योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆  Buddha#5 – Buddha – Quotes ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ Buddha – Quotes  ☆ 

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Buddha – Quotes

The Mind, when developed and cultivated, brings Happiness.

“If with an impure mind you speak or act, then suffering flows you as the cartwheel follows the foot of the draft animal.”

“Burning now, burning hereafter, the wrongdoer suffers doubly… Happy now, happy hereafter, the virtuous person doubly rejoices.”

“You have to do your own work, those who have reached the goal will only show the way.”

“Abstain from all unwholesome deeds, perform wholesome ones, purify your mind. This is the teaching of enlightened persons.”

“If one man conquer in battle a thousand times thousand man, and if another conquer himself, he is the greatest of conquerors.”

“As rain breaks through an ill-thatched house, passion will break through an unreflecting mind.”

“To support mother and father, to cherish wife and children and to be engaged in peaceful occupation – this is the greatest blessing.”

“One by one, little by little, moment by moment, a wise man should remove his own impurities, as a smith removes his dross from silver.”

“Monks, I know not of any other single thing that brings such bliss as the mind that is tamed, controlled, guarded and restrained. Such a mind indeed brings great bliss.”

“The mind, when developed and cultivated, brings happiness.”

– Buddha

 

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and trainings.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 2 – सृजनतंत्र का सुख ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आपने ई- अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ -अभिनव गीत” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकारा है, इसके लिए साधुवाद। आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “सृजनतंत्र का सुख “ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ सृजनतंत्र का सुख ☆

गणित हो गई शुरू

वर्ष के पहले जाड़े की

गिनती में गुम हुई वेदना

आज पहाड़े की

 

लिपट गये हैं अंक

किताबों के खुद से खुद में

खोज रहे हैं अर्थ

परिस्थितियों के अंबुद में

 

रोज किया करते हैं कसरत

सम्बोधन चुप चुप

उलझ गई है दाव पेंच में

बुद्धि अखाड़े की

 

जोड़ लगाते थके

भूलते गये इकाई को

पता तब चला जब विरोध

में देखा भाई को

 

जिस हिसाब से गिरवी रक्खे

थे सारे गहने

वहीडुबो दी रकम रही जो

बेशक गाढ़े की

 

जितने अभिमंत्रित घटना के

आदिसूत्र घर थे

वे सारे के सारे थोथे

मूलमंत्र भर थे

 

उन पर अधिरोपित था अपने

सृजनतंत्र का सुख

बैसे यह है कथा पुरानी

इस रजवाड़े की

 

© राघवेन्द्र तिवारी

01-05-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विनिमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  विनिमय

…जानते हैं, कैसा  समय था उन दिनों! राजा-महाराजा किसी साम्राज्य से संधि करने या लाभ उठाने के लिए अपने कुल की कन्याओं का विवाह शत्रु राजा से कर दिया करते थे।  आदान-प्रदान की आड़ में हमेशा सौदे हुए।

…अत्यंत निंदनीय। मैं तो सदा कहता आया हूँ कि हमारा अतीत वीभत्स था। इस प्रकार का विनिमय मनुष्यता के नाम पर धब्बा है, पूर्णत: अनैतिक है।

पहले ने दूसरे की हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ-वहाँ से होकर बात विषय पर आई।

…अच्छा, उस पुरस्कार का क्या हुआ?

…हो जाएगा। आप अपने राज्य में हमारा ध्यान रख लीजिएगा, हमारे राज्य में हम आपका ध्यान रख लेंगे।

विषय पूरा हो चुका था। उपसंहार के लिए वर्तमान, अतीत की आलोचनाओं में जुटा था।  भविष्य गढ़ा जा रहा था।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 7:17 बजे, 18.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 4 ☆ लॉकर से प्रशस्त होती लॉकर-रूम की राह ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक, एवं बच्चों की परवरिश पर आधारित विचारणीय व्यंग्य “लॉकर से प्रशस्त होती लॉकर-रूम की राह ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #4 ☆

☆ लॉकर से प्रशस्त होती लॉकर-रूम की राह

 

“प्रणाम गुरुवर. बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक कैसे आगमन हुआ आपका ?” – सेठश्री धनराज ने अट्टालिका में असमय पधारे गुरुजी से पूछा.

“क्षमा करें श्रेष्ठीवर्य. मुझे आपके सुकुमार के बारे में कुछ आवश्यक चर्चा करना है.”

“कहिये गुरुवर.”  – उनकी आवाज़ में रूखी औपचारिकता थी.

“आपको तो पता ही है, सुकुमार युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े हैं. इस समय उनका अध्ययन से ध्यान भटकना अनुचित है.”

जिस प्रसंग की ओर गुरुजी संकेत कर रहे थे वो सेठश्री की जानकारी में पहले ही आ चुका था. नगर कोतवाल ने बताया ही था. कोतवाल भरोसेमंद आदमी है. उसे शीशे में उतार लिया गया है. लेकिन इस गुरु का कुछ करना पड़ेगा. उन्होंने सोचा पहले इसे कह लेने देते हैं, फिर देखते हैं – “विस्तार से बतायें गुरुवर.”

“इन दिनों सुकुमार अशोभनीय कार्यों में लिप्त रहने लगे हैं. वे अपने सहपाठी मित्रों के साथ कामक्रीड़ा सम्बन्धी चर्चा करते हैं. जैसे, अनावृत्त युवतियाँ कैसी दिखती हैं, उनके साथ संसर्ग कैसे किया जा सकता है, संसर्ग-प्रसंग की फेंटेसी साझा करते हैं. जबकि, अभी तो उनकी मसें पूरी तरह भीगी भी नहीं है.”

“मसें भीगने की समस्या है…..ओके. वो हम भिगवा देंगे.”

“नहीं नहीं श्रीमन्, तात्पर्य यह कि किशोर अवस्था में ही उन्होंने रति सुख की चर्चा का आनंद पाने के लिये लॉकर-रूम का निर्माण किया है.”

“बेवकूफ है वो. हमारे यहाँ हर कमरे में लॉकर हैं, फिर लॉकर के लिये नया रूम क्यों बनाना. मैं बात करूंगा उससे.” – अंजान दिखने का छद्म भाव चेहरे पर लाते हुवे उन्होंने कहा.

“वैसा नहीं श्रीमन्, वर्चुअल लॉकर. जिस पर वे सहपाठी कन्याओं को संसर्ग करने का प्रस्ताव देते हैं. जो कन्यायें उनके दबाव के आगे समर्पण नहीं करतीं उन्हें फूहड़ और आवारा करार देते हैं, उनकी तस्वीरें निर्वस्त्र तस्वीरों में मिलाकर सार्वजानिक करने की धमकी देने लगते हैं. चिंता का गहरा पक्ष तो यह उभर कर आया कि सुकुमार सहपाठियों के साथ मिलकर किसी कन्या से बलात् संसर्ग करने की योजना पर पिछले दिनों कार्य कर रहे थे.”

अब सेठश्री ने मन ही मन धृतराष्ट्र का स्मरण किया, और बोले – “सुकुमार ने तो सिर्फ चर्चा भर की है, बलात् संसर्ग किया तो नहीं. अपराध तो तब न माना जायेगा जब वे सचमुच ऐसा कर गुजरें. वह भी तब जबकि वे पीछे सबूत छोड़ने की गलती करें. आप अनावश्यक चिंतित न हों गुरुवर, अभी हमारे लॉकर लबालब भरे हैं.”

“मैं तो नैतिक शिक्षा की बात कर रहा था.”

“सो तो आपने बचपन में पठा दी. उसका पारिश्रमिक आपको मिल चुका. अब भूल जाईये. युवावस्था आनंद का समय है. प्लेजर सुकुमार का पर्सनल राईट है.”

“हे महाभाग, कन्याओं के माता पिता ने नगर कोतवाल से शिकायत भी की है.”

“उसका बंदोबस्त हमने कर लिया है. इतना रसूख तो जेब में धर के चलते हैं हम. बताईये, सुकुमार या उसके किसी साथी का मिडिया में कहीं नाम आ पाया क्या ? स्कूल का नाम किसी को पता चला क्या ? सिस्टम हमारे लॉकर में बंद एक  आइटम है.”

“सो तो है श्रीमन्, लेकिन स्कूल के प्रसाधन कक्षों में सुकुमार के धूम्रपान करने की पुष्टि हुई है. प्राप्त जानकारी के अनुसार वे कभी कभी मद भी ग्रहण करते हैं.”

“गुरूवर, आपकी परेशानी ये है कि आप अपनी मिडिल क्लास मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रहे. अमीरों-उमरावों का आनंद आपसे देखा नहीं जाता. स्कूल गर्ल को मलयाली मूवी में आँख मारते नहीं देखा आपने ? फिलवक्त, आपके पेट में दर्द का कोई उचित कारण नहीं जान पड़ता.”

“क्या कहूं महाभाग, वे विद्यालय की शिक्षिकाओं के बॉडी पार्ट्स बारे में भी अशोभनीय बातें करते हैं, सो आपके पास चला आया.”

“मॉडर्न सोसायटी से सामंजस्य बैठाईये गुरुवर. तार्किक मानव विचार का दौर समाप्त हुआ. ये वर्जनाओं के टूटने का दौर है, ये उपभोग का दौर है, मस्ती का दौर है, आनंद का दौर है. सुकुमार इस उम्र में एन्जॉय नहीं करेंगे तो कब करेंगे.”

“जैसा आप उचित समझें श्रीमन्, लेकिन नारी सम्मान एक महत्वपूर्ण विषय है. ये सिर्फ सुकुमार के लॉकर रूम की बात नहीं है,”

“गुरुवर, हम आपका आदर करते हैं, लेकिन घूमफिर कर आप बार बार सुकुमार के विरूद्ध आयं-बायं बोलने लगते हैं. हमने उन्हें कितना डोनेशन देकर आपके फाइव स्टार स्कूल में प्रवेश दिलवाया है. सुकुमार फ़्लूएंट इंग्लिश स्पीकिंग बॉय है. कमाल है, आप उनमें और हिंदी बोलने वाले देहाती लड़कों में फर्क नहीं कर पाते.”

“जी, लेकिन…”

“बहुत हुआ गुरुवर, आप अपनी नौकरी बचाने की चिंता करिये. परिवार का पालन-पोषण करिये और इस प्रकरण को यहीं भूल जाईये. शेष हम देख लेंगे….. और हाँ, अगर आपके लिये इसे भूल पाना संभव न हो तो हम स्कूल प्रबंधन से आपके एक्जिट लेटर का प्रबंध करने को कह देते हैं…. खड़े क्यों हैं ? अब जाईये भी.”

धृतराष्ट्र के बारे में गुरुजी अब तक कक्षाओं में पढ़ाते रहे, आज मुलाकात भी हो गई. और गांधारी मॉम ? वो भी तो खड़ीं थी सेठश्री के पीछे – आँखों पर पट्टी बांधे, सिले होंठ के साथ. आँखों में निष्कासन का तैरता भय लिये गुरूजी अब निज घर के रास्ते पर हैं.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 48 ☆ व्यंग्य – शी शी और मेहमानवाजी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  व्यंग्य – शी शी और मेहमानवाजी। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 48

☆ व्यंग्य –  शी शी और मेहमानवाजी ☆ 

 

गजबेगजब करते हो यार…. दोस्ती का नाम लेकर दगाबाजी करते हो। जब दो साल पहले हम वुहान आये रहे तो तुमने झील के किनारे खूब झूला झुलाय कर खूब दोस्ती का नाटक करे रहे। हालांकि कि सयाने लोग बताइन रहन कि सन्  बासठ में भाई भाई कहके खूब पिटाई कर दिए रहे और हमार जमीन भी हथिया लिए थे। तुमको थोड़ी शरम नहीं आई कि जब हम दो साल पहले वुहान में रुके रहे तब तुमने हमखों वुहान लैब नहीं घुमाया रहा जब तुमने तीन चार साल पहले से जे वालो वायरस अपने फ्रिज में छुपाये रहे, तो हमखों भी वो लैब घुमा देते। सबै लोग बतात रहे कि दो तीन दिनन तक टीवी वालों ने तुमको और हमको खूब दिखाया रहा, टीवी  देख देख के कई लोग कहत रहे कि ऐसन लगत रहो जैसे दो विश्वसनीय दोस्त विचारों का बढ़िया आदान-प्रदान कर रहे हों। पर तुम तो एक नंबर के बदमाश और दगाबाज़ निकले, घर लौटत ही डोकलाम में अपने आदमी दंड पेलने भेज दिये रहे, बेशर्मी की हद होती है भाई…… वुहान में तुमने हमार शानदार स्वागत काहे को किया रहा, मुंह में राम और बगल में छुरी……..

हमारे गांव के लोग तुम्हें इसीलिए याद करते हैं कि तुम लोग खूब संतान पैदा करते हैं हालांकि हम लोग भी ऐसा करते हैं पर तुम लोग बाजी मार ले जाते हो। वुहान के रात्रि भोज में तो तुमने कहा रहा कि अपन आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर काम करेंगे पर रातोंरात तुम आतंकवादी की मदद करते रहे …….. , यार तुम्हीं बताओ कि तुम पर कैसे विश्वास करें। हम चमगादड़ से नफरत करते हैं और तुम हो तो उसको पूजते हो, उसका सूप पीते हो।

दोस्ती  का नाटक करके हमारी दिलेरी का फायदा इत्ते जल्दी उठा लेते हो कि सब त्यौहारों में तुम्हीं तुम छाये रहते हो। बीमारी असली वाली देते हो और बीमारी ठीक करने के उपकरण नकली देते हो। हमारे कुटीर उद्योग बर्बाद करके बेरोजगारों की फौज खड़ी कर देते हो।

यार तुम्हारी दगाबाजी और बेशर्मी से तो हमखों शर्म आती है। वुहान में तुमने तो कहा रहा कि अपन समान दृष्टिकोण, बेहतर संवाद, मजबूत रिश्ता, साझा विचार और साझा समाधान पर गले मिलते रहेंगे। क्या यार कहते कुछ हो करते कुछ हो। सच कहा गया है कि कुत्ता की पूंछ पुंगरिया में डालो जब भी निकालो तो टेड़ी ही निकलेगी। किस टाइप के आदमी हो यार, गले मिलने का बहाना करके जेब में वायरस डाल देते हो।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 9 ☆ चाँद पाने का सफर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “चाँद पाने का सफर ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 9 ☆ 

☆ चाँद पाने का सफर  ☆

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

उसे पाने को जी भी ललचाया था कभी,

गोल-गोल चाँद से जड़ा आकाश,

आकाश में तारों के बीच में अड़ा,

सुन्दर कोमल, माँ की कटोरी से शायद बड़ा,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

छत पर खड़ी करती रहती हूँ मैं कोशिश कभी,

कैद करना चाहती हूँ आकाश के ये सुन्दर पूत को कभी,

छू लेना चाहती हूँ उस मौन प्रतीक को कभी,

क्या ये कोशिश पूरी हो पायेगी कभी,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 48 – हरीरुपे – दशअवतार ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण कविता  ” हरीरुपे – दशअवतार”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 48 ☆

☆ हरीरुपे – दशअवतार ☆

 

दश अवतारी। हरीरुपे स्मरू। जीवनाचा वारू। स्थिरावेल।

मत्स्य कूर्म आणि। वराह  वामन। सृष्टी नियमन। करीतसे।

हिराण्य मातला। वधुनी तयासी।तारी प्रल्हादासी। नरसिंहा।

ब्राह्मण्य रक्षणा।  परशुराम सिद्ध। असे कटिबद्ध। धर्मयोद्धा।

मर्यादा पुरुष ।  राम आवतारी । कर्तव्य निर्धारी। सर्वकाळ।

सोळा कलायुक्त । पूर्ण अवतार। निर्गुणाचे सार। पार्था सांगे।

क्षमा शील शांती। बोध जगतास । बुद्ध महात्म्यास । दंडवत।

कल्की अवतार। कलीयुगी घेई। अधःपात नेई। लयालागी

दांवा परिसर। मानव चतुर ।  साधण्या अतुर। स्वार्थ हिता।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 1 ☆ वेदनेच्या कविता… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण कविता “वेदनेच्या कविता…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 1 ☆ 

☆ वेदनेच्या कविता… ☆

वेदनेच्या ह्या कविता सांगू कशा

मूक झाली भावना ही महादशा..धृ

 

अश्रू डोळ्यांतील संपून गेले पहा

स्पंदने हृदयाची थांबून गेली पहा

आक्रोश मी कसा करावा, कळेना हा.. १

 

नाते-गोते आप्त सारे विखुरले

रक्ताचे ते पाणी झाले आटले

मंद मंद मृत शांत भावना.. २

 

ऐसे कैसे दिस आले, सांगा इथे

कीव ना इतुकी कुणाला काहो इथे

आंधळे हे विश्व अवघे भासे इथे.. ३

 

सांगणे इतुकेच माझे आता गडे

अंध ह्या चालीरीतीला पाडा तडे

राज कवीचे शब्द आता तोकडे.. ४

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

~9405403117

~8390345500

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 51 ☆ व्यंग्य – गुरू का प्रसाद ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘गुरू का प्रसाद ’। वास्तव में समय ही हमें जीवन जीना सीखा देता  है और वही हमें जीवन का अनुभव भी देता है। व्यक्ति पहले शोषित होता है फिर वही शोषण करने लगता है। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 51 ☆

☆ व्यंग्य – गुरू का प्रसाद ☆

रात आठ बजे घर पहुँचा तो पता चला गुरुदेव का बुलावा आया था। दिमाग में खटका हुआ, क्योंकि गुरुदेव बिना मतलब के याद नहीं करते।

दरबार में हाज़िर हुआ तो गुरुदेव ने मुस्कराकर ध्यान दिलाया, ‘याद रखना, तुम मेरे पुराने शिष्य हो। ‘

मैंने कहा, ‘चाहूँ तो भी नहीं भूल सकता, गुरुदेव। योग्य सेवा बताइए। ‘

वे हँसकर बोले, ‘सेवा भी बताएंगे। थोड़ी बातचीत तो करें। ‘

थोड़ी देर बाद कॉफी पेश हुई। मैंने कहा, ‘गुरुदेव, मैं रात में कॉफी नहीं पीता। नींद खराब हो जाती है। ‘

गुरुदेव कृत्रिम क्रोध से बोले, ‘चुप! गुरू के प्रसाद को इनकार करता है? पीनी पड़ेगी। ‘

एक कप ख़त्म होने पर गुरुदेव ने दूसरा भर दिया। बोले, ‘गुरू का चमत्कार देखना। बढ़िया नींद आएगी। ‘

एक घंटे बाद चलने को हुआ तो गुरुदेव ने एक पैकेट पकड़ा दिया। बोले, ‘इसमें बी.ए. की पचास कापियाँ हैं। आज रात में जाँच डालो। अर्जेन्ट काम है। तुम्हारे लिए थोड़ा सा ही रखा है। बाकी दूसरों को दिया है। ‘

मैं गुरुदेव की गुरुआई देखते देखते घाघ हो गया था। घर आकर पैकेट एक कोने में फेंका। कॉफी के असर से नींद नहीं आयी तो एक उपन्यास चाट गया।

दूसरे दिन जब दोपहर तक मैं नहीं पहुँचा तो गुरुदेव हाँफते हुए मेरे घर पर अवतरित हुए। बोले, ‘कापियाँ जँच गयीं?’

मैंने कहा, ‘क्षमा करें, गुरुदेव। रात को नींद आ गयी। सो गया। ‘

गुरुदेव ने माथे पर हाथ मारा। करुण स्वर में बोले, ‘दो कप कॉफी पीकर भी नींद आ गयी?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #49 ☆ देह से हूँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # देह से हूँ ☆

समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?

इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का  प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।

मंथन और विवेचन यहीं से आरम्भ होता है।   स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है।  विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।

मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु होना अपवाद है, असाधु रहना परम्परा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।

एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।

समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।

जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो  स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।

इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।

प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर  स्वयं को  देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।

#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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