हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 26 ☆ तुम आना ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा कोहरे के आँचल में लिखी हुई एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “तुम आना”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 26 ☆

☆ तुम आना

तुम आना,

वासंती किरणों को ओढ़कर,

सुगन्धित हवाओं में लपेटकर,

तुम आना ।

 

तुम आना ,

रिमझिम बूँदों में भीग कर,

कोहरे की श्वेत शाल पहनकर ,

तुम आना ।

 

तुम आना ,

नंगे पाँव, ओस पर चलकर ,

पायल को खनकाकर,

तुम आना ।

 

तुम आना,

केशों को खुला छोड़ कर ,

नदिया सी बल खाकर,

तुम आना ।

 

तुम आना

अंजुली में सपने संजोकर,

मेरी अंजुली में भर देने,

तुम आना ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 9 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 9 – संघर्ष ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली के जीवन की संघर्ष की कहानी , किस प्रकार पगली का विवाह हुआ, ससुराल में नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी। अब आगे पढ़े——)

उस जहरीली शराब ने पगली से उसके पति का जीवन छीन लिया था। वह विधवा हो गई थी। अब घर गृहस्थी की गाड़ी खीचने का सारा भार पगली के सिर आन पड़ा था।
समय के साथ उसके ह्रदय का घाव भर गया था। पति के बिछोह का दर्द एवम् पीड़ा, गौतम के प्यार में कम होती चली गई थी। उसने परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए गौतम को उच्च शिक्षा दिलाने का निर्णय ले लिया था।  गौतम के भविष्य को लेकर अपनी आंखों में भविष्य के सुन्दर ख्वाब सजाये थे। अपने सपने पूरे करने के लिए उसने लोगो के घर चूल्हा चौका करना भी स्वीकार कर लिया था। वह रात दिन खेतों में मेहनत करती।  उसका एक मात्र उद्देश्य गौतम को पढा़ लिखा अच्छा हुनर मंद इंसान बनाना था, ताकि वह एक दिन देश व समाज के काम आये।

गौतम बड़ा ही प्रतिभाशाली कुशाग्र बुद्धि का था। व्यवहार कुशलता, आज्ञा पालन, दया, करूणा, प्रेम, जैसे श्रेष्ठ मानवीय गुणों उसे अपनी माँ से विरासत में मिले थे, जिन्हें उसने पौराणिक कथाओं को मां से सुन कर प्राप्त किया था। वह अपनी माँ के नक्शे कदम पर चलता।  लोगों की मदद करना उसका स्वभाव बन गया था।  बच्चों के साथ वह नायक की भूमिका में होता। सबके साथ खेलना, मिल बांट कर खाना उसका शौक था। उस वर्ष उसने अपने गांव के माध्यमिक विद्यालय की आखिरी कक्षा की अंतिम परीक्षा पूरे जिले में सर्वोच्च अंको से विशिष्ट श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। उसकी इस सफलता पर सारा गांव गौरवान्वित हुआ था। सबको ही अपने गांव के होनहार पर गर्व था, जो विपरीत परिस्तिथियों में संघर्ष करते हुए इस स्तर तक पहुँच सका था।

अब पगली के सामने गौतम को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए शहर मे रहने खाने की व्यवस्था करने की समस्या उत्पन्न हो गई थी, उसे कोई रास्ता सूझ नही रहा था।  वह ऊहापोह में पड़ी सोच ही रही थी, अब आगे की पढ़ाई की उसकी औकात नही थी। वह इसी उधेड़ बुन में परेशान थी, कि सहसा उसकी इस समस्या का समाधान निकल आया।

एक दिन उस गाँव के संपन्न परिवारों गिने जाने वाले एक नि:संतान दंपत्ति पं दीनदयाल पगली के घर किसी कार्यवश आये थे। बातों बातों में जब गौतम के पढ़ाई की चर्चा चली तो उन्होंने गौतम के आगे की पढ़ाई का खर्चा देने की हामी भर दी थी, तथा खर्च का साराभार अपने उपर ले कर पगली को चिंता मुक्त कर दिया था।  उसके बदले में पगली ने पं दीनदयाल के घर चौका बर्तन करने का जिम्मा सम्हाल लिया था। पगली की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई थी। उसने मन ही मन में भगवान को कोटिश :धन्यवाद दिया था।

अब पं दीनदयाल ने खुद ही शहर जा कर मेडिकल की पढ़ाई हेतु अच्छे संस्थान में दाखिला करा दिया था।  गौतम के रहने खाने का उत्तम प्रबंध भी कर दिया था। गौतम जब भी छुट्टियों में घर आता, तो दोस्तों के साथ खेलता ठहाके लगा हंसता, तो पगली की ममता निहाल हो जाती।

कभी कभी जब गौतम पढ़ते पढ़ते थक कर निढाल हो पगली की गोद में लेट कर माँ के सीने से लग सो जाता। अलसुबह माँ जब चाय की प्याली बना बालों में उंगलियाँ फिराती गौतम को जगाती तो गौतम कुनमुना कर आंखें खोल मां के कठोर छालों से युक्त हाथों को हौले से चूम लेता और झुककर माँ के पैरों को छू लेता तो, उसे उन कदमो में ही जन्नत नजर आती और पगली का मन  पुलकित हो जाता साथ ही उसकी आंखें छलछला जाती।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 10 – आतंकवाद का कहर

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 28 – कर्मो का सिद्धान्त ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “कर्मो का सिद्धान्त।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 28 ☆

☆ कर्मो का सिद्धान्त 

हम यहाँ पर एक साथ कर्मों के रण बंधन या ऋण बंधन के कारण हैं जो मेरे आपके साथ हैं। इस ब्रह्मांड में कुछ भी कर्मों के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं है। कर्म का अर्थ सबसे सामान्य शब्दों में ‘क्रिया’ है, और क्रिया भीतर से उत्पन्न होती है। अपनी आंतरिक मूल ऊर्जा के उपयोग से हुई क्रिया, यदि इसकी मूल दहलीज या सीमा  (हमारी आंतरिक ऊर्जा की वो कम से कम मात्रा जिससे किसी क्रिया का भान होता है) से अधिक या कम मात्रा में है तो वो कर्म है।ऊर्जा प्रभाव का यह उपयोग हमारे आस-पास की प्रकृति पर तुरंत या कुछ विलम्ब से परिणाम उत्पन्न करता है। जो क्रिया की प्रतिक्रिया या कारण का प्रभाव कहा जाता है। तो इन दोनों का संयोजन, प्रकृति पर कार्यरत हमारी ऊर्जा और उस ऊर्जा के प्रभाव पर प्रकृति की प्रतिक्रिया वास्तव में कर्म कहा जाता है।व्यय की गई एक निश्चित राशि जल्द ही या बाद में समाप्त हो जाएगी। लेकिन प्रतिक्रिया खुद में एक नई क्रिया बन जाती है।यह ज्यादातर व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर करता है। वह एक ही क्रिया पर गुस्से में प्रतिक्रिया कर सकता है या समान क्रिया पर स्नेह दिखा सकता है।व्याकरण में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। क्रिया और फल का संबंध कार्य-कारण-भाव के अटूट नियम पर आधारित है। यदि कारण विद्यमान है तो कार्य अवश्य होगा। यह प्राकृतिक नियम आचरण के क्षेत्र में भी सत्य है। अत: कहा जाता है कि क्रिया का कर्ता फल का अवश्य भोक्ता होता है।

हम तीन श्रेणियों में हमारे द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म को वर्गीकृत कर सकते हैं, और यहाँ कर्म का अर्थ केवल वह कार्य नहीं है जो हम शरीर के संचालन की क्रिया के साथ करते हैं, अपितु यह हमारे अंदर तीन प्रकार की प्रतिक्रियाओं का परिणाम है।

पहले भौतिक कर्म शरीर के दृश्य आंदोलन या हमारे शरीर के हिलने डुलने के द्वारा किए जाते हैं, दूसरे बोलने द्वारा होते हैं- हमारा भाषण या वचन, या जो शब्द हम अपने मुँह से कहते हैं; और तीसरे मन या विचारों से है, जो हम अपने मस्तिष्क से सोचते हैं। इसलिए हर पल हम सभी कर्मों या कारणों और प्रभावों के नियमों से बंधे होते हैं।

हम इन कर्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं:

संचित कर्म :

मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। संस्कार अर्थात हमने जो भी अच्छे और बुरे कर्म किए हैं वे सभी और हमारी आदतें।ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं।ये कर्म ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं।

प्रारब्ध कर्म:

संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। दरअसल, इन संचित कर्मों में से एक छोटा भाग हमें नए जन्म में भोगने के लिए मिल जाता है। इसे प्रारब्ध कहते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं।हम कह सकते हैंकि प्रारब्ध कर्म वो है जो शुरू हुआ है, और वास्तव में फल पैदा कर रहा है।यह संचित कर्मों के द्रव्यमान में से चुना जाता है। प्रत्येक जीवनकाल में, संचित कर्मों का एक निश्चित भाग जो उस समय आध्यात्मिक विकास के लिए सबसे अनुकूल है,बाहर कार्य करने के लिए चुना जाता है। इसके बाद यह प्रारब्ध कर्म उन परिस्थितियों को बनाते हैं, जिन्हें हम अपने वर्तमान जीवनकाल में अनुभव करने के लिए नियत हैं, वे हमारे भौतिक परिवार, शरीर या जीवन परिस्थितियों के माध्यम से कुछ सीमाएँ भी बनाते हैं, जिन्हें हम जन्मजात रूप से भाग्य के रूप में जानते हैं।

अधिक आसानी से समझाने के लिए, मान लीजिए कि आपके संचित कर्म ऐसे हैं कि आपके उस समय तक अपने आने वाले जीवनों में 1000 कारणों का परिणाम सकारात्मक रूप से भोगना है और 500 कारणों का परिणाम नकारात्मक रूप से भोगना हैं। इसलिए इन कुल 1500 प्रभावों को आपके संचित कर्म कहा जाएगा।अब मान लें कि आपके द्वारा किये गए कर्मों के 300 सकारात्मक प्रभाव और 100 नकारात्मक प्रभावों को आपको अपने वर्तमान जीवन में उचित वातावरण द्वारा पक कर भोगने का मौका मिलेगा।तो वर्तमान जीवन के लिए आपके प्रारब्ध कर्म 300 + 100 = 400 होंगे।

दरअसल हम ऊपर की तरह कर्मों की गणना नहीं कर सकते क्योंकि यह गणित की गणना के लिए बहुत ही जटिल मापदण्ड है और इसके द्वारा हम सूक्ष्म और साझा कर्मों की व्याख्या नहीं कर सकते हैं।मैंने आपको कर्मों की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए केवल संख्याओं द्वारा एकउदाहरण दिया है।

जिस तरह से चोर को सहायता करने के जुर्म में साथी को भी सजा होती है ठीक उसी तरह काम्य कर्म और संचित कर्म में हमें अपनों के किए हुए कार्य का भी फल भोगना पड़ता है और इसीलिए कहा जाता है कि अच्छे लोगों की संगति करो ताकि कर्म की किताब साफ रहे। जिस बालक को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं वो कर्म भी अच्छे ही करेगा और फिर उसके संचित कर्म भी अच्छे ही होंगे। अलगे जन्म में उसे अच्छा प्रारब्ध ही मिलेगा।

क्रियमाण कर्म:

ये वे कर्महैं जो मनुष्य वर्तमान में बना रहा है, जिनके फल भविष्य में अनुभव किए जाएंगे। ये ही केवल वह कर्म हैं जिन पर हमें अपनी इच्छा शक्ति और मन की स्थिति के अनुसार चुनाव करने का अधिकार है।ये वो ताजा कर्म हैं जो हम प्रत्येक गुजरने वाले पल के साथ कर रहे हैं। वर्तमान जीवन और आने वाले जीवन में हमारे भविष्य का निर्णयकरने के लिए ये कर्म ही संचित कर्मों का भाग बन जाते हैं।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 19 ☆ लग्नाचा घाणा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक लग्न गीत “लग्नाचा घाणा”। आज भी पिछली  पीढ़ियों ने विवाह संस्कार तथा अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विरासत में मिले संस्कारों को जीवित रखा है। हम श्रीमती उर्मिला जी द्वारा रचित इस लग्न गीत  के लिए उनके आभारी हैं। निश्चित ही यह गीत  आवश्यक्तानुसार परिवर्तित कर भविष्य में विवाह संस्कारों में गाये जायेंगे।

यह एक संयोग ही है  कि – आज दिनांक 1-2-2020 को उनके पौत्र चिरंजीव अवधूत जी का विवाह है । इसके लिए  ई- अभिव्यक्ति की ऒर से  उनके भावी  दाम्पत्य जीवन की हार्दिक शुभकामनाएं।  इस सुन्दर लग्न गीत की रचना  के  समय उनके मन में  आई भावनाएं उनके ही शब्दों में  – “लग्नाची मुहूर्तमेढ, देवांना बोढण म्हणजे पुरणपोळी पक्वांनाचा नेवैद्य व सवाष्णींना भोजन असा विधी पार पडला त्यावेळी मला सुचलेला लग्नाचा घाणा “. इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को नमन।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 19 ☆

☆ लग्नाचा घाणा ☆

पाच कुलदेवतांचं देवक वाजत आणलं घरात !

पाच पत्रींची मुहूर्तमेढ रोविली दारात !!१!!

 

पाच सवाष्णींच्या हाताने जात ते पुजिलं!

हळद कुंकू लावुनिया उखळ-मुसळ पुजिलं!!२!!

 

घाणा तो भरण्या सुंदर ते जातं !

सवाष्णींचा हात लागता गरगरा ते फिरतं !!३!!

 

गरगरा फिरतं ते हळकुंड दळितं!

हळकुंड दळित त्याचीहळद करतं !!४!!

 

अवधूत-प्राजूच्या लग्नाची  दळताती हळद!

दळताती हळद बाई ओव्यांच्या सुरात !!५!!

 

ओव्यांच्या सुरात बाई नाद घुमतो घरात!

नाद घुमतो घरात बाई आनंद होतो मनात !!६!!

 

पुरण-पोळीच्या पक्वांनाचं भरिल बोढण !

देवांना नेवैद्य अन् सवाष्णींना भोजन !!७!!

 

हळद-कुंकू लावुनि द्या पानसुपारी हातात!

खण नारळ तांदुळ घाला त्यांच्या ओटीत !!८!!

 

जाई जुईचा गजरा माळा त्यांच्या वेणीत !

गजऱ्याचा वास घुमे सगळ्या घरात  !!९!!

 

उर्मिला हात जोडोनी विनंती करीत !

आनंद सुखसमृद्धी सदा नांदो माझ्या घरात!!१०!!

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक:- १-२-२०२०

 

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 32 ☆ समस्या नहीं : संभावना  ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “खामोशी और आबरू”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  जीवन के कठिन से कठिन समय  में विपरीत परिस्थितियों में भी सम्मानपूर्वक जीने का लक्ष्य निर्धारित करने हेतु प्रेरणा देता है। इस आलेख का कथन “जीवन में हम कभी हारते नहीं, जीतते या सीखते हैं अर्थात् सफलता हमें विजय देती है और पराजय अनुभव अथवा बहुत बड़ी सीख… जो हमें गलत दिशा की ओर बढ़ने से रोकती है। ” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 32☆

☆ समस्या नहीं : संभावना 

‘जीवन में संभावनाएं देखिए, समस्याएं नहीं। सपने देखिए, रास्ता स्वयं मिल जाएगा’— अनुकरणीय उक्ति है। आप समस्या, उससे उपजी परेशानियों व  चिंताओं को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकिए, आपको मंज़िल तक पहुंचने का सीधा-सादा विशिष्ट मार्ग मिल जाएगा। आप संभावनाएं तलाशिए अर्थात् यदि मैं ऐसा करूं, तो इसका परिणाम उत्तम होगा, श्रेष्ठ होगा और झोंक दीजिए… स्वयं को उस कार्य में… अपनी सारी शक्ति अर्थात् तन, मन, धन उस कार्य को संपन्न करने में लगा दीजिए… और पथ में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का चिंतन करना छोड़ दीजिए। सपने देखिए…रास्ता भी मिलेगा और मंज़िल भी बाहें फैलाए आपका स्वागत-अभिनंदन करेगी। हां! सपने सदैव उच्च, उत्तम व श्रेष्ठ देखिए …बंद आंखों से नहीं, खुली आंखों से देखिए…जैसा अब्दुल कलाम जी कहते हैं। आप पूर्ण मनोयोग से उन्हें साकार करने में लग जाइए…पथ की बाधाएं- आपदाएं स्वत: अपना रास्ता बदल लेंगी।

‘ए ऑटो विन विस्मार्क’ का यह वाक्य भी किसी संजीवनी से कम नहीं है कि ‘ समझदार इंसान दूसरों की गलती से सीखता है। मूर्ख इंसान गलती करके सीखता है।’ सो! बन जाइए बुद्धिमान और समझदार …दूसरों की गलती से सीखिए, खुद संकट में छलांग न लगाइये… जलती आग को छूने का प्रयास मत कीजिए ताकि आपके हाथ सुरक्षित रह सकें। इससे सिद्ध होता है कि दूसरों के अनुभव का आकलन कीजिए… उन्हें आज़माइये मत …और बिना सोचे-समझे कार्य-व्यवहार में मत लगाइए। बड़े बड़े दार्शनिक अपने अनुभवों को, दूसरों के साथ सांझा कर उन्हें गलतियां करने से बचाते हैं और कुसंगति से बचने का प्रयास करते हैं।

जो लोग ज़िम्मेवार, सरल, ईमानदार व मेहनती होते हैं, उन्हें ईश्वर द्वारा विशेष सम्मान मिलता है, क्योंकि वे धरती पर उसकी श्रेष्ठ रचना होते हैं। अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति उपरोक्त भाव को पुष्ट करती है। ऐसे लोगों का अनुकरण कीजिए…उन द्वारा दर्शाये गये मार्ग पर चलने का प्रयास कीजिए, क्योंकि सरल स्वभाव के व्यक्ति ईमानदारी व परिश्रम को जीवन में धारण कर सबका मार्ग-दर्शन करते हैं,  उन सभी महापुरुषों के जीवन का उद्देश्य आमजन को दु:खों-संकटों व आपदाओं  से बचाना होता है। कबीर, नानक, तुलसी व कलाम सरीखे महापुरूषों के जीवन का विकास व आत्मोन्नति कीचड़ में कमलवत् था। इसलिए आज भी उनके उपदेश समसाययिक हैं और एक लंबे अंतराल के पश्चात् भी सार्थक व अनुकरणीय रहेंगे।

वे संत पुरुष सबके हित व कल्याण की कामना करते हैं तथा सबके साथ रहने का संदेश देते हैं। संत बसवेश्वर अपने घुमंतू स्वभाव के कारण गांव-गांव का भ्रमण कर रहे थे तथा वे एक सेठ के निमंत्रण पर उसके घर गए… जहां उनकी खूब आवभगत हुई। थोड़ी देर में उनसे मिलने कुछ लोग आए और उन्होंने उन लोगों को यह कह कर लौटा दिया कि ‘मैं अभी अतिथि के साथ व्यस्त हूं।’ इसके पश्चात् वे भीतर चले आये और संत से कल्याण के मार्ग के बारे में पूछने लगे। ‘जो व्यक्ति द्वार पर आये अतिथि से कटु व्यवहार करता है, उन्हें भीषण गर्मी में लौटा देता है… उसका कल्याण किस प्रकार संभव है? यह सुनते ही सेठ समझ गया कि व्यर्थ दिखावे व  पूजा-पाठ से अच्छा है,  हम सदाचार व परोपकार को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। शायद! इसीलिए वे धरती पर प्रभु की सर्वश्रेष्ठ रचना कहलाते हैं तथा लोगों को यह भी समझाते हैं कि कुदरत ने तो आनंद ही आनंद दिया है और दु:ख मानव की खोज है। हर वस्तु के दो पक्ष होते हैं। परंतु फूल व कांटे तो सदैव साथ रहते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस का चुनाव करते हैं? हम घास पर बिखरी ओस की बूंदों को मोतियों के रूप में देख उल्लसित -आनंदित हो सकते हैं या प्रकृति द्वारा बहाये गये आंसुओं के रूप में देख व्यथित हो सकते हैं।

उसी प्रकार कांटों से घिरे गुलाब को देख, उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो सकते हैं तथा कांटों को देख, उसकी नियति पर आंसू भी बहा सकते हैं। इसी प्रकार सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है… दोनों इकट्ठे कभी नहीं आते। एक के विदा होने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है, परंतु यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम सुखों को स्थायी समझ, उसके न रहने पर आंसू बहते हैं… अपने भाग्य को कोसते हैं तथा अपने जीवन को दूभर व नरक बना लेते हैं। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि सुख तो बिजली की कौंध की भांति हमारे जीवन में प्रवेश करता है-और हम भ्रमित होकर अपने वर्तमान को दु:खी बना लेते हैं। सुख- दु:ख दोनों मेहमान हैं और आते-जाते रहते हैं। इसलिए सुख का लालच व दु:ख का भय हमें सदैव कष्टों व आपदाओं में रखता है और हम चाह कर भी उस व्यूह से मुक्ति नहीं पा सकते।

सो! दोस्ती व प्रेम उसी के साथ रखिए, जो तुम्हारी हंसी व गुस्से के पीछे का दर्द अनुभव कर सके मौन की वजह तक पहुंच सके। अर्थात् सच्चा दोस्त वही है, जो आपका गुरू भी है… सही रास्ता दिखलाता है और विपत्ति में सीना ताने आपके साथ खड़ा होता है। सुख में वह आपको भ्रमित नहीं होने देता तथा विपत्ति में गुरु की भांति आपको संकट से उबारता है। वह उस कारण को जानने का प्रयास करता है कि आप  दु:खी क्यों हैं? आपकी हंसी कहीं बनावटी व  दिखावे की तो नहीं है? आपकी चुप्पी तथा मौन का रहस्य क्या है? कौन-सा ज़ख्म आपको नासूर बन साल रहा है? उसके पास सुरक्षित रहता है… आपके जीवन के हर पल का लेखा-जोखा। सो! ऐसे लोगों से संबंध रखिए और उन पर अटूट विश्वास रखिए, भले ही संबंध बहुत गहरे ही न हों? इसके साथ ही वे ऐसे मुखौटाधारी लोगों से भी सचेत रहने का संदेश देते हैं, जो अपने बनकर, अपनों को छलते हैं। इसलिए उनसे सजग व सावधान रहिए, क्योंकि चक्रव्यूह रचने वाले व पीठ में छुरा घोंकने वाले सदैव अपने ही होते हैं। यह तथ्य कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी रहेगा। इसलिए मन की बात बिना सोचे-समझे, कभी भी दूसरों से सांझा न करें, क्योंकि कुछ लोग बहुत उथले होते हैं। इसलिये वे बात की गंभीरता को अनुभव किए बिना, उसे आमजन के बीच प्रेषित कर देते हैं, जिससे आप ही नहीं, वे स्वयं भी जग-हंसाईं का पात्र बनते हैं। सो! सावधान रहिये, ऐसे मित्रों और संबंधियों से.. जो आपकी प्रशंसा कर, आपके मनोबल को गिराते हैं तथा आपको निष्क्रिय बना कर, अपना स्वार्थ साधते हैं। ऐसे ईर्ष्यालु आपको उन्नति करते देख, दु:खी होते हैं तथा आपके कदमों के नीचे से सीढ़ी खींच सुक़ून पाते हैं। तो चलिए इसी संदर्भ में जिह्वा का ज़िक्र भी कर लें, जो दांतों के घेरे में रहती है…अपनी सीमा व मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करती। इसलिए वह भीतरी षड्यंत्र व बाहरी आघात से सुरक्षित रहती है… जबकि उसमें विष व अमृत दोनों तत्व निवास करते हैं… प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं, बल्कि साथी व सहयोगी के रूप में और मानव उनसे मनचाहा संबंध बनाने व प्रयोग करने में स्वतंत्र है। इसी प्रकार वह कटु वचन बोलकर दोस्त को दुश्मन बना सकता है और शत्रु को को पल भर में अपना साथी-सहयोगी, मित्र व विश्वासपात्र।

हमारी वाणी में अलौकिक शक्ति है… यह प्रयोगकर्ता  पर निर्भर करता है कि वह शर-संधान अर्थात् कटु वचन रूपी बाण चला कर हृदय को आहत करता है या मधुर वाणी से, उसके अंतर्मन में प्रवेश पाकर व  उसे आकर्षित कर अपना पक्षधर बना लेता है। इसलिये स्वयं को पढ़ने की आदत बनाइए, क्योंकि कुदरत को पढ़ना अत्यंत दुष्कर कार्य है। दुनिया बहुत बड़ी है, इसलिए सब कुछ समझना व सब की आकांक्षाओं पर खरा उतरना मानव के वश में नहीं है। सो! दूसरों से अपेक्षा मत कीजिए। अपने अंतर्मन में झांकिये व आत्मावलोकन कीजिये जो समस्याओं के निदान का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जब आप अपने दोषों व अवगुणों से अवगत हो जाते हैं तो आप सब के प्रिय बन जाते हैं। इस स्थिति में कोई भी आपका शत्रु नहीं हो सकता। आप अनहद नाद की मस्ती में डूब, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर सकते हैं… यही जीते जी मुक्ति है, कैवल्य है।

सो! हर समस्या के दो पहलुओं के अतिरिक्त, तीसरे विकल्प की ओर भी दृष्टिपात कीजिए… जीवन उत्सव बन जाएगा और कोई भी आपके जीवन में अंर्तमन में खलल नहीं डाल पाएगा। इसलिए जीवन में संभावनाओं की तलाश कीजिये और निरंतर अपनी राह पर बढ़ते जाइए… स्वर्णिम भोर पलक पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा कर रही होगी। जीवन में हम कभी हारते नहीं, जीतते या सीखते हैं अर्थात् सफलता हमें विजय देती है और पराजय अनुभव अथवा बहुत बड़ी सीख… जो हमें गलत दिशा की ओर बढ़ने से रोकती है। तो आइए! जीवन में सम स्थिति में रहना सीखें…जीवन में सामंजस्यता का प्रवेश होगा और समरसता स्वत: आ जायेगी, जो आपको अलौकिक आनंद प्रदान करेगी क्योंकि संभव और असंभव के बीच की दूरी, व्यक्ति की सोच और कर्म पर निर्भर करती है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि  – वसंत पंचमी विशेष – माँ शारदा शतश: नमन  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – वसंत पंचमी विशेष – माँ शारदा शतश: नमन  

[1]

शुभ्र परिधानधारिणी, पद्मासना
हर शब्द, हर अक्षर तुम्हें अर्पण,
उज्ज्वल हंस पर विराजमान
दुग्धधवला महादेवी,
माँ शारदा को शतश: नमन।

[2]

मानसरोवर का अनहद
शिवालय का नाद कविता,
अयोध्या का चरणामृत
मथुरा का प्रसाद कविता,
अंधे की लाठी
गूँगे का संवाद कविता,
बारम्बार करता नमन ‘संजय’
माँ सरस्वती साक्षात कविता।

[3]

मौसम तो वही था,
यह बात अलग है
तुमने एकटक निहारा
स्याह पतझड़,
मेरी आँखों ने चितेरे
रंग-बिरंगे बसंत..,
बुजुर्ग कहते हैं,
देखने में और दृष्टि में
अंतर होता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कवितासंग्रह ‘योंही’ एवं ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 32 ☆ वसंत पंचमी विशेष – बसंत ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी वसंत पंचमी  पर्व पर विशेष कविता  ‘ बसंत ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 32 – साहित्य निकुंज ☆

☆ बसंत 

माघ माह की पंचमी,

आया है ऋतु राज,

सरस्वती को पूजते ,

लोग घरों में आज।।

 

बसंत

बसंत आता है

मन को लुभाता है

चहुँ ओर

फ़ैल रही है हरियाली

झूम रही है डाली डाली

धरती ने हरीतिमा का किया शृंगार

मन में उठी उमंग की फुहार

प्रेम प्यार की कोपलें फूटी

खिलने लगे फूल और कलियाँ

छा गई सब ओर खुशियाँ

फ़ैली है बसंत की महक

गूंज रही पक्षियों की चहक

जीवन में खिलने लगे नये रंग

लगा लिया कलियों ने अंग

देखो आ गया बसंत

आ गया बसंत।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 23 ☆ वसंत पंचमी विशेष – सरस्वती वंदना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है वसंत पंचमी  पर विशेष  कविता / गीत “सरस्वती वंदना”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 23 ☆

☆ वसंत पंचमी विशेष – सरस्वती वंदना ☆

 

चारु      हासिनी     वाग्वादिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

शीश मुकुट मोहक मणि सोहे।

गल  मोतिन  की  माला  मोहे।।

ज्ञान-बुद्धि   दे   ज्ञान   दायिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।

 

धूप-दीप, फल  मेवा  अर्पित।

भक्ति-भाव से विनय समर्पित।।

महका  दे  उर  पुष्प  वाहिनी।।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

शब्द-शब्द,कविता-आराधन।

नव गीतों का करे सृजन मन।।

रस भावों की सुभग स्वामिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

ब्रम्हा-विष्णु,महेश उपासक।

शब्द-शिल्प,स्वर-लय आराधक।।

शशिवदना हे कमल वासिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

आन विराजो कलम दृष्टि में।

शब्द-नाद  संगीत-सृष्टि  में।।

माँ विमला”संतोष” दायिनी

जयति जयति जय हंस वाहिनी।।

 

चारु     हासिनी     वाग्वादिनी।

जयति जयति जय हंस वाहिनी।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 18 ☆ लघुकथा – साजिश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “साजिश”।  समाज में व्याप्त इस कटु सत्य को पीना इतना आसान नहीं है किन्तु,  सत्य आखिर सत्य तो है और नकारा नहीं जा सकता।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 18 ☆

☆ लघुकथा –साजिश 

बुढ़ापा … उम्र के इस दौर में वे दोनों किसी तरह जी रहे थे। एक बेटी और दो बेटों का भरा-पूरा परिवार था। वह घर जिसमें हमेशा चहल-पहल, हो-हल्ला मचा रहता था अब सन्नाटे में डूबा रहता। वृद्ध  दंपति के पास करने को कुछ नहीं था, करते क्या, शरीर भी तो साथ नहीं देता। सोचने को था बहुत कुछ बच्चों की बेशुमार यादें। पहले बेटी फिर ढ़ेरों मन्नतों के बाद दो बेटे  — कुलदीपक ?

जीवन पर्यंत जिम्मदारियों का निर्वाह, यथासंभव ……जी तोड़ कोशिश कर और अब …. अमावस की घोर कालिमा-सी वृद्धावस्था।

शुक्ल जी बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बेटी को तो पराया धन मानते ही थे। बेटों के आगे भी कभी हाथ नहीं फैलाया। यह बात दूसरी है कि बेटी की शादी और बेटों को पढाने-लिखाने में तन और धन दोनों से खाली हो चुके थे। संतान के लिए जितना करो उतना कम।

अब बारी बेटों की। गेंद उनके पाले में – देखें कैसी खेलते हैं जीवन की यह पारी। दिनेश तो पढाई पूरी होते ही विदेश चला गया था। राहुल शहर में होकर भी पास नहीं था। कई बार शुक्ल जी ने फोन करके कहा – एक बार देख जा माँ को, दिन-पर-दिन तबियत बिगड़ती जा रही है। तुझे देखने को तरसती है। व्यस्त हूँ, जरूर आऊँगा – जैसे टालू उत्तर फोन पर शुक्ल जी सुनते रहे। मोबाईल युग है – सुख-दुःख फोन पर बँटते हैं। आवाजें पास, दिल दूर-दूर।

शुक्ल जी की बेटी रंजना को आज भी याद हैं पापा के वे शब्द – ‘बेटी ! हम पति-पत्नी मर जाएंगे लेकिन बेटों के सामने दया की भीख नहीं मांगेगे।’ माँ की भीगी आँखों की निरीहता भूली नहीं जाती। कैसी अकथनीय वेदना छिपी थी उन बूढी आँखों में।

माँ के अंतिम संस्कार की तैयारी चल ही रही थी कि ‘पापा नहीं रहे’ – वाक्य उसके कानों में पड़ा, दो उल्टियां हुई और सब खत्म। वह सन्न रह गयी।

पड़ोस की स्त्रियां बोली – ‘कितनी सौभाग्यशाली है सुहागिन मरी’ पुरुष बोले – ‘अच्छा हुआ शुक्ल जी पत्नी के जाते ही चल दिए, बहुओं का राज नहीं देखना पड़ा’, रंजना सच जानती थी। स्वाभिमान से जीने की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को उनके बेटों ने बेमौत मार डाला।

रंजना अपना दुःख कहे भी तो किससे ???

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 30 ☆ बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक सामायिक  आलेख  “बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद इस सामयिक किन्तु  शिक्षाप्रद  आलेख  के लिए। इस आलेख  को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन आलेख के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 31 ☆ 

☆ बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई

 

तिरंगे की छाया में खडे, बंद गले का जोधपुरी सूट पहने, सफेद टोपी लगाये गर्व से अकड़े हुये मुख्य अतिथि  ने परेड की सलामी ली. उद्घोषणा हुई आकाश की असीम उंचाईयों तक ट्राई कलर का संदेश पहुंचाने के लिये गैस के गुब्बारे “बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स” छोड़ कर हर्ष व्यक्त किया जावेगा. सजी सुंदर दो लडकियां ने केसरिया, सफेद, हरे गुब्बारो के गुच्छे मुख्य अतिथि की ओर बढ़ाये. शौर्य, देश भक्ति और साहस के प्रतीक ढ़ेर सारे केसरिया गुब्बारे सबसे अधिक उंचाई पर थे, सफेद गुब्बारो के धागे कुछ छोटे थे. उद्घोषक की भाषा  में सफेद रंग के ये गुब्बारे शांति, सदभावना और समन्वय को प्रदर्शित करते इठला रहे थे. इन्हीं सफेद गुब्बारो में एक गुब्बारा गहरे नीले रंग का भी था जो तिरंगे के अशोक चक्र की अनुकृति के रुप में गुच्छे में बंधा था. वही अशोक चक्र जो सारनाथ के अशोक स्तंभ से समाहित किया गया है हमारे तिरंगे में. यह चक्र राष्ट्र की गतिशीलता, समय के साथ प्रगति तथा अविराम बढ़ते रहने को दर्शाता है. सबसे नीचे हरे रंग के खूब सारे फुग्गे थे. देश के कृषि प्रधान होने, विकास और उर्वरता के प्रतीक का रंग है तिरंगे का हरा रंग.  मुस्कुराते हुये मुख्य अतिथि जी ने बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स छोड दिये. कैमरा मैन एक्शन में आ गया, लैंस जूम कर, आकाश में गुब्बारो के गुम होते तक जितनी बन पड़ी उतनी फोटो खींच ली गईं. समाचार के साथ ऐसी फोटो न्यूज को आकर्षक बना देती है. नीले आसमान के बैकग्राउंड में, सूरज की सुनहली धूप के साथ, बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई की फोटो खबर में देशभक्ति का जज्बा पैदा कर देती है. जब ओजस्वी उद्घोषणा होती है “झंडा उंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा” तो सचमुच स्टेडियम में उपस्थित हर किसी का सीना थोड़ा बहुत जरूर फूल जाता है.

पर कौन से अदृश्य हाथ हैं जो तिरंगे की तीनो रंग की पट्टियो की सिलाई उधाड़कर उन्हें अलग अलग करने पर आमादा है ? कौन सी ताकतें हैं जो जगह जगह बाग उजाड़ने में जुटी हुई हैं ? कौन है जो कहला रहा है कि  इस हिस्से को उस हिस्से से अलग कर दो ? तिरंगे का साया तो हमेशा से समता का पाठ पढ़ाता आया है. संविधान में केवल अधिकार नहीं कर्तव्य भी तो दर्ज हैं. देश का जन गण मन तो वह है, जहां फारूख रामायणी अपनी शेरो शायरी के साथ राम कथा कहते हैं. जहां मुरारी बापू के साथ ओस्मान मीर, गणेश और शिव वंदना गाते हैं. फिल्म बैजू बावरा का  भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज, इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूंनी हैं,  तथा गायक मोहम्मद रफी हैं. तिरंगे ने कभी भी इन संगीत के महारथियों से उनकी जाति नही पूछी. आज के हालात पर बेचैन तिरंगे ने उस भीड़ से पूछा जो उसे हिला हिला कर आजादी की मांग कर रही थी कि मेरे साये में यह जातिगत भीड़ क्यों ? तो किसी से उत्तर मिला कि ऐसा केवल सोशल मीडीया पर दिख रहा है, जन गण मन तो आज भी वैसा ही है. आसमान के अनंत सफर पर ट्राईकलर बैलून बंच  ने कहा  आमीन ! काश सचमुच ऐसा ही हो ! यदि ऐसा है तो समझ लो कि इस भ्रामक सोशल मीडिया की उम्र ज्यादा नही है. क्योकि झूठ की जड़े नही होती, यह शाश्वत सत्य है.  बंच आफ ट्राई कलर बैलून्स इन स्काई साहस, शांति अविराम प्रगति और विकास का संदेशा लिये कुछ और ऊपर उड चला. आयोजन में बच्चे ड्रिल कर रहे थे और बैंड बजा रहा था इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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