हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 48 – फुर्सत में हो तो आओ  ….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक रचना फुर्सत में हो तो आओ  ….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 48 ☆

☆ फुर्सत में हो तो आओ  …. ☆  

 

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुक बंदियां करें

लाज शर्म संकोच छोड़ कर

हम भी शब्द चरें।

 

ऑनलैन के खेल चले हैं

इधर-उधर ई मेल चले हैं

कोरोना कलिकाल महात्मय

पानी में पूड़ीयां तले हैं,

शब्दों की धींगा मस्ती में

अर्थ हुए बहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

कविता दोहे गद्य कहानी

सभी कर रहे हैं मनमानी

कोरोना के विषम काल में

कलम चले पी पीकर पानी,

अध्ययन चिंतन और मनन पर

लगे हुए पहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

पहले तो, दो चार बार ही

महीने में होता सिर भारी

अब मोबाइल रखा हाथ में

चौबीस घंटे की लाचारी,

मुश्किल है अब वापस जाना

उतर गए गहरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

अलय बेसुरे गीत पढ़ें

सम्मानों से प्रीत बढे

जोड़ तोड़ ले देकर के

प्रगति के सोपान चढ़े,

अखबारी बुद्धि, चिंतक बन

बगुला ध्यान धरें।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

वाह-वाह की, दाद  मिली

सांच-झूठ की खाद मिली

कविताएं चल पड़ी सफर में

खिली ह्रदय की कली-कली,

आत्ममुग्धता का भ्रम मन से

टारे नहीं टरे।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

अच्छा है  ये मन बहलाना

और न कोई  ठौर ठिकाना

कोरोना के, इस  संकट से

बचने का भी, एक बहाना,

प्रीत के पनघट ताल तलैया

भरी रहे नहरें।

फुर्सत में हो तो आओ

अब तुकबंदियाँ करें।

 

सुरेश तन्मय

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 29 – बापू के संस्मरण-3 मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 29 – बापू के संस्मरण – 3- मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता ☆ 

गांधीजी डरबन में वकालत करते थे । उनके मुंशी भी प्राय: उन्हीं के साथ रहते थे । उसमें हिन्दू, ईसाई, गुजराती, मद्रासी सभी धर्म और प्रान्तों के व्यक्ति होते थे । गांधीजी उनके साथ किसी तरह का भेद-भाव नहीं रखते थे उन्हे अपने परिवार के रुप में ही मानते थे । जिस घर में वह रहते थे, उसकी बनावट पश्चिमी ढंग की थी, कमरों में नालियां नहीं थी, पेशाब के लिए खास तरह के बरतन रखे जाते थे, उन्हें नौकर नहीं उठाते थे, यह काम घर के मालिक और मालकिन करते थे । जो मुंशी घर में घुल-मिल जाते थे, वें अपने बरतन स्वयं ही उठा ले जाते थे । एक बार एक ईसाई मुंशी उनके घर में रहने के लिये आया उसका बरतन घर के मालिक और मालकिन को ही उठाना चाहिए था लेकिन कस्तुरबा गांधी ने इस मुंशी का बरतन उठाने से इंकार कर दिया।  वह मुंशी पंचम कुल में पैदा हुआ था उसका बरतन बा कैसे उठाती! गांधीजी स्वयं उठावें, यह भी वह नहीं सह सकती थीं । इस बात को लेकर दोनों में काफी झगड़ा हुआ बा बरतन उठाकर ले तो गई, लेकिन क्रोध और ग्लानि से उनकी आंखे लाल हो आई । गांधीजी को इस तरह बरतन उठाने से संतोष नहीं हुआ वह चाहते थे कि बा हंसते-हंसते बरतन ले जायें, इसलिये उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा, “मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता” ।  ये शब्द बा के हृदय में तीर की तरह चुभ गये वह तड़प-कर बोलीं, “तो अपना घर अपने पास रखो मैं जाती हूँ” । गांधीजी भी कठोर हो उठे क्रोध में भरकर उन्होंने बा का हाथ पकड़ा और दरवाजे तक खींचकर ले गये । वह उन्हें बाहर कर देना चाहते थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने दरवाजा खोला अश्रुधारा बहाती हुई बा बोलीं, “तुमको तो शर्म नहीं है, लेकिन मुझे है जरा तो शर्माओ मैं बाहर निकलकर कहाँ जाऊं यहाँ मेरे मां-बाप भी नहीं हैं, जो उनके घर चली जाऊं । मैं स्त्री ठहरी तुम्हारी धौंस मुझे सहनी होगी अब शर्म करो और दरवाजा बंद कर दो कोई देख लेगा तो दोनों का ही मुंह काला होगा” । यह सुनकर मन-ही-मन गांधीजी बहुत लज्जित हुए उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया सोचा–अगर पत्नी मुझै छोड़कर कहीं नहीं जा सकती तो मैं भी उसे छोड़कर कहाँ जानेवाला हूँ ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 27 ☆ कटघरा  ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक समसामयिक कविता कटघरा 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 26 ☆

☆ कटघरा  ☆

 

संकट भीषण गहरा है

कदम-कदम पर खतरा है

 

दुनिया घिरी मुसीबत में

भय-सन्नाटा पसरा है

 

अपना-अपना घर-आँगन

लगता हमें कटघरा है

 

रामभरोसे साँसों का

एक-एक दिन गुजरा है।

 

सूनी सड़कों पर जैसे

यमदूतों का पहरा है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 51 – पाणी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  एवं संवेदनशील कविता  “पाणी।  मैं निःशब्द हूँ यह कविता पढ़कर। पानी या जल पर रचित यह पहली रचना नहीं है जो मैंने या आपने पढ़ी हो किन्तु, यह अन्य कविताओं से भिन्न क्यों है यह तो आप पढ़ कर ही अनुभव कर सकते हैं। जल से जीवन जितना जुड़ा है संभवतः संवेदनाएं भी उससे कम नहीं जुडी हैं, जिन्हें सुश्री प्रभा जी ने  अत्यंत ही सहज भाव से लिपिबद्ध कर दिया है। सुश्री प्रभा जी  की इस संवेदनात्मक रचना जो हृदय को जल की भांति  तरंगित करती है उस लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 51 ☆

☆ पाणी ☆ 

 मला आठवते…

त्या ओढ्यातील खळाळते पाणी,

पैंजण पायी अन अनवाणी,

भर दुपारी किती उडविले

छुमछुमते पाणी!

 

शांत जलाशय-तळे कमळाचे,

खडा टाकला आणि पाहिले

थरथरते पाणी,

त्या तळ्याची आठव येता,

मनःपटलावर,

झरझरते पाणी!

 

सतरा कमानी पुलाखाली,

कधी न पाहिले,घोडनदीचे,

दौडणारे वा दुडदुडते पाणी,

पुसल्या खाणाखुणा तरीही,

मनीमानसी त्याच नदीचे,

झुळझुळते पाणी!

 

अथांग सागर, गाज लाटांची,

दर्यावरी त्या जडली प्रीती,

आत उतरूनी घेऊ पाहिले,

ओंजळीत अवखळ ते पाणी,

त्यास चुंबिले आणि उमगले,

ओठांवर व्याकुळ ते पाणी!

 

ओढा, तळे, नदी नी सागर,

डोळा पाहिले आणि स्पर्शिले

वेगवेगळे कुरकुरते पाणी!

 

आयुष्याची तल्खी शांतवी

असे लाभले एकच पाणी,

या पाण्याचे ऋण जीवावर,

तृप्ती सुखाची—-

ते मुळामुठेचे सळसळते पाणी!

 

जन्म एकदा पुण्यात मिळावा,

म्हणून पुण्यवान आत्म्यांच्याही,

डोळ्यांमधले कळवळते पाणी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 49 ☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर गॉसिप आधारित व्यंग्य  “ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 49 ☆ 

☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल

सोसायटी में स्टेटस सिंबल के मापदण्ड समय के साथ बदलते रहते हैं. एक जमाना था जब घर के बाहर खड़ी मंहगी गाडी घर वालों का स्टेटस बताती थी.मंहगे बंगले से समाज में व्यक्ति की इज्जत बढ़ती थी. महिलायें क्लब में घर की लक्जरी सुविधाओ जकूजी बाथ सिस्टम, बरगर एलार्म, सी सी टीवी, वगैरह को लेकर या अपनी मंहगी गाड़ी के नये माडल को लेकर बतियातीं थी.जिस बेचारी के पति मारुति ८०० में चलते, वह पति की ईमानदारी के ही गुण गाकर और उनहें मन ही मन कोसकर संतोष कर लेती थी. ननद, भाभियों, बहनो, कालेज के जमाने की सखियों में लम्बी लम्बी मोबाईल वार्ता के विषय गाड़ी, बंगले, फ्लैट रहते थे. पर जब से ई एम आई और निन्यानबे प्रतिशत लोन पर गाडीयो की मार्केटिंग होने लगी है, केवल सैलरी स्लिप पर लाइफ इंश्योरेंस करके बड़े बड़े होम लोन के लिये बैंक स्वयं फोन करने लगे हैं बंगले और गाड़ियां स्टेटस के मुद्दे नही रह गये. फिर  मंहगी ब्रांडेड ज्वेलरी, मंहगी घड़ियां,सिल्क और हैण्डलूम की मंहगी साड़ियां चर्चा के विषय बने. किस पार्टी में किसने कितनी मंहगी साड़ी पहनी से लेकर, अरे उसने तो वह साड़ी अमुक की शादी में भी पहनी थी, फेसबुक पर फोटो भी है. हुंह, उसका वह डायमण्ड सैट ब्रांडेड थोड़े था पर बात होने लगी किंतु किश्तों में ज्वैलरी स्कीम्स से वह मजा भी जाता रहा. स्टेटस सिंबल की महिला गासिप  फारेन ट्रिप पर केंद्रित हुई,नेपाल, भूटान, मालदीव ट्रिप वाले, देहरादून, शिमला, कुल्लू मनाली से स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे.  वे अगले बरस एनीवर्सरी पर दुबई, सिंगापुर, बैंकाक  की प्लानिंग की बातें करते नही थकते थे.  बड़े लोग यूरोप, आस्ट्रेलिया,पेरिस ट्रिप से शुरुवात ही करते थे. हनीमून पर बेटी दामाद को लासवेगास की ट्रिप के पैकेज गिफ्ट करना स्टेटस का द्योतक  बन गया था.

पहले विदेश यात्रा और फिर उसके फोटो व्हाट्सअप के स्टेटस, इंस्टाग्राम पर चस्पा करना सोसायटी में डील करने के लिये जरूरी हो गया था. आयकर विभाग ने भी इस प्रवृति को संज्ञान में लेकर इनकम टैक्स रिटर्न में फारेन ट्रिप के डिटेल्स भरवाने शुरू कर दिये. इन सब भौतिकतावादी अमीरी के प्रदर्शक स्टेटस सिंबल्स के बीच बुद्धिजीवी परिवारों ने बच्चो की एजूकेशन को लेकर स्टेटस के सर्वथा पवित्र मापदण्ड स्वयं गढ़े. बच्चे किस स्कूल में पढ़ रहे हैं ? मुझे क्या देखते हो मेरे बच्चो को देखो, के आदर्श आधार पर बच्चों के रेसिडेंशियल काण्वेंट स्कूल से प्रारंभ हुई  स्टेटस की यह दौड़ बच्चो को हायर एजूकेशन के लिये सीधे अमेरिका और लंदन ले गई. किसके बच्चे ने मास्टर्स विदेश से किया है,और अब कितने के पैकेज पर किस मल्टी नेशनल में काम कर रहा है,  यह बात बड़े गर्व से माता पिता की चर्चा का हिस्सा बन गई. बच्चे विदेश गये तो घरो में काम करने वाले मेड् और ड्राईवर, शोफर और उन गरीब परिवारो को मदद की चर्चा भी स्टेटस सिंबल बना. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल थोड़ा तकनीकी टाईप के नेचर वाली महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से रहे.बड़ी ब्रांड के सेंट, साबुन, कास्मेटिक्स, सौंदर्य प्रसाधन, स्पा, मसाज की बातें भी खूब हुईं.

पर पिछले दो महीनो में स्टेटस सिंबल एकदम से बदले हैं. कोरोना ने दुनियां को घरो में बन्द कर दिया है. नौकरो की सवैतनिक छुट्टी कर दी गई है. बायें हाथ को दाहिने हाथ से कोरोना संक्रमण का डर सता रहा है. ऐसे माहौल में लोग व्यस्त भी हैं और फ्री भी. वर्क फ्राम होम चल रहा है. महीनो हो गये महिलायें सज धज ही नहीं रही. पति पूछ रहे हैं कि सजना है मुझे सजना के लिये वाले गाने में सजना मैं ही हूं न ? ब्रांडेड ड्रेसेज पहने महीनो बीत गये हैं.लूज घरू कपड़ों में दिन कट रहे हैं. इन दिनों घर के कामों में किसके पति कितना हाथ बटांते हैं, यह लेटेस्ट स्टेटस चर्चा में चल रहा है. घर के कामों में पति की भागीदारी से उसका प्यार नापा जा रहा है.  किचन के किस आटोमेटिक उपकरण से क्या नई डिश बनी, उसमें पति की कितनी भागीदारी रही, और उसका स्वाद किस फाइवस्टार होटल की किस डिश के समान था यह आज का स्टेटस डिस्कशन पाईंट था. मुझे भरोसा है कि जल्दी ही इन तरह तरह की डिसेज से भी मन ऊब ही जायेगा, और यदि तब भी लाकडाउन और क्वेरंटाईन जारी रहा तो चर्चा के नये विषय होंगे ब्रांडेड झाडू और पोंछे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 47 – लघुकथा – सहोदर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “सहोदर ।  एक कहावत है कि- शक के इलाज की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी। वास्तव में कुछ अपवाद छोड़ दें तो हमारी समवयस्क पीढ़ी ने जिस तरह से मुंहबोले रिश्ते निभाए हैं,  वैसी अगली पीढ़ी किस स्तर तक निभा पाएंगी , भविष्य ही बताएगा। एक अतिसंवेदनशील विषय पर लिखी गई एक अतिसंवेदनशील सफल लघुकथा।  इस सर्वोत्कृष्ट  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 47 ☆

☆ लघुकथा  – सहोदर

खन्ना साहब और वर्मा जी की गहरी दोस्ती थी।

दोनों एक ही मोहल्ले में घर के आस-पास रहते थे। एक हादसे में अचानक वर्मा जी और उनका साल भर का बेटा दुनिया से चल बसा। दोस्त की पत्नी और रिश्ते में बहन बन चुकी, वर्मा जी की  पत्नी ममता की जिम्मेदारी खन्ना साहब पर आ गई।

कुछ दिनों बाद खन्ना साहब की धर्मपत्नी को जुड़वा संतान हुए।

उन्होंने एक उठाकर ममता की आंचल पर डाल दिया। भरा पूरा परिवार खुश रहने लगा और ममता भी अपना दर्द भूल गई। सुधीर ममता के पास धीरे-धीरे बड़ा होने लगा और गुस्सैल स्वभाव के होने के कारण कुछ ना कुछ बातें हो जाती थी। अक्सर मां बेटे में कहा सुनी होती थी।

घर में फिर अचानक जोर जोर से बातचीत और सामान फेंकने की आवाज आ रही थी। खन्ना साहब जो कीआर्मी से रिटायर हो चुके थे। दौड़ कर ममता के घर पहुंचे। सुधीर अपने मां के साथ फिर से झगड़ा कर रहा था। कह रहा था…. कि हमेशा मेरी सही गलत पर यह खन्ना क्यों टांग अडाता है, मैं क्या पढ़ता हूं, भविष्य में क्या बनूंगा, इसकी जिम्मेदारी वह लेने वाला कौन होता है? ना वह हमारा सगा संबंधी, ना रिश्तेदार, और ना ही हमारे कोई हितैषी!!!! पापा रहे नहीं तो दोस्त भी नहीं है। आपके साथ उनका क्या????? संबंध है आज मैं जानना चाहता हूं। युवा वर्ग होने के कारण वह बौखला गया था। घर में खन्ना जी के दखल अंदाजी उसको परेशान कर रही थी। अपने बेटे की बात सुन आज ममता बर्दाश्त न कर सकी। उसने सारा बर्तन अलमारी कपड़े सभी फेंक दिए। बर्तनों की आवाज से खन्ना साहब और उनकी धर्मपत्नी दौड़कर आए।

जैसे ही उन्होंने यह माजरा सुना कसकर एक जोरदार थप्पड़ दिया उनका हाथ लगते ही.. सुधीर और जोर जोर से बोलने लगा…. क्या रिश्ता है हमारी मां के साथ आपका। अब तो खन्ना आंटी जोर से चिल्ला कर बोली…. बेटा है तू हमारा मैंने तुझे जन्म दिया है। बंटी का जुड़वा भाई है तू सहोदर है उसका।

सुधीर  तो जैसे कटे पेड़ की तरह दम से गिर धरती पर बैठ गया। सुधीर की मां बोली…. नहीं नहीं यह आपने क्या कह दिया। इसकी मां तो मैं ही हूं और रोते – रोते  वह सुधीर को गले लगा ली।

सुधीर इन सब बातों से अंजान कभी अपनी मां और कभी खन्ना अंकल आंटी को देखने लगा पश्चाताप से भरा हुआ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49☆ पाखरे चिंतेत आता ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “पाखरे चिंतेत आता।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49 ☆

☆ पाखरे चिंतेत आता ☆

वादळाशी झाड भिडते रडत नाही

मुळ इतके घट्ट आहे सुटत नाही

 

पाय, तळवे, लोह झाले पूर्ण आता

पावलांना फार काटे रुतत नाही

 

हिरवळीचा बेगडी आहे दिखावा

पावलांना सुखवणारे गवत नाही

 

फूल बाजारात मिळते दाम देता

गंध-वारा विकत येथे मिळत नाही

 

शांततेचा मंत्र लोका का कळेना ?

मज कळाला मी कुणावर चिडत नाही

 

शेत विकले पाखरे चिंतेत आता

माॕल झाले पोट त्याचे भरत नाही

 

लालसा ही भावनेच्या अग्र भागी

प्रीतिची ही बाग आता फुलत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 4 – काही कणिका ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है ‘काही कणिका’ शीर्षक से कुछ भावप्रवण कणिकाएं।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 4 ☆ 

☆ काही कणिका 

1.

तप्त रस सोनियाचा

खाली आला फुफाटत

सारा शांतला

फुलाफुलांच्या देहात

 

2.

किती कशा भाजतात

उन्हाळ्याच्या ऊष्ण झळा

तरी झुलतात संथ

बहाव्याच्या फुलमाळा

 

3.

मिठी मातीला मारून

पाने ढाळितात आसू

वर हासतात फुले

शाश्वताचं दिव्य हसू

 

4.

किती आवेग फुलांचे

वेल हरखून जाते

काया कोमल तरीही

उभ्या उन्हात जाळते.

 

5.

किती किती उलघाल

होते काहिली काहिली

एक लकेर गंधाची

सारे निववून गेली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 3 ☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #3 ☆

☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का

आप रम्मू को नहीं जानते.

अरे वोई, जो एक जमाने में कंठाल चौराहे पर, साईकिल खड़ी करके, दोपहर का अखबार चिल्ला चिल्ला कर बेचा करता था. यस, वोई. इन दिनों एक न्यूज चैनल में एडिटर-इन-चीफ हो गया है. प्राईम टाईम के प्रोग्राम कम्पाईल करता है. मुझे भी नहीं पता था.

कुछ दिनों पहले, मैं चैनल बदल रहा था तो जोर की आवाज पड़ी कान में. अरे ये तो अपना रम्मू है. ध्यान से देखा तो वोई निकला. कैसा तो मोटा हो गया है. नाक नक्श में भी थोड़ा बदलाव आया है. चश्मा भी लगने लगा है, इसीलिए पहिचानने में देर लगी. लेकिन मैं आवाज से पहचान गया. चिल्लाने की वैसी ही अदा, वही आवाज़ हॉकरों वाली, उतनी ही लाउड. ख़बरों की वैसी ही अदायगी – ‘महापौर के अवैध सम्बन्ध उजागर. छुप छुप के मिलने की कहानी का पर्दाफ़ाश’. आज वो स्टूडियो के न्यूज रूम से पूरे देश के सामने मुखातिब है. क्या शानदार तरक्की की है रम्मू ने!!!

समाचारों की दुनिया में रम्मू के प्रवेश की छोटी सी मगर दिलचस्प कहानी है. शुरू शुरू में रम्मू अपनी साईकिल पर हांक लगाकर खटमलमार पावडर बेचा करता था. क्या तो हाई पिच गला उसका और क्या मज़बूत फेफड़े पाये उसने!! बंसी काका की उस पर नज़र पड़ी, उन्होंने उसे साथ-साथ ‘जलती मशाल’  अखबार बेचने के लिये राजी कर लिया. शहर का सबसे पॉपुलर टैब्लॉयड, क्राईम की खबरों से भरपूर. रम्मू उसमें से ह्त्या, बलात्कार, डकैती की किसी खबर को बुलंद आवाज़ में दोहराता और सौ-दो सौ प्रतियाँ बेच लेता था. ‘आज की ताज़ा खबर’ की उसकी हांक इतनी जोरदार होती थी कि चार किलोमीटर दूर टॉवर चौराहे पर खड़े लोग जान जाते कि कोई सत्तर साल की वृद्धा बीस साल के युवक के साथ भाग गयी है.

एक दिन बंसी काका ने संपादन का दायित्व भी थमा दिया. वो सुबह सुबह प्रूफरीडर होता, फिर एडिटर, फिर हॉकर. ‘तीन ग्रामीणों की पीट पीट कर हत्या’ जैसी खबर नागालैंड से होती, मगर उसकी गूँज से लगता कि क़त्ल अभी अभी इसी चौराहे पर हुआ है. सनसनी वो तब भी बेचता रहा, अब भी. असल जनसरोकारों से उसे तब भी कोई लेना देना नहीं रहा, अब भी. सरोकार में कमाई, टारगेट में बिक्री. नलियाबाखल से मंडीहाउस तक के उसके सफ़र में ‘जलती मशाल’ की झलक हर पायदान पर महसूस की जा सकती है.

देखिये ना, आज वो विचार भी उसी शिद्दत से बेच लेता है जिस शिद्दत से कभी खटमलमर पावडर बेचा करता था. पोलिटिकल लीनिंग और लाईनिंग वो पजामे की तरह बदलता रहता है. थाने की दलाली का कौशल उसे नेशनल केपिटल में पॉलिटिकल पार्टीज के साथ डील करने में मददगार साबित हो रहा है. वो न्यूज का अल्केमिस्ट है. खबर को बाज़ारी से बाजारू बना देने के हुनर को उसने महारथ में जो बदल लिया है. पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये रम्मू ‘यलो जर्नलिज्म’ की एक फिट केस स्टडी है. वो राई को पहाड़ और पहाड़ को राई बना सकता है. निर्मल बाबा जैसे प्रोडक्ट उसी ने बाज़ार में चलाये हैं. वो राधे माँ, हनी प्रीत, कंगना रानौत-ह्रितिक रोशन प्रसंगों पर घंटों बहस कर सकता है. बिना जमीर के पत्रकारिता करने की उसने एक नायाब नज़ीर कायम की है. प्राईम टाईम की शुरुआत वो गालियों से करता है, और ताली बजा बजा कर इंफोटेनमेंट का सर्कस जमा लेता है. वो पैनलिस्टों से बौद्धिक बहस नहीं करता उन्हें नचवा लेता है. वो इंटेलेक्चुअल्स को शट-अप बोलने का शऊर रखता है. अपनी आवाज़ के दम पर बीस बीस पैनलिस्टों पर अकेला भारी पड़ता है. कभी-कभी उसके पैनलिस्ट सुनील वाल्सन की तरह होते हैं – वे टीम में चुने तो जाते हैं, मैच नहीं खेल पाते. उनके मुंह खोले बिना ही डिबेट पूरी हो जाती है.  उज्जैन में था तो पाड़े लड़वाता था, अब पैनलिस्ट.

पढ़ने में फिसड्डी रहने का स्याह अध्याय वो बहुत पीछे छोड़ आया है. आज वो किसी भी विषय पर बहस करा लेता है. उसका ज्ञान से कोई लेना देना नहीं. वो विज्ञान, समाजशास्त्र, पर्यावरण, कला-साहित्य जैसे विषयों को बिना पढ़े भी खींच तो ले जाता है मगर सुकून उसे हिन्दू-मुसलमां डिबेट में ही मिलता है. वो अपनी बात किसी भी पैनालिस्ट के मुंह में ठूंस सकता है, उगलवा सकता है, निगलवा सकता है, स्टूडियो में उल्टी करने को मजबूर कर सकता है. ‘जलती मशाल’ तो कभी स्तरीय बना नहीं पाया, अलबत्ता नेशनल न्यूज को उसने ‘जलती मशाल’ के स्तर पर ला खड़ा किया है. वो एक ऐसा कीमियागर है जिसने मामूली खबर को निरर्थक बहस से प्रॉफिट के ढेर में तब्दील करने की तकनीक विकसित की है.

वो रात नौ बजे पड़ोसी मुल्क के पैनालिस्टों के विरुद्ध अपनी कर्णभेदी आवाज़ में जंग का बिगुल बजा देता है दस बजते बजते विजय की दुंदुभी बजाकर उठ जाता है. ‘बूँद बूँद को तरसेगा….’ से ‘कुत्ते की मौत मरेगा ….’ जैसे केप्शन्स भरी चीख़ उसे टीआरपी दिलाती है और टीआरपी विज्ञापन. इन सालों में उसने बहुत कुछ सीखा है, अब वो चैनल में ही कचहरी लगा लेता है. जज, ज्यूरी, एक्सीक्यूशनर सब वही रहता है. घंटे-आधे घंटे में फैसले सुनाने लगा है. फैसले जिनके पार्श्व में सिक्के खनकें तो, मगर सुनाई न दें.

उसका अगला लक्ष्य राज्यसभा की कुर्सी है. रम्मू एक दिन होगा वहां. उस रोज़ हम नलियाबाखल में मिठाई बाँट रहे होंगे और आतिशबाजी तो होगी ही. अब इससे ज्यादा, रम्मू के बारे  और क्या जानना चाहेंगे आप ?

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 1 – मन के शब्दार्थ ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आपने ई- अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ -अभिनव गीत” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकारा है, इसके लिए साधुवाद। आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “मन  के शब्दार्थ “ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ मन के शब्दार्थ  ☆

छूट गये साथी सब

पेंचदार गैल के

बीत गये दिन जैसे

शापित अप्रैल के

 

चिन्तातुर आँगन को

झाँकते पुकारते

मन के शब्दार्थ को

यों अक्षरशः बाँचते

भीतर तक गहरे

अवसाद मे समाये से

शब्दों की तह को

न ढाँपते उघाड़ते

 

देर तलक छाया मे

छिछलते रहे ऐसे

छाछ बचे अधुनातन

छप्पन के छैल के

 

माथे पर चाँद की

तलाश के विचार से

बीत गई रात बहुत

रोशनी, प्रचार से

शंकायें तैर रहीं

आँखों की कोरो में

व्याकुल तारामंडल

अपने घर वार से

 

खोजती चली आई

वह निशीथ की कन्या-

चाँदनी, झाँक गई

घर में खपरैल के

 

नम्र हुआ जाता है

शापित वह पुष्पराग

जिस पर आ सिमटा है

मुस्कानों का प्रभाग

मन्द मन्द खुशबू के

बिखरे हुये केशों

में जाकर सुलगी है

बरसों को दबी आग

 

हवा की किताबों से

देखो छनकर निकले

आखिर वे प्रेमपत्र

किंचित विगड़ैल के

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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