मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 28 – दिलदार मित्र ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  ईश्वर की स्तुति  स्वरुप  भजन/कविता   “दिलदार मित्र ” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 28 ☆ 

 ☆ दिलदार मित्र 

 

दिलदार मित्र माझा

लाख काढतो रे खोडी।

तुझ्या छेडण्याने गड्या

वाढे जीवनाची गोडी।

 

चिमणीच्या दाताची ती

अशी अवीट माधुरी ।

तिच्यापुढे फिकी होती

पंच पक्वान्नेही सारी।

 

तुझा प्रेमळ कटाक्ष

देई लढण्यास धीर।

कौतुकाच्या थापेला रे

मन आजही अधीर।

 

शब्दाविना कळे तुला

व्यथा माझिया मनाची।

हृदयीच्या बंधानाला

भाषा लागेना जनाची।

 

जीवनाच्या वाळवंटी

तुझ्या मैत्रीचा ओलावा।

लाख मोल सोडूनिया

शब्द सख्याचा तोलावा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य ☆ डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘

डॉ. रामवल्लभ आचार्य

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी  एवं श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

 

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  डॉ. रामवल्लभ आचार्य  जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी  की कलम से। मैं  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया।  विविध पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ रामवल्लभ आचार्य जी  हम सबके आदर्श हैं। )

(संकलनकर्ता  –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )

चार मार्च उन्नीस सौ तिरेपन के दिन भोपाल में जन्में डा. वल्लभ आचार्य जी के पिताजी  शहर के प्रतिष्ठित संस्कृतज्ञ,ज्योतिषी व कर्मकांडी विद्वान् थे तथा श्री राधा वल्लभ मंदिर के पुजारी एवं शासकीय शिक्षक थे।

आपने बी. एस. सी. तथा बी. ए. एम. एस.(बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एंड सर्जरी) की उपाधि अर्जित की तथा १९७८ से  चिकित्सा व्यवसाय में  संलग्न हैं ।आप नेशनल. इन्टीग्रेटेड मेडिकल एसोसिएशन के जिला शाखा सचिव, प्रांतीय सचिव, कोषाध्यक्ष,  राष्ट्रीय संयुक्‍त सचिव, एवं अनेक प्रांतीय व राष्ट्रीय समितियों के सदस्य, संयोजक व चेयरमेन रहे हैं। अनेक चिकित्सा शिविरों के आयोजन, धर्मार्थ चिकित्सा केन्द्रों के संचालन तथा समाज सेवा की अन्य गतिविधियों में संलग्न रहे डा. आचार्य को राज्य स्तरीय धन्वन्तरि सम्मान, डा. व्ही.  पी. शर्मा मेमोरियल गोल्ड मेडल अवार्ड तथा लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रदान किये गये  । आप वर्ष १९९९ से पारिवारिक मासिक स्वास्थ्य पत्रिका  आरोग्य सुधा” का संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं।

छात्र जीवन से ही डा. आचार्य की रुचि साहित्य और पत्रकारिता में रही। आपने राष्ट्र का अह्वान, गोरा बादल, महाकौशल तथा जागरण के संपादकीय विभागों में कार्य किया तथा आपके धर्म, आध्यात्म, विज्ञान, साहित्य एवं संस्कृति संबंधी लेखों तथा कविता, गीत, व्यंग्य, कहानी, साक्षात्कार तथा अन्य रचनाओं का प्रकाशन धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सरिता, मुक्ता, चंपक, बाल भारती, कल्याण, नव भारत, नई दुनिया, भास्कर, जागरण सहित अनेक पत्र पत्रिकाओं में हुआ ।

आप आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा अनुमोदित गीतकार हैं । आपके लिखे गीतों, संगीत रूपकों, नाटक-प्रहसन, टेलिफिल्म व धारावाहिकों का प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों, राष्ट्रीय व विदेश प्रसारण सेवा द्वारा किया गया। आपने फिल्म “अहिंसा के पुजारी” के लिये गीत तथा अनेक नाटकों व धारावाहिकों के लिए शीर्षक गीत भी लिखे । प्रसिद्ध गायकों यथा- हरि ओम शरण, अनूप जलोटा, अनुराधा पौड़वाल, उदित नारायण, रूप कुमार राठौर, कल्याण. सेन, घनश्याम वासवानी, राजेंद्र काचरू, शेवन्ती सान्याल, प्रभंजय चतुर्वेदी, प्रकाश पारनेरकर, आदि के स्वरों में आपके भक्तिगीतों के कैसेट्स व सीडीज वीनस, टी सीरीज, ई एम आई आदि कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी किये।  आपके भजनों को साध्वी ऋतंभरा सहित अनेक प्रवचनकारों और भजनमंडलियों द्वारा गाया जाता है। आपके देशभक्ति गीत व सरस्वती वंदना का गायन अनेक विद्यालयों में किया जाता है । राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास पर लिखे आपके संगीत रूपक “मुक्ति का महायज्ञ” की दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति भारत भवन सहित देश के अनेक मंचों पर की जा चुकी है।

डॉ. आचार्य की प्रकाशित पुस्तकें हैं – “राष्ट्र आराधन”, “गीत श्रंगार”, “सुमिरन”, गाते गुनगुनाते”, “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो” तथा “पांचजन्य का नाद चाहिये” (सभी गीत संकलन)। “शब्दायन” व “गीत अष्टक” (द्वितीय) सहित अनेक संकलनों में भी आपकी रचनायें प्रकाशित हुई। आपको “अभिनव शब्द शिल्पी”, ” राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान”, ” साहित्य श्री”, “तुलसी साहित्य सम्मान”, “जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान”, “चन्द्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान”, “राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान”, “विशिष्ट साधना सम्मान” एवं “भारत भाषा भूषण” सहित अन्य सम्मान प्राप्त हुए हैंसाहित्य सागर पत्रिका द्वारा आप पर विशेषांक का प्रकाशन किया गयाआप भोपाल की प्रथम साहित्यिक संस्था “कला मंदिर” के अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के जिलाध्यक्ष, प्रांतीय महामंत्री एवं राष्ट्रीय सचिव के दायित्व का निर्वाह कर चुके हैं तथा सम्प्रति मध्य प्रदेश लेखक संघ के प्रादेशिक अध्यक्ष हैं

 

संकलन –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #26 – प्रतिरूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 26☆

☆ प्रतिरूप ☆

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरूआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’… ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’..’गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’…’बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ की संकीर्णता व्यक्ति को निर्लज्जता के पथ पर ढकेलती है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ,

बचपन में घोड़ा बनकर

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था,

दूसरे को सीढ़ी बनाकर

ऊँचाई हासिल करने के

गुरु से सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की

उसकी अदा पर इठलाता था,

जो बोया मेरी राह में अड़ा है

मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है,

बीज पर तो नियंत्रण कर लेता

वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से

नित लज्जित होना

मेरा समुचित दंड है।

 

(कविता संग्रह ‘योंही।’)

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा। इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 29 ☆ व्यंग्य – नहाने के बहाने ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है नहाने के बहाने।  नहाने के बहाने डॉ परिहार जी ने कई लोगों की पोल खोल दी  है । यह शोध कई लोगों की विशेष जानकारी कई लोगों  तक पहुंचा देगा ।  इस  रोग से ग्रस्त पतियों की पत्नियों  को इस  व्यंग्य से बहुत लाभ मिलेगा।  इस कड़कड़ाती सर्दी में हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 29 ☆

☆ व्यंग्य – नहाने के बहाने ☆

कुछ दिन पहले एक पत्नी अपने पतिदेव के खिलाफ यह शिकायत लेकर परिवार परामर्श केन्द्र में पहुंच गयी कि पतिदेव नहाते नहीं थे। ज़ाहिर है कि इस मामले में पतिदेव की खासी किरकिरी हुई और पानी से परहेज़ की उनकी आदत जगजाहिर हो गयी। इस घटना ने हमारे देश में पतियों की पतली होती हालत को भी नुमायाँ किया। किसी समय ‘परमेश्वर’ माने जाने वाले पति की आज यह हैसियत हो गयी है कि नहाने के सवाल को लेकर तलाक की नौबत आने लगी है।

हमारे देश में स्नान की बड़ी महत्ता है। हर पवित्र और महत्वपूर्ण काम के पहले स्नान ज़रूरी होता है। दिवंगत को भी बिना स्नान दुनिया से विदा नहीं किया जाता। सबको पालने वाले भगवान को नहलाये बिना नैवेद्य नहीं चढ़ाया जाता। यह दीगर बात है कि हमारे समाज में बहुत सी जातियाँ नहाने के बाद भी पवित्र नहीं होतीं और बहुत सी बिना नहाये ही पवित्र बनी रहती हैं। कई लोग यही बता बता कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं कि वे बिला नागा रोज़ सबेरे चार बजे नहाते हैं या जाड़ों में भी ठंडे पानी से नहाते हैं।

लेकिन सब लोग नहाने के प्रति ऐसे उत्साही नहीं होते। बहुत से महानुभाव पेट-पूजा को छोड़कर दूसरी पूजा नहीं करते और परिणामतः स्नान को  ज़रूरी नहीं मानते। कुछ लोग बुड़की (संक्रांति) की बुड़की ही स्नान संपन्न करते हैं और फिर भी शिकायत करते हैं कि ‘यह बुड़की भी मरी रोज़ रोज़ आ जाती है।’  एक और महाशय का मासूम कथन है—-‘पता नहीं लोग महीनों बिना नहाये कैसे रह लेते हैं। हमें तो पंद्रह दिन में ही खुजली चलने लगती है।’ एक ऐसे सज्जन का किस्सा भी मशहूर है

जिनका स्वेटर दीवाली पर खो गया था और जब होली पर उन्होंने नहाने के लिए कपड़े उतारे तो पता चला कि स्वेटर पहने हुए थे।

बहुत से लोग घर के सदस्यों के डर से स्नान का ढोंग करते रहते हैं। वे खास तौर से घर की महिलाओं से ख़ौफ़ खाते हैं जो नहाने के मामले में निर्मम होती हैं। ऐसे लोग स्नानगृह में पानी गिराकर और हल्लागुल्ला मचाकर बाहर आ जाते हैं। एक ऐसे ही महापुरुष की पोल उस समय खुल गयी जब वे मोज़े पहने बाथरूम में गये और मोज़े पहने ही बाहर आ गये, यानी ‘सावधानी हटी और दुर्घटना घटी’ वाला मामला हो गया।

एक गुरूजी के बारे में सुना था कि वे अपने पवित्र शरीर पर मैल का पर्याप्त संग्रह करते थे और मैल की बत्तियां उतार उतार कर भक्तों में प्रसाद रूप में वितरित करते रहते थे। यह पता नहीं चला कि भक्त इस प्रसाद का क्या उपयोग करते थे, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि प्रसाद के मामले में ऐसे आत्मनिर्भर गुरू विरले होते हैं।

इंग्लैंड के अपने पुराने प्रभुओं के गोरे रंग को देखकर हममें से बहुतों को रश्क होता है। हमारे देश में भी गोरे रंग के लिए ज़बरदस्त पागलपन है। हर लड़के को गोरी बीवी चाहिए। लेकिन इंग्लैंड के पुरुषों के बारे में पढ़ा कि उनमें से ज़्यादातर की अपनी साफ-सफाई में रुचि बहुत कम है। 57 फीसदी पुरूष स्नानघर में 15 मिनट से कम और 27 फीसदी 10 मिनट से कम वक्त बिताते हैं। अपने भीतरी वस्त्र बदलने में भी वे खासे लापरवाह हैं।

एक अखबार में पढ़ा कि इंडियाना में सर्दियों में नहाना कानून के खिलाफ है और बोस्टन में उस समय तक नहाना ग़ैरकानूनी है जब तक डॉक्टर इसकी सलाह न दे। पढ़ कर ख़याल आया कि हमारे देश में भी ऐसे कानून बन जाएं तो स्नान-विमुख पतियों के घर टूटने से बच जाएं। वैसे इसी अखबार में यह भी छपा है कि इज़राइल में मुर्गियों के लिए शुक्रवार और शनिवार को अंडे देना ग़ैरकानूनी है।

एक लेख में बड़ा दिलचस्प तथ्य पढ़ने में आया कि सौन्दर्य और नफ़ासत के लिए विख्यात फ्रांस में मध्यकाल में महिलाएं जीवन भर अपनी कोमल काया को पानी का स्पर्श नहीं होने देती थीं। इसके बावजूद उनका रूप और सौन्दर्य जगमगाता रहता था। पुरुष भी पूरे जीवन में एकाध बार ही स्नान करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सौन्दर्य की सुरक्षा और अभिवृद्धि के लिए स्नान क़तई ज़रूरी नहीं है।लोग व्यर्थ ही ड्रमों पानी शरीर को घिसने और चमकाने में खर्च करते हैं। समझदार लोग स्नान की कमी को ‘परफ्यूम’ और ‘डी ओ’ की मदद से सफलतापूर्वक ढंक लेते हैं।

अंत में ‘फ़ैज़’ साहब से मुआफ़ी मांगते हुए अर्ज़ है—-

‘और भी ग़म हैं ज़माने में नहाने के सिवा,

राहतें और भी हैं ग़ुस्ल की राहत के सिवा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 3 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 3 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – पगली का बचपन बीता, विवाह हुआ, ससुराल आई पगली, सुहागरात के दिन मिली नशे की पीड़ा ने एक अनकही कहानी  को जन्म दिया जिसे पगली न तो मायके में किसी को सुना सकतीं थी न तो लज्जा के चलते ससुराल में—-अब आगे पढ़े—-)

पगली अपने पति के पांवो के पास बैठी अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहा रही थी। उसी समय पड़ोस में चल रहे किसी विवाह समारोह में नाट्यनर्तकी द्वारा गाया गया दर्द भरा गीत ढ़ोल नगाड़े की थाप पर फिजाओं में तैरता पगली के कान से टकराया था—

सुन ले पुकार सजना,
आइ तेरे द्वार सजना,
दिल में मिलन की लिए कामना।
दिल है बेकरार मेरा,
मैंने चाहा प्यार तेरा
तूं है किस जहाँ में मेरे साजना ।। 1।।

तूं है नशे में हाय,
घडी मिलन की बीती जाये,
दिल में बेकरार मेरे साजना।
ये दिल रोये जार जार,
मैं तो चाहूं तेरा प्यार,
पड़ा बेखबर है घर आंगन।। 2।।

कैसी घड़ी ये आयी,
मिल के भी मिल ना पायी,
उठ के तो देख मेरे साजना।
मैं तो हूँ कन्या कुंवारी,
तुझपे नशा है भारी,
दिल का मिलन हो कैसे साजना।। 3।।

छम छम बाजे चूड़ी पायल,
मोरा करेजवा घायल,
कैसे मिलन की करूं याचना।
सुनले पुकार  सजना,
आइ तेरे द्वार  सजना।। 4।।

इस प्रकार दर्द को लेकर फिजां में तैरती लोक नर्तकी के गीतों की आवाज़ उसके कानों मे पड़ी तो गीत का दर्द
और पगली की परिस्थितियों का सामंजस्य उसके दिल के जख्म को और गहरा कर गया। वह सिसक उठी पगली।  उसके कपोलों से बहते आंसुओं की धार मदहोश पति के पैरों पर गिर रही थी। इन परिस्थितियों में पगली को याद हो आई भैरव बाबा द्वारा सुनाई गई कृष्ण सुदामा की मित्रता की कथा। और हठात मुह से निकल पड़े ये शब्द—

पानि परात को हाथ छु यो नहि,
नैनन के जल से पग धोयो।

कितना सामंजस्य था दोनो घटनाओं में एक तरफ भगवान अपने आंसुओं से भक्त के पांव पखार रहा था तो दूसरी तरफ एक पतिव्रता अपने आंसुओं, से कलयुगी पति भगवान के चरण धो रही थी।  दोनों में भावों का अंतर था जहां दोनों मित्र भावों के सागर में गोते लगा रहे थे। वही पगली के आंसुओं और पीड़ा का कोई मोल नही था।

सुहागरात बीत चली थी, सेज पर सजी बेला और गुलाब की लडियाँ और पंखुडियां अब भी दिल में हसरतें लिए उनके मिलन की साक्षी बनने की तमन्ना सहेजे हसरत भरी आखों से देख रही थी। रात बीत चली थी।  सुहाग सेज की यह अजीबोगरीब दास्ताँ न तो ससुराल में न तो मायके में पगली अपने माँ बाप को तथा सखियों को सुना सकती थी। ये कहानी एक मात्र पगली की ही हो ऐसा नही है हजारों पगलियां आज भी समाज में घुटन और पीड़ा ले जी रही हैं जिनके दुख और पीड़ा का कोई अंत नही है।

 

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -4 – खुशियों भरे दिन 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 14 – कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण रचना कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला हैअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 14 – विशाखा की नज़र से

☆ कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है  ☆

 

बेरंग है सारे रंगों की अभिलाषा

हमनें गढ़ी सुविधा की परिभाषा

 

जिसनें सोखा नही हरा

हमनें कहाँ उसे हरा रंग

जिसनें जज़्ब किया नही पीला

हमनें कहाँ उसे पीला रंग

ख्वाहिशें, पर फैलाती जहाँ

उसे कहाँ आसमानी रंग

 

भगवा तो और भी कठिन है रंग

जो है लाल औ’ पीले के मध्य का परावर्तन

हरे, नीले, भगवे रंगों की

हमनें करी ख़ूब राजनीति

जबकि असल में नहीं है

यह उस व्यक्ति, वस्तु या धर्म का रंग

हमनें रंग दिया उसको वैसा

जो नहीं था उसका खुदका रंग

 

असल में होते हैं बस दो ही रंग

या तो सफ़ेद या फिर काला

दोनों में समाहित है सारे रंग

अब मत चलाना अपना कुटिल दिमाग

एक को कहना पाक, एक को नापाक

खेलना अब के ऐसी होली

रहना सफ़ेद या सोखना सब रंग

बस दिखे ना एक भी इंद्रधनुषी रंग

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य # 4 ☆ शायरी ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी अतिसुन्दर शायरियां । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #4 ☆ शायरी ☆ 

 

मेरे ख्वाबों ख्यालो में कोई साया लहराया है, न जाने ये कौनसा मौसम आया है,

न जाने कौनसी दिशा में बह रही है हवा, न जाने माझी कौनसी नाँव लाया है,

न जाने ले जाएगा किस किनारे, यही ख्याल जहन में बार बार आया है . . .

 

जाते जाते वो जर्रा दे गया, पिछली दिवार पे निशां दे गया,

हर पत्ता डाली से ले गया, मुझसे मेरा सुंकू ले गया,

बेज़ार सी हो चली है ज़िंदगी, जैसे बेदर्द ज़िंदगी से रंगो को ले गया . . .

 

फ़िज़ा महक रही है आज, हर चिड़िया चहक रही है आज,

तुझसे पहले तेरे आने की खबर जो आयी, हर धड़कन धड़क रही है आज . . .

 

सुबह की पहली-पहली किरण जब पड़ी मेरे आँगन में,

लगा जैसे उसके आने का आगाज हुआ है जीवन में,

लम्हा-लम्हा गिन रही हूँ उसके इंतज़ार में,

न जाने कब होगा उसका दीदार अब के बरस सावन में . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 22 – वरदान और अभिशाप ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “वरदान और अभिशाप।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 22 ☆

☆ वरदान और अभिशाप

भगवान राम भी कर्म के कानून से नहीं बच पाए। उन्होंने एक वृक्ष के पीछे से बाली को मार डाला था, न कि लड़ाई की खुली चुनौती से। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाली को वरदान था कि अगर कोई उससे लड़ने के लिए उसके सामने आ जाए तो बाली को उसकी आधी शक्ति मिल जाएगी।

इसलिए भगवान विष्णु के अगले अवतार, भगवान कृष्ण के रूप में इस कार्य के लिए, उन्हें जरा (अर्थ : माँ) नामक एक शिकारी के हाथों वृक्ष के पीछे से छिप कर चलाये गए तीर से मृत्यु मिली। जानते हैं वो जरा कौन था? वह बाली का अगला जीवन था, जिसने अपने पिछले जन्म में भगवान राम द्वारा छिप कर चलाये हुए तीर से मृत्यु प्राप्त की थी जिसका परिणाम स्वरूप भगवान कृष्ण की मृत्यु भी समान रूप से हुई वो भी उसी केहाथोंजिसे उन्होंने पिछले जन्म में मारा था। इसी को कर्मोंका क़ानून कहते हैं।

क्या आप जानते हैं कि कर्म का अभिशाप और कानून इतना प्रभावी है कि उसने भगवान कृष्ण के सभी राज्यों को बर्बाद कर दिया था । बेशक अगर भगवान कृष्ण चाहते, तो वे उनसे बच सकते थे, क्योंकि यह सब स्वयं उनकी अपनी माया के तहत ही रचा गया था, लेकिन यदि वह ऐसा करते, तो ऐसा लगता कि भगवान अपने द्वारा बनाये गए नियम स्वयं ही तोड़ रहे हैं, तो आम लोग उनका अनुसरण क्यों करेंगे?

भगवान कृष्ण से अधिक बुद्धिमान कौन है? कोई नहीं।

वह कुरुक्षेत्र की लड़ाई में पांडवों के साथ थे क्योंकि उन्हें पता था कि यदि पांडव उस युद्ध को हार जायँगे, तो धर्म का नुकसान होगा और कौरव कभी भी आदर्श राजा नहीं बन पायेंगे जिससे कि कौरवों के शासन में, सभी आम लोगों को भारी मुसीबतों और परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए धार्मिक कानून स्थापित करने के लिए, भगवान कृष्ण को पता था कि पांडवों की जीत आवश्यक है। सभी जानते हैं कि कौरव सेना के पास पांडव सेना से ज्यादा कई और शक्तिशाली योद्धा थे।

 

© आशीष कुमार  

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 20 ☆ हाथों की गलियाँ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “हाथों की गलियाँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 20 ☆

☆ हाथों की गलियाँ

अपना लेखा मेहनत है
भाग्य के भरोसे क्यों रहे?
हाथ कभी क्यों फैलाए?
हम हाथ कभी क्यों जोड़े?

हाथों की गलियाँ तंग रही
नसीब कहां हम ढूँढेंगे?
मिट्टी गारा उठाते सही,
हीरा कोयले से पाएँगे।

कल नसीब हम बदलेंगे ,
हाथों पर कालिख ही सही
हम मेहनत करने वाले हैं ,
आज भले ये तंग सही।

नई रोशनी यहां आएगी,
नया सवेरा वह लाएगी।
हज़ारों किरणों को लेकर,
हाथों की गलियाँ बनाएगी।

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ मित….. (भाग-1) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ मित……  (भाग 1)☆

“Hi”

शेवटी तो मॅसेज आलाच ज्याची मागच्या महिन्याभरापासून मित वाट बघत होता. इंस्टाग्रामवर ” रिमझीम लवर” नाव असलेल्या त्या अकाउंटवर एका मुलीचा फोटो पाहून मित त्यावर मोहित झाला होता. कितीही झूम केला तरी फोटो फूलस्क्रीन होत नव्हता. आणि लहानशा गोलाकारात बघून त्याचे मन भरत नव्हते. म्हणून त्याने त्या अकाउंटला फाॅलो केले. प्रायवैट अकाउंट असलयामूळे “रिक्वेस्टेड” त्याच्या स्क्रिनवर दिसत होते. नाव लक्षात राहावे म्हणून त्याने स्क्रीनशाॅट काढून ठेवला. पुर्ण फोटो पाहण्याची त्याची बेचैनी काही कमी होत नव्हती. पण अशा नावाची अकाउंट्स ही मुलांची पण असतात. फेसबूक, इंस्टाग्राम किंवा अन्य सोशल मिडिया अॅप वर बनावट आय डी ओपन करून मुलींच्या शोधात असणा-या मुलांची निव्वळ टर उडवण्यासाठी, कधी कधी जवळच्या मित्राची फजिती  करण्यासाठी अशी अकाउंट तयार केली जातात. हे त्याच्या लक्षात आलेच होते. पण फक्त जाणून घ्यावे या उद्देशाने त्याने फाॅलो रिक्वेस्ट कॅन्सल केली नाही. बेचैनी एवढी होती की क्षणभर ही धीर त्याला निघत नव्हता. पण काय करणार, रिक्वेस्ट स्विकारली तेव्हाच त्याला तिची प्रोफाईल बघता येणार होती.

आज कित्येकदा मितने मोबाईल डाटा चालू करून इंस्टाग्राम नोटीफिकेशन चेक केले होते. एव्हाना सर्वच अॅपची नोटीफिकेशन त्याने बंद करून ठेवली होती. पण आज त्याने ती पुन्हा चालू करून पुन्हा पुन्हा तपासत होता. त्यांच हे बदलणं त्याच्या गृपच्या मुलांनाही नविन होतं. काहीतरी विचारांत राहणारा, शांत शांत एका कोप-यात राहणारा, आणि कोणाचा फोन आल्याशिवाय मोबाईलला न बघणारा मित  आज मात्र मोबाईलला खुपदा चालू करून पाहत होता.

रात्रीच्या जेवणानंतर नित्य सवयीप्रमाने शत पावली करण्यासाठी कॅटीनबाहेर गेला. चालता चालता न राहवून त्याने  पुन्हा मोबाईल डाटा चालू केला.  आणि फायनली त्याला ती नोटीफिकेशन मिळाली “रिमझिम लवर अॅक्सप्ट युवर फ्रेंड रिक्वेस्ट”. ती पाहून तो आनंदुन गेला. अवघ्या काही तासांत त्याची रिक्वेस्ट अॅक्सेस्ट झाली होती. अती उत्साह न दाखवता नेहमीप्रमाणे शांत डोकं ठेऊन तो रूमवर जाऊन बेडवर पडून निवांत फोटो पाहावे असा विचार करून तो रूमवर परतला. आणि कोणाशीही न बोलता आपल्या रूममध्ये घुसला. संघरत्न, महेश आणि मित अशा तिघांची ती रूम होती. संघरत्नला उत्कृष्ट वाद्य वाजवता येत असल्याने त्याच्या बेडच्या आजूबाजू गिटार वगैरे असं त्याचं आवडतं साहित्य पडलेलं होतं. मित रूममध्ये आला तेव्हा संघरत्न कोणती तरी धुन वाजवण्यात मग्न होता. तसाच महेशही उत्तम कलाकार आणि तो छान डान्सरही आहे हे त्याचे कपडे केसांची स्टाईल आणि त्याच्या वागण्यावरून  कोणीही ओळखून घेईल. मित आला तेव्हा संघरत्न त्याला म्हटला “मित अरे बघ तूझ्या नव्या नाटकासाठी मी नविन धून तयार करतोय. ती जरा एकून सांग मला कशी झालीय ते. तुला काही सुधारणा हव्या असतील तर त्या ही सुचव.” पण मित त्याची कोणतीही गोष्ट ऐकण्याच्या मनस्थितीत नव्हता. म्हणून त्याने स्मित हसून त्याला म्हटले “अरे बाळं तू आज पर्यंत ज्या धून बनवलेल्या आहेत त्या कधी फेल गेल्या आहेत का? छानच असेल ही पण. तू सुरु ठेव” मितचे असं उत्तर देणं त्याला आवडलं नाही. त्याने रागाने गिटार बाजूला ठेवली. तेव्हा मित त्याच्या जवळ बसला. “अरे डार्लिंग, रागवतोय कशाला.” संघरत्न थोडा चिडलाच होता. ” रागावतोय म्हणजे मी एवढी मेहनतीने ती धून तुझ्यासाठी बनवली आणि हारामखोरा, तू इग्नोर करतोय” आणि त्याने मान तशीच रागात वळवली. त्याची मान स्वत कडे करण्याचा प्रयत्न करत मित त्याला म्हणाला. ” अरे मेरी जान. आय लव यू बोल दे एक बार” पण तो काही मानत नव्हता. म्हणून मितने मोबाईल घेतला आणि त्याच्यापुढे केला. ” अरे बघ इंस्टाग्रामवर एक मुलगी भेटलीय. खुप सुंदर आहे यार तीने आत्ताच फ्रेंड रिक्वेस्ट अॅक्सेस्ट केली म्हणुन……” त्याचं बोलणं अपूर्णच सोडत संघरत्नने मोबाईल त्याच्या हातातुन घेतला. आणि म्हटला “काय? साल्या गुपचूप गुपचूप तू अशी कारस्थाने करतोयस आणि आम्हाला माहितीसुध्दा पडू देत नाही. दाखव कोण आहे ती, कशी आहे” मित ” अरे सावकाश. मी पण पाहिलं नाही तीला अजून पुर्ण” मितने त्याच्या हातातून मोबाईल परत घेतला. आणि नोटीफिकेशन आॅन केली. स्क्रिनवर “रिमझिम लवर” नावाचं अकाउंट दिसतं होतं. साधारण आठराएक फोटो पोस्ट केले होते. अधीर असलेल्या मितने पटकन एक फोटोवर क्लिक केले. फोटो फूलस्क्रीन दिसत होता. फोटो पाहताच त्याच्या अंगावर शहारा उठला. त्याचं. ह्रदय जणू बाहेर निघून नाचू लागलं होतं. तो हसत होता कि आणखी काही. हे त्यालासुद्धा कळत नव्हतं. त्याच्या चेह-यावरचे नेमके भाव काय आहेत हे सांगण्या पलिकडचे होते.  एवढं सुंदर देखणं रूप, जणू तारूण्याची ती मिसालच होती. ते बारीक-बारीक छोटे डोळे, लांबसडक काळेभोर दाट केसं, दिसायला सडपातळ पण सौंदर्याची खाणच होती ती. तिचे ते स्मित अधिकच मोहत होते. हसतांना गालावर पडलेली खळी तीला शोभून दिसत होती. जास्त नाही पण उंच सडपातळ असलेली ती लावण्यवतीच भासत होती. तीला पाहताच त्याचं ह्रदय प्रेमाच्या सागरात हेलकावे खाऊ लागलं होतं. त्याची दिवानगी फोटोगणिक वाढतच होती. संघरत्नचंही काहीसं असंच होतं. पण मितला त्या फोटोत पुर्णपणे बुडालेलं पाहून त्याने खांदा मारत म्हटले  ” अरे साल्या, कुठे भेटला हा कोहिनूर तूला.” मित फक्त स्मित देत होता. संघरत्नला कळाले कि त्याच्या मनात काय सुरू आहे. तो त्याला चिडण्यासाठी म्हटला ” काय? डायरेक्ट विकेट…….” मितने लाजून खाली मान घातली. संघरत्न ” अबे तू पण …….”

तो चकित होता. संघरत्न जेवढा मितला ओळखत होता. त्याला माहीत होतं प्रेम वगैरे या गोष्टींत मितला रस नव्हता. त्याच्या बाबांचं म्हणनं होतं की त्याने इंजिनियरींग करावं पण मितला लिखाणात फार रस होता. त्याने त्याच्या बाबांना सरळ सांगीतलं होतं कि त्याला लेखक, दिग्दर्शक व्हायचंय. त्याच्या निर्णयाचा सम्मान करत त्याच्या बाबांनी त्याला विद्यापिठात ड्रामा डिपार्टमेंटला प्रवेश घ्यायला परवानगी दिली होती. बाबांचा विश्वास सार्थ ठरवत मितने आतापर्यंत अनेक चांगल्या कथा लिहून त्यांना स्वतःच दिग्दर्शित करून अनेक बक्षिसांवर उत्कृष्ट दिग्दर्शक आणि लेखक म्हणून नाव कोरले होते. त्याने अनेक भयकथा, प्रेमकथा, प्रेरणादायी कथा लिहिल्या होत्या. त्याच्या शालेय जीवनात त्याने एक काव्य संग्रह ही प्रकाशीत केला होता. त्याला प्रेमकथा लिहीण्याची विशेष आवड होती. हे सांगणे अतिशयोक्तीचे नव्हते कि एवढ्या प्रेमकथा लिहीणारा मित अजूनही कोणत्या मुलीच्या प्रेमात पडला नव्हता. पण या मुलीचा फोटो पाहून तो तिच्यावर भाळला हे मात्र खरे होते. त्याने ते सर्वच फोटो कितीतरी वेळा झूम करून पाहिले होते.

 ( क्रमशः )

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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