हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 18 ☆ रूहानियत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “रूहानियत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 18 ☆

☆ रूहानियत

मिटना ही है एक दिन,

मिट ही जायेंगे तेरे बोल!

माती सा तेरा जिस्म,

इसका कहाँ कहीं कोई मोल?

 

आवाज़ का ये जो दरिया है

किसी दिन ये सूख जाएगा;

और ये जो चाँद सा रौशन चेहरा है

अमावस्या में ढल जाएगा!

 

ये जो मस्तानी सी तेरी चाल है,

इसका कहाँ कुछ रह जाएगा?

ये जो छोटा सा तेरा ओहदा है,

ये तो उससे भी पहले ख़त्म हो जाएगा!

 

ये जो तेरी इतराती हुई हँसी है,

ये भी चीनी सी घुल जायेगी;

ये जो बल खाती तेरी अदाएं हैं,

ये तुझसे चुटकी में जुदा हो जायेंगी!

 

सुन साथी, इन बातों पर तू गुमान न कर,

ये सब तो ख़ुदा की ही देन हैं!

सर झुका ले ख़ुदा के आगे,

ये तेरा हर जलवा ख़ुदा का प्रेम है!

 

जिस दिन तू रूहानियत के

कुछ करीब आ जाएगा;

उसी दिन सुन ए साथी,

तू मुकम्मल हो जाएगा!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15☆ वार्तिकायन – स्मारिका 2019 ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है जबलपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘ वर्तिका’ के वार्षिकांक/ स्मारिका   “वार्तिकायन – स्मारिका 2019 पर  श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा ।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15 ☆ 

☆ पुस्तक पर साहित्य चर्चा – वर्तिकायन

पंजीकृत साहित्यिक संस्था वर्तिका की वार्षिक स्मारिका

संपादन – विजय नेमा अनुज, सोहन सलिल, राजेश पाठक प्रवीण, दीपक तिवारी

प्रकाशक – वर्तिका जबलपुर

संस्करण २०१९

 

साहित्य के संवर्धन, साहित्यकारो को एक मंच पर लाने में संस्थागत कार्यो की भूमिका निर्विवाद है. तार सप्तक जैसे संकलन भी केवल साहित्यकारो के परस्पर समन्वय से ही निकल सके थे जो आज हिन्दी जगत की धरोहर हैं. स्मारिका वर्तिकायन ऐसा ही एक समवेत प्रयास है जो वर्तिका के साहित्यकारो को सृजन की नव उर्जा देती हुई मुखरित स्वरूप में वर्तिका के वार्षिकोत्सव में १७ नवम्बर को भव्य समारोह में विमोचित की गई है. पत्रिका की प्रस्तुति, मुद्रण, कागज बहुत स्तरीय है, जिससे संयोजक विजय नेमा अनुज की मेहनत सार्थक हो गई है. वर्तिका के ७६ वरिष्ठ, कनिष्ठ सभी सदस्यो की कवितायें वर्तिकायन में समाहित हैं. स्वामी अखिलेश्वरानंद, सांसद राकेश सिंह जी, विधायक अजय विश्नोई जी, सांसद विवेक तंखा जी, एडवोकेट जनरल शशांक शेखर, वित्तमंत्री श्री तरुण भानोट जी, विधायक लखन घनघोरिया जी, विधायक श्री सुशील तिवारी इंदु, विधायक श्री अशोक रोहाणी, विधायक श्री विनय सक्सेना, व्यवसायी श्री मोहन परोहा, महापौर श्रीमती स्वाति गोडबोले, श्री रवि गुप्ता अध्यक्ष महाकौशल चैम्बर आफ कामर्स, कमिश्नर जबलपुर श्री राजेश बहुगुणा, जिलाधीश श्री भरत यादव, डा सुधीर तिवारी, डा जितेंद्र जामदार, इंजी डी सी जैन डा अभिजात कृष्ण त्रिपाठी, आचार्य भगवत दुबे, श्री अशोक मनोध्या, श्री एम एल बहोरिया, श्री शरद अग्रवाल तथा वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ के शुभकामना संदेश का प्रकाशन यह प्रमाणित करता है कि वर्तिका की समाज में कितनी गहरी पैठ है.

संयोजक श्री विजय नेमा अनुज ने वर्तिका की विजय यात्रा में एक तरह से वर्तिका का सारा इतिहास ही समाहित कर प्रस्तुत किया है. अध्यक्ष सोहन परोहा ने अपने दिल की बात अध्यक्ष की कलम से, में कही है. श्री दीपक तिवारी दीपक, श्री राजेश पाठक प्रवीण, ने अपने प्रतिवेदन रखे हैं. विवेक रंजन श्रीवास्तव ने साहित्यिक विकास में साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका लेख के जरिये अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दु प्रकाश में लाने का सफल प्रयत्न किया है. डा छाया त्रिवेदी ने गुरु पूर्णिमा पर वर्तिका के समाज सेवी आयोजन का  ब्यौरा देकर विगत का पुनर्स्मरण करवा दिया.

इस वर्ष सम्मानित किये गये साहित्यकारो के विवरण से स्मारिका का महत्व स्थायी बन गया है. इस वर्ष साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान हेतु  शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव स्मृति  वर्तिका साहित्य अलंकरण मण्डला से आये हुये श्री कपिल वर्मा को प्रदान किया गया. उक्त अलंकरण श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के सौजन्य से प्रदान किया जाता है.  पान उमरिया से पधारे हुये डा आर सी मिश्रा को एवं  इसी क्रम में मुम्बई के श्री संतोष सिंह को श्री सलिल तिवारी के सौजन्य से उनके पिता स्व श्री परमेश्वर प्रसाद तिवारी स्मृति अलंकरण से सम्मानित किया गया. श्री के के नायकर स्टेंड अप कामेडी के शिखर पुरुष हैं, उन्होने हास्य के क्षेत्र में  जबलपुर  को देश में स्थापित किया है. श्री नायकर को श्रीमती ममता जबलपुरी के सौजन्य से श्रीमती अमर कौर स्व हरदेव सिंह हास्य शिखर अलंकरण प्रदान किया गया. व्यंग्यकार श्री अभिमन्यू जैन को स्व सरन दुलारी श्रीवास्तव की स्मृति में व्यंग्य शिरोमणी अलंकरण दिया गया. इसी तरह श्री मदन श्रीवास्तव को स्व डा बी एन श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण से सम्मानित किया गया. श्री सुशील श्रीवास्तव द्वारा अपने माता पिता स्व सावित्री परमानंद श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण , प्रभा विश्वकर्मा शील को दिया गया. श्रीमती विजयश्री मिश्रा को स्व रामबाबूलाल उपाध्याय स्मृति अलंकरण दिया गया जो श्रीमती नीतू सत्यनारायण उपाध्याय द्वारा प्रायोजित है. श्री अशोक श्रीवास्तव सिफर द्वारा स्व राजकुमरी श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण, श्री संतोष नेमा को उनकी राष्ट्रीय साहित्य चेतना के लिये दिया गया. सुश्री देवयानी ठाकुर के सौजन्य से स्व ओंकार ठाकुर स्मृति कला अलंकरण से श्री सतीश श्रीवास्तव को सम्मानित किया गया. गाडरवाड़ा से पधारे हुये श्री विजय नामदेव बेशर्म को श्री सतीश श्रीवास्तव के सौजन्य से स्व भृगुनाथ सहाय स्मृति सम्मान से अलंकृत किया गया. वर्तिका प्रति वर्ष किसी सक्रिय साथी को संस्था के संस्थापक साज जी की स्मृति में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित करती है, इस वर्ष यह प्रतिष्ठा पूर्ण सम्मान श्री सुशील श्रीवास्तव को प्रदान किया गया. इसके अतिरिक्त श्रीमती निर्मला तिवारी जी को कथा लेखन तथा युवा फिल्मकार आर्य वर्मा को युवा अलंकार से वर्तिका अलंकरण दिये गये. वर्तिका ने सक्रिय संस्थाओ को भी सम्मानित करने की पहल की है, इस वर्ष नगर की साहित्य के लिये समर्पित संस्थाओ पाथेय तथा प्रसंग को सम्मानित किया गया.

“हे दीन बंधु दयानिधे आनन्दप्रद तव कीर्तनम, हमें दीजीये प्रभु शरण तव शरणागतम शरणागतम “, पहली ही रचना प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की है जो मनोहारी प्रभाव अंकित करती है.

श्री ज्ञान चंद्र पंडा की पंक्तियां “ए कायनात मैं तेरा वजूद नापूंगा, मेरी चाहत का परिंदा उड़ान लेता है “, श्री मोहन शशि ने वर्तिका के संस्थापक साज जबलपुरी के प्रति काव्य में अपने उद्गार कहे हैं. किस तरह एक संस्था के माध्यम से  व्यक्ति चिरस्थाई पदचिन्ह छोड़ सकता है, यह बात वर्तिका के ध्वजवाहक साज जबलपुरी जी को स्मरण करते हुये  बहुत अच्छी तरह  अनुभव करते हैं. राजेंद्र रतन ने कम शब्दो में “सरहद पर गूंजी शहनाई गूंजा सारा देश, सैनिक सरहद पर खड़े स्वर सबके समवेत” लिखकर अपनी कलम की ताकत बता दी है. श्रीमती मनोरमा दीक्षित ने “सरसों के फूलो से मधुॠुतु मनाते हम” मधुर गीत रचा है. श्रीमती निर्मला तिवारी की गजल से अंश है “वारों से तेरे खुद को बचाना नहीं आता, खंजर हमें अपनो पे उठाना नहीं आता”, वरिष्ट रचनाधर्मी इंजी अमरेंद्र नारायण की पंक्तियां “लेकिन मानव की जिव्हा तो प्रतिदिन लम्बी होती जाती वह पार जरूरत के जाती वह स्वार्थ तृपति में लग जाती” जिस दिशा में इशारा कर रही है वह मनन योग्य बिंदु है. रत्ना ओझा जी ने “कब्र खोदें राजनीति में एक दूजे की लोग” लिख आज की सचाई वर्णित की है. श्रीमती चंद्र प्रकाश वैश्य ने आजादी शीर्षक से उम्दा रचना प्रस्तुत की है. श्री केशरी प्रसाद पाण्डेय वृहद ने “कृष्ण गली जो भी गया” मनोहारी लेखनी से अपनी बात कही है. श्रीमती प्रभा पाण्डे पुरनम “धुंआ” में कम में ज्यादा अभिव्यक्त करने में सफल हैं. श्री एम एल बहोरिया अनीस की गजल की पंक्तियां उल्लेखनीय हैं” लिपट के मुझसे भी रोने को दिल किया होगा उदास परदे में बेबस वफा रही होगी”. सुभाष जैन शलभ के छंद बेहतरीन हैं. डा सलपनाथ यादव ने मध्यप्रदेश स्थापना दिवस पर काव्य प्रस्तुति की है. डा राजलक्ष्मी शिवहरे ने “गुरु बिन जीवन बिन पतवार हो जैसे नाव” लिखकर गुरु का महत्व प्रतिपादित किया है. श्री सुरेश कुशवाहा तन्मय लिखते हैं “स्वयं से सदा लड़े हैं जग में रहकर भी जग से अलग हम खड़े हैं”. बसंत ठाकुर लिखते हैं “जब जब मिले हैं उनसे यही वाकया हुआ वापस चले तो जाहिल नजर लेके नम चले”..

मदन श्रीवास्तव की “कुंए में भांग”, सतीश कुमार श्रीवास्तव की “प्रकृति”, श्रीमती मिथिलेश नायक की “बिन हरदौल ब्याह न हौबे”, डा मीना भट्ट की पंक्तियां “जमीं पर चांद हमें भी एक नजर आया कि जिसके नूर से हम खुद निखरते जाते हैँ” स्पर्श करती हैं. मनोज कुमार शुक्ल “मन का पंछी उड़े गगन है खुद में ही वह खूब मगन है” सशक्त रचना है. श्री सुशील श्रीवास्तव लिखते हैं “प्यार का दीप जलाओ बहुत उदासी है गीत प्यारा सा गुनगुनाओ  बहुत उदासी है”. श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल “अपना रास्ता बनाना होगा” के जरिये स्वयं को सफलता से अभिव्यक्त करती हैं. श्री राजेंद्र मिश्रा “गंगा माँ तेरी जय जय हो” के साथ उपस्थित हैं.

मनोहर चौबे आकाश ने “प्यार की संभावना का पाश हूं”, राजसागरी ने “सुख और दुख दोनो साथी हैं दोनो को अपनाओ तुम भेदभाव न रहे जगत में ऐसी अलख जगाओ तुम”, श्रीमती राजकुमारी रैकवार ने “मेरी प्यारी लेखनी”, श्री अभय कुमार तिवारी ने लिखा है “हिन्दी उर्दू अंग्रेजी से उत्तर दक्षिण बांट रहे, जिस डाली पर हम बैठे उसी डाल को काट रहे”, शशिकला सेन ने “कली की पीड़ा” को कलम बंद किया है. विजय बागरी ने “तुमसे ही प्रियतम घर मथुरा काशी है”, प्रमोद तिवारी मुनि की गजल से पंक्तियां हैं “जब पहला कदम उठता देखा मेरा, माँ मेरी रात भर मुस्कराती रही” श्रीमती सलमा जमाल लिखती हैं “हम सब हैं ईश्वर के बंदे अब गायें ऐसा गान, मस्जिद में गूंजे आरती गूंजे मंदिरो में अजान”, ऐसी सुखद कल्पना कवि की उदार कलम ही कर सकती है जिसकी राष्ट्र को आज सबसे अधिक जरूरत है. श्रीमती सुशील जैन ने “भ्रूण हत्या” पर सशक्त रचना की हे. श्रीमती किरण श्रीवास्तव ने “बेटी”, श्री सुरेंद्र पवार ने “पानी तेरे नाना रूप”, गणेश श्रीवास्तव ने “कारगिल विजय”, अर्चना मलैया ने “धुंध”, श्री गजेंद्र कर्ण ने “मेरा मन मंदिर बने सदगुरु चरण निवास प्रति पल हो हरि रूप का जप तप प्रेम प्रयास”, विजेंद्र उपाध्याय ने “नर्मदा माँ”, विवेक रंजन श्रीवास्तव ने “मैं” शीर्षक से रचनायें की हैं. नरेंद्र शर्मा शास्त्री ने “बुढ़ापे की व्यथा” लिखी है. श्री उमेश पिल्लई ने “इंतजार” शीर्षक से गहरी बात कही है. सूरज राय सूरज की गजल से उधृत करना उचित होगा “कहा सुबह से ये बुझते हुये दिये ने, मैं सूरज बन के वापस आ रहा हूं”.

श्री अशोक सिफर  ने बड़ी गहरी बात की है वे लिखते हैं “यह इश्क मिजाजी और ये गमगीनी, यह तो पहचान है मुहब्बत होने की”. सलिल तिवारी अपने गीत में शाश्वत सत्य लिखते हैं “प्यार एहसास है, एहसास निभाना सीखो, साजे दिल को इसी सरगम पे बजाना सीखो”. श्रीमती संध्या जैन श्रुति ने “पश्चिम की आंधी”, श्रीमती कृष्णा राजपूत ने “शिक्षक हूं”, श्रीमती सुनीता मिश्रा ने बहुत महत्वपूर्ण बिंदु रेखांकित करती रचना की है वे लिखती हैं “महकी जूही चमेली चम्पा कली आज मेरी बेटी स्कूल चली”. संतोष कुमार दुबे ने “जबलपुर नगर हमारा”, श्रीमती ममता जबलपुरी ने “शब्द शब्द से खेला भावो को अंजाम मिला”, आषुतोष तिवारी ने “अनुमानो से बहुत बड़ा दिन अनुभव की है रात बड़ी”, बसंत शर्मा ने गजल कही है “यूं सूरज की शान बहुत है पर दीपक का मान बहुत हैं”. डा मुकुल तिवारी ने दे”श के नौजवानो आगे बढ़ो”, संतोष नेमा की सशक्त अभिव्यक्ति है “कहां गया माथे का चंदन”, राजेश पाठक प्रवीण लिखते हैं “कभी लगे सुख सागर जैसी कभी गले का हार जिंदगी, कभी दुखो की गागर जैसी और कभी त्यौहार जिंदगी”.  विनोद नयन लिखते हैं “हमदर्दी जताने के लिये लोग यहां पर, हम लोगों के उजड़े हुये घर ढ़ूंढ़ रहे हैं”. अर्चना गोस्वामी “प्यार का बागवां” डा अनिल कुमार कोरी “भूल गया क्यो ?”, विनीता पैगवार ने  “सदगुरु ओशो को समर्पित” रचना प्रस्तुत की है. सपना सराफ ने “कुछ मीठे बोसे हवा हर रोज मुझे दे जाती है” लिखकर गजल को उंचाईयां दी हैं. मनोज जैन ने “यह वर्ण व्यवस्था भंग करो”, प्रभा विश्वकर्मा शील ने “जुगनू”, और आलोक पाठक ने “सच है”, डा आशा रानी ने छोटी सी चाहत की है “कामयाब देखना होकर रहूंगी, मुश्किलो को हराना जानती हूं”. युनूस अदीब जी ने बहुत उम्दा गजल कही है, “जहां को रौशनी देना मजाक नही चराग बनके वो खुद को यहां जलाता है” डा राजेश कुमार ठाकुर ने “गड्ड मड्ड”, अशोक झारिया शफक ने गजल में कहा है “सितम बेवजहा ढ़ाने में तुम्हारे दिन गुजरते हैं, किसी का दिल दुखाने में तुम्हारे दिन गुजरते हैं”, अर्चना जैन अम्बर ने “संघर्ष”, दीपक तिवारी दीपक ने “न जाने कौन सा जादू है उस खुश रंग चेहरे में के जिसकी झलक पाकर हमें मुस्कराना पड़ता है.” मिथिलेश वामनकर ने “वेदना अभिशप्त होकर जल रहे हैं गीत देखो” अत्यंत झंकृत करने वाली छंद बद्ध रचना दी है. विनीत पंत यावर का गीत “कौन था मुझमें मेरे नाम से पहले”, मीनाक्षी शर्मा की “अल्पना”, और देव दर्शन सिंह की रचना “शाम का अलग ही  जलवा था वो दिये की बाती कुछ कहती थी”, डा वर्षा शर्मा रैनी की रचना “अश्कों के सूख जाने से” में वे लिखती हैं “तुझे संवांर दिया हादसों ने ए रैनी, वफा का रंग बिखरता है चोट खाने से”.

स्मारिका में लगभग २८ महिला रचनाकारो की उपस्थिति यह बताती है कि साहित्य के क्षेत्र में महिलाओ की भागीदारी उल्लेखनीय है. वर्तिका को गौरव है कि इतने विविध क्षेत्रो से अंचल के बिखरे हुये रचनाकर्मियो को वर्तिकायन के द्वारा एक जिल्द में लाने का सफल प्रयास किया गया है. वर्तिकायन अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल प्रस्तुति है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #25 – उध्वस्त जगणे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “उध्वस्त जगणे ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 25 ☆

 

☆ उध्वस्त जगणे ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

 

जे लिहावे वाटले ते, मी लिहू शकलो कुठे ?

आशयाच्या दर्पणातुन, मी खरा दिसलो कुठे

 

कायद्याच्या चौकटीचे, दार मी ठोठावले

आंधळ्या न्यायापुढे या, सांग मी टिकलो कुठे ?

 

मी सुनामी वादळांना, भीक नाही घातली

जाहले उध्वस्त जगणे, मी तरी खचलो कुठे

 

गजल का नाराज आहे, शेवटी कळले मला

जीवनाच्या अनुभवाला, मी खरा भिडलो कुठे

 

एवढ्यासाठीच माझी, जिंदगी रागावली

मी व्यथेसाठी जगाच्या, या इथे झटलो कुठे

 

टाकले वाळीत का हे, सत्य माझे लोक हो

सांग ना दुनिये मला तू, मी इथे चुकलो कुठे

 

सरण माझे पेटताना, शेवटी कळले मला

जगुनही मेलो खरा मी, मरुनही जगलो कुठे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 25 – वेदना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  शिक्षाप्रद एवं भावनात्मक लघुकथा    “वेदना ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 25 ☆

☆ लघुकथा –  वेदना ☆

 

शहर से थोड़ी दूर अपार्टमेंट बनना शुरू हुआ। वहां पर पहले से थोड़ी दूर पर एक गरीब परिवार “सोनवा” रहता था। ठेकेदार ने उसके बारे में पता लगा वहां की देखरेख के लिए रख लिया और बदले में उसे थोड़ा बहुत काम करने को कहता। ठेकेदार अच्छी सोच वाला था। उसके लिए एक हाथ ठेला देकर बोला यहीं पर सब्जी भाजी बेचना शुरू करो। धीरे-धीरे तुम्हारी रोजी रोटी चलने लगेगी।

देखते-देखते कुछ सालों में अपार्टमेंट बनकर तैयार हो गया। सभी रहवासी उसमें आकर शिफ्ट हो गए। सोनवा को एक बेटा था। क्योंकि वही दिन भर खेलता और सभी को पहचानने लगा था इसलिए सभी ने प्यार से उसका नाम प्रीतम रख दिया।

प्रीतम धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। पढ़ने में होशियार था। इसी बीच ठेकेदार वहां से चला गया और सभी अपार्टमेंट वाले रहने लगे। सोनवा वहीं सब्जी का ठेला लगाता रहा। प्रीतम की पढ़ाई की फीस के लिए एक बार थोड़े बहुत पैसों की जरूरत थी। जो सोनवा के लिए इकट्ठे कर पाना मुश्किल हो रहा था। उसने सोचा कि मैंने यहां रहते रहते उम्र का पड़ाव तय कर लिया। सभी जानते पहचानते हैं। उनसे जाकर मांग लेता हूं। 25 फ्लैट वाले अपार्टमेंट में किसी ने दिया किसी ने कोई सहायता नहीं की। इसका सोनवा को कोई अफसोस नहीं था परंतु एक घर जिसको वो हमेशा अपना समझता था। उनका काम कर देता था वहां पर जाने पर मकान मालिक ने अपनी पत्नी के साथ कह दिया कि हम तुम पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम हमारा पैसा कभी नहीं लौटा पाओगे। नौकर का बेटा नौकर ही रहेगा। यह बात सोनवा की वेदना बन गई और हार्टअटैक से उसका देहांत हो गया। मरने से पहले इस परिवार के बारे में अपने प्रीतम को बताया था।

प्रीतम अपनी मां को लेकर शहर चला गया। पढ़ाई खत्म होने पर अच्छे व्यक्तित्व के कारण और उसकी योग्यता को देखते हुए अच्छी कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। उन दिन जिस कंपनी में काम कर रहा था वहां पर भर्ती के लिए आवेदन पत्र जमा हो रहे  थे। और लाइन में सभी प्रतिभागी खड़े थे। नियुक्ति करने वाला और कोई नहीं प्रीतम ही था। अपार्टमेंट से वही सज्जन जो कभी नौकर का बेटा कहकर प्रीतम को अपमान किया था वह भी अपने बेटे को लेकर पेड़ के नीचे खड़े थे। बड़े होने और ऊंची पदवी के कारण वह प्रीतम को नहीं पहचान सके। प्रीतम ऑफिस में जा रहा था उसी समय वह महिला पुरुष दिखाई दिए। प्रीतम तो पहचान गया परंतु वे लोग नहीं पहचान सके। चलते चलते दोनों प्रीतम को हाथ जोड़कर खड़े हो गए और पैरों पर झुक कर बोले सर हमारे लिए जीना मुश्किल हो रहा है। कहीं से कोई आसरा नहीं है। बेटे को नौकरी पर रख लीजिए। अनसुना कर प्रीतम ऑफिस चेंबर में जाकर बैठ गए। जब लड़के का नंबर आया तो उनको बुलाया गया। तीनों को सामने खड़े देख वह अपने पिताजी की वेदना को याद कर थोड़ा परेशान और दुखी हुआ परंतु अपने ओहदे को ध्यान में रखते हुए प्रीतम ने कहा -“आंटी में वही नौकर का बेटा हूं जिसको आपने थोड़े से रुपए के लिए घर से भगा दिया था। मेरे पिताजी तो इस वेदना को सह ना सके और खत्म हो गए परंतु पिताजी का साया उठने के बाद क्या होता है यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं आप दोनों को इस वेदना से मरने नहीं दूंगा। कह कर प्रीतम चेंबर से वापस निकल गए। प्रीतम को पहचान दोनों दंपत्ति शर्म और पश्चाताप से हाथ जोड़े खड़े उसको जाते देखते रहे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22 – खिचड़ी और खुचड़ ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक लघुकथा  “खिचड़ी और खुचड़। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22☆

 

☆ लघुकथा – खिचड़ी और खुचड़  

 

जब उनकी राजनीतिक खिचड़ी पक रही थी तो वे दर्द से कराह उठे, बड़े नेता थे तो लोग दौड़े और उनको अस्पताल में भर्ती कर दिया। डाक्टर ने जैसई देखा कि ये तो पैसे कमाने वाले भूतपूर्व मंत्री भी रहे हैं तो डॉक्टर की नियत खराब हो गई, झट से कह दिया गंभीर हार्ट अटैक।

नेता जी का खाना पीना बंद  खिचड़ी चालू……. चटोरी जीभ में गरीब खिचड़ी रास नहीं आई तो रात को चुपके से उनके भक्त ने गर्मागर्म बटर मसाला वाला मुर्गा सुंघा दिया, छुपके पेट भर खा गए और सो गए फिर सबेरे सबेरे खुदा को प्यारे हो गए। दूसरे दिन भीड़ उबरी। दाह संस्कार हुआ फिर पूरे खानदान और भक्तों ने बिना नमक की खिचड़ी बेमन से खायी। खानदान के जो लोग उस रात बिना नमक की खिचड़ी खाने नहीं आए उनको जाति से निकाल दिया गया।

कई भक्तों ने इच्छा जतायी थी कि जब भविष्य में खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन का दर्जा मिलेगा तो योजना उनके नाम पर चलायी जावे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #25 – नये चेहरे ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नये चेहरे”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 25 ☆

☆ नये चेहरे

 लाये हैं  हम तूफान से कस्ती निकाल के

 इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के

पिछली पीढ़ी ने उनके समय में जो श्रेष्ठ हो सकता था किया, किन्तु वर्तमान में देश की राजनीति का नैतिक अधोपतन हुआ है, सारे घपले घोटाले दुनिया में हमें नीचा देखने पर मजबूर कर रहे हैं, हमारी युवा पीढ़ी ने कारपोरेट जगत में, संचार जगत में क्रांति की है, अमेरिका की सिलिकान वैली की प्रत्येक कंपनी भारतीयो के प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान के बिना सफलता पूर्वक नही चलती. बहुराष्ट्रीय कंपनियो में युवाओ ने लाभ के कीर्तिमान स्थापित कर दिखायें हैं. अब बारी राजनीति की है. नये चेहरे ही बदल सकते हैं देश की राजनीति की दिशा ! राजनैतिक निर्णयो का कारपोरेट जगत पर गहरा प्रभाव पड़ता है, न केवल व्यवसायिक लाभ हानि वरन कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व और देश की प्रगति भी इससे प्रभावित होती है अतः सही सोच से टैक्स, निवेश नीतियो आदि को लेकर दूरगामी राजनैतिक निर्णय जरूरी हैं.

किसी धर्म ग्रंथ में कही भी कोई गलत शिक्षा नही दी गई है, किन्तु धार्मिक अंधानुकरण व गलत विवेचना तथा अपने धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ बताने की प्रतिस्पर्धा में भारत ही नही सारी दुनिया में सदा से झगड़े फसाद होते रहे हैं, ठीक इसी तरह प्रत्येक राजनैतिक दल का लिखित उद्देश्य आम आदमी के हितकारी कार्य करने का ही होता है, पर उसी पावन उद्देशय की आड़ में जो स्वार्थ की गंदी राजनीति खेली जाती है उससे टेलीकाम घोटाले जैसे विवादास्पद निर्णय लिये जाते हैं, खनन माफिया या भूमि माफिया सरकारी संपत्ति को कौड़ियो में हथिया लेता है.  वोट देने वाले हर बार ठगे जाते हैं. अगले चुनावो में वे चार चेहरो में से फिर किसी दूसरे चेहरे को चुनकर परिवर्तन की उम्मीद करते रह जाते हैं…. लेकिन यदि कार ही खराब हो तो ड्राइवर कोई भी बैठा दिया जावे, कार कमोबेश वैसे ही चलती है. यह हमारे लोकतंत्र की एक कड़वी सचाई है. हमें इन्ही सीमाओ के भीतर व्यवस्था में सुधार करने हैं. अन्ना जैसे नेता जब आमूल चूल संवैधानिक व्यवस्था में परिवर्तन की पहल करते हैं तो, राजनेता तक बाबा आंबेडकर की सोच से उपजी संवैधानिक व्यवस्था में रत्ती भर भी सामयिक परिवर्तन स्वीकार नही कर पाते और येन केन प्रकारेण ऐसे आंदोलन ठप्प कर दिये जाते हैं, क्योकि इस व्यवस्था में राजनेताओ के पास प्याज के छिलकों की तरह चेहरे बदलने की क्षमता है.

ऐसी स्थितियो में भी इतिहास गवाह है कि जब जब युवा, नये नेतृत्व ने झंडा संभाला है, कुछ न कुछ सकारात्मक कार्य हुये हैं. चाहे वह राजीव गांधी द्वारा की गई संचार क्रांति रही हो या क्षेत्रीय दलो के नेतृत्व में हुये राज्य स्तरीय परिवर्तन हो. गुजरात का नाम यदि आज देश के विकसित राज्यो में लिया जाता है तो इसमें नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता का बड़ा हाथ है. हमने अपने नेता में जो अनेक शक्तियां केंद्रित कर रखी हैं उसी का परिणाम है कि राजनीति आज सबसे लोकलुभावन व्यवसाय बन गया है.राजनेताओ के गिर्द जो स्वार्थी उद्योगपतियो, और बाहुबलियो की भीड़ जमा रहती है उसका बड़ा कारण यही सत्ता है. आज शुद्ध सेवा भाव से राजनीति कर रहे नेता अंगुलियो पर गिने जा सकते हैं.

हर सरकार किसानो के नाम पर बजट बनाती है पर जमीनी सच यह है कि आज भी वास्तविक किसान आत्म हत्या करने पर मजबूर हो जाता है.  सरकारी सुविधाओ को लेने के लिये जो मशक्कत करनी पड़ती है उसे देखते हुये लगता है कि यदि किसान स्वयं समर्थ हो तो शायद वह ये सब्सिडी लेना भी पसंद न करे. यही कारण है कि आज सरकारी स्कूलो की अपेक्षा लोग बच्चो को निजी कांवेंट स्कूलो में पढ़ा रहे हैं, सरकारी अस्पतालो की अपेक्षा निजी अस्पतालो में भीड़ है. सरकारें आरक्षण के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण करने और वर्ग विशेष को अपना पिछलग्गू बनाने का प्रयास करती नही थकती पर क्या आरक्षण की ऐसी विवेचना संविधान निर्माताओ की भावना के अनुरूप है ? क्या इससे नये वर्ग संघर्ष को जन्म नही दिया जा रहा ?

मंहगाई सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही है, आम आदमी फिर फिर से अपनी बढ़ी हुई चादर में भी अपने पैर सिकोड़ने को मजबूर हो रहा है ! व्यापक दृष्टिकोण से यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की असफलता का द्योतक ही है. राजनेताओ की नैतिकता का स्तर यह है कि बड़े से बड़े आरोप के बाद भी बेशर्मी से पहले तो उसे नकारना, फिर अंतिम संभव क्षण तक कुर्सी से चिपके रहना और अंत में हाइकमान के दबाव में मजबूरी में नैतिकता का आवरण ओढ़कर इस्तीफा देना प्रत्येक राजनैतिक दल में बहुत आम व्यवहार बन चुका है. राजनेताओ के एक गलत निर्णय से पीढ़ीयां तक प्रभावित होती है. मुफ्त बिजली, कब्जाधारी को जमीन का पट्टा, अस्थाई सेवाकर्मियो को नियमित किया जाना आदि ऐसे ही कुछ विवादस्पद निर्णय थे जो ९० के दशक में लिये गए थे, उन्होने जनता की तात्कालिक वाहवाही लूटी, चुनाव भी जीते उनकी देखादेखी अन्य राज्यो में भी यही सब दोहराया गया. इसकी अंतिम परिणिति क्या है ? देश में अराजकता का माहौल विकसित हुआ. आज बिजली क्षेत्र की कमर टूटी हुई है जिसे पटरी में लाने के लिये देश को विदेशी बैंको से अरबो का कर्जा लेना पड़ रहा है.

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में युवा चेहरो की जीत से आशा है कि राजनीति की दिशा बदलेगी. क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा, पर आशा से संसार टिका है, और मै सदा से युवाओ के आक्रोश का पक्षधर रही हूँ.  नई कोंपलें फूट चुकी हैं, देखे कि कितनी हरियाली आती है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 24 – स्त्री अभिव्यक्ती ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  शिक्षिका के कलम से एक भावप्रवण कविता / गीत  – “स्त्री अभिव्यक्ती। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 24 ☆ 

 

 ☆ स्त्री अभिव्यक्ती ☆

 

अभिव्याक्तीच्या  नावावरती, उगाच वायफळ बोंबा  हो।

चढणारीचा पाय ओढता, उगा कशाला थांबा हो।

जी sssजी र जी

माझ्या राजा तू रं माझ्या  सर्जा तू रं  ssss.।।धृ।।

 

गर्भामधी कळी वाढते, प्राण जणू तो आईची।

वंशाला हवाच दीपक , एक चालेना बाईची।

काळजास सूरी लावूनी, स्री मुक्तीचा टेंभा हो।।

जी जी रं जी…,।।१।।

 

आरक्षण दावून गाजर, निवडून येता बाई हो।

सहीचाच तो हक्क तिला,अन् स्वार्थ साधती बापे हो।

संविधानाची पायमल्ली की, स्री हाक्काची शोभा हो।

जी जी रं जी….।।३।।

 

स्री अभिव्यक्ती बाण विषारी,घायाळ झाले बापे ग।

सांग साजणी कशी रुचावी ,स्त्रीमुक्तीची नांदी ग।

कणखर बाणा सदा वसू द्या , नको भुलू या ढोंगा हो।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #22 – जहर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 21☆

☆ जहर ☆

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”,  ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़बान पर होता है ज़हर। ज़बान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगी भर टीसता है। ..जो ज़िंदगी भर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.31 बजे, 2.8.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 25 – लघुकथा – चुनाव के बाद ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की लघुकथा में  डॉ परिहार जी ने चुनाव के पूर्व एवं चुनाव के बाद नेताजी के व्यवहार परिवर्तन का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है।  यह  किस्सा तो हर के बाद का है यदि जीत के बाद का होता तो भी शायद यही होता ? ऐसी सार्थक लघुकथा  के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनकी  का ऐसे ही विषय पर एक लघुकथा  “चुनाव के बाद”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 25 ☆

☆ लघुकथा – चुनाव के बाद ☆

 

महान जनसेवक और हरदिल-अज़ीज़ नन्दू बाबू चुनाव में उम्मीदवार थे। आठ दिन में वोट पड़ने वाले थे। नन्दू बाबू के घर में चमचों का जमघट था—-तम्बाकू मलते चमचे, चाय पीते हुए चमचे, सोते हुए चमचे, बहस करते चमचे, मस्का लगाते हुए चमचे। दीवारों से तरह तरह की इबारतों वाली तख्तियां टिकीं थीं—-‘नन्दू बाबू की जीत आपकी जीत है’, ‘नन्दू बाबू को जिताकर प्रजातंत्र को मज़बूत कीजिए।’

एकाएक नन्दू बाबू के सामने उनकी पत्नी, आठ साल के बेटे का हाथ थामे प्रकट हुईं। उनके मुखमंडल पर आक्रोश का भाव था। चमचों से घिरे पति को संबोधित करके बोलीं, ‘सुनो जी, तुमने इन छोटे आदमियों को खूब सिर चढ़ा रखा है। उस दो कौड़ी के हरिदास के लड़के ने बल्लू को मारा है।’

नन्दू बाबू उठकर पत्नी के पास आये। मीठे स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करती हो गुनवन्ती? वक्त की नज़ाकत को पहचानो। तुम राजनीतिज्ञ की बीवी होकर ज़रा भी राजनीति न सीख पायीं। यह वक्त इन बातों पर ध्यान देने का नहीं है।’

इतने में एक चमचे ने खबर दी कि बाहर हरिदास खड़ा है। नन्दू बाबू बाहर गये। हरिदास दुख और ग्लानि से कातर हो रहा था। बोला, ‘बाबूजी, लड़के से बड़ी गलती हो गयी। उसने छोटे बबुआ पर हाथ उठा दिया। लड़का ही तो है, माफ कर दो।’

नन्दू बाबू हरिदास की बाँहें थामकर प्रेमपूर्ण स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हो हरिदास? उन्नीसवीं सदी में रह रहे हो क्या? अब कौन बड़ा और कौन छोटा? सब बराबर हैं। और फिर बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’

चुनाव का परिणाम निकला। नन्दू बाबू चारों खाने चित्त गिरे। सब मौसमी चमचे फुर्र हो गये। स्थायी चमचे दुख में डूब गये। घर में मनहूसी का वातावरण छा गया।

परिणाम निकलने के दूसरे दिन हरिदास अपने घर में लेटा आराम कर रहा था कि गली में भगदड़ सी मच गयी। इसके साथ ही कुछ ऊँची आवाज़ें भी सुनायी पड़ीं। उसके दरवाज़े पर लट्ठ का प्रहार हुआ और नन्दू बाबू की गर्जना सुनायी पड़ी, ‘बाहर निकल, हरिदसवा! तेरे छोकरे की यह हिम्मत कि मेरे लड़के पर हाथ उठाये?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से ☆ पाठशाला ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना पाठशाला अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से 

☆ पाठशाला ☆

 

लगती है परिंदों की पाठशाला ,

वृक्ष की कक्षाओं में ।

गूँज उठती हैं हर दिशा ,

इस पाठ के दुहराव में ।

 

चीं -चीं करती माँ चिड़ियाँ ,

क्या कुछ नन्हे को सिखलाती है ।

कुछ आरोहित स्वर में ,

घटनाक्रम समझाती है ।

 

मैं खिड़की से देख दृश्य ,

भ्रमित हर बार हो जाती हूँ ।

इतने शब्द है मेरे पास ,

पर ना अंश को समझा पाती हूँ ।

 

नन्हे परिन्दें माँ की सीख

आत्मसात कर जाते है ।

अंश मेरी सीख पर

प्रश्न चिन्ह लगाते है ।

 

क्या मस्तिष्क का विकसित होने

विकास की निशानी है ।

या परिदों सा जीवन जीना ,

जीवन  की कहानी है ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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