मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-18 – बहीण ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मानवीय रिश्तों पर आधारित  चारोळी विधा में  रचित एक भावप्रवण कविता  – “बहीण । )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 18 ☆ 

 

 ☆  बहीण  ☆

 

थोरली बहीण

प्रेमळ सावली।

वैराण जीवनी

भासते माऊली।

 

भावा बहिणीचे नाते

जणू मोहरे वसंत ।

रूक्ष तापल्या मनाची

असे पहिली पसंत ।

 

खट्याळ भाऊराया

काढी बहिणीची खोडी।

लाडीक या भांडणात

वाढे जगण्याची गोडी।

 

अनमोल भासे मज

तुझी चोळी अन्  साडी।

नको मोडूस राजसा बहिणीची आस वेडी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 19 – व्यंग्य – व्यवस्था का सवाल ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने   विवाह के अवसर पर बारातियों के एक विशिष्ट चरित्र के आधार पर न सिर्फ विवाह अपितु साड़ी व्यवस्था के सवाल पर एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य की रचना की है.  ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “व्यवस्था का सवाल  ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 19 ☆

 

☆ व्यंग्य  – व्यवस्था का सवाल  ☆

 

रज्जू पहलवान के सुपुत्र की बरात दो सौ किलोमीटर दूर एक कस्बे में गयी।लड़की के बाप ने अच्छा इन्तज़ाम किया, वैसे भी सभी लड़कियों के बाप उनकी शादी के वक्त अपनी जान हाज़िर कर देते हैं। उसके बाद भी सारे वक्त उनकी जान हलक़ में अटकी रहती है।

रास्ते में दो जगह लड़की के चाचा-मामा ने बरात के स्वागत का इन्तज़ाम किया। नाश्ता-पानी पेश किया, काजू-किशमिश के पैकेट भेंट किये,पान-मसाला के पाउच हाज़िर किये। समझदार लोगों ने काजू-किशमिश के पैकेट जेब में खोंस लिये कि बरात से लौटकर बाल-बच्चों को देंगे। बरात संतुष्ट होकर आगे बढ़ गयी।

बरात लड़की वाले के घर पहुँची तो वहाँ भी भरपूर स्वागत हुआ। रुकने-टिकने की व्यवस्था माकूल थी, सेवा के लिए सेवक और घर के लोग मुस्तैद थे। धोबी, नाई, पालिश वाला अपनी अपनी जगह डटे थे। मुँह से निकलते ही हुकुम की तामीली होती थी। सब जगह इन्तज़ाम चौकस था। कहीं भी ख़ामी निकालना मुश्किल था।

रात को वरमाला के बाद सब भोजन में लग गये। तभी वधूपक्ष को सूचना मिली कि वरपक्ष के कुछ लोग भोजन के लिए नहीं पधार रहे हैं। शायद नाराज़ हैं।

लड़की के चाचा चिन्तित बरात के डेरे पर पहुँचे तो पाया कि वर के चाचा सिर के नीचे कुहनी धरे लम्बे लेटे हैं और उनके आसपास पाँच छः सज्जन अति-गंभीर मुद्रा धारण किये बैठे हैं।

लड़की के चाचा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भोजन के लिए पधारें। ‘

उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। लड़के के चाचा छत में आँखें गड़ाये रहे और उनकी मंडली मुँह पर दही जमाये बैठी रही।

लड़की के चाचा ने दुहराया, ‘चला जाए। ‘

अब लड़के के चाचा ने कृपा करके अपनी आँखें छत पर से उतारकर उन पर टिकायीं, फिर उन्हें सिकोड़कर बोले, ‘आप मज़ाक करते हैं क्या?’

लड़की के चाचा घबराकर बोले, ‘क्या बात है? क्या हुआ?’

वर के चाचा आँखें तरेरकर बोले, ‘होना क्या है? आपकी कोई व्यवस्था ही नहीं है। ‘

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘कौन सी व्यवस्था? कौन सी व्यवस्था रह गयी?’

लड़के के चाचा की नज़र वापस छत पर चढ़ गयी। वहीं टिकाये हुए बोले, ‘कोई व्यवस्था नहीं है। कोई एक कमी हो तो बतायें।’

उनकी मंडली भी भिनभिनाकर बोली, ‘सब गड़बड़ है। ‘

वधू के चाचा और परेशान होकर बोले, ‘कुछ बतायें तो।’

वर के चाचा फिर उनकी तरफ दृष्टिपात करके बोले, ‘आप तो ऐसे भोले बनते हैं जैसे कुछ समझते ही नहीं। हम घंटे भर से यहाँ लेटे हैं, लेकिन कोई पूछने आया कि हम क्यों लेटे हैं?’

लड़की के चाचा झूठी हँसी हँसकर बोले, ‘हम तो आ गये।’

वर के चाचा हाथ नचाकर बोले, ‘आप के आने से क्या फायदा? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो क्या मतलब?’

लड़की के चाचा ने विनम्रता से कहा, ‘हमने तो व्यवस्था पूरी की है।’

वर के चाचा व्यंग्य के स्वर में बोले, ‘दरअसल आप खयालों की दुनिया में रहते हैं। आप सोचते हैं कि आपने जो कर दिया उससे बराती खुश हो गये। असलियत यह है कि बरातियों में दस तरह के लोग हैं। किसको क्या चाहिए यह आपको क्या मालूम। जिसे दूध पीना है उसे पानी पिलाएंगे तो कैसे चलेगा?’

मंडली ने सहमति में सिर हिलाया।

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘किसे दूध पीना है? अभी भिजवाता हूँ।’

वर के चाचा खिसियानी हँसी हँसकर बोले, ‘हद हो गयी। हम कोई दूध-पीते बच्चे हैं?आप की समझ में कुछ नहीं आता।’

लड़की के चाचा ने दुखी होकर कहा, ‘हमने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि बरात को शिकायत का मौका न मिले।’

वर के चाचा विद्रूप से बोले, ‘हमीं बेवकूफ हैं जो शिकायत कर रहे हैं। हमने सैकड़ों बरातें की हैं। कोई पहली बरात थोड़इ है।’

लड़की के चाचा हाथ जोड़कर बोले, ‘तो हुकुम करें। क्या व्यवस्था करूँ?’

वर के चाचा वापस छत पर चढ़ गये, लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘क्या हुकुम करें? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो हुकुम करके क्या करें?’

मंडली ने ग़मगीन मुद्रा में सिर लटका लिया।

लड़की के चाचा के साथ उनके जीजाजी भी थे। वे समझदार, तपे हुए आदमी थे। अपने साले का हाथ पकड़कर बोले, ‘आप समझ नहीं रहे हैं। इधर आइए।’ फिर लड़के वालों से बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं। व्यवस्था में कुछ खामी रह गयी। हम अभी दुरुस्त कर देते हैं।’

सुनते ही लड़के वाले सीधे बैठ गये, जैसे मुर्दा शरीर में जान आ गयी हो। लड़के के चाचा का तना चेहरा ढीला हो गया।

जीजाजी अपने साले को खींचकर बरामदे में ले गये। वहाँ उन्होंने कुछ फुसफुसाया। साले साहब प्रतिवाद के स्वर में बोले,  ‘लेकिन हम तो दस साल पहले गुरूजी के सामने छोड़ चुके हैं। हमारे तो पूरे परिवार में कोई हाथ नहीं लगा सकता।’

जीजाजी बोले, ‘तुम्हें हाथ लगाने को कौन कहता है? तुम ठहरो, हम इन्तजाम कर देते हैं।’

फिर वे बरातियों के सामने आकर बोले, ‘आप निश्चिंत रहें। अभी व्यवस्था हो जाती है। सब ठीक हो जाएगा।’

उनकी बात सुनते ही उखड़े हुए बराती एकदम सभ्य और विनम्र हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘कोई बात नहीं। आप व्यवस्था कर लीजिए। कोई जल्दी नहीं है।’

आधे घंटे में व्यवस्था हो गयी और बराती सब शिकायतें भूल कर व्यवस्था का सुख लेने में मशगूल हो गये।

कुछ देर बाद फिर लड़की के चाचा बरातियों के हालचाल लेने उधर आये तो लड़के के चाचा ने कुर्सी से उठकर उन्हें गले से लगा लिया। उन्हें खड़े होने और बोलने में दिक्कत हो रही थी, फिर भी भरे गले से बोले, ‘ईमान से कहता हूँ, भाई साहब, कि इतनी बढ़िया व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी। बेवकूफी में आपकी शान के खिलाफ कुछ बोल गया होऊँ तो माफ कर दीजिएगा। अब तो हमारी आपसे जिन्दगी भर की रिश्तेदारी है।’

उनके आसपास गिलासों में डूबी मंडली में से आवाज़ आयी, ‘बिलकुल ठीक कहते हैं।  ऐसी ए-वन व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 4 – विशाखा की नज़र से ☆ गौरैया और बिटिया  ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना गौरैया और बिटिया .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4  – विशाखा की नज़र से

 

☆  गौरैया और बिटिया  ☆

 

बहुत से बहुत कितना दूर तक देख पाती होगी गौरैया,

प्रयोजन से बिखराये दानों और उसके पीछे

शिकारी की मंशा

क्या देख पाती होगी ?

 

कितनी दूर तक जा पाती होगी चहक,

उस नन्हीं सी गौरैया की

बहुत से बहुत आस – पास के अपने साथी समूह तक

केवल वे ही समझ पाते होंगे

जाल में फँसने पर उसकी फड़फड़ाहट

और पुकार को ।

 

हमारी जात की भी नन्हीं गौरैया,

कहाँ देख पाती है,

पहचाने, अनजाने, रिश्तेदारी शिकारी को

और कुछ लुभावने / डरावने जाल में फंस  जाती है ।

आश्चर्य यह कि,

इंद्रियों से परिपूर्ण हमारी देह

समझ नहीं पाती,

शिकार होने पर सहसा बदली सी उसकी

चहचहाहट , फड़फड़ाहट और मौन प्रश्न को !

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #23 – ☆ फुलं… ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी  फुलं… .  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  पुष्पों का हमारे जीवन के विभिन्न अवसरों पर सकारात्मक सम्बन्ध हैं. सुश्री आरुशी जी की कविता सहज ही हमें जीवन के प्रातः से संध्या तक घर आंगन से लेकर हमारे ह्रदय विभिन्न भावों में  फूलों की सुगंध का अहसास देती है.  सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #23 ☆

 

☆ फुलं… ☆

 

फुलांना आपल्या आयुष्यात अनन्य साधारण महत्व आहे…
आयुष्यातील प्रत्येक टप्प्यावर ह्यांची साथ मिळत असते, आणि गंमत म्हणजे बऱ्याच वेळा आपल्याला त्याची जाणीवही नसते… गृहीत धरतो की फुलं आहेतच, त्यात वेगळं ते काय… हे जरी असाल तरी फुलं मात्र त्यांचं काम चोखपणे बजावत असतात… उमलण्यातील आनंदाने परिसर गंधित, सुगंधित करतात… सगळ्यांना एकत्र ठेवलं तरी स्वतःचे वेगळेपण असनाती ही फुलं, सकारात्मकतेच रूप आहे असं म्हणायला हवं…

विघनहर्त्याची पट्ट जास्वंद,
लाल चुटुक कुंकवाला आवाहन देणारी,
तर कमळ पवित्रता देऊन जाणारे,
शुभ्रतेतून, पावित्र्य जपणारा अनंत, सोनटक्का, तगर,
आसमंत कायमच सुवासिक करणारे…

श्रुंगारतेला लेऊन फुलणारा मोगरा,
चंद्र चांदण्यांसोबत आसमंत धुंद करणारी रातराणी,
कमसीन हो,नादान हो, नाजूक हो, भोली हो,
अशी ती जाई जुईची मोहकता…

गुलाबी प्रेमाची सुरुवात करणारा गुलाब असला तरी,
प्रेमातील वेडेपणा म्हणजे निशिगंध,
अलवार अबोली मौनातून जवळ जाणारी,
मादकतेची उधळण करणारा सोनचाफा,
सोबतीला साज चढवणारी शेवंती,
तरी हवाहवासा , नाकारता न येणारा चाफा…

समर्पणातील आनंद घेणारा प्राजक्त,
तर नात्यांतील वीण घट्ट करणारी बुचाची फुलं,
उत्साहाने डोलणारी लिलीची फुलं,
अंगणाची शोभा वाढवतात…

 

© आरुशी दाते, पुणे

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

 ( मन के निग्रह का विषय )

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।33।।

 

अर्जुन ने कहा-

मधुसुदन ! जो योग में कहा एकता भाव

मन की चंचलता से मुझे दिखता वहां अभाव।।33।।

 

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ।।33।।

 

This Yoga of equanimity taught by Thee, O Krishna, I do not see its steady continuance,  because of restlessness (of the mind)! ।।33।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 10 ☆ पतझड़ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘पतझड़ ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 10 ☆

☆ पतझड़

मैंने देखा,
पतझड़ में
झड़ते हैं पत्ते,
और
फल – फूल भी
छोड़ देते हैं साथ।
बचा रहता है
सिर्फ ठूँस
किसलय की
बाँट जोहते हुए।

मैंने देखा
उसी ठूँठ पर
एक घोंसला
गौरेय्ये का,
और सुनी
उसके बच्चों की
चहचहाट साँझ की।
ठूँठ पर भी
बसेरा और
जीवन बहरते
मैंने देखा
पतझड़ में ।

© सुजाता काले
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 12 – अंतिम चेतावनी ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अंतिम चेतावनी ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 12 ☆

 

☆ अंतिम चेतावनी  

 

रावण ने कहा –  “हे बेवकूफ वानर, मैं वही रावण हूँ जिनकी बाहों की शक्ति पूरा कैलाश जानता है। मेरी बहादुरी की सराहना महादेव ने भी की है जिनके आगे मैंने अपने सिर भेट स्वरूप चढ़ायेहैं । तीनों दुनिया मेरे विषय में जानती है”

अंगद ने कहा –  “आप अपने रिश्तेदारों के विषय में जानते हैं। ताड़का, मारिच, सुभाहू, और अन्य कई अब वह कहाँ हैं? वे भगवान राम के द्वारा जैसे वो बच्चों को खेल खिला रहे हो इस तरह मारे गए।भगवान परशुराम (अर्थ : राम जिनके पास हमेशा एक कुल्हाड़ी हो), जिन्होंने क्षत्रियों के पूरे वंश को कई बार मारा था को भगवान राम ने बिना किसी भी कुल्हाड़ी के पराजित किया था। वह इंसान कैसे हो सकते है? हे मूर्ख, क्या राम एक इंसान है? क्या काम देव (कामुक या यौन प्रेम की इच्छाओं के भगवान), केवल एक तीरंदाज है? क्या गंगा (दुनिया की सबसे पवित्र नदी), केवल एक नदी है? क्या कल्पवृक्ष (इच्छा-पूर्ति करने वाला दिव्य वृक्ष) केवल एक वृक्ष है? क्या अनाज केवल एक दान है? क्या अमृत (अमरता का तरल), केवल एक रस ​​है ? क्या गरुड़ केवल एक पक्षी है? क्या शेषनाग (एक दिव्य सांप जो यह दिखाता है कि विनाश के बाद क्या बचा है), केवल एक साँप है? क्या चिंतामाणि (इच्छा-पूर्ति करने वाला रत्न), केवल एक मणि है? क्या वैकुण्ठ (भगवान विष्णु का निवास, हर आत्मा का अंतिम गंतव्य), केवल एक लोकहै? क्या वह वानर जिसने तुम्हारे बेटे और तुम्हारी सेना को मार डाला, एवं अशोक वटिका को नष्ट कर दिया, और तुम्हारे नगर जला को डाला केवल एक वानर है? हे, रावण, भगवान राम के साथ शत्रुता को भूल जाओ और उनकी शरण में चले आओ, अन्यथा तुम्हारे कुल का नामोनिशान तक मिट जायेगा”

 

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 9 ☆ तू तेजस्विनी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता तू तेजस्विनी जो स्त्री जीवन पर आधारित महान महिलाओं को स्मरण कराती हुई एक अद्भुत कविता है.  श्रीमती उर्मिला जी  की सुन्दर कविता के माध्यम से उन समस्त स्त्री शक्तियों को नमन  एवं श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 9 ☆

 

☆ तू तेजस्विनी ☆

(विषय :- स्त्री जीवन)

 

तू तेजस्विनी माऊलींची मुक्ताबाई !

तू शूर शिवरायांची आई जिजाबाई !

तू कोल्हापूरची राणी पराक्रमी ताराबाई !

तू वीर शंभूराजे ची राजकुशल येसूबाई !

तू रायगडाच्या बुरुजावरची हिरकणी !

तू देशाची प्रथम प्राध्यापिका क्रांतीज्योती फुले सावित्रीबाई !

तू भगिनी निवेदिता विविकानंद बहिणाई !

तू आदीवासींची प्रथम शिक्षिका वाघ अनुताई !

तू कवयित्री बहिणाबाई, शेळके शांताबाई !

तू कुसुम देव राज्यातील पहिली महिला तडफदार फौजदार !

तू लेफ्टनंट साताऱ्याची जिद्दी स्वाती महाडीक !

तू आदीवासींची डॉक्टर राणी बंग व आमटे मंदाकिनी !

तू चपलगामिनी महाराष्ट्राची माणदेशी ललिता बाबर !

तू डोक्यावर पाटे-वरवंटे विकून झालेली पोलीस उपनिरीक्षक पद्मशिला तिरपुडे !

तू प्रसिद्ध इन्फोसिस कंपनीची उद्यमशीला सुधा मूर्ती !!

 

सलाम या नारी शक्तीला

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-४-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 19 ☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की  एक आध्यात्मिक  कविता/गीत   “तेरे दर्शन पाऊं”.  डॉ  मुक्ता जी के इस  रचना में  गीत का सार भी  कहीं न  कहीं इस पंक्ति “मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं “ में निहित है.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 19 ☆

 

☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆

 

मनमंदिर की जोत जगा कर तेरे दर्शन पाऊं

तुम ही बता दो मेरे भगवान कैसे तुझे रिझाऊं

मन मंदिर……

 

पूजा-विधि मैं नहीं जानती, मन-मन तुझे मनाऊं

जनम-जनम की  दासी  हूं  मैं, तेरे ही गुण गाऊं

मन मंदिर……

 

मेरी अखियां रिमझिम बरसें, कैसे दर्शन पाऊं

कब रे  मिलोगे, गुरुवर नाम की  महिमा गाऊं

मन मंदिर……

 

जीवन नैया ले हिचकोले, पल-पल डरती जाऊं

बन जाओ तुम  ही खिवैया, बार-बार यही चाहूं

मन मंदिर…….

 

घोर अंधेरा राह न  सूझे, मन-मन  मैं घबराऊं

मन ही मन डरूं बापुरी, नाम की टेर  लगाऊं

मन मंदिर…….

 

सुबह से  सांझ हो  चली,  तुझे पुकार लगाऊं

मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं

मन मंदिर…….

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 17 ☆ व्यंग्य – मोहनी मन्त्र ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  समाज के एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तित्व का चरित्र चित्रण करता बेबाक व्यंग्य   “मोहिनी मंत्र ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 17  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ व्यंग्य – मोहिनी मंत्र

 

जब भगवान् विष्णु ने मोहनी रूप धारण किया तो असुर और देव सब उसे पाने के लिए   दौड़ पड़े यहाँ तक की विरागी नारद का भी मन डोल गया।

मै अभी कथा के किसी भाग तक पहुंची ही थी कि मेरा ध्यान आधुनिक काल के असुरों  देवों और नारदों की और चला गया।  .

कहते है जो मन में हो उसे कह डालना चाहिए और खास तौर पर स्त्रियों के लिए कहा जाता है की ज्यादा समय तक अपने पेट में रखती है तो गड़बड़ झाला हो जाता है यानि पेचिश की सम्भावना बढ़ जाती है।  मै नही चाहती की मै किसी गड़बड़ झाले में फसूं इसलिए उन सुंदर चरित्रों का वर्णन करने विवश हो रही हूँ जो मोहनी मन्त्र के मारे है।

अब इनमे कुछ तो ऐसे मिलेंगे जो ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ करते है। तो अब मै आपके कथा रस को भंग नहीं करूंगी सुनिए ….एक दिन सुबह-सुबह मुआ मोबाईल बज उठा। जैसे ही फोन उठाया एक मरदाना स्वर उभरा नमस्कार मैडम नमस्कार तो इतने लच्छेदार था भाई जलेबी इमरती क्या होगी मानो सारा मेवा मलाई मिश्रित सुनकर मै चौंक गई नमस्ते कहकर सोच में पड़ गई इतने मधुर कंठ से कोई कुंवारा ही बोल रहा है जिसे चाशनी को जरुरत है। उन्होंने बड़े ही अदब से कहा आप डॉ. साहिबा ही बोल रही है।  मैंने कहा जी कहिये क्या इलाज करवाना है वहां से स्वर फूटा अजी आप करेंगी तो हम जरुर करवा लेंगे। आपकी बात करने की अदा लाजबाव है जी।  हमसे रहा नही गया हमने कहा ‘न जान न पहचान मै तेरा मेहमान’। अरे मैम बात हो गई समझो जान पहचान हो गई मै मिलकर पहचान बनाने में विश्वास नही रखता।  आपका मधुर स्वाभाव है मिर्ची जैसा तीखापन आपको शोभा नही देता। आपके लेख की तारीफ करने के लिए फोन किया है मै भी एक लेखक हूँ। ओह्ह्ह मुझे लगा आप किसी कॉलेज के छात्र है। उनका कहना था अरे डियर आप अपना शिष्य बना लीजिये गुरु दक्षिणा मिलती रहेगी इतना सुनते ही हमने छपाक से फोन रख दिया।

अगले दिन सुबह फोन का स्वर कर्कश-सा जान पड रहा था नम्बर  बदला हुआ था। फोन उठाते ही वही स्वर राधे–राधे उभरा हमने भी राधे-राधे कहा और चुप हो गए फोन रखने लगे तो आवाज़ आई प्लीज मैडम कल की गुस्ताखी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, आपके शहर में आया हूँ, आपके दर्शन का अभिलाषी हूँ। हमारा दिमाग गरम हो रहा, पारा आसमान छू रहा है सुनिए दर्शन करना हो तो मंदिर जाइये।  भगवान के दर्शन करेंगे तो कुछ लाभ मिलेगा बुद्धि में सुधार होगा। अरे मैडम आपके दर्शन करके हम धन्य हो जायेंगे ज्ञान बुद्धि सबका विकास हो जायेगा। आप जनाब हद पार कर रहे है और अब आपसे यही कहना है कृपा करके रोज-रोज घंटी न घनघनाये जब मुझे आवश्यकता होगी तब आपको कॉल कर लेंगे राधे-राधे ……..

इन ज्ञानी ध्यानी लेखक के विषय में सारी पोल परत—दर-परत खुलती चली गई। वह चरित्र हीन नहीं है पर महिलाओं से फोन पर बाते करने का आशिक है उनका नम्बर  पत्र  पत्रिकाओं से पढ़कर उनकी रचनाओं की तारीफ करते है भले ही रचना पढ़ी न हो पर तारीफ इतनी की जैसे घोल कर पी लिया हो और बातों के मोहजाल में इस कदर फांस लेते है लगता है मोहनी मन्त्र जैसे यंत्र की कला में पारखी है।  जो इन जैसे लोगो को समझ नही पाती वे अपनी तारीफ सुनकर लट्टू हो जाती है और इन जैसे लोग अपना समय पास करने के लिए घंटों फोन पर बाते करते है और वह डियर, डार्लिंग, मोहना, मेरी राधा आदि शब्दों की वरमाला पहनाकर फोन से ही आश्वस्त हो जाते है।

इसी तरह एक और महाशय है जो तलाकशुदा शुदा है लेकिन अब दुबारा शादी नही कर रहे बस यहाँ वहां राधा को तलाश करते है वह भी नामी है पर फिर भी परवाह नही नाम की, एक दिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी गलती से ‘सांप के बिल में हाथ डाल’ दिया कहने लगे डियर तुम बहुत खूबसूरत हो, मिलती नहीं तो क्या कम से कम फोन पर ही जाम पिला दो। इतना कहना ही क्या था इन्हें बातों की इतनी पन्हैया लगाई की सारी आशिकी हवा हो गई।  अब लगता है कभी वो सामना करने की भी जुर्रत नही करेंगे लेकिन ऐसे लोगो को कोई फर्क नही पड़ता है।

एक और महाशय फेस बुक पर आये और चैट करने लगे वे कहते है आपकी फोटो इतनी सुंदर है तो आप कितनी सुंदर होगी। पता चला ये महाशय कवि है और कविता के माध्यम से इतनी तारीफ की वो तो फूली नही समाई और बोल पड़ी आपसे मिलने का मन है पहले तो ये महाशय खुश हुए फिर बोले नही मै किसी से मिलता नही यदि मै मिल लिया तो मेरा धर्म कर्म नष्ट हो जायेगा मै भ्रष्ट की श्रेणी में आ जाऊंगा।  तो सखी बोल पड़ी अच्छा बाते करने से धर्म कर्म नष्ट नही होता मोहनी मन्त्र के अदृश्य जाल में फांसते हो सबको जैसे कृष्ण भगवान ने तो अपने मोह पाश में सबको मोह कर वे भगवान् कहलाये आप अपने को कृष्ण न समझो युग बदल गया है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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