(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 21 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 4
(28 मार्च 2024)
आज हम पारो पहुँचे थे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई देता था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।
पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।
दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था दी गई और उन्हें लाल भात और मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला!
रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह पौष्टिक बन जाता है।
कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें हैं। वहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए। इस बाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलती। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए खुला फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है।
अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।
पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए। हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – कम उम्र का आदमी।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 294 ☆
कविता – कम उम्र का आदमी… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कल
कचरे के ढेर पर अपनी निकर संभालता,
नाक पोंछता
मुझे मिला एक
कम उम्र का आदमी.
वह, बटोर रहा था पालिथींन की थैलियाँ ,
नहीं,
शायद अपने परिवार के लिये शाम की रोटियाँ
मैं उसे बच्चा नहीं कहूंगा, क्योंकि बच्चे तो आश्रित होते हैं, परिवार पर.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 95 ☆ देश-परदेश – खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
देश की राजधानी दिल्ली में कुछ दिन पूर्व एक दुखद घटना में तीन युवा भूतल स्थित ग्रंथालय में अध्ययन करते हुए पानी भर जाने से अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए थे।
इस घटना के मुआवजे की अभी घोषणा भी नहीं हुई थी, उससे पूर्व राजस्थान प्रांत की राजधानी जयपुर याने कि गुलाबी शहर में भी भीषण वर्षा हो जाने से तीन गरीब जो कि भूतल के अंदर स्थित भूतल में पानी भर जाने से मृत्यु को प्राप्त हुए। चूंकि वो गरीब मजदूर तबके से थे, इसलिए राष्ट्रीय चैनल्स पर चर्चा के पात्र नहीं थे।
कोचिंग संस्था ने तो तीनों छात्रों को पचास पचास लाख के मुआवजे में से पच्चीस लाख की राशि दे देने की घोषणा कर दी है। शेष राशि का भुगतान उनके मालिक की जेल वापसी के बाद होगा। पैसे वाले भी गज़ब की चालें चलते हैं।
कल पानी भरी सड़क से धीमी गति से कार चलाते हुए हमने कुछ छीटें एक व्यक्ति पर क्या उछाले, हमें तो भीड़ ने घेर कर पुलिस की धमकी तक दे दी थी। पीड़ित व्यक्ति ने बीच बचाव करते हुए कहा कि वो स्वयं जल्दी में थे। अच्छा हुआ वो हमारे बैंक के ग्राहक था और हमें पहचान भी गया, जान बची तो लाखों पाए।
आज प्रातः किसी की कार से कुछ छीटें हमारे घर की बाहरी दीवार पर लग गए, हमने भी उस कार के मालिक को लपक कर हर्जाने की लंबी सी मांग रख दी। दीवार पर एशियन पेंट करवाकर देने का दबाव तक बना दिया। उसने भी मुस्कराते हुए कहा ठीक है, पेंट करवा लो हम पैसे दे देंगे, लेकिन पेंट के खाली डिब्बे उनको चाहिए होंगे।
इसके बाद हंसते हुए बोले, अब वो दिल्ली वाले कार मालिक को कोर्ट ने जेल से रिहाई के आदेश दे दिए हैं, जिसको बेसमेंट में पानी भरने के लिए दोषी मानकर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 201 – कथा क्रम (स्वगत)…
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में डॉ. गीता पुष्प शॉ जी द्वारा आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” ☆ डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆
मुझे ख़ुशी है कि मेरा जन्म जबलपुर, मध्य-प्रदेश में हुआ जहाँ मुझे बचपन से बड़े-बड़े साहित्यकारों के बीच रहने का, उन्हें देखने-सुनने का मौक़ा मिला. आज मैं अपनी मुंहबोली नानी सुभद्रा कुमारी चौहान को याद कर रही हूं जिन्होंने हिन्दी में सबसे अधिक पढ़ी और गाई जाने वाली कविता ‘झाँसी की रानी’ लिखी है.
मेरी मां स्कूल में पढ़ाती थीं और कहानियाँ भी लिखती थीं. उनकी साहित्य में रुचि थी. सुभद्रा कुमारी चौहान मेरी मां को अपनी बेटी की तरह मानती थीं. मेरी मां पद्मा बैनर्जी (बंगाली) और पिताजी माधवन पटरथ (मलयाली) का विवाह सुभद्रा जी ने ही करवाया था. उनका घर मेरी मां के मायके जैसा था. मैं भी बचपन में मां के साथ उनके घर जाती थी. मुझे गर्व है कि मैंने उन महान कवयित्री को देखा और उनकी गोद में खेली. उनके बाद भी उनकी अगली तीन पीढ़ियों और उस घर से मेरा प्यार भरा रिश्ता बना हुआ है. आज उन्हीं सुभद्रा जी को याद कर रही हूँ जैसा कि मैंने उन्हें जाना.
आरंभिक जीवन में
सुभद्रा जी का जन्म इलाहाबाद (प्रयाग) में 16 अगस्त 1904 में हुआ था. वे वहां क्रॉस्थवेट स्कूल में पढ़ती थीं. महादेवी वर्मा उनसे जूनियर थीं. सुखद संयोग है कि ये दोनों सहेलियां तभी से कविताएं लिखती थीं और आगे चलकर प्रसिद्ध साहित्यकार सिद्ध हुईं. सुभद्रा जी की पहली कविता जो उन्होंने नौ वर्ष की आयु में लिखी थी ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से प्रयाग की पत्रिका ‘मर्यादा’ में छपी थी. यह कविता नीम के पेड़ के बारे में थी. बचपन से सुभद्रा जी निडर, साहसी और सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ थीं. इनका विवाह कम आयु में सन 1919 में खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान से हुआ जो पेशे से तो वकील थे पर उससे महत्वपूर्ण वे एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे जो इस कारण कई बार जेल गए.
उनकी भी साहित्य में रुचि थी और वे नाटककार थे. पति-पत्नी दोनों प्रगतिशील विचारधारा के संवाहक थे यह अच्छी बात थी. कहते हैं जब पहली बार सुभद्रा जी सास से मिलने खण्डवा गई तो उन्होंने घूंघट काढ़ने ने से इंकार कर दिया था. इसमें उनके पति ने भी साथ दिया. सास बोलीं- “बिना घूंघट की दुल्हन देखकर लोग क्या कहेंगे?” इस पर लक्ष्मण सिंह ने कहा कि मैं भी इन्हें घूंघट निकालने के लिए नहीं कहूंगा क्योंकि मैं इस प्रथा का विरोधी हूँ. वे दोनों लौट आए, पर सुभद्रा जी ने आखिर घूंघट नहीं निकाला.
स्वतन्त्रता संग्राम में
उस समय देश में स्वतंत्रता के लिए गांधी जी के आव्हान पर सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था. सुभद्रा जी स्वयं राष्ट्र प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थीं ऐसे में उन्हें अपने पति का पूरा सहयोग मिला जो स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे. दोनों पति-पत्नी खादी पहनते थे. सुभद्रा जी न कोई ज़ेवर पहनतीं न कोई श्रृंगार करतीं. एकदम सीधी-सादी वेशभूषा में उन्हें देख कर गांधी जी उनसे पूछ बैठे थे- “क्या आप शादीशुदा हैं?” तब सुभद्रा जी ने कहा- “जी हाँ. ये साथ में मेरे पति हैं.” इस पर गांधी जी बोले-“अरे तो कम से कम पाड़वाली साड़ी तो पहना करो.”
जबलपुर में सुभद्रा जी जेल जाने वाली अग्रणी महिला थीं जिन्होंने हंसी-खुशी सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया. देश भक्ति के जज़्बे में पति-पत्नी कई बार जेल गये. कभी अलग-अलग तो कभी एक साथ. जब दोनों एक साथ जेल में रहते तो उनके परिचित या पड़ोसी उनके बच्चों की देखभाल करते या उनकी बड़ी बेटी सुधा छोटे भाई-बहनों को संभालतीं.
साहित्य के क्षेत्र में
सुभद्रा जी के लेखन की बात करें तो साहित्य के क्षेत्र में भी वे अग्रणी रहीं. उन्होंने वीर रस की जो कविताएं लिखी वैसी शायद ही किसी दूसरी कवयित्री ने लिखी हो. जन मानस में रची-बसी और उस समय लोक गाथाओं में चर्चित झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर उनकी प्रसिद्ध कविता-
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!…
यह कविता लिखकर उन्होंने परतंत्र भारत के लोगों में जागृति फैलाने काम किया कि जब एक अकेली झांसी की रानी अंग्रेजों से लोहा ले सकती है तो हम सब मिलकर क्यों नहीं! सुनते हैं ‘झांसी की रानी’ कविता जला दी गई थी. बाद में याद कर के सुभद्रा जी उसे दुबारा लिखा.
वैसी ही एक और कविता है-
वीरों का कैसा हो वसन्त
आ रही हिमाचल से पुकार
है उदधि गरजता बार-बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहे हैं दिग् दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसन्त
सहज सरल भाषा में लिखी ये कविताएं उस समय उन लोगों में जोश भर देती थीं जो लोग स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे. उन्होंने राष्ट्रप्रेम, भक्ति, प्रेम, वात्सल्य, प्रकृति सभी विषयों के साथ-साथ बच्चों के लिए कई भी कई कविताएं लिखी हैं. जिनमें से कुछ अभी भी स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में शामिल हैं. सुभद्रा जी के दो काव्य संकलन प्रकाशित हुए थे, ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’. ‘मुकुल’ पर उन्हें ‘सेकसरिया पुरस्कार’ पुरस्कार मिला था. उस समय कविता छपने पर प्राय: पारिश्रमिक नहीं मिलता था इस लिए सुभद्रा जी ने कहानियां लिखनी शुरु कीं. उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए – बिखरे मोती (1930), उन्मादिनी (1934)और सीधे सादे चित्र (1947).
सुभद्रा जी की आधिकतर कहानियां स्वतंत्रता पूर्व भारत के सामाजिक परिवेश का चित्रण करती हैं. मुझे उनकी कहानी ‘हींगवाला’ बहुत पसन्द है जो हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द दर्शाती है. सुभद्राजी प्रकृति प्रेमी थीं जैसा कि उनकी पहली रचना ‘नीम का पेड़’ थी. उनकी ‘कदम्ब का पेड़’ कविता भी बहुत प्रसिद्ध है. एक कहानी का शीर्षक भी ‘कदम्ब के फूल’ है. इस कहानी में एक सास (जैसा कि हमेशा सास प्रायः ऐसी ही होती हैं ) अपने बेटे से बहू की शिकायत करती है कि यह मिठाई मंगवा कर खाती है. पड़ोस का एक लड़का इसे बेसन के लड्डू दे जाता है. बात बढ़ जाती है. अन्त में रहस्य खुलता है कि वे बेसन के लड्डू नहीं, पूजा के लिए कदम्ब के फूल थे गोल-गोल, पीले लड्डुओं जैसे. सहज सरल भाषा सुभद्रा जी की कहानियों की विशेषता है जो इन्हें हृदयग्राही बनाती है.
घर परिवार में
सुभद्रा जी और उनके पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान दोनों कांग्रेसी और गांधीवादी थे. हमेशा खद्दर पहनते थे. जबलपुर राइट टाऊन में उनका बहुत बड़ा सा घर. सामने घुसते ही बड़ा आँगन और बगीचा फूल पौधों से भरा. एक शहतूत का पेड़ भी था जो मुझे बड़ा प्यारा लगता था. पति-पत्नी दोनों के सहज सरल स्वभाव और राष्ट्रीय विचारधारा के कारण उनके यहां हरदम मिलनेवालों का आना-जाना लगा रहता सभी उन्हें काका जी और काकी जी कहकर सम्बोधित करते यहाँ तक कि उनके बच्चे भी उन्हें काका-काकी कहकर संबोधित करते थे . सुभदा जी मेरी मुंहबोली नानी थीं, यह मैं पहले ही बता चुकी हूँ. उनके बच्चे मेरे मामा-मौसी.
उनकी पांच संतानें थीं. सबसे बड़ी बेटी सुधा का विवाह कथा सम्राट प्रेमचन्द के बेटे अमृत राय से हुआ था. सुधा मौसी को सब जीजी कहते थे. फिर तीन बेटे थे- अजय (बड़े), विजय (छोटे) और अशोक (मुन्ना). उनके बाद सबसे छोटी बेटी ममता जो मुझसे तीन-चार साल बड़ी थीं. उनके घर के नाम इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि सुभद्रा नानी ने कई बाल-कविताएं अपने बच्चों पर लिखी हैं. ये नाम देखकर आप पहचान जाएंगे जैसे यह कविता- ‘सभा का खेल’
सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे जीजी आओ,
मैं गांधी जी, छोटे नेहरु, तुम सरोजिनी बन जाओ.
मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे में चल जाएगा,
छोटे भी खद्दर का कुरता पेटी से ले आएगा.
लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए एक बहुत बढ़िया साड़ी,
वह तुम माँ से ही ले लेना, आज सभा होगी भारी
मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले
वे लाठियां चलाने वाले, हम घायल मरने वाले…
यह कविता सत्याग्रह आन्दोलन की स्थिति को दर्शाती है. बड़ों को देख बच्चे भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल के छोड़कर देशभक्ति के नाटक, और सभा-सभा का खेल करने को प्रेरित होते थे. इस तरह की शायद ही कोई दूसरी कविता होगी.
बेटे अजय (बड़े) पर उन्होंने ‘ अजय की पाठशाला’ शीर्षक की कविता लिखी.
मां ने कहा दूध पी लो तो बोल उठे मां रुक जाओ
वहीं रहो पढ़ने बैठा हूं मेरे पास नहीं आओ
शाला का काम बहुत सा मां, उसको कर लेने दो
ग म भ झ लिखकर मां, पट्टी को भर लेने दो
अजय मामा वकील होने के साथ-साथ कई ऊंचे पदों पर थे.
विजय (छोटे) पर ‘नटखट विजय’ कविता लिखी-
कितना नटखट मेरा बेटा,
क्या लिखता है लेटा-लेटा,
अभी नहीं अक्षर पहचाना,
ग म भ का भेद न जाना,
फिर पट्टी पर शीश झुकाए,
क्या लिखता है ध्यान लगाए,
मैं लिखता हूँ बिटिया रानी,
मुझे पिला दो ठंडा पानी.
विजय(छोटे)मामा बड़े होकर प्रोफेसर बने. इनकी पत्नी जर्मन थीं. बाद में वे भी जर्मनी चले गये जहाँ उनकी मृत्यु हो गई.
अपनी छोटी बेटी को देखकर सुभद्रा नानी ने बचपन को याद करते हुए प्रसिद्ध कविता लिखी थी- ‘मेरा बचपन’
मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी,
नन्दन वन सी कूक उठी, यह छोटी सी कुटिया मेरी.
मां ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी,
कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी.
यह लम्बी कविता आज भी स्कूलों में पढ़ाई जाती है.
मैं तब तीन-चार बरस की थी. मैं और मेरी मां सुभद्रा नानी से मिलने के बाद जब अपने घर जाने लगते तो अशोक मामा (उर्फ मुन्ना, उनके तीसरे बेटे) मुझे कंधे पर बिठाकर छोड़ने चलते. रास्ते में दो पैसे की लइया खरीद देते थे, जो मैं उनके कंधे पर बैठी कुटुर-कुटुर खाती रहती. लाई के रामदाने झड़कर उनके सिर के घुंघराले बालों के बीच बिखर जाते तब मामा हंसकर कहते – “अरे गीता मेरे बाल क्यों खराब कर रही है?” यही अशोक मामा यानी मुन्ना मामा के बारे में कहा जाता था कि जब ये स्कूल से लौटते थे तो पहले अपना बस्ता पटक कर घर के बाहर लगे कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे. कुछ देर उछल-कूद कर लेते तब घर में घुसते थे. इन्हीं अशोक मामा पर सुभद्रा नानी ने ‘कदम्ब का पेड़’ कविता लिखी थी.
यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे.
ले देती मां मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली…
‘कदम्ब का पेड़’ कविता स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में संकलित है और कई लोगों की जुबान पर चढ़ी है. अशोक चौहान मामा की शादी प्रेमचन्द की नतिनी मंजुला से हुई थी. उनका भी घर का नाम मुन्नी था. बड़ी प्यारी और खूब सुन्दर थीं हमारी मुन्नी मामी.
यही अशोक मामा बड़े होकर जबलपुर के रॉबर्टसन कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए थे. मेरे बचपन में पिताजी का ट्रांसफर हो जाने के कारण मेरा जबलपुर छूट गया था. मैट्रिक के बाद जब मैं यहां होम साइंस कॉलेज होस्टल में रहकर पढ़ने आई तो अजय चौहान और अशोक चौहान मामा मेरे लोकल गार्जियन बने थे.
अशोक मामा बहुत गोरे, सुन्दर और ऊंचे पूरे दिखते थे. जब छुट्टी में मुझे घर ले जाने आते तो मेरे होस्टल की लड़कियां उन्हें झांक-झांक कर देखतीं. वे थे तो प्रोफेसर पर पैरों में तीन रुपये वाली टायर की चप्पल पहन लेते जैसी उस समय मजदूर पहना करते थे. यह उनका अपना ‘इश्टाइल’ था जो सबके लिए अचम्भे और आकर्षण का केन्द्र बन जाता था. वे गाते बहुत अच्छा थे. जब कबीर गाते तो सुनने वालों की आंखों से आंसू बहने लगते.
सुभद्रा नानी की सबसे छोटी बेटी हैं ममता. मेरी ममता मौसी. सुभद्रा नानी की संतानों में से बस एक यही बची हैं. सुभद्रा नानी की संतानों में से प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देने वाले सभी हाथ कालचक्र की भेंट चढ़ गये. मुन्नी मामी (मंजुला चौहान) फोन पर बातें करती थीं, कोरोना काल में वे भी चल बसीं. अब ममता मौसी हैं जो अमेरिका में रहती हैं. मुझे वे बचपन से प्यार करती थीं. जब मैं होस्टल से उनके घर आती थी, उस समय वे एम.ए. में पढ़ ही रही थीं, पर अपने पॉकेटमनी से मुझे फ्रॉक का कपड़ा खरीदकर देती थीं. मैं शाम को होस्टल लौटते समय कपड़ा लेकर जाती और मेरी प॔जाबी दोस्त सिंधु नाग रातोंरात होस्टल की मशीन पर फ्रॉक सी देती थी. मैं दूसरे दिन उसे पहनकर कॉलेज चली जाती और शान से सबको बताती कि मेरी ममता मौसी ने दी है. वे मेरी बचपन से दोस्त थीं.
इसी संदर्भ में बचपन की एक अविस्मरणीय घटना याद आती है. माँ जब उनके घर जातीं, सुभद्रा नानी से बातें करती तब मैं ममता मौसी के साथ खेला करती थी. एक बार हम उनके घर गये थे तभी सुभद्रा नानी बनारस से लौटीं. उन्होंने हम दोनों को एक-एक पिटारी खिलौनों की दी उसमें सुन्दर-सुन्दर लकड़ी के रंग-बिरंगे बर्तन, कड़ाही, करछुल, चूल्हा, तवा, चकला-बेलन रखे थे. मैं और ममता मौसी झट से अपने-अपने खिलौने लेकर खेलने बैठ गईं.
ममता मौसी ने चूल्हे पर तवा चढ़ाया और आँगन से शहतूत की पत्तियां तोड़कर चकले पर रखकर फटाफट झूठ-मूठ की रोटियां बेलने लगीं. उनकी देखा-देखी मैंने भी अपने चूल्हे पर तवा रखकर चकला निकाला, पर यह क्या मेरे वाले सेट में तो बेलन था ही नहीं. दुकान वाला शायद बेलन रखना भूल गया था. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, हाथ-पैर पटकने लगी. अश्रुधारा बह निकली. अब भला मैं रोटी कैसे बेलूंगी? तब सुभद्रा नानी ने मुझे प्यार से गोदी में बिठाया और चौके की तरफ आवाज़ देकर बोली- ‘महाराजिन बेलन लाओ’. उनकी महाराजिन खूब मोटी थुलथुल थीं. छोटे बच्चे उन्हें चुपके से ताड़का कहकर भागते थे तो वे भी मारने दौड़तीं पर मोटापे के कारण दौड़ न पातीं. और वहीं खड़ी होकर हंसने लगतीं उन्हें खुद भी इस खेल में मज़ा आता था.
हाँ, तो महराजिन रसोई से बेलन लेकर हाजिर हो गईं. सुभद्रा नानी ने मेरे हाथ में वह बड़ा-सा बेलन देकर कहा- “गीता बेटा लो, देखो यह अन्नपूर्णा का बेलन है. हमारी महाराजिन अन्नपूर्णा है. इसी बेलन से बेलकर हम सबको रोटियां बनाकर खिलाती है. यह संसार का सबसे अच्छा बेलन है. जाओ इससे रोटियां बेलो.” मैंने आंसू पोंछकर बेलन ले लिया और उस छोटे से चकले पर बड़ा सा बेलन रखकर रोटियां बेलने लगी. ममता मौसी कनखियों से मुझे देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं.
आज भी कभी-कभी रोटी बेलते हुए वह अन्नपूर्णा का बेलन याद आ जाता है. सोचती हूं कितनी महान थीं सुभद्रा नानी, उन्होंने एक साधारण सी खाना बनानेवाली स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ की संज्ञा दे डाली थी. स्वयं मालकिन होते हुए भी उसे ‘अन्नदात्री’ कहकर उसका मान बढ़ा दिया था. ऐसी उदारता तो सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियां ही दर्शा सकती हैं.
और अन्त में…
सुभद्रा कुमारी चौहान उदार हृदया, सरलता की मूर्ती और ममतामई थीं. उनके कोमल ह्रदय में साहस और दृढ़ विश्वास भरा हुआ था. उन्होंने घर-बार संभालते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में में भाग लिया. कई बार जेल गयीं. साहित्य रचा. जेल में भी वे कहानियां लिखती थीं. जेल की दीवारों पर कवितायें लिखती थीं. अपने राष्ट्रवादी पति का हर कदम पर साथ दिया. विवाहित स्त्रियाँ पति से अनेक सुविधाओं, ज़ेवर और धन-दौलत की अपेक्षा रखती हैं परन्तु उन्होंने ऐसी कोई कामना नहीं कीं. बिना शिकायत हंसते-हंसते पति के साथ जेल चली गईं. जेल में वे अकेली राजनैतिक महिला कैदी के रूप में थीं. जनता द्वारा जो फूलों के हार पहनाए गए थे, उनका तकिया बना कर जेल में सो गईं. उन्होंने स्वयं के बारे में लिखा भी है-
मैंने हंसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना.
बरसा करता है मेरे जीवन के पल-पल पर सोना.
एक जगह और लिखती हैं-
सुख भरे सुनहले बादल, रहते हैं मुझको घेरे.
विश्वास, प्रेम, साहस हैं, जीवन के साथी मेरे.
सुभद्रा जी को जीवन में कई मान-सम्मान मिले. साहित्य में दो बार ‘मुकुल’ और ‘बिखरे मोती’ किताब पर ‘सेकसरिया पुरस्कार’ मिला. भारत स्वतंत्र होने के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार ने सुभद्रा जी को विधान परिषद् की सदस्या मनोनीत किया. दुर्भाग्यवश, एक मीटिंग से लौटते हुए सिवनी के पास कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. संयोग की बात है यह दुर्घटना 15 फरवरी 1948 वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) के दिन हुई थी. सुभद्रा जी का जन्म नाग पंचमी (16 अगस्त 1904) में हुआ था. अर्थात् जन्म और निधन दोनों दिन पंचमी तिथि थी. मध्य प्रदेश के सिवनी के पास कलबोड़ी ग्राम में सुभद्रा कुमारी चौहान की समाधि है जहां लोग फूल चढ़ाने जाते हैं.
उनके निधन के अगले वर्ष ही 1949 में जबलपुर नगर निगम परिसर में सुभद्रा जी की आदम-कद प्रतिमा लगाई गई जिसका अनावरण उनकी सहेली प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने किया था. उनकी याद में भारत सरकार के डाक-तार विभाग ने 1976 में पच्चीस पैसे का डाक टिकट भी जारी किया था. 24 अप्रेल 2006 में उनकी राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को सम्मान देने के लिए भारत में जल-सेना द्वारा तट-रक्षक जहाज़ का नाम ‘सुभद्रा’ रखा गया.
मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन हो गया किन्तु इतनी कम अवधि में वे कई महत्वपूर्ण कार्य कर गईं. सुभद्रा कुमारी चौहान बीसवीं सदी की महानायिका, प्रखर लेखिका, कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेविका के रूप में सदा याद रखी जाएंगी. हिन्दी साहित्य के आकाश में सदा जगमग नक्षत्र की तरह चमकता रहेगा सुभद्राकुमारी चौहान का नाम. उनकी स्मृतियों को शत-शत प्रणाम.
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(लेखिका – डॉ. गीता पुष्प शॉ जी से अनुमति लेकर यह संस्मरण ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशनार्थ साभार लिया गया।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “वार्ताओं के कथन मे...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 201 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “वार्ताओं के कथन मे...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “तुम मुस्कुराओ तो”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘सफर जिंदगी का…‘।)
☆ कविता – सफर जिंदगी का… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – ”कंछेदी का स्कूल‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 252 ☆
☆ व्यंग्य ☆ कंछेदी का स्कूल☆
कंछेदी अपने क्षत-विक्षत स्कूटर पर मेरे घर के कई चक्कर लगा चुके हैं। ‘कुछ करो मासाब। हमें तो चैन नहीं है और आप आराम से बैठे हैं। कुछ हमारी मदद करो।’
कंछेदी कई धंधे कर चुके हैं। दस बारह भैंसों की एक डेरी है, शहर में गोबर के भी पैसे खड़े कर लेते हैं। इसके अलावा ज़मीन की खरीद- फरोख़्त का धंधा करते हैं। सड़कों पुलियों के ठेके भी लेते हैं। सीमेंट की जगह रेत मिलाकर वहाँ से भी मिर्च-मसाले का इंतज़ाम कर लेते हैं।
फिलहाल कंछेदी अंगरेजी स्कूलों पर रीझे हैं। उनके हिसाब से अंगरेजी स्कूल खोलना आजकल मुनाफे का धंधा है। अपने घर के दो कमरों में स्कूल चलाना चाहते हैं, लेकिन अंगरेजी के ज्ञान से शून्य होने के कारण दुखी हैं। मेरे पीछे पड़े हैं— ‘कुछ मदद करो मासाब। हम अंगरेजी पढ़े होते तो अब तक कहीं से कहीं पहुँच गए होते।’
अंगरेजी स्कूलों के नाम पर कंछेदी की लार टपकती है। जब भी बैठते हैं, घंटों गाना गाते रहते हैं कि किस स्कूल ने मारुति खरीद ली, किसके पास चार गाड़ियाँ हैं, किसने दो साल में अपनी बिल्डिंग बना ली।
मैं कहता हूँ, ‘तुमने भी तो दूध में पानी और सीमेंट में रेतक मिलाकर खूब पैसा पीटा है, कंछेदी। कंजूसी के मारे यह टुटहा स्कूटर लिये फिरते हो। कम से कम इस पर रंग रोगन ही करा लो।’
कंछेदी मुस्करा कर कहते हैं, ‘कहाँ मासाब! कमाई होती तो ऐसे फिरते? दिन भर दौड़ते हैं तब दो-चार रुपये मिलते हैं। स्कूटर पर रंग कराने के लिए हजार बारह-सौ कहांँ से लायें? आप तो मसखरी करते हो।’
कंछेदी बौराये से चक्कर लगा रहे हैं। अंगरेजी स्कूल उनकी आँखों में दिन-रात डोलता है। ‘मासाब, एक बढ़िया सा नाम सोच दो स्कूल के लिए। ऐसा कि बच्चों के बाप पढ़ें तो एकदम खिंचे चले आयें। फस क्लास नाम। आपई के ऊपर सब कुछ है।’
दो-चार चक्कर के बाद मैंने कहा, ‘कहाँ चक्कर में पड़े हो। स्कूल का नाम रखो के.सी. इंग्लिश स्कूल। के.सी. माने कंछेदी। इस तरह स्कूल तो चलेगा ही, तुम अमर हो जाओगे। एक तीर से दो शिकार। जब तक स्कूल चलेगा, कंछेदी अमर रहेंगे।’
कंछेदी प्रसन्न हो गये। बोले, ‘ठीक कहते हो मासाब। के.सी. इंग्लिश स्कूल ही ठीक रहेगा। बढ़िया बात सोची आपने।’
के.सी. इंग्लिश स्कूल का बोर्ड लग गया। कंछेदी ने घर के दो कमरों में छोटी-छोटी मेज़ें और बेंचें लगा दीं। ब्लैकबोर्ड लगवा दिये। बच्चों के दो-तीन चित्र लाकर टाँग दिये। एक कमरे में मेज़-कुर्सी रखकर अपना ऑफिस बना दिया। जोर से गठियाई अंटी में से कंछेदी कुछ पैसा निकाल रहे हैं। पैसे का जाना करकता है। कभी-कभी आह भरकर कहते हैं, ‘बहुत पैसा लग रहा है मासाब।’ लेकिन निराश नहीं हैं। लाभ की उम्मीद है। धंधे में पैसा तो लगाना ही पड़ता है।
एक दिन कंछेदी आये, बोले, ‘मासाब, परसों थोड़ा समय निकालो। दो मास्टरनियों और एक हेड मास्टर का चुनाव करना है। उनसे अंगरेजी में सवाल करना पड़ेंगे। कौन करेगा? दुबे जी को भी बुला लिया है। आप दोनों को ही सँभालना है।’
मैंने पूछा, ‘उन्हें तनख्वाह क्या दोगे?’
कंछेदी बोले, ‘पाँच पाँच हजार देंगे। हेड मास्टर को छः हजार दे देंगे।’
मैंने कहा, ‘पाँच हजार में कौन तुम्हारे यहाँ मगजमारी करेगा?’
कंछेदी बोले, ‘ऐसी बात नहीं है मासाब। मैंने दूसरे स्कूलों में भी पता लगा लिया है। अभी पाँच हजार से ज्यादा नहीं दे सकते। फिर मुनाफा होगा तब सोचेंगे। अभी तो गाँठ का ही जा रहा है।’
नियत दिन मैं स्कूल पहुँचा। कंछेदी बढ़िया धुले कपड़े पहने, खिले घूम रहे थे। दफ्तर के दरवाज़े पर एक चपरासी बैठा दिया था। मेज़ पर मेज़पोश था और उस पर कलमदान, कुछ कागज़ और पेपरवेट। जंका-मंका पूरा था।
मैंने कंछेदी से कहा, ‘तुमने कमरों में पंखे नहीं लगवाये। गर्मी में बच्चों को भूनना है क्या?’
कंछेदी दुखी हो गये— ‘फिर वही बात मासाब। आपसे कहा न कि कुछ मुनाफा होने दो। अब तो मुनाफे का पैसा ही स्कूल में लगेगा। जेब से बहुत पैसा चला गया।’
इंटरव्यू के लिए आठ महिलाएँ और तीन पुरुष थे। उनमें से दो रिटायर्ड शिक्षक थे। कंछेदी हम दोनों के बगल में, टाँग पर टाँग धरे, ठप्पे से बैठे थे।
उम्मीदवार आते, हम उनके प्रमाण- पत्र देखते, फिर सवाल पूछते। जब हम सवाल पूछने लगते तब कंछेदी भौंहें सिकोड़कर प्रमाण- पत्र उलटने पलटने लगते। जब उम्मीदवार से हमारे सवाल-जवाब चलते तो कंछेदी जानकार की तरह बार-बार सिर हिलाते।
कोई सुन्दर महिला-उम्मीदवार कमरे में घुसती तो कंछेदी की आँखें चमकने लगतीं और उनके ओंठ फैल जाते। वे मुग्ध भाव से बैठे उसे देखते रहते। जब वह इंटरव्यू देकर बाहर चली जाती तो कंछेदी बड़ी उम्मीद से हमसे कहते, ‘ये ठीक है।’ हम उनसे असहमति जताते तो वे आह भरकर कहते, ‘जैसा आप ठीक समझें।’
कंछेदी का काम हो गया। दो शिक्षिकाएँ नियुक्त हो गयीं। एक रिटायर्ड शिक्षक को हेड मास्टर बना दिया।
कंछेदी बीच-बीच में मिलकर स्कूल की प्रगति की रिपोर्ट देते रहते। स्कूल की प्रगति उत्साहवर्धक थी। पंद्रह बीस बच्चे आ गये थे, और आने की उम्मीद थी।
कंछेदी अपनी योजनाएँ भी बताते रहते। कहते, ‘अगले साल से हम किताबें स्कूल में ही बेचेंगे। यूनीफॉर्म भी हम खुद ही देंगे। टाई बैज भी। अब मासाब, धंधा किया है तो मुनाफे के सब रास्ते निकालने पड़ेंगे। दिमाग लगाना पड़ेगा। आपका आशीर्वाद रहा तो साल दो साल में स्कूल मुनाफे की हालत में आ जाएगा।
कंछेदी का स्कूल दिन-दूनी रात- चौगुनी तरक्की कर रहा है। भीड़ दिखायी पड़ने लगी है। रिक्शों के झुंड भी दिखाई पड़ने लगे हैं। कंछेदी स्कूल की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में रखे हैं।
कंछेदी पूरे जोश में हैं। धंधा फायदे का साबित हुआ है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे जल्दी ही एक मारुति कार खरीदने में समर्थ हो जाएँगे। कहते हैं, ‘मासाब, बस चार छः महीने की बात और है। फिर एक दिन आपके दरवाजे पर एक बढ़िया मारुति कार रुकेगी और उसमें से उतरकर आपका सेवक कंछेदीलाल आपका आशीर्वाद लेने आएगा।’