मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #25 – ☆ आरसा ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी आरसा सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  हिंदी में मराठी  शब्द  “आरसा” का अर्थ “दर्पण “है।  सुश्री  आरुशी  जी के इस आलेख ने  सहज ही स्वर्गीय मीनाकुमारी जी के चलचित्र “काजल ” के एक गीत की कुछ पंक्तियों को  मानस पटल पर ला दिया । उन पंक्तियों को आपसे साझा करना चाहूंगा।  उदाहारार्थ – “तोरा मन दर्पण कहलाए / भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए। “  सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #25 ☆

 

☆ आरसा ☆

 

अत्यावश्यक वस्तू… घरात हा पाहिजेच, निदान ज्या घरात बाईमाणूस राहत आहे त्या घरात तर पाहिजेच… हो ना!

नाही म्हणजे कसं, रोज त्यात पाहायला पाहिजे ना की चेहरा सुंदर झाला आहे की नाही? ते खूप जरुरी आहे, नाही तर सगळाच गोंधळ होईल हो… स्वतःची image, impression, वगैरे सगळं सांभाळावं लागत नाही का ! तेही योग्यच आहे म्हणा…  first impression is the best impression असं कोणीतरी म्हणून ठेवलंय आणि त्यातच आम्ही बऱ्याच वेळा गुंतत जातो…

Impression म्हणजे नेमकं काय हे त्या आरशात पाहिल्यावर कळतं का हो? त्या आरशात नक्की काय काय दिसत असेल? मला तर असं वाटतं की आपल्याला जे दिसायला हवं असेल तेच दिसत असणार… सोयीस्कररित्या… आणि हे सगळं खरंच असतं का? हा प्रश्न स्वतःलाच विचारून स्वतःलाच उत्तर देता आलं पाहिजे, शिवाय खरं आणि खोटं ह्यातील फरक जाणवला की मग योग्य मार्ग नक्की सापडेल, जो शाश्वत असेल…

बाह्यरुपतील चेहरा ह्या काचरुपी आरशात नक्कीच दिसतो, पण मनाचे प्रतिबिंब कुठल्या आरशात दिसेल? शक्यता कमी आहे… कदाचित निरखून पाहिलं तर हे नक्की जाणवेल… मनरुपी डोहात डोकावून पाहायचं धाडस करावंच लागेल कधी ना कधी तरी, जर स्वतःचा खरा चेहरा पाहायचा असेल तर… सर्व मुखवटे दूर करून… तो खोटा मेक अप धुऊन टाकणे गरजेचं आहे, कारण आपले व्यक्तिमत्व आणि जगासमोर ठेवलेले व्यक्तिमत्त्व ह्यात जर फरक असेल तर मानसिक ओढाताण अटळ आहे… शाश्वत अशाश्वत दुनियेतील काय हवं आहे हे मनाशी ठरवणे आवश्यक आहे… मनाची खरी हाक ऐकून त्याप्रमाणे जगणं आवश्यक आहे…

-आरुशी दाते

 

 

© आरुशी दाते, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 – एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 ☆

 

☆ एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती 

 

विरुपक्ष (अर्थ : एक महीने के एक पक्ष अथार्त 15 दिनों के लिए वीर) को भगवान ब्रह्मा से वरदान मिला हुआ था कि वह ‘चंद्रमा’ का एक ‘पक्ष’ या चंद्रमा का पृथ्वी के चारो और पूरे चक्कर का आधा समय जो की करीब 15 दिन होते है को चुन सकता है या तो कृष्ण पक्ष (काला या अँधेरा आधा मार्ग) या शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल आधा मार्ग), अपने चुने हुए आधे चक्र के दौरान, वह कभी भी किसी के भी द्वारा पराजित नहीं होगा, और यदि उसने अपनी पसंद के एक महीने का एक आधा भाग चुना, जिसमें वह पराजित नहीं हो सका, तो वह उस माह के अगले या दूसरे आधे भाग या 15 दिनों में पराजित हो सकता है। इसका अर्थ है कि अगर उसने किसी के साथ लड़ने के लिए चंदमा के चक्र का उज्जवल आधा भाग या शुक्ल पक्ष चुना है, तो वह कभी भी पूरे 15 दिनों के इस उज्ज्वल आधे भाग में किसी से पराजित नहीं होगा। लेकिन जब चंद्रमा का अगला चरण अर्थात अँधेरा आधे भाग या कृष्ण पक्ष आयेगा तो वह उसमे पराजित हो सकता है। इसी तरह अगर वह अँधेरा भाग या कृष्ण पक्ष चुनता है तो 15 दिनों तक पराजित नहीं होगा और 15 दिनों बाद जब उज्जवल भाग या शुक्ल पक्ष शुरू होगा तो उसमे पराजित हो सकता है ।

विरुपक्ष अपने चुने हुए अंधेरे आधे भाग में युद्ध भूमि में आया, इसलिए वह उस आधे भाग में पराजित नहीं हो सकता था। उसने वानरों को बुरी तरह से मारना शुरू कर दिया।जल्द ही भगवान हनुमान विरुपक्ष के रास्ते में आ गए। भगवान हनुमान ने बहुत कोशिश की और विरुपक्ष के साथ लगातार लड़ते रहे,लेकिन भगवान ब्रह्मा जी से मिले वरदान की वजह से वह उसे हराने में असमर्थ थे।

भगवान राम के समूह में हर कोई चिंतित था। तब विभीषण ने भगवान राम को सुझाव दिया कि, “हम विरुपक्ष को तब तक पराजित नहीं कर सकते जब तक चंद्रमा अपने आधे अंधेरे चक्र को आधे उज्ज्वल चक्र में बदलकर हमारी सहायता नहीं करेंगे”

उसी समय भगवान इंद्र आकाश में दिखाई दिए और कहा, “हे राम, आपका युद्ध मानवता के लिए है। मैं चंद्रमा को आदेश देता हूँ, ताकि वह अपने चरणों को बदल दे और दूसरे आधे चक्र में चला जाए”

कुछ देर बाद चंद्रमा ने अपने मासिक चक्र के आधे अंधेरे भाग, कृष्ण पक्ष को आधे चमकीले या उज्जवल, शुक्ल पक्ष भाग में बदल दिया, और जल्द ही विरुपक्ष का शरीर घटना शुरू हो गया। चूंकि अब विरुपक्ष का शरीर कमजोर हो गया, तो भगवान हनुमान ने उसे पकड़ लिया और फिर उसे मार डाला।ऐसा कहा जाता है कि तब से चंद्रमा पृथ्वी के इर्दगिर्द अपने सामान्य आधे चक्र से आधे चक्र के अंतराल से अपना मासिक क्रम दोहरा रहा है।

भगवान राम ने अपने हाथों को आकाश में चंद्रमा की ओर बढ़ा कर चंद्रमा को प्रणाम एवं धन्यवाद किया।

जल्द ही चंद्रमा के देवता भगवान राम के सामने प्रकट हुए और उनसे अनुरोध में कहा, “हे भगवान! आप मुझे धन्यवाद क्यों दे रहे है? मेरी चमक शक्ति और शीतलता, आपका ही प्रताप है।यदि आप वास्तव में मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं, तो मुझे वचन दीजिये कि जैसे आप अपने इस युग के अवतार में सूर्य वंश में जन्मे है, वैसे ही अगले युग के अवतार में आप मेरे वंश अथार्त चंद्र वंश में जन्म लेंगे”

भगवान राम मुस्कुराये और चाँद से कहा, “यह मेरे लिए खुशी होगी। मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे अगले अवतार में मैं चंद्र वंश (चंद्रवंशी) में जन्म लूँगा ।

हम सभी जानते हैं कि अगले अवतार में, भगवान विष्णु का जन्म चंद्र वंश में भगवान कृष्ण के रूप में हुआ था ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 12 ☆ मयख़ाना  ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  “मयख़ाना “।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 12 ☆

☆ मयख़ाना 

मयखाने के पास में मेरी भी दुकान है,
हर रोज मैं शरीफों के चेहरे देखती हूँ ।

 

सफेदपोश लिपे हुए कमसिन चेहरें,
जेबें टटोलते हुए सहर देखती हूँ ।

 

हरी भरी सब्जियां सूखती हैं दुकानों में
और शाम को छलकते हुए जाम देखती हूँ।

 

भूख से बिलखते बच्चे हाथ फैलाते हैं
काँच से बच्चों की जान सस्ती पाती हूँ ।

 

लड़खड़ाते कदमों को थामे नन्हीं ऊँगलियाँ
डरे हुए चेहरों की जिंदगियाँ देखती हूँ ।

 

दर्दहीन कमजोर आँखों में खून खौलता है
मयखाने के दर पर उनका नसीब देखती हूँ ।

 

© सुजाता काळे,
पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 11 ☆ चिंतामणी चारोळी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता चिंतामणी चारोळी जो श्री गणेश जी  का प्रासादिक वर्णन किया गया है।  श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 11 ☆

☆ चिंतामणी चारोळी ☆

(माझ्या “चिंतामणी चारोळी “संग्रहातील श्रीगणेशाचे प्रासादिक वर्णन करणाऱ्या न ऊ चारोळ्या)

पंच जगदीश्वरांच्या

पहा अनुग्रहास्तव

प्रकटले श्रीगणेश

श्रेष्ठतम मोरगाव !!१!!

 

श्रीगणेश सार्वभौम

असे वर्णिली देवता

स्तुती अखंड करुनी

पावते गणेश भक्ता !!२!!

 

सीता शोध घेण्यासाठी

रामे दण्डकारण्यात

भालचंद्रा प्रार्थियेले

लक्षुमणा समवेत !!३!!

 

सिद्धाश्रम परभणी

गणेश गुरुपीठत्व

नाम असे ते प्रसिद्ध

गोदावरी तीरी सत्व!!४!!

 

ओझरास विघ्नासुरा

गणेशाने संहारिले

असे त्या विघ्नेश्वरास

सार्वभौम गौरविले !!५!!

 

पाच भूमिका चित्ताच्या

करणारा चिंतामणी

ब्रह्मदेवे दिला हार

म्हणूनिया चिंतामणी!!६!!

 

ढुंढिराज काशीक्षेत्र

सोळा कला अधिपती

आद्य दैवत हिंदूंचे

कार्यारंभी पूजीताती !!७!!

 

हेळवीचा श्रीगणेश

तो प्रसिद्ध कोकणात

रुप ॐकार प्रधान

मान विशेष देशात !!८!!

 

स्वायंभूव गणेशाचे

अक्रा गणेश प्रकार

क्षेत्र स्तुती ही वेदांत

चिंता तो हरविणार !!९!!

 

©®उर्मिला इंगळे

दि.२१-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 19 ☆ साक्षात्कार ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆.

वरिष्ठ रचनाकार, काव्य जगत से अपने लेखन की शुरुआत करने वाली, श्रेष्ठ व्यंग्य लेखिका अनेक सम्मान से सम्मानित आज की श्रेष्ठ कथा लेखिका बहुमुखी प्रतिभा की धनी सूर्यबालाजी से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व तथा विविध लेखन विधा के संदर्भ में सूर्यबाला जी ने बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुति दी है। प्रस्तुत है सूर्यबाला जी से डॉ भावना शुक्ल जी की बातचीत…..

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार सूर्यबाला जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 19  साहित्य निकुंज ☆

☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत

(मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है….)

डॉ भावना शुक्ल – आपके लेखन में स्त्रीत्व की सुगंध समाहित है आपका सम्पूर्ण लेखन स्त्री वाद पर ही आधारित है,  इस पर प्रकाश डालिए?

सूर्यबाला – सच पूछिए तो मैंने मात्र स्त्री-केंद्रित लेखन, यानी स्त्री समस्याओं से जुड़ा लेखन कम ही किया है। लेकिन यह सच है कि मेरे लेखन के केंद्र में स्त्रीत्व एक सुगंध की तरह व्याप्त है। मैं प्रकृति की इस रचना, स्त्री को बहुत अनूठे गुणों, और छबियों से युक्त मानती हूं, विलक्षण मानती हूं, स्त्री और, स्त्री-शक्ति को। मेरे पास मेरा अपना स्त्री-वाद है वह फार्मूले वाला वाद नहीं, स्त्री-भाव वाला स्त्री-वाद। इस भाव और वाद के केंद्र में वह स्त्री है जिसकी कोशिशों से ही यह विश्व सुंदर बन सकता है, स्त्री चाहेगी तभी, अन्यथा नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – ‘सुबह के इंतजार तक’ शीर्षक उपन्यास की मानू बलात्कार के अवांछित आघात को किस तरह वहन करती है ? क्या स्नेह और सहानुभूति ही उसका आधार है?

सूर्यबाला – इस छोटी की उपन्यासिका ‘सुबह के इंतजार तक…’ की किशोर नायिका मानू अपने भाई की पढ़ाई का छूट जाना (पिता की छंटनी के कारण) बर्दाश्त नहीं कर पाती। यह आज से तीस वर्ष पहले की कहानी है। अपने मामा के कारखानें के किसी वर्कर के कुकृत्यों का अभिशाप भुगतती मानू, अपने माता-पिता को इस आघात से भी विगलित नहीं देख पाती और एक अंधेरी सुबह, छोटे भाई के साथ घर छोड़ देती है। एक तरह से माता-पिता को जैसे मुक्त कर देती है। असंभव सी लगती इस कहानी में मानू उस विनम्र लेकिन दृढ़ संकल्पी स्त्री की छवि निर्मित करती है जो आक्रामकता से नहीं बल्कि विनम्र आत्मस्वीकार से अपने आस-पास वालों को वश में करती है। मेरे पास ऐसी बहुत सी स्त्री छबियां है जो कंदील की तरह मेरे जीवन और लेखन में जहां तहां जगमगाती दिख जायेगी आपको। मेरे पहले उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ की शिवा ने भी अपने संवेदनशील स्त्री चरित्र से पाठकों को मुग्ध किया है। ये स्त्रियां आज के समय में भी लेने से ज्यादा देने के सुख में विश्वास करती हैं। यूं भी यह सिर्फ स्त्री का गुण नहीं, वरन मानवीय गुणों की श्रेणी में आता है।

डॉ भावना शुक्ल – आपका नया आया उपन्यास “कौन देस को वासी….वेणु की डायरी“ इन दिनों विशेष रूप से चर्चा में है? आपको क्या लगता है। इसकी किस विशेषता की वजह से पाठक इसे सराह रहे हैं?

सूर्यबाला – बहुत मुश्किल है बताना। स्वयं मुझे आश्चर्य हो रहा है। कभी सोचा नहीं था कि इस तेज रफ्तार समय में इस लगभग चार सो पृष्ठ वाले उपन्यास को पाठक इतने धैर्य से पढ़ेंगे और मुक्तभाव से सराहेंगे। लोगों को यह भी अच्छा लगा कि इस पूरे उपन्यास के इतने चरित्रों मैं किसी चरित्र के साथ जजमेंटल नहीं हुई हूं। वे इस उपन्यास के प्रमुख चरित्रों वेणु के साथ ही नहीं, बल्कि उसकी मां, तीनों बहनों वसुधा, वृंदा, विशाखा तथा विदेश में मिले स्त्री चरित्रों के साथ भी इतना जुड़ाव महसूस करेंगे। एक पाठक ने लिखा है, इस उपन्यास को मैंने सिर्फ पढ़ा नहीं जिया है। कभी वेणु बन कर तो कभी मां, कभी विशाखा बन कर तो कभी वसु…. एक कारण शायद यह भी हो कि मैंने मात्र पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों को कथा रूप में समांतर पाठकों के सामने रख दिया है और निर्णय उनके ऊपर छोड़ दिया है। मैं स्वयं निर्णायक नहीं हुई हूं। पाठक पूरी तरह स्वतंत्र है परंपराओं और आधुनिकता तथा पूर्व और पश्चिम के मूल्यों के बीच से रास्ता निकालने के लिए।

डॉ भावना शुक्ल – इन दिनों विवाह स्थायी क्यों नहीं हो पा रहे हैं?

सूर्यबाला – कोई एक स्थूल कारण नहीं। पर कुछ चीजें शीशे की तरह साफ है। समय की रफ्तार बहुत तेज है। किसी के पास आपसी संबंध, दायित्व निभाने का समय नहीं। समय नहीं तो ‘साथ’ नहीं, और साथ की कामना  की चाहना धीरे-धीरे रितती चली जाती हैं। हर किसी के लिए विश्वास और संबंधों से ज्यादा कैरियर प्रमुख हो गया है। जीवन के सारे बहुत महत्वपूर्ण संबंध भी ‘अर्थ शास्त्र से जुड़ गए हैं। सबसे बढ़कर अब स्त्री ने अपने साथ निभाने वाली भूमिका से, त्याग और समर्पण वाले आदर्शों से किनारा कर लिया है। तो विवाह संस्था औंधे मुंह गिरेगी ही। आज भी जहां स्त्री, परिपक्व समझदार होती है, वह पति परिवार को बखूबी संभाल ले जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है दिनोंदिन तलाक की समस्या का बढ़ते जाना। यूं भी असफल विवाह के लिए तलाक एक सीमित समधान है मैंने कहीं लिखा था, तलाक स्वर्ग की गारंटी नहीं।

हमें दूसरों की भावना को समझने उसकी पसंद नापसंद की कद्र करनी होगी। बात बड़ी नहीं होती, बड़ी बना दी जाती है। सिर्फ एक दूसरे की भावना और पसंद को समझ कर हम एक दूसरे का दिल जीत सकते हैं। आज हर व्यक्ति बेसब्र है, हर किसी को अपनी शर्तों पर जीना है। ऐसे में ‘सहभाव’ और सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है!

डॉ भावना शुक्ल – क्या आज की स्त्री मुक्त हो पाई है। या वह मार्ग तलाश रही है, क्यों?

सूर्यबाला – ये मुक्ति, मुक्ति का शोर मचाने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो वास्तविक मुक्ति का मतलब भी नहीं जानते। ‘मुक्ति’ नापतौल कर, गज फुट से मापी और मांगी जाने वाली चीज नहीं है। मुक्ति एक मानसिकता है, एक विचार है जो आपकी दृष्टि को फैलाव देता है। इससे आप दूसरो को भी रोशनी देते हैं। मुझे नहीं लगता है कि बहुत सी स्त्रियों को पता भी है कि आखिर उनकी तलाश है क्या? कैसी मुक्ति? किससे मुक्ति? मैंने बहुत सी साक्षर, महिलाओं को इतनी तंग मानसिकता का देखा है कि आश्चर्य हुआ है….. उन्हें सिर्फ अपनी स्पेस चाहिए। मुक्त तो वह स्त्री हुई न जो दूसरों की ‘स्पेस’ की चिंता करती हो, या वह जो दूसरों की स्पेस पर भी अपना वर्चस्व चाहती हो।

डॉ भावना शुक्ल – आज के समय में पाठक की मर्मज्ञता क्या दृश्य माध्यम से पूर्ण हो सकती है?

सूर्यबाला – शायद आपका आशा यह है कि क्या दृश्य माध्यम आज एक मर्मज्ञ पाठक/श्रोता या दर्शक की अपेक्षा पूरी करने की स्थिति में हैं? तो बिलकुल नहीं। दृश्य माध्यम पूरी तरह हवाई, अतिशयोक्ति पूर्ण चीजें परस रहे हैं। उन्हें सिर्फ टी.आर.पी. की चिंता है। वे दर्शकों की रूचियों का परिष्कार नहीं उसे प्रदूषित कर रहे हैं। वे टी.आर.पी. का बहाना लगा कर अत्यंत फूहड़, अव्यवहारिक और सतही मनोरंजन दे रहे हैं, और  दोष दर्शकों के माथे मढ़ रहे हैं, यह कहकर कि उन्हें यही पसंद आता है। यदि दर्शकों को पसंद आ भी रहा हो तो भी उन्हें अपने सामाजिक दायित्व का ध्यान रखकर वह देना चाहिए जो लोगों के लिए श्रेयस्कर हो। वह नहीं जो मात्र उनके आर्थिक लाभ का माध्यम बनें।

डॉ भावना शुक्ल – कहानी या उपन्यास लिखते समय आप किस मानसिक स्थिति से गुजरती है?

सूर्यबाला – मैं कभी पहले से विषय निश्चित कर, योजना बना कर नहीं लिखती। रचना, कृति मेरे अंदर वर्षों, महीनों बड़े सपनीले मनोरम और आभासी रूप में रहते रहे हैं तब किसी दिन भावना का आवेग चरम पर होने पर कलम कागज पर चलने लगती है। वह एक बेसुधी की सी स्थिति होती है उस स्थिति, भावना से जुड़ा सबकुछ हम उतारते चले जाते हैं…. वहां भावना और आवेग प्रधान होते हैं। समय, सुविधा और स्थितियां जितनी देर साथ देती हैं, उतना लिखती हूं। या फिर उस समय अंदर का भी आवेग थमा, ‘इंधन’ चुका तो कलम फौरन रोक देती हूं।

इस लिखे हुए को मैं पूरी तरह बंद कर आंखों से ओझल कर देती हूं। दो चार दिन या हफ्ते बाद खोल कर पढ़ती हूं…. जहां कहीं जो अटकता है, या बहुत भावावेगी लगता है, उसे काटती तराशती संतुलित करती हूं। प्रेशर या दबाव बाहर का नहीं मेरे अंदर बैठे अदृश्य आलोचक या पाठक का कह लीजिए, उसका होता है। यही होना चाहिए भी, ऐसा मैं मानती हूं।

डॉ भावना शुक्ल – आपने व्यंग्य विधा में भी कलम चलाई है आपकी दृष्टि इस ओर कैसे गई?

सूर्यबाला – व्यंग्य लेखन भी मेरी कलम की स्वतः स्फूर्त विधा है। मैंने कहानियां लिख चुकने के महीनों वर्षों बाद व्यंग्य लिखना नहीं प्रारंभ किया, बल्कि व्यंग्य, कहानियां और उपन्यास सब साथ साथ ही चले। वह आठवें नवें दशक का समय था जब मैं एक साथ कहानियां, व्यंग्य, उपन्यास और बाल साहित्य चारों विद्याओं के धाराप्रवाह लिख रही थी। अंदर जितना जो था, वह भी संभाषित विधाओं को सौंप रही थी।

लेखन में हमेशा मैंने एक अनुशासन भी बरता, जब जो विधा, जो रचना नहीं संभली, फौरन छोड़ दी। अतः मेरे पूरे लेखन में सायास कुछ भी नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – उपन्यास कहानी व्यंग पर आप ने धारदार कलम चलाई है क्या कभी आपके मन में कविता लिखने का भाव नहीं उपजा ?

सूर्यबाला – लीजिए, मेरी शरूआत ही कविताओं से हुई है। यह पहली कविता भी अनायास ही लिख गई। मैंने कभी उस आठ नौ वर्ष की उम्र में कविता लिखने की सोची भी नहीं थी। एक दिन अनायास ही अकेले में सूझ गई, कुछ कविता टाइप पंक्तियां-

तुम बांसुरी हमारी, हो प्राण से प्यारी….

उस उम्र के लिहाज़ से इस पहली कविता की अंतिम पंक्तियां मुझे अभी भी ठीक ठाक ही लगती है- कृष्ण की बांसुरी पर सम्मोहित गोपियों के लिए वे पंक्तियां हैं-

यदि मार्ग में कोई रोक सके
तो प्राण उठा रख देती हैं।
प्राणों की बलि रखकर फिर भी….
आना वे नहीं भूलती हैं।

किशोर वय की प्रायः सभी कविताएं उत्तर प्रदेश के उन दिनों के सबसे लोकप्रिय समाचार पत्र ‘आज’ में छपती रहीं। उन्हीं किन्हीं दिनों क्रमशः कविता का जादू उतरता गया, कहानियां अपना वर्चस्व बढ़ाती गयीं।

डॉ भावना शुक्ल – लेखन आपके जीवन में क्या मायने रखता है क्या यह आपका अनिवार्य अंग बन गया है?

सूर्यबाला – अब इसमें दुविधा संशय नहीं रह गया है कि लिखना मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग बन गया है। मुझे लिख कर शांति मिलती है सुख मिलता है, तृप्ति मिलती है। जीवन में इससे बढ़ कर कुछ चाहिए भी नहीं। मेरी जरूरतें बहुत सीमित हैं। कुछ प्यार भरे रिश्ते, अपना भरापूरा कुटुंब और अपनी कलम, बस…..

लोग अकसर मुझे फोन कर करके दूसरों को मिले पुरस्कारों का हवाला देकर टटोलते भी हैं कि फलां फलां को मिल गया… अमूक पुरस्कार….. लेकिन आपको….. मुझे हंसी आती है…. उन्हें कैसे समझाऊं कि एक अच्छी रचना पूरी करने के बाद का सुख लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। उसे उसी नशे में धुत होना चाहिए। मेरी जिद् ही कहिए कि आधी सदी से ऊपर हो गए, मैंने आज तक किसी पुरस्कार के लिए अपनी कोई पुस्तक नहीं भेजी। किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ी। ऊपर ऊपर इसका नुकसान भी उठाया। पर इस जिद ने मुझे बहुत रिलेक्श रखा। अब तक के जीवन में, छोटे या बड़े, जो पुरस्कार स्वयं मेरे पास आए, उन्हें बेशक मैंने सरआंखों से लगाया। ये बिन मांगे मिले मोती थे।…..

डॉ भावना शुक्ल – अंत में आप अपनी किसी भी विधा का एक प्रेरणात्मक अंश हमारे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कीजिए ?

सूर्यबाला – मेरे नये आये उपन्यास ‘कौन देस को वासी…. वेणु की डायरी’ के परिशिष्ट का एक अंश जहां वेणु का अमेरिका में पला बढ़ा और भारत पर हंसने वाला बेटा, बेटू अपने पिता को उस डच बॉस जॉन मार्टिन के बारे में बता रहा है कि किस तरह उसका ‘योगी बॉस’ इंडिया से प्रभावित है-

‘.—-’ एक तरफ पुरानी इंडियन फिलॉसफी के ‘आ नो मद्राः’ और ‘संतोष परम् सुखम्’ कोट करता रहता है दूसरी तरफ ‘इंडियन वे ऑफ मगिंग’, ‘इंडियन वे ऑफ लर्निंग,’ ‘इंडियन वे ऑफ लिविंग’ तक विश्लेषित करते हुए कहता है कि- नाउ इज़ द टाइम जब ‘वेस्ट’ को ‘ईस्ट’ से जूझ कर काम करना सीखना होगा। सारा का सारा अच्छा और इफीशियेंट वर्क फोर्स हमें इंडिया से ही तो मिलता है। धुन कर काम करते हैं इंडियंस। देख लो, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हेल्थ, हाइजीन इंश्योरेंस ऐंड बैंकिंग तक…. दुनिया की पांच सौ बड़ी कंपनियों में टॉप अमेरिकनों के बाद इंडियंस का ही बोलबाला है।’

सूर्यबाला

बी. 504, रुनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड देवनार मुंबई-88

मो. 9930968670, Email- [email protected]

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 21 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख  मूर्खों के पांच लक्षण . मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर..। डॉ मुक्ता  जी  ने व्हाट्सएप्प  पर प्राप्त एक  सन्देश से प्रेरित  इस आलेख की रचना की है। यह निश्चित ही  सोशल मीडिया पर प्राप्त संदेशों  पर  सार्थक साहित्य  की रचना एक सकारात्मक  कदम है  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 21 ☆

 

☆ मूर्खों के पांच लक्षण

 

मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर..। व्हाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है.भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई भी अटपटी बात करता है, अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है, अपनी विद्वत्ता का अकारण बखान करता है, बात-बात पर क्रोधित  होता है, दूसरों की पगड़ी उछालने में पल भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि कि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। नास्तिक व्यक्ति परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं करता और वह स्वयं को सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर…परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं, ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, उपास्य है।

गर्व, घमण्ड, अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो परमात्म-प्राप्ति में बाधक है। वास्तव में गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का,जो मानव की नस-नस में व्याप्त है अर्थात् वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। इसका दूसरा भयावह पक्ष भी है, जो आपके पास है, उसके कारण आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखलाते हैं, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता रहता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसको सही राह दिखलाने की चेष्टा करता है, जीवन के कटु यथार्थ अर्थात् उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है, वह उस पर ज़ुल्म ढाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, वह उसके प्राण लेकर ही अहंतुष्टि करता है। अपने अहंभाव के कारण वह आजीवन सत्मार्ग पर नहीं चल पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक पर रख व सीमाओं को लांघ कर, अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अपशब्द कहता है। जब उसे इससे भी संतोष नहीं होता, वह गाली-गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए, हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है कि बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराजू में रखकर तौलिए और यदि वह उस कसौटी पर खरा उतरता है, तो उचित है, वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए। वह आपके गले की फांस बन सकता है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से, ये उत्पन्न होते हैं, अस्तित्व में आते हैं। इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल है, जो बड़ी से बड़ी  आपदा का आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है, सबको एक लाठी से लांघता है, सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्द कोश के दायरे बाहर रहता है। परशुराम का क्रोध सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ का प्रणेता है क्रोध। बालहठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे  किसी पल, कुछ भी करने  का हठ कर लेते हैं, जो असंभव होता है। परंतु उन्हें बहलाया जा सकता है। इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बालमन कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु  यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह उसे विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की किसी में सामर्थ्य नहीं होती क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है,उससे कभी भी टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत को जला कर तमाशा देखता है और स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है। उसके सपने जलकर राख हो जाते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान स्वी- कारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं- पुष्टि हेतु क्रोध  के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय कृत्यों का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट ‘ अर्थात् बॉस/ मालिक सदैव ठीक कर्म करता है। गलत शब्द उसके शब्द कोश की सीमा से बाहर रहता है।वह निष्ठुर प्राणी कभी भी, कुछ भी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान गलतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं जो स्थायी भावों के साथ-साथ,समय-समय पर उठते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी इन्हें धारण कर लेता है, उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है। वह विपरीत  पक्ष के व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अधिकार देता ही कहां है। अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे हुए, चंद वाक्यों का प्रयोग-उपयोग वह हिटलर की भांति धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्नचित्त रहता है, सदैव अपनी-अपनी हांकता है और चंद लम्हों में  लोग उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं और उससे  निज़ात पाना चाहते हैं ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला गया कोई वाक्य उनके लिए भविष्य में संकट व जी का जंजाल न बन जाये। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ  रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है… नियति बन जाती है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 7 ☆ दीपावली विशेष – धनतेरस त्यौहार ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी  एक सामयिक रचना  “धनतेरस त्यौहार ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 7 ☆

☆  धनतेरस त्यौहार ☆

 

धन की वर्षा हो सदा,हो मन में उल्लास

तन स्वथ्य हो आपका, खुशियों का हो वास

 

जीवन में लाये सदा ,नित नव खुशी अपार

धनतेरस के पर्व पर, धन की हो बौछार

 

सुख समृद्धि शांति मिले, फैले कारोबार

रोशनी से भरा रहे, धनतेरस त्यौहार

 

झालर दीप प्रज्ज्वलित, रोशन हैं घर द्वार

परिवार में सबके लिए, आये नए उपहार

 

माटी के दीपक जला, रखिये श्रम का मान

सब के मन “संतोष”हो, सबका हो सम्मान

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प विसावा # 20 ☆ दीपावली विशेष – (1) वसुबारस  (2) धेनू  पूजा ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है दीपावली के विशेष पर्व पर  श्री विजय जी  की  दो  सामयिक कवितायेँ   “ (1) वसुबारस  (2) धेनू  पूजा”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प विसावा# 20 ☆

☆ दीपावली विशेष – (1) वसुबारस  (2) धेनू  पूजा ☆

 

☆ एक –  वसुबारस ☆

*अष्टाक्षरी*

वद्य  अश्विनी बारस

सुरू झाली दिपावली

धेनू माय पूजनाने

नेत्रकडा पाणावली.. . !

 

वसू बारसेचा दिनू

गाय वासराचा थाट

पुजेसाठी सजविले

औक्षणाचे न्यारे ताट. . . !

 

उदारता,  प्रसन्नता

आणि चित्तात शांतता

गाय वासराचे गुण

लाभो सौख्य सफलता . . . !

 

गोमातेची पाद्यपूजा

ईश्वराची घडे सेवा.

दान द्याया शिकविते

देई दुग्धामृत मेवा. . . . . !

 

कामधेनू निजरूप

मनोभावे पूजियेली

अशी आनंद निधान

दीपावली आरंभिली.. . !

☆ दोन धेनू  पूजा ☆

*चाराक्षरी*

अश्विनात

बारसेला

धेनू पूजा

सण केला.. . !

 

वासराचा

थाटमाट

औक्षणाचे

न्यारे ताट

 

कामधेनू

निजरूप

गोमाता ही

ईश रूप. . . . !

 

गोपूजनी

घडे सेवा

दुग्धामृत

देई मेवा. . . . !

 

दान द्याया

शिकविते

धेनू माय

जगविते.. . . !

 

प्रसन्नता

उदारता

धेनू दावी

वात्सल्यता.. . !

 

मनोभावे

पूजियेली

आरंभात

पूजा केली. . !

 

पाद्यपूजा

गोमातेची

ईशकृपा

देवतेची.. !

 

आनंदल्या

लेकी बाळी

फराळाची

मांदियाळी. . . . !

 

दीपावली

जोरदार

धेनू पूजा

सौख्याधार.. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆ कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक  भावुक एवं अनुकरणीय लघुकथा “कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆

 

☆ लघुकथा – कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ……….  ☆ 

 

उल्टी गंगा मत बहाया कर गुड्डो ! मायके से लड़कियों को गहना – कपड़ा मिलना चाहिए।  लड़कियों को देते रहने से मायके का मान बना रहता है और ससुराल में लड़की की इज्जत भी बनी रहती है।  हम तो तुझे कुछ दे नहीं पाते और तेरे घर में पड़े मुफत की रोटी तोड़ रहे हैं। दामाद जी क्या सोचेंगे भला।

कुछ नहीं सोचेंगे दामाद जी। तुम इस बात की चिंता मत किया करो। और फिर तुम मेरे पास आई हो, मेरा मन भी करता है ना अपनी अम्मा के लिए कुछ करने का। तुमने मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया, समर्थ बनाया और ये क्या लड़की–लड़का लगा रखा है ? आज के ज़माने में ये सब कोई नहीं सोचता।  लड़की है तो क्या माता–पिता के लिए कुछ करे ही नहीं ?

ये तेरी सोच है बेटी ! जमाने की नहीं। समाज में लड़की–लड़के में अंतर कभी मिट ही नहीं सकता।  दो महीने से लड़की–दामाद के घर का खाना खा रही हूँ। लेने–देने के नाम पर ठन–ठन गोपाल। तू मेरे सिर पर बोझ लाद रही है ये कपड़े, मिठाई देकर।

गुड्डो कितना चाहती थी कि अम्मा भी सास–ससुर की तरह ठसके से रहे उसके पास, जो चाहिए वो मंगाए, जो कुछ ठीक ना लगे वह मुझे बताए। लेकिन कहाँ, वह तो मानों झिझक और संकोच से अपने में ही सिकुड़ती चली जा रही है।  इलाज के लिए वह गुड्डो के पास चली तो आई लेकिन ‘ये लड़की का घर है। लड़की के माँ–बाप लड़की के ससुराल जाकर नहीं रहते’ – यह बात उसके मन से हटती ही नहीं थी।  खाने–पीने से लेकर उसकी हर बात में हिचकिचाहट दिखाई देती।  हाथ में रुपए–पैसे का ना होना भी उसे दयनीय बना देता था।

गुड्डो समझ रही थी कि अम्मा किसी उलझन में है। तभी झुकी हुई पीठ को सीधी करने की कोशिश करते हुए कमर पर हाथ रखकर अम्मा बोली – “ऐसा कर गुड्डो तू ये रुपए रख बच्चों के लिए मिठाई मंगवा ले,  यह कहकर वह ब्लाउज में बड़ी हिफाजत से रखा बटुआ निकालने लगीं।“

बटुआ निकालकर अम्मा उसे खोलकर देखे इससे पहले ही गुड्डो ने उसका हाथ पकड़ लिया – “रहने दो अम्मा ! मैं तुम्हारे पास आऊंगी तब दे देना।”

“तब ले लेगी तू ?”

“हाँ।”

“मना मत करना यह कहकर कि बस ग्यारह रुपए से टीका कर दो।”

“नहीं करूंगी बाबा ! अभी रखो अपना बटुआ संभालकर।”

अम्मा अपना बटुआ जतन से संभालकर रख लेती इस बात से अनजान कि बटुए में रुपए हैं भी या नहीं। बढ़ती उम्र के कारण वह अक्सर बहुत – सी बातें भूल जाती थी।  गुड्डो को मालूम था कि बटुए में सिर्फ दो सौ रुपए पडे हैं। बटुआ खोलने के बाद दो सौ रुपए देखकर उसके चहरे पर जो बेचारगी का भाव आएगा गुड्डो उसे देखना नहीं चाहती थी इसलिए वह हर बार कुछ बहाना बनाकर ऐसी स्थिति टाल देती। माँ का मन बहलाने के लिए वह बोली – “अम्मा ! तुम्हें कलकत्ता की ताँतवाली साड़ी बहुत पसंद है, ना चलो दिलवा दूँ।”

“हाँ चल, पर साड़ी के पैसे मैं ही दूंगी।”

“हाँ – हाँ, तुम्हीं देना, चलो तो।”

ताँत की रंग – बिरंगी साड़ियों को देखकर अम्मा खिल उठी।  अपने लिए उसने हल्के हरे रंग की साड़ी पसंद की।  मुझसे बोली – “गुड्डो ये पीली साड़ी तू ले ले।  बहुत जंचेगी तुझ पर।  सूती साड़ी की बात ही कुछ और है।  मैं तेरे लिए कुछ नहीं लाई, यह साडी तू मेरी तरफ से ले लेना।  आज मना मत करना। लड़की को कुछ दो ना, उससे लेते रहो, ऐसा पाप ना चढाओ बेटी मेरे सिर।”  ये कहते – कहते अम्मा ने बटुआ निकाल लिया।  बटुए में सौ – सौ के सिर्फ दो नोट देखकर उसका चेहरे का रंग उतर गया।  दबी आवाज में बोली – “गुड्डो बिल कितना हुआ ? ” गुड्डो झिझकते हुए बोली – इक्कीस सौ रुपए अम्मा।”

“अच्छा” – उसने एक बार हाथ के दो नोटों की ओर देखा,  उसके चेहरे पर दयनीयता झलकने लगी।  घबराए से स्वर में बोली – “तू – तू — ये दो सौ तो रख ले बाकी मैं तुझे बाद में दे दूंगी।”

“ठीक है अम्मा, मैंने दिया, तुमने दिया, एक ही बात है।” गुड्डो अपने घर में माँ को जिस स्थिति से बचाना चाह रही थी अब वह मुँह पसारे खडी थी। अम्मा हँस रही थी पर उदासी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।  अपनी उदासी को छुपाने का उसका यह बहुत पुराना तरीका था।

घर पहुँचते ही अम्मा ने साड़ी के बैग एक तरफ डाले और जल्दी से रसोई में जाकर सिंक में पड़े कप – प्लेट धोने लगी।  वह अपने – आप से बोले जा रही थी – “गुड्डो दो महीने से तेरे घर में पड़ी खटिया तोड़ रही हूँ।  तेरे किसी काम की नहीं।  तुझे जो – जो काम करवाने हों मुझे बता।  गरम मसाला, हल्दी, लाल मिर्च सब मंगवा ले।  मैं कूट, छानकर रख दूंगी।  साल भर काम देंगे।  बाजार की हल्दी तो कभी ना लेना।  पता नहीं दुकानदार कैसा रंग मिलाते हैं उसमें।  घर की हल्दी हो तो बच्चों को रात में दूध में डालकर दो, सर्दी में बहुत आराम देती है।  तू भी पियाकर हड़डियों के लिए अच्छी होती है।  खूब आराम कर लिया मैंने।  तबियत भी ठीक हो गई है।  सब काम कर सकती हूँ मैं अब।”

झुकी पीठ लिए अम्मा जल्दी‌ – जल्दी काम निपटाना चाह रही थी।  गुड्डो दूर खड़ी  अम्मा के मन में उपजे अपराध – बोध को महसूस कर रही थी।  वह उसे समझाना चाहती थी कि अम्मा ! तुम अपनी बेटी के घर में हो, तुमने यहाँ आकर कुछ गलत नहीं किया।  तुम मुझे साड़ी नहीं दिला सकी तो कोई बात नहीं।  बचपन में कितनी बार तुमने मुझे अच्छे कपड़े दिलवाए और अपने लिए कुछ नहीं लिया।  कितनी बार मेरी जरूरतें पूरी करके ही तुम खुश हो जाती थीं।  मैं बेटा नहीं हूँ, कुलदीपक नहीं हूँ तुम्हारे परिवार का ? पर बेटी तो हूँ तुम्हारी।  मेरे पास उतने ही अधिकार से रहो, जितना तुम्हारे अगर बेटा होता तो तुम उसके पास रहतीं।  किस अपराध बोध से इतना झुक रही हो अम्मा ?

गुड्डो की आँखों से झर – झर आँसू बह रहे थे। वह कुछ कह ना सकी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 18 ☆ दीपावली विशेष ☆ पटाख साले ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  अब लीजिये दीपावली का रंग बिरंगे   उत्सव का  भी शुभारम्भ हो चूका है. आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “पटाख साले”.  श्री विवेक रंजन जी का यह व्यंग्य शुभ दीपावली पर विभिन्न  रिश्तों को विभिन्न पटाखों  की उपमाएं देकर सोशल मीडिया पर ई -दीपावली में ई-पाठकों के साथ  ई-मिठाई  का स्वाद देता है . श्री विवेक रंजन जी ने  व्यंग्य  विधा में इस विषय पर  गहन शोध किया है. इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 18 ☆ 

 

☆ पटाख साले ☆

 

कल एक पार्टी में मेरे एक अभिन्न मित्र मिल गये. उनके साथ जो सज्जन थे उनसे उन्होने मेरा परिचय करवाते हुये कहा, इनसे मिलिये ये मेरे पटाख साले हैं. मैने गर्मजोशी से हाथ तो मिलाया, पर प्रश्नवाचक निगाहें डाली अपने मित्र की ओर. “पटाख साले” वाला रिश्ता समझना जरुरी था. मित्र ने मुस्कराते हुये खुलासा किया हम साले साहब के साले जी को पटाख साला कहते हैं. मैं भी हँसने लगा. दीपावली के मौके पर एक नये तरह के रिश्ते को समझने का अवसर मिला,  रिश्ते की ठीक ही विवेचना थी साला स्वयं ही बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योकि  “जिसकी बहन अंदर उसका भाई सिकंदर”, “सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ”. फिर ऐसे साले के साले जी को पटाख साले का खिताब दीपावली के मौके पर स्वागतेय है.

यूँ हमारे संस्कारो में रिश्तो को पटाखो से साम्य दिया ही जाता है. प्रेमिकाओ को फुलझड़ी की उपमा दी जाती है. पत्नी शादी के तुरंत बाद अनार, फिर क्रमशः चकरी और धीरे धीरे अंततोगत्वा  प्रायः बम बन जाती  हैं. वो भाग्यशाली होते हैं जिनकी पत्नियां फुस्सी बम होती हैं. वरना अधिकांश पत्नियां लड़लड़ी, कुछ लक्ष्मी बम तो कुछ रस्सी वाला एटमबम भी होती हैं. साली से रंगीन दियासलाई वाला बड़ा प्रेमिल रिश्ता होता है. हाँ, सासू माँ के लिये फटाखो में से समुचित उपमा की खोज जारी है. मायके का तो कुत्ता भी बड़ा प्यारा ही होता  है.

इसी क्रम में देवर को तमंचा और जेठ को बंदूक कहा जा सकता है. बच्चे तो फटाको का सारा बाजार लगते हैं बिटिया आकाश में  प्यारा रंगीन नजारा बना देती है और बेटा हर आवाज हर रोशनी होता है.पतिदेव बोटल से लांच किये जाने वाले राकेट से होते हैं. ससुर जी को  आकाश दीप सा सुशोभित किया जा सकता है.  हाँ, ननद जी वो मोमबत्ती होती हैं जिसकी लौ  हर फटाके को फोड़ने में उपयोग होती है और जिसके पिघल कर बहते ही पति सहित  फटाको का पूरा पैकेट रखा रह जाता है.  सासू माँ जो कितना भी प्रयास कर लें कभी भी माँ बन ही नही पातीं, रोशनी और बम के कॉम्बिनेशन वाला फैंसी फटाका होती हैं  या फिर कुछ सासू जी देसी मिट्टी वाले अनार कही जा सकती हैं जो कभी कभी बम की तरह आवाज के साथ फूट भी जाती हैं.

यूँ अब ग्रीन फटाखो का युग आने को है, जिसके स्वागत के लिये मीलार्ड ने भूमिका लिख डाली है. आईये निर्धारित समय पर मशीन की तरह फटाके फोड़ें और व्हाट्सअप पर बधाई, देकर ई-मिठाई खाकर दीपावली मना लें. प्रार्थना करें कि  माँ लक्ष्मी की जैसी कृपा राजनीतिज्ञों पर रहती है वैसी ही वोटरो पर भी हो.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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