हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 5 ☆ दूब… ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक संवेदनात्मक भावप्रवण हिंदी कविता  ‘दूब…’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 5 ☆

दूब…

दूब तुम भी सुंदर हो,

धरती पर आँचल ओढा देती हो,

रेशम-सा जाल बिछा देती हो,

हरितिमा से सजाकर निखारती हो,

दूब तुम भी सुंदर हो।

दिन-भर बिछ जाती हो,

पाँव तले कुचली जाती हो,

रातभर ओस को ओढ़ लेती हो,

और फिर से हरितिमा बन जाती हो,

दूब तुम भी सुंदर हो।

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 14 ☆ कैसी विडम्बना ? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “कैसी विडम्बना ? ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 14 ☆

 

☆ कैसी विडम्बना ? ☆

 

सड़क किनारे

पत्थर कूटती औरत

ईंटों का बोझ सिर पर उठाए

सीढियों पर चढ़ता

लड़खड़ाता मज़दूर

झूठे कप-प्लेट धोता

मालिक की  डाँट-फटकार

सहन करता

वह मासूम अनाम बालक

माँ बनकर छोटे भाई की

देखरेख करती

चार वर्ष की नादान बच्ची

जूठन पर नजरें गड़ाए

धूल-मिट्टी से सने

अधिकाधिक भोजन पाने को

एक-दूसरे पर ज़ोर आज़माते

नंग-धड़ंग बच्चे

अपाहिज पति के इलाज

व क्षुधा शांत करने को

अपनी अस्मत का सौदा

करने को विवश

साधनहीन औरत को देख

अनगिनत प्रश्न

मन में कौंधते-कोंचते

कचोटते, आहत करते

क्या यही है, मेरा देश भारत

जिसके कदम विश्व गुरु

बनने की राह पर अग्रसर

जहां हर पल मासूमों की

इज़्ज़्त से होता खिलवाड़

और की जाती उनकी अस्मत

चौराहे पर नीलाम

एक-तरफा प्यार में

होते एसिड अटैक

या कर दी जाती उनकी

हत्या बीच बाज़ार

 

वह मासूम कभी दहेज के

लालच में ज़िंदा जलाई जाती

कभी ऑनर किलिंग की

भेंट चढ़ायी जाती

बेटी के जन्म के अवसर पर

प्रसूता को घर से बाहर की

राह दिखलाई जाती

 

आपाधापी भरे जीवन की

विसंगतियों के कारण

टूटते-दरक़ते

उलझते-बिखरते रिश्ते

एक छत के नीचे

रहने को विवश पति-पत्नी

अजनबी सम व्यवहार करते

और एकांत की त्रासदी झेलते

बच्चों को नशे की दलदल में

पदार्पण करते देख

मन कर उठता चीत्कार

जाने कब मिलेगी मानव को

इन भयावह स्थितियों से निज़ात

 

काश! मेरा देश इंडिया से

भारत बन जाता

जहां संबंधों की गरिमा होती

और सदैव रहता

स्नेह और सौहार्द का साम्राज्य

जीवन उत्सव बन जाता

और रहता चिर मधुमास

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 12 ☆ ☆ किससे माँगे क्षमा ? ☆ ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक कहानी   “किससे मांगे क्षमा?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 12  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ किससे माँगे क्षमा ?

 

आज बेटी को विदा करने के बाद मन बहुत उदास था आँसू है जो थमने का नाम ही नहीं ले रहे।इतने में कहीं से एक स्वर उभरा आज जो हुआ वह सही था या पहले जो मैंने निर्णय किया था तुमने वह सही था ।

दिमाग के सारे दरवाजे खिड़कियाँ खुल गई और मन विचारों के सागर में गोते लगाने लगा पहुंच गए कई वर्ष पीछे…..

दरवाजे पर आहट हुई दरवाजा खोलते ही पड़ोस के अंकल ने कहा… कि आज हमने तुम्हारी बहन को किसी सरदार के साथ स्कूटर पर जाते देखा है।

मेरा तो जैसे खून ही खौल गया। बस इसी प्रतीक्षा में थे कब शुभा घर आए और उस तहकीकात की जाए. जैसे ही शुभा का घर में प्रवेश हुआ मैंने तुरंत पूछा “वह कौन सरदार था जिसके पीछे तुम बैठी थी।”

शुभा अचकचा गई ।

बोली “क्या हुआ भैया आप किसकी बात कर रहे हैं?”

“देखो शुभा बातें बनाने का समय नहीं है सीधे-सीधे से मेरे सवाल पर आओ.”

शुभा सर नीचे करके खड़ी हो गई उसके के पास मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं था।

“मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ जिसके जवाब की मुझे प्रतीक्षा है।”

“जी भैया, वह मेरा दोस्त है और मैं उसके साथ जीवन बिताना चाहती हूँ।”

“तुम्हारा यह सपना कभी पूरा नहीं होगा।”

तभी पिताजी ने कहा – “बेटा एक बार देख सुन तो लो, शायद पसंद आ जाए। जात पात से क्या होता है?”

“पिताजी हम हिंदू हैं और हम किसी दूसरे समाज में जाना पसंद नहीं करेंगे।”

“हम नहीं चाहते कि हमारी बहन किसी सरदार को ब्याही जाए. अब तेरा जाना घर से बंद अगर मिलने मिलाने की कोशिश की तो काट देंगे।”

“जहाँ हम तेरा सम्बंध करेंगे वहीं तुझे करना पड़ेगा।”

लेकिन हमारे किसी भी सम्बंध से बहन तैयार नहीं हुई बोली – “मैं शादी ही नहीं करूंगी।” तब अंततोगत्वा सरदार के साथ बहन का विवाह मंदिर में हो गया हम लोगों ने उस दिन से बहन से सम्बंध तोड़ दिए. माता पिता को भी आगाह कर दिया गया कि आप भी उससे सम्बंध नहीं रखेंगे।

कुछ वर्षों बाद पता चला की बहन बीमारी से पीड़ित होकर इस दुनिया को छोड़ कर चली गई उसका एक बेटा भी है। लेकिन तब भी मेरे मन में कोई भाव जागृत नहीं हुये। माँ तड़पती थी रोती थी लेकिन मैंने कहा –  “ऐसी बहन से ना होना ज़्यादा बेहतर है।”

आज किसी ने मुझे अतीत में पहुंचा दिया ।मुझे महसूस हो रहा है इतिहास अपने आप को दोहराता है।

कई वर्ष बीत जाने के बाद जब मेरी बेटी का रिश्ता नहीं हुआ तो मेरी बेटी ने मुझसे कहा – “पापा मेरे ऑफिस में काम करने वाला मेरा साथी सुब्रतो है।” तब हमने कहा- “ठीक है हम लोग चलकर उसका घर परिवार दिखाएंगे।”

तब एक क्षण को भी यह-यह ख्याल नहीं आया कि बेटी भी उसी दिशा की ओर जा रही है जिस दिशा को मेरी बहन गई थी। हमने उस बंगाली परिवार के रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया और धूमधाम से विवाह किया।

क्या हुआ भाई आँखे क्यों नम हो गई.

हमने हाथ जोड़कर कहा – “आज आपने हमारी आँखे खोल दी”

बहन बेटी के रिश्ते में कितना फर्क किया हमने।जो आज निर्णय लिया है वही पहले लिया होता तो शायद बहन हमारी आज जीवत होती। आज अंतर्मन धिक्कार रहा है मैं आज क्षमा मांगने के लायक भी नहीं रहा।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “धन्नो, बसंती और बसंत”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ 

 

 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆

 

बसंत बहुत फेमस है  पुराने समय से, बसंती भी धन्नो सहित शोले के जमाने से फेमस हो गई है । बसंत हर साल आता है, जस्ट आफ्टर विंटर. उधर कामदेव पुष्पो के बाण चलाते हैं और यहाँ मौसम सुहाना हो जाता है।  बगीचो में फूल खिल जाते हैं। हवा में मदमस्त गंध घुल जाती है। भौंरे गुनगुनाने लगते हैं। रंगबिरंगी तितलियां फूलो पर मंडराने लगती है। जंगल में मंगल होने लगता है। लोग बीबी बच्चो मित्रो सहित पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।  बसंती के मन में उमंग जाग उठती है। उमंग तो धन्नो के मन में भी जागती ही होगी पर वह बेचारी हिनहिनाने के सिवाय और कुछ नया कर नही पाती।

कवि और साहित्यकार होने का भ्रम पाले हुये बुद्धिजीवियो में यह उमंग कुछ ज्यादा ही हिलोरें मारती पाई जाती है। वे बसंत को लेकर बड़े सेंसेटिव होते हैं। अपने अपने गुटों में सरस्वती पूजन के बहाने कवि गोष्ठी से लेकर साहित्यिक विमर्श के छोटे बड़े आयोजन कर डालते हैं। डायरी में बंद अपनी  पुरानी कविताओ  को समसामयिक रूपको से सजा कर बसंत के आगमन से १५ दिनो पहले ही उसे महसूस करते हुये परिमार्जित कर डालते हैं और छपने भेज देते हैं। यदि रचना छप गई तब तो इनका बसंत सही तरीके से आ जाता है वरना संपादक पर गुटबाजी के षडयंत्र का आरोप लगाकर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाकर दिलासा देना मजबूरी होती है। चित्रकार बसंत पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनी के आयोजन करते हैं। कला और बसंत का नाता बड़ा गहरा  है।

बरसात होगी तो छाता निकाला ही जायेगा, ठंड पड़ेगी तो स्वेटर पहनना ही पड़ेगा, चुनाव का मौसम आयेगा, तो नेता वोट मांगने आयेंगे ही, परीक्षा का मौसम आयेगा, तो बिहार में नकल करवाने के ठेके होगें ही। दरअसल मौसम का हम पर असर पड़ना स्वाभाविक ही है। सारे फिल्मी गीत गवाह हैं कि बसंत के मौसम से दिल  वेलेंटाइन डे टाइप का हो ही जाता है। बजरंग दल वालो को भी हमारे युवाओ को संस्कार सिखाने के अवसर और पिंक ब्रिगेड को नारी स्वात्रंय के झंडे गाड़ने के स्टेटमेंट देने के मौके मिल जाते हैं। बड़े बुजुर्गो को जमाने को कोसने और दक्षिणपंथी लेखको को नैतिक लेखन के विषय मिल जाते हैं।

मेरा दार्शनिक चिंतन धन्नो को प्रकृति के मूक प्राणियो का प्रतिनिधि मानता है, बसंती आज की युवा नारी को रिप्रजेंट करती है, जो सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में  छा जाना चाहती है। आखिर इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं। बसंत प्रकृति पुरुष है। वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है, बसंती के नारी सुलभ परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन को उसकी कमजोरी माना जाता है। बसंती के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज जमाना दे रहा है, उसके जबाब में नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती बसंती ने दे दिया है, हमारी बसंती जानती है कि उसे बसंत और धन्नो के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆ परीक्षा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “परीक्षा”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #14 ☆

 

☆ परीक्षा ☆

 

मैंने परीक्षाकक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”

मैडम ने “थैंक्स” कहा और बाहर चली गई और मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहें बरबस छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे. यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी.

छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे. मुझसे से रहा नहीं गया. एक छात्र से पूछ लिया,  “ये गलत उत्तर किस ने बताए हैं?”

सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने!”

“ये सभी उत्तर गलत हैं”  मैं जोर से चिल्लाया, “सभी अपने उत्तर काट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखो. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 14 – वासरू……! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। ऋण के बोझ तले दबे किसान को आत्महत्या करने से रोकने के लिए इससे बेहतर हृदयस्पर्शी कविता नहीं हो सकती ।  काश कोई उस किसान को उसके पुत्र/पुत्री की मनोव्यथा से अवगत करा सके।  प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “वासरू…! ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #14☆ 

 

☆ वासरू…! ☆ 

 

कसं सांगू

आजकाल शाळेत जायची सुद्धा

भिती वाटायला लागलीय…

जेव्हा पासून

माझ्या मित्राच्या बानं

कर्जापाई आत्महत्या केलीय ना

तेव्हापासून तर . . .

जरा जास्तच…,

शाळा सुटल्यावर कधी एकदा घरी येऊन

बापाला पाहतेय असं होत..

अन् बापाच्या कुशीत शिरल्यावर

काळजीचं भूत एकाएकी गायब होतं….

खरंच सांगतो बा मला

काहीच नको देऊ…

आणि आम्हाला सोडून बा . . .

तू कुठंच नको जाऊ….

दोन दिवस झाले बा. . . मी

कासरा दप्तरात घेऊन फिरतोय….

अन् तुझ्यासाठी जीव माझा

आतून हुंदके देऊन रडतोय…

बा.. तू समोर असलास ना

की भूक सुध्दा लागत नाही

अन् तुझ्या काळजीने

रात्र रात्र झोप सुध्दा

लागत नाही…..

काही झालं तरी बा…

आत्महत्ये सारखा विचार तू

डोक्यामध्ये सुध्दा आणू नको…

आणि तुझं हे वासरू

तुझ्यासाठी झुरतय इतकं

विसरू नको. . . !

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 12 – स्वयं से सदा लड़े हैं…..☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  गीत – कविता   “स्वयं से सदा लड़े हैं…..। )

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 12 ☆

 

☆ स्वयं से सदा लड़े हैं….. ☆  

 

जग में रह कर भी,

जग से हम अलग खड़े हैं

हम दूजों से नहीं

स्वयं से सदा लड़े हैं।

 

राम-राम, सत श्री अकाल

प्रभु ईश, सलाम

चर्च, गुरु द्वारा, मस्जिद

सह चारों धाम,

नहीं कहीं सद्भाव परस्पर

ही झगड़े हैं।

हम दूजों से नहीं स्वयं से सदा…….

 

चाह बड़े होने की मन में

सदा रही है

कब सोचा यह सही और

यह सही नहीं है

श्रेय-प्रेय के संशय में

खुद से बिछड़े हैं

हम दूजों से नहीं, स्वयं से सदा…….

 

खण्ड-खंड कर अपने को

हम रहे बांटते

दिखी दरार जहां भी

उसको रहे पाटते,

नहीं रहे दुर्भाव, कौन

अगड़े पिछड़े हैं

हम दूजों से नहीं, स्वयं से सदा…….

 

है मन में संतोष, सुखद

जो लिया-दिया है

सम्यक भावों से जीवन को

सही जिया है,

मेरे-तेरे के घेरों से

अलग खड़े हैं

हम दूजों से नहीं, स्वयं से सदा…….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 3 – सवाल अभी बाकी हैं… ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “सवाल अभी बाकी हैं…”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 3☆

 

☆ सवाल अभी बाकी हैं…

 

कहीं धूप तो कहीं छाँव,

कहीं सुख तो कहीं दुःख,

कहीं जन्म तो कहीं मृत्यु,

कहीं अपना और कहीं दूजा भी है,

कभी मेरा है कभी तेरा है,

कभी मैं-मैं और कभी तू-तू है,

न जाने कितना कहीं

और कितना क्या-क्या है.

 

इस पहेली को सुलझाने के पीछे हर एक है,

शायद कहीं की हाँ और ना,

भविष्य की सोच में,

है और था में,

खुद को भूल गया,

आज हर एक है,

सँभालो मेरे प्यारों!

अभी का वक्त अपना-अपना,

इसे बनाए शाश्वत जीवन सपना.

 

न जाने कब साँस छूटे एक पल में,

और तमाशा देखनेवाले खुदा करें,

अपना ही तमाशा बना न करें,

चलो आज के पल में कुछ ऐसा करें,

हर दिल में अपना एहसास भरें,

फिर चाहे साँस का साथ लूटे,

चाहे अपनों का हाथ छूटे.

 

फिर देखना तमाशबीन और चिता की लौ को,

और भी धधकेगी कि वह,

आक्रोश और क्रंदन से,

नफरत के बदले प्यार में,

हर आँसू टपकेगा तुम्हारी याद में,

देखकर तेरे जीवन का शाश्वत तमाशा,

ऊपरवाला तमाशबीन रो पड़ेगा इस द्वंद्व में,

क्यों बनी मेरी हाथ से यह सूरत,

जिसकी बनेगी मेरे कारण धरती पर मूरत,

क्या हक है उसके अधीन विश्वास को तोड़ने का ?

हर एक रिश्ते को बिखरने का ?

 

वह ईश भी सोच में पड़े,

ऐसा चलो एक काम करें,

उस ईश पर हम हँस पड़े,

होकर उसके सामने खड़े,

करें एक सवाल उसे,

क्यों यह दुनियावाले फिर

क्षणिक सुख के पीछे है पड़े?

कई सवाल करेंगे,

कई बवाल करेंगे,

पर क्या मानव अपने रास्ते,

खुद ही चुनेंगे?

सवाल अभी बाकी हैं……….

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 14 – मानकुँवर ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी ह्रदय स्पर्शी कविता मानकुँवर. सुश्री प्रभा जी जानती हैं  कि समय गहरे  से गहरे घाव भी भर देता है. किन्तु, एक नारी ह्रदय ही नारी की व्यथा को समझ सकती है. ऐसा नहीं कि सभी पुरुष संवेदनहीन होते हैं. महत्वपूर्ण यह है कि  ऐसी कविता की रचना का होना उनके संवेदनशील  ह्रदय  में  एक संवेदनशील  साहित्यकार का  जीवित होना है.  ऐसी रचना के लिए उस पात्र को जीना होता है और इतिहास के पात्रों को वर्तमान के पात्र के मध्य सामंजस्य बनाना होता है. 

सुश्री प्रभा जी का साहित्य जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। हृदय के उद्गार इतना सहज लिखने के लिए निश्चित ही सुश्री प्रभा जी के साहित्य की गूढ़ता को समझना आवश्यक है। यह  गूढ़ता एक सहज पहेली सी प्रतीत होती है। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 14 ☆

 

☆ मानकुँवर ☆

 

आज अचानक  आठवलीस तू

 

मानकुँवर —-

 

पब्लिक  मेमरी शॉर्ट असते म्हणतात, ते अगदी  खरं आहे  !

 

किती  अस्वस्थ  झाले  होते  मी,

वर्तमानपत्रातल्या तुझ्या  हत्येच्या

बातमी नं !

 

नखशिखांत हादरलेच होते,

ज्यांनी  केला तुझा  खून ते तुझे बाप, भाऊच सख्ये !

 

आणि  तुझा गुन्हा तरी काय ??

 

तू केलंस प्रेम–

जातिधर्मात किंचित  फरक असलेल्या—

तुला आवडलेल्या  तरूणावर !

 

मानकुँवर

तू होतीस उच्चशिक्षित–

डॉक्टर !!

 

तुझं नाव मानकुँवर ठेवणारांनी

तुला मानानं जगूच दिलं नाही,

आणि  मरण ही किती  अपमानास्पद  !

 

मानकुँवर आज आठवलीस तू,

“भूले बिसरे गीत” मधल्या दर्दभ-या गाण्या सारखी!

 

मानकुँवर —

तू खानदान की ईज्जत,

तू शालीनता, तू मर्यादा,

तू नंदिनी  तू बंदिनी ——-

 

युगानुयुगे भळभळणारी एक जखम —-

स्री जाती च्या प्रारब्धावरची !

तू चिरंजीवी ——

तुला मरण नाही !

 

पण तू मागत नाहीस तेल—-

द्रौपदी च्या  पाच पुत्रांना मारणा-या पापी आश्वत्थाम्यासारखी,

 

कारण तू स्री आहेस,

तू ब-या करतेस स्वतःच्या जखमा,युगानुयुगे—-

 

आणि  ते करतच आहेत  वार  आजतागायत  !

 

डॉ. मानकुँवर सहगल  !!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 6 ☆ दो लफ़्ज़ों की कहानी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “दो लफ़्ज़ों की कहानी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 6  

☆ दो लफ़्ज़ों की कहानी 

 

दो लफ़्ज़ों की ही ये कहानी होती

कितनी आसान ये जिंदगानी होती

 

न ही कोई ग़म, न ज़ख्म होता

कितनी खूबसूरत ये रवानी होती

 

यूँ ही ख़ुशी गले से लिपट जाती

मासूम सी ज़िंदगी की कहानी होती

 

ये सितारे हरदम झिलमिलाते रहते

रात कितनी हसीं और सुहानी होती

 

हाँ, मुहब्बत भी अमर हो जाती

शाम की कहकशां आशिकानी होती

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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