हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #244 ☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम उसूल… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 244 ☆

☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆

बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका के जीओ और जब बात उसूलों की हो, तो सिर उठा कर जियो, क्योंकि अभिमान की बात फरिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है; वह साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है। इससे सिद्ध होता है कि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव हृदय में वैमनस्य व ईर्ष्या-द्वेष के भाव जाग्रत करता है तथा स्व-पर को पोषित करता है। दूसरी ओर वह फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देता है कि उनके पाटने का कोई अवसर शेष नहीं रहता। इसीलिए कहा जाता है कि मतभेद भले ही रखो; मनभेद नहीं, क्योंकि विचारधारा की भिन्नता तो समाप्त हो सकती है, परंतु मन में पनपी वैमनस्य की दीवारें सामीप्य भाव को लील जाती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दुश्मनी उतनी करो कि दोस्ती व सामीप्यता की संभावना बनी रहे।

‘रिश्ते कंचन व चंदन की तरह होने चाहिए; चाहे टुकड़े हज़ार हो जाएं; चमक व सुगंध अवश्य बनी रहनी चाहिए।’ परंतु यह उस स्थिति में संभव है, जब मानव अपेक्षा व उपेक्षा के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में उसे किसी से अपेक्षा, आशा व उम्मीद की आवश्यकता नहीं रहती। वैसे मानव की इच्छा पूर्ति न होने पर उसे निराशा का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत उपेक्षा करने की स्थिति में मन में क्रोध, शंका व संशय की स्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक है, जो उसे अवसाद के भंवर में पहुंचा सकती हैं। यह दोनों स्थितियाँ मानव के पथ में अवरोध उत्पन्न करती हैं तथा उनके अभाव में सहज जीवन की कल्पना करना बेमानी है।

सो! जहां अपेक्षाएं समाप्त होती हैं, सुक़ून वहीं से प्रारंभ होता है। मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि वह आपको ऊर्जस्वित करती है तथा आप में साहस व धैर्य को पोषित करती है। मानव सफलता प्राप्ति के लिए संघर्ष की राह को अपनाता है, भले ही हर कोशिश में उसे सफलता नहीं मिल पाती। लेकिन हर सफलता का कारण कोशिश ही होती है। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती’ और ‘करत-करत अभ्यास के,जड़मति होत सुजान’ से भी यह सीख मिलती है कि मानव को सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। बीच राह से लौटना श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उससे पूर्व तो आप मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

आइंस्टीन भी परिश्रम को व्यर्थ नहीं मानते थे बल्कि उसे अनुभव की संज्ञा देते थे। नेपोलियन तो आपदा को अवसर स्वीकारते थे और जिसके जीवन में मुसीबत दस्तक देती थी, उसे दिल से बधाई देते हुए कहते थे कि ‘अब तुम्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ है।’ इसका प्रत्यक्ष  प्रमाण है आइंस्टीन का बल्ब का आविष्कार करना और नैपोलियन का विश्व विजय का स्वप्न साकार होना और अनेक प्रतिभाओं का जीवन में ‘तुम कर सकते हो’ सिद्धांत को मूलमंत्र स्वीकार कर धारण करना और विश्व में अनेक कीर्तिमान स्थापित करना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियाँ ‘आपदा को अवसर बना लिया कीजिए/ व्यर्थ ही ना दूसरों से ग़िला किया कीजिए।’ जी हाँ! यही संदेश था नेपोलियन का–जो मनुष्य आपदा को वरदान के रूप में स्वीकारता है, वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आकाश की बुलंदियों को छू लेता है। उसे जीवन में कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। यही उक्ति  चरितार्थ होती है रिश्तों के संबंध में–शायद इसीलिए ही मानव को स्नेह, त्याग व समर्पण का संदेश दिया गया है, क्योंकि इससे हृदय में अहम् का लेशमात्र भी स्थान नहीं रहता, जबकि अहंनिष्ठ मानव जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर ग़लत राहों पर चल पड़ता है, जो विनाश रूपी बंद गलियों में जाकर खुलता है।

सो! रिश्तों को स्थायित्व प्रदान करने के निमित्त मानव के लिए पराजय स्वीकारना बेहतर विकल्प है, क्योंकि रिश्तों में भावनाओं, संवेदनाओं, एहसासों व जज़्बातों की अहमियत होती है। दूसरी और उसूलों को बनाए रखने की प्रथम शर्त है– सिर उठाकर जीना अर्थात् अपनी शर्तों पर जीना; ग़लत बात पर झुकना व समझौता न करना, जो विनम्रता का प्रतीक है। विनम्रता में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। यह स्थिति हमें शक्तिशाली व मज़बूत ही नहीं बनाती, फ़रिश्ता बना देती है। सो! रिश्ते व उसूल यदि सम दिशा में अग्रसर होते हैं, तो रिश्तों की महक जहाँ जीवन को सुवासित करती है, वहीं उसूल उसे चरम शिखर तक पहुंचा देते हैं। परंतु मानव को अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए, बल्कि ‘सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर झुका सकते नहीं’ उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मानव को एक सैनिक की भांति अपनी राह पर चलते हुए अडिग व अटल रहना चाहिए और युद्धक्षेत्र से पराजय स्वीकार लौटना नहीं चाहिए। उसे गोली पीठ पर नहीं, सीने पर खानी चाहिए। जो व्यक्ति अपने सिद्धांतों चलता है, सीमाओं का अतिक्रमण व मर्यादा का तिरस्कार नहीं करता–एक अंतराल के पश्चात् अनुकरणीय हो जाता है और सब उसका सम्मान करने लगते हैं। वह जीवन के अर्थ समझने लगता है तथा निष्काम कर्म की राहों पर अग्रसर हो जाता है। वह अपनी राह का निर्माण स्वयं करता है, क्योंकि लीक पर चलना उसे पसंद नहीं होता। निजी स्वार्थ के निमित्त झुकना उसकी फ़ितरत नहीं होती। ‘ऐ मन! तू जी ज़माने के लिए’ अर्थात् अपने लिए जीना उसे प्रयोजनहीन व निष्फल भासता है। वास्तव में सिद्धांतों व उसूलों पर चलना रिश्तों को निभाने की प्रथम शर्त है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 8 ?

?मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मैं सिमट रही हूँ

विधा- कविता

कवयित्री – रेखा सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? फल्गु की तरह अंतर्स्रावी कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

भूमिति के सिद्धांतों के अनुसार रेखा अनगिनत बिंदुओं से बनी है। इसमें अंतर्निहित हर बिंदु में एक केंद्र होने की संभावना छिपी होती है। ऐसे अनेक संभावित केंद्रों का समुच्चय हैं कवयित्री रेखा सिंह। परिचयात्मक कविता में वे अपनी क्षमताओं, संभावनाओं और आत्मविश्वास का स्पष्ट उद्घोष भी करती हैं-

मैं तो रेखा हूँ

मुझमें क्या कमी…!

प्रस्तुत कवितासंग्रह में कवयित्री ने अपने समय के अधिकांश विषयों को बारीकी से छूने का प्रयास किया है। नारी विमर्श, परिवार, आक्रोश, विवशता, गर्भ में पलता स्वप्न, लोकतांत्रिक चेतना, प्रकृति, विसंगतियाँ, धार्मिकता, अध्यात्म जैसे अनेक बिंदु इस रेखा में समाहित है। अपने परिप्रेक्ष्य से शिकायत का स्वर गूँजता है-

मैं गाती / यदि गाने का मौका दिया होता

मैं हँसाती / यदि हँसने का मौका दिया होता

ये शिकायत नारी की विशाल दृष्टि और परिवर्तन की अदम्य जिजीविषा में रुपांतरित होती है। कवयित्री इला के अंतराल में समानेवाली सीता नहीं बनना चाहती। दीपिका तो अवश्य जलेगी भले उजाले में ही क्यों न जलानी पड़े। मीमांसा तार्किक है, उद्देश्य स्पष्ट है-

अंधेरे में जलाऊँगी दीपिका,

क्योंकि उजाले में

दीपिका का अस्तित्व

तुम नहीं समझ सके !

अपराजेय नारीत्व चरम पर पहुँचता है, अभिव्यक्त होता है-

ओ सिकंदर,

तुम, विश्वविजेता बन सकते,

मुझे नहीं जीत सकते..!

पर सिकंदर का प्रेम पाते ही सारी कुंठाएँ विसर्जित हो जाती हैं। प्रेम के आगे सारे वाद बौने लगने लगते हैं। कवयित्री का स्त्रीत्व कलकल प्रवाहित होने लगता है-

आज कोई सिकंदर,

मेरे आगे झुका है,

आज फिर किसी नल ने

दमयंती से स्वयंवर रचाया है,

आ, अब लौट चलें अपनी दुनिया में,

बाकी पल गुज़ार लेंगे हँसते-हँसते..!

मानव के भीतर की आशंका से कवयित्री रू-ब-रू होती हैं, प्रश्न करती हैं-

क्या होती हैं विभ्रम की प्रवृत्तियाँ?

रस्सी को सर्प समझने की रीतियाँ?

रेखा सिंह ने समाज को समग्रता से देखने का प्रयास किया है। ‘सास-बहू’ के उलझे समीकरणों के तार सुलझाने की ईमानदार कोशिश है ‘काश’ नामक कविता। ‘धरातल’ राजनीतिक-सामाजिक विषमता के धरातल पर खड़े देश की सांप्रतिक पीड़ा का स्वर बनती है। ‘जोगी’ ‘स्नातक-भिक्षुक’ बनाती हमारी शिक्षानीति पर व्यंग्य करती है तो ‘जंगल की ओर’ सभ्यता की यात्रा की दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। ‘आखिर क्यों’ और इस भाव की अन्य कविताएँ आतंकवाद की मीमांसा करने का प्रयास करती हैं।

शासनबद्धता का चोला ओढ़कर अन्याय को रोक पाने में असमर्थता व्यक्त करनेवाले भीष्म पितामह को आदर्श मानने से इंकार करना कवयित्री का सत्याग्रह है। ‘गंगापुत्र’ नामक इस कविता में दायित्व से बचने के बहाने तलाशनेवाली मानसिकता पर कठोर प्रहार है। संवेदना से लबरेज़ संग्रह की इन कविताओं में मनुष्य के सूक्ष्म मन को स्पर्श करने का सामर्थ्य है। ‘पुश्तैनी घर’ में ये संवेदना भारतीय प्रतीकों के संकेत से प्रखरता उभरी है। यथा-

तुलसी का चबूतरा

बन गया दीवार बंटवारे की..!

शहर द्वारा अपहृत होते गाँव ‘अनमोल’ कविता में सजीव हो उठते हैं-

सींचता बही जो बोता है,

उसके अंदर एक बच्चा रोता है..

झारखंड की हरित पृष्ठभूमि में रची गई इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अधिकांश कविताओं में ऋतुओं का वर्णन शृंगार रस में हुआ है। संग्रह में कई गीत भी शामिल किए गए हैं। इनमें गेयता और मिठास दोनों हैं। पूरे संग्रह में आँचलिकता मिश्री-सी घुली हुई है और उसकी माटी की सुगंध हर रचना में समाहित है। ‘चंबर’, ‘मोजराई गंध’, ‘तुदन’ जैसे शब्द पाठक को कविता की कोख तक ले जाते हैं। ‘शिवजी की बरात’, ‘कल्पगा की धार’ जैसे प्रतिमान लोकसंस्कृति के स्वर को शक्ति प्रदान करते हैं। पपीहा तो कवयित्री के मन से निकलकर कई बार कविता के अनेक पन्नों की सैर कर आता है। ‘मल्हार’ कविता में पंद्रह अगस्त को तीज-त्यौहार से जोड़ना बेहद प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।

कवयित्री ने नारी विमर्श को एकांगी न रखते हुए एक ही कविता से क्यों न हो, पुरुष के मन की भीतरी परतों को टटोलने का प्रयास भी किया है। रेखा सिंह की कुछ हास्य कविताएँ भी इस संग्रह में सम्मिलित हैं। हास्य रस पर कवयित्री की पकड़ साबित करती है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं।

शीर्षक कविता ‘मैं सिमट रही हूँ में प्रयुक्त सिमटना को मैं सकारात्मक भाव से सृजन के लिए आवश्यक प्रक्रिया के तौर पर देखता हूँ। बाहर विस्तार के लिए भीतर सिमटना होता है। यह संग्रह इस बात का दस्तावेज़ है कि कवयित्री का रचना सामर्थ्य लोहे के दरवाज़ों की नींव हिलाने में समर्थ है। कितने ही दरवाज़े लग जाएँ, वह ताज़ा हवा का झोंका तलाश लेंगी।

मैं सिमट रही हूँ,

अपने आप में,

धुआँकश कारागार में,

मेरे इर्द-गिर्द लग गए

लोहे के दरवाज़े..!

कवयित्री ने एक रचना में धरती के भीतर प्रवाहित होती फल्गु नदी का संदर्भ दिया है। रेखा सिंह की ये कविताएँ भी फल्गु की तरह अंतर्स्रावी हैं। भीतर ही भीतर प्रवाहित होने के कारण ये अब तक वांछित प्रकाश से वंचित रही हैं। ये अच्छी बात है कि अंतर्स्राव धरती से बाहर निकल आया है। अब इसे सूरज की उष्मा मिलेगी, चंद्र की ज्योत्स्ना मिलेगी। सृष्टि के सारे घात-प्रतिघात, मोह-व्यामोह, प्रशंसा-उपेक्षा सभी मिलेंगे। इनके चलते परिष्कृत होने की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहेगी।

फल्गु अब संभावनाओं की विशाल जलराशि समेटे गंगोत्री-सी कलकल बहने को तैयार है। अपने भूत को झटक कर उसे भविष्य की यात्रा करनी है।

अतीत के पन्ने,

उलटो न बार-बार,

चलते चलो,

कश्ती कर जाएगी

मझधार पार।

शुभाशंसा।

(श्रीमती रेखा सिंह का पिछले दिनों देहांत हो गया। वर्ष 2009 में प्रकाशित उनके कवितासंग्रह ‘मैं सिमट रही हूँ’ की यह समीक्षा दिवंगत को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।)

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #244 ☆ भावना के दोहे… जल ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे… जल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 244 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… जल ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

रोज गिरे बिजली यहाँ, कष्टों का भंडार।

दीन दुखी के भाग में, नहीं सुखद आधार।।

*

बारिश रस्ता भूलती, सूखा पड़ा है गाँव।

गरमी का पुरजोर है, मिले नहीं है छाँव।।

*

बूँद – बूँद जल के लिए, होता हाहाकार।

आखिर ऐसा क्यों हुआ, अब तो करें विचार।।

*

 नैना बहते बाढ़ से, कैसे रोकूँ नाथ।

दर्शन देना प्रभु मुझे, तेरा ही तो साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #226 ☆ दो मुक्तक… इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तकइंसानियत आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 226 ☆

☆ दो मुक्तक इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा ☆

धर्म का अपने मान  करो तुम

बेशक खूब गुणगान करो तुम

धर्म  स्थलों को पर मत तोड़ो

गैरों  का न अपमान करो तुम

*

हिंसा  का  धर्म  में  स्थान  नहीं है

तोड़- फोड़ आगजनी शान नहीं है

इंसा  की  इंसा से  नफरत  करना

हैवानियत  है   यह  ज्ञान  नहीं  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

रिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 16 – नवगीत – गुरुवर वंदना… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – गुरुवर वंदना

? रचना संसार # 16 – नवगीत – गुरुवर वंदना…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अंतस में विश्वास भरो प्रभु,

तामस को चीर।

प्रेम भाव से जीवन बीते,

दूर हो सब पीर।।

 *

मान प्रतिष्ठा मिले जगत में,

उर यही है आस।

शीतल पावन निर्मल तन हो,

सुखद हो आभास।।

कोई मैं विधा नहीं जानूँ

गुरु सुनो भगवान।

भरदो शिक्षा से तुम झोली,

दो ज्ञान वरदान।।

शिष्य बना लो अर्जुन जैसा,

धनुषधारी वीर ।

 *

बैर द्वेष तज दूँ मैं सारी,

खोलो प्रभो द्वार।

न्याय धर्म पर चलूँ सदा मैं,

टूटे नहीं तार।।

आप कृपा के हो सागर,

प्रभो जीवन सार।

रज चरणों की अपने देदो,

गुरु सुनो आधार।।

सेवा में दिनरात करूँ प्रभु,

रहूँ नहीं अधीर।

 *

एकलव्य सा शिष्य बनूँ मैं,

रचूँ फिर इतिहास।

सत्य मार्ग पर चलता जाऊँ,

हो जग उजास।।

ब्रह्मा हो गुरु आप विष्णु हो,

कहें तीरथ धाम।

रसधार बहादो अमरित की,

जपूँ आठों याम।।

दीपक ज्ञान का अब जला दो,

गुरुवर दानवीर।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक ४१ ते ५५) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक ४१ ते ५५) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥४१॥

*

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ॥४२॥

*

तव महानता नव्हतो जाणुन प्रमाद घसटीचा

यादवा हे कृष्ण सख्या अजाणता संबोधण्याचा

विनोद विहार शय्या मजसंगे केलीत मायेने

अनमान जाहला माझ्याकडुनी उद्धरा क्षमेने ॥४१,४२॥

*

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥४३॥

*

जगत्पित्या हे महाजगद्गुरो देवा पूजनीय अनुपम 

त्रैलोक्यी श्रेष्ठ वा नाही कोणी प्रभावी तुमच्या सम ॥४३॥

*

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌॥४४॥

*

प्रसन्न व्हावे क्षमा करावी जगदीश तव  चरणी देहार्पण

पिता पुत्राचा सखा सखीचा जैसे करीत अपराध सहन ॥४४॥

*

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।

तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥

*

कधी न देखीले तुमच्या या विराटस्वरूप दर्शने

हर्षनिर्भर मनोमनी तैसा व्याकुळ झालो भयाने

जगदीशा परमेशा घ्या आवरून विश्वरूपाला 

प्रसन्न व्हा चतुर्भुज विष्णुरूप दर्शन द्या मजला ॥४५॥

*

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥४६॥

*

शिरावरी किरीट हाती गदा तथा चक्र हेच रूप दावा

विश्वस्वरूपा सहस्रबाहो मजला चतुर्भुज रूप दावा ॥४६॥

श्रीभगवानुवाच

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात्‌ ।

तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्‌ ॥४७॥

कथित श्रीभगवान

प्रसन्न होउनी तुजवर पार्था तुज दिधले दर्शन 

अनादिअंत परम तेजोमय योगशक्तीचे प्रमाण

तुझ्या आधी ना कधी पाहिले कोणी या रूपाला

करुनी तुझिया वरी अनुग्रह दाविले विराट रूपाला ॥४७॥ 

*

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।

एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥४८॥

*

दानाने ना वेदाध्ययनाने कर्माने ना उग्र तपाने

विश्वरूप हे माझे पार्था कुणा ना गोचर अन्य कशाने ॥४८॥

*

मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌।

व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥४९॥

*

नकोस होऊ व्याकूळ ना होई बुद्धीभ्रष्ट विक्राळ रूपाने

त्यागुनिया भय प्रीतीने तुष्ट होई चतुर्भुज माझ्या रूपाने ॥४९॥

संजय उवाच

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।

आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥५०॥

कथित संजय

कथूनी ऐसे  वासुदेवे दाविले चतुर्भुज रूप अर्जुनासी

पुनरपि होउनी सौम्यस्वरूपी धैर्य दिधले कौन्तेयासी ॥५०॥

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः॥५१॥

कथित अर्जुन 

दर्शनाने तव सौम्यस्वरूपी मानवी हे जनार्दना

चित्ता लाभले स्थैर्य माझिया स्वाभाविकता मन्मना॥५१॥

श्रीभगवानुवाच

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्‍क्षिणः॥५२॥

कथित श्रीभगवान 

दर्शन झाले तुजला पार्था सुदर्शनधारी चतुर्भुज रूपाचे

देवदेवता दर्शनाकांक्षी दुर्लभ सहजी ना कुणा व्हायचे ॥५२॥

*

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥५३॥

*

तुला जाहले दिव्य दर्शन चतुर्भुज या रूपाचे

वेद तप वा दान यज्ञे दृष्टी गोचर नच व्हायाचे ॥५३॥

*

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥५४॥

*

भक्तीनेच केवळ अनन्य परन्तपा साध्य चतुर्भुज दर्शन 

ज्ञान तयाचे प्रवेश तयात  होई तयाने अद्वैताचे दिव्य ज्ञान ॥५४॥

*

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्‍गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥५५॥

*

कर्म समर्पित माझ्या ठायी माझ्या चरणी लीन

मोहाचा ना सङ्ग जयाला मम भक्तीने परिपूर्ण 

चराचरांप्रति वैरभाव ना सौहार्दाने जो युक्त

अनन्यभक्तीयुक्त अर्जुना तयासि मी होतो प्राप्त ॥५५॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ॥११॥

 

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी विश्वरूपदर्शनयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित एकादशोऽध्याय संपूर्ण ॥११॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 208 ☆ मौन वाणी ने लिया… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मौन वाणी ने लिया। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 208 ☆ मौन वाणी ने लिया

बिना बोले सब कुछ कह देने की कला तो नयनों के पास है । किसी का चेहरा, किसी के कर्म, किसी की उम्मीद, किसी का विश्वास ये सब बोलते हैं। पर कभी- कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व वो सब बता देता है जो हम दुनिया से छुपाना चाहते हैं। अक्सर रियलिटी शो में दो- तीन दिन तो व्यक्ति शराफत की चादर ओढ़े अपने आप को प्रस्तुत करते हैं किंतु जल्दी ही असलियत सामने आ जाती है। हमारा लोगों के साथ व्यवहार, बोल-चाल, कार्यशैली, सहयोग की भावना, क्रोध, घबराहट सब कुछ वो कह देता है जो हम अभी तक समाज से छुपा रहे होते हैं।

ये बात सही है कि सकारात्मक विचारों से धनी व्यक्ति हर परिस्थिति में अपना आपा नहीं खोता है। मेल- जोल की भावना के साथ ऐसी परिस्थितियों में नए रिश्ते बना लेता है जो शो से निकलने के बाद भी चलते हैं, क्योंकि उनका आधार ईमानदारी व नेकनीयती पर टिका हुआ होता है। दूसरी ओर तत्काल लाभ के आधार पर काम चलाऊ रिश्ते शो के दौरान ही बदलते रहते हैं। मर्यादित व्यवहार के साथ यदि ऐसे व्यक्तिगत प्रयोग होते रहें तो बहुत कुछ सीखने को मिलता है। सबके साथ सामंजस्य बिठाने की कला जिसको आ गयी वो सच्चा विजेता बनकर जनमानस में लोकप्रिय हो जाता है।

जब हम समाज कल्याण को ध्यान में रखकर अपने कार्यों को करते हैं तो एक लंबी शृंखला अपने आप बनने लगती है जो दूरगामी प्रभाव देती है। तो आइए सच्चे मन के साथ अपने अवलोकन की क्षमता को जाग्रत करें। मौन साधक बनकर इस प्रकृति से वो सब पा सकते हैं जिसकी कल्पना आपने कभी नहीं की होगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 16 – सत्ता का नया फार्मुला ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्ता का नया फार्मुला।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 15 – सत्ता का नया फार्मुला ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

एक समय था जब सरकार जनता से बनती थी। चुनाव की गर्मी के समय एयर कंडीशनर और बारिश की फुहार जैसे वायदे करने वाले जब सरकार में आते हैं तब इनके वायदों को न जाने कौन सा लकवा मार जाता है कि कुछ भी याद नहीं रहता। अब तो जनता को बेवकूफ बनाने का एक नया फार्मूला चलन में आ गया है। चुनाव के समय S+R=JP का फार्मूला धड़ल्ले से काम करता है। यहां  S का मूल्य शराब और R का मूल्य रुपया और JP का मतलब जीत पक्की। यानी शराब और रुपए का संतुलित मिश्रण गधे तक को सिर ताज पहना सकता है। यदि चुनाव जीत चुके हैं और पाँच साल का कार्यकाल पूरा होने वाला है तब जीत का फार्मूला बदल जाता है। वह फार्मूला है PPP । यहां पहले P का मतलब पेंशन। पेंशन यानी बेरोजगारी पेंशन, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन, किसान पेंशन,  आदि-आदि। दूसरे P का अर्थ है पैकेज। इस पैकेज के लाखों-करोड़ों रुपए पैकेज की घोषणा कर दे फिर देखिए जनता तो क्या उनका बाप भी वोट दे देगा। वैसे भी जनता को लाखों-करोड़ों में से कुछ मिले न मिले शून्य की भरमार जरूर मिलेगी। इसी फार्मूले के तीसरे P का अर्थ है पगलाहट। जनता को मनगढ़ंत और उटपटांग उल्टे-सीधे सभी वायदे कर दें, फिर देखिए जनता में जबरदस्त पगलाहट देखने को मिलेगी।

इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद कुछ बुद्धिजीवी किस्म की जो जनता होती है, वो मनलुभावने वायदों में नहीं पड़ती। इन्हें पटाना सबसे टेढ़ी खीर है। ऐसों के लिए गांव-गांव और शहर-शहर में अलमारी नुमा होर्डिंग लगा दें। ऊपर लिख दें – क्या आप अपनी समस्याओं से परेशान हैं? नौकरी की जरूरत है? क्या आपको पेंशन की जरूरत है? क्या आपको खेती, स्वास्थ्य, उद्योग संबंधित समस्याएं हैं? तो इसके लिए इस अलमारीनुमा हार्डिंग को खोलिए और मिलिए उस व्यक्ति से जो आपकी समस्याओं का हल निकाल सकता है। जनता के पास समाधान कम समस्याएं अधिक होती है। हर कोई इसे आजमाने के चक्कर में हार्डिंग खोलने लगा। होर्ड़िंग में उनकी समस्याओं का समाधान करने वाले का चेहरा देखकर सब के सब दंग रह गए। माथा पीटते और अपनी किस्मत को कोसते हुए वहाँ से चले गए। वैसे क्या आप बता सकते हैं कि उस होर्डिंग में किसकी तस्वीर थी? नहीं न? उसमें किसी की तस्वीर नहीं बल्कि दर्पण लगा हुआ था। वो क्या है न कि जनता समाज का दर्पण होती है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ खामोशी… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता खामोशी… ।)  

☆ कविता ☆ खामोशी… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

बादल छाये आसमान में,

दिल झूमना चाहता है,

रिमझिम बारीश में,

कर रहा मना उदास मन,

खुश दिल को चीर रही खामोशी,

एक अनजान मौन छाया है,

एक खामोशी बस सब खत्म,

काट रही ख़ामोशी मानव को,

दिल कह रहा, नहीं खत्म…

अल्फ़ाज़ नहीं मिल रहे है,

अरे! यह क्या हो रहा है ?

कुछ भी तो मिल नहीं रहा,

मन करता है चिल्लाकर…

सबको इक्कट्ठा कर लें,

लेकिन हर्फे नहीं मिल रहे हैं,

ज़िक्र करना भी नहीं हो रहा है,

किसे पुकारे? अब कौन है?

इतना दुख जिंदगी में है,

नहीं मुस्कुराना, कतराता है मन…

मन को भी मनाना है,

पता है इन्सान को,

दुखती रग है खामोशी,

क्या यही है ज़िंदगी?

पूछ रहा है मन,

कमज़ोर दिल है मानव का,

साँसे भी चल रही तेज़ी से,

दिल की धड़कने भी तेज़ हुई,

यह क्या हो रहा है?

कुछ नहीं समझ आ रहा है,

सर्वत्र छाई खामोशी,

खामोशी चौंध रही ज़िंदगी को,

सुई की जगह ली है खामोशी ने,

नहीं कोई औज़ार चाहिए,

शब्दों के बीच स्वयं को ढूँढता,

खामोश जीवन है भयंकर,

अंधेरे में रोशनी की तरह,

उजाले की तरह चमका सूरज,

आज ढूँढ रहे रोशनी को,

जिंदगी की रोशनी खत्म,

हर तरफ अंधेरा, नहीं नहीं!

मुश्किल है, दिल को बयान करना…

एक चित्कार सब खामोश,

मन ने रोका इस दिल को,

नहीं बहाना कतरा आंसू का,

मुस्कुराते रहना भी है कठिन,

आज जब दूर हो रहा,

दिल का टुकडा, आँखों की रोशनी

उम्मीद मात्र एक परवरदीगार,

थामेगा हाथ दिल के टुकडे का

कर्ज है माँ का ईश्वर,

दुहाई है तुम्हें हे! अल्लाह,

जन्म भी दिया भगवान ने,

पृथ्वी पर लाया है, या खुदा!!

मन बहुत उदास कर रहा रोने को,

लेकिन आज मन है खामोश,

मत छूना खामोश मन को,

बिखर जाएगा सब कुछ,

नहीं मिला शब्द जिंदगी को,

मन को समेटकर,

खामोशी को चिरकर,

बयान कर रहा जिंदगी,

मुस्कुराना ही है जिंदगी,

मुस्कुराना ही है जिंदगी।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 295 ☆ आलेख – मन की सुंदरता का फिल्टर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 295 ☆

? कविता – मन की सुंदरता का फिल्टर? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मोबाइल से खींची हुई

सेल्फी

पोस्ट करने से पहले

गुजरती हैं

तरह तरह के फिल्टर और ब्राइटनिंग एप्प्स से

कोई दाग नहीं दिखता

इंस्टा, व्हाट्स अप या फेसबुक की डीपी में

सैकड़ो लाइक्स मिलते हैं

हर खूबसूरत फोटो पोस्ट पर

अदा, लोकेशन, स्टाइल

हर कुछ

नयापन लिए हुए होता है

 

काश

मन की सुंदरता का भी

कोई

फिलर, और फिल्टर

हो, जो

दिल की कलुषता को

परिमार्जित कर

एक धवल छबि और

मोहक व्यक्तित्व

बना दे मेरा

और मैं उसके

सपनो का राजकुमार

बन कर उतर जाऊं

सीधे उसके हृदय पटल पर

शासन करने।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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