मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #29 – बिन पंखाचा पारवा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “बिन पंखाचा पारवा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 29☆

☆ बिन पंखाचा पारवा ☆

 

थेंब पावसाचा आला

पान जोजवते त्याला

दिला पाळण्या खालून

होता दुसऱ्या पानाला

 

खेळवती त्याला पाने

गाती सळसळ गाणे

पेंग येता डोळ्यावर

पाट टेके धरणीला

 

होता निजला रे थेंब

तिथं आला एक कोंब

हात काढून बाहेर

देई सावली मातीला

 

काम थेंबाचे संपले

माती आड ते लपले

त्याने भुरळ घातली

किती शेधते मी त्याला

 

गेला आकाशी उडून

पंख आणले कोठून

बिन पंखाचा पारवा

पुन्हा येईल भेटीला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 29 – बिदाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल पेश करती एक अतिसुन्दर प्रेरक लघुकथा  “बिदाई”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 29 ☆

☆ लघुकथा – बिदाई ☆

 

माना अम्मा का बाड़ा शहर के कोने पर मशहूर है। गरीब दुखी परिवार जिनके पास रहने सर छुपाने की जगह नहीं। सभी माना अम्मा के बाड़ा में आकर रहते थे।

माना अम्मा को कोई नहीं जानता था कि कहां की है और किस जात बिरादरी की है। सभी उसे मानते थे। और सभी उनका कहना मानते थे। इसलिए उनका नाम माना अम्मा पड़ गया था।

उसी बाड़े में फातिमा और शकुन दोनों का परिवार रहता था। मेहनत मजदूरी कर अपना अपना परिवार चला रहे थे। एक मुस्लिम परिवार और दूसरा हिंदू परिवार परंतु कहीं कोई भेदभाव नहीं।

दीपावली, होली भी साथ-साथ तो ईद, बकरीद भी मिलकर मनाते थे। फातिमा को गर्भ था। फातिमा बच्चा प्रसव के समय बहुत ही परेशान थी। उसका पति बार-बार डॉक्टर से हाथ जोड़कर कह रहा था… “मेरी फातिमा को बचा लीजिए” परंतु डॉक्टर ने कहा… “इनका शरीर बहुत ही कमजोर हो चुका है और खून की बहुत कमी हो गई है। हमारी कोशिश की जा रही है।” परंतु जो होना था वही हुआ नन्हीं सी बच्ची को जन्म देकर फातिमा शांत हो गई ।

शकुन पास में थी अस्पताल में कुछ उसको समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें?? बच्ची को सीने से लगा एक संकल्प लेकर उसे घर ले आए। सभी कहने लगे… कि मुसलमान की लड़की को क्यों पालने जा रही हो! परंतु शकुन को किसी बात की चिंता नहीं थी। और किसी की बात को उसने नहीं सुना ।

अपने पति, पुत्र और उस नन्हीं सी जान को लेकर सदा सदा के लिए बाड़ा से निकलकर दूसरे शहर को चली गई।

आज बिटिया की शादी हो रही है। बिदाई के समय मां के बहते हुए आंसू को बच्ची समझ नहीं पा रही थी। दोनों भाई बहन मां से लिपटे हुए थे और मां कह रही थी.. “बेटे अपनी बहन का अपने से ज्यादा ध्यान रखना। कभी उसे अकेला नहीं करना। हमेशा सुख दुख में उसका साथ देना और कभी मायके की कमी महसूस नहीं होने देना।” बेटा भी मां को अपलक देख रहा था। बहन ने हंसकर कहा… “यह छोड़ेगा तो भी मैं इसे पकड़ कर रखूंगी। आप चिंता ना करें।”

माना अम्मा भी उस शादी में शामिल थी। पुरानी राज की बात को जानकर बहुत ही मंद मंद मुस्कुरा रही थी और अपने आप में गर्व महसूस कर रही थी कि … आज मेरे बाड़े की अहमियत क्या है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आमंत्रित  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – आमंत्रित 

समारोह के आमंत्रितों की सूची बनकर तैयार थी। जुगाड़ लगाकर प्रदेश के एक राज्यमंत्री को बुला लिया था। शहर के प्रमुख अखबार के संपादक और एक चैनल के एक्जिक्यूटिव एडिटर थे। सूची में कलेक्टर थे, डीएसपी थे। कई बड़े उद्योगपति, जाने-माने वकील थे। अभिनेत्री को तो बाकायदा पेमेंट देकर ‘सेलिब्रिटी इनवाइटी’ बनाया था।

‘वे सब लोग आ रहे हैं जिनके दम पर दुनिया चलती है..’ लोअर डिवीजन की क्लर्की से रिटायर हुए अपने वयोवृद्ध पिता को लिस्ट दिखाते हुए इतरा कर साहब ने कहा।

‘ देखूँ ज़रा.., पर इसमें ईश्वर का नाम तो दिखता ही नहीं कहीं जिसके दम पर..,’ पिता ने चश्मे की गहरी नजर से एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते हुए अधूरा वाक्य कहकर अपनी बात पूरी की थी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 26 – कविता – कर्फ्यू में गोरैया ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक सामयिक कविता “कर्फ्यू में गोरैया । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 26 ☆

☆ कविता – कर्फ्यू में गोरैया  

 

किसी दंगाई की,

तलवार से घायल,

खून से लथपथ,

बेबस सी गोरैया,

सुबह से मुंडेर पर,

टप टप खून बहाती,

बैठी सोच रही है,

ओ घर के मालिक

काश!

तू भी तलवार रखता,

तो इतनी देर तक,

यूँ  तेरी मुंडेर पर,

मुझे बैठना न पड़ता।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #29 – संचार क्रांति ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संचार क्रांति”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 29 ☆

☆ संचार क्रांति

 

विगत वर्षो में संपूर्ण विश्व में संचार क्रांति हुई है. हर हाथ में मोबाइल एक आवश्यकता बन गया है, सरकार ने इसकी जरूरत को समझते हुये ही मोबाइल, टैब व पर्सनल कम्प्यूटर मुफ्त बांटने की योजनाये प्रस्तुत की हैं. मल्टी मीडिया मोबाइल पर  कैमरे की सुविधा तथा किसी भी भाषा में टिप्पणी लिखकर उसे सार्वजनिक या किसी को व्यक्तिगत संदेश के रूप में भेजने की व्यवस्था के चलते मोबाइल बहुआयामी बहुउपयोगी उपकरण बन चुका है.

इन नवीनतम संचार उपकरणो के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से लगभग नगण्य व्यय पर सोशल मीडिया के माध्यम से लोग परस्पर संपर्क में रह सकते हैं. सोशल मीडिया के अनेकानेक साफ्टवेयर विकसित हुये हैं. २०० से अधिक सोशल साइटस् प्रचलन में हैं, किन्तु लोकप्रिय साइट्स फेसबुक, ट्विटर, माई स्पेस, आरकुट, हाई फाइव, फ्लिकर, गूगल प्लस, ड्यूओ, स्कैप। लिंकेड इन  आदि ही हैं. इन  के द्वारा लोग परस्पर संवाद करते रहते हैं. व्यक्तिगत या सामाजिक विषयो पर इन साइट्स पर बड़े बड़े लेखो की जगह छोटी टिप्पणियो या फोटो के माध्यम से लोग परस्पर वैचारिक आदान प्रदान करते रहते हैं. संपादन की बंदिशें नही होती. इधर लिखो और क्लिक करते ही समूचे विश्व में कहीं भी तुरंत संदेश प्रेषित हो जाता है. युवा पीढ़ी जो इन संसाधनो से यूज टू है, बहुतायत में इनका प्रयोग कर रही है. एक ही शहर में होते हुये भी परिचितो से मिलने जाना समय साध्य होता है, किन्तु इन सोशल साइट्स के द्वारा लाइव चैट के जरिये एक दूसरे को देखते हुये सीधा संवाद कभी भी किया जा सकता है, मैसेज छोड़ा जा सकता है, जिसे पाने वाला व्यक्ति अपनी सुविधा से तब पढ़ सकता है, जब उसके पास समय हो. इस तरह संचार के इन नवीनतम संसाधनो की उपयोगिता निर्विवाद है.

फिल्म सत्याग्रह कुछ समय पूर्व प्रदर्शित हुई, जिसमें नायक ने फेस बुक के माध्यम से जन आंदोलन खड़ा करने में सफलता पाई, इसी तरह चिल्हर पार्टी नामक फिल्म में भी बच्चो ने फेसबुक के द्वारा परस्पर संवाद करके एक मकसद के लिये आंदोलन खड़ा कर दिया था. फिल्मो की कपोल कल्पना में ही नही वास्तविक जीवन में भी विगत वर्ष मिस्र की क्राति तथा हमारे देश में ही अन्ना के जन आंदोलन तथा निर्भया प्रकरण में सोशल नेटवर्किंग साइटस का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. गलत इरादो से इन साइट्स के दुरुपयोग के उदाहरण भी सामने आये है, उदाहरण के तौर पर दक्षिण भारत से उत्तर पूर्व के लोगो के सामूहिक पलायन की घटना फेसबुक के द्वारा फैलाई गई भ्राति के चलते ही हुई थी.

कारपोरेट जगत ने मल्टी मीडिया की इस ताकत को पहचाना है. ग्राहको से सहज संपर्क बनाने के लिये फेसबुक व ट्विटर जैसे सोशल पोर्टल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है. विभिन्न कंपनियो ने अपने उत्पादो के लिये फेसबुक पर पेज बनाये हैं, जिन्हें लाइक करके कोई भी उन पृष्ठो पर प्रस्तुत सामग्री देख सकता है तथा अपना फीड बैक भी दे सकता है. इन कंपनियो ने बड़े वेतन पर प्राडक्ट की जानकारी रखने वाले, उपभोक्ता मनोविज्ञान को समझने वाले तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञ रखे हैं जो इन सोशल साइट्स के जरिये अपने ग्राहको से जुड़े रहते हैं व उनकी कठिनाईयो को हल करते हैं. तरह तरह की प्रतियोगिताओ के माध्यम से ये पेज मैनेजर अपने ग्राहको को लुभाने में लगे रहते हैं.

सरकारी संस्थानो में व्यापक रूप से इस तरह की उच्च स्तरीय पहल मोदी सरकार ने की है.  अनेक मंत्रियो व अधिकारियो ने अपने कार्य क्षेत्र में उत्साह से सोशल मीडिया के महत्व को समझते हुये इसके जन हित में उपयोग करने के प्रयास किये हैं. अनेक ऐसी परियोजनाये पुरस्कृत भी हुई हैं. फेसबुक की पारदर्शिता के कारण समस्यायें तथा निदान संबंधित अधिकारियो व उपभोक्ताओ के बीच साझा रहती हैं. फेस बुक पर प्राप्त सुझावो व समस्याओ के विश्लेषण से  क्षेत्र की समान समस्याओ की ओर सभी संबंधित अधिकारियो को सरलता से जानकारी मिल सकती है व उनका तुरंत निदान हो सकता है. फेसबुक की सदैव व सभी जगह उपलब्धता के कारण उपभोक्ता व नागरिको को सहज ही अपनी बात कहने का अधिकार मिल गया है. इस तरह सोशल मीडिया के उपयोग की अभिनव पहल से उपभोक्ता संतुष्टि का लक्ष्य कम से कम समय में ज्यादा पारदर्शिता तथा बेहतर तरीके से पाया जा सकेगा. फेसबुक के साथ ही चौबीस घंटे सुलभ टेलीफोन लाइनें एवं ईमेल के द्वारा भी  संपर्क करने की सुविधा भी शासन ने सुलभ की  है, अब गेद जनता की पाली में है. देखें कितना सार्थक होता है यह प्रयास.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 28 – दिलदार मित्र ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  ईश्वर की स्तुति  स्वरुप  भजन/कविता   “दिलदार मित्र ” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 28 ☆ 

 ☆ दिलदार मित्र 

 

दिलदार मित्र माझा

लाख काढतो रे खोडी।

तुझ्या छेडण्याने गड्या

वाढे जीवनाची गोडी।

 

चिमणीच्या दाताची ती

अशी अवीट माधुरी ।

तिच्यापुढे फिकी होती

पंच पक्वान्नेही सारी।

 

तुझा प्रेमळ कटाक्ष

देई लढण्यास धीर।

कौतुकाच्या थापेला रे

मन आजही अधीर।

 

शब्दाविना कळे तुला

व्यथा माझिया मनाची।

हृदयीच्या बंधानाला

भाषा लागेना जनाची।

 

जीवनाच्या वाळवंटी

तुझ्या मैत्रीचा ओलावा।

लाख मोल सोडूनिया

शब्द सख्याचा तोलावा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य ☆ डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘

डॉ. रामवल्लभ आचार्य

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी  एवं श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

 

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  डॉ. रामवल्लभ आचार्य  जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी  की कलम से। मैं  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया।  विविध पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ रामवल्लभ आचार्य जी  हम सबके आदर्श हैं। )

(संकलनकर्ता  –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )

चार मार्च उन्नीस सौ तिरेपन के दिन भोपाल में जन्में डा. वल्लभ आचार्य जी के पिताजी  शहर के प्रतिष्ठित संस्कृतज्ञ,ज्योतिषी व कर्मकांडी विद्वान् थे तथा श्री राधा वल्लभ मंदिर के पुजारी एवं शासकीय शिक्षक थे।

आपने बी. एस. सी. तथा बी. ए. एम. एस.(बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एंड सर्जरी) की उपाधि अर्जित की तथा १९७८ से  चिकित्सा व्यवसाय में  संलग्न हैं ।आप नेशनल. इन्टीग्रेटेड मेडिकल एसोसिएशन के जिला शाखा सचिव, प्रांतीय सचिव, कोषाध्यक्ष,  राष्ट्रीय संयुक्‍त सचिव, एवं अनेक प्रांतीय व राष्ट्रीय समितियों के सदस्य, संयोजक व चेयरमेन रहे हैं। अनेक चिकित्सा शिविरों के आयोजन, धर्मार्थ चिकित्सा केन्द्रों के संचालन तथा समाज सेवा की अन्य गतिविधियों में संलग्न रहे डा. आचार्य को राज्य स्तरीय धन्वन्तरि सम्मान, डा. व्ही.  पी. शर्मा मेमोरियल गोल्ड मेडल अवार्ड तथा लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रदान किये गये  । आप वर्ष १९९९ से पारिवारिक मासिक स्वास्थ्य पत्रिका  आरोग्य सुधा” का संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं।

छात्र जीवन से ही डा. आचार्य की रुचि साहित्य और पत्रकारिता में रही। आपने राष्ट्र का अह्वान, गोरा बादल, महाकौशल तथा जागरण के संपादकीय विभागों में कार्य किया तथा आपके धर्म, आध्यात्म, विज्ञान, साहित्य एवं संस्कृति संबंधी लेखों तथा कविता, गीत, व्यंग्य, कहानी, साक्षात्कार तथा अन्य रचनाओं का प्रकाशन धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सरिता, मुक्ता, चंपक, बाल भारती, कल्याण, नव भारत, नई दुनिया, भास्कर, जागरण सहित अनेक पत्र पत्रिकाओं में हुआ ।

आप आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा अनुमोदित गीतकार हैं । आपके लिखे गीतों, संगीत रूपकों, नाटक-प्रहसन, टेलिफिल्म व धारावाहिकों का प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों, राष्ट्रीय व विदेश प्रसारण सेवा द्वारा किया गया। आपने फिल्म “अहिंसा के पुजारी” के लिये गीत तथा अनेक नाटकों व धारावाहिकों के लिए शीर्षक गीत भी लिखे । प्रसिद्ध गायकों यथा- हरि ओम शरण, अनूप जलोटा, अनुराधा पौड़वाल, उदित नारायण, रूप कुमार राठौर, कल्याण. सेन, घनश्याम वासवानी, राजेंद्र काचरू, शेवन्ती सान्याल, प्रभंजय चतुर्वेदी, प्रकाश पारनेरकर, आदि के स्वरों में आपके भक्तिगीतों के कैसेट्स व सीडीज वीनस, टी सीरीज, ई एम आई आदि कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी किये।  आपके भजनों को साध्वी ऋतंभरा सहित अनेक प्रवचनकारों और भजनमंडलियों द्वारा गाया जाता है। आपके देशभक्ति गीत व सरस्वती वंदना का गायन अनेक विद्यालयों में किया जाता है । राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास पर लिखे आपके संगीत रूपक “मुक्ति का महायज्ञ” की दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति भारत भवन सहित देश के अनेक मंचों पर की जा चुकी है।

डॉ. आचार्य की प्रकाशित पुस्तकें हैं – “राष्ट्र आराधन”, “गीत श्रंगार”, “सुमिरन”, गाते गुनगुनाते”, “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो” तथा “पांचजन्य का नाद चाहिये” (सभी गीत संकलन)। “शब्दायन” व “गीत अष्टक” (द्वितीय) सहित अनेक संकलनों में भी आपकी रचनायें प्रकाशित हुई। आपको “अभिनव शब्द शिल्पी”, ” राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान”, ” साहित्य श्री”, “तुलसी साहित्य सम्मान”, “जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान”, “चन्द्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान”, “राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान”, “विशिष्ट साधना सम्मान” एवं “भारत भाषा भूषण” सहित अन्य सम्मान प्राप्त हुए हैंसाहित्य सागर पत्रिका द्वारा आप पर विशेषांक का प्रकाशन किया गयाआप भोपाल की प्रथम साहित्यिक संस्था “कला मंदिर” के अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के जिलाध्यक्ष, प्रांतीय महामंत्री एवं राष्ट्रीय सचिव के दायित्व का निर्वाह कर चुके हैं तथा सम्प्रति मध्य प्रदेश लेखक संघ के प्रादेशिक अध्यक्ष हैं

 

संकलन –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #26 – प्रतिरूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 26☆

☆ प्रतिरूप ☆

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरूआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’… ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’..’गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’…’बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ की संकीर्णता व्यक्ति को निर्लज्जता के पथ पर ढकेलती है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ,

बचपन में घोड़ा बनकर

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था,

दूसरे को सीढ़ी बनाकर

ऊँचाई हासिल करने के

गुरु से सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की

उसकी अदा पर इठलाता था,

जो बोया मेरी राह में अड़ा है

मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है,

बीज पर तो नियंत्रण कर लेता

वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से

नित लज्जित होना

मेरा समुचित दंड है।

 

(कविता संग्रह ‘योंही।’)

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा। इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 29 ☆ व्यंग्य – नहाने के बहाने ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है नहाने के बहाने।  नहाने के बहाने डॉ परिहार जी ने कई लोगों की पोल खोल दी  है । यह शोध कई लोगों की विशेष जानकारी कई लोगों  तक पहुंचा देगा ।  इस  रोग से ग्रस्त पतियों की पत्नियों  को इस  व्यंग्य से बहुत लाभ मिलेगा।  इस कड़कड़ाती सर्दी में हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 29 ☆

☆ व्यंग्य – नहाने के बहाने ☆

कुछ दिन पहले एक पत्नी अपने पतिदेव के खिलाफ यह शिकायत लेकर परिवार परामर्श केन्द्र में पहुंच गयी कि पतिदेव नहाते नहीं थे। ज़ाहिर है कि इस मामले में पतिदेव की खासी किरकिरी हुई और पानी से परहेज़ की उनकी आदत जगजाहिर हो गयी। इस घटना ने हमारे देश में पतियों की पतली होती हालत को भी नुमायाँ किया। किसी समय ‘परमेश्वर’ माने जाने वाले पति की आज यह हैसियत हो गयी है कि नहाने के सवाल को लेकर तलाक की नौबत आने लगी है।

हमारे देश में स्नान की बड़ी महत्ता है। हर पवित्र और महत्वपूर्ण काम के पहले स्नान ज़रूरी होता है। दिवंगत को भी बिना स्नान दुनिया से विदा नहीं किया जाता। सबको पालने वाले भगवान को नहलाये बिना नैवेद्य नहीं चढ़ाया जाता। यह दीगर बात है कि हमारे समाज में बहुत सी जातियाँ नहाने के बाद भी पवित्र नहीं होतीं और बहुत सी बिना नहाये ही पवित्र बनी रहती हैं। कई लोग यही बता बता कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं कि वे बिला नागा रोज़ सबेरे चार बजे नहाते हैं या जाड़ों में भी ठंडे पानी से नहाते हैं।

लेकिन सब लोग नहाने के प्रति ऐसे उत्साही नहीं होते। बहुत से महानुभाव पेट-पूजा को छोड़कर दूसरी पूजा नहीं करते और परिणामतः स्नान को  ज़रूरी नहीं मानते। कुछ लोग बुड़की (संक्रांति) की बुड़की ही स्नान संपन्न करते हैं और फिर भी शिकायत करते हैं कि ‘यह बुड़की भी मरी रोज़ रोज़ आ जाती है।’  एक और महाशय का मासूम कथन है—-‘पता नहीं लोग महीनों बिना नहाये कैसे रह लेते हैं। हमें तो पंद्रह दिन में ही खुजली चलने लगती है।’ एक ऐसे सज्जन का किस्सा भी मशहूर है

जिनका स्वेटर दीवाली पर खो गया था और जब होली पर उन्होंने नहाने के लिए कपड़े उतारे तो पता चला कि स्वेटर पहने हुए थे।

बहुत से लोग घर के सदस्यों के डर से स्नान का ढोंग करते रहते हैं। वे खास तौर से घर की महिलाओं से ख़ौफ़ खाते हैं जो नहाने के मामले में निर्मम होती हैं। ऐसे लोग स्नानगृह में पानी गिराकर और हल्लागुल्ला मचाकर बाहर आ जाते हैं। एक ऐसे ही महापुरुष की पोल उस समय खुल गयी जब वे मोज़े पहने बाथरूम में गये और मोज़े पहने ही बाहर आ गये, यानी ‘सावधानी हटी और दुर्घटना घटी’ वाला मामला हो गया।

एक गुरूजी के बारे में सुना था कि वे अपने पवित्र शरीर पर मैल का पर्याप्त संग्रह करते थे और मैल की बत्तियां उतार उतार कर भक्तों में प्रसाद रूप में वितरित करते रहते थे। यह पता नहीं चला कि भक्त इस प्रसाद का क्या उपयोग करते थे, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि प्रसाद के मामले में ऐसे आत्मनिर्भर गुरू विरले होते हैं।

इंग्लैंड के अपने पुराने प्रभुओं के गोरे रंग को देखकर हममें से बहुतों को रश्क होता है। हमारे देश में भी गोरे रंग के लिए ज़बरदस्त पागलपन है। हर लड़के को गोरी बीवी चाहिए। लेकिन इंग्लैंड के पुरुषों के बारे में पढ़ा कि उनमें से ज़्यादातर की अपनी साफ-सफाई में रुचि बहुत कम है। 57 फीसदी पुरूष स्नानघर में 15 मिनट से कम और 27 फीसदी 10 मिनट से कम वक्त बिताते हैं। अपने भीतरी वस्त्र बदलने में भी वे खासे लापरवाह हैं।

एक अखबार में पढ़ा कि इंडियाना में सर्दियों में नहाना कानून के खिलाफ है और बोस्टन में उस समय तक नहाना ग़ैरकानूनी है जब तक डॉक्टर इसकी सलाह न दे। पढ़ कर ख़याल आया कि हमारे देश में भी ऐसे कानून बन जाएं तो स्नान-विमुख पतियों के घर टूटने से बच जाएं। वैसे इसी अखबार में यह भी छपा है कि इज़राइल में मुर्गियों के लिए शुक्रवार और शनिवार को अंडे देना ग़ैरकानूनी है।

एक लेख में बड़ा दिलचस्प तथ्य पढ़ने में आया कि सौन्दर्य और नफ़ासत के लिए विख्यात फ्रांस में मध्यकाल में महिलाएं जीवन भर अपनी कोमल काया को पानी का स्पर्श नहीं होने देती थीं। इसके बावजूद उनका रूप और सौन्दर्य जगमगाता रहता था। पुरुष भी पूरे जीवन में एकाध बार ही स्नान करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सौन्दर्य की सुरक्षा और अभिवृद्धि के लिए स्नान क़तई ज़रूरी नहीं है।लोग व्यर्थ ही ड्रमों पानी शरीर को घिसने और चमकाने में खर्च करते हैं। समझदार लोग स्नान की कमी को ‘परफ्यूम’ और ‘डी ओ’ की मदद से सफलतापूर्वक ढंक लेते हैं।

अंत में ‘फ़ैज़’ साहब से मुआफ़ी मांगते हुए अर्ज़ है—-

‘और भी ग़म हैं ज़माने में नहाने के सिवा,

राहतें और भी हैं ग़ुस्ल की राहत के सिवा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 3 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 3 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – पगली का बचपन बीता, विवाह हुआ, ससुराल आई पगली, सुहागरात के दिन मिली नशे की पीड़ा ने एक अनकही कहानी  को जन्म दिया जिसे पगली न तो मायके में किसी को सुना सकतीं थी न तो लज्जा के चलते ससुराल में—-अब आगे पढ़े—-)

पगली अपने पति के पांवो के पास बैठी अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहा रही थी। उसी समय पड़ोस में चल रहे किसी विवाह समारोह में नाट्यनर्तकी द्वारा गाया गया दर्द भरा गीत ढ़ोल नगाड़े की थाप पर फिजाओं में तैरता पगली के कान से टकराया था—

सुन ले पुकार सजना,
आइ तेरे द्वार सजना,
दिल में मिलन की लिए कामना।
दिल है बेकरार मेरा,
मैंने चाहा प्यार तेरा
तूं है किस जहाँ में मेरे साजना ।। 1।।

तूं है नशे में हाय,
घडी मिलन की बीती जाये,
दिल में बेकरार मेरे साजना।
ये दिल रोये जार जार,
मैं तो चाहूं तेरा प्यार,
पड़ा बेखबर है घर आंगन।। 2।।

कैसी घड़ी ये आयी,
मिल के भी मिल ना पायी,
उठ के तो देख मेरे साजना।
मैं तो हूँ कन्या कुंवारी,
तुझपे नशा है भारी,
दिल का मिलन हो कैसे साजना।। 3।।

छम छम बाजे चूड़ी पायल,
मोरा करेजवा घायल,
कैसे मिलन की करूं याचना।
सुनले पुकार  सजना,
आइ तेरे द्वार  सजना।। 4।।

इस प्रकार दर्द को लेकर फिजां में तैरती लोक नर्तकी के गीतों की आवाज़ उसके कानों मे पड़ी तो गीत का दर्द
और पगली की परिस्थितियों का सामंजस्य उसके दिल के जख्म को और गहरा कर गया। वह सिसक उठी पगली।  उसके कपोलों से बहते आंसुओं की धार मदहोश पति के पैरों पर गिर रही थी। इन परिस्थितियों में पगली को याद हो आई भैरव बाबा द्वारा सुनाई गई कृष्ण सुदामा की मित्रता की कथा। और हठात मुह से निकल पड़े ये शब्द—

पानि परात को हाथ छु यो नहि,
नैनन के जल से पग धोयो।

कितना सामंजस्य था दोनो घटनाओं में एक तरफ भगवान अपने आंसुओं से भक्त के पांव पखार रहा था तो दूसरी तरफ एक पतिव्रता अपने आंसुओं, से कलयुगी पति भगवान के चरण धो रही थी।  दोनों में भावों का अंतर था जहां दोनों मित्र भावों के सागर में गोते लगा रहे थे। वही पगली के आंसुओं और पीड़ा का कोई मोल नही था।

सुहागरात बीत चली थी, सेज पर सजी बेला और गुलाब की लडियाँ और पंखुडियां अब भी दिल में हसरतें लिए उनके मिलन की साक्षी बनने की तमन्ना सहेजे हसरत भरी आखों से देख रही थी। रात बीत चली थी।  सुहाग सेज की यह अजीबोगरीब दास्ताँ न तो ससुराल में न तो मायके में पगली अपने माँ बाप को तथा सखियों को सुना सकती थी। ये कहानी एक मात्र पगली की ही हो ऐसा नही है हजारों पगलियां आज भी समाज में घुटन और पीड़ा ले जी रही हैं जिनके दुख और पीड़ा का कोई अंत नही है।

 

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -4 – खुशियों भरे दिन 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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