हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #1 ☆ बाबा ब्लैक शीप ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के हम हृदय से आभारी हैं,  जिन्होने हमारे आग्रह पर साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” शीर्षक से लिखना स्वीकार किया। आप वर्तमान में अतिरिक्त मुख्य  इंजीनियर के पद पर म.प्र.राज्य विद्युत मंडल, जबलपुर में कार्यरत हैं। संभवतः आपको साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन की कला शिक्षा के क्षेत्र में ख्यातिनाम माता-पिता से संस्कार में मिली है। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन कार्य किया है। आप समय के साथ स्वयं को  डिजिटल मीडिया में ढाल कर एक प्रसिद्ध ब्लॉगर की भूमिका भी निभा रहे हैं। आप काई साहित्यिक सम्मनों से पुरुस्कृत / अलंकृत हैं । श्री विवेक रंजन जी की साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए  >> श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  << पर क्लिक करने का कष्ट करें। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “बाबा ब्लैक शीप”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #1 ☆ 

 

☆ बाबा ब्लैक शीप ☆

 

कष्टो दुखो से घिरे  दुनिया वालो को बाबाओ की बड़ी जरूरत है. किसी की संतान नहीं है, किसी की संतान निकम्मी है, किसी को रोजगार की तलाश है, किसी को पत्नी पर भरोसा नही है, किसी को वह सब नही मिलता जिसके लायक वह है, कोई असाध्य रोग से पीड़ित है तो किसी की असाधारण महत्वाकांक्षा वह साधारण तरीको से पूरी कर लेना चाहता है, वगैरह वगैरह हर तरह की समस्याओ का एक ही निदान होता है ” बाबा”.  इसलिये  हमें एक चेहरे की तलाश है, जो किंचित कालिदास की तरह का गुणवान हो, कुछ वाचाल हो, टेक्टफुल हो, थोड़ा बहुत आयुर्वेद और ज्योतिष जानता हो तो बात ही क्या,  हम उसे बाबा के रूप में महिमा मण्डित कर सकते हैं, कोई सुयोग्य पात्र मिले तो जरूर बताईये.

यूँ बचपन में हम भी बाबा हुआ करते थे ! हर वह शख्स जो हमारा नाम नहीं जानता था हमें प्यार से बाबा कह कर पुकारता था. इस बाबा गिरी में हमें लाड़, प्यार और कभी जभी चाकलेट वगैरह मिल जाया करती थी. यह “बाबा” शब्द से हमारा पहला परिचय था. अच्छा ही था. अपनी इसी उमर में हमने “बाबा ब्लैक शीप” वाली राइम भी सीखी थी.  जब कुछ बड़े हुये तो बालभारती में सुदर्शन की कहानी “हार की जीत” पढ़ी.  बाबा भारती और डाकू खड़गसिंग के बीच हुये संवाद मन में घर कर गये. “बाबा” का यह परिचय संवेदनशील था, अच्छा ही था. कुछ और बड़े हुये तो लोगों को राह चलते अपरिचित बुजुर्ग को भी “बाबा” का सम्बोधन करते सुना. इस वाले बाबा में किंचित असहाय होने और उनके प्रति दया वाला भाव दिखा. कुछ दूसरे तरह के बाबाओ में कोई हरे कपड़ो में मयूर पंखो से लोभान के धुंयें में भूत, प्रेत, साये भगाता मिला तो कोई काले कपड़ो में शनिवार को तेल और काले तिल का दान मांगते मिला. कुछ वास्तविक बाबा आत्म उन्नति के लिये खुद को तपाते हुये भी मिले पर इन बाबाओ पर भी तरस खाने वाली स्थिति थी.

फिर बाबा बाजी वाले बाबाओ से भी रूबरू हुये. जिनके रूप में चकाचौंध थी. शिष्य मंडली थी. बड़े बड़े आश्रम थे. लकदक गाड़ियों का काफिला  था. भगवा वस्त्रो में चेले चेलियां थे. प्रवचन के पंडाल थे. पंडालो के बाहर बाबा जी के प्रवचनो की सीडी, किताबें, बाबा जी की प्रचारित देसी दवाईयां विक्रय करने के स्टाल थे. टी वी चैनलो पर इन बाबाओ के टाईम स्लाट थे. इन बाबाओ को दान देने के लिये बैंको के एकाउंट नम्बर थे. कोई बाबा हवा से सोने की चेन और घड़ी  निकाल कर भक्तो में बांटने के कारण चर्चित रहे तो कोई जमीन में हफ्ते दो हफ्ते की समाधि लेने के कारण, कोई योग गुरु होने के कारण तो कोई आयुर्वेदाचार्य होने के कारण सुर्खियो में रहते दिखे.  बड़े बड़े मंत्री संत्री, अधिकारी, व्यापारी इन बाबाओ के चक्कर लगाते मिले. ही बाबा और शी बाबा के अपने अपने छोटे बड़े ग्रुप आपकी ही तरह हमारा ध्यान भी खींचने में सफल रहे हैं.

बाबाओ के रहन सहन आचार विचार के गहन अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि किसी को बाबा बनाने के लिये  प्रारंभिक रूप से कुछ सकारात्मक अफवाह फैलानी होगी. लोग चमत्कार को नमस्कार करते आये हैं. अतः कुछ महिमा मण्डन, झूठा सच्चा गुणगान करके दो चार विदेशी भक्त या समाज के प्रभावशाली वर्ग से कुछ भक्त जुटाने पड़ेंगे. एक बार भक्त मण्डली जुटनी शुरु हुई तो फिर क्या है, कुछ के काम तो गुरु भाई होने के कारण ही आपस में निपट जायेंगे, जिनके काम न हो पा  रहे होंगे  बाबा जी के रिफरेंस से मोबाईल करके निपटवा देंगे.

हमारे दीक्षित बाबा जी को हम स्पष्ट रूप से समझा देंगे कि उन्हें सदैव शाश्वत सत्य ही बोलना है, कम से कम बोलना है.  गीता के कुछ श्लोक, और  रामचरित मानस की कुछ चौपाईयां परिस्थिति के अनुरूप बोलनी है. जब संकट का समय निकल जायेगा और व्यक्ति की समस्या का अच्छा या बुरा समाधान हो जावेगा तो  बोले गये वाक्यो के गूढ़ अर्थ लोग अपने आप निकाल लेंगे. बाबाओ के पास लोग इसीलिये जाते हैं क्योकि वे दोराहे पर खड़े होते हैं और स्वयं समझ नहीं पाते कि कहां जायें, वे नहीं जानते कि उनका ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो कोई बाबा जी भी नही जानते कि कौन सा ऊंट किस करवट बैठेगा, पर बाबा जी, ऊंट के बैठते तक भक्त को दिलासा और ढ़ाड़स बंधाने के काम आते हैं. यदि ऊंट मन माफिक बैठ गया तो बाबा जी की जय जय होती है, और यदि विपरीत दिशा में बैठ गया तो पूर्वजन्मो के कर्मो का परिणाम माना जाता है, जिसे बताना होता है कि  बाबा जी ने बड़े संकट को सहन करने योग्य बना दिया, इसलिये फिर भी बाबा जी की जय जय. बाबा कर्म में हर हाल में हार की जीत ही होती है भले ही भक्त को बाबा जी का ठुल्लू ही क्यो न मिले. बाबा जी पर भक्त सर्वस्व लुटाने को तैयार मिलते हैं भले ही बाबा ब्लैक शीप ही क्यो न हों.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #3 ☆ सबक ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “सबक ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆

 

☆ सबक ☆

 

मैडम ने सोच लिया था कि आज पान मसाला खाने वाले छात्र को रंगे हाथ पकड़ कर सबक सिखा कर रहूंगी. इसलिए जैसे ही छात्र ने खिड़की की ओर मुँह कर के ‘पिच’ किया वैसे ही मैडम ने उसे पकड़ लिया.

“क्यों रे ! पान मसाला खाता है शर्म नहीं आती” कहते हुए मैडम ने उस के कान पकड़ लिए.

छात्र कुछ नहीं बोला.

“बोलता क्यों नहीं है ? कहाँ से सीखा, ये गंदी आदत?” मैडम गुस्से से चीखी.

छात्र डर कर काँप गया. उस के मुंह से निकला “गोपाल सर से !” और उस के हाथ सर की कुर्सी के पास वाली खिड़की की ओर चले गए. जिस पर पान मसाले के निशान पड़े हुए थे.

उन निशानों को देख कर मैडम चौंक उठी. वो छात्र को सबक सिखाने गई थी, खुद ही सबक ले कर चुपचाप चली आ गई.

वे छात्र को क्या जवाब देती ? समझ न सकीं.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 3 – शिकवण ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  शिकवण)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #3 ☆ 

 

☆ शिकवण ☆ 

काळ येतो, काळ जातो

नवी शिकवण देतो

संकटात झुंजताना

हात मदतीचा देतो. . . !

 

अनुभवी जगशाळा

अर्थ जीवनाला देते

माणसाला ओळखाया

माय बोली  शिकविते. . . . !

 

संसाराची सुखदुःख

बाप देऊनीया गेला

शिकवण  आयुष्याची

अनुभव झाला चेला ..

 

माझे माझे म्हणताना

राग लोभ  विसरावे

दोन हात जोडताना

जग  आपले करावे . . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #2 – सुख-दुख के आँसू……☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “सुख-दुख  के आँसू”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #2  ☆

 

☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆

 

अपने सर्वसुविधायुक्त कमरे में सुख के समस्त संसाधनों पर नजर डालते हुए वृध्द रामदीन को पूर्व के अपने अभावग्रस्त दिनों की स्मृतियों ने घेर लिया। अपने माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन के कष्टों के स्मरण के साथ ही बरबस आंखों ने अश्रुजल बहाना शुरू कर दिया।

उसी समय, “चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।

अरे–आप तो रो रहे हैं! क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?

हाँ बेटी, कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आंसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं ।

तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ ।

दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–

कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये हमें?

कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आंखों से आंसू निकल रहे हैं।

पर आंख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,

बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको, कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?

ऐसी कोई बात नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से द्रवित मन से ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही खूशी के आंसू बहने लगे थे, बस यही बात है।

किन्तु, एक और सच बात यह भी थी कि इस खुशी के साथ जुड़ी हुई  थी पुरानी स्मृतियाँ। रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते  ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।

सुख-दुख के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #3 – कवितेवरची कविता ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी गजल यात्रा का एक और पड़ाव  “कवितेवरची कविता“। अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 3 ☆

 

 ☆ कवितेवरची कविता☆

कवितेमधला गझल हा प्रकार मनाला खुप भावला. १९९२ साली अनिल तरळे या अभिनेत्याने बालगंधर्व परिसरात गझलकार इलाही जमादार यांची ओळख करून दिली, कॅफेटेरियात आमची कविता-गझल अशी मैफल जमली,इलाहींच्या गझलांनी मी खुपच भारावून गेले, असे वाटले कविता लिहिणं सोडून द्यावं,वरचेवर इलाहींशी भेटी होत होत्या, इलाहींनी गझलतंत्र, गझलची बाराखडी या विषयी काहीच सांगितलं नाही, ते म्हणाले तुम्ही, “आपकी नजरोने समझा प्यारके काबील मुझे”.. ही ओळ गुणगुणत रहा, त्या मीटर मध्ये तुम्हाला गझल सुचेल! पण तसं काही झालं नाही!
बरेच दिवसांनी अचानक शब्द आले…गझल पूर्ण झाली! शरद पाटील हा कवी त्या काळात झपाटल्यासारखी गझल लिहित होता, त्याला दाखवली,त्यानी सांगितलं होतं पहिल्या शेरात गडबड आहे बाकी सगळे शेर बरोबर आहेत, पहिला शेर मी सुरूवातीला असा लिहिला होता,

“यायचे स्वप्नी तसे हे गाव नाही
ओळखीचा एकही पहेराव नाही”

काय गडबड आहे हे त्यालाही सांगता आलं नाही आणि मलाही समजलं नाही, एका खाजगी मैफलीत इलाही, दीपक करंदीकर यांच्या समोर सादर केली,त्यांनी ही ईस्लाह वगैरे केलं नाही, माझ्या पहिल्या संग्रहात मी तशीच छापली आहे, पुढे डाॅ. राम पंडितांचे लेख वाचून गझलची लगावली समजली मग मी सानी मिसरा बदलला….घेतलेले राज्य अन तो डाव नाही…आणि लक्षात आलं हे मंजुघोषा वृत्त आहे, अचानकच हातून लिहिलं गेलेलं!
पुढे गझलेवरची गझल ही झाली… *आज अचानक लेखणीस गवसली गझल, स्नेहभराने काळजात उतरली गझल*

माझी पहिली गझल

यायचे स्वप्नी तसे हे गाव नाही
घेतलेले राज्य अन तो डाव नाही

आज मज हाका नका मारू कुणीही
जे तुम्ही घेताय माझे नाव नाही

का असे डोळ्यात पाणी पावलांनो
स्वैर आभाळी तुम्हा का वाव नाही

जायचे वस्तीत चोरांच्या कशाला
सोबती येथे कुणीही साव नाही

सोनियाचे मुकुट डोई देवतांच्या
भक्तिला आता कुठेही भाव नाही

जाहल्या जखमा किती या काळजाला
मारणारा एकही मज घाव नाही

झुरत अंधारात आहे एकटी मी
सावलीला ही इथे शिरकाव नाही

संपता आयुष्य माझे भेटण्या ये
मरणयात्रेला कुणा मज्जाव नाही

 

(१९९३ साली रचलेली गझल आहे )

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #3 सेव पापड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सेव पापड़ी ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने  राजन वेलफेयर एवं डेवलपमेंट संस्थान, जोधपुर एवं लघुकथा मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान  प्राप्त किया है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 3 ☆

 

☆ सेव पापड़ी ☆

 

गरीब परिवार की सुंदर सी बिटिया नाम था ‘सेवती’। दुबली पतली सी मगर नाक नक्श बहुत ही सुंदर। पिताजी गंभीर बीमारी से दुनिया से जा चुके थे। मां पडोस में बरतन चौका का काम कर अपना और अपनी बच्ची गुजारा करती थी। बिटिया की सुंदरता और चंचलता सभी मुहल्ले वालो को बहुत भाती थी। सब का कुछ न कुछ काम करती रहती। बदले में उसको खाना और पहनने तथा पढने का सामान मिल जाया करता था।

पास में ही लाला हलवाई की दुकान थी। हलवाई दादा उसे बहुत प्यार करते थे। उसकी कद काठी के कारण सेवती की जगह वे उसे सेव पापड़ी कह कर बुलाते थे। अब तो सब के लिये सेव पापड़ी हो गई थी। अपना नाम जैसे वह भूल ही गई थी। धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। पढ़ाई में भी बहुत तेज थी और मन लगा कर पढ़ाई करती थीं। मां अच्छे घरों में काम करती थी सभी सलाह देते कि बिटिया को पढ़ाना। हमेशा गरीबी का अहसास कर कहती मैं इसे ज्यादा नहीं पढा सकुगीं। पर हलवाई दादा हर तरफ से मदद कर रहे थे। कभी कहते नहीं पर सभी आवश्यकताओं को पूरा करते जाते थे।

सेव पापड़ी भी उन्हें अपने पिता तुल्य मानती थी। उनके घर का आना जाना लगा रहता था। धीरे-धीरे वह बारहवीं कक्षा पास कर ली। अब तो मां को और ज्यादा चिंता होने लगी थी। पर हलवाई दादा कहते इतनी जल्दी भी क्या है। मां बेचारी बडों का कहना मान चुप हो जाती थी।। कालेज में दाखिला हो गया और आगे की पढ़ाई कर सेवती स्कूल अध्यापिका बन गई। मां अब तो और भी परेशान होने लगी ब्याह के लिए।

हलवाई दादा ने कहा अब तुम विवाह की तैयारी करो लड़का हमने देख लिया है। मुहल्ले में सभी तरफ खुशी खुशी सेव पापड़ी की शादी की बातें फैल गई। बिटिया की मां दादा को कुछ न बोल सकी। काडॅ छप गये* सेव पापड़ी संग रसगुल्ला *। ये कैसा काडॅ छपवाया दादा ने। बात करने पर कहते मै तुम्हारा कभी गलत नहीं करूंगा। तुम्हें बहुत अच्छा जीवन साथी मिलेगा। घर सज चुका था सारी तैयारियाँ हो चुकी। मुहल्ले वाले सभी अपनी सेव पापड़ी बिटिया के लिए उत्साहित थे कि दुल्हा कहा का और कौन हैं। सेव पापड़ी भी बहुत परेशान थीं। पर बडों की आज्ञा और कुछ अपने भाग्य पर छोड़ शादी के लिए तैयार होने लगी। बारात ले दुल्हा बाजे और बारातियों के साथ चला आ रहा था।

सेहरा बंधा था और कुछ जान बुझ कर दूल्हे ने अपना चेहरा छुपा रखा था। द्वार चार पूजा पाठ और फिर वरमाला। सेव पापड़ी की धडकन बढते जा रही थीं। पर ज्यो ही दुल्हे ने वरमाला पर अपना सेहरा हटाया सब की निगाहें खुली की खुली रह गई। दुल्हे राजा कोई और नहीं हलवाई दादा का अपना बेटा रमेश जो बाहर इंजीनियर बन नौकरी कर रहा था। सबने खुब ताली बजाकर उनका स्वागत किया। दादा सेवपापडी के लिये अपने ही बेटे जो मन ही मन सेवती को बहुत प्यार करता था और सारा खेल उसी ने बनाया था। अब सेव पापड़ी सदा सदा के लिए (मिठाई) दुल्हन बन हलवाई दादा के घर चली गई। सारे घराती बरातियों को आज सेवपापडीऔर रसगुल्ला बहुत अच्छा लग रहा था। सभी चाव से खाते नजर आ रहे थे। और हलवाई दादा के आंखों में खुशी के आंसू। मां भी इतनी खुश कुछ बोल न सकी पर हाथ जोड़कर हलवाई दादा के सामने खड़ी रही। सेवती (सेवपापडी) अपने रमेश (रसगुल्ला) की दुल्हन बन शरमाते हुये बहुत खुश दिखने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #3 – गझल गीत गाण्यासाठी ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है अप्रतिम मराठी गीत गझल गीत गाण्यासाठी जिसे प्रख्यात गायक एवं संगीतकार श्री  राजेश दातार जी ने स्वरबद्ध किया है। इसके साथ ही प्रस्तुत है स्थिर-चित्र आडियो /वीडियो  यूट्यूब लिंक । )

 

☆ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 3 ☆

? गझल गीत गाण्यासाठी ?

 

 

(Please Click ⇑⇑⇑⇑  to hear song or click on YouTube Link  >> गझल गीत गाण्यासाठी

 

पाखरात कोकिळ गातो तसे गाऊ दे रे गजल गीत गाण्यासाठी सूर लावू दे रे

 

शब्दफुलांच्या या बागा नकोना पहारे तिच्या मोरपंखी ओळी आणती शहारे

अभिषेक कानावरती रोज होऊ दे रे

 

गोटीबंद आहे गजला परि जीव घेण्या एक एक शब्दांच्या या शेकडो कहाण्या दु:ख असे भळभळणारे मला पाहू दे रे

 

दु:ख सुखाच्या रे येथे किती येरझारा कधी शब्द घुसमटणारे कधी थंड वारा ब्रीद जीवनाचे सारे मला मांडू दे रे

 

शब्द कोण घेऊन आले पहाट पहाटे कोवळीच सुमने येथे नसे तिथे काटे

हाच वसा आनंदाचा मला घेऊ दे रे

 

रचना : अशोक श्रीपाद भांबुरे

गायक आणि संगीतकार : राजेश दातार

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #3 – जीवन भी क्रिकेट ही है ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  साप्ताहिक  स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन भी क्रिकेट ही है”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  #-3 ☆

 

☆ जीवन भी क्रिकेट ही है ☆

 

२० .. २०  क्रिकेट की तेजी ही उसकी रोचक रोमांचकता है, जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. आज के व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २० ..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी से जल्दी आउट करना होता है.  जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं, विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं, ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है. प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २०  .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन के रन सिंगल्स हो सकते हैं, यश अर्जन के चौके, समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है, रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है. सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है. जो खिलाड़ी इस जीवन क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है. जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है, जिस दिशा में हम उसे मारते हैं. जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रियता ही हमें स्थापित करती है, जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं.

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-3 वृत्त  वियदगंगा ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश  देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है  भावप्रवण गीत   – वृत्त  वियदगंगा )

 

? रंजना जी यांचे साहित्य #-3 ? 

 

☆ वृत्त  वियदगंगा   ☆

 

*लगागागा लगागागा लगागागा लगागागा*

 

मानवा

जरा परमार्थ जीवाचा ,

रुचेना  मानवा तुजला।

कसा बाजार मोहाचा,

कळेना मानवा तुजला।

 

कसा धुंदीत पैशाच्या ,

विसरला माय बापाला।

निरागस भाव का त्यांचा

दिसेना मानवा तुजला।

 

नको धावू  सुखामागे

जरी भुलवी दिखावा हा।

कसा रे बोध सत्याचा,

घडेना मानवा तुजाला।

 

जरी खडतर खरा आहे

कितीही मार्ग सौख्याचा।

इथे कष्टाविना काही

मिळेना मानवा तुजला।

 

असे सत्ता किती लोभस,

मनाला ओढ ती लावी ।

कसे हे पाश मोहाचे,

तुटेना मानवा तुजला।

 

पुरे कर खेळ स्वार्थाचा

जरा ये भूवरी थोडा ।

कुठे का बंध नात्यांचे

जुळेना मानवा तुजला।

 

अभ्यासक ✍

©  रंजना मधुकर लसणे✍

मार्गदर्शक सुश्री अर्चनाजी

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #3 – जूते ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य   एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “जूते” जो निश्चित ही  आपको जीवन के  कटु सत्य एवं कटु अनुभवों से रूबरू कराएगी।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 3 ☆
☆ जूते  ☆

हम नर्मदा-यात्रा पर थे। आदिवासी फगनू सिंह हमारे मार्गदर्शक थे। साथ मदद के लिए छोटू भी था। फिर भी सामान ढोने के लिए हमें रोज़ अपने पड़ाव से दो आदमी लेने पड़ते थे जिन्हें हम अगले पड़ाव पर छोड़ देते थे। गाँवों में निर्धनता ऐसी कि मज़दूरी के नाम से तत्काल लोग हाज़िर हो जाते। जितने चाहिए हों, उठा लो।

मंडला तक के आखिरी चरण में हमारे साथ दो आदिवासी किशोर थे। चुस्त, फुर्तीले, लेकिन पाँव में जूता-चप्पल कुछ नहीं।  कंधे पर बोझ धरे, पथरीली ज़मीन और तपती चट्टानों पर वे नंगे पाँव ऐसे चलते जैसे हम शीतल, साफ ज़मीन पर चलते हैं।  हम में से कुछ लोग हज़ार दो हज़ार वाले जूते धारण किये थे।  दिल्ली से आये डा. मिश्र उन लड़कों की तरफ से आँखें फेरकर चलते थे।  कहते थे, ‘इन्हें चलते देख मेरी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ती है। देखा नहीं जाता।  हम तो ऐसे दो कदम नहीं चल सकते।’

मंडला में यात्रा की समाप्ति पर डा. मिश्र इस दल को सीधे जूते की दूकान में ले गये।  बोले, ‘सबसे पहले इन लड़कों के लिए चप्पल ख़रीदना है।  उसके बाद दूसरा काम।’

जूते की दूकान वाले ने पूरे सेवाभाव से उन लड़कों को रबर की चप्पलें पहना दीं।  लड़कों ने तटस्थ भाव से चप्पलें पाँव में डाल लीं।  हमारा अपराध-बोध कुछ कम हुआ।  जूते की दूकान से हम कपड़े की दूकान पर गये जहाँ फगनू सिंह को अपने लिए गमछा ख़रीदना था।  सब ने अपने जूते दूकान के बाहर उतार दिये।  ख़रीदारी ख़त्म करके हम सड़क पर आ गये। आदिवासी लड़के हमारे आगे चल रहे थे। गर्मी में सड़क दहक रही थी।

एकाएक डा. मिश्र चिल्लाये, ‘अरे,ये लड़के अपनी चप्पलें दूकान में ही छोड़ आये।’ लड़कों को बुलाकर चप्पलें पहनने के लिए वापस भेजा गया।

हमारे दल के लीडर वेगड़ जी ताली मारकर हँसे, बोले, ‘प्रकृति को मालूम था कि हमारा समाज इन लड़कों को पहनने के लिए जूते नहीं देगा, इसलिए उसने अपनी तरफ से इंतजाम कर दिया है। ये लड़के हमारी दया के मोहताज नहीं हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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