हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 4 ☆ चलाचल- चलाचल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सामयिक  व्यंग्य रचना “चलाचल- चलाचल। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 4☆

☆ चलाचल- चलाचल

बड़ा बढ़िया समय चल रहा है । पहले कहते थे कि दिल्ली दूर है पर अब तो बिल्कुल पास बल्कि यूँ कहें कि अपना हमसाया  बन कर सबके दिलों दिमाग में रच बस गयी है ; तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । सबकी नज़र दिल्ली के चुनाव पर ऐसे लगी हुयी है मानो वे ही सत्ता परिवर्तन के असली मानिंदे हैं ।

इधर शाहीन बाग चर्चा में है तो दूसरी ओर लगे रहो मुन्ना भाई की तर्ज पर कार्यों का लेखा- जोखा फेसबुक में प्रचार – प्रसार करता दिखायी दे रहा है । वोटर के मन में क्या है ये तो राम ही जाने पर देशवासी अपनी भावनात्मक समीक्षा लगभग हर पोस्ट पर कमेंट के रूप में अवश्य करते दिख रहे हैं । अच्छा ही है इस बहाने लोगों के विचार तो पता चल रहें हैं ।  देशभक्ति का जज़्बा किसी न किसी बहाने सबके दिलों में जगना ही चाहिए क्योंकि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि न गरीयसी ।

मजे की बात तो ये है कि लोग आजकल कहावतों और मुहावरों पर ज्यादा ही बात करते दिख रहे हैं  । और हों भी क्यों न  यही कहावते, मुहावरे ही तो गागर में सागर भरते हुए कम शब्दों से जन मानस तक पहुँचने की गहरी पैठ रखते हैं । बघेली बोली में एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है-

सूपा हँसय ता हँसय या चलनी काहे का हँसय जेखे बत्तीस ठे छेदा आय ।

बस यही दौर चल रहा है एक दूसरे पर आरोप – प्रत्यारोप का एक पक्ष सूपे की भाँति कार्य कर रहा है तो दूसरा चलनी की तरह । अब तो हद ही हो गयी  लोग आजकल विचारों का जामा बदलते ही जा रहें , कथनी करनी में भेद तो पहले से ही था अब तो ये भी कहे जा रहे हैं हम आज की युवा पीढ़ी के लिखने- पढ़ने वाले हैं सो कबीर के दोहे

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब ।

पल में परलय होयगा,  बहुरि करेगा कब्ब ।।

को भी बदलने का माद्दा रखते हैं और पूरी ताकत से कहते हैं –

आज करे सो काल कर, काल करे सो परसो ।

फिकर नाट तुम करना यारों,  जीना  हमको बरसो ।।

वक्त का क्या है चलता ही रहेगा  बस जिंदगी आराम से गुजरनी चाहिए । चरैवेति – चरैवेति कहते हुए लक्ष्य बनाइये पूरे हों तो अच्छी बात है अन्यथा अंगूर खट्टे हैं कह के  निकल लीजिए पतली गली से । फिर कोई न कोई साध्य और साधन ढूंढ कर चलते- फिरते रहें नए – नए विचारों के साथ ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “वीर सुभाष कहाँ खो गए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ 

 

वीर सुभाष कहाँ खो गए

वंदेमातरम गा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

कतरा-कतरा लहू आपका

काम देश के आया था

इसीलिए ये आजादी का

झण्डा भी फहराया था

गोरों को भी छका-छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान मान करवाया था

 

सत्ता के भुखियारों को अब

कुछ तो सीख सिखा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

कितनी श्रद्धा से लेते

आज तो नेता कहने से ही

बीज घृणा के बो देते

वतन की नैया डूबे चाहे

अपनी नैया खे लेते

बने हुए सोने की मुर्गी

अंडे भी वैसे देते

 

नेता जैसे शब्द की आकर

अब तो लाज बचा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

जंग कहीं है काश्मीर की

और जला पूरा बंगाल

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक यहां होगा

नहीं हो सकें मीठे गान

 

जन्मों-जन्मों वीर सुभाष

सबमें ऐक्य करा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

लिखते-लिखते ये आँखें भी

शबनम यूँ हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखातीं हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएँ

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर-मर जाती हैं

 

देखो इस तसवीर को आकर

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 34 – वापसी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यंग्यात्मक  किन्तु शिक्षाप्रद लघुकथा  “वापसी । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #34☆

 

☆ लघुकथा – वापसी ☆

 

” यमदूत ! तुम किस ओमप्रकाश को ले आए ? यह तो हमारी सूची में नहीं है. इसे तो अभी माता-पिता की सेवा करना है , भाई को पढाना है. भूखे को खाना खिलाना है और तो और इसे अभी अपना मानव धर्म निभाना है .”

” जो आज्ञा , यमराज.”

” जाओ ! इसे धरती पर छोड़ आओ और उस दुष्ट ओमप्रकाश को ले आओ. जो पृथ्वी के साथ-साथ माता-पिता के लिए बोझ बना हुआ है .”

यमदूत नरक का बोझ बढ़ाने के लिए ओमप्रकाश को खोजने धरती पर चल दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 33 – शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण  कविता “शब्द पक्षी…!” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #33☆ 

☆ शब्द पक्षी…! ☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द पानावर

मुक्त विहार करत नाहीत तोपर्यंत

आणि ..

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता ,चलबिचल

हुरहुर अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 33 – नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  माँ नर्मदा वंदना  “ नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 33☆

☆ नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा ☆  

 

नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा

सुंदरम, निर्मलं, मंगलम नर्मदा।

 

पूण्य  उद्गम  अमरकंट  से  है  हुआ

हो गए वे अमर,जिनने तुमको छुआ

मात्र दर्शन तेरे पुण्यदायी है माँ

तेरे आशीष हम पर रहे सर्वदा। नर्मदा—–

 

तेरे हर  एक कंकर में, शंकर बसे

तृप्त धरती,हरित खेत फसलें हंसे

नीर जल पान से, माँ के वरदान से

कुलकिनारों पे बिखरी, विविध संपदा। नर्मदा—–

 

स्नान से ध्यान से, भक्ति गुणगान से

उपनिषद, वेद शास्त्रों के, विज्ञान से

कर के तप साधना तेरे तट पे यहाँ

सिद्ध होते रहे हैं, मनीषी सदा। नर्मदा—–

 

धर्म ये है  हमारा, रखें स्वच्छता

हो प्रदूषण न माँ, दो हमें दक्षता

तेरी पावन छबि को बनाये रखें

दीप जन-जन के मन में तू दे मां जगा। नर्मदा—–

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 35 – पिंपळवृक्ष ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  बीस वर्ष पूर्व लिखी हुईअतिसुन्दर  कविता  “पिंपळवृक्ष .  सुश्री प्रभा जी की  यह कविता मुझे निःशब्द करती हैं, कोई भी टिपण्णी करने से । कविता में दादी माँ का कथन  – “माँ को बच्चे कीओर  इस  तरह एकटक नहीं देखना चाहिए” ही  अपने आप में एक कविता है। अठारह – बीस वर्षों में बच्चे का शरीर ही नहीं अपितु परिवार भी वृक्ष की तरह बढ़ जाता है।  शेष आपका दृष्टिकोण कुछ और हो सकता है। सन्दर्भ विचारार्थ  तथा उसमें निहित साहित्यिक अनुभव भी अपने आप में एक अविस्मरणीय  ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस अतिसुन्दर कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 35 ☆

☆ पिंपळवृक्ष ☆ 

(बावीस वर्षापूर्वी ची कविता  (मृगचान्दणी मधून))

झोळीत झोपलेल्या,

तुझ्या गोलमटोल, गोब-या गोब-या..

तीट लावलेल्या

चेह-या वरून आणि सुकुमार  अंगावरून…

फिरून फिरून नजर फिरविताना पाहून…

आजी म्हणाली एकदा,

“आईनं असं एकटक पाहू नये बाळाकडे”

आज ताडमाड वाढलेल्या,

तुझ्या सडसडीत शरीरयष्टीकडे पहाताना-

तूच म्हणतोस..

“बघ किती वाळलोय ना मी ?

तुझं लक्षच नाही माझ्या कडे”

आणि मग तरळून गेला नजरे समोरून….

गेल्या अठरा वीस वर्षाचा इतिहास…

तसं फार लक्षपूर्वक वाढवलंच नाही तुला,

तरीही वाढलास तू-

स्वयंभू सळसळत्या पिंपळवृक्षासारखा !

परवा म्हटलं कुणीतरी-

“तुमचा मुलगा बाणेदार आहे!”

तेव्हा आठवलं पुन्हा…

आजीचं वाक्य –

“आईनं असं एकटक पाहू नये बाळाकडे”

 

☆ विचारार्थ ☆

माझा आवडता शेर विनोद खन्ना यांनी रेडिओ वर ऐकवलेला,

कंधा न देना मेरी मैय्यत को

कही जी न उठे सहारा पाकर

शाळेत असताना ऐकलेला साहिर लुधियानवी यांचं” तलखियाँ” हे पुस्तक विकत घेऊन वाचलं होतं! मीनाकुमारी ची शायरी आवडायची!

इलाही जमादारांशी ओळख झाली, आणि गझल जास्त आवडायला लागली, बालगंधर्व च्या कॅफेटेरियात इलाहींना ऐकलं आणि आपण कविता करणं सोडून द्यावं असं वाटलं, इतकी मी त्यांच्या गझल ऐकून भारावले होते!

इलाही अनेकदा घरी यायचे गझल ऐकवायचे,माझ्या कविता ऐकायचे, ते म्हणाले होते, तुम्ही “आपकी नजरोने समझा  ……ही गझल गुणगुणत रहा तुम्हाला गझल सुचेल! पण तसं झालं नाही!

इलाहींच्या प्रभावाने मीनल बाठे व शरद पाटील  गझल लिहू लागले! मी मीनल बाठे बरोबर सुरेश भट यांना भेटायला गेले तेव्हा मी गझल लिहित नव्हते, पण सुरेश भटांनी मला कविता म्हणायला सांगितलं आणि माझ्या मुक्तछंदातल्या पिंपळवृक्ष या कवितेला सुरेख दाद दिली!

पुढे मीनल ने क्षितीज ही गझलप्रेमी संस्धा काढली त्यात मी होते या संस्थेची पहिली बैठक इलाही यांच्या उपस्थितीत झाली त्यात मी माझी पहिली गझल सादर केली होती  १९९३ साली—-त्यातले दोन शेर  …

का असे डोळ्यात पाणी पावलांनो

स्वैर आभाळी तुम्हा का वाव नाही

आणि

संपता आयुष्य माझे भेटण्या ये

मरण यात्रेला कुणा मज्जाव नाही

माझ्या पहिल्या गझल ला ही कुणी इस्लाह केला नाही, या गझल च्या पहिल्या शेरात वृत्त चुकलं होतं, शरद पाटील ने सांगितले पहिल्या शेरात गडबड आहे, काय गडबड आहे ते त्याला सांगता आले नाही, मलाही कळलं नाही मी माझ्या पहिल्या कविता संग्रहात तशीच छापली आहे. पुढे डाॅ राम पंडित यांचे लेख वाचून लगावली, वृत्त वगैरे समजलं मग तो शेर माझा मीच दुरूस्त केला!

 मी खुप ढोबळमानाने गझल लिहू लागले पण नंतर कळले त्या वृत्तबद्ध आहेत, माझा फार अभ्यास नाही पण माझ्या गझल लेखनाने मला खुप समाधान दिलं आहे! काही काही शेर तर माझं मलाच आश्चर्य वाटतं मी कसे लिहिले असतील!

पण माझ्या सर्व गझला सहज सुलभ सुचलेल्या, मी आटापिटा कधीच केला नाही इस्लाह करून घेतला नाही या क्षेत्रात कुणीही गुरू नाही, मानायचंच झालं तर डाॅ राम पंडित यांचे लेख हेच गुरू! गझल समजली, हातून लिहून झाली. काही काळ एक झपाटले पण आलं! देवप्रिया वृत्तातली एक गझल नाशिकला किशोर पाठक यांना ऐकवली ते म्हणाले, “छान आहे पण गझल मध्ये अडकून पडू नकोस!”

गझल हा काव्यप्रकार सुंदरच आहे खरोखर ती वृत्तीच असावी, पण मुक्तछंदातली कविता ही जबरदस्त असते! गझल, वृत्तबद्ध कविता, मी फार अभ्यासू नसूनही हाताळता आले हे खुप छान वाटतं…..पण प्रत्येक कवीला गझल रचताच आली पाहिजे असं काही नाही, प्रत्येक कवीचा पिंड वेगवेगळा असतो!

हल्ली मला वैभव जोशी च्या गझल खुप आवडतात!

बोलला सायलेंटली पण जाब मागत राहिला

रात्रभर माझ्या उशाशी फोन वाजत राहिला

 

                 – वैभव जोशी

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 14 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और शिक्षा) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा)”.)

☆ गांधी चर्चा # 14 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆

गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में शिक्षा को लेकर मुख्यतया मातृभाषा में शिक्षा, नीति शास्त्र व धर्म की शिक्षा पर जोर दिया। उन्होंने अक्षर ज्ञान मात्र को शिक्षित होना नहीं माना। वे हिन्दी भाषा के पक्षधर दीखते हैं तो साथ ही साथ किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा को सीखने की सलाह भी देते हैं। वे अंग्रेजी शिक्षा के भी विरोधी नहीं हैं। वे मानते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिलकुल लिए बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। बहुत सारे विषयों / शास्त्रों में पारंगत होने की भावना के भी वे खिलाफ हैं।

गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में अपने शिक्षा संबंधी विषयों पर अपने विचारों विशेषकर नई तालीम ,बुनियादी शिक्षा, उच्च शिक्षा, नए विश्वविद्यालय, प्रौढ़ शिक्षा, धार्मिक शिक्षा, पाठ्य पुस्तकें, अध्यापक, स्वावलम्बी शिक्षा, स्त्रियों की शिक्षा आदि पर समय समय पर अपने विचार  यंग इंडिया, हरिजनसेवक और रचनात्मक कार्यक्रम संबंधी अपने लेखों के माध्यम से प्रस्तुत किये हैं।

नई तालीम पर गांधीजी कहते हैं कि बच्चों को बचपन से ही परिश्रम का गौरव सिखाना चाहिए। उनके अनुसार बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक या प्रौढ़ शिक्षा है। अक्षर ज्ञान मात्र न तो शिक्षा है और न ही उसका अंतिम लक्ष्य। वे बच्चों में ऐसी  दस्तकारी की कला विकसित करने के पक्षधर जिसे बाज़ार में बेचा जा सके। वे निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सिद्धांत को लागू करना चाहते हैं। गांधीजी बच्चों को उपयोगी उद्योग के शिक्षण के माध्यम से उनका शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास करना चाहते हैं।

बुनियादी शिक्षा के द्वारा वे चाहते हैं कि बच्चे आदर्श नागरिक बने। वे चाहते हैं कि शिक्षा गाँव की जरूरतों के हिसाब से दी जाय। वे पूरी शिक्षा को स्वावलम्बी बनाने पर जोर देते हैं। वे सारी तालीम विद्यार्थी की प्रांतीय भाषा में देने के पक्षधर हैं। वे बच्चों को साम्प्रदायिक धार्मिक शिक्षा तो कतई नहीं देना चाहते। बुनियादी शिक्षण से बच्चे उद्योग धंधे में निपुण होकर आदर्श नागरिक बनेगें ऐसा गांधीजी का सोचना था।

उच्च शिक्षा के लिए गांधीजी का मानना था कि यह राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल होनी चाहिए। उद्योगपति अपनी अपनी आवश्यकताओं के अनुसार स्नातकों के शिक्षण प्रशिक्षण का खर्च स्वयं उठायें। मेडिकल कालेज अस्पताल में खोले जाएँ और धनिक वर्ग इनके संचालन हेतु धन मुहैया कराये। स्नातक केवल उपरी ज्ञान प्राप्त न करें वरन उनमे व्यवहारिक अनुभव भी होना चाहिए।

नए विश्वविद्यालय खोले जाने को लेकर भी गांधीजी ने 1947 में हरिजन में लिखे अपने लेख में कतिपय चिंताएं प्रगट की थी। वे प्रांतीय भाषाओं में शिक्षण हेतु नए विश्वविद्यालय खोले जाने के पक्षधर हैं। नए विश्वविद्यालय खोले जाने के पहले वे पर्याप्त संख्या में प्रांतीय भाषा में शिक्षण देने वाले स्कूल और कालेज खोले जाने की वकालत करते हैं। पूर्व व पश्चिम के ज्ञान को लेकर वे एक संतुलन बनाए रखने के पक्षधर हैं। वे मानते हैं कि विश्वविद्यालय में धन की जगह अच्छे शिक्षकों का भण्डार होना चाहिए और उनकी स्थापना दूरदर्शिता के साथ होनी चाहिए। वे विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए शासन से धन मुहैया कराने के पक्षधर नहीं हैं।

जन साधारण में व्याप्त निरक्षरता गांधीजी के अनुसार देश का कलंक है। प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से गांधीजी ग्रामीण जन समूह को देश के विषय में और अधिक जानकारी तथा राजनीतिक तालीम देने के पक्षधर हैं। निरक्षर ग्रामीणों को वे ऐसा ज्ञान सिखाना चाहते हैं जो उनके रोजमर्रा के जीवन में काम आये जैसे चिठ्ठी-पत्री लिखना और पढ़ना।

गांधीजी धार्मिक शिक्षा पर भी बहुत जोर देते थे। वे मानते हैं कि धार्मिक शिक्षा के अभाव में हमारे देश की आध्यात्मिकता समाप्त हो जायेगी। उनका विश्वास इस तथ्य पर आधारित है कि सभी धर्मों की बुनियादी नीति एक समान है। धार्मिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सभी धर्मों के सिद्धांतों का समावेश होना चाहिए।

संक्षेप में कहें तो हम अभी तक शिक्षा के ऊपर प्रयोग ही करते आ रहे हैं, कोई स्पष्ट शिक्षा नीति अभी तक की सरकारें दे नहीं पायी हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भोजपुरी कविता – रोटी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  बदलते हुए ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक अतिसुन्दर भोजपुरी कविता – रोटी । इस रचना के सम्पादन के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं । )

(प्रत्येक रविवार श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली माई  –  दमयंती“ पढ़ना न भूलें)

☆ भोजपुरी कविता –  रोटी 

रोटी में जान हौ रोटी  में परान हौ,
 गरीबन के भूख मिटावत बा रोटी।
  लड़िका सयान हो या बुढ़वा जवान हो,
    सबके पेटे क आग बुझावत बा रोटी।
चाहे दाता हो, या भिखारी हो,
 चाहे  बड़कल अधिकारी हो
  या नामी-गिरामी नेता हो ,
    सबही के देखा नचावत हौ रोटी।
गेहूं क रोटी औ मडुआ क रोटी,
 बजड़ी क रोटी अ घासि क रोटी।
  रोटी के रूप अनेकन देखा,
    अपमान क रोटी त मान क रोटी।
रोटी खातिर रात दिन बुधई, किसानी करें,
 रोटी खातिर राजा-रंक घरे-घरे भरै पानी।
  नित नया इतिहास बनावत  हौ रोटी,
    भूखि क मतलब समझावत हवै रोटी।
देखा केहू सबके बांटत हौ रोटी,
 न केहू के तावा पर आंटत हौ रोटी ।
  रोटी की चाह में सुदामा द्वारे-द्वारे घूमें,
    राणा खाये नाही पाये घासि क रोटी।
जब से जहान में अन्न क खेती भईल,
 तब से ही बनत बा बाड़ै  में भोजन रोटी।
  काग भाग सराहल  जाला,
    छिनेले जो हरि हाथ से रोटी।
इंसान रोटी क रिस्ता पुराना बाड़ै,
 सुबह शाम दूनौ जून खाये चाहै रोटी।
  जीवन क पहिली जरूरत हौ रोटी,
    जीवन क पहिली चाहत बा रोटी

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 11 ☆ कविता – कठिन पंथ साहित्य-सृजन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता  “कठिन पंथ साहित्य-सृजन।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 11 ☆

☆ कठिन पंथ साहित्य-सृजन ☆

 

तान सुनाते अधर-अधर

अधरों पर मुस्कान सुघर

 

प्रेम से दिल की खुलती गाँठ

बहते आँसू झर-झर-झर

 

सच्चाई को आँख दिखा

दुष्ट कर्म कहते हैं मर

 

कठिन पंथ साहित्य-सृजन

कवि कोमलता का दिलवर

 

ताल – सरोवर नद निर्झर

सुरभि समीरण लहर लहर

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 25 ☆ जीत ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जीत ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 25 ☆

☆ जीत

धुंध भरी रातों में

अंधियारों की बातों में

मर से जाते हैं एहसास

लगता है नहीं है कोई आसपास

 

छोटी सी होती है रात

बदल जाते हैं जज़्बात

सुबह पंख फैलाती है

सारे ग़म ले जाती है

 

जाड़ा भी कुछ घड़ी का मेहमान है

उसमें भी कुछ ही पल की जान है

वो भी कुछ दिनों में उड़ जाता है

और आफताब फिर हमसफ़र बन जाता है

 

जब भी ग़म की ठंडी से जकड जाएँ जोड़

जान लेना कायनात के पास है उसका तोड़

मरे हुए एहसास फिर से जग जायेंगे

बस, शायद वो किसी और रूप में सामने आयेंगे

 

आसपास भी किसी की ज़रूरत इतनी नहीं बड़ी

रूह की चमक से ज़िंदगी की रात जड़ी

उस चमक से बुझा लेना ज़हन की प्यास

कोई और नहीं तो ख़ुदा होता ही है पास

 

ज़िंदगी नदी सी है बढती ही जायेगी

उसकी लहर फैलने को लडती ही जायेगी

बना लेगी वो अपने कहीं न कहीं रास्ते

कभी भी रोना नहीं किसी उदासी के वास्ते

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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