हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 33 ☆ व्यंग्य संग्रह – कौआ कान ले गया ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक व्यंग्यकार द्वारा स्वयं की पुस्तक कौआ कान ले गया  पर पुस्तक चर्चा। निःसंदेह यह आपके लिए नया अनुभव होना चाहिए। )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 33 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – कौआ कान ले गया   

पुस्तक – कौआ कान ले गया  (व्यंग्य  संग्रह )

व्यंगकार –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

पृष्ठ :  96

मूल्य :  60रु.

प्रकाशक :  सुकीर्ति प्रकाशन

आईएसबीएन :  81-88796-184-5

प्रकाशित :  जनवरी ०१, २००९

पुस्तक क्रं : 7236

मुखपृष्ठ : अजिल्द

 

☆  व्यंग्य–संग्रह  –  कौआ कान ले गया  –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

सारांश:

हम तो बोलेंगे ही, सुनो ना सुनो, यह बयान किसी कवि सम्मेलन पर नहीं है ना ही यह संसद की कार्यवाही का वृतांत है। यह सीधी सी बात है,  कलम के साधकों की जो लगातार लिख रहे हैं, अपना श्रम, समय, शक्ति लगाकर अपने ही व्यय पर किताबों की शक्ल में छापकर ‘सच’ को बाँट रहे हैं। कोई सुने, पढ़े ना पढ़े, लेखक के  अंदर का रचनाकार अभिव्यक्ति को विवश है। इस विवशता में पीड़ा है, अंतर्द्वद है, समाज की विषमता, दोगलेपन पर प्रहार है। परिवेश के अनुभवों से जन्मी यह रचना प्रक्रिया एक निरंतर कर्म है। विवेक जी के व्यंग्य लेख लगातार विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, इंटरनेट पर ब्लाग्स में प्रकाशित होते है, वे कहते हैं, देश विदेश से पाठकों के, समीक्षकों के पत्र प्रतिक्रियायें मिलती हैं, तो लगता है, कोई तो है, जो सुन रहा है। कहीं तो अनुगूंज है। इससे उनके लेखन कर्म को ऊर्जा मिलती है। समय-समय पर छपे अनेक व्यंग लेखों के  संग्रह ‘रामभरोसे’ को व्यापक प्रतिसाद मिला। उसे अखिल भारतीय दिव्य अलंकरण भी मिला। ये लेख कुछ मनोरंजन, कुछ वैचारिक सत्य है। आपको सोचने पर विवश करते हैं।  प्रत्येक व्यंग कही गुदगुदाते हुये शुरू होता है, समाज की कुप्रथाओ पर प्रहार करता है और अंत में एक शिक्षा देते हुये, संभावित समाधान बताते हुये समाप्त होता है।  बहुत सीमित शब्दों में अपनी बात इस सुंदर शैली में कह पाना विवेक जी की विशेषता है।

पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में लेखकीय शोषण, पाठकहीनता, एवं पुस्तकों की बिक्री की जो वर्तमान स्थितियां है, वे हम सबसे छिपी नहीं है, पर समय रचनाकारों के इस सारस्वत यज्ञ का मूल्यांकन करेगा, इसी आशा के साथ, कोई ४५ व्यंग लेखो का यह संग्रह पाठक को बांधे रखता है।  दैनंदनी जीवन की वे अनेक विसंगतियां जिन्हें देखकर भी हम अनदेखा कर देते हैं, विवेक जी की नजरो से बच नही पाई हैं, उनका इस धर्म में दीक्षित होना सुखद है।  पुस्तक जितनी बार पढ़ी जावे नये सिरे से आनंद देती।

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 43 – लघुकथा – विलुप्त ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक और बाल मन की उत्सुकता, भोलापन एवं  मनोविज्ञान पर आधारित  लघुकथा  “ विलुप्त ।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में हमें विचार करने हेतु बाध्य कराती है । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 43 ☆

☆ लघुकथा  – विलुप्त

आठ बरस की अवनी लगातार कई महीनों से निर्भया केस के बारे में पेपर में देख और पढ़ रही थी। मम्मी को भी टेलीविजन और पड़ोस की वकील आंटी के साथ चर्चा भी उसी के बारे में करते हुए सुनती थी। अवनी ज्यादा तो समझ नहीं सकी। पर जब भी मम्मी निर्भया का नाम लेती तो ‘दरिंदे जानवर’ कहती थी।

उसके बाल मन पर डायनासोर की छवि उभर कर आती थी, क्योंकि एक बार स्कूल में टीचर ने बताया था कि डायनासोर की उत्पत्ति संसार को विनाश कर सकती थी। अच्छा हुआ दरिन्दे डायनासोर जानवर की प्रजाति ही ईश्वर ने विलुप्त कर दी।

एक दिन वह गार्डन में मम्मी के साथ खेल रही थी। अचानक पड़ोस की सभी आंटी और वकील आंटी भी वहां पर आए, और निर्भया के बारे में बात होने लगी। फिर मम्मी ने वही शब्द बोली ‘निर्भया के दरिंदे जानवर’ !!!! बस अवनी थोड़ी देर बच्चों के साथ खेली, परंतु उसका खेल में मन नहीं लगा दौड़कर मम्मी के पास आकर बोली… “मम्मी क्या यह निर्भया के दरिंदों वाले जानवर की प्रजाति विलुप्त नहीं हो सकती। जिससे फिर कोई निर्भया नहीं बन पाए?” सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, परंतु अवनी को क्या समझाते?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 45☆ आपण सोबती ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामायिक भावप्रवण कविता  “आपण सोबती।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 45 ☆

☆ आपण सोबती☆

 

मूर्ख नाही आम्ही कसे लावणार दिवे

शतकोटी मूर्ख येथे साधतील दुवे

 

चार शहाणे बोलती येथे रोखठोक

घेती स्वतःचेच स्वतः ठेचून हे नाक

 

चंद्र नभातून पाही धर्तीचे अंगण

नऊ मिनिटांत उभे केले तारांगण

 

काय लावतात येथे लोक हे तर्कट

काही मशाली घेऊन निघाले मर्कट

 

कुठे पहातो कोरोना धर्म आणि जात

मुस्लिमाचे शव जळे हिंदू स्मशानात

 

उगा उन्मादाने देह करू नका माती

जगी हजारो देहाच्या विझल्यात वाती

 

काळ निघून जाईल काळाच्या सांगाती

काल होतो तसे राहू आपण सोबती

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – कोरोनाचा पोवाडा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी  की कोरोना विषाणु  पर  एक समसामयिक रचना  “कोरोनाचा पोवाडा ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे ☆

☆ कोरोनाचा पोवाडा ☆ 

 

अहो पहा भय़ंकर हा कोरोना !

याने जगाची केली कशी दैना !

म्हणे चीनने पाठवला नमुना !!१!!

 

कोरोनाचा विषाणु जबरदस्त!

वरुन काटेदार आतून चुस्त !

जाऊन बसतो आधी घशात !

तिथून घुसतो मग फुफ्फुसात !

नंतर घालतो धिंगाणा शरीरात !!२!

 

सोडले नाही पंतप्रधान ब्रिटन!

सौदीच्या दीडशे राजपुत्रांना  लागण !

गावेच्या गावे झाली बंदीवान !

असा हा कोरोना आहे भयाण!

रहा घरात शासनाचं आवाहन!

आम्ही सर्व घरातच राहून !

करु यशस्वी लोकडाऊन !!३!!

 

आम्ही आहोत सारे बलवान !

कोरोनाशी दोन हात करुन !

देऊ त्याला लौकर घालवून !

देऊ त्याला लौकर घालवून …

नक्की घालवून..

होऽऽऽ जी..जी…जी…जी.जी.ऽऽऽ..

 

©️®️ उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-१४-४-२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ ☆ डॉ निधि जैन

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆

☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ☆

 

जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ,

न किसी के घर जाओ, ना किसी को घर बुलाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

न दोस्तों से मिलो, पर दोस्ती निभाओ, दूर रह कर प्यार को  निभाओ,  किसी के घर मत  जाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

मौसम की मार हो या बारिश की फुहार , धूप या सूरज का खुमार, जहाँ हो,  जैसे हो, वहाँ, वैसे ही खुशी मनाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

कल मिलना आज रूठना, कल रूठना आज मिलना,

तुमसे मिलना ज़रूरी नहीं, तुम्हारा होना ज़रूरी है, फिर से तुम मिल जाओ, कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

रिश्तों पर संवेदनशील हो जाओ, सबकी जान की कीमत अपने जैसे  लगाओ l

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

भगवान के मंदिर के दरवाजे बंद हो गए, गरीबों  में  भगवान का रूप देख आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

गुरुद्वारों के लंगर उठ जायें , भूखों का पेट भरने के लिए दान दे आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आँखे बेहाल थमीं हुई सी ज़िन्दगी,  कोरोना का कहर चारों ओर,  जानें  बेहाल हैं कहती हैं  बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आसमान मे पंछी उड़ते, इंसानो की आजादी का सवाल है, जानवरों और प्रकृति के प्रकोप को समझो ओर समझाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

सबके  रक्त का रंग एक है, मौत का डर भी सबका एक है, भेद भाव  छोड़ कर मानवता को बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42 ☆ कितना बदल गया इंसान ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  दो जमानों को जोड़ती और विश्लेषित करती एक  लघुकथा   “कितना बदल गया इंसान” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की  रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42

☆ लघुकथा – कितना बदल गया इंसान ☆ 

गांव का खपरैल स्कूल है ,सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं।  फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं,  फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।  मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं, फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं।  हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं ,पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना ,  सो हमने कह दिया  पांच साल………….बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं । दुर्गा पंडित जी ने बोला पांच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे।  फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा  कान पकड़ में नहीं आया।  तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं।  सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया।  पहले दिन स्कूल देर से पहुंचे तो घुटने टिका दिया गया।  सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी, गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी, मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की ओर और हमारी ओर देखा बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा।  अपने आप चली आयी नियमितता, अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा। कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा,  फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए ………

गांव के उसी स्कूल की खबरें अखबारों में अक्सर पढने मिलती हैं कि

“मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया ….. स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया………. स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला”

आज के अखबार में उसी स्कूल की ताजी खबर ये है कि स्कूल के मास्टर ने कोरोना वायरस के कारण बंद स्कूल के क्लासरूम में ग्यारहवीं में पढ़ने वाली छात्रा की इज्जत लूटी और लाॅक डाऊन का उल्लंघन किया…….

अखबार को दोष दें या ऐन वक्त पर कोरोना को दोष दें या अपने आप को दोष दें कि ऐसे समाचार रुचि लेकर हर व्यक्ति क्यों पढ़ता है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 43 – वाचन संस्कृती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपकी एक अत्यंत शिक्षाप्रद एवं प्रेरक कविता ” वाचन संस्कृती”।  आज वास्तविकता यह है  कि वाचन संस्कृति रही ही नहीं । न पहले जैसे पुस्तकालय रहे  न पुस्तकें और न ही पढ़ने वाले।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 43 ☆

☆ वाचन संस्कृती ☆

 

वाचन संस्कृती । बाणा नित्य नेमे । आचरावी प्रेमे । जीवनात ।1।

 

संपन्न जीवना । ज्ञान एक धन । सुसंस्कृत मन । वाचनाने ।2।

 

शब्दांचे भांडार । समृद्धी अपार । चढतसे धार । बुद्धीलागी ।3।

 

मधुमक्षी परी । वेचा ज्ञान बिंदू । जीवनाचा सिंधू । होई पार ।4।

 

अज्ञान अंधारी । लावा ज्ञान ज्योती । वाचन संस्कृती । तरणोपाय ।5।

 

ज्ञानाची संपत्ती । लूटू वारेमाप । चातुर्य अमाप । गवसेल ।6।

 

वाचा आणि वाचा । ध्यानी ठेवा मंत्र । व्यासंगाचे तंत्र । फलदायी ।7।

 

जपा जिवापाड । वाचन संस्कृती । नुरेल विकृती । जीवनात ।8।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ दान : दर्शन और प्रदर्शन (कोरोनावायरस और हम – 7) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – दान : दर्शन और प्रदर्शन  ☆

(कोरोनावायरस और हम, भाग-7)

कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से भारत प्रशासनिक स्तर पर अभूतपूर्व रूप से जूझ रहा है। प्रशासन के साथ-साथ आम आदमी भी अपने स्तर पर अपना योगदान देने का प्रयास कर रहा है। योगदान शब्द के अंतिम दो वर्णो पर विचार करें। ‘दान’अर्थात देने का भाव।

भारतीय संस्कृति में दान का संस्कार आरंभ से रहा है। महर्षि दधीचि, राजा शिवि जैसे दान देने की अनन्य परंपरा के असंख्य वाहक हुए हैं।

हिंदू शास्त्रों ने दान के तीन प्रकार बताये हैं, सात्विक, राजसी और तामसी। इन्हें क्रमशः श्रेष्ठ, मध्यम और अधम भी कहा जाता है। केवल दिखावे या प्रदर्शन मात्र के लिए किया गया दान तामसी होता है। विनिमय की इच्छा से अर्थात बदले में कुछ प्राप्त करने की तृष्णा से किया गया दान राजसी कहलाता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान सात्विक होता है। सात्विक में आदान-प्रदान नहीं होता, किसी भी वस्तु या भाव के बदले में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती।

हमारे पूर्वज कहते थे कि दान देना हो तो इतना गुप्त रखो कि एक हाथ का दिया, दूसरे हाथ को भी मालूम ना चले। आज स्थितियाँ इससे ठीक विपरीत हैं। हम करते हैं तिल भर, दिखाना चाहते हैं ताड़ जैसा।

सनातन दर्शन ने कहा, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, अर्थात स्वयं में अंतर्निहित ब्रह्म को देखो ताकि सूक्ष्म में विराजमान विराट के समक्ष स्थूल की नगण्यता का भान रहे। स्थूल ने स्वार्थ और अहंकार को साथ लिया और ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ को सर्वोच्च घोषित करने की कुचेष्टा करने लगा। ‘सेल्फ’ तक सीमित रहने का स्वार्थ ‘सेल्फी कल्चर’ तक पहुँचा और मनुष्य पूरी तरह ‘सेल्फिश’ होता गया।

लॉकडाउन के समय में प्राय: पढ़ने, सुनने और देखने में आ रहा है कि किसी असहाय को भोजन का पैकेट देते समय भी सेल्फी लेने के अहंकार, प्रदर्शन और पाखंड से व्यक्ति मुक्त  नहीं हो पाता। दानवीरों (!) की ऐसी तस्वीरों से सोशल मीडिया पटा पड़ा है। इसी परिप्रेक्ष्य में एक कथन पढ़ने को मिला,..”अपनी गरीबी के चलते मैं तो आपसे खाने का पैकेट लेने को विवश हूँ  लेकिन आप किस कारण मेरे साथ फोटो खिंचवाने को विवश हैं?”

प्रदर्शन की इस मारक विवशता की तुलना रहीम के दर्शन की अनुकरणीय विवशता से कीजिए। अब्दुलरहीम,अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे परम दानी थे। कहा जाता है कि दान देते समय वे अपनी आँखें सदैव नीची रखते थे। इस कारण अनेक लोग दो या तीन या उससे अधिक बार भी दान ले जाते थे। किसी ने रहीम जी के संज्ञान में इस बात को रखा और आँखें नीचे रखने का कारण भी पूछा। रहीम जी ने उत्तर दिया, “देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन।लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”

विनय से झुके नैनों की जगह अब प्रदर्शन और अहंकार से उठी आँखों ने ले ली है। ये आँखें  वितृष्णा उत्पन्न करती हैं। इनकी दृष्टि दान का वास्तविक अर्थ समझने की क्षमता ही नहीं रखतीं।

दान का अर्थ केवल वित्त का दान नहीं होता। जिसके पास जो हो, वह दे सकता है। दान ज्ञान का, दान सेवा का, दान संपदा का, दान रोटी का, दान धन का, दान परामर्श का, दान मार्गदर्शन का।

दान, मनुष्य जाति का दर्शन है, प्रदर्शन नहीं। मनुष्य को लौटना होगा दान के मूल भाव और सहयोग के स्वभाव पर। वापसी की इस यात्रा में उसे प्रकृति को अपना गुरु बनाना चाहिए।

प्रकृति अपना सब कुछ लुटा रही है, नि:स्वार्थ दान कर रही है। मनुष्य देह प्रकृति के पंचतत्वों से बनी है। यदि प्रकृति ने इन पंचतत्वों का दान नहीं किया होता तो तुम प्रकृति का घटक कैसे बनते?

और वैसे भी है क्या तुम्हारे पास देने जैसा? जो उससे मिला, उसको अर्पित। था भी उसका, है भी उसका। तुम दानदाता कैसे हुए? सत्य तो यह है कि तुम दान के निमित्त हो।

नीति कहती है, जब आपदा हो तो अपना सर्वस्व अर्पित करो। कलयुग में सर्वस्व नहीं, यथाशक्ति तो अर्पित करो। देने के अपने कर्तव्य की पूर्ति करो। कर्तव्य की पूर्ति करना ही धर्म है।

स्मरण रहे, संसार में तुम्हारा जन्म धर्मार्थ हुआ है।… और यह भी स्मरण रहे कि ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’

*’पीएम केअर्स’ में यथाशक्ति दान करें। कोविड-19 से संघर्ष में सहायक बनें।*

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.09 बजे, 11.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 45 ☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है लघुकथा  ‘आचार्य का हृदय-परिवर्तन ’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है जैसे हम भी पूरे कथानक में  कहीं न कहीं मूक दर्शक बने खड़े हैं। ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 45 ☆

☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆

 

हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान, भाषा-शास्त्र में डी.लिट.,आचार्य रसेन्द्र झा मेरे शहर में एक शोध-छात्र का ‘वायवा’ लेने पधारे थे। पता चला कि वे मेरे गुरू डा. प्रसाद के घर रुके थे जो उस छात्र के ‘गाइड’ थे। उनकी विद्वत्ता की चर्चा से अभिभूत मैं उनके दर्शनार्थ सबेरे सबेरे डा. प्रसाद के घर पहुँचा। देखा तो आचार्य जी गुरूजी के साथ बैठक में नाश्ता कर रहे थे।

मैं आचार्य जी और गुरूजी को प्रणाम करके बैठ गया। गुरूजी ने आचार्य जी को मेरा परिचय दिया।कहा, ‘यह मेरा शिष्य है। बहुत कुशाग्र है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है।’

आचार्य जी ने उदासीनता से सिर हिलाया, कहा, ‘अच्छा, अच्छा।’

मैंने कहा, ‘आचार्य जी, आपकी विद्वत्ता की चर्चा बहुत सुनी थी। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी, इसी लिए चला आया।’

आचार्य जी ने जमुहाई ली,फिर कहा, ‘ठीक है।’

इसके बाद वे डा. प्रसाद की तरफ मुड़कर अपने दिन के कार्यक्रम की चर्चा करने लगे। मेरी उपस्थिति की तरफ से वे जैसे बिलकुल उदासीन हो गये। मुझे बैठे बैठे संकोच का अनुभव होने लगा।

बात चलते चलते उनके यूनिवर्सिटी के टी.ए.बिल पर आ गयी।

डा. प्रसाद ने मेरी तरफ उँगली उठा दी। कहा, ‘यह सब काम देवेन्द्र करेगा। यह टी.ए.बिल निकलवाने से लेकर सभी कामों में निष्णात है। आप देखिएगा कि आपका भुगतान कराने से लेकर आपको ट्रेन में बैठाने तक का काम किस कुशलता से करता है।’

आचार्य जी का मुख मेरी तरफ घूम गया। अब उनके चेहरे पर मेरे लिए असीम प्रेम का भाव था। उदासीनता और अजनबीपन के सारे पर्दे एक क्षण में गिर गये थे और वे बड़ी आत्मीयता से मेरी तरफ देख रहे थे।

उन्होंने अपनी दाहिनी भुजा मेरी ओर उठायी और प्रेमसिक्त स्वर में कहा, ‘अरे वाह! इतनी दूर क्यों बैठे हो बेटे? इधर आकर मेरी बगल में बैठो।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 29 – दाना – पानी ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘दाना – पानी। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 29 – विशाखा की नज़र से

☆ दाना – पानी ☆

नित रखती हूँ परिंदों के लिए दाना – पानी

वो करते हैं मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं रखती हूँ दाना

 

निकलती हूँ घर से , जुटाने दाना – पानी

दिखतें है कई बाजनुमा शिकारी

वो भी रखतें है मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं बन जाती हूँ दाना और

लोलुप जीभ का पानी

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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