हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 36 – मछलियों को कायदे से…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक विचारणीय कविता  “मछलियों को कायदे से….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 36 ☆

☆ मछलियों को कायदे से…. ☆  

 

आजकल वे सेमीनारों में

हुनर दिखला रहे हैं

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।

 

अकर्मण्य उछाल भरते मेंढकों से

‘जम्प’ कैसे लें, इसे सब जान लें

और कछुओं से रहें अंतर्मुखी तो

आहटें खतरों की तब पहचान लें।

मगरमच्छ नृशंष,

लक्षित प्राणियों को मार कर

हर्षित हृदय से निडर हो

जो खा रहे हैं। मछलियों को कायदे………

 

वे सतह पर अंगवश्त्रों से सुसज्जित

किंतु गहरे में रहे बिन आवरण है

वे बगूलों से, सफेदी  में  छिपाए

कालिखें, कल्मष, कुटेवी आचरण है।

साधनों के बीच में

लेकर हिलोरें झूमते वे

साधना औ’ सादगी के

भक्ति गान सुना रहे है। मछलियों को कायदे………..

 

कर रहे हैं मंत्रणा मक्कार मिलकर

हवा, पानी, पेड़-पौधे, खेत, फसलें

हों नियंत्रण में, सभी इनके रहम पर

बेबसी, लाचारियों से ग्रसित नस्लें।

योजनाएं योजनों हैं दूर

अंतिम आदमी से

चोर अब आयोजनों में

नीतिशास्त्र  पढ़ा रहे हैं।

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 38 – अनुभव ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  एक अतिसुन्दर कविता  “*अनुभव*.  सुश्री प्रभा जी की  यह  कविता हमें स्त्री विमर्श से जोड़ती है। निःसंदेह प्रत्येक स्त्री पुरुष का स्वभाव उनकी वैचारिकता को दर्शाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है।  जैसे वह जीता है , वैसा ही उसका अनुभव होता है।  संभवतः इस कविता में कहीं न कहीं कवियित्री का अनुभव अपने आप लेखनी के माध्यम से  हृदय से कागज़ पर उतर आता है। इस अतिसुन्दर कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 38 ☆

☆ अनुभव  ☆ 

 

आपण वेगळे आहोत इतरांपेक्षा,

हे जाणवले तिला—

त्या सा-याजणीं च्या

घोळक्यात!

 

नवीन  घरात रहायला गेल्यावर

समवयस्क बायकांशी

गप्पा मारायला गेली होती ती,

सोसायटीच्या बागेत!

 

उद्या वटपौर्णिमा आहे…

“कुठे जाणार वडाची पूजा करायला?”

“मी फांदी आणणार आहे.”

अशा  आणि या सारख्याच…

पारंपरिक वळणाच्या…..

गप्पा मधे ती नाही

रमत….

गेली कित्येक वर्षे!

त्या पेक्षा ऐकावी

एकांतात रफी ची जुनी गाणी

लता… आशा…गीता दत्त..

चे तलम रेशमी स्वर..

घ्यावेत लपेटून मनावर…

बाल्कनीत ल्या झोक्यावर बसून

वाचावी गौरी देशपांडे….

सानिया…

अंबिका सरकार…

ईरावती कर्वेंची जुनी संग्रहित

पुस्तके…पुनःपुन्हा!

 

एवढे संपन्न  अनुभव पाठीशी

असताना—

कुठल्याही पठडीत नाही बसवता येत स्वतःला!

आयुष्याची सांज कातर होते…

 

जे हवे  असते ते हरवत जाते….

इथे तिथे….

 

हा ही एक  अनुभवच ….

वेगळेपण जपण्याचा!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 17– महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन?

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन

महात्मा गांधी  अफ्रीका को हमेशा के लिए अलविदा कर लंदन पहुँचे जहाँ उन्हे अफ्रीका में बसे भारतीयों की सेवा करने के लिए वायसराय लार्ड हर्डिंग ने 6 अगस्त 1914 को ”कैसरे हिन्द” के  तमगे से बिभूषित किया। लंदन से गांधीजी समुद्री जहाज से लंबी यात्रा कर 13 जनवरी 1915 को बम्बई पहुँचे। अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में वे लिखते है – “कुछ दिनों में हम बम्बई पहुँचे।जिस देश में सन 1905 में वापस आने की आशा रखता था, उसमें दस बरस बाद तो वापस आ सका, यह सोचकर मुझे बहुत आन्नद हुआ। बम्बई में गोखले ने स्वागत- सम्मेलन आदि की व्यवस्था कर ही रखी थी। उनका स्वास्थ्य नाजुक था; फिर भी वे बम्बई आ पहुँचे थे। मैं इस उमंग के साथ बम्बई पहुँचा था कि उनसे मिलकर और अपने को उनके जीवन में समाकर मैं अपना भार उतार डालूंगा। किन्तु विधाता ने कुछ दूसरी ही रचना कर रखी थी।…. मेरे बम्बई पहुँचते ही गोखले ने मुझे खबर दी थी : “गवर्नर आपसे मिलना चाहते हैं। इसलिए मैं उनसे मिलने गया। साधारण बातचीत के बाद उन्होने कहा :

“मैं आपसे एक वचन माँगता हूँ । मैं चाहता हूँ कि सरकार के बारे में आप कोई भी कदम उठाएँ, उससे पहले मुझसे मिल कर बात कर लिया करें।“

मैंने जबाब दिया: “ यह वचन देना मेरे लिए बहुत सरल है। क्योंकि सत्याग्रही के नाते मेरा यह नियम ही है कि किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना हो, तो पहले उसका दृष्टिकोण उसीसे समझ लूँ और जिस हद तक उसके अनुकूल होना संभव हो उस हद तक अनुकूल हो जाऊँ। दक्षिण अफ्रीका मैं मैंने सदैव इस नियम का पालन किया है और यहाँ भी वैसा ही करने वाला हूँ।

लार्ड विलिंग्डन ने आभार माना और कहा: “आप जब मिलना चाहेंगे, मुझसे तुरंत मिल सकेंगे और आप देखेंगे कि सरकार जान-बूझकर कोई बुरा काम नहीं करना चाहती।“

मैंने जबाब दिया : “यह विश्वास ही तो  मेरा सहारा है।“

इसके बाद गांधीजी ने  गोखलेजी से गुजरात में आश्रम खोल वहाँ बसने व सार्वजनिक कार्य करने की इच्छा बताई। गोखलेजी  ने  उन्हे आश्रम खोलने के लिए उनके पास से धन लेने का आग्रह किया और गोखलेजी की  सलाह पर गांधीजी एक वर्ष तक रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में बैठ भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते रहे। इसी बीच 25 मई 1915 को अहमदाबाद के  पास कोचरब में साबरमती नदी के तट पर पचीस लोगों के रहने के लिए सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। और इसी के साथ गांधीजी का भारत में सार्वजनिक जीवन प्रारंभ हो गया।

भारत में गांधीजी के सार्वजनिक जीवन में उनकी चम्पारन यात्रा का विशिष्ट स्थान है। वे सत्य के प्रयोग में लिखते हैं –“ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था।यह दुख उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनऊ काँग्रेस  में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ‘वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे’ – यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।“ बाद में गांधीजी की मुलाक़ात वकील बाबू अर्थात बृजकिशोर बाबू से राजकुमार शुक्ल ने करवाई जिसके फलस्वरूप गांधीजी के परामर्श पर बृजकिशोर बाबू काँग्रेस में चम्पारन के बारे में बोले और एक सहानुभूति सूचक प्रस्ताव पास हुआ। 15 अप्रैल 1917 को जब मोहनदास करमचंद गांधी चम्पारन पंहुचे तब वहाँ के किसानों का जीवन गुलामी से भरा हुआ था। गोरे अंग्रेज उन्हे नील  की खेती के लिए विवश कर शोषण करते थे। गांधीजी के सत्याग्रह  आंदोलन के फलस्वरूप तीन कठिया व्यवस्था समाप्त हुयी व चम्पारन के किसानों को लगभग 46 प्रकार के करों से मुक्ती मिली, देश को डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे लगनशील नेता मिले।

चम्पारन में ,जो राजा जनक की भूमि है व गंगा के उस पार हिमालय की तराई में बसा है, गांधीजी ने लोगों की दुर्दशा करीब से देखी और महसूस किया कि गाँव में शिक्ष का प्रवेश होना चाहिए। अत: उन्होने प्रारंभ में छह गाँव में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय लिया। शिक्षण कार्य के लिए स्वयंसेवक आगे आए और कस्तूरबा गांधी आदि महिलाओं ने अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा कार्य में सहयोग दिया। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं – “ प्राय: प्रत्येक पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्री की व्यवस्था की गई थी। उन्ही के द्वारा दवा और सफाई के काम करने थे। स्त्रियों की मार्फत स्त्री- समाज में प्रवेश करना था। साफ सफाई का काम कठिन था। लोग गंदगी दूर करने को तैयार नही थे। जो लोग रोज खेतों की मजदूरी करते थे, वे भी अपने हाथ से मैला साफ करने के लिए तैयार ना थे। मुझे याद है कि सफाई की बात सुनकर कुछ जगहों में लोगों ने अपनी नाराजी भी प्रकट की थी।“

चम्पारन में प्रवास के दौरान गांधीजी को अनेक अनुभव हुये। ऐसे ही एक अनुभव का वर्णन करते हुये वे लिखते हैं – “ इन अनुभवों में से एक जिसका वर्णन मैंने स्त्रियों की कई सभाओं में किया है, यहाँ  देना अनुचित न होगा। भीतिहरवा एक छोटा सा गाँव था। उसके पास उससे भी छोटा एक गाँव था। वहाँ कुछ बहनों के कपड़े बहुत मैले दिखाई दिये। इन बहनों को कपड़े बदलने के बारे में समझाने के लिए मैंने कस्तूरबाई से कहा। उसने उन बहनों से बात की। उनमे से एक बहन कस्तूरबाई को अपनी झोपड़ी में ले गई और बोली ‘ आप देखिए, यहाँ कोई पेटी या अलमारी नहीं कि जिसमे कपड़े बंद हों। मेरे पास यही एक साड़ी है, जो मैंने पहन रखी है।  इसे मैं कैसे धो सकती हूँ? महात्माजी से कहिए कि वे कपड़े दिलवाए। उस दशा में मैं रोज नहाने और कपड़े बदलने को तैयार रहूँगी।‘ हिन्दुस्तान में ऐसे झोपड़े अपवाद स्वरूप नहीं हैं। असंख्य झोपड़ों में साज-सामान, सन्दूक-पेटी, कपड़े-लत्ते कुछ नही होते और असंख्य लोग केवल पहने हुये कपड़ों पर ही निर्वाह करते हैं।“

शायद यही वह घटना है जिसने गांधीजी से उनके वस्त्र व काठियावाड़ी पगड़ी छीन ली और वे हमारे देश के असंख्य गरीबों के लिए लंगोटी वाले बाबा बन गए, मसीहा बन गए, जन जन में पूज्यनीय हो गए। आज भी उन जैसा दूसरा व्यक्तित्व देश में पैदा नाही हुआ।

रियासतकालीन बुंदेलखंड में भी किसान मजदूर पीढ़ित व शोषित थे। इन शोषणों के विरुद्ध समय समय पर चरणपादुका जैसे अनेक अहिंसक आंदोलन  हुये जिनकी प्रेरणा गांधीजी के चम्पारन सत्याग्रह से ही मिली।स्थानीय नेतृत्व को पनपने दिया गया, जन सैलाब को तैयार किया गया, मध्यस्तता की संभावनाएँ खोजी गई,  किसानों ले लाठियाँ व गोलियाँ खाई, बातचीत के दरवाजे खुले रखे गए, समस्याओं के समाधान की ईमानदारी से कोशिश की गई  और  अंततः किसानो को काफी हद तक शोषण  से मुक्ती मिली। आज पुनः किसान परेशान है, समस्याओं से घिरा है,पहले दो जून की रोटी की आस में  आसमान पर घुमड़ते बादलों को देखता था अब सूखते तालाबों, सिकुडती नदियों, घटते  जल स्तर से परेशान है, पहले उसे चिंता थी खाद कैसे मिले अब परेशान है खाद के अधिक प्रयोग से बंजर होते खेत से, पहले लगान चुकाने में असमर्थ था अब बैंकों का कर्ज नहीं चुका पा रहा है। मैं सोचता हूँ क्या इन समस्याओं का कोई निदान है, क्या मात्र ऋणमाफ़ी से किसान खुशहाल हो जाएगा। हमने किसानो को बैंकों से दिये जाने वाले कर्ज को पाँच साल मे  दुगुना कर दिया और उसके दुष्परिणाम भी आत्महत्या के रूप मैं देख रहे हैं। पहले तो ऐसा नहीं सुनने मैं आता था। मुंशी प्रेमचन्द जैसे ग्रामीण परिवेश के साहित्यकारों ने भी कहानियों में दुखों की चर्चा का अंत कभी आत्महत्या से नहीं किया। आज  जबकि  हमारे पास कृषि विशेषज्ञों की फौज है, अनेक कृषि विश्वविद्यालय है, उन्नत तकनीक है तब भी हम  किसानों को  समस्याओं से निजात नहीं दिला पा रहें है। मुझे लगता है हमे एक बार फिर 15 अप्रैल 1917 की ओर मुड़कर देखना होगा, जब मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण पंहुचे थे, शायद उन्ही के तरीके से किसानों की खुशहाली का कोई नया  उपाय निकल कर सामने आए।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 15 ☆ लघुकथा – वाह री परंपरा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “वाह री परम्परा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज  की एक ऐसी प्रथा  के परिणाम और दुष्परिणाम पर विस्तृत दृष्टि डालती है जिस पर अक्सर लोग सब कुछ जानते हुए भी विवाद में न पड़ते  हुए कि  लोग क्या कहेंगे सोच कर निभाते हैं , तो  कुछ लोग दिखावे मात्र के लिए निभाते हैं ताकि लोग  उनका  उदहारण  दे।   समाज की परम्पराओं पर पुनर्विचार की महती आवश्यकता  है ।

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 14 ☆

☆ लघुकथा – वाह री परम्परा ☆

 एक  करीबी रिश्तेदार की मौत हो जाने  पर तेरह दिनों मे कम से कम सात दिन समय निकाल कर आना जाना पड़ा।  गाँव का मामला था।  सभी धनाढ्य सम्पूर्ण थे।  जब भी हम जाते तभी चूल्हे पर परिवार की लड़कियाँ गैस जमीन पर रख गरमी सह कर ढेर सारा भोजन बनाती दिखती। उन्हें दोपहर में ही कुछ घंटे मिलते। उसमे वे बेटियाँ अपनी कंघी चोटी करती। खारी के बाद से दिन होने तक साफ सफाई के बाद से यह प़किया चल पड़ती। आने वाले से भेंट करना दुख प़कट करना यहां का रिवाज  है।

गंगा जी जाना। फिर हिन्दू पध्दति से पूजन करना आवश्यक होता है। प़तिदिन  सैकड़ो आदमियों का खाना होता।

ताज्जुब हमें तब हुआ जब हमने तेरहवी के दिन सुबह पूजन के बाद ब़ाम्हणो का भोज बिदाई कार्यक्रम देखा।

और फिर नाते रिश्तेदार  सभी ने तेरहवीं का खाना खाया खाया। करीब रात के आठ बजे तक पूरा का पूरा गाँव भोजन कर चुका था और भोजन के बाद बाहर आते ही भोजन की बढ़ाई या बुराई शुरु। ये पुरानी परम्पराओं का क्या कहीँ विराम नहीं? एक तो घर का प्राणी चला जाये और उस पर यदि उसके पास पैसा नहीं तो कर्जा कर आयोजन करवाना और झूठी शान पर जिन्दा रहना कब तक चलेगा?

जाने वाला तो चला गया पर उसके साथ और थोड़ा बहुत जीवन बसर का पैसा धेला बचा वह भी समाज के ठेकेदारों ने नोच खाया. कब बदलाव आयेगा? हम कब समझेंगे पता नहीं?

अगर किसी रोगी या बहन-बेटी या किसी बुजुर्ग की सेवा के लिये यह अधिक लगने वाला पैसा उपयोग में आ जाता तो जीवन जीने लायक और भविष्य को निर्मित कर देता पर  यह नहीं है।

बस दिखावा और रूढिवाद का बोलवाला।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 28 ☆ कुमाऊं ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “कुमाऊं”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 28☆

☆ कुमाऊं

जुलाई में जब बादल फूटा था-

हर तरफ बेबसी का आलम था,

एहसास पानी के आवेग में डूब रहे थे,

भावों का नाम-ओ-निशाँ नहीं था,

ख्वाहिशें लाश की तरह टपक रही थीं|

 

कुछ महीनों बाद

बेबसी को सब भूल चुके थे,

एहसास फिर उभर आये थे,

और ख्वाहिशों का भी जनम हो चुका था-

हर तरफ ख़ुशी झरनों सी फूट रही थी!

 

ऐसा लगता था जैसे सब

भूल चुके हैं

जुलाई की वो शाम,

पर जिसने देखा था उसे

या जिसने महसूस किया था उसे,

उसका दिल पथरा चुका था

और शायद आंसू भी सूख चुके थे-

एक अजब सी खामोशी थी

जो हौले हौले उसे बनाती जा रही थी

जीती-जागती लाश!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – सृजन 

मेरे लिखे पर

इतना निहाल मत होना

कि सृजन ही ठहर जाए,

माना कि

तुम्हारा यूँ मुग्ध होना

मुझे अच्छा लगता है

पर प्राण के बिना भला

कौन जी सकता है..?

 

रात्रि 8.22 बजे, 23.2.20

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘चेहरे’ से ली गई एक रचना।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8 ☆ संस्कार और विरासत ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “संस्कार और विरासत”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8

☆ संस्कार और विरासत ☆

 

आज

मैं याद करती हूँ

दादी माँ की कहानियाँ।

राजा रानी की

परियों की

और

पंचतंत्र की।

 

मुझे लगता है

कि

वे धरोहर

मात्र कहानियाँ ही नहीं

अपितु

मुझे दे गईं हैं

हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत

जो ऋण है मुझपर।

 

जो देना है मुझे

अपनी अगली पीढ़ी को।

 

मुझे चमत्कृत करती हैं

हमारी संस्कृति

हमारे तीज-त्यौहार

उपवास

और

हमारी धरोहर।

 

किन्तु,

कभी कभी

क्यों विचलित करते हैं

कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?

 

जैसे

अग्नि के वे सात फेरे

वह वरमाला

और

उससे बने सम्बंध

क्यों बदल देते हैं

सम्बंधों की केमिस्ट्री ?

 

क्यों काम करती है

टेलीपेथी

जब हम रहते हैं

मीलों दूर भी ?

 

क्यों हम करते हैं व्रत?

करवा चौथ

काजल तीज

और

वट सावित्री का ?

 

मैं नहीं जानती कि –

आज

‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?

और

‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?

 

यमराज में है

कितनी शक्ति?

और

कहाँ जा रही है संस्कृति?

 

फिर भी

मैं दूंगी

विरासत में

दादी माँ की धरोहर

उनकी अनमोल कहानियाँ।

 

उनके संस्कार,

अपनी पीढ़ी को

अपनी अगली पीढ़ी को

विरासत में।

 

18 जून 2008

© हेमन्त बावनकर

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #38 – जरीचे धागे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “जरीचे धागे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 38☆

☆ जरीचे धागे ☆

 

उभ्या आडव्या धाग्यांमधली सुंदर नक्षी

कधी मोर तर कधी साजरा दिसतो पक्षी

 

अशी पैठणी पदरावरती मोर नाचरा

पदर पिसारा स्थिरावलेला माझ्या वक्षी

 

कधी जरीचे धागे असती बुट्यांवरती

मोल तयांचे भरून आहे माझ्या चक्षी

 

जन्मा येता वस्त्राशी या जडते नाते

धडपड असते वस्त्रासाठी येथे अक्षी

 

वस्त्र हरण हे करणारे तर घरचे होते

श्रीकृष्णाचा धावा करता लज्जा रक्षी

 

या झेंड्याचे प्राणपणाने करतो रक्षण

तुझ्याचसाठी मनात श्रद्धा तू तर बक्षी

 

रक्षण करते देहाचे या वस्त्र जरी हे

त्याच्या खाली मांस शोधती हे नरभक्षी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 27 ☆ व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री अजीत श्रीवास्तव जी  के  व्यंग्य  संग्रह  “ मुर्गे की आत्मकथा  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 27☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  मुर्गे की आत्मकथा 

पुस्तक – मुर्गे की आत्मकथा (व्यंग्य  संग्रह)

लेखक – श्री अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक –अयन प्रकाशन , नई दिल्ली

मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

☆ व्यंग्य संग्रह   – मुर्गे की आत्मकथा  – श्री अजीत श्रीवास्तव –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

किताबें छप तो बहुत रही हैं, किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं. मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे,  जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके. आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है. अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं, कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं .

इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली. दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं. पहली राजनीति के योगासन है. राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है. अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में  र आसन राशन, भ आसन भाषण, अश्व आसन आश्वासन, करजोड़ासन, पदासन, शासन, निष्कासन, पुनरागमनआसन, चमचासन, कुर्सियासन, सिंहासन, वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य, व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है. यह रोचक शैली पठनीय है.

इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा, में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं. समाज में हर कोई दूसरे को मुर्गा बनाने में जुटा हुआ है, ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है. अजीत जी पुरस्कृत, वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, पेशे से एड्वोकेट हैं,  उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है, लेखन दृष्टि परिपक्व है, अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं, किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है.

चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 37 – लघुकथा – ममता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय, प्रेरक  एवं मार्मिक लघुकथा  “ममता’”।  विधि की यह  कैसी विडम्बना है कि-  एक माँ  अपनी ममता को कुचलकर अपने बच्चे को कूड़े के ढेर में फेंक देती है  तथा दूसरी ओर एक  माँ  अपने हृदय में अपार ममता लिए एक बच्चे के लिए तरस जाती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा समाज के ऐसे  लोगों को आइना दिखाती है । यह  भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 37 ☆

☆ लघुकथा – ममता 

बच्चों वाला अस्पताल, हमेशा भीड़ भाड़। छोटे-बड़े बच्चों से भरा वार्ड। किसी की हालत बहुत नाजुक तो कोई रो रो परेशान। कुल मिलाकर सभी माँ पिता जी और उनका परिवार, सभी परेशान। कुछ चिड़चिड़ाते गुस्सा करते नजर आते कि ठीक से संभाल नहीं सकती हो।

पीछे गटर और कचरे का ढेर। शायद अनुमान नहीं लगा सकते कि कितनी गंदगी फैली रहती है। सफाई कर्मचारी साफ सफाई कम निर्देश ज्यादा देते नजर आते हैं।

ऐसे ही एक महिला कर्मचारी आया बाई ‘माया’ जो बहुत ही शांत स्वभाव की। सभी का काम करती और सभी बच्चों को बहुत ध्यान से बहला फुसलाकर दवाई देने व इंजेक्शन लगवाने में मदद करती थी। सभी उसकी काम की तारीफ करते।

माया नाम था उसका। सच में ममता और माया से परिपूर्ण थी। परंतु उसकी अपनी कहानी बहुत दुखद थी। पति हमेशा इसलिए लड़ाई-झगड़ा करता था कि “तुम्हारे बच्चे नहीं हो रहे हैं”। इसलिए वह पति को छोड़ चुकी थी और बच्चे वाले वार्ड में अपने जीवन यापन करने के लिए काम कर अपना मन बहलाती थी और पति से अलग रहने लगी थी।

कुछ समय बाद एक ठंड से ठिठुरती रात में पीछे कचरे के ढेर से हल्की हल्की सी रोने की आवाज आ रही थी। जैसे कोई पिल्ला रो रहा हो। सभी ने सोचा कुत्ते का बच्चा ठंड से रो रहा होगा। परंतु माया रात पाली में ड्यूटी कर रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह वाचमेन को उठाकर कचरे के ढेर के पास जा पहुंची। टार्च की रोशनी से देख ढूंढने लगी।

उसने देखा कि एक नन्हीं सी जान – एक मासूम बच्ची जिसके शरीर पर कपड़ा भी नहीं था। कचरे के ढेर में पड़ी है और उसी के रोने की आवाज आ रही थी। शरीर पर चोट के निशान थे। माया की ममता फूट पड़ी। तुरंत ही उसने, उसे निकाल कर छाती से लगाया और बदहवास सी डॉक्टर की केबिन की ओर दौड़ पड़ी।

कब उसने दो मंजिल तय कर ली उसे पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने पूछताछ शुरू की माया रोने लगी “मेरी बच्ची को बचा लीजिए… मेरी बच्ची को बचा लीजिए.. डॉक्टर साहब मेरी बच्ची को बचा लीजिए“। डॉ ने उसकी स्थिति को देखकर तुरंत इलाज शुरु कर दिया जिससे बच्ची खतरे से बाहर हो गई।

माया तो जैसे इसी दिन का इंतजार कर रही थी। उसने डाक्टर साहब से कई कई बार कहा “डॉक्टर साहब इस बच्ची पर सिर्फ मेरा अधिकार है, आप समझ रहे हो ना, सिर्फ मेरा अधिकार है, आप साक्षी हैं मैंने इसे कचरे के ढेर से पाया है, इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है”।

डॉक्टर साहब भी मां की ममता के आगे विवश थे। उसने पुलिस के हस्तक्षेप के बाद उस बच्ची का माता का नाम” माया” लिख दिया और पक्की मोहर लगा दी। माया की वर्षों की सेवा सफल हो गई। उसकी गोद में नन्हीं बिटिया मिल गई। अब वह बांझ नहीं कहलाएगी।  अब वह एक बच्चे की मां बन चुकी थी ।  बिटिया को सीने से लगाए आज इस दुनिया में सबसे सुखी इंसान थी। कभी वह अपने को और कभी अपनी बिटिया को देखते-देखते  बार-बार आंखों से आंसू गिरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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