मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-4 मान्सून ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश  देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  मानसून ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है एवं इसी संदर्भ में आज प्रस्तुत है  उनकी एक सामयिक रचना “मान्सून।”)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-4 ? 

 

☆ मान्सून  ☆

 

आला आला पावसाळा

कुणी म्हणती मान्सून।

तुझी चाहूल लागता

धरा हसे मनातून  ।।

 

ढग करिता गडगड

स्वैर डुले ताडमाड।

मेघ गर्जना पाहून

सूर्य दडे ढगा आड।

 

असा अवखळ वारा

संगे पावसाच्या धारा।

भूमीदासाला भावला

गंध मातीचा हा न्यारा ।

 

मनोमनी मोहरली

झाडे वेली तरारली।

देई पिलांना ग उब

माता जरी शहारली।

 

चाटे वासरांना गाय

शोधी तान्हुलाही माय।

खेळगडी चिंब न्हाती

नसे पावसाचे भय।

 

तृषा धरेची शमता

शालू पाचूचा शोभला।

दान मोत्याचे लाभेल

बळीराजा संतोषला।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #1 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(हम श्री संजय भारद्वाज जी के हृदय से आभारी हैं  जिन्होने  e-abhivyakti के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के हमारे आग्रह को स्वीकार किया।  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमित छाप छोड़ जाते हैं।

 

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

 

अब हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाचशीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की प्रथम कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

संक्षिप्त परिचय

अध्यक्ष – हिंदी आंदोलन परिवार

सदस्य – हिंदी अध्ययन मंडल, (बोर्ड ऑफ स्टडीज), पुणे विश्वविद्यालय।

संपादक – हम लोग

पूर्व सदस्य – महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

ट्रस्टी – जाणीव वृद्धाश्रम, फुलगाँव, पुणे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 1 ☆

 

बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं, यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेस कैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #4 – मज़ाक ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “मज़ाक ” जो निश्चित ही आपको अपने आस पास के किसी मानव चरित्र से रूबरू कराएगी। डॉ परिहार जी के साहित्य के पात्र अक्सर हमारे आस पास से ही होते हैं। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 4 ☆

 

☆ मज़ाक ☆

 

दीपक जी मकान बनवा रहे थे। बीस साल किराये के मकान में रहे। उस मकान की छत टपकती थी। दीवारें बदरंग थीं और फर्श टूटा-फूटा। उसी मकान में दीपक जी ने बीस साल काट दिये। अब बड़ी हसरत से अपना मकान बनवा रहे थे—–सागौन के खिड़की दरवाज़े, फर्श में काले-सफेद पत्थर, बाथरूम और रसोईघर में रंगबिरंगी टाइल्स और दीवारों पर मंहगा चमकदार पेन्ट। दीपक जी एक एक चीज़ को बारीकी से देखते रहते थे। मकान को बनाने में वे अपने मन की सारी भड़ास निकाल देना चाहते थे।

मकान से उन्हें बड़ा मोह हो गया था। अकेले होते तो मुग्ध भाव से दरो-दीवार को निहारते रहते थे। ऐसे ही घंटों गुज़र जाते थे और उन्हें पता नहीं चलता था। अपने इस कृतित्व के बीच खड़े होकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। लगता था जीवन सार्थक हो गया।

मकान को खुद देखकर उनका मन नहीं भरता था। उन्हें लगता था हर परिचित-मित्र को अपना मकान दिखा दें। मुहल्ले में कोई ऐसा नहीं बचा था जिससे उन्होंने मकान का मुआयना न कराया हो।  दूसरे मुहल्लों से रिश्तेदारों-मित्रों के आने पर भी वे पहला काम मकान दिखाने का करते थे।  चाय-पानी बाद में होता था, पहले मकान के दर्शन कराये जाते थे।  मकान दिखाते वक्त दीपक जी मेहमान के मुँह पर टकटकी लगाये, प्रशंसा के शब्दों की प्रतीक्षा करते रहते।  प्रशंसा सुनकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता था।

उनकी दीवानगी का आलम यह था कि किसी के थोड़ा भी परिचित होने पर वे नमस्कार के बाद अपना मकान देखने का आमंत्रण पेश कर देते।  कोई ज़रूरी काम का बहाना करके खिसकने की कोशिश करता तो दीपक जी कहते—-‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है? दो मिनट की तो बात है।’और वे उसे किसी तरह गिरफ्तार करके ले ही जाते।

यह उनका नित्यकर्म बन गया था। दिन में दो चार लोगों को मकान न दिखायें तो उन्हें कुछ कमी महसूस होती रहती थी।  सड़क से किसी न किसी को पकड़ कर वे अपना अनुष्ठान पूरा कर ही लिया करते थे।

एक दिन दुर्भाग्य से मकान दिखाने के लिए दीपक जी को कोई नहीं मिला। सड़क के किनारे भी बड़ी देर तक खड़े रहे, लेकिन कोई परिचित नहीं टकराया।  उदास मन से दीपक जी लौट आये।  बड़ा खालीपन महसूस हो रहा था।

शाम हो गयी थी।  अब किसी के आने की उम्मीद नहीं थी।  निराशा में दीपक जी ने इधर उधर देखा।  सामने एक मकान अभी बनना शुरू ही हुआ था।  उसका चौकीदार रोटी सेंकने के लिए लकड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर रहा था।

दीपक जी ने इशारे से उसे बुलाया। पूछा, ‘हमारा मकान देखा है?’

वह विनीत भाव से बोला, ‘नहीं देखा, साहब।’

दीपक जी ने पूछा, ‘कहाँ के हो?’

वह बोला, ‘इलाहाबाद के हैं साहब।’

दीपक जी ने कहा, ‘वहाँ तुम्हारा मकान होगा।’

चौकीदार बोला, ‘एक झोपड़ी थी साहब।  नगर निगम ने गिरा दी।  चार बार बनी, चार बार गिरी।  अब बाल-बच्चों को लेकर भटक रहे हैं।’

दीपक जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी।  बोले, ‘आओ तुम्हें मकान दिखायें।’

वे उसे भीतर ले गये। फर्श के खूबसूरत पत्थर, किचिन की टाइलें, पेन्ट की चमक, दरवाज़ों का पॉलिश, रोशनी की चौकस व्यवस्था—-सब उसे दिखाया।  वह मुँह बाये ‘वाह साहब’,  ‘बहुत अच्छा साहब’ कहता रहा।

संतुष्ट होकर दीपक जी बाहर निकले।  चौकीदार से बोले, ‘तुम अच्छे आदमी हो।  बीच बीच में आकर हमारा मकान देख जाया करो।  ये दो रुपये रख लो।  सब्जी-भाजी के काम आ जाएंगे।’

चौकीदार उन्हें धन्यवाद देकर अपनी उस अस्थायी कोठरी की तरफ बढ़ गया जहाँ बैठा उसका परिवार इस सारे नाटक को कौतूहल से देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #8 – नातं .…. ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  आठवीं कड़ी नातं… । जीवन में रिश्ते और रिश्तों पर आधारित दिवसों को मनाना रिश्तों को पुनर्जीवित करने जैसा है।  श्री आरूशी जी का यह आलेख मानवीय रिश्तों के अतिरिक्त ईश्वर  एवं  प्रकृति के रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ता है। इस शृंखला की  कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी  – #8  ? 

 

☆ नातं…   ☆

 

जे नातं माझ्या चेहऱ्यावर हसू आणतं, ते हृदयस्थ आहे !

पाडवा असला की नवऱ्याला ओवळायचं… आज भाऊबीज म्हणजे भावाला ओवाळायचं… मातृदिन, पितृ दिन, मैत्री दिन अशा वेगवेगळ्या दिवसाचं औचित्य साधून आपल्या आयुष्यातील वेगवेगळ्या नात्याचं स्मरण करतो… हे असे दिवस साजरे केलं ना की मला खूप आनंद मिळतो… हा उत्सव खूप काही देऊन जातो… एक तर ही नाती rejuvenate होतात असं मला नेहमी वाटतं आणि त्या नात्यातील खोली कळते, वीण अजून घट्ट होते…

काही नाती खूप वेगळी असतात… कुठल्याही व्याख्येत बसत नाहीत… किंवा त्यांना कुठलंही नाव देता येत नाहीत… मग अशी नाती खरंच टिकतात का? तर हो टिकतात… नक्कीच… फक्त ह्यात कधी दिखावा नसतो, कारण त्याची गरज नसते… ही अंतरबाह्य दैवी असतात… आजही काही जणांचा आधार फक्त त्यांच्या स्मरणाने देखील बळ देतो…

ही नाती फक्त दोन व्यक्तींमध्येच असतात असं नाही… येतंय ना लक्षात मी काय सांगायचा प्रयत्न करतीये ते ! म्हणजे कसं आहे माहित्ये का?

समुद्र किनारी गेले की तो समुद्र, त्या लाटा आणि तो सूर्य माझं आयुष्य परिपूर्ण करतात ही भावना खूप सुखावह वाटते… संध्याकाळी देवापाशी दिवा लावला की त्या तेजाबरोबर मिळणारा लख्ख आधार, जणू त्या नात्याचं अस्तित्व प्रकाशमान करतो…. किंवा रात्रीची शाल पांघरून जेव्हा आकाशातील चांदण्या प्रसन्नतेची उधळण करतात, तेव्हा आकाशाशी असलेलं मायेची पाखरण करणारं हे नातं वात्सल्यपूर्ण वाटतं…

ह्या नात्याला नाव द्यायची कधी गरज पडलीच नाही… आणि तसा कधी प्रयत्नही केला नाही… ह्यातच त्या नात्याचं यश दडलेलं आहे, हो ना!

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #4 – चुनाव ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक और संस्मरण “चुनाव”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #4 ☆

 

चुनाव

 

मैंने कुछ महीने नैनीताल में भारत सरकार की एक परियोजना में उत्तराखंड सरकार के साथ काम किया था । सर्दी के मौसम में नैनीताल में रहना अपने आप में एक चुनौती है । और जिस साल मैं नैनीताल में रहता था उस साल बर्फ़बारी ने पिछले कई सालो का रिकॉर्ड तोड़ा था । प्रस्ताव पत्र मिलने के बाद मै नैनीताल नगरपालिका मे पहुँचा  क्योंकि प्रस्ताव पत्र मे मेरी रिपोर्टिंग नगरपालिका नैनीताल ही लिखी थी।  मुझे सूचना प्रौद्योगिकी अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया था ।

मेरे रिपोर्टिंग बॉस नगरपालिका नैनीताल के अधिशासी अधिकारी थे।  जैसे ही मैं सबसे पहली बार उनसे मिलने गया उन्होंने कहा “आशीष जी अभी कल से आदर्श आचार सहिंता लग रही है और चुनावों तक कोई काम नहीं होगा आप सोच लीजिए या तो आपको आज से ही संबद्ध होना होगा या फिर करीब 1 महीना इन्तजार करना होगा । मैंने बिना दूबारा सोचे बोला ‘सर मैं आज से ही संबद्ध हो रहा हूँ”।

अगले दिन ही मुझे लिखित सूचना दे दी गयी की मेरी  नियुक्ति चुनावों तक वीडियो निगरानी अधिकारी के तौर पर कर दी गयी है और मुझे एक बहुत मोटा आदर्श आचार सहिंता का दस्तावेज़ दे दिया गया पढ़ने की लिए । उस दस्तावेज़ मे चुनाव के प्रचार के समय विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा पालन किये जाने वाले नियम लिखे थे।  जैसे प्रचार रैली मे कितने वाहन होने चाहिए, भाषण की भाषा क्या होनी चाहिए आदि आदि । मुझे एक डिजिटल कैमरा दिया गया था और मेरा ये काम था की जहाँ भी चुनाव प्रचार हो उसका मुझे वीडियो बनाना होता था और उस वीडियो से एक CD बना कर हर शाम 5 बजे DM ऑफिस भेजना होता था । वहाँ उस वीडियो की जाँच होती थी कि  उस वीडियो मे किसी राजनीतिक दल ने आदर्श आचार सहिंता का कोई नियम तो नहीं तोड़ा, और अगर तोड़ा हो तो फिर उस दल के ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई होती थी । अगर उलंघन बड़ा हो तो उस दल का टिकट भी रद्द हो सकता था । ऐसे ही एक सुबह सर का फ़ोन आया “अरे आशीष जी जल्दी मल्लीताल मे बैंक के पास कैमरा लेकर आइये BJP की रैली आ रही है हमे वो कवर करना है”।  6 January 2012 की सुबह थी नैनीताल मे बहुत ज्यादा बर्फ़बारी हुई थी।  सब तरफ सफ़ेद ही सफ़ेद लग रहा था। मैं और एक हमारे नगरपालिका के साथी जा कर मल्लीताल मे बने सार्वजानिक शौचालय के ऊपर खड़े हो गए वहाँ से दूर तक सड़क दिखाई दे रही थी अचनाक BJP की रैली आनी शुरू हो गयी मैं शौचालय के ऊपर सफ़ेद बर्फ़ पर खड़ा हुआ वीडियो से रैली कवर कर रहा था।

अचानक सर की आवाज़ आयी “आशीष जी जल्दी आईये गाड़ी मे बैठये आधी से ज्यादा रैली निकल चुकी है अब हम आगे तल्लीताल से रैली कवर करेंगे”।  मैंने जैसे ही चलने के लिए कदम बढ़ाया तुरंत मेरा पैर बर्फ़ पर फिसल गया और मैं बर्फ़ पर एक तरफ गिर पड़ा।  कैमरा दूसरी तरफ गिरा पड़ा था । सर चिल्ला रहे थे “आशीष जी आशीष जी”।  तभी हमारे नगरपालिका के साथी बोले ‘सर आशीष जी तो बर्फ़ मे गिरे पड़े है”। उस चुनाव की 1 महीने मे लगी मेरी ड्यूटी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया भौतिक रूप से भी वो समय बड़ा चुनौतीपूर्ण था ।

एक दिन शाम को पता चला की अगले दिन मुझे और हमारे 1 नगरपालिका के साथी को बेताल घाट जाना है क्योकि वहाँ BJP का कोई बड़ा नेता आने वाला था । बेताल घाट एक दुर्लभ जगह थी।  वहाँ जाने का रास्ता भी अच्छा नहीं था और ना ही वहाँ तक जाने के लिए बहुत ज्यादा साधन उपलब्ध थे।  अगले दिन सुबह 6:00 बजे ही हम बेताल घाट के लिए निकल गए।  1 बस और दो ट्रैकर करके हम लोग बेताल घाट पहुंचे।  वहाँ पूरे दिन बना खाये पिए BJP के नेता के आने का इन्तजार करते रहे पर वो नहीं आया शाम को वापस आने मे भी देर हो गयी और मैं अँधेरे मे नैनीताल पहुंचा । क्योकि सर्दियों का समय था इसलिए सब होटल भी बंद थे मैं पूरे दिन का थका हुआ और भूखा करीब रात्रि के 9:30 बजे अपने कमरे मे आकर सो गया मेरी हालत काफी ख़राब थी  । मेरी आँख लगी ही थी की सर का फ़ोन आ गया वो बोले “अरे आशीष जी जल्दी ऑफिस के पास आईये अभी खबर मिली है की भवाली मे एक राजनीतिक दल वोट पाने के लिए लोगो में शराब बँटवा रहा है।  जल्दी आईये गाड़ी तैयार है और मैं गाड़ी मे ही बैठा हूँ”।  मैंने कहा “सर इस समय रात के साढ़े दस बजे” तो वो बोले “हाँ जल्दी आ जाइये।” क्या करते साहब जाना पड़ा । हमने पूरी भवाली और आसपास का क्षेत्र ढूंढा पर कही कुछ भी नहीं मिला । मैं रात को करीब एक बजे कमरे में आकर सोया ।

एक दिन हमारी ड्यूटी कुछ पुलिस के लोगो के साथ भवाली से आगे अल्मोड़ा सड़क पर अल्मोड़ा की ओर जाने वाले वाहनों की जाँच और उनका वीडियो बनाने मे लगा दी गयी।  हमे ये देखना था कि कोई गाड़ी वाला चुनाव मे उपयोग होने वाली कोई अवैध सामग्री लेकर तो नहीं जा रहा है । एक आदमी बहुत विलासिता पूर्ण गाड़ी मे आया और जब हमने उसकी गाड़ी रुकवाई तो वो बिदक गया।  अपनी कार की जाँच करवाने को राज़ी नहीं हो रहा था और बोल रहा था “आप लोग जानते नहीं मैं कौन हूँ ?” हमारे साहब ने कहा  “आप कोई भी हो हम अपना काम तो करेंगे ही हमने तो मुख्यमंत्री साहब की भी गाड़ी जाँची है”।  फिर उसने गाड़ी की जाँच करवा ली ।

चुनाव मे लगी मेरी एक महीने की ड्यूटी मे मुझे बहुत मजा आया । पर दो बातो पर मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था।  पहली कि जितना आंतरिक बल मैंने इस दौरान दिखाया क्या उतना आंतरिक बल मेरे अंदर है ? और दूसरी मुझे तो सूचना प्रौद्योगिकी अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया था ।

 

© आशीष कुमार  

 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती ☆ कोरडा डोह ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर

(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपने कविता के साप्ताहिक स्तम्भ के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया, इसके लिए हम हृदय से आपके आभारी हैं। हम आपका  “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना की कवितायें “ शीर्षक से प्रारम्भ कर रहे हैं। वर्षा ऋतु ने हमारे द्वार पर दस्तक दी है।  सुश्री स्वप्ना जी के ही शब्दों में  “पावसाळ्याची सुरुवात आहे.. आता सगळ्या कवींचे, लेखकांचे मन जागे होते लिखाणासाठी .. म्हणून ह्या वेळेसचे साहित्य “ ।  इस शृंखला में  प्रथम पाँच कवितायें वर्षा ऋतु पर आधारित हैं जो आप प्रत्येक शनिवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की हायकू शैली में कविता “कोरडा डोह”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -1 ☆ 

 

☆ हायकू शीर्षक : ” कोरडा डोह ” (७ रचना) ☆ 

 

उन्हाचा दाह

विराटच जंगले

डोळा भासले              १

 

सर्वत्र दिसे

साम्राज्य ओसाडाचे

हो निराशेचे                २

 

आपसुकच

भेगा पडे भुईला

घोर जीवाला               ३

 

कठिण किती

दुष्काळग्रस्त स्थिती

वाटते भीती                 ४

 

कोरडा डोह

यक्षप्रश्न केवढा

आपत्ती वेढा                 ५

 

अगणितच

पाण्याविना यातना

हो सोसवेना                 ६

 

कोरहा डोह

भुईवर अप्रुप

वाटतो मोह                  ७

 

© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #3 ☆ कुछ नहीं बदला ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।   साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “कुछ नहीं बदला ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # ☆

 

☆ कुछ नहीं बदला ☆

 

दशहरे के पर्व पर

जला दिया गया रावण

हर वर्ष की भांति

परंतु कहां मिट पाई

आम जन की भ्रांति

क्या अब नहीं होंगे

अपहरण के हादसे

नहीं लूटी जाएगी चौराहे पर

किसी मासूम की अस्मत

न ही दांव पर लगाई जाएगी

किसी द्रौपदी की इज़्ज़त

शतरंज की बिसात पर

 

रावण लंका में

सिर्फ़ एक ही था…

परंतु अब तो हर घर में

गली-गली में,चप्पे-चप्पे पर

काबिज़ हैं अनगिनत

कार्यस्थल हों या शिक्षा मंदिर

नहीं उसके प्रभाव से वंचित

 

पति, भाई, पिता के

सुरक्षा दायरे में

मां के आंचल के साये में

यहां तक कि मां के भ्रूण में भी

वह पूर्णत: असुरक्षित

 

पति का घर

जिसे वह सहेजती

सजाती, संवारती

वहां भी समझी जाती वह

आजीवन अजनबी

सदैव परायी

दहशत से जीती

और मरणोपरांत भी

उस घर का

दो गज़ कफ़न

नहीं उसे मयस्सर

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #1 रमा बाई ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

 

(हम डॉ भावना शुक्ल जी  के हृदय  से आभारी हैं जिन्होने “साहित्य निकुंज” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ के आग्रह को स्वीकार किया। आपकी  साहित्य की लगभग सभी विधाओं में  रचनाएँ प्रकाशित/प्रसारित हुई हैं एवं आप कई  पुरस्कारों /अलंकरणों से  पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया  >> डॉ. भावना शुक्ल जी << पर क्लिक करने कष्ट करें। अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की लघुकथा “रमा बाई”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #1  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ रमा बाई ☆

 

आज तडके ही रमा बाई दौड़-दौड़ी आई बोली… बीबी जी काम जल्दी करवा लो आज नीचे वाले घर में कन्या भोज का बहुत बड़ा परोगराम है ।

हमने कहा “अच्छा तभी आज बहुत सज संवर कर आई हो । आज बच्चे भी साथ लाई हो ।”

“जी बीबी जी, कहिये जल्दी काम करूं नहीं तो 12 बजे के बाद आ पाऊंगी ।”

“ठीक है कोई बात नहीं बाद में ही आना, अभी हम भी आरती में शामिल होने नीचे ही आ रहे है ।”

“अच्छा बीबी जी ।”

ठीक 12 बजे घर की घंटी बजी सामने रमा बाई खडी थी।

हमने कहा – “हम तेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे ।अरे! क्या हुआ चुप क्यों खड़ी हो कुछ तो बोलो।  मुँह पर बारह क्यों बज रहे है? ”

“क्या बताऊं बीबी जी नीचे वाली बीबीजी का सारा काम हो गया । सब कन्या खा कर गई उसके बाद हमने बीबी जी से कहा अब हम भी जायेंगे तो अब हमें भी कुछ प्रसाद खाने को दे दो ।  तो मालूम वह क्या बोली? आज के दिन हम छोटी जाति के लोगों खाना नहीं देते कल देंगे ” ।

तब हम बोली बीबीजी “हमको क्या तुम बासा खाने को दोगी ? अपने पास ही रखो, अभी हमारे घर में इतना खाना है कि आप चलो हम आपको भी खिला देंगे। ”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प तिसरा #3 – ☆ या माहेरी. . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प तिसरा   – या माहेरी ….!” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प तिसरा #-3 ☆

 

या माहेरी. . . . !

 

कवितेच घर हेच शब्दांचे माहेर. …किती भावस्पर्शी जाणिवा नेणिवेच्या या कवितालयात पहायला मिळतात …… कल्पना  आणि वास्तवता यांच्या नाजूक संवेदनशील पण जागृत  अनुभुतींनी साकारलेल्या या शब्द रचना जेव्हा मनाशी संवाद साधतात ना तेव्हा मनाचा एकटे पणा कुठल्या कुठे पळून जातो.   डोळे आणि मन भरून येत. . .  आठवणींची पासोडी खांद्यावर टाकून  आपण या माहेरात  विसावतो आणि . . .

……अनेक जीवनातील सुख दुःख पचवलेली, जीवनसंघर्ष करीत  कवितेचा शब्दसुतेचा दर्जा देणारी संवेदनशील व्यक्ती मत्वे  ,  मनात रेंगाळत रहातात.  मनातील ताणतणाव  दूर करण्याचा प्रयत्न ही शब्द पालवी करते आणि म्हणावस वाटत  *वसंत फुलला मनोमनी*

खरंच . . .  ही फुलं फुलतात कशासाठी? माणस माणसांना भेटतात कशासाठी? थोड तुझ थोड माझं परस्परांना समजण्यासाठी . . तसच या माहेरी घडत. या कवितेच्या घरात कवितेचे विविध प्रकार मांडवशोभेसारखे नटून थटून येतात. त्यांच नुसते दर्शन देखील मनाची मरगळ दूर करते.  आजची कविता काय आहे, कशी  आहे  ,  तिच रूप, स्वरूप, तिचा प्रवास याच्या खोलात न जाता मी फक्त  इतकेच म्हणेन  आजची कविता प्रवाही आहे.  सोशल नेटवर्किंग साईट वरून ती लोकाभिमुख होते  आहे.  प्रत्येक कविता  आपला स्वतःचा वाचक वर्ग निर्माण करते आहे. हा साहित्य प्रवाह नसला तरी हा जीवनप्रवास आहे माणसातल्या सृजनशील मनोवृत्तींचा. ही निर्मिती माणसाला धरून ठेवते. माणसाशी संवाद साधते. त्याचं एकटेपण दूर करू पहाते. म्हणून कविता महत्वाची आहे.

कवितेने किती पुरस्कार मिळवले, * आपल्या लेकिच्या अंगावर किती दागिने  आहेत* यापेक्षा  आपली लेक  किती लोकाभिमुख  आहे हे पहाणं मनाला जास्त भावत. मनान मनाशी जोडलेले भावबंध हाच उत्तम कवितेचा पाया असतो. नाते जपताना शब्दांना उकळी  आणून उसन्या गोडव्याने पाजलेला चहा भावाच्या मनात बहिणीची माया उत्पन्न करू शकत नाही त्याप्रमाणे कविता लोकांपर्यत किती पोचली तिचा समाजाभिमुख प्रवास कविला समाजात मानाचे स्थान प्राप्त करून देतो.

माहेर. . . माहेर ..  म्हणजे नेमक काय. ? मनातली दुःख, चिंता, काळजी, ताणतणाव, बाहेर जाताना रांगत्या पावलांनी किंवा  अनुभवी वृद्ध व्यक्तीच्या आश्वासक खोकल्याने घरात कुणीतरी  असल्याची दिलेली चाहूल, *शब्दांना भावनांनी दिलेला आहेर* म्हणजे माहेर.  हे माहेर ममत्वाचा,मायेचा, माझ्या तला कलागुणांचा सर्वांगीण  अविष्कार करत, माझ माझ म्हणून ज्याला जोजवावं त्या विचारप्रवाहांचा जे स्वीकार करत ते माहेर माणसाला माणूसपण कवितेला घरपण प्राप्त करून देत.

कविता श्लोकातून जाणवायला हवी. अभंगातून निनादत ओवीतून उदरभरण करणा-या , गहू, ज्वारी, बाजरीच्या पिठात  एकजीव व्हायला हवी. कवितेने जुन्याची कास आणि नाविन्याची आस सोडू नये यासाठी हे माहेर प्रत्येक साहित्यिकासाठी फार महत्वाचे आहे.  या माहेरात कुणाला  एकटे सोडायचे अन कुणाला बांधून ठेवायचे हे काम आपले लेखन,  आपला दैनंदिन लेखन कला व्यासंग बिनबोभाट करतो. तुलना नावाची मावशी किंवा मंथरा या माहेरात आपल्याला पदोपदी भेटते. ही तुलना मावशी कविच्या कवित्वाचा देखील घात करू शकते.  या माहेरात आपल्या कार्यकरतृत्वाचं गुणांकन करायला *दामाजी* नाही तर *आत्माराम* कामी येतो हे ध्यानात ठेवा आणि जेव्हा जेव्हा स्वतःला  एकट समजाल तेव्हा तेव्हा या माहेरी निःशंकपणे या. पायवाट  आणि हमरस्ता दोन्ही ही आपलीच वाट पाहत  असतात. सुख, समाधान, हाकेच्या अंतरावरच असत त्याचा शुभारंभ या माहेरी होऊ शकतो.

हा प्रवास  ह्दयापासून ह्रदयापर्यतचा असतो. यात शब्द जितका महत्वाचा तितकाच एकेका शब्दासाठी  आपल सारं जीवन वेचणारा माणूसही तितकाच महत्त्वाचा. या शब्दालयात,  माहेरपणात कविता नांदायला हवी.कविनं कविता  अन माणसान कटुता या माहेरी निवांत सोडून द्यावी. कविता तिचा प्रवास करीत रहाते  आणि मनातली कटूता एकटी होती..  एकटी  आहे..  एकटी राहिल ..  असा विश्वास देत पुढच्या जीवनप्रवासाला लागते.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ ☆  Exercises That will Make You Happier ☆ ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆  Exercises That will Make You Happier

I suggest some exercises that will make you happier. Try the ones that you like. You will feel happier. Repeat the exercises that work for you periodically, and you will feel still happier.

Have A Beautiful Day!
Have a beautiful day. Set aside a free day every month to indulge in your favourite pleasures. Pamper yourself. Design, in writing, what you will do from hour to hour. Be mindful and savour every moment of the beautiful day. Do not let the bustle of life interfere, and carry out the plan.

The Gratitude Visit
Select one important person from your past who has made a major positive difference in your life and whom you have never fully expressed your thanks. Take your time to compose a testimonial just long enough to cover one laminated page. Travel to that person’s home. It is important to do this face to face, not just in writing or on the phone. Do not tell the person the purpose of the visit in advance; a simple “I just want to see you” will suffice. When all settles down, read your testimonial aloud slowly, with expression, and with eye contact. Then let the other person react unhurriedly. Reminisce together about the concrete events that make this person so important to you.

Simplify!
Answer the following questions: Where can I simplify? What can I give up? Am I spending too much time on the internet or watching TV? Can I reduce the number of meetings at work or the duration of some of the meetings? Am I saying “yes” to activities to which I can say “no”? Commit to reducing the busyness in your life.

What-Went-Well Exercise
Each night before going to sleep, write down three things that went well during the day, that made you happy or things for which you are grateful. These may be small things or important ones. Doing this exercise regularly can help you appreciate the positive in your life rather than take it for granted. You can do this exercise on our own or with a loved one: a partner, child, parent, sibling, or close friend. Expressing gratitude together can contribute in a meaningful way to the relationship.

Practicing Acts of Kindness
True happiness consists in making others happy. In our daily lives, we all perform acts of kindness for others. These acts may be large or small and the person for whom the act is performed may or may not be aware of the act. Examples include feeding a stranger, donating blood, helping a friend with homework, visiting an elderly relative, or writing a thank-you letter. Over the next week, try to perform at least three acts of kindness that you may decide.

Learning to Forgive
This exercise involves letting go of your anger, bitterness, and blame by writing, but not sending a letter of forgiveness to a person who has hurt or wronged you. In it describe in detail the injury or offence that was done to you. Illustrate how you were affected by it at the time and how you continue to be hurt by it. State what you wish the other person had done instead. End with an explicit statement of forgiveness and understanding (e.g., “I realize now that what you did was the best you could at the time, and I forgive you”).

Meditate!
Sit quietly, in a comfortable but balanced posture. Keep your back straight without being tense. Rest your hands on your knees or thighs or in your lap, keep your eyes lightly gazing in the space in front of you, and breathe naturally. Watch your mind, the coming and going of thoughts. At first it might seem that instead of diminishing, thoughts rush through your mind like a waterfall. Just watch them arising and let them come and go, without trying to stop them but without fuelling them either. Take a moment at the end of the practice to savour the warmth and joy that result from a calmer mind.

References and Acknowledgement
Martin Seligman, Authentic Happiness, and Flourish.
Tal Ben-Shahar, Happier.
Matthieu Ricard, Happiness.
Sonja Lyubomirsky, The How of Happiness.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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