हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #10 – # No Abusing ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 10 ☆

 

☆ # No Abusing ☆

रात चढ़ रही है, पास के मकान में हमेशा की तरह घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। उनका स्कूल जानेवाला लड़का जन्म से यह सब देख, सुन रहा है। उसका कोई स्वर नहीं है। अनुमान लगाता हूँ कि वह घर के किसी कोने में सुन्न खड़ा होगा। छोटी नादान बिटिया जोर-जोर से रो रही है। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह सरलता से जटिलता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी।  अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें।

मित्रो, मैं आज से # No Abusing शुरू कर रहा हूँ। इसमें मेरा साथ दें, शामिल हों।

# No Abusing

(इस पोस्ट का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करने का आप सबसे निवेदन है। इसे विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर जन-आंदोलन बनाने का भी अनुरोध है। )
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©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #17 – पाचोळा… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की   सत्रहवीं कड़ी  पाचोळा…।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। एक पान  के पत्ते से  नवजीवन की परिकल्पना को जोड़ना एवं अंत में दी हुई कविता दोनों ही अद्भुत हैं। सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #17 ?

 

☆ पाचोळा… ☆

 

पाचोळा, पानांचा… पानगळ… निष्पर्ण… एका सुरुवातीचा शेवट?
कदाचित शेवट… म्हणून भकास?

कदाचित?

की नव्याची सुरुवात?

अनेक विचार आपल्यालाच डाचत राहतात… पण पाचोळा कोणालाच नको असतो हे नक्की… पायदळी तुडवले जाण्याची शक्यताच जास्त असते… दुर्लक्षित होणे, ह्या सारखी भावना सुखावह नक्कीच नाही… पण मग अजून एक विचार मनात येतो… पाचोळा ही पूर्णत्वाची स्थिती तर नाही? समर्पणाची तयारी तर नाही? आयुष्यावर मात करत असताना झेललेल्या अनेक घावांचे व्रण नाहीसे करण्यासाठी ही धडपड नसावी ना? का सर्व जबाबदऱ्यांमधून बाहेर पडून हलक्या झालेल्या जीवनाचा वाऱ्याच्या झुळकी बरोबर सुरू झालेला प्रवास तर नाही? ह्या पानगळीबरोबर अनेक अयोग्य गोष्टीचा ऱ्हास होत असेल,  नाही का !

ह्याची उत्तरं प्रत्येकासाठी नक्कीच वेगळी असणार, ह्यात नवल नाही… पण उत्तरं शोधायचा प्रयत्न प्रगल्भतेच्या मार्गातील मैलाचा दगड ठरू शकतो… कारण ज्याची सुरुवात व्हावी वाटत असते, त्यासाठी कशाचातरी शेवट होणे ह्याला पर्याय नाही, हा निसर्गाचा नियम विसरून चालणार नाही…

कोंब होतो मी अवखळ,
पानापानातील सळसळ,
श्रुंगारलो सजलो देही,
जाणवे झाडाची कळकळ…

ऋतूंच्या बहरण्या साजे,
अनोखे चित्र सकळ,
खोडाखोडात अवतरे,
जगण्यासाठी पाठबळ…

वसंताच्या आगमनाने,
मिळाली माया सोज्वळ,
ग्रीष्माची उष्ण झळ,
नक्कीच होईल पानगळ,

जगरहाटी ठरलेली,
बाणवली जन्मभर,
निर्मिती, स्थिती, लय,
घडले सारे भरभर…

म्हणूनच म्हणतो,

आज पाचोळा जरी,
अनुभवले कोवळे क्षण,
पुलकित होत होतो,
पिऊन नाविन्याचे कण…

तुडवू नको पायदळी,
गळलो जरी अवकाळी,
सृष्टीचा एक भाग होतो,
आयुष्याच्या सकाळी…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 3 ☆ अरबी के पत्तों का  पानी ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक संवेदनात्मक भावप्रवण कविता  ‘नजरें पार कर’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 3 ☆

☆ अरबी के पत्तों का  पानी

 

प्रिये,

तुम नक्षत्रों से चमकती हो,
मैं अदना सा टिमटिमाता हुआ तारा हूँ ।

 

तुम बवंड़र सी चलती आँधी हो,
मैं पुरवाई की मंद बहती हवा हूँ ।

 

तुम कोहरे से लिपटी हुई सुबह हो
मैं दूब पर रहती की ओस की बूँद हूँ ।

 

तुम शंख में रहनेवाला मोती हो
मैं अरबी के पत्तों का चमकता पानी हूँ ।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 – शक्ति का मद ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “शक्ति का मद।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 ☆

 

☆ शक्ति का मद 

 

राम, नाम अग्नि बीज मंत्र (रा) और अमृत बीज मंत्र (मा) के साथ संयुक्त है, अग्नि बीज आत्मा, मन और शरीर को ऊर्जा देता है एवं अमृत बीज पूरे शरीर में प्राण शक्ति (जीवन शक्ति) को पुन: उत्पन्न करता है । राम दुनिया का सबसे सरल, और अभी तक का सबसे शक्तिशाली नाम है । भगवान राम कोसला साम्राज्य (अब उत्तर प्रदेश में) के शासक दशरथ और कौशल्या के यहाँ सबसे बड़े पुत्र के रूप में पैदा हुए, भगवान राम को हिंदू धर्म के ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पूर्ण पुरुष’ या ‘स्व-नियंत्रण भगवान’ या ‘पुण्य के भगवान’ । उनकी पत्नी देवी सीता को पृथ्वी पर अवतारित एक महान स्त्री माना जाता हैं जो वास्तव में किसी के लिए भी आदर्श की परिभाषा है उन्हें हिंदु देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं ।

भगवान राम अपने पिता दशरथ द्वारा अपनी सौतेली माँ कैकेयी (अर्थ : भाग्य, स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता की चरम सीमा) को दिए वचनों के पालन हेतु 14 सालोंतक के लिए वन  में रहने आये थे ।

दशरथ – दश का अर्थ नंबर दस तक की गिनती है और रथ का अर्थ युद्ध में प्रयोग करने वाला वहान, इसलिए दशरथ का शाब्दिक अर्थ है दस रथ। दशरथ को यह नाम मिला क्योंकि उनके पास दस दिशाओं में रथ चलाने की अनूठी क्षमता थी। परंपरागत रूप से हम केवल आठ दिशाओं को जानते हैं- उत्तर (उत्तर), दक्षिणी (दक्षिण), पूरव (पूर्व), पश्चिम (पश्चिम), ईशान (उत्तर पूर्व), आग्नेय (दक्षिण पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम), वायव्य (उत्तर पश्चिम), और इन पारंपरिक आठ दिशाओं के अतिरिक्त, दशरथ ऊर्ध्व (आकाश की ओर ऊपर को) और अदास्था(पाताल की ओर नीचे को) में रथ चला सकते थे ।

भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीताऔर छोटे भाई लक्ष्मण (अर्थ : भाग्यशाली अंग, अन्य अर्थ ‘लक्ष’ का अर्थ है लक्ष्य और ‘मन’ का अर्थ ‘मन’ है, इसलिए लक्ष्मणअर्थात जिसका मस्तिष्क हमेशा लक्ष्य पर रहता है) के साथ वन में रह रहे थे ।

सीता – जनकपुर के राजा जनक ( अर्थ : निर्माता) और उनकी पत्नी रानी सुनैना (अर्थ : सुंदर आँखें) की पुत्री, एवं उर्मिला (अर्थ : मोहिनी) और चचेरी बहन मंडवी (अर्थ : पारदर्शी ह्रदय वाली) और श्रुतकीर्ति (अर्थ : चरम प्रसिद्धि) की बड़ी बहन थीं। वह देवी लक्ष्मी (भगवान विष्णु की आदिशक्ति), धन की देवी और विष्णु की पत्नी का अवतार थीं। उन्हें सभी हिंदू स्त्रियों के लिए पारिवारिक और स्त्री गुणों के एक आदर्श स्त्री माना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 2 ☆ ताई बालवाड़ी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। हम श्रीमती उर्मिला जी के आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” शीर्षक से  प्रारम्भ करने हेतु अपनी अनुमति प्रदान की। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख नवनिर्मिती  

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 2 ☆

 

☆ ताई बालवाडी ☆

 

सकाळी उठल्यावर हातात वर्तमानपत्र घेतलं..लक्षात आलं आज दहावीचा निकाल आहे त्यामुळे अख्ख्या पेपरमध्ये त्याच बातम्या !

तेवढ्यात माझं लक्ष १०० टक्के निकाल लागलेल्या शाळांच्या बातमीकडं गेलं.दुर्गम व डोंगराळ अशा भागातल्या एका माध्यमिक शाळेच्या निकाल १०० टक्के लागला हे वाचून माझं मन भुर्रकन पस्तीस वर्षामागं गेलं..

१९८३ साल होतं मी शिक्षण विभागात बदलून आल्याने माझ्या कामाचा चार्ज मी यादीप्रमाणे पाहून घेत होते.तेवढ्यात ‘ताई बालवाड्या ‘ असं शीर्षक असलेल्या एका फाईलनं माझं लक्षं वेधून घेतलं.मी समाज कल्याण विभागाच्या बालवाड्यांचं काम केलं होतं पण हे ‘ताई बालवाडी ‘प्रकरण जरा वेगळंच वाटलं म्हणून उत्सुकतेनं अख्खी फाईलच मी तिथं बसल्या बसल्या वाचून काढली.

त्यांचं असं होतं, ज्या ठिकाणी यापूर्वी कसलीही शिक्षणाची सोय नाही अशा २०० ते ५०० लोकवस्ती असलेल्या अति दुर्गम -डोंगराळ भागातील वाड्या-वस्त्यांना शासनाने १९७१ च्या जनगणनेनुसार बालवाड्या मंजूर केलेल्या होत्या.म्हणजे त्या वाडीवस्तीवर मुलांची शिक्षणाची सुरुवात झाली होती.

आमच्या जिल्ह्यासाठी १००बालवाड्या मंजूर होत्या. पैकी १९७६ ला ही योजना आली त्यावेळी प्रत्यक्षात ७७बालवाड्या सुरू होऊन त्या सर्व कार्यरत होत्या.परंतु १००पैकी २३ बालवाड्या सुरू होऊ शकलेल्या नव्हत्या असे ही फाईल वाचल्यावर माझ्या लक्षात आले.

अशा सर्व बालवाड्यांना शासनाने अति पावसाळी- दुर्गम भाग म्हणून मुलांना बसायला मोठे लांब सुंदर सागवानी पाट,छान खेळणी व ती सुरक्षित ठेवण्यासाठी भलीमोठी सागवानी लाकडी पेटी ,जिचा दुसरा उपयोग बालवाडी शिक्षिकेला बसण्यासाठी ही व्हावा.

हे सर्व वाचल्यावर माझी चौकस बुद्धी मला स्वस्थ बसू देईना.या बालवाड्या कां सुरु होऊ शकलेल्या नाहीत व त्यांचं साहित्याचं काय ?

मी याचं कारण शोधून काढायचं ठरवलं.व या बालवाड्या कसंही करुन सुरू करायच्याचं असा दृढनिश्चय करून पुढील कामाला लागले.आणि मला एक कल्पना सुचली त्या दरम्यान तालुका मास्तरांची एक मिटींग येऊ घातली होती म्हटलं ह्या निमित्ताने तालुका मास्तरांकडून याबाबतची वस्तुस्थिती कळू शकेल.व माझा अंदाज योग्य ठरला.त्या सभेसाठी येणाऱ्या ता.मास्तरांनी माझ्या टेबलकडे येऊन भेटावे अशी विनंती वजा सूचना नोटीसबोर्डंवर लावली.त्याचा खूपच छान उपयोग झाला ता..मास्तराशी चर्चा करता असे समजले की शासनाच्या निकषानुसार त्या गावातीलच महिला ताई म्हणून नेमायची होती.त्याकाळी वाड्यावस्त्यांवरच्या मुलींची लग्ने लौकर होत असल्याने अशी शिक्षिका न मिळाल्याने बालवाड्या सुरू होऊ शकल्या नाहीत.

आज  मी ही फाईल पहात होते तेव्हा ७-८ वर्षांचा कालावधी गेलेला होता,आता ता.मास्तरांच्या मदतीने त्या २३ बालवाड्यांपैकी २२ बालवाड्या सुरू झाल्या त्यांचं जपून ठेवलेलं साहित्य त्यांना वाटप केलं.पण एका गावाला शिक्षिकाच मिळेना कारण अतिदुर्गम भागात ७वी पास‌ शिक्षिका तेथे मिळेना.मग चौकशी करता त्या गावात ४थी पास झालेली एक विधवा महिला असल्याचे समजल्यावर तिला कार्यालयात बोलावून सर्व सांगितले व तिला नियमानुसार बाहेरून सातवीच्या परीक्षेस बसविले.सुदैवाने ती चांगल्या गुणांनी उत्तीर्ण झाली याचा तिच्यापेक्षा आम्हाला जास्त आनंद झाला.कारण आमची १००वी बालवाडी सुरू झाली.

आज ३५वर्षानंतर त्या ‘ताई बालवाडी ‘ चं रुपांतर कालांतराने माध्यमिक शाळेपर्यंत आलं आणि त्या शाळेचा दहावीचा १००टक्के निकाल लागल्याची बातमी वाचून मला भरुन पावल्यासारखं झालं

श्री समर्थ रामदास स्वामी म्हणतात नां ‘ केल्याने होत आहे रे’ ! पण आधि केलेचि पाहिजे!!’

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 12 ☆ घरौंदा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 12 ☆

 

☆ घरौंदा ☆

 

घरौंदा

 

मालिक की

नजर पड़ते ही

घोंसले में बैठे

चिड़ा-चिड़ी चौक उठते

और अपने नन्हें बच्चों के

बारे में सोच

हैरान-परेशान हो उठते

गुफ़्तगू करते

आपात काल में

इन मासूमों को लेकर

हम कहां जाएंगे

 

चिड़ा अपनी पत्नी को

दिलासा देता

‘घबराओ मत!

सब अच्छा ही होगा

चंद दिनों बाद

वे उड़ना सीख जाएंगे

और अपना

नया आशियां बनाएंगे’

 

‘परन्तु यह सोचकर

हम अपने

दायित्व से मुख

तो नहीं मोड़ सकते’

 

तभी माली ने दस्तक दी

और घोंसले को गिरा दिया

चारों ओर से त्राहिमाम् …

त्राहिमाम् की मर्मस्पर्शी

आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं

 

जैसे ही उन्होंने

अपने बच्चों को

उठाने के लिये

कदम बढ़ाया

उससे पहले ही

माली द्वारा

उन्हें दबोच लिया गया

और चिड़ा-चिड़ी ने

वहीं प्राण त्याग दिए

 

इस मंज़र को देख

माली ने मालिक से

ग़ुहार लगाई

‘वह भविष्य में

ऐसा कोई भी

काम नहीं करेगा

आज उसके हाथो हुई है

चार जीवों की हत्या

जिसका फल उसे

भुगतना ही पड़ेगा’

 

वह सोच में पड़ गया

‘कहीं मेरे बच्चों पर

बिजली न गिर पड़े

कहीं कोई बुरा

हादसा न हो जाए’

 

‘काका!तुम व्यर्थ

परेशान हो रहे हो

ऐसा कुछ नहीं होगा

हमने तो अपना

कमरा साफ किया है

दिन भर गंदगी

जो फैली रहती थी’

 

परन्तु मालिक!

यदि थोड़े दिन

और रुक जाते

तो यह मासूम बच्चे

स्वयं ही उड़ जाते

इनके लिए तो

पूरा आकाश अपना है

इन्हें हमारी तरह

स्थान और व्यक्ति से

लगाव नहीं होता

 

काका!

तुमने देखा नहीं…

दोनों ने

बच्चों के न रहने पर

अपने प्राण त्याग दिए

परन्तु मानव जाति में

प्यार दिखावा है

मात्र छलावा है

उनमें नि:स्वार्थ प्रेम कहां?

 

‘हर इंसान पहले

अपनी सुरक्षा चाहता

और परिवार-जनों के इतर

तो वह कुछ नहीं सोचता

उनके हित के लिए

वह कुछ भी कर गुज़रता

 

परन्तु बच्चे जब

उसे बीच राह छोड़

चल देते हैं अपने

नए आशियां की ओर

माता-पिता

एकांत की त्रासदी

झेलते-झेलते

इस दुनिया को

अलविदा कह

रुख्सत हो जाते

 

काश! हमने भी परिंदों से

जीने का हुनर सीख

सारे जहान को

अपना समझा होता

तो इंसान को

दु:ख व पीड़ा व त्रास का

दंश न झेलना पड़ता’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 10 ☆ सपना ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  स्व. माँ  की स्मृति में  एक भावप्रवण कविता   “सपना”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 10 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ सपना 

 

मैं नींद

के आगोश में सोई

लगा

नींद में

चुपके-चुपके रोई

जागी तो

सोचने लगी

जाने क्या हुआ

किसी ने

दिल को छुआ

कुछ-कुछ

याद आया

मन को बहुत भाया

देखा था

सपना

वो हुआ न पूरा

रह गया अधूरा

उभरी थी धुंधली

आकृति

अरेे हूँ मैं

उनकी कृति

वे हैं

मेरी रचयिता

मेरी माँ

एकाएक

हो गई

अंतर्ध्यान

तब हुआ यह भान

ये हकीकत नहीं

है एक सपना

जिसमें था

कोई अपना

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 4 – Amba’s wrath ☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Amba’s wrath”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 4

 

☆ Amba’s wrath ☆

(Denied justice from Bheeshma, a sufferer of fate, Amba seeks justice from God)

 

O life! You have made me a chattel

Loved, lost, owned and dismissed.

And on one leg I stand here on the Himalayas

O God! Before you, to ask for justice.

 

King Shalva I loved, gave away my heart

And accepted I was by pleasure and grace

And yet, taken away from my swayamwar I was

Bheeshma, by virtue of force, caused my disgrace.

 

Owned by Bheeshma, to Vichitrveerya presented

A conquered property I became, exchanging hands

When informed that it was King Shalva I loved

Kind enough they were to understand

 

Went I, to King Shalva, with love in my heart

And…oh! rejected, refused and denied I was

Said he, that he could not have someone as wife

Some other man’s possession who was…

 

With a despondency, I returned

And asked Vichitraveerya to take me as his wife

Declined again, I asked Bheeshma for justice

He was the one, who had changed course of  my life

 

He was the one who had snatched me away

He was the one in whose chariot I sat

Rightfully, I asked him to marry me

And it was then I realized, I had become a doormat

 

Bheeshma rebuffed me, reminded me of his pledge;

Wandered I from place to place, to get even.

Parshurama did help, fought for me-

Unfortunately, against Bheeshma, no one could have won

 

O God! Death of Bheeshma is what I seek

As a revenge for what I had to endure and face

O God! Give me justice, for I know I did not falter

O God! Most humbly, before you, I present my case

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “रेल्वे फाटक के उस पार ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ 

 

 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆

 

मेरा घर और दफ्तर ज्यादा दूर नहीं है, पर दफ्तर रेल्वे फाटक के उस पार है. मैं देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली, लौह पथ गामिनी के गमनागमन का सुदीर्घ समय से साक्षी हूँ. मेरा मानना है कि पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश को जोड़े रखने में, समानता व एकता के सूत्र स्थापित करने मे, भारतीय रेल, बिजली के नेशनल ग्रिड और टीवी सीरीयल्स के माध्यम से एकता कपूर ने बराबरी की भागीदारी की है.

राष्ट्रीय एकता के इस दार्शनिक मूल्यांकन में सड़क की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर चूँकि रेल्वे फाटक सड़क को दो भागों में बाँट देता है, जैसे भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर हो, अतः चाहकर भी सड़क को देश की एकता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता. इधर जब से हमारी रेल ने बिहार का नेतृत्व गृहण किया है, वह दिन दूनी रात चौगिनी रफ्तार से बढ़ रही है. ढ़ेरों माल वाहक, व अनेकानेक यात्री गाड़ियां लगातार अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं, और हजारों रेल्वे फाटक रेल के आगमन की सूचना के साथ बंद होकर, उसके सुरक्षित फाटक पार हो जाने तक बंद बने रहने के लिये विवश हैं.

मेरे घर और दफ्तर के बीच की सड़क पर लगा रेलवे फाटक भी इन्हीँ में से एक है, जो चौबीस घंटों में पचासों बार खुलता बंद होता है. प्रायः आते जाते मुझे भी इस फाटक पर विराम लेना पड़ता है. आपको भी जिंदगी में किसी न किसी ऐसे अवरोध पर कभी न कभी रुकना ही पड़ा होगा जिसके खुलने की चाबी किसी दूसरे के हाथों में होती है, और वह भी उसे तब ही खोल सकता है जब आसन्न ट्रेन निर्विघ्न निकल जाये.

खैर ! ज्यादा दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है, सबके अपने अपने लक्ष्य हैं और सब अपनी अपनी गति से उसे पाने बढ़े जा रहे हैं अतः खुद अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिये फाटक के उस पार तभी जाना चाहिये, जब फाटक खुला हो. पर उनका क्या किया जावे जो शार्ट कट अपनाने के आदि हैं, और बंद फाटक के नीचे से बुचक कर,वह भी अपने स्कूटर या साइकिल सहित,निकल जाने को गलत नहीं मानते.नियमित रूप से फाटक के उपयोगकर्ता जानते हैं कि अभी किस ट्रेन के लिये फाटक बंद है,और अब फिर कितनी देर में बंद होगा. अक्सर रेल निकलने के इंतजार में खड़े बतियाते लोग कौन सी ट्रेन आज कितनी लेट या राइट टाइम है, पर चर्चा करते हैं. कोई भिखारिन इन रुके लोगों की दया पर जी लेती है, तो कोई फुटकर सामान बेचने वाला विक्रेता यहीं अपने जीवन निर्वाह के लायक कमा लेता है.

जैसे ही ट्रेन गुजरती है, फाटक के चौकीदार के एक ओर के गेट का लाक खोलने की प्रक्रिया के चलते, दोनो ओर से लोग अपने अपने वाहन स्टार्ट कर, रेडी, गेट, सेट, गो वाले अंदाज में तैयार हो जाते हैं. जैसे ही गेट उठना शुरू होता है, धैर्य का पारावार समाप्त हो जाता है. दोनो ओर से लोग इस तेजी से घुस आते हैं मानो युद्ध की दुदंभी बजते ही दो सेनायें रण क्षेत्र में बढ़ आयीं हों. इससे प्रायः दोनो फाटकों के बीच ट्रैफिक जाम हो जाता है ! गाड़ियों से निकला बेतहाशा धुआँ भर जाता है, जैसे कोई बम फूट गया हो ! दोपहिया वाहनों पर बैठी पिछली सीट की सवारियाँ पैदल क्रासिंग पार कर दूसरे छोर पर खड़ी, अपने साथी के आने का इंतजार करती हैं. धीरे धीरे जब तक ट्रैफिक सामान्य होता है, अगली रेल के लिये सिग्नल हो जाता है और फाटक फिर बंद होने को होता है. फाटक के बंद होने से ठीक पहले जो क्रासिंग पार कर लेता है,वह विजयी भाव से मुस्कराकर आत्म मुग्ध हो जाता है.

फाटक के उठने गिरने का क्रम जारी है.

स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवर ब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं. लोकल अखबारों को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खिया मिल जाती हैं. देर से कार्यालय या घर आने वालों के लिये फाटक एक स्थाई बहाना है. फाटक की चाबियाँ सँभाले चौकीदार अपनी ड्रेस में, लाल, हरी झंडिया लिये हुये पूरा नियँत्रक है, वह रोक सकता है मंत्री जी को भी कुछ समय फाटक के उस पार जाने से.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12 ☆ माँ तो माँ है! ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “माँ तो माँ है!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12☆

 

☆ माँ तो माँ है!☆

 

रमा अपने बेटे को छाती से चिपका कर रो पड़ी, “सुनते हो जी ! कुछ करो ना ? ” उस की बोली निकल नहीं पा रही थी.

आज शाम से ही रमा के बेटे को उलटी दस्त होने लगे थे. जो रूकने का नाम नहीं ले रहे थे. उस ने डॉक्टर को दिखाया. दवा पिलाई. मगर दस्त थे कि बंद नहीं हुए. यह देख कर रमा अपने पुत्र को गोद में ले कर रात भर बैठी रही. वह अपनी सब सुधबुध खो चुकी थी.

तभी रमा के पति अविनाश की आँखें लग गई.

यह देख कर रमा चिल्लाई, “ये क्या है?” वह लगभग चीख पड़ी थी, “हमारा बेटा बीमार पड़ा है और आप नींद निकाल रहे है ?”

अविनाश हड़बड़ा कर उठ बैठा, “क्या हुआ ?”

“मेरे पुत्र की हालत देखो. इस के लिए कुछ भी करो. यह ठीक नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगी.”  वह तड़फ उठी, “तुम क्या जानो. माँ क्या होती है ?”

यह सुन कर अविनाश की आँखें फटी की फटी रह गईं, “माँ अपने बच्चे के लिए इतने दुख-दर्द झेलती है ?”

“हाँ, और नहीं तो क्या?” रमा कहने को तो कह गई. मगर, जब अविनाश को उठते हुए देखा तो पूछ बैठी, “अब कहाँ चल दिए ?”

“अपनी बीमार माँ को अनाथालय से लेने,” अविनाश ने कहा और अनाथालय की ओर चल दिया,  “माँ तो माँ होती है. चाहे वह तुम जैसी माँ हो या मेरे जैसे बेटे की माँ?’’

यह सुन कर रमा की आँखों में भी आँसू आ गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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