हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆ वक्त ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की एक भावपूर्ण कविता  “ वक्त ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆

☆ वक्त  ☆

चलने लगी पुरवाइयाँ हैं

खलने लगी तनहाइयाँ हैं

 

झूठ जब भी आया सामने

उड़ने लगी हवाईयां हैं

 

वक्त कुछ ऐसा भी आया

साथ न अब परछाइयाँ हैं

 

दर्द से हम गुजरे इस तरह

अब चुभती शहनाइयाँ हैं

 

अब संभल चलो ज़माने से

हरतरफ अब रुसवाईयाँ हैं

 

हम दिल को समझायें कैसे

“संतोष”बड़ी परेशानियाँ हैं

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 36 ☆ कलम से अदब तक ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “कलम से अदब तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है।  जहाँ अदब नहीं है वहां  निश्चित ही अहम् की भावना होगी। अदब हमारे व्यवहार में ही नहीं हमारी लेखनी में भी होनी चहिये। अदब के अभाव में साहित्य सहज सरल और स्वीकार्य कैसे हो सकता है ?  इस आलेख की अंतिम पंक्तियाँ ‘चल ज़िंदगी नई शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ खुद से करते हैं’… ही हमारे लिए प्रेरणास्पद  कथन है।  यह सत्य है कि शुरुआत स्वयं से करें तभी हम अन्य से आशा रख सकते हैं। इस अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 36☆

☆ कलम से अदब तक 

‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो, जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है…भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना   साहित्यकार का दायित्व है।’

साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों-विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यिकार का नैतिक कर्त्तव्य है, उसके समाधान सुझाना व प्रस्तुत करना उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का वहन कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताकतवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्वी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर, उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनमें अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु, अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें मुद्राएं भेंट की जाती थीं। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं…प्रात: स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्ति-कालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है। भारतेंदु, प्रसाद, महादेवी, निराला, बच्चन, नीरज आदि कवियों का साहित्य अद्वितीय है, उपादेय है।

सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो, लम्बे समय तक बना रहे तथा वह  परोपकारी व मंगलकारी हो, सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मन्नु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज आदि का सहित्य शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्ति-कालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है, जिसका मुख्य कारण है… साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है, उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य साहित्यकार की सफलता है।

साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है, तत्कालीन  समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उसके उन्मूलन का मार्ग सुझाना व दर्शाना…उसका दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर, सबके मनोभावों को झकझोरता व झिंझोड़ता है और सोचने पर विवश कर देता है कि वे गलत दिशा की ओर जा रहे हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार सच्ची लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता, न ही अपनी कलम को बेचता है, क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा इस संसार में सबसे ऊपर होता है। सो! कलम से इंसान को अदब सीखना चाहिए। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए, ठीक वैसे ही…जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब परिचित हैं… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है।

प्रार्थना हृदय से निकलने और ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है, दूसरे की अहमियत नहीं स्वीकारता और आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात्, समय के बदलने पर वह अर्श से फ़र्श पर पर गिर जाता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है, परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं त्यागने व किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर भी अपने बोझ से पानी में डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय होता है।

विद्या ददाति विनयम् अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा इस स्थिति तक पहुंचने में वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी दशा में अनुभव नहीं करता, उनके सुख-दु:ख में आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता….साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है।

आजकल तो समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म- केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान, अपने अतिरिक्त किसी के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए, सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से आंखें मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहे पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि हम अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?

परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। परंतु आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रुतबा चाहिए, वाहवाही चाहिए, जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को भी तैयार हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते, अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उनका वरद्-हस्त उन पर होता है। सो! उन्हें अर्श से फर्श पर आते भी समय नहीं लगता। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। वैसे आजकल तो पुस्तक के लोकार्पण की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में  अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा, प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा पी.एच.डी. व डी.लिट्. की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर, उन्हें धूल चटा सकते हैं, नीचा दिखला सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा अपन अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी गलती नहीं मानते, किसी को अपना कहां मानेंगे… ऐसे लोगों से सावधान रहने में आपका हित है।

जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है, कुछ लेकर अथवा प्राप्त कर ही निकलता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाहना में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व संतोष नहीं मिल सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए, परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।

‘सत्य कभी दावा नहीं करता, कि मैं सत्य हूं और झूठ झूठ सदा दावा करता है कि मैं ही सत्य हूं और सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव चिंतन-मनन कर मौन धारण कर लीजिए और तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए, मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लिखिए… सब के दु:ख को अनुभव कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्द गिर्द मंडराते रहते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए। यही ज़िंदगी का सार है, जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए…इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता…  सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नई शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ खुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “पानी “ का अंग्रेजी अनुवाद  Thoughts…” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )
☆ संजय दृष्टि  – विचार

मेरे पास एक विचार है

जो मैं दे सकता हूँ

पर खरीदार नहीं मिलता,

फिर सोचता हूँ

यों भी विचार के

अनुयायी होते हैं

खरीदार नहीं,

विचार जब बिक जाता है

तो व्यापार हो जाता है

और व्यापार

प्रायः खरीद लेता है

राजनीति, कूटनीति

देह, मस्तिष्क और

विचार भी..,

विचार का व्यापार

घातक होता है मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज

(गुरुवार दि. 14 जुलाई 2017, प्रातः 9 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 36 ☆ दो किनारे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “दो किनारे “।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 36 – साहित्य निकुंज ☆

☆ दो किनारे

है ये जिंदगी के दो किनारे

साथ है प्रकृति के नजारे

बढ़ते जा रहे हैं गंतव्य की ओर।

मिलन की है, आतुर प्रतीक्षा

मिलन नहीं, है उनकी परीक्षा

होता है दुःख

पर है साथ रहने का सुख।

चाहते है ठहराव

पर

मिलेगी नहीं ठांव

प्रकृति है इसकी गवाह

ये पर्वत श्रृंखलाएं

दे रही है प्यार का संदेश

हरे भरे वृक्ष

और ये फिजाएं

मान रहे आदेश

चल रहे है सभी

एक ही दिशा

है सिर्फ यही आशा

कभी तो मिलेंगे किनारे

होंगे एक दूजे के सहारे।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 22 ☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पर्दा”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम देख कर भी  अनजान बन जाते हैं । जब आँखों पर मोह का पर्दा पड़ता है तो सब कुछ जायज ही लगता है।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 22 ☆

☆ लघुकथा – पर्दा

 

“पापा! आज भाई ने फिर फोन पर अपशब्द बोले.”

“एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो.”

“आप दोनों के लिए भी अनाप-शनाप बोलता है.”

मुस्कुराकर – “अपने भाईसाहब की बातों को  प्रवचन की तरह सुनो, जो नहीं   चाहिए, छोड दो.”

“हमसे सहन नहीं होता है अब, फोन नहीं उठाउँगी उसका, बात करनी ही नहीं है उससे.”

“ऐसा नहीं कहते, एक ही भाई है तुम्हारा”

“और मेरा क्या?”

“भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो”

“मेरा मान – सम्मान ??”

“मेरी छोडिए, आप दोनों से इतने अपमानजनक ढंग से बोलता है, यह गलत नहीं है क्या?”

“बेटा है हमारा, हमसे नहीं बोलेगा तो किससे ——-”

“बेटी! तुम अपना कर्तव्य करती रहो  बस”

पिता की आँखों  पर मोह का  पर्दा  था.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 14 ☆ कविता – समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 15 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

कामी को प्रिय नारि है,  धन लोभी का प्यार ।

हरि में जिसकी प्रीत है, उसका बेड़ा पार।।

 

धन की गतियाँ तीन हैं, दान, भोग औ नाश।

दान, भोग गति नीक है, अंतिम सत्यानाश।।

 

वही धन्य, धन धन्य है, जो जाए नित दान।

बुद्धि वही प्रिय धन्य है, हित चाहे कल्याण।।

 

दुख समझे वह संत है, हरि में जिसकी प्रीत।

जीवन उसका है सुफल, दान करे हित रीत।।

 

कंठ हार रिश्ते बनें, रखिए इन्हें सँभाल।

बोल तनिक बिगड़े नहीं, गाँठ पड़े तत्काल।

 

बात लगे हित की बुरी, करते हैं प्रतिकार।

ऐसे मानव हीन हैं, मूढ़,दीन, बेकार।।

 

साधु नहीं अब स्वादु हैं, करते अभिनय मस्त।

बने कुबेरा शूर सब, अपने में ही व्यस्त।।

 

धर्म जाति बदले यहाँ, बदले रीति रिवाज।

बढ़ी सोच,संकुल हुई, मन में पलते राज।।

 

महँगी चीजें बेचकर, बढ़ा रहे व्यापार।

बाबाजी गुण गा रहे, करें दिखाबी प्यार।।

 

अपनी गाते हैं कथा, अपने से ही प्यार।

अपने में ही आज सब, सिमट गया संसार।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “कुतर्क के तुर्क”।  इस बेहतरीन  समसामयिक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ 

☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆

नेता जी अपने युवा पोते को सिखा रहे थे कि वर्तमान में वही बड़ा नेता है जो अपने तर्क या कुतर्क के जरिये खुद को जनता के सामने सही साबित कर अपने पीछे भीड़ खड़ी कर सके। विदेश से एम बी ए युवा नेता ने जो हाल ही विदेश से वापस लौटकर पिताजी की कास्टीट्युएंसी में कुछ कर के फटाफट अपना वर्चस्व बना लेना चाहता है, अमेरिका और गल्फ के चंद उदाहरण देते हुये कहा, आप सही कह रहे हैं दादा जी यह समय दुनियां भर में कुतर्को को स्थापित करने का समय  है।

मूलभूत नैसर्गिक न्याय को भुलाकर, संविधान की मूल भावना को किनारे रखकर अपने कुतर्क के पक्ष में ढ़ूंढ़ निकाली गई किसी पंक्ति या शब्दावली  की गलत सही व्याख्या कर देश में बेवजह बड़े बड़े आंदोलन खड़े किये जा रहे हैं। अल्लारख्खा और रामभरोसे दोनो ही तर्क कुतर्क के झूले में झूलने पर विवश हैं।

बिना संदर्भ समझे युवा तुर्क वाहवाही लूटने के लिये नासमझो के बीच गजल पढ़ रहे हैं। कापी कैट का जमाना है, चूंकि किसी आंदोलन में फलां शायर की फलां गजल पढ़ी जाती थी तो ये जनाब कैसे पीछे रह जाते, गूगल भाई का माइक दबा कर जितना याद हो वे लफ्ज ही तो बोलने हैं, लीजीये पूरी गजल हाजिर है, बिना जाने बूझे, पढ़ डालिये और तालियां बजवाईये, टी वी पर सुर्खियां बटोरिये। सुनने वाले भी कहां किसी से कम हैं, उन्हें  भी कुछ खास लफ्ज ही सुनाई पड़े और पूर्वागृह से लबरेज जहर उगलने में उन्होंने देर न की।  बेचारी गजल और कब्र में बंद शायर सोशल मीडिया पर ट्रेड करने लगा।

समाज का और देश का जो नुकसान कुछ कीमती संपत्ति जलाने से हुआ उससे कही बहुत अधिक नुकसान पीढ़ियों में स्थापित लोगों के बीच बने परस्पर सामंजस्य में खटास पैदा कर, निरर्थक ध्रुवीकरण से हो रहा है। आज की  ग्लोबल होती, इंटर डिपेंडेंट दुनियां में क्या यह संभव है कि अपने अपने घरों, जातियों के संकुचित दायरों में रहकर देश, समाज चल सके ? इस संकुचन का अंत कहां है ? क्या डबल बेड पर भी अपने अपने कंबलो में सिमटन ही नेतागिरी का अंतिम लक्ष्य है ?  नही, पर यह सही तर्क उस कुतर्क के सामने बहुत छोटा है, जिसमें एक वर्ग विशेष का छद्म घमण्ड छिपा है कि उनके बाबा के बाबा के बाबा तो यहां के बादशाह थे भले ही आज वे तांगे चला रहे हों, या फिर दूसरे वर्ग की वह पीड़ा जिसके चलते संग्रहालय में रखी ५०० साल पुरानी मूर्ति को तोड़ने के जुर्म की सजा यदि तब नही दी जा सकी तो आज तो वह दी ही जानी चाहिये भले ही अपराधियो के वंशजो को दी जाये।

दर्शनशास्त्र में तर्क‍ या आर्ग्यूमेंट्स  कथनों की ऐसी श्रंखला होती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी तथ्य के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं।  गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक तकनीकी भाषा में भी लिखे जा सकते हैं। कम्प्यूटर की तो सारी गणना पद्धति ही तर्क अर्थात लाजिक पर ही आधारित है। एक बंद घड़ी भी कुतर्क की भाषा में पांच मिनट तेज चलने वाली घड़ी से बेहतर कही जा सकती है, क्योकि बंद घड़ी २४ घंटो में कम से कम दो बार तो बिल्कुल सही समय बताती है। अरस्तु वे पहले दार्शनिक थे जिन्होने कुतर्को को भी सूचीबद्ध किया था।तो एक गजलगो के नाते अपना तो यही तर्क है कि शब्दो के नही भावनाओ के सही निहितार्थ समझने की जरूरत है, सबको बड़े दिल से बड़े काम करने के लिये एक जुट होना चाहिये, नेतागिरी चमकाने के चक्कर में जनता को बरगलाने के कुतर्क आज नही तो कल पकड़े ही जायेंगे।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 37 – बोझ  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बोझ  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #37 ☆

☆ लघुकथा – बोझ  ☆

 

“क्या हुआ था, हेड साहब ?”

“कोई ट्रक वाला टक्कर मार गया. बासाहब की टांग कट गई. लड़का मर गया.”

पुलिस वाले ने आगे बताया, ” इस के तीन मासूम बच्चे और अनपढ़ बीवी है.”

सुनते ही मोहन दहाड़ मार कर रो पड़ा,” भैया ! कहाँ चले गए. मुझ गरीब बेसहारा के भरोसे अपाहिज बाप, बेसहारा बच्चे और अपनी बीवी को छोड़ कर. अब मैं इन्हें कैसे संभालूँगा.”

और वह इस मानसिक बोझ के तले दब कर बेहोश हो गया .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆ पुनरागमन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “पुनरागमन।  यह सत्य ही है कि पुराना इतिहास  एक कालखंड के पश्चात दोहराया जाता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆

☆ पुनरागमन

आगमन, पुनरागमन की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है।  जीवन की हर गतिविधियाँ 20 साल बाद दोहरायी जाती हैं। जैसे फैशन को ही लें आजकल जो कपड़ों का चलन बढ़ रहा है वो सब पुराने इतिहास को ही दुहरा रहा है बस हमारा देखने का नज़रिया बदल गया है और उस पहनावे को आधुनिक मान लेते हैं। यही चीज खान पान के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। पुराने समय में भी इनोवेशन होते थे जिसके फलस्वरूप नयी – नयी वैरायटी स्वाद की श्रंखलाओं से निरंतर जुड़ती जा रही है।  आजकल हर वस्तुएँ ऑन लाइन  बुलायी जा रहीं हैं। ये भी कोई अजूबा नहीं है। लाइन में तो हम सब बरसों से लग रहे हैं। कभी राशन के लिए तो कभी यात्रा के टिकट हेतु, कभी चुनावी टिकट हेतु, बिजली के बिल जमा हेतु, बैंक में खाता ऑपरेट करने हेतु । ऐसे ही न जाने कितने कार्य हैं जहाँ लम्बी लाइन लगती है। सो बदलते परिवेश में आधुनिकीकरण हो गया और ऑन लाइन की परंपरा आ बैठी।  मन पसन्द भोजन,  कपड़े, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, रोजमर्रा की सभी वस्तुएँ मिलने लग गयी हैं।

अरे भई चाँद और मंगल पर भी तो बसेरा करना है कहाँ तक लाइनों में समय व्यर्थ करें अब तो हवा में उड़ने का समय आ गया है। वैसे भी मन की उड़ान सदियों से सबसे तेज रही है। बस कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और चल पड़िये जहाँ जी चाहे। वैज्ञानिकों ने भी सतत परिवर्तन को स्वीकार किया है। साथ ही ये भी माना है कि गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाते हैं सो फैशन भी आता – जाता रहता नये- नये संशोधनों के साथ। संशोधन की बात पर तो संविधान संशोधन की बात याद आ गयी जिसका समय – समय पर मूल्यांकन होता रहता है  जो होना भी चाहिए क्योंकि लोग बदल रहे हैं कब तक पुराना चलेगा। नयी विचारधारा का स्वागत करना चाहिए।   तभी तो आगमन- पुनरागमन का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 35 – पुस्तक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “पुस्तक ”)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #35☆ 

☆ पुस्तक ☆ 

पुस्तकांच्या

दुकानात

गेल्यावर

मला

ऐकू येतात..;

पुस्तकात

मिटलेल्या

असंख्य

माणसांचे

हुंदके.. ;

आणि.. . . .

दिसतात

पुस्तकांच्या

मुखपृष्ठावर

ओघळलेले

आसवांचे

काही थेंब…!

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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