(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को उनके “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत “हर कहानी है नई ”.)
(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है परमपूज्य माँ के स्नेह प्रेम पर आधारित एक भावप्रवण एवं संवेदनशील कविता “असंच काहीसं…!”)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक व्यावहारिक लघुकथा “वज़ूद ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं #35☆
☆ लघुकथा – वजूद ☆
सविता ने पति के जीते जी कभी घर से बाहर कदम नहीं रखा था पर अब क्या कर सकती थी ? घर में खाने को दाना नहीं था और भूखे मरने की नौबत आ गई थी .
तभी बाहर से किसी ने आवाज दी, “सविता भाभी ! आप बुरा न माने तो एक बात कहू ?” डरते-डरते मनरेगा के सचिव ने पूछा – “कहो भैया !” शंका-कुशंका से घिरी सविता बोली तो सचिव ने कहा, “भाभी! मनरेगा के तहत वृक्षारोपण हो रहा है यदि आप चाहे तो इस के अंतर्गत पौधे लगा कर कुछ मजदूरी कर सकती है.”
अंधे को क्या चाहिए, दो आँख. सविता की मंशा पूर्ण हो रही थी. वह झट से बोली “क्यों नहीं भैया, मजदूरी करने में किस बात की शर्म है” यह कहते हुए सविता काम पर चल दी.
वह आज मनरेगा की वजह से अपना वजूद बचा पाई थी. अन्यथा वह अपने पड़ोसी के जाल में फंस जाती जो उस की अस्मिता के बदले मजदूरी देने को तैयार था.
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है बातों बातों में ही एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “बात का बतंगड़”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 5 ☆
☆ बात का बतंगड़ ☆
निष्ठावान होते हुए भी चमनलाल जी अक्सर उदास रहते कि उनकी पूछ – परख कम होती है । जो भी काम करते उन्हें घाटा होता है तो वहीं उनके परम मित्र शिकायती लाल जी भी यही रोना रोते कि उनको परिश्रम का फल नहीं मिल रहा है । चौपाल पर बैठे धरमू लाल जी और लोगों के आने की राह देख रहे थे तभी उनका पोता सोनू आया , उसने पूछा – “बाबा चैली कहाँ रखी है ?”
उन्होंने कहा – “क्या करोगे ?”
“बाबा दादी को सुलगानी है कह रहीं थीं, पूस निकल जाए तो बुढ़ऊ और एक बरस जी जाय।”
ठेठ बघेली में उन्होंने कहा- “कहि देय लुआठी जलाय लेंय, कल लाय के देव चैली ।”
धरमू लाल जी मन में बुदबुदाते हुए बोले – “कउनउ चेली त मिलबय नहीं करय या बुढ़िया और आगी लगावत ही।”
तभी किशोर चन्द्र जी आ गए, उन्होंने मिली – जुली बोली में कहा- “अपना सुनन बकरी और शेर के किस्सा – अभी तक तो शेर और बकरी एक घाट में पानी पी लें उतना ही सुना था अब शेर को बकरी खा गयी चारो ओर हल्ला हो रहा है ।”
“अब का करी किशोरी कलयुग है कौन किसको खा ले पता ही नहीं चलता । जिसकी लाठी उसकी भैस । पहले तो बड़ी मछली छोटी को खाती थी अब तो बड़े- छोटे का लिहाज बचा ही नहीं । पहले मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुणगान होते थे अब तो राम शब्द राजनीति का अखाड़ा बन गया है । कहते हैं राम का नाम लेकर नल नील ने त्रेता युग में सागर बाँध दिया और हम कि उन्हें टेंट में बैठाये हुये मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा में हैं।”
“अरे छोड़ो धरमू इन सब से आम आदमी को क्या लेना देना उसे तो दो जून की रोटी मिले बस इतना ही बहुत था कुछ बरस पहले तक । पर अब तो स्मार्ट फोन भी चाहिए आखिर इक्कसवीं सदी के गरीब का भी तो कोई रुतबा होना चाहिए।”
किशोरी लाल जी मुस्कुराते हुए बोले “जियो ने तो जिया दिया, अब दाल रोटी का और जुगाड़ हो जाय तो आराम से बैठो और रोटी तोड़ो । पाँच बरस में एक बार अच्छी सरकार बना दो और चैन की बंशी बजाओ।”
“अरे बंशी नहीं दिखायी दिया सुना है बालीबुड में सपने पूरे करने गया है।” तभी और लोग भी चर्चा में सम्मलित होने के लिए एकत्र हो गए ।
आज तो चौपाल अपने पूरे रंग में थी पास में अलाव जला लिया गया । गाँव के सबसे बुजुर्ग कक्का जी अपनी अनुभवों की गठरी से एक रोचक किस्सा सुनाने लगे कि कैसे मैट्रिक में उन्होंने अपने गाँव का और प्रदेश का नाम रोशन किया, ये किस्सा जब तब न जाने कितनी बार सुना चुके थे पर लोग भी हर बार ऐसे सुनते जैसे पहली बार हो ।
किस्सा वही लालटेन में पढ़ने से शुरू होता और खेत – खलियान में काम करते हुए गुड़ की डली और मटर की फली पर पूरा होता । बात इतनी लंबी खिचती कि जब तक काकी की याद में आँसू न बह जाए तब तक कक्का जी बोलते रहते फिर धीरे से अपने गमछे से आँसू पोछते हुए लाठी टेकते हुए चल देते राम ही राखे कहते हुए ।
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा जी द्वारा रचित माँ नर्मदा वंदना “समय कब अच्छा रहा है?……..”। )
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
आदरणीय श्री अरुण डनायक जी ने गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर 02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें. आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख “महात्मा गांधी और उनके पुत्र”.)
☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी और उनके पुत्र ☆
महात्मा गांधी कए तीसरे पुत्र रामदास गांधी की पुत्री सुमित्रा गांधी कुलकर्णी की लिखी एक पुस्तक है ” महात्मा गांधी मेरे पितामह” (व्यक्तित्व और परिवार)। इस पुस्तक के अध्याय “हरिलाल गांधी : एक दुखी आत्मा ” में वे बड़े विस्तार से लिखती हैं:
” बापूजी के चार बेटे थे।सितंबर, 1888 में बैरिस्टर बनने के लिए जब बापूजी विलायत गए तब हरिलाल गांधी की उम्र तीन माह की थी । हरिलाल गांधी के बारे में समाज में अनेक धारणाए हैं। वे सिगरेट पीते थे, शराबी थे और व्यभिचारी थे ।उन्होने अपने पिता से विमुख जीवन बिताकर बगावत कर दी थी। बापूजी की मान्यता थी कि उनके और मोटीबा (कस्तूरबा) के आरंभिक जीवन की विषय वासना और मूढ़ता के कारण हरीलाल काका ऐसे बन गए थे।
अफ्रीका जाने के बाद भी पिता वकालत और नाटाल काँग्रेस के काम में सतत व्यस्त रहते। अपने सिद्धान्त के कारण बापूजी ने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में नही भेजा था लेकिन स्वयं भी अपने अनुशासन रख कर बच्चों को कभी नियमित रूप से पढ़ा नही पाये।
बापूजी की आत्मकथा में हरिलाल के जन्म के सिवाय और कहीं कोई उल्लेख नहीं आता है। मुझे शंका है कि बापूजी को उस नादान बच्चे से प्रेम कुछ हट गया था।
हरिलाल की तमन्ना थी कि वह भी अपने पिता के समान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अपनी योग्यता बढ़ाए और समाज के लिए उसका सदुपयोग करे। लेकिन पिता ने तो विद्याभ्यास की आवश्यकता को ही ठुकरा दिया था। यहाँ तक की बापूजी ने अपने मित्र डाक्टर प्राण जीवन मेहता के प्रस्ताव की वे हरि लाल गांधी को अपने खर्चे पर विदेश भेजने के लिए तैयार हैं ठुकरा दिया था।
काकी की मृत्यु के बाद काका यायावर बन गए शराब के नशे में कुछ भी करते थे। लेकिन बुद्धी कुशाग्र थी। एकांगी जीवन से वे घबरा गए थे। उन्होने बापूजी से पुनरलग्न करवाने की विनय करी । बापूजी ने असमर्थता प्रकट करी और कहा, किसी विधवा से विवाह कर लो ।काका वह भी करते लेकिन आंदोलनों की झंझावात में किसे समय था कि कोई विधवा की खोज करे ?
शरारती मुसलमानों के चक्कर में पड़कर 14, मई , 1936 को काका मुसलमान बन गए । अब वे अब्दुल्ला गांधी बन गए। बापूजी के लिखने पर मेरे पिता काका को खोजते हुये बम्बई में जनाब झकारिया के घर पहुँचे। एक उत्साही मुस्लिम जीव ने बापूजी को लिख भी दिया कि , “बेटे के समान इस्लाम अपनाकर पुण्य कमा लो।” भरपूर पैसे, मदिरा और वारांगना तीनों के बाहुल्य के बावजूद इस्लामिक अनुभव ने हमारे काका का मोहभंग कर दिया। मोटीबा ने बम्बई जाकर काका को समझाया।10, नवंबर, 1936 को छह महीने की अल्प अवधि के बाद काका ने आर्य समाज की मदद से पुनः हिंदु धर्म को अंगीकार कर लिया। ”
सुमित्रा गांधी कुलकर्णी ने इसी अध्याय में माँ बेटे के पर मिलन का मार्मिक चित्रण किया है। वे बड़े विस्तार से लिखती हैं कि एक बार जब मोटीबा और बापूजी की ट्रेन कटनी रेल्वे स्टेशन पर खड़ी थी कि हरिलाल वहाँ आए और बा को प्रणाम किया और फिर जेब से एक मौसमी निकाल कर बोले बा में यह तुम्हारे लिए लाया हूँ । जब बापूजी ने कहा मेरे लिए कुछ नही लाया तो उन्होने जबाब दिया नही यह तो बा के लिए लाया हूँ । आपसे सिर्फ इतना कहना है कि बा के प्रताप से ही आप इतने बड़े बने हैं।
सुमित्रा गांधी कुलकर्णी ने जिस बेबाक तरीके से अपने पितामह की आलोचना करी है ऐसा साहस कोई गांधीवादी ही कर सकता है। अपने आदर्शों, सिद्धांतों व सार्वजनिक जीवन की व्यस्तता के चलते गांधीजी अपने बच्चों की और कोई विशेष ध्यान नही दे पाये। लेकिन इस बात से अथवा साधनो की अनुपलब्धता को लेकर उनके किसी भी वंशज ने ना तो कोई रोष जताया और ना ही राष्ट्र से इस त्याग की एवज कोई क्षतिपूर्ति की अपेक्षा की। कल की मेरी पोस्ट पर सुरेश पटवाजी ने गांधी जी को महात्मा क्यों कहा गया, बताया था। आज मेरे इस वर्णन से आप सहमत होंगे की गांधीजी ने देश को अपने और पुत्रों से भी अधिक महत्व दिया और इसीलिए वे राष्ट्र पिता कहलाने के सही हकदार हैं।
( श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “अधर सिले पर संवाद बना है”।)
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कविता “जोश”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी “नेत्रार्पण” जो वास्तविक घटना पर आधारित है।)
मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।
समय बीतते समय ही नहीं लगता। आज अर्पणा दीदी की पहली बरसी है। पंडित जी ने हवन कुंड की अग्नि जैसे ही प्रज्ज्वलित की अंजलि अपनी आँखों को अपनी हथेलियों से छिपाकर ज़ोर से बोली – “बुआ जी। हवन की आग से मेरी आँखें जल रही हैं। और वह दौड़ कर मुझसे लिपट गई।
सबकी आँखें बरबस ही भर आईं। माँजी तो दीदी को ज़ोर से पुकार कर रो पड़ीं। अंजलि ने मेरी ओर सहम कर देखा। उसकी करुणामयी याचना पूर्ण दृष्टि मुझे गहराई तक स्पर्श कर गई। उसके नेत्रों की गहराई में छिपी वेदना ने मेरी आँखों में उमड़ते आंसुओं को रोक दिया। ऐसा लगा कि- यदि मेरी आँखों के आँसू न रुके तो अंजलि अपने आप को और अधिक असहाय समझने लगेगी। और उसकी इस असहज स्थिति की कल्पना मात्र से मुझे असह्य मानसिक वेदना होने लगी।
अंजलि की आँखें पोंछते हुए उसे अपने कमरे में ले जाती हूँ। कमरे में आते ही वह मुझसे लिपट कर रो पड़ती है। मैं भी अपनी आँखों में आए आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक सकी।
जब अंजलि कुछ शांत हुई तो उसे पलंग पर बैठा कर दरवाजे के बाहर झाँककर देखा। माँजी, भैया, भाभी और निकट संबंधी पूजा-अर्चन में लगे हुए थे। भैया की दृष्टि जैसे ही मुझपर पड़ी तो उन्होने संकेत से समझाया कि मैं अंजलि का ध्यान रखूँ। मैं चुपचाप दरवाजा बंद कर अंजलि की ओर बढ़ जाती हूँ।
अंजलि की आँखें अधिक रोने के कारण लाल हो गईं थी। उसकी आँखें पोंछकर स्नेहवश उसके कपोलों को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहती हूँ- “अंजलि! देखो, मैं हूँ ना तुम्हारे पास। अब बिलकुल भी मत रोना।“
“बुआ जी, मेरा सिर दुख रहा है।“
“अच्छा तुम लेट जाओ, मैं सिर दबा देती हूँ।“
अंजलि अपनी पलकें बंद कर लेटने की चेष्टा करने लगी। मैंने देखा कि उसका माथा गर्म हो चला था। धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगती हूँ ताकि उसे नींद आ जाए। सिर दबाते-दबाते मेरी दृष्टि अर्पणा दीदी के चित्र की ओर जाती है।
वह आज का ही मनहूस दिन था, जब दीदी को दहेज की आग ने जला कर राख़ कर दिया था। विवाह हुए बमुश्किल छह माह ही तो बीते थे। आज ही के दिन खबर मिली कि अर्पणा दीदी स्टोव से जल गईं हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। माँजी तो यह सुनते ही बेहोश हो गईं थी।
उस दिन जब मृत्यु शैया पर दीदी को देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये मेरी अर्पणा दीदी हैं। हंसमुख, सुंदर और प्यारी सी मेरी दीदी। दहेज की आग ने कितनी निरीहता से दीदी के स्वप्नों की दुनियाँ को जलाकर राख़ कर दिया था। सब कुछ झुलस चुका था। उस दिन मैंने जाना कि जीवन का दूसरा पक्ष कितना कुरूप और भयावह हो सकता है।
अचानक खिड़की के रास्ते से आए तेज हवा के झोंके से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा अंजलि सो गई है। किन्तु, पलकों के भीतर उसकी आँखों की पुतलियाँ हिल रही हैं। ठीक ऐसे ही आँखों की पुतलियों की हलचल उस दिन मैंने दीदी की पलकों के भीतर महसूस की थीं। डॉक्टर ने उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया था। किन्तु, उनकी पलकों के भीतर पुतलियों की हलचल ऐसे ही बरकरार थीं। चिकित्सा विज्ञान में इस दौर को रिपीट आई मूवमेंट कहा जाता है। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि- मनुष्य इसी दौर में स्वप्न देखता है। वे निश्चित ही कोई स्वप्न देख रहीं थीं। कोई दिवा स्वप्न? न जाने कौन सा स्वप्न देखा होगा उन्होने?
मैं उठकर मेज के पास रखी दीदी की कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। डायरी और पेन उठाकर मेज पर रखी दीदी की तस्वीर में उनकी आँखों की गहराई की थाह पाने की अथक चेष्टा करती हूँ। दीदी ने अपने जीवन का अंतिम एवं अभूतपूर्व निर्णय लेने के पूर्व जो मानसिक यंत्रणा झेली होगी, उस यंत्रणा की पुनरावृत्ति की कल्पना अपने मस्तिष्क में करने की चेष्टा करती हूँ तो अनायास ही और संभवतः दीदी की ओर से ही सही ये पंक्तियाँ मेरे हृदय की गहराई से डायरी के पन्नों पर उतरने लगती हैं।
सुनो!
ये नेत्र
मात्र नेत्र नहीं
अपितु,
जीवन-यज्ञ-वेदी में
तपे हुये कुन्दन हैं।
मैंने देखा है,
नहीं-नहीं
मेरे इन नेत्रों ने देखा है
एक आग का दरिया
माँ के आंचल की शीतलता
और
यौवन का दाह।
विवाह-मण्डप
यज्ञ-वेदी
और सात फेरे।
नर्म सेज के गर्म फूल
और ……. और
अग्नि के विभिन्न स्वरुप।
कंचन काया
जिस पर कभी गर्व था
मुझे
आज झुलस चुकी है
दहेज की आग में।
कहां हैं ’वे’?
कहां हैं?
जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान
हाथ थामा था
फिर
दहेज की अग्नि दी
और …. अब
अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।
बस,
एक गम है।
सांस आस से कम है।
जा रही हूँ
अजन्में बच्चे के साथ।
पता नहीं
जन्मता तो कैसा होता?
हँसता ….. खेलता
खिलखिलाता या रोता?
किन्तु, मां!
तुम क्यों रोती हो?
और भैया तुम भी?
दहेज जुटाते
कर्ज में डूब गये हो,
कितने टूट गये हो?
काश!
…. आज पिताजी होते
तो तुम्हारी जगह
तुम्हारे साथ रोते!
मेरी विदा के आंसू तो
अब तक थमे नहीं
और
डोली फिर सज रही है।
नहीं …. नहीं।
माँ !
बस अब और नहीं।
अब
ये नेत्र किसी को दे दो।
दानस्वरुप नहीं।
दान तो वह करता है,
जिसके पास कुछ होता है।
अतः
यह नेत्रदान नहीं
नेत्रार्पण हैं
सफर जारी रखने के लिये।
और अंत में वह तारीख 2 दिसम्बर 1987 भी डायरी में लिख देती हूँ ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त हमें और आने वाली पीढ़ी को वह घड़ी याद दिलाती रहे।
और फिर सफर जारी रखने के लिए दीदी कि अंतिम इच्छानुसार एक अनाथ एवं अंधी बच्ची को नेत्रार्पित कर दिये गए। वह प्रतिभाशाली अनाथ बच्ची और कोई नहीं अंजलि ही है जिसे भैया-भाभी ने गोद ले लिया।
किन्तु, जो नेत्र जीवन-यज्ञ-वेदी में तपकर कुन्दन हो गए हैं, वे आज धार्मिक अनुष्ठान की अग्नि से क्योंकर पिघलने लगे? नहीं ….. नहीं। संभवतः यह मेरा भ्रम ही है।
निश्चित ही दीदी की आत्मा हमें अपनी उपस्थिति का एहसास दिला रही होंगी। दीदी के नेत्र और नेत्रार्पण की परिकल्पना अतुलनीय एवं अकल्पनीय है। किन्तु, दीदी की परिकल्पना कितनी अनुकरणीय है इसके लिए आप कभी अकेले में गंभीरता से अपने हृदय की गहराई में अंजलि की खुशियों को तलाशने का प्रयत्न करिए। आज अंजलि, दीदी के नेत्रों से उन उँगलियों को भी देख सकती है जिससे वह कभी ब्रेल लिपि पढ़ कर सृष्टि की कल्पना किया करती थी। आप उन उँगलियों की भाषा नहीं पढ़ सकते, तो कोई बात नहीं। किन्तु, क्या आप अर्पित नेत्रों का मर्म और उसकी भाषा भी नहीं पढ़ सकते?
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है सुश्री मंजूषा मन जी के हाइकू -तांका विधा में रचित काव्य संग्रह “मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा. श्री विवेक जी ने आज जापानी कविता की इस विधा पर श्री विवेक जी ने विस्तृत चर्चा की है। हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना के प्रवाह बौद्ध धर्म और प्रकृति पर आधारित कविता की इस विधा पर अतिसुन्दर समीक्षा लिखी है। श्री विवेक जी का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 25☆
☆ पुस्तक चर्चा – काव्य संग्रह – मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह) ☆
पुस्तक – मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह)
लेखक –सुश्री मंजूषा मन
प्रकाशक –पोएट्री पुस्तक बाजार , लखनऊ
पृष्ठ – ९६
मूल्य –रु १४०.००
☆ काव्य संग्रह – मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह)– सुश्री मंजूषा मन – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है।
जब वृक्षो के भी बोनसाई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को अभिव्यकित मिलती है। कविता विश्वव्यापी विधा है। मनोभावों की अभिव्यक्ति किसी एक देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकती। जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलवाई ।
जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यक्ति है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई । किंतु तीन पकिंतयो मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।
दिल्ली के डॉ हरे राम समीप ,जनवादी रचनाकार है उनका हाइकू संग्रह चर्चित रहा है। जबलपुर से सुश्री गीता गीत ने भी हाइकू खूब लिखे हैं। अन्य अनेक हिन्दी कवियो की लम्बी सूची है जिन्होने इस विधा को अपना माध्यम बनाया। बलौदाबाजार छत्तीसगढ़ की सुश्री मंजूषा मन कविता, कहानियों के जरिये हिन्दी साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर चुकी हैं. “मैं सागर सी” उनका पुरस्कृत हाईकू तांका संग्रह है।
उदाहरण स्वरूप इससे कुछ हाइकू देखे-
मन पे मेरे
ये जंग लगा ताला
किसने डाला
..
चला ये मन
ले यादों की बारात
माने न बात
..
हुई बंजर
उभरी हैं दरारें
मन जमीन
..
बासंती समां
मन बना पलाश
महका जहाँ.
..
इंद्र धनुष
मन उगे अनेक
रंग अनूप
मन के विभिन्न मनोभावों की सुंदर अभिव्यक्ति पुस्तक की इन नन्हीं कविताओ में परिलक्षित होती है. किताब एक बार पठनीय तो हैं ही. मंजूषा जी से सागर की अथाह गहराई से मन के और भी मोतियों की अपेक्षा हम रखते हैं.