  भजन/कविता   “ईश स्तवन” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 27 ☆ 

 ☆ ईश स्तवन

 

नित्य मागतो मी दाता, शुध्द राहो तन मन।

द्वैत बुद्धी त्यागुनिया स्थिर व्हावे अंतःकरण ।।धृ।।

 

मना मनांच्या तारांचे, यावे प्रेमळ झंकार।

खुंट्या भेदाच्या आवळी, ऐक्य गीत आविष्कार ।

स्वार्थ त्यागुनिया लाभो सम बुद्धी अधिष्ठान न।।१।।

 

नको लालसा नि धन शमवावी चित्तवृत्ती।

श्रमाप्रती राहो प्रीती, हीच ऐश्वर्य संपत्ती।

साद ऐकुनिया धावे, ऐसे देई प्रिय जन।।२।।

 

देव, देश, धर्मा प्रती, मनी वाढवावी गोडी।

साधुसंत संतीला,  आणि सज्जनांची जोडी।

वैऱ्याचेही  व्हावे मनी, मज अभिष्ट चिंतन।। ३।।

 

जीव जीवा लावणाऱ्या, सोबत्यांचा संगे मेळा।

बळ देतील लढण्या, सुख दुःखाच्याही वेळा।

होती आनंद सोहळा, असे स्वर्गीय जीवन।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #28 – संवेदना ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संवेदना”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 28 ☆

☆ संवेदना

संवेदना एक ऐसी भावना है जो मनुष्य मे ही प्रगट रूप से विद्यमान होती है. मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है क्योंकि उसमें संवेदना है. संवेदनाओं का संवहन, निर्वहन और प्रतिपादन मनुष्य द्वारा सम्भव है, क्योंकि मनुष्य के पास मन है. अन्य किसी प्राणी में संवेदना का यह स्तर दुर्लभ है. संवेदना मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त गुण है. पर वर्तमान मे   भौतिकता का महत्व दिन दूने रात चौगुने वेग से विस्तार पा रहा है और तेजी से मानव मूल्यों, संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है. मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है, बहुधा संवेदनशील मनुष्य समाज में  बेवकूफ माना जाने लगा है. संवेदनशीलता का दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है. स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है. अपने सुख दुःख, इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है. अपने क्षुद्र, त्वरित सुख के लिए किसी को भी कष्ट देने में हमारी झिझक तेजी से समाप्त हो रही है. प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज तथा देश को विघटन की ओर अग्रसर कर रही है.

आज जन्म  के साथ ही बच्चे को एक ऐसी  व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन के जन्म तक ले पाना सम्भव नही. आज शिक्षा,चिकित्सा, सुरक्षा, सारी की सारी सामाजिक व्यवस्था  पैसे की नींव पर ही रखी हुई दिखती है.हमारे परिवेश में प्रत्येक चीज की गुणवत्ता  धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है.  इसलिये सबकी  सारी दौड़, सारा प्रयास ही एक मार्गी,धनोन्मुखी हो गया है. सामाजिक व्यवस्था बचपन से ही हमें भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे, श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. हम भूल गये हैं कि धन  केवल जीवन जीने का माध्यम है. आज  मानव मूल्यों का वरण कर, उन्हें जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण के सद्प्रयास की कमी है. किसी भी क्षेत्र मे शिखर पर पहुँच कर, अपने उस गुण से  धनोपार्जन करना ही एकमात्र जीवन उद्देश्य रह गया प्रतीत होता है. आज हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के संवेदनशील भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा दिखता है. हमें अपने आस पास सबको पछाड़ कर सबसे आगे निकल जाने की जल्दी है. इस अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिये साम दाम दंड भेद, प्रत्येक उपक्रम अपनाने हेतु हम तत्पर हैं. संवेदनशील होना दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है.सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना बन गया हैं. संवेदनशीलता, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन कर रह गई हैं.

पहले हमारे आस पास घटित दुर्घटना ही हम भौतिक रूप से देख पाते थे और उससे हम व्यथित हो जाते थे, संवेदना से प्रेरित, तुरंत मदद हेतु हम क्रियाशील हो उठते थे. पर अब टी वी समाचारों के जरिये हर पल कहीं न कहीं घटित होते अपराध, व हादसों के सतत प्रसारण से हमारी  संवेदनशीलता पर कुठाराघात हुआ है.. टी वी पर हम दुर्घटना देख तो सकते हैं किन्तु चाह कर भी कुछ मदद नही कर सकते. शनैः शनैः इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी से बड़ी घटना को भी अब अपेक्षाकृत सामान्य भाव से लिया जाने लगा है. अपनी ही आपाधापी में व्यस्त हम अब अपने आसपास घटित हादसे को भी अनदेखा कर बढ़ जाते हैं.

ऐसे संवेदना ह्रास के समय में जरूरी हो गया है कि हम शाश्वत मूल्यों को पुनर्स्थापित करें, समझें कि सच्चरित्रता, मानवीय मूल्य, त्याग, दया, क्षमा, अहिंसा, कर्मठता, संतोष, संवेदनशीलता यदि व्यक्तिव का अंग न हो तो मात्र धन, कभी भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #25 – क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 25☆

☆ क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆

(हाल  ही में भारत ने वेस्टइंडीज से टी-20 क्रिकेट शृंखला जीती है। इसी परिप्रेक्ष्य में टी-20 और जीवन के अंतर्सम्बंध पर टिप्पणी करती *संजय उवाच* की इस कड़ी का पुनर्स्मरण हो आया। मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।)

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। इच्छाओं की गेंदबाजी पर दायित्व बल्ला चला रहा है। अंपायरिंग करता काल सनद्ध है कि जरा-सी गलती हो और मर्त्यलोक का एक और विकेट लपका जाए। दुर्घटना, निराशा, अवसाद, आत्महत्या, हत्या आदि क्षेत्ररक्षण कर रहे हैं। मारकेश की वक्र-दृष्टि-सी विकेटकीपिंग, बोल्ड, कैच, रन आउट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू., हिट-विकेट…,अकेला जीव, सब तरफ से घिरा हुआ जीवन के संग्राम में!

महाभारत में उतरना हरेक के बस का नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के चक्कर में 15वें-16वें ओवर तक अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह स्कोरबोर्डरूपी समय तय करेगा। तुम रिस्क लो, रन बटोरो, रन-रेट अपने नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि पूरे 20 ओवर खेल सको पर अंतिम गेंद तक खेलने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, स्ट्रैटेजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा-निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, क्षेत्ररक्षक और अंपायर तो तैयार हैं ही!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 28 – व्यंग्य – टेलीफोन के कुछ खास फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज का व्यंग्य  है  टेलीफोन के कुछ खास फायदे।  टेलीफोन के कुछ ख़ास फायदे तो आपको भी मालूम हैं किन्तु, डॉ परिहार जी की भेदी दृष्टी ने जो कुछ देखा और शोध किया है उससे आपको निश्चित ही ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा जिसकी कल्पना मात्र से आपके होश उड़ जायेंगे । ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 28 ☆

☆ व्यंग्य – टेलीफोन के कुछ खास फायदे ☆

इस बात से भला कौन इनकार करेगा कि टेलीफोन आज के ज़माने की नेमत है। आदमी दुनिया में कहीं भी बैठा हो,तत्काल बात हो जाती है। यह आज के युग का चमत्कार है।

लेकिन टेलीफोन के जो फायदे अमूमन सबको दिखाई पड़ते हैं उनके अलावा भी कुछ फायदे हैं जिनको मेरी भेदी दृष्टि ने पकड़ा है।

टेलीफोन आज इसलिए वरदान है क्योंकि आज आदमी आदमी का मुँह नहीं देखना चाहता। अब आपसे सटा हुआ पड़ोसी भी आपसे टेलीफोन पर बात करता है। शहरों में यह हाल है कि पड़ोसी पड़ोसी को न पहचानता है, न पहचानना चाहता है। बाहर कहीं पार्टी वार्टी में मिल जाएं तभी परिचय होता है। पड़ोसी को कोई पीटे या लूटे तो संभ्रान्त जन खिड़की नहीं खोलते। ऐसे में जब पड़ोसी की सूरत देखना गवारा न हो तो मजबूरन बात करने के लिए टेलीफोन से बेहतर क्या हो सकता है?बात भी हो जाए और मनहूस सूरत भी न देखना पड़े।

पहले आदमी की तबियत ऐसी थी कि आसपास आदमियों को देखे बिना कल नहीं पड़ती थी। किसी के भी घर कभी भी पहुँच गये—‘मियाँ, क्या हो रहा है?’ मेरे एक मित्र के पिताजी के दोस्त उनके घर पंद्रह बीस साल तक लगातार  नाश्ता करने आते रहे और किसी को कभी कुछ अटपटा नहीं लगा। नाश्ता करने के बाद वे इत्मीनान से अखबार पढ़कर विदा होते थे। ऐसे लोगों को टेलीफोन की दरकार नहीं थी। अब हालत यह है कि घर में कोई दो दिन रुक जाए तो घर की चूलें हिलने लगती हैं। इसलिए संबंध रखने के लिए टेलीफोन ही भला।

टेलीफोन से दूसरा फायदा यह है कि अब दूसरे के घर पहुँचने पर होने वाली अड़चनों से बचा जा सकता है। किसी के घर पहुँच जाओ तो उसे लोकलाज के लिए चाय वाय के लिए पूछना पड़ता है। अ  जैसे जैसे रिश्ते दुबले हो रहे हैं, चाय पिलाना फालतू काम बन रहा है।चाय पिलाने के भी तरह तरह के नमूने देखने को मिलते हैं, जैसे एक जगह सुनने को मिला, ‘हमने अभी अभी चाय पी है, आप पियें तो बनवा दें।’ दूसरी जगह सुना, ‘हम तो चाय पीते नहीं, आप कहें तो आपके लिए बनवा दें।’ एक जगह ऐसा हुआ कि एक घंटे तक कोरे पानी पर वार्तालाप चलने के बाद जब उठने लगे तब गृहस्वामी ने फरमाया, ‘अरे आपको चाय वाय के लिए तो पूछा ही नहीं, थोड़ा और बैठिए न।’ ऐसे रिश्तों के लिए टेलीफोन बढ़िया संकटमोचन है।

टेलीफोन का एक बड़ा फायदा यह है कि वह हमें मेज़बान के कुत्तों से बचाता है, जो मेहमानों के स्वागत के लिए हमेशा आतुर रहते हैं। कई घरों में घंटी बजाने पर आदमी से पहले कुत्ता जवाब देता है।गेट खुला हो तो कुत्ते का मधुर स्वर दिल की धड़कनें बढ़ा देता है।भीतर बैठिए तो वह पूरे समय सूँघता हुआ आसपास घूमता रहेगा और मेहमान का पूरा वक्त टाँगें सिकोड़ते और पहलू बदलते ही जाता है। इसीलिए बहुत से लोग किसी घर में घुसने से पहले भयभीत स्वर में आसपास के लोगों से पूछते देखे जाते हैं—–‘घर में कुत्ता तो नहीं है?’

अब गाँव में भी टेलीफोन पहुँच गया। गाँव में टेलीफोन सस्ता पड़ता है, इसलिए सब खाते-पीते घरों में टेलीफोन मिल जाएगा। इससे नुकसान यह हुआ कि गाँव में जो मिलना जुलना होता रहता था वह कम हो गया।वहाँ टेलीफोन का उपयोग ऐसे कामों के लिए होता है जैसे, ‘आम का अचार हो तो थोड़ा सा भेज देना’ या ‘तीन चार टमाटर पड़े हों तो भेज देना, शाम को खेत से मँगवा लेंगे।’

टेलीफोन और दृष्टियों से भी उपयोगी है।आज हैसियत वाले घरों में कार खरीदने की होड़ मची है, भले ही वह महीने में एक ही बार चले। कार खरीदने के बाद उसकी सुरक्षा में नींद हराम होती है। कार खरीदने के बाद याद आता है कि उसे रखने के लिए घर में माकूल जगह नहीं है। ऐसे में आधी रात को थाने में फोन बजता है, ‘पुलिस स्टेशन से बोल रहे हैं?’

उधर से अलसायी आवाज़ आती है, ‘हाँ जी, फरमाइए।’

जवाब मिलता है, ‘देखिए जी, हमारे घर की चारदीवारी फाँदकर तीन चार लोग अन्दर आकर कार के पहिये खोल रहे हैं। फौरन आ जाइए। हम खिड़की से उन पर नज़र रखे हैं।’

दस मिनट बाद फिर फोन बजता है, ‘भाई साब, उन्होंने दो पहिये खोल लिये। आप कब आओगे?’

जवाब मिलता है, ‘आपने पता तो बताया नहीं। कहाँ पहुँचें?’

फोन करनेवाला पता बताता है।पुलिसवाले सलाह देते हैं, ‘आप फोन पर हमसे जोर जोर से बोलिए।वे सुनकर भाग जाएंगे।’

जवाब मिलता है, ‘हम तो जोर से ही बोल रहे हैं, लेकिन वे तो अपने काम में लगे हैं।उन पर कोई असर नहीं हो रहा है।’

थोड़ी देर में थाने में फिर फोन बजता है, ‘भाई साहब, आप आये नहीं?वे चारों पहिये लेकर भाग गये।’

जवाब मिलता है, ‘अब भाग ही गये तो हम आधी रात को भटक कर क्या करेंगे?सबेरे आकर रिपोर्ट लिखा देना।’

इस तरह  बदलते समय में टेलीफोन के नये नये फायदे उजागर हो रहे हैं।इस सिलसिले में और इजाफा होने की पूरी संभावना है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 2 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 2 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – जन्म लेने के बाद सोलहवां बसंत आते आते पगली का विवाह हो गया, पगली की डोली  ससुराल की तरफ बढ़ चली।  अब आगे पढ़े——–)

जब पगली की डोली मायके से चली तो वह कल्पना लोक के  सतरंगी इन्द्रधनुषी संसार में खोई हुई थी। जहाँ एक तरफ घर गाँव माँ-बाप का साथ छूटने की पीड़ा थी तो दूसरी तरफ ससुराल में नवजीवन के सुखों की कल्पना उसके मन के किसी कोने से झांक रही थी। लेकिन उसने अपने भविष्य की कोई कल्पना नही की थी कि भविष्य के गर्भ में पल रहा दुर्भाग्य रूपी अजगर उसकी खुशियाँ लीलने की ताक में बैठा है। उसकी डोली सर्पीली पगडंडियों से होती हुई ससुराल पहुँच कर गाँव के बाहर बने एक मंदिर परिसर में जा कर रूक गई थी। और उस परिसर के अगल बगल छोटे छोटे बच्चे-बच्चियाँ नई नवेली दूल्हन देखने की चाह में डोली के आसपास मंडरा रहे थे। नई दूल्हन का चेहरा देखने की चाह दिल में मचल रही थी।

कभी कभी कोई बच्चा या बच्ची शरारतवश डोली का पर्दा हटाता तो पगली शर्मो हया  से लाज की गठरी बन डोली के कोने में सिमट जाती।

अब गाँव घरों की महिलाओं ने उसे देवी माई के दर्शन कराये, दूधों नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद दिया, अरमानों के सागर में गोते लगाती पगली की डोली उसके ससुराल में आ लगी थी। जहाँ पगली का भविष्य उसका ही इंतजार कर रहा था।

उस दिन नई बहू का स्वागत बुजुर्ग महिलाओं तथा नव यौवनाओं ने हर्षोल्लाष के साथ मंगल गीतों से किया था।

उस समय पगली अपने भाग्य पर इतरा उठी थी, वह अपनी कर्मनिष्ठा मृदुल व्यवहार से ससुराल में सबकी आंखों का तारा बन बैठी थी। गाँव की महिलायें उसके रूप सौन्दर्य तथा प्रेम व्यवहार की कायल हो गई थी वे उस का गुणगान तथा सास ससुर के भाग्य की सराहना करते थकती नहीं थी। उसने अपने स्नेह व्यवहार से सबका मन जीत लिया था, वह बच्चों की प्यारी मीठी बातों से खिलखिलाती हंस पड़ती, तो मानो वह अपने बचपने के दिनों में वापस चली जाती।

अब पगली की जिंदगी में वह दिन भी आया, जिस का  इंतजार हर नई नवेली दूल्हन करती है। उसके ससुराल में सुहाग रात की तैयारियां जोर शोर से चल रही थी, और पगली पिया मिलन की आस मन में लिए अपने भविष्य का ताना बाना बुनने मे व्यस्त थी। सारे घर आंगन को गाय के गोबर से लीपा पोता गया था। आंगन मेंजौ  के आटे से चौक पूरा गया, तुलसी और चंद्रमा की पूजा के साथ भगवान सत्यनारायण की कथा भी हुई। गाँव की नव वधुओं ने ढोलक की थाप पर मंगल गीत भी गाये, उस दिन मित्रों, रिश्तेदारों तथा समाज के लोगों को सुस्वादु भोजन के साथ बहू भोज भी दिया गया, लोगों ने उसके मंगल भविष्य की मंगल कामना भी की, महिलाओं ने पुत्रवती अखंड सौभाग्यवती  होने का आशीर्वाद दिल से दिया, उस समय उसके ससुराल में संपन्नता अपनी चरम सीमा पर थी, उसकी ननदों  तथा भाभियों ने उसकी सुहाग सेज को बेला और गुलाब की लड़ियों से सजाया, सुहाग सेज पर बिछी बेला और गुलाब की पंखुड़िया कोमल स्पर्श  नर्म एहसास दिलानें को आतुर थी।  उसमें सबके अरमानों की खुश्बू समाहित थी।

अब दिन ढलता जा रहा था।  शाम होने को आई।  उसको उस पल का पल-पल इंतजार था जिसकी कामना हर दुल्हन करती है।  अपने दिल में अरमानों की माला लिए तथा आंखों मे रंगीन सपने सजाये सुहाग सेज के निकट जमीन पर बैठी पगली अपने साजन के आने का इंतजार नींद से बोझिल आंखों से कर रही थी।

दरवाजे पर होने वाली हर आहट पर उसकी धड़कन बढ़ जाती, उसका इंतजार खत्म नही हुआ, बल्कि उसकी घड़ियाँ लम्बी होती चली गई। रात आधी बीतते। उसका मन किसी अज्ञात भय आशंका से कांपने लगा था। वह पिंजरे में कैद मैंना पक्षी की तरह छटपटा उठी थी।

एक तरफ वह भय आशंका से ग्रस्त हो छटपटा  रही थी।  दूसरी तरफ उसका पती सुहागरात रंगीन बनाने के लिए मित्रों के साथ जाम पे जाम टकराये जा रहा था।  इसकी पगली को भनक भी नही लगी थी। वह जब भी उठने का प्रयास करता मित्र मंडली आग्रही बन उसे रोक लेती और फिर एक बार पीने पिलाने का नया दौर शुरू हो जाता।  नशा हर पल गहरा होता जा रहा थ।  आधी रात के बाद पति महोदय ने नशे में झूमते झामते सुहाग कक्ष में दस्तक दी। लेकिन, सुहाग कक्ष की देहरी पार नही कर सके थे।  नशे की अधिकता से भहरा कर देहरी पर ही गिर पड़े थे।  यह सब देख पगली का हृदय दुख और पीड़ा से हाहाकार कर उठा था।  वह आने वाले भविष्य की दुखद कल्पना कर रो उठी थी। फिर भी अपनी कोमल बाहों से सहारा दे अपने पति को सुहाग सेज तक लाने का असफल प्रयास किया था।

लेकिन भारी शरीर संभालने में खुद गिरते-गिरते बची थी।  नशे की अधिकता से एक बार वह फिर लड़खड़ाया था और गिर गया था।  देहरीं पर पंहुच कर सुहाग सेज तक, नशे में बंद अधखुली आंखों से उसे सुहाग सेज मीलों दूर नजर आ रही थी, जिसे वह हाथ बढ़ा कर छूना चाहता था।

अब एक बेटी अपने अरमानों का गला घोंटे जाने  पे रोने के सिवा कर ही क्या सकती थी? ऐसे में उसकी पीड़ा समझने वाला सिवाय गोविन्द के और कौन हो सकता था।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -3 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 13 – क्या खोया क्या पाया ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना क्या खोया क्या पाया अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 13 – विशाखा की नज़र से

☆ क्या खोया क्या पाया   ☆

 

फिर एक साल बीत रहा

गणना का अंक जीत रहा

इस बीतते हुए वर्ष में

जीवन की उथल -पुथल में

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया …

 

नव विचारों का घर बनाया

पुराने को दूर भगाया

उघड़े चुभते बोलों से

सच को समक्ष लाया

सच के इस भवन में

ऐ ! मेरे मन तूने ,

क्या खोया ,क्या पाया ….

 

फिर से दिन वही आएंगे

क्रम से त्यौहार चले आएँगे

इतने रंग-बिरंगी उत्सवों में

अपने रंग -ढंग छुपाए

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया ..

 

इमारते गढ़ती जाए

आसमां को छू वो आए

नए परिधान में लिपटे हम

हर जगह घूम कर आएँ

इस घूम -घुम्मकड़ जग में

इन भूलभुलैया शहर में

सपनों की उठती लहर में

गोते लगाए मन तूने

क्या खोया क्या पाया

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य # 3 ☆ कविता – अप्सरा . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर कविता  अप्सरा . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #3 ☆ कविता – अप्सरा . . .☆ 

बादलो से झांकती  धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं ,

जब भी मिलती है शरमाया करती हैं ,

अपने आँचल में तारों को रखती हैं ,

चंचल चितवन चंचल सा मन रखती हैं ,

आँखों से जैसे शरारत झलकती हैं ,

गलियों से जब भी गुजरती हैं ,

खुशबू से आँगन भरती हैं ,

जब भी मुझसे बातें करती हैं ,

कानों में जैसे रस घोलती हैं ,

हर झरोखे से झांकती नज़र ,

बस उसको ही देखा करती हैं ,

हाँ वो अप्सरा सी लगती हैं ,

पर ख्वाबों में ही आया करती हैं ,

बादलो से झांकती धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं . . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 21 – अनसुलझा सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अनसुलझा सच।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 21 ☆

☆ अनसुलझा सच 

 

रामायण के विषय में सोचने, उसे दर्शाने और भगवान राम के जीवन ने शिक्षा प्राप्त करने के अनंत तरीके है । जीवन के दर्शन के रूप में रामायण की एक व्याख्या निम्न है :

‘रा’ का अर्थ है ‘प्रकाश’, और ‘म’ का अर्थ है ‘मेरे भीतर, मेरे दिल में’ । तो, राम का अर्थ है मेरे भीतर प्रकाश।

राम दशरथ और कौशल्या से पैदा हुए थे।

दशरथ का अर्थ है ‘दस रथ’। दस रथ, ज्ञानेन्द्रियाँ (पाँच ज्ञान के अंग) और कर्मेन्द्रियाँ (क्रिया के पाँच अंग) का प्रतीक है। कौशल्या का अर्थ है ‘कौशल’ । दस रथों के कुशल सवार ही भगवान राम को जन्म दे सकते हैं।

जब दस रथों का कुशलता से उपयोग किया जाता है, तो प्रकाश या आंतरिक चमक का जन्म होता है। भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या का अर्थ है ‘वह जगह जहाँ कभी कोई युद्ध ना हुआ हो और ना होगा’ जब हमारे मस्तिष्क में कोई संघर्ष या युद्ध नहीं होता है, तो आंतरिक चमक अपने आप आ जाती है।

रामायण सिर्फ एक कहानी ही नहीं है जो बहुत पहले सुनी सुनाई या घटी हो।

इसमें दार्शनिक, आध्यात्मिक महत्व और इसमें एक गहरी सच्चाई है। ऐसा कहा जाता है कि रामायण हर समय हमारे शरीर में घटित हो रही है। भगवान राम हमारी आत्मा है, देवी सीता हमारा मस्तिष्क है, भगवान हनुमान हमारे प्राण (जीवन शक्ति) है, लक्ष्मण हमारी जागरूकता है, और रावण हमारी अहंकार है।

जब मन (देवी सीता) अहंकार (रावण) द्वारा चुराया जाता है, तो आत्मा (भगवान राम) बेचैन हो जातेहैं। जिससे आत्मा (भगवान राम) अपने मन (देवी सीता) तक नहीं पहुँच सकते हैं। प्राण (भगवान हनुमान), और जागरूकता (लक्ष्मण) की सहायता से, मस्तिष्क  (देवी सीता) आत्मा (भगवान राम) के साथ मिल जाता है और अहंकार (रावण) मर जाता है।

हकीकत में रामायण हर समय घटित होती एक शाश्वत घटना है।

 

© आशीष कुमार  

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 19 ☆ वैश्विक धर्म समभाव ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “वैश्विक धर्म समभाव”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 19 ☆

☆ वैश्विक धर्म समभाव
जुदा जुदा हैं रंग यहाँ
जुदा जुदा हैं भेस
कोई हिन्दू, मुस्लिम है
कोई सिख, ईसाई वेश।सब रंग की छटाओं से
बनता है हिन्दुस्तान
एकता ही विशालता में
रहता एक है भगवान।

एक रास्ते से चलते हैं
जैसे जुड़ता इंद्रधनुष
आँधी या तूफान हो
हमारा अखंड कल्पवृक्ष।

हरा, नीला या केसरिया हो
रंगे मानवता के रंग से
आओ मिलकर बनाते हैं
वैश्विक धर्म समभाव से।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र”.    नतमस्तक हूँ  डॉ मुक्ता जी की लेखनी का जो  नारी की पीड़ा  जैसे संवेदनशील तथ्यों  पर सतत  लिखकर ह्रदय को उद्वेलित करती हैं ।  चाहे प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की पंक्तियों हों या समाज में हो रही  वीभत्स घटनाएं  उनका संवेदनशील ह्रदय और लेखनी उनको लिखने से रोक नहीं सकती। यदि मैं उन्हें नारी सशक्तिकरण विमर्श की प्रणेता  कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र

हर पल अहसास दिलाती हैं मुझे/ प्रसाद जी की दो पंक्तियां…

‘तुमको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

… और मैं खो जाती हूं अतीत में, आखिर कब तक यह संधि पत्र…जो विवाह की सात भांवरों के समान अटल है, जिसे सात जन्म के बंधन के रूप में स्वीकारा जाता है…लिखा जाता रहेगा। परंतु यह आज के ज़माने की ज़रूरत नहीं है। समय बदल चुका है।भले ही चंद महिलाएं अब नकार चुकी है, इस बंधन को…और पुरुषों की तरह स्वतंत्र जीवन जीने में विश्वास रखती हैं, उन्मुक्त भाव से अपनी ज़िंदगी बसर कर रही हैं…परंतु क्या वे स्वतंत्र हैं … निर्बंध हैं? क्या उन्हें सामाजिक भय नहीं, क्या उन्हें अपने आसपास भयानक साये मंडराते हुए नहीं प्रतीत होते? क्या उन्हें सामाजिक व पारिवारिक प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ता? परिवारजनों का बहिष्कार व उससे संबंध-विच्छेद करने का भय उन्हें हर पल आहत नहीं करता? जिस घर को वह अपना समझती थीं, उसे त्यागने के पश्चात् उन्हें किसी भयंकर व भीषण आपदा का सामना नहीं करना पड़ता? कल्पना कीजिए, कितनी मानसिक यातना से गुज़रना पड़ता होगा उन्हें? क्या किसी ने अनुभव किया है उस मर्मांतक पीड़ा को…शायद! किसी ने नहीं। सब के हृदय से यही शब्द निकलते हैं… ‘ऐसी औलाद से बांझ भली।’ अच्छा था वह पैदा होते ही मर जाती, तो हमारे माथे पर कलंक तो न लगता। देखो! कैसे भटक रही है सड़कों पर…क्या कोई अपना है उसका…शायद इस जहान में वह अकेली रह गई है। सुना था, खून के रिश्ते, कभी नहीं टूटते। परंतु आज कल तो ज़माने का चलन ही बदल गया है।

प्रश्न उठता है…आखिर उसके माता-पिता ने इल्ज़ाम लगा कर उसे कटघरे में क्यों खड़ा कर दिया? उन्होंने उसे उसकी प्रथम भूल समझ कर, उसे अपने घर में पनाह क्यों नहीं दी? परंतु ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि उन्हें अपनी औलाद से अधिक, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा व मान-मर्यादा की परवाह थी, कि ‘लोग क्या कहेंगे’…शायद इसी लिये वे पल भर में उसे प्रताड़ित कर,घर से बेदखल कर देते हैं ताकि समाज में उनका रुतबा बना रहे और उन्हें वहां वाह-वाही मिलती रहे। क्या उन्हें उस  यह ध्यान आता है कि वह निरीह बालिका आखिर जायेगी कहां…क्या हश्र होगा उस की ज़िंदगी का…एक प्रताड़ित बालिका को कौन आश्रय देगा…यह सब बातें उन्हें बेमानी भासती हैं।

आखिर कौन बदल सका है तक़दीर किसी की… इंसान क्यों भुला बैठता है…बुरे कर्मों का फल सदैव बुरा ही होता है। सो! बेटियों को कभी भी घर की चारदीवारी को नहीं लांघना चाहिए। यह उपदेश देते हुए वे भूल जाते हैं कि वह मासूम निर्दोष भी हो सकती है…शायद  किसी मनचले ने उसके साथ ज़बरदस्ती दुष्कर्म किया हो? वे उस हादसे की गहराई तक नहीं जाते और अकारण उस मासूम पर दोषारोपण कर उसे व उनके माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

प्रश्न उठता है…क्या उस पीड़िता ने अपना अपहरण कराया स्वयं करवाया होगा? क्या उसे दुष्कर्मियों का  निवाला बनने का शौक था?क्या उसने चाहा था कि उसकी अस्मत लूटी जाए और वह दरिंदगी की शिकार हो?नहीं… नहीं… नहीं, यह असंभव है। उसके लिए तोउस घर के द्वार सदा के लिए बंद हो जाते हैं।अक्सर उसे बाहर से ही चलता कर दिया जाता है कि अब उनका उस निर्लज्ज से कोई रिश्ता- नाता नहीं। यदि उसे घर में प्रवेश पाने की अनुमति प्रदान कर दी जाती है, तो उसके साथ मारपीट की जाती है, उसे ज़लील किया जाता है और किसी दूरदराज़ के संबंधी के यहां भेजने का फ़रमॉन जारी कर  दिया जाता है, ताकि किसी को कानों-कान खबर न हो कि वह अभागिन बालिका दुष्कर्म की शिकार हुई है।

अब उसके सम्मुख विकल्प होता है… संधिपत्र का, हिटलर के शाही फ़रमॉन को स्वीकारने का…अपने  भविष्य को दांव पर लगाने का… अपने हाथों मिटा डालने का… जहां उसके अरमान,उसकी आकांक्षाएं, उसके सपने पल भर में राख हो जाते हैं और उसे भेज दिया जाता है दूर…कहीं बहुत दूर, अज्ञात- अनजान स्थान पर, जहां वह अजनबी सम अपना जीवन ढोती है। यहां भी उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता… उसे सौंप दिया जाता है, किसी दुहाजू, विधुर पिता-दादा समान आयु के व्यक्ति के हाथों, जहां उसे हर पल मरना पड़ता है। वह चाह कर भी न अपनी इच्छा प्रकट कर पाती है,न ही विरोध दर्ज करा पाती है, क्योंकि वह अपराधिनी कहलाती है,भले ही उसने कोई गलत काम याअपराध न किया हो।

भले ही उसका कोई दोष न हो,परंतु माता-पिता तो पल्ला झाड़ लेते हैं तथा विवाह के अवसर पर खर्च होने वाली धन-संपदा बचा कर, फूले नहीं समाते। सो! उनके लिए तो यह सच्चा सौदा हो जाता है। आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि संबंध तय करने की ऐवज़ में अनेक बार उन्हें धनराशि की पेशकश भी की जाती है, वे अपने भाग्य को सराहते नहीं अघाते। यह हुआ न आम के आम,गुठलियों के दाम। अक्सर उस निर्दोष को उन विषम परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, जो उसके माता-पिता विधाता बन उसकी ज़िंदगी के बही-खाते में लिख देते हैं।

आइए दृष्टिपात करें, उसके दूसरे पहलू पर… कई बार उसे संधिपत्र लिखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िदगी में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है, जहां कोई भी उसकी सुध नहीं लेता। वह हर दिन नई दुल्हन बनती हैं…एक दिन में चालीस-चालीस लोगों के सम्मुख परोसी जाती हैं। यह आंकड़े सत्य हैं… के•बी•सी• के मंच पर,  एक महिला कर्मवीर, जिसने हज़ारों लड़कियों को ऐसी घृणित ज़िंदगी अर्थात् नरक से निकाला था, उनसे साक्षात्कार प्रस्तुत किए गये कि किस प्रकार उन्हें उनके बच्चों का हवाला देकर एक-एक दिन में, इतने लोगों का हम-बिस्तर बनने को विवश किया जाता है…और यह समझौता उन्हें अनचाहे अर्थात् विवश होकर करना ही पड़ता है। ऐसी महिलाओं के समक्ष नतमस्तक है पूरा समाज,जो उन्हें आश्रय प्रदान कर, उस नरक से मुक्ति दिलाने का साहस जुटाती हैं।

वैसे भी आजकल ज़िंदगी शर्तों पर चलती है। बचपन में ही माता-पिता बच्चों को इस तथ्य से अवगत करा देते हैं कि यदि तुम ऐसा करोगे, हमारी बात मानोगे, परीक्षा में अच्छे अंक लाओगे, तो तुम्हें यह वस्तु मिलेगी…यह पुरस्कार मिलेगा।इस प्रकार बच्चे आदी हो जाते हैं, संधि-पत्र लिखने अर्थात् समझौता करने के और अक्सर वे प्रश्न कर बैठते हैं,यदि मैं ऐसा कर के दिखलाऊं, तो मुझे क्या मिलेगा…इसके ऐवज़ में? इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत जारी रहता है। हां! केवल नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना, नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िम हैं। वैसे भी औरत में तो बुद्धि होती ही नहीं, तो सोच-विचार का तो प्रश्न ही कहां उठता है? उदाहरणत: एक प्रशासनिक अधिकारी, जो पूरे देश का दायित्व बखूबी संभाल सकती है, घर में मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन कहलाती है। उसे हर पल प्रताड़ित किया जाता जाता है, सबके बीच ज़लील किया जाता है…अकारण दोषारोपण किया जाता है। यहां पर ही उसकी दास्तान का अंत नहीं होता, उसे विभिन्न प्रकार की शारीरिक व मानसिक यंत्रणाएं दी जाती हैं…ऐसे मुकदमे हर दिन महिला आयोग में आते हैं, जिनके बारे में जानकार हृदय में  ज्वालामुखी की भांति आक्रोश फूट निकलता है और मन सोचने पर विवश हो जाता है,आखिर यह सब कब तक?

हम 21वीं सदी के बाशिंदे…क्या बदल सके हैं अपनी सोच…क्या हम नारी को दे पाए हैं समानाधिकार… क्या हम उसे एक ज़िंदा लाश या रोबोट नहीं समझते … जिसे पति व परिवारजनों के हर उचित-अनुचित आदेश की अनुपालना करना अनिवार्य है… अन्यथा अंजाम से तो आप बखूबी परिचित हैं।आधुनिक युग में हम नये-नये ढंग अपनाने लगे हैं… मिट्टी के तेल का स्थान, ले लिया है पैट्रोल ने, बिजली की नंगी तारों व तेज़ाब से जलाने व पत्नी को पागल करार करने का धंधा भी बदस्तूर जारी है।भ्रूणहत्या के कारण, दूसरे प्रदेशों से खरीद कर लाई गई दुल्हनों से, तो उनका नाम व पहचान भी छीन ली जाती है और वे अनामिका व मोलकी के नाम से आजीवन संबोधित की जाती हैं। मोलकी अर्थात् खरीदी हुई वस्तु… जिससे मालिक मनचाहा व्यवहार कर सकता है और वे अपना जीवन बंधुआ मज़दूर के रूप में ढोने को विवश होती हैं।अक्सर नौकरीपेशा शिक्षित महिलाओं को हर दिन कटघरे में खड़ा किया जाता है। कभी रास्ते में ट्रैफिक की वजह से, देरी हो जाने पर, तो कभी कार्यस्थल पर अधिक कार्य होने की वजह से, उन्हें कोप-भाजन बनना पड़ता है।अक्सर कार्यालय में भी उनका शोषण किया जाता है। परंतु उन्हें अनिच्छा से वह सब झेलना पड़ता है क्योंकि नौकरी करना उनकी मजबूरी होती है। वे यह जानती हैं कि परिवार व  बच्चों के पालन-पोषण व अच्छी शिक्षा के निमित्त उन्हें यह समझौता करना पड़ता है। यह सब ज़िंदगी जीने की शर्तें हैं, जिनका मालिकाना हक़ क्रमशः पिता,पति व पुत्र को हस्तांतरित किया जाता है। परंतु औरत की नियति जन्म से मृत्यु पर्यंत वही रहती है, उसमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं होता।

‘औरत दलित थी,दलित है और दलित रहेगी’ कहने में अतिशयोक्ति नहीं है। वह सतयुग से लेकर आज तक 21सवीं सदी तक शोषित है, दोयम दर्जे की प्राणी है और उसे सदैव सहना है,कहना नहीं…यही  एकतरफ़ा समझौता ही उसके जीने की शर्त है। उसे आंख, कान ही नहीं, मुंह पर भी ताले लगाकर जीना है। वैसे उसकी चाबी उसके मालिक के पास है, जिसे वह बिना सोच-विचार के, अकारण किसी भी पल घुमा सकता है। हर पल औरत के ज़हन में प्रसाद की पंक्तियां दस्तक देकर अहसास दिलाती हैं…जीने का अंदाज से सिखलाती हैं… उसकी औकात दर्शाती हैं  और उसके हृदय को सहनशीलता से आप्लावित करती हैं और वह अपने पूर्वजों की भांति आचार- व्यवहार व ‘हां जी’ कहना स्वीकार लेती हैं क्योंकि नारी तो केवल श्रद्धा है! विश्वास है! उसे आजीवन सब के सुख,आनंद व समन्वय के लिए निरंतर बहना है ताकि जीवन में सामंजस्य बना रहे।

वैसे भी हमारे संविधान निर्माताओं ने सारे कर्त्तव्य अथवा दायित्व नारी के लिए निर्धारित किए हैं और अधिकार प्रदत्त हैं पुरुष को,जिनका वह साधिकार, धड़ल्ले से प्रयोग कर रहा है… उसके लिए कोई नियम व कायदे-कानून निर्धारित नहीं हैं।

पराधीन तो औरत है ही…जन्म लेने से पूर्व, भ्रूण रूप में ही उसे  दूसरों की इच्छा को स्वीकारने की आदत-सी हो जाती है और अंतिम सांस तक वह    अंकुश में रहती है। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ‘ अर्थात्  गुलामी में वह कैसे सुख-चैन की सांस ले सकती है? उसकी ज़िंदगी उधार की होती है, जो दूसरों की इच्छा पर आश्रित है,निर्भर है।

अंततः नारी से मेरी यह इल्तज़ा है कि उसे हंसते- हंसते जीवन में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे…मौन रहकर  सब कुछ सहना होगा।यदि उसने इसका विरोध किया तो भविष्य से वह अवगत है,जो उसके स्वयं के लिए, परिवार व समाज के लिए हितकर नहीं होगा। आइए! इस तथ्य को मन से स्वीकारें,  ताकि यह हमारे रोम-रोम व सांस-सांस में बस जाए और आंसुओं रूपी जल-धारा से उसका अभिषेक होता रहे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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