(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की चौथी कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 4 ☆
☆ मैराथन ☆
मैं यह काम करना चाहता था पर उसने अड़ंगा लगा दिया।…मैं वह काम करना चाहती थी पर इसने टांग अड़ा दी।…उसमें है ही क्या, उससे बेहतर तो इसे मैं करता पर मेरी स्थितियों के चलते..!! ….अलां ने मेरे खिलाफ ये किया, फलां ने मेरे विरोध में यह किया…।
स्वयं को अधिक सक्षम, अधिक स्पर्द्धात्मक बनानेे का कोई प्रयास न करना, आत्मावलोकन न कर व्यक्तियों या स्थितियों को दोष देना, हताशाग्रस्त जीवन जीनेवालों से भरी पड़ी है दुनिया।
वस्तुतः जीवन मैराथन है। अपनी दौड़ खुद लगानी होती है। रास्ते, आयोजक, प्रतिभागी, मौसम किसी को भी दोष देकर पूरी नहीं होती मैराथन।
कवि निदा फाज़ली ने लिखा है,‘रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल/ चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल।’
अधिकांश लोग जीवन भर ये कील नहीं निकाल पाते। कील की चुभन पीड़ा देती है। दौड़ना तो दूर, चलना भी दूभर हो जाता है।
जिस किसीने यह कील निकाल ली, वह दौड़ने लगा। हार-जीत का निर्णय तो रेफरी करेगा पर दौड़ने से ऊर्जा का प्रवाह तो शुरू हुआ।
प्रवाह का आनंद लेने के लिए इसे पढ़ने या सुनने भर से कुछ नहीं होगा। इसे अपनाना होगा।
उम्मीद करता हूँ अपनी-अपनी चप्पल सबके हाथ में है और कील के निष्कासन की कार्यवाही शुरू हो चुकी है।
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य –“बिना पूँछ का जानवर ” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 7 ☆
☆ व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆
ज्ञानी जी के साथ मैं होटल की बेंच पर बैठा चाय पी रहा था।ज्ञानी जी हमेशा ज्ञान बघारते थे और मैं भक्तिभाव से उनकी बात सुनता था। इस समय उनकी नज़र सामने दीवार पर लगे पोस्टर पर थी। उसमें सुकंठी देवी के गायन की सूचना छपी थी। कार्यक्रम की तिथि आज ही की थी।
ज्ञानी जी ने पोस्टर पढ़कर मुझसे पूछा, ‘शास्त्रीय संगीत समझते हो?’
मैंने हीन भाव से उत्तर दिया, ‘न के बराबर, ज्ञानी जी!’
ज्ञानी जी विद्रूप में ओंठ टेढ़े करके बोले, ‘जानते हो? संगीत और कला के बिना आदमी बिना पूँछ का जानवर होता है!’
मैंने लज्जित होकर दाँत निकाल दिये।
वे बोले, ‘चलो, आज हम तुम्हें संगीत का ज्ञान देंगे। आज तुम इस कार्यक्रम की दो टिकट खरीदो।’
मैं राज़ी हो गया। कार्यक्रम शाम के सात बजे से था। मैं टिकट खरीदकर साढ़े छह बजे ज्ञानी जी के घर पहुँच गया। पता चला वे शौचालय में हैं। पन्द्रह मिनट बाद वे तौलिये से हाथ पोंछते हुए प्रकट हुए। उन्होंने दस मिनट और तैयार होने में लगाये । फिर हम निकल पड़े। रास्ते में भगत के पान के डिब्बे पर ज्ञानी जी रुके। एक पान मुँह में दबाया और चार बँधवा लिये । फिर मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘पैसे चुका दो।’ मैंने चुपचाप पैसे चुका दिये क्योंकि यह सब मेरा संगीत-बोध जागृत करने के लिए किया जा रहा था।
ज्ञानी जी की ढीलढाल का नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग हॉल में घुसे तब सुकंठी देवी का गायन शुरू हो चुका था। लोगों के घुटनों से टकराते हुए हम लोग अपनी सीटों पर पहुँच गये।
बैठते ही ज्ञानी जी बोले, ‘वाह, भीम पलासी राग चल रहा है।’
उनकी बगल में बैठा चश्मेवाला आदमी तेज़ी से घूमकर बोला, ‘जी नहीं, केदार है।’
ज्ञानी जी का मुँह उतर गया। वे मेरी तरफ झुककर धीरे से बोले, ‘भीमपलासी को केदार भी कहते हैं।’
मैंने सिर हिला दिया।
जब सुकंठी देवी ने दूसरा आलाप लिया तब ज्ञानी जी बगल वाले आदमी को बचाकर मुझसे धीरे से बोले, ‘मालकोश राग का आलाप है।’
तभी आलाप खत्म करके सुकंठी देवी बोलीं, ‘अभी मैं आपको राग जैजैवन्ती सुना रही थी।’
ज्ञानी जी मेरी तरफ झुककर बोले, ‘दोनों में कोई खास फर्क नहीं है।’
गायन शुरू हो गया और ज्ञानी जी सिर हिला हिलाकर अपनी कुर्सी के हत्थे पर ताल देने लगे। तभी बगल वाला आदमी गुस्से में बोला, ‘गलत ताल मत दीजिए।’
ज्ञानी जी सिकुड़ गये। फिर मेरी तरफ झुककर बोले, ‘यह भी बिना पूँछ का जानवर है। कुछ जानता नहीं इसलिए मुझसे लड़ता है।’
मैंने फिर सिर हिलाया।
अब ज्ञानी जी शान्त होकर बैठे थे। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उनकी आँखें बन्द हो गयीं थीं और सिर छाती की तरफ झुक गया था। दो मिनट बाद उन्होंने आँखें खोलीं और मुझे अपनी ओर ताकता पाकर बोले, ‘यह मत समझना कि मैं सो रहा था। जब आदमी संगीत में पूरा डूब जाता है तो उसे अपनी खबर नहीं रहती।’
मैंने सिर हिलाया।
थोड़ी देर बाद पुनः उनकी आँखें बन्द हो गयीं और सिर छाती से टिक गया। इस बार उनकी नाक से बाकायदा शास्त्रीय संगीत के स्वर निकलने लगे। चश्मे वाला आदमी आग्नेय नेत्रों से उनकी तरफ देखने लगा। मैंने धीरे से उन्हें हिलाया। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक नेत्र खोला। मैंने कहा, ‘आप तो खर्राटे भर रहे हैं।’
वे हँसकर बोले, ‘यही तो तुम्हारी नासमझी है। जब मन संगीत से भर जाता है तो संगीत के समान स्वर शरीर से निकलने लगते हैं। जो तुम सुन रहे थे वह खर्राटे नहीं, सुकंठी देवी के संगीत की प्रतिध्वनि थी।’
मैं चुप हो गया।
थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वे सो रहे थे और उनके ओठों के किनारे से लार बहकर उनके कुर्ते की सिंचाई कर रही थी। मैंने उन्हें फिर जगाया, कहा, ‘ज्ञानी जी! आपके मुँह से लार बह रही है।’
ज्ञानी जी के माथे पर बल पड़ गये । वे बोले, ‘नादान! जिसे तू लार समझता है वह वास्तव में संगीत-रस है। जब मन संगीत-रस से सराबोर हो जाता है तो थोड़ा-बहुत रस इसी तरह उबल कर बाहर निकल जाता है।’
मैं फिर चुप्पी साध गया।
और थोड़ी देर में कार्यक्रम समाप्त हो गया। सब लोग उठ-उठ कर बाहर जाने लगे। मैंने धीरे से उन्हें एक-दो बार उठाया लेकिन वे गहरी नींद में ग़र्क थे। आख़िरकार जब उन्हें ज़ोर से हिलाया तब उन्होंने नेत्र खोले।
अपने आसपास देखकर वे उठ खड़े हुए। अंगड़ाई लेकर बोले, ‘तो देखा श्रीमान, यही शास्त्रीय संगीत का रस,यानी उसका आनन्द होता है। इसी तरह मेरे साथ दो-चार बार सुनोगे तो बिना पूँछ के जानवर से इंसान बन जाओगे।’
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की ग्यारहवीं कड़ी स्पर्शगंध…। सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं। आज पढ़िये स्पर्शगंध… एक वार्तालाप, संभवतः स्वयं से? इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )
साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #11
☆ स्पर्शगंध… ☆
जाणिवेत पुरून उरतो तो…
कळतंय का, मी काय म्हणत्ये ते?
असाच आहेस, सगळं माझ्याकडून ऐकायचं असतं तुला, हो ना!
पण खरं सांग, हा अनुभव तुलाही आलाय ना !
म्हणजे बघ ना, फुलं हातात घेतली की त्यांचा मुलायम स्पर्श गुदगुल्या करतो, चेहऱ्यावर आपोआप हास्य खुलतं, आणि ह्याचा स्पर्शाचा सुगंध अंगभर पसरतो, दरवळतो… तो परिमळ अवतीभोवती प्रसन्नता ठेवून जातो…
एखाद्या तान्ह्याला उचलून घे, मग बघ काय होतं ते… इंग्लिशमध्ये bundle of joy म्हणतात ते उगीच नाही… ते गोंडस रूप डोळ्यात भरून घ्यावं, त्याच्या इवल्या इवल्या बोटांचा स्पर्श हृदयाचा ठाव घेतो… त्याला खाली ठेवलं तरी निरागसतेचा गंध वातावरण उत्साही करतो… एक निर्मळ आनंद देऊन जातो… नवनिर्मितीचा ध्यास पूर्ण करतो, नवीन नात्यांची वीण गुंफू लागतो…
शाळा सुरू व्हायच्या आधी नवीन पाटी, पुस्तकं, वह्या, दप्तर ह्यांच्या स्पर्शाने जीवनाची दिशा ठरवली जाते, आणि ज्ञानरुपी सुगंधाने आयुष्य समृद्ध होते… हा स्पर्शगंध आयुष्य घडवतो, माणूस घडवतो…
बरसणारी प्रत्येक सर मातीच्या कणाकणाला स्पर्शून जाते, आणि सृजनातल्या तृप्ततेचा गंध आसमंताला गवसणी घालतो…
असाच असतो हा स्पर्शगंध… हवाहवासा… जसा तुझ्या मिठीतील स्पर्शातून भावनांना मोकळं करून जबाबदारीच्या गंधातून आपलं अस्तित्व टिकवणारा…
क्षितिजाला नजरेनेच स्पर्शून स्वप्नांचा दरवळ आयुष्य जगायला शिकवतो…
सूर्योदय, सूर्यास्त ह्यांची बात काही वेगळीच आहे… जन्म ह्या जाणिवेला क्षणोक्षणी फुलवत, विधात्याच्या परीस स्पर्शाने, आपल्या पावलांचे ठसे मागे ठेवत अनुभवाचा गंध मृत्यूला सामोरं जायची शक्ती देणारा असतो…
कळतंय का तुला?
आता तू काय म्हणणार आहेस हे तुझ्या स्मित हास्यातून कळतंय बरं…
माझ्यावरील प्रेमामुळे तू हे बोलतोस, पण तुझा स्पर्शगंध अंग अंग मोहरून टाकतो, जो आर्ततेच्या स्पर्शातून पूर्णत्वाच्या गंधाकडे नेतो… तुझ्या विचारांचा स्पर्श जेव्हा शब्दांमधून गंधाळतो, तेव्हा समर्पणाची गझल बनते, जसा तुझ्या ओठांचा स्पर्श होताच मुरली संगीत सुगंधाचे वेड लावते…
मग तुझं माझं असं काही उरत नाही, कारण तो स्पर्शगंध तुझ्या माझ्यातील अंतर नष्ट करून सावळ्या रुपात विलीन होतो…
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “स्मृतियाँ/Memories”में उनकी स्मृतियाँ । आज के साप्ताहिक स्तम्भ में प्रस्तुत है एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति “सच्चाई”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #7 ☆
☆ सच्चाई ☆
मै तो उड़ने लगा था झूठे दिखावे की हवा मे
सुना है वो अभी भी सच्चाई की पतंग उड़ाता है ||
जवान हो गयी होगी एक और बेटी, इसीलिए आया होगा
वरना कहीं पैसे वाला भी कभी गरीब के घर जाता है ||
वो परदेश गया तो बस एक थाली लेकर, जिसमें माँ परोसती थी
बहुत पैसे वाला हो गया है, पर सुना है अभी भी उसी थाली मे खाता है ||
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं। आप कविता की विभिन्न विधाओं में दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हमने आपका “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती” शीर्षक से प्रारम्भ
किया है। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की कविता “रेशमी आठवणीं ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -4 ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “सीता ”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 6 ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके “साप्ताहिक स्तम्भ -साहित्य निकुंज”के माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की शिक्षाप्रद लघुकथा “शब्द तुम मीत मेरे”। )
(समाज , संस्कृति, साहित्य में ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की सोशल मीडिया की टेगलाइन “माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे। आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पावसाचे मुक्त चिंतन. . . समाज पारावरून . . . !” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प सहावे #-6 ☆
☆ पावसाचे मुक्त चिंतन. . . समाज पारावरून . . . ! ☆
आला पाऊस पाऊस
तन मन भुलवीत
पानाफुलांचा पिसारा
आनंदाने फुलवीत . . . !
अनादी अनंत काळापासून या पावसाने वेड लावले आहे. संपूर्ण चराचर व्यापून टाकणारा हा पाऊस तन आणि मनावर अधिराज्य गाजवतो. प्रतिक्षा करायला लावणारा हा पाऊस आल्यावर मात्र तनामनावर मोहिनी घालतो.
पावसाची नऊ नक्षत्रे वजा केली तर बाकी शून्य उरते. . . . बिरबलाची ही चातुर्य बुद्धी विचार करण्यासारखी आहे. आपला भारत देश हा शेती प्रधान देश आहे. यामुळे पावसावर आपले सारे भवितव्य अवलंबून आहे. हा पाऊस डोळ्यातले पाणी आनंदाश्रू त परीवर्तित करतो. स्नेह, प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा, माया, ममता सा-या भावनांचा एक थेंब माणसाला माणुसकीचे नाते जोडायला पुरेसा ठरतो.
माणूस जेव्हा एकटा असतो ना तेव्हा अनेक ताणतणाव, चिंता, काळजी, क्लेश, उलट सुलट विचार यांनी स्वतःच वादाच्या भोवऱ्यात अडकतो. प्रश्नांचे आवर्त चक्रीवादळाप्रमाणे मनात घोंघावत असताना कुणीतरी येतो, केलेल्या कामाची पावती देतो, अपयश आले असल्यास धीरान परीस्थिती हाताळण्याचा सल्ला देतो तेव्हा ही व्यक्ती देवदूत वाटते. तिन दिलेला दिलासा मनाला उभारी देतो. मन मोकळे होते. जाणिवा नेणिवांच्या मोकळ्या अवकाशात सृजनशील विचारांची पेरणी आपल्याला आपल्या ध्येयाकडे घेऊन जाते.
समाजपारावर बारमाही बरसणार्या प्रापंचिक तक्रारी या मोसमात दूर होतात. आषाढ महिन्यात पावसाचे आगमन चराचराला चैतन्य बहाल करून जाते. हिरवा शालू धरतीला सुजलाम सुफलाम करून जातो. बळीराजान केलेल्या कष्टाच सार्थक होत. पाण्याने भरलेले ढग असो, किंवा भरून आलेले मन असो बरसून गेल्यावरच बरे वाटते.
गरमागरम चहा, कॉफी, किंवा गरमागरम भजी पावसाळ्यात त्याचा आस्वाद घेण्याची लज्जत अवर्णनीय आहे. पाऊस हा शब्दच मनात चलबिचल सुरू करतो. पावसाळ्यात भिजण्याची मजा आणि पावसाच्या पाण्यात भिजवून ठेवलेला ताणतणाव माणसाला माणूस करतो. स्नेहाचा ओलावा भावभावना सांभाळून एकमेकाच्या काळजात रूजतो आणि सुखसमृद्धीची सुगी आकारास येते.
हा पाऊस खर तर प्रत्येकाच्या जिव्हाळ्याचा विषय. टाळताही येत नाही अन सांगताही येत नाही असा विषय. तरीही हा पाऊस प्रत्येक जण आपापल्या परीने अनुभवीत रहातो. आबाल वृद्धांना आकर्षित करणारा हा पाऊस कवी, कवयित्री चे हळवे व्यासपीठच. मनातल्या भाव भावना शब्दात व्यक्त करताना आठवणींच्या सरी झरू लागतात आणि साहित्य जन्माला येते. सारे शब्दालंकार व नवरस घेऊन शब्द सरी कोसळत असताना माणूस व्यक्त होतो. कलाकार आणि रसिक एकमेकांना भेटण्याचा हा सोहळा आकाश आणि धरतीच्या मिलना इतकाच सुंदर, पवित्र आणि शब्दातीत आहे.
कथा, कादंबरी, कविता, लेख, नाटक यातून बरसणार्या पावसाने शारदीय सारस्वतात अनोखे दालन निर्माण केले आहे. बालकविता पावसाशिवाय अपूर्णच आहेत. पाऊसावर कविता न करणारा कवी, कवयित्री जसे दुर्मीळच तसाच पाऊस न आवडणारी, पावसात न भिजलेली व्यक्ती दुर्मीळच.
सृष्टी चक्रात महत्त्व पूर्ण असलेला हा पाऊस अतीवृष्टी आणि दुष्काळ या दोन्ही रूपातून दर्शन देतो. त्याला हवा तेव्हा येतो. हवा तसा कोसळतो. चराचरात सामावतो. माणसाच्या मनात आणि निसर्गाच्या कणाकणात सामावणारा पाऊस समाज पारावर असाच चघळत रहावा कधी चेष्टेतून, कधी नाष्ट्यातून तर कधी सुजलाम सुफलाम अशा शेतीप्रधान राष्टातून.
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भूखे भजन न होय गोपाला”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆
☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆
शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की विवेचना की जाती है. सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है. जलोटा जी ने भजन के माध्यम से धन, नाम एश्वर्य और जसलीन सहित दो चार और पत्नियो का प्रेम पाकर अंततोगत्वा बिग बास के घर को अपना परम गंतव्य भले ही बनाया है पर इसमें दो राय नही हैं कि उनके स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.
भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना, ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब याद करके आनंद लेना भी भजन का ही एक प्रकार है. भजन का गूढ़ अर्थ होता है, प्रीति पूर्वक सेवा. प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहाँ मन लगाता है.
चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें, भजन दरअसल प्रीति है. प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को ही भजन मानते हैं . चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.
“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है और वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नही की थी, खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब, आत्म सम्मान को त्याग सर झुकाकर हम अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.
गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं, माशूका से एकाकार होने जैसा एटर्नल लव गजल को जन्म देता. कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा शबाब के सैलाब से गुजर रही है.
कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जसलीन तो कोई राधा के चक्कर रुक्मणी में ही उलझ जाता है.
यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि मय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो. वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढूँढकर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.
कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूँढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनों को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है जन्नत की जगह, भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले.
जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये ले अलग होकर बेटा पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं, तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभुति का अभाव. पर यह सत्य जानकर भी अधिक समझ नही पाते।
जो भी हो पर हम आप जो रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं, वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को राम रहीम और आशाराम बना देते है, किसी को जसलीन ले जाते देखते है तो कोई रामरहीम बेटी बोलकर बोटी चबाते मिलता है ।
जनता के लिए “भूखे भजन न होय गोपाला” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है. लेकिन, जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “सिंदूर”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆
☆ सिंदूर ☆
मोहन ने सभी तरह के प्रयास किए, मगर मोहनी उस के जाल में नहीं फंसी.
“आप से दस बार कह दिया कि मैं अपने पति रमण जी के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती हूँ.”
मोहन भी पूरा जिद्दी था. “आप चाहे जो सोचे. मगर एक बार मेरे नाम की ही सही. एक चीज आप को पहनना ही पड़ेगी. हम आप से प्रेम करते है .”
मगर मोहनी ने कभी कोई चीज नहीं ली.
वही मोहन आज उज्जैन से आया था. ” लीजिए रमण जी ! आप ने उज्जैन की प्रसिद्ध चीज – यह सिंदूर मंगाया था.”
“अरे हाँ , मोहन जी लाइए.” कह कर रमण ने सिंदूर अपनी पत्नी मोहनी को पकड़ा दिया.
मोहनी के तन-मन में आग लग गई,” नहीं चाहिए मुझे सिंदूर,” कहते हुए मोहनी चीख उठी और सिंदूर की डिब्बी जोर से एक और फेंक दी.
सिंदूर की डिब्बी सीधे मोहन के शरीर पर गिरी और वे पूरे लाल हो गए. मानो वे मोहनी के क्रोध में नहा गए हों .