मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 18 – स्त्री पर्व ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  पुनः  स्त्री पर  एक कविता  “स्त्री पर्व ”.

सर्वप्रथम क्षमा चाहूँगा – कविता सामयिक होते हुए भी सामयिकता को अनुशासनात्मक स्वरूप न दे पाया। वैसे तो  समय पूर्व कविता मिलने के बावजूद इन पंक्तियों के लिखे जाते तक स्त्री पर्व सतत जारी है….  स्त्री पर्व का अंत असंभव है जहां इस पर्व के अंत की परिकल्पना करते हैं वही नव स्त्री पर्व का प्रारम्भ है। यह सत्य है कि हमारी कविता हमारे जीवन से संवेदनात्मक दृष्टि से जुड़ी हुई है, एक व्यक्तिगत फोटो एल्बम की तरह। जैसे एल्बम के चित्रों में समय के साथ झलकती परिपक्वता के साथ ही कविता परिपक्व होती प्रतीत होती है, वैसे ही हमारी भावनाएं, संघर्ष, संवेदनाएं, वेदनाएं, मानसिकता आदि का आईना होती जाती हैं हमारी कवितायें। फिर एक वह क्षण भी आता है जब लगता है कि संवेदनाएं शेष नहीं रहीं फिर उसी क्षण से अंकुरित होती है नई कविता एक नव स्त्री पर्व की तरह। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 18 ☆

 

☆ स्त्री पर्व ☆

 

आज कवितेच्या वह्या चाळताना  जाणवले ,

दिवसेंदिवस खूप बदलते आहे माझी कविता

जुन्या फोटोंचे अल्बम बघताना जसे दिसतात ,

रंग रुप ,व्यक्तिमत्वात होत गेलेले बदल

काळानुरूप …………

तसेच कवितेतही  उतरले आहेत पडसाद ,

त्या त्या काळातील भावनांचे, मानसिकतेचे ,

जाणिवांचे, संघर्षाचे !!

जुन्या वहीतल्या अश्रूंच्या कविता —

काळजातल्या कल्लोळाच्या, वेदनेच्या !!

त्या नंतरच्या बंडखोरीच्या ….मुक्ततेच्या ,

आणि परिणामाच्याही ……..

आजपर्यंतच्या प्रवासाच्या पाऊलखुणा —-

माझ्यातली मी —कुठून कुठवर आलेली …..

 

…..आजकाल पावसाने झोडपल्याच्या ,

उन्हाने करपविल्याच्या खुणाही, टिपत नाही लेखणी !!

 

जणू लढाई संपली आहे  !

 

ही असेल कदाचित …….युद्धानंतरची शांतता ……

 

की लढून मिळविलेल्या ,

 

——नव्या स्त्रीपर्वाची सुरुवात??

 

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 11 ☆ खासियत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “खासियत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 11 ☆

 

☆ खासियत

उसकी रंगत ऐसी हो

कि उसे देखते ही

आँखें बेजुबाँ हो जाएँ

और उसे निहारती ही रहें…

 

उसकी ताज़गी ऐसी हो

जैसे गुलनार

अभी-अभी खिला हो

और कायनात को महका रहा हो…

 

उसकी खुश्बू ऐसी हो

कि अपने आप लोग

उसके पीछे खिंचे चले आयें

जैसे कोई परवाना

शमा को देखकर आ जाता है…

 

उसका ज़ायका ऐसा हो

कि गले को यूँ सुकूं मिले

कि उसकी कोई ख्वाहिश

बाकी न रह जाए…

 

चाय,

महज़ चाय नहीं होती

वो तो साथियों को बाँधने वाली

एक अनमोल कड़ी है,

और वो

ख़ास तो होनी ही चाहिए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 8 ☆ उपन्यास  – एकता और शक्ति  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 8 ☆ 

☆ पुस्तक – उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास) 

 

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)

लेखक –  अमरेन्द्र नारायण

प्रकाशक –   राधाकृष्ण प्रकाशन ,राजकरल प्रकाशन समूह , 7/31 अंसारी रोड दरयागंज, नई दिल्ली

www.radhakrishnaprakashan.com, E-mail: [email protected]

 

☆ पुस्तक  – उपन्यास  – एकता और शक्ति – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

☆ उपन्यास  – एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)☆

 

एकता और शक्ति उपन्यास स्वतंत्र भारत के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर आधारित कृति है. इस उपन्यास की रचना  गुजरात के रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर की गयी है. श्री वल्लभभाई पटेल के महान  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हजारो लोग खेड़ा सत्याग्रह के दिनों से ही उनके अनुगामी हो गए थे और उनकी संघर्ष यात्रा के सहयोगी बने थे.  पुस्तक में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को और उनके अद्वितीय योगदान का प्रामाणिक रूप से वर्णन किया गया है.

महान स्वतंत्रता सेनानी… कर्मठ देशभक्त…  दूरदर्शी नेता… कुशल प्रशासक…! सरदार वललभभाई पटेल के सन्दर्भ में ये शब्द विशेषण नहीं हैं. ये दरअसल उनके व्यक्तित्व की वास्तविक छबि है.   स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद अनेक समस्याओं से जूझते हुए भारतवर्ष को संगठित करने, उसे सुदृढ़ बनाने और नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर कराने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही है. ‘एकता और शक्ति’ स्वतंत्र भारत के इस महान शिल्पी को लेखक की विनम्र श्रद्धांजली  है. यह उपनयास एक सामान्य कृषक परिवार  के किरदार से सरदार की कार्य -कुशलता, उनके प्रभावशाली नेतृत्व और अनुपम योगदान का का ताना-बाना बुनता है ।उपन्यास सरदार श्री के जीवन से सबंधित कई अल्पज्ञात या लगभग अनजान पहलुओं को भी नये सिरे और नये नजरिये से छूता है.

यह उपन्यास सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम जीवन से  नयी पीढ़ी में राष्ट्रनिर्माण की अलख जगाने का कार्य कर सकता है . आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना आवश्यक है, जिसमें यह उपन्यास अपनी महती भूमिका निभाता नजर आता है.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का भारत में त्वरित विलय कराने, स्वाधीन देश में उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था बनाने और कई कठिनाइयों से जूझते हुए देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कराने में, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम रहा है. वे लाखों लोगों के लिए अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं. एकता और शक्ति, सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक सामान्य कृषक परिवार की कथा के माध्यम से, सरदार श्री के प्रभावशाली कृशल नेतृत्व का एवं तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है. साथ ही, एक सम्पन्न एवं सशक्त भारत के निर्माण हेतु उनके प्रेरक दिशा-निर्देशों पर भी प्रकाश डाला गया है.

अमेरन्द्र नारायण एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र के अन्तरराष्ट्रीय दूर संचाार संगठन एशिया पैसिफिक टेली कॉम्युनिटी के भूतपूर्व महासचिव एवं भारतीय दूर संचार सेवा के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं. उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने स्वर्ण पदक से और संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन ने टेली कॉम्युनिटी को स्वर्ण पदक से और उन्हें व्यक्तिगत रजत पदक से सम्मानित किया.

श्री नारायण के अंग्रेजी उपन्यास—फ्रैगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स  का उर्दू अनुवाद खुशबू सरहदों के पास नाम से प्रकाशित हो चुका है. भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम अब्दुल कलाम साहब, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पुस्तक की सराहना की है. महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह और फिजी के प्रवासी भारतीयों की स्थिति पर आधारित उनका संघर्ष नामक उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ है. उनकी पाँच काव्य पुस्तकें—सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी, मेरा भी और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन पाठकों द्वारा प्रशंसित हो चुकी हैं. श्री नारायण को अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है.

श्री अमरेन्द्र नारायण जी  के इस प्रयास की व्यापक सराहना की जानी चाहिये . यह विचार ही रोमांचित करता है कि यदि देश का नेतृत्व लौह पुरुष सरदार पटेल के हाथो में सौंपा जाता तो आज कदाचित हमारा इतिहास भिन्न होता . पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है .

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 18 – जीवन साथी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “जीवन साथी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि –  पति पत्नी अपने परिवार के दो पहियों की भाँति होते हैं ।  यदि वे  मात्र आपने परिवार ही नहीं अपितु एक दूसरे के परिवार का भी ध्यान रखें तो जीवन कितना सुखद हो सकता है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 18 ☆

 

☆  जीवन साथी ☆

 

जीवनसाथी कहते ही मन प्रसन्न हो जाता है।  दोनों परिवार वाले और पति पत्नी का साथ सुखमय होता है। ऐसे ही ममता और विनोद की जोड़ी बहुत ही सुंदर जोड़ी। ममता अपने गांव से पढ़ी लिखी थी और विनोद एक इंजीनियर।

ममता के घर खेती बाड़ी का काम होता था। भाई भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। सभी खेती किसानी में लगे थे परंतु सभी खुशहाल थे। ममता के पिताजी यदा-कदा ममता के यहां शहर आना-जाना करते थे। ममता को अपने ससुराल में सभी के साथ घुल मिल कर रहता देख पिताजी खुश हो जाते थे। बात उन दिनों की है जब स्मार्टफोन का प्रचलन शुरू हुआ था।

गांव में भी किसी किसी के पास फोन हुआ करता था परंतु ममता के मायके में फोन अभी तक नहीं आया था। कुछ दिनों बाद ममता के भाइयों ने स्मार्ट फोन ले लिया परंतु पिताजी को नहीं देते थे। उनका भी मन होता था फोन के लिए। एक दिन शहर आए थे ममता के घर बड़े ही उदास मन से बेटी से बात कह रहे थे कि उनका भी मन फोन लेने को होता है परंतु अभी पैसे नहीं हो पा रहे हैं दूसरे कमरे से विनोद चुपचाप पिताजी और ममता की बात सुन रहे थे।  अपने समय पर वह ऑफिस निकल गए। ममता पिता जी की बातों से दुखी थी। दिन भर अनमने ढंग से काम कर रही थी।

शाम होते ही विनोद ऑफिस से घर आए। चाय बनाकर ममता ले आई पिताजी साथ में बैठे थे। विनोद ने बैग से पैकेट निकाल पिताजी को देते हुए कहा-  पिताजी आपके लिए। ममता आश्चर्य से देखती रह गई उनके हाथ में स्मार्टफोन का डिब्बा था। ममता की आंखों से आंसू निकल आए। पिताजी भी कुछ ना बोल सके खुशी से विनोद को गले लगा लिया।

ममता दूसरे कमरे में चली गई विनोद ने जाकर कंधे पर हाथ रख कर कहा कि क्या तुम्हारे पिताजी के लिए मैं इतना भी नहीं कर सकता। तुम दिन भर मेरे घर परिवार की देख भाल करती हो आखिर वह भी हमारे पिताजी हैं।

इतना समझने वाला जीवन साथी पाकर ममता बहुत खुश है। ईश्वर से बार-बार प्रार्थना करती रही सुखमय जीवन के लिए और विनोद जैसा जीवन साथी पाने के लिए।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 3 – ☆ माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ” । इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 3 ☆

 

☆ माझ्या पाठच्या बहिणी – कवयित्री पद्मा गोळे ☆ 

 

काव्यदिंडीच्या निमित्ताने कवयित्री पद्मा गोळेंच्या अनेक कवितांची सौंदर्ययात्रा झाली. ‘ चाफ्याच्या झाडा’शी साधलेला सुरेल तरल संवाद मनाला भिडला, अफाट आकाशाला डोळ्यांत सामावून घेत गगनभेदी निळया स्वप्नांचा वेध घेणारी ‘आकाशवेडी’ची झेप डोळे दीपवून गेली, शब्दाच्या सामर्थ्याची प्रचीति ‘मौना’ तून आली ‘बकुळीची फुलं’ गंधभारल्या आठवणी पालवून गेलीत, तर ‘स्वप्न, रात्र, निद्रा’ गोड समर्पणभाव मनात जागवून गेली. पद्मा गोळेंच्या हळुवार स्त्री मनाची स्पंदनं टिपतांनाच माझं लक्ष वेधून घेतलं  लोभस रूपड्यातल्या ‘ माझ्या पाठच्या बहिणी’ ने. मोठ्या बहिणीच्या अंतरीच्या जिव्हाळ्यात आरपार भिजलेली, हळुवार भावनांच्या साजाने नटलेली ही पाठची बहिण!

 

*माझ्या पाठच्या बहिणी*

 

माझ्या पाठच्या बहिणी

तुझ्या संगती सोबती

आठवणी पालवती

शैशवाच्या

 

तुझ्या संगती सोबती

मज माहेर भेटले

आणि मनात दाटले

काहीतरी

 

गडे आलीस पाहुणी

ग्रीष्मी झुळुक वाऱ्याची

आसावल्या मानसाची

तृप्ती झाली

 

बाळपणीची ममता

आंबा पाडाचा मधुर

अजुनही जिव्हेवर

रूची त्याची

 

तुझे माझे घरकुल

उभे अजून माहेरी

जणू पऱ्यांची नगरी

शोभिवंत

 

आज भिन्न तुझे गांव

भिन्न तुझे माझे नांव

परि ह्रदयीचा भाव

तोच राही

 

तुझे दाट मऊ केस

विंचरले माझे हाती

सुवासिक त्यांची स्मृति

अजूनही

 

तुझ्या संगती सोबती

भांडलेही कितीकदा

वाढे भांडून ममता

पटे अाज

 

चार दिवस बोललो

आठवणी उजळीत

चिंचा आवळे चाखीत

शैशवीचे

 

चार दिवस हिंडलो

वेष सारखा करूनी

पुन्हा कुणीही बहिणी

ओळखाव्या

 

चार दिस विसरलो

तू, मी, माता नि गृहिणी

विनोदाने हूडपणी

बोलतांना

 

तुझी माझी गं ममता

वेळ गोड पहाटेची

मना तजेला द्यायची

निरंतर

 

घरी निघाली पाहुणी

टाळते मी तुझी दृष्टी

वाटे अवेळीच वृष्टी

होईल की…..

 

पाठीला पाठ लावून आलेल्या, बरोबरीने लहानाच्या मोठ्या होणाऱ्या बहिणींचे भावबंध म्हणजे सुबक वीणीची, आकर्षक रंगसंगतीची मऊ सूत शालच नव्हे काय ? अविरत मायेची शिंपण करत, फुलवणारं, जोपासणारं दोघींचं लडिवाळ माहेरही एक आणि रुणझुणत्या संवादाच्या गळामिठीला, कुरकुरत्या वादाच्या कट्टी बट्टीला साक्षी असलेलं अंगणही एकच !

शैशव, किशोरावस्थेचा टप्पा बरोबरीने पार करतांना तारूण्यात पदार्पण होतं, माहेरचा उंबरा ओलांडतांना जडशीळ झालेली पावलं, सासरच्या उंबऱ्यावरचं माप ओलांडायला अधीर होतात, सासरी हळूहळू स्थिरावतात, रमतात. कधी तरी सय येते थोरल्या बहिणीची  धाकलीला आणि पावलं वळतात तिच्या घरट्याच्या दिशेला. भेटीला आलेल्या धाकट्या बहिणीबरोबर, पुन: बालपणीचे सुखद स्मृतींचे शंखशिंपले वेचतांना, संपन्न माहेराची  चांदणझूल पांघरतांना, शैशवीच्या आंबटगोड आठवणींचा आस्वाद घेतांना, थोरलीच्या आयुष्यातला तोच तो पणा, मनाला आलेली मरगळ कुठल्या कुठे पळून जाते. जणू धाकलीचं तिच्या घरी येणं म्हणजे..जणू ऐन ग्रीष्मातली  शीतल  वाऱ्याची झुळुकच…आसावल्या मनाला शांतवणारी..सुखविणारी !

आज दोघींची ओळख नावगावासकट  जरी बदलली असली तरी दोघींच्या मनीचा ओढाळ ममत्वभाव अगदी तस्साच आहे..अगदी मधुर पाडासारखा ! कर्तेपणाची, मोठेपणाची झूल उतरवत, मनात दडलेल्या मुलाला हाकारत, एकमेकींच्या संगती खळखळून हंसतांना, बालपणीचं झुळझुळतं वारं पुन्हा एकदा अंगावर घेतांना वास्तवाचा विसर दोघींना पडतो ! लहानपणीच्या रूसव्या फुगव्यांनी जणू एकमेकींना अधिकच जवळ आणलंय याची खूणगाठ अंतरी पक्की होते, बहिणीचे दाट मऊ केस विंचरल्याच्या सुवासिक स्मृतींभोवती मन भिरभिरतं. पुन: एकदा बालपण जागवत सारखा वेष करत बहिणी बहिणी म्हणून  मिरवण्याचा मोह होतो. आपलं घट्ट नातं आपण दिमाखात मिरवावं, जगानेदेखील कौतुकाने बघावं असा मोह ह्या मायेच्या बहिणी बहिणींना नाही झाला तरच नवल !

काळ वेळ आणि वास्तवाचं भान करून देणारा निरोपाचा अटळ क्षण शेवटी येऊन ठेपतो. मन अधिकच हळवं होतं. पुन: कधी भेट…?

..अशी ओठावरच्या शब्दांची जागा घेणारी  व्याकूळ नजर..नजरानजर होताच बांध फुटेल की काय अशी अवस्था..!

बहिणी बहिणींचं प्रेमाचं नातं खुलवतांना विविध उपमांतून किती  सुरेख रंग भरलेत कवयित्रीने ! बालपणीच्या निरागस लळ्याला, पाडाला आलेल्या मधुर  आंब्याची उपमा देणं,  तिच्या येण्याला ग्रीष्मात अवचित आलेली सुखावणारी शीतल वाऱ्याची झुळुक मानणं, त्यांचा आपसातला जिव्हाळा म्हणजे मनाला टवटवी देणारी पहाटवेळ मानणं ! अशा समर्पक उपमांनी ह्या नात्याचे रंग अधिकच गहिरे होतात आणि नजरेत भरतात.

जरी काळ बदलला, संदर्भ बदलले तरी बहिणी बहिणींचा आपसातला अनेक पदरी जिव्हाळा खरंच फारच लोभस असतो. आणि त्याच्या छटा आपल्या विलोभनीय रूपाने मनाला भुरळ घालतातच, अगदी पद्मा गोळेंनी शब्दरूपाने साकारलेल्या ‘माझ्या पाठच्या बहिणी’ सारख्याच !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #19 – नऊ रंगांची वस्त्रे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एकसामयिक एवं सार्थक कविता “धूर्त सारथी”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 19 ☆

 

 ☆ नऊ रंगांची वस्त्रे ☆

 

नऊ दिवस नऊ रंगांची वस्त्रे लेऊन

ती समाजात मिरवते आहे

तरीही मला नाही वाटत

ती माझी जिरवते आहे

 

अक्षराच्या माथ्यावर असलेल्या

अनुस्वाराइतकी लाल टिकली

आणि स्लीवलेस ब्लाउजवर

नेसलेली तिची लाल भडक साडी…

मी कपाळभर रेखाटलेलं भाग्याचं कुंकू

ते मात्र तिला असभ्य पणाचं लक्षण वाटतं

 

आजच्या पिवळ्या रंगालाही

मी सांभाळलंआहे

हळदी कुंकाच्या साक्षीने

 

हिरव्या रंगाची साडी नसली तरी

हातभार हिरव्या रंगाचा चुडा

असतो माझ्या हातात कायम

 

निळ्या आकाशाखाली

मी रांधत असते भाकर

गरिबीच्या विस्तवावर

निसर्गाच्या सानिध्यात

 

राख-मातीने माखलेल्या, राखाडी रंगाच्या

दोनचार जाड्याभरड्या साड्या

आहेत माझ्याकडे, त्याच नेसते मी

ग्रे रंग असेल त्या दिवशी

 

सकाळी सकाळी सूर्याने केलेली

केसरी रंगाची उधळण

दिवसभरासाठी

उर्जा देऊन जाते मला

 

पांढऱ्या शुभ्र फुलांचा गजरा

माळला आहे मी केसांच्यावर

त्याचा गंध सोबत करतो मला दिवसभर

 

आजचा रंग आहे गुलाबी

अगदी माझ्या गालांसारखा

पावडर लावून

पांढराफटक नाही करत मी त्याला

 

अंगणात लावलेल्या वांग्यानी

परिधान केलेला जांभळा रंग

आज माझ्या भाजीत उतरून

कुटुंबाच्या पोटाची सोय करणार आहे

 

नऊ रंगांची नऊ वस्त्रे

माझ्याकडे नसली तरी

निसर्गाच्या नऊ रंगांचा आनंद कसा घ्यायचा

हे शिकवलंय मला निसर्गानंच…!

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 – गांव नहीं जाना बापू …….☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “व्यंग्य  –गांव नहीं जाना बापू…..” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 ☆

 

व्यंग्य – गांव नहीं जाना बापू ….. 

 

जैसई गंगू खुले में शौच कर लोटे का पानी खाली कर रहा था कि उधर से आते एक परिक्रमावासी बाबा दिख गये, गंगू ने जल्दी जल्दी पजामे का नाड़ा बांधा और हर हर नरमदे कह के बाबा को सलाम ठोंक दिया। परिक्रमावासी हाथ में टेकने की लाठी लिए थे, सफेद गंदी सी चादर ओढ़े और गोल-गोल चश्मा लगाए गंगू से गांव का नाम पूछने लगे। गंगू के बार बार बाबा – बाबा कहने पर वे चिढ़ गए बोले – मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. इन दिनों दोनों राजनीतिक पार्टी के नेता खूब मंदिरों के दर्शन कर रहे हैं और नर्मदा की परिक्रमा करके राजनीति कर रहे हैं इसलिए मैं भी नर्मदा परिक्रमा के बहाने गांवों के हालात देखने निकला हूँ….. चलो तुम्हारे गांव में कुछ चाय-पानी की हो जाए।

गंगू बापू को लेकर गांव की तरफ चल पड़ा…प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच बैगा बाहुल्य गांव टेकरी में बसा है, पड़ोस में कल – कल बहती पुण्य पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी – भरी पहाड़ियों से घिरा गांव पर्यटन स्थल की तरह लग रहा था। रास्ते में गंगू ने बताया – बहुत गरीबी, लाचारी बेरोजगारी और बिना पढ़े लिखे लोगों के इस गांव को सांसद जी ने गोद लिया है गोद लिये तीन साल से हो गए…..?   बापू ने पूछा – सांसद जी कभी तुम्हारे गांव आते हैं?

गंगू ने बताया – दरअसल मंत्री बन जाने से वे बेचारे ज्यादा व्यस्त हो गए तो तीन चार साल से नहीं आ पाए हैं पर जब चुनाव होता है तो थोड़ी देर के लिए हाथ जोड़ने ज़रूर आते हैं।

गंगू को चुहलबाजी में थोड़ा मजा आता है पूछने लगा – बाबा जी, सांसद जी ने अचानक ये गांव क्यों गोद ले लिया जबकि वे तो 30-40 साल से इस एरिया के सांसद हैं ?     बापू फिर नाराज हो गए बोले – तुम से कहा न…. कि बाबा नाम से हमें चिढ़ हो गई है फिर भी तुम बार – बार बाबा – – बाबा कह के चिढ़ाते हो….. हमारा नाम  “बापू” है…

तो सुनो अब तुम्हें विस्तार से बताता हूँ. एक मोहनदास करमचंद गांधी थे उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी उस गांधी ने चाहा था कि गांव गणतंत्र के लघु रूप हैं इसलिए गांव के गणतंत्र पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी की जाए, अब जे ईवेंट छाप प्रधानमंत्री ने कुछ नया करने के चक्कर में सभी सांसदों को एक – एक गांव विकास के लिए पकड़ा दिया। गांव गोद लो और आदर्श ग्राम बनाओ नही तो बिस्तर लेकर घर जाओ….. अंतरआत्मा से कोई सांसद इस लफड़े में पड़ना नहीं चाहता था तो बिना मन के सांसदों ने गांव गोद ले लिया कई ने तो ऐसा गांव गोद लिया जहां कोई पहुंच न पाए, हालांकि सब जानते हैं कि दिल्ली से गरीबों के उद्धार के लिए चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के सरपंच के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं……… ।

बापू की सब बातें गंगू के सर के ऊपर से निकल रही थीं। गंगू बोल पड़ा – बापू ये आदर्श ग्राम क्या होता है ?

तब बापू ने बताया कि आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत ग्राम के वैयक्तिक, मानवीय, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलती है। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना – धोना और दांत साफ करने की आदतों की सीख दी जानी चाहिए, गांव में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, स्मार्ट स्कूल में पढ़ाई – लिखाई, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हास्टल और खेती – बाड़ी का विकास होना चाहिए….. और बताऊँ कि बस…… ।

गंगू को लगा ये बापू बड़ी ऊंची ऊंची बातें कर रहा है … परिक्रमावासी बाबा जैसा तो लग नहीं रहा है ? फिर….. अरे अभी दो साल पहले गांव में एक परिक्रमावासी बाबा आये थे तो गाँव भर के लड़कों को गांजा – भांग, दारू सिखा गये थे और गांव की अधिकांश नयी उमर की लड़कियों को निकास के भाग गए थे। पर ये बाबा अपने को बापू – बापू कहके बड़ी बड़ी बातें कर रहा है कहीं कोई खोट तो नहीं है ये परिक्रमावासी में…………

गंगू अंदर से थोड़ा डर सा गया पर बापू के कहने पर गांव में बापू के रुकने की जगह तलाशने लगा, पता चला कि पंचायत भवन में सरपंचन बाई की गैया बियानी है तो रुकने के लिए पंचायत भवन में जगह नहीं मिलेगी, हार कर गंगू ने तय किया कि अपने घर की परछी में बापू को सोने की जगह दे दी जाएगी…… घरवाली को पहले से ही हिदायत दे देंगे कि वो बाबा – आबा के चक्कर में पैर – वैर पड़ने बाहर न आये क्योंकि आजकल अधिकांश बाबा लोगों का कोई ठिकाना नहीं है।

जगह तलाशते – तलाशते हारकर गंगू ने बापू से कहा कि गांव में रुकने के लिए कहीं जगह तो है नहीं….. तो एक दिन की बात है बापू हमारे टूटे घर की परछी में रह लेना, पर बापू सच्ची सच्ची बताएं कि आपकी ये ऊंची ऊंची बेसुरी बातें हमारे समझ के बाहर हैं… काहे से कि हमारे गांव में न तो आज तक बिजली लगी, न सड़क बनीं, एक ठो धूल – धूसरित मदरसा जरूर है जिसमें नाक बहाते बिना चड्डी पहने बच्चे पढ़ने को कभी-कभी जाते हैं मास्टर कभी-कभी आता है छड़ी लेकर…. ।

एक  बार जिले से एक बाई बड़ी सी कार में आयी रही तो कह गई थी कि गांव का सिर्फ़ विकास ही विकास होना है इसलिए  तहसील जाकर सब लोग विकास से परिचय कर लेवें। जनधन योजना में खाते खुलवा लें। मजाक सी कर रही थी वो। बैंक यहां से 30-40 किमी दूर हैं कछु कयोस-अयोस का नाम ले रही थी तो वो भी 15-20  किमी दूर सड़क के किनारे खुलो है। गाँव भर में साल भर बीमारी पसरी रहती है, डॉक्टर तो कभी आओ नहीं इस तरफ। जिले वाली बाई जरूर कह गई थी कि गांव में हर हफ्ते डाक्टर आके जांच-पड़ताल करेगा और दवाईयां देगा, पर सालो जे गांव ऐसी जगह बसो है कि कोई आन नहीं चाहत। एक हैंडपंप खुदो तो वा में पानी नहीं निकलो। जिले वाली बाई कह रही थी कि घर -घर में नल लगा देहें…. पर बापू वो दिना के बाद वो बाई का भी कोई अता-पता नहीं मिलो……

बापू सुनके सुन्न पड़ गये, काटो तो खून नहीं।

बापू बोले – गंगू…. तुम गांधी जी को जानते हो क्या ? अरे वोई गांधी जिसकी फोटो नोट में छपी रहती है और नोट के पीछे से चश्मे में एक आंख से स्वच्छ देखता है और दूसरी आंख से भारत देख देख के मजाक करता है,   अरे वोई गांधी जिसका नाम ले-लेकर सब नेता लोग अपने अपने बंगले और बड़ी मोटर का जुगाड़ करते हैं और गांव के विकास का पैसा, गरीब के उद्धार का पैसा हजम करके बड़े बड़े पेट बढ़ा लेते हैं……। रोजई – रोज तो गांधी को गोली मारी जाती जाती है।

बापू गांव की उबड़ – खाबड़ गली से गुजरते हुए गंगू के पेट में हवा भरते चल रहे थे, गली में किसी बच्चे के पढ़ने और होमवर्क रटने की आवाज आ रही है.. “मां खादी की चादर ले दे…….. मैं गांधी बन जाऊँ”…… ।

गंगू का घर आ गया था, बापू अंगना में बैठ गए थे,

सरपंच पति वहां से निकले तो गंगू दौड़ के सरपंच पति के कान में खुसरफुसर करते हुए कहने लगा कि खेत में फारिग होने गए थे तो जे परिक्रमावासी टकरा गया, ऊंची ऊंची बात करता है… कहता है मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. नोट में जो एक डोकरा छपा दिखता है कुछ कुछ उसी के जैसे दिखता है……. और पूंछ रहा था कि गांव में कोई गांधी जी को जानता है कि नहीं……..

सरपंच पति हर हर नरमदे कहते हुए अंगना में बैठ गए। गंगू ने बापू को बताया – जे गांव के सरपंच पति हैं और इनका नाम भी  बापू बैगा है। एक बापू दूसरे बापू को देखकर ऐसे मुस्कराये जैसे पुरानी पहचान हो फिर  बापू बोले – यार सरपंच पति, तुम्हारे गांव में मोबाइल का सिग्नल नहीं मिल रहा है तुम्हारा गांव तो डिजीटल इंडिया को ठेंगा दिखा रहा है।  सरपंच पति ने कहा – बाबा जी, बात जे है कि इस गांव से 20-25 किमी के घेरे में सिग्नल नहीं है गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर एक पेड़ में चढ़ने पर मोबाइल के लहराते संकेत कभी कभी मिलते हैं जैई कारण से यहां कयोस-अयोस बैंक नहीं खुल पाई। जनधन खाता के दस बीस खाता खुले थे बैंक वाले पैसा ले गए रसीद भी नहीं दई पासबुक तो दईच नहीं। फसल बीमा के नाम का भी पैसा खा गए।  8-9 लोगन को मुद्रा योजना में एक – एक बकरा लोन में पकड़ा दिया, बकरी की मांग करी तो बोले अभी बकरा से काम चला लो, गांव में एक भी बकरी नहीं है बिना बकरी के सब बकरा मर गए और अब सबको नोटिस भेजन लगे…… ।

बापू सुनके सुन्न पड़ गये काटो तो खून नहीं……. ।

बापू कहन लगे कि सांसद से बताया नहीं कि ऐसे में गांव आदर्श गांव कैसे बन पाएगा। बापू सांसद जी को बताया था वो बोले जो है सब ठीक-ठाक है। पर भाई ऐसे में ये गांधी के सपनों का गांव नहीं बन पाएगा, सांसद से संवाद नहीं है विकास के नाम पर ठेंगा दिख रहा है, आवास योजना में घर नहीं बने, कोई घरवाली को गैस नहीं मिली, मास्टर पढाने आता नहीं, बेरोजगार युवक गांजा दारू में मस्त हैं, शौचालय बने नही और तुम सरपंच पति हो आदर्श ग्राम बनाने का पैसा कहां गया?

सरपंच पति तैश में आ गया बोला – बापू हमको चोर समझते हो? तुमको क्या मतलब हमारे गांव में विकास हो चाहे न हो…… परिक्रमावासी बनके राजनीति करन आये हो…….

गंगू घबरा गया….. हाथ से पानी का गिलास छिटक के दूर गिरा और बापू अचानक बैठे बैठे गायब हो गए……. ।

सरपंच पति और गंगू तब से आज तक यही सोच रहे हैं कि कहीं नोट में छपा डुकरा भूत बनके तो नहीं आया था। उस दिन के बाद से पूरे इलाके में हवा फैल गई कि गांधी जी भूत बनके सांसद का आदर्श ग्राम देखने आए थे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-17 – स्वार्थ वळंबा ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज  प्रस्तुत है मानव के स्वार्थी ह्रदय पर आधारित एक भावप्रवण कविता  – “स्वार्थ वळंबा। )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 17 ☆ 

 

 ☆ स्वार्थ वळंबा  ☆

 

आज मानवी मनाला स्वार्थ  वळंबा लागला।

कसा नात्या नात्यातील तिढा वाढत चालला।।धृ।।

 

एका उदरी जन्मूनी घास घासातला खाई।

ठेच एकास लागता दुजा घायाळकी होई।

हक्कासाठी  दावा   आज कोर्टात चालला ।।१।।

 

मित्र-मैत्रिणी समान , नाते दुजे न जगती ।

वासुदेव सुदाम्याची जणू येतसे प्रचिती

विष कानाने हो पिता वार पाठीवरी केला ।।२।।

 

माय पित्याने हो यांचे कोड कौतुक पुरविले।

सारे विसरूनी जाती बालपणाचे चोचले।

बाप वृद्धाश्रमी जाई बाळ मोहात गुंतला।।३।।

 

फळ सत्तेचे चाखले मोल पैशाला हो आले ।

कसे सद्गुणी हे बाळआज मद्य धुंद झाले।

हाती सत्ता पैसा येता जीव विधाता बनला।।४।।

 

सोडी सोडी रे तू मना चार दिवसाची ही धुंदी।

येशील भूईवर जेव्हा हुके जगण्याची संधी।

तोडी मोहपाश सारे जागवूनी विवेकाला।।५।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 18 – व्यंग्य – बड़ेपन का संत्रास ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने बड़ेपन के सुख को ढांकने के पीछे की पीड़ा झेलने की व्यथा की अतिसुन्दर विवेचना की है. उस पीड़ा को झेलने के बाद जो अकेलेपन में हीनभावना से ग्रस्त होते हैं , उनकी अलग ही  व्यथा है.  ऐसे अछूते विषय पर एक सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “बड़ेपन का संत्रास”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 18 ☆

 

☆ व्यंग्य  – बड़ेपन का संत्रास ☆

 

बंधुवर, निवेदन है कि जैसे ‘छोटे’ होने के अपने संत्रास होते हैं वैसे ही ‘बड़़े’ होने के भी कुछ संत्रास होते हैं। बड़ा होते ही आदमी के ऊपर कुछ अलिखित कायदे-कानून आयद हो जाते हैं। मसलन,बड़े आदमी को मामूली आदमी की तरह गाली-गुफ्ता का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए,या सड़क के किनारे ठेलों पर खड़े होकर चाट -पकौड़ी नहीं खाना चाहिए (कार के भीतर खायी जा सकती है), या घर में बीवी से झगड़ा करते वक्त खिड़कियां बन्द कर देना चाहिए और टीवी की आवाज़ तेज़ कर देना चाहिए। यह भी कि मेहनत के काम खुद न करके छोटे लोगों से कराना चाहिए। हमारे समाज में संपन्नता की पहचान यही है कि हाथ-पाँव कम से कम हिलाये जायें। देखकर लगता है ऊपर वाले ने व्यर्थ ही इन्हें हाथ-पाँव दे दिये।

मेरी तुरन्त की पीड़ा यह है कि घर की पानी की मोटर खराब हो गयी है और मुझे कुछ दूर नल से पानी लाना पड़ता है। पानी लाने में खास कायाकष्ट नहीं है लेकिन मुश्किल यह है कि नल से घर तक पानी लाने में तीन-चार घरों के सामने से गुज़रना पड़ता है। भारी बाल्टियां लाने में पायजामा पानी में लिथड़ जाता है। दो-तीन चक्कर लगाने में अपनी इज़्ज़त अपनी ही नज़र में काफी सिकुड़ जाती है। जिस दिन पानी भरता हूँ उस दिन शाम तक हीनता-भाव से ग्रस्त रहता हूँ।

यही संकट गेहूं पिसाने में होता है। पहले जब साइकिल के पीछे कनस्तर रखकर ले जाता था तब एक बार में काफी इज़्ज़त खर्च हो जाती थी। जब से स्कूटर ले लिया तब से पेट्रोल तो ज़रूर खर्च होता है, लेकिन इज़्ज़त कम खर्च होती है।

कुछ दिन पहले तक सामने वाले घर के अहाते में कई टपरे बने थे। छोटे-मोटे कामों के लिए सामने से किसी को बुला लेते थे, इज़्ज़त बची रहती थी। जब से टपरे टूट गये तब से हम सभी नंगे हो गये। लगता है ये छोटे आदमी ही हमारी इज़्ज़त को ढंके हैं। जिस दिन इनका सहारा नहीं मिलेगा उस दिन बड़े लोग कौड़ी के चार हो जाएंगे।
कभी मेरे नीचे वाले मकान में एक सरकारी अधिकारी रहते थे। एक दिन मैंने उनके घर में एक करिश्मा देखा। शाम को पति और पत्नी आराम से लॉन में टहल रहे थे। पास ही स्कूटर खड़ा था। मैंने देखा कि एकाएक बिजली की तेज़ी से पति महोदय ने स्कूटर का हैंडिल पकड़ा और पत्नी ने पीछे से धक्का दिया। पलक झपकते स्कूटर बरामदे में चढ़ गया। इसके बाद पति-पत्नी फिर उसी तरह लॉन में टहलने लगे। सब काम किसी सिनेमा के दृश्य जैसा हो गया और मैं भौंचक्का देखता रह गया। मैंने सोचा, हाय रे, बड़ापन लोगों को कैसे मारता है। स्कूटर रखना है लेकिन सबके सामने रखने से अफसरी में बट्टा लगता है, इसलिए तरह तरह के कौतुक करने पड़ते हैं।

बहुत से लोग अपने बाप- दादा का बड़ापन कायम रखने में अपनी ज़िंदगी होम कर देते हैं। बाप-दादा का कमाया कुछ बचा नहीं, लेकिन उनकी शान-शौकत बनाये रखने के लिए बची-खुची ज़मीन-ज़ायदाद बेचते रहते हैं और नयी पीढ़ी का भविष्य बरबाद करते रहते हैं।

एक घर में जाता हूँ तो देखता हूँ साहब, मेम साहब और बच्चे तो सजे-धजे हैं लेकिन नौकर का हाफपैंट ऊपर से नीचे तक फटा है। मन होता है साहब से कहूँ कि हुज़ूर, मेरे और अपने जैसे भद्रलोक की खातिर नहीं तो कम से कम मेम साहब की शर्म की खातिर ही इसके शरीर को ढंकने का इंतज़ाम कर दीजिए। इसलिए मेरा अपने वर्ग के सब लोगों से निवेदन है कि यह जो ‘छोटा आदमी’ नाम की चीज़ है उसी पर हमारी इज़्ज़त की यह खुशनुमा इमारत खड़ी है। इसलिए इस चीज़ को ज़रा लाड़-प्यार से रखो ताकि यह चीज़ रहे और इसकी बदौलत हमारी खुशनुमा इमारत बुलन्द बनी रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #15 – मॉं-बाप का साया ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

(इस आलेख का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆  Parent’s shadow ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 15☆

 

☆ मॉं-बाप का साया☆

 

प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे विशाल पेड़ एवम्‌ उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य से जब कभी छाया समाप्त हो जाती है तब हम जान पाते हैं मॉं-बाप का साया माथे पर होने का महत्व!

 

… अनुभव हुआ हम इतने क्षुद्र हैं कि लंबे समय तक गरदन ऊँची रखकर इन पेड़ों को निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है।

 

….ईश्वर सब पर यह साया और उसकी छाया लम्बे समय तक बनाए रखे।…तने को नमन कर लौट आया घर अपनी माँ के साये में।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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