हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”। 

आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की दूसरी कड़ी “बटुवा” जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। किन्तु, मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि युवा साहित्यकार आशीष का हृदय समय से पहले बड़ा हो गया है या समय ने उसे बड़ा कर दिया है।? बेहद सार्थक रचना। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆

 

बटुवा 

स्कूल में एक दोस्त के पास देखा तो मैं भी जिद्द करने लगा

पापा ने दिला दिया, पूरे 9 रूपये का आया था ‘बटुआ’

मैं बहुत खुश था की अपनी गुल्लक में से निकालकर दो, एक रुपये और एक दो रुपये का नोट अपने नए बटुए में रखूँगा

उस बटुए में पीछे की तरफ दो जेबे थी

एक छोटे नोटों के लिए और दूसरी उसके पीछे वाली बड़े नोटों के लिए

उन जेबो में रखे छोटे नोटो के पीछे रखे बड़े नोट ऐसे लगते थे जैसे कि छोटेऔर बड़े छज्जे पर एक दूसरे के आगे पीछे खड़े होकर कॉलोनी से जाती हुई कोई बारात देख रहे हो ।

कुछ नोटो का लगभग पूरा भाग जेब में अंदर छुपा होता था और एक कोना ही दिखता था जैसे बच्चे पंजो पे उचक उचक कर देखने की कोशिश कर रहे हो ।

उन जेबो के आगे एक तरफ एक के पीछे एक, दो जेबे थी जिनमे से एक में पारदर्शी पन्नी लगी थी ।

उसमे मैने कृष्ण भगवान का माखन खाते हुए एक फोटो लगा दिया था ।

उसके पीछे की जेब में मैंने मोरपाखनी की एक पत्ती तोड़कर रख ली थी क्योकि स्कूल मैं कई बच्चे कहते थे की उससे विद्या आती है ।

दूसरी तरफ की जेब में एक बटन भी लगा था, उस जेब में मैंने गिलट के कुछ सिक्के अपनी गुल्लक में से निकालकर रख लिए थे। एक दो रुपये का सिक्का था बाकि कुछ एक रूपये और अट्ठनियाँ थी शायद एक चवन्नी भी थी पर वो चवन्नी बार बार उस जेब के फ्लैप में से जो बीच से उस बटन से बंद था बार बार निकल जाती थी ।

तो फिर मैने उस चवन्नी को गुल्लक में ही वापस डाल दिया था ।

एक दिन तो जैसे बटुवे की दावत ही हो गयी जब घर पर आयी बुआ जाते जाते टैक्टर वाला पाँच रुपये का नोट मुझे दे गयी ।

एक बार सत्यनारायण की कथा में भगवान जी को चढ़ाने के लिए गिलट का सिक्का नहीं था। तो मैने मम्मी को अपने बटुवे की आगे वाली जेब से निकल कर एक रूपये का सिक्का दिया । ये वही सिक्का था जो जमशेद भाई की दुकान पर जूस पीने के बाद उन्होंने बचे पैसो के रूप में दिया था ।

मैं हैरान था कि जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाने के बाद भी भगवान जी नाराज़ नहीं हुए ।  शयद आज जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाता तो वो नाराज़ हो जाते और कहते ‘बेवकूफ़ मुझे किसी पंडित जी का दिया हुआ सिक्का ही चढ़ा’ वैसे अब तो जमशेद भाई और मैं दोनों ही hi tech हो गए है मोबाइल से ही एक दूसरे को पैसे दे देते है ।

लेकिन मुझे ऐसा लगा की उस दिन जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का चढ़ाने के बाद भगवान जी और भी ज्यादा खुश हो गए है ।

अब salary (वेतन) आती है और सीधे bank account में transfer होती है ।

बटुवा तो अब भी है मेरे पास बहुत ज्यादा महंगा और luxurious है ।

पर उसमे अब छोटे छोटे नोट नहीं रखता, एक दो बड़े बड़े नोट होते है और ढेर सारे plastic के card

ऐसा लगता है की इतने समय मे भी बटुवे का उन plastic के  कार्डो (cards) के साथ रिश्ता नहीं बन पाया है ।

एक दिन मैने बटुवे से पूछ ही लिया की इतना समय हो गया है अभी तक cards से तुम्हारी दोस्ती नहीं हुई?

तो वो नम आँखो से बोला, ” जब मेरे अंदर नोट रखे जाते थे तो वो मेरा बड़ा आदर करते थे। मुझे तकलीफ ना हो इसलिए अपने आप को ही इधर उधर से मोड़ लिया करते थे । पर ये card तो हमेशा अकड़े ही रहते है और मुझे ही झुक कर अपने आप को इधर उधर से तोड़ मोड़ कर इन्हे अपनाना पड़ता है”

अब मेरे बटुवे में चैन है जिससे कि कोई सिक्का बटुवे से बहार ना गिर पाये

पर मेरे पास अब चवन्नी नहीं है ………….

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #1 ☆ अनचीन्हे रास्ते ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ.  मुक्ता जी  के  हृदय से आभारी हैं , जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनों से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अनचीन्हे रास्ते”। डॉ मुक्ता जी के बारे में कुछ  लिखना ,मेरी लेखनी की  क्षमता से परे है।  )  

डॉ. मुक्ता जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

  • राजकीय महिला महाविद्यालय गुरुग्राम की संस्थापक और पूर्व प्राचार्य
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी” द्वारा श्रेष्ठ महिला रचनाकार के सम्मान से सम्मानित
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी “की पहली महिला निदेशक
  • “हरियाणा ग्रंथ अकादमी” की संस्थापक निदेशक
  • पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी द्वारा ¨हिन्दी  साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार” से सम्मानित ।  डा. मुक्ता जी इस सम्मान से सम्मानित होने वाली हरियाणा की पहली महिला हैं।
  • साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपकी 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता संग्रह, कहानी, लघु कथा, निबंध और आलोचना पर लिखी गई आपकी पुस्तकों पर कई छात्रों ने शोध कार्य किए हैं। कई छात्रों ने आपकी रचनाओं पर शोध के लिए एम फिल और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं।
  • कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित
  • सेवानिवृत्ति के बाद भी आपका लेखन कार्य जारी है और कई पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं।

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #1 ☆

☆ अनचीन्हे रास्ते ☆

मैं जीना चाहती हूं

अनचीन्हे रास्तों पर चल

मील का पत्थर बनना चाहती हूं

क्योंकि लीक पर चलना

मेरी फ़ितरत नहीं

मुझे पहुंचना है,उस मुक़ाम पर

जो अभी तक अनदेखा है

अनजाना है

जहां तक पहुंचने का साहस

नहीं जुटा पाया कोई

 

मैं वह नदी हूं

जो राह में आने वाले

अवरोधकों को तोड़

सबको एक साथ लिए चलती

विषम परिस्थितियों में जीना

संघर्ष की राह पर चलना

पर्वतों से टकराना

सागर की लहरों से

अठखेलियां करना

आगामी आपदाओं की

परवाह न करते हुए

तटस्थ भाव से बढ़ते जाना

 

‘एकला चलो रे’

मेरे जीवन का मूल-मंत्र

आत्मविश्वास मेरी धरोहर

सृष्टि-नियंता में आस्था

मेरे जीवन का सबब

उसी का आश्रय लिए

उसी का हाथ थामे

निरंतर आगे बढ़ी हूँ

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ समाजपारावर एक विसावा…. !#1 – पुष्प पहिले …. ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।  कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए कविराज विजय जी ने यह साप्ताहिक स्तम्भ “समाजपारावर एक विसावा…. !” शीर्षक से लिखने के लिए  हमारेआग्रह को स्वीकार किया, इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प पहिले ….”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समाजपारावर एक विसावा #-1 ☆

 ☆ पुष्प पहिले .. .  ☆

समाज पारावर माणूस माणसाला भेटतो. माणसाचे अंतरंग  उलगडून  एक समाज स्पंदन वेचण्याचा अनोखा प्रयत्न या स्तंभलेखनातून  करणार आहे संवादी माध्यमातून सोशल नेटवर्किंग साईट वरुन वैचारिक देवाणघेवाण होत आहे.

*अक्षरलेणी* या कवितासंग्रहाच्या  दोन यशस्वी  आवृत

माणूस माणसाला घडवतो,  बिघडवतो आणि सोबत घेऊन  अनेक विकासकामे करू शकतो. प्रत्येक व्यक्तीचे विचार वेगवेगळे असतात. विचार पटले की संवाद घडतो. संवादातून नियोजन आखणी केली जाते.  कार्य कौटुंबिक  असो, सांस्कृतिक  असो,  साहित्यिक  असो परस्परांशी साधलेला संवाद महत्वाचा ठरतो.

हा संवाद व्यक्तीशी संस्कारीत जडण घडण त्याला जीवन प्रवासात नवनवीन वाटा उपलब्ध करून देतो. समाज प्रियतेच किंवा समाजाभिमुख रहाण्याच वरदान माणसाला जन्मजात लाभले आहे.

समाज समाज म्हणजे नेमके काय?  समाज म्हणजे कोणतीही जात नव्हे,  कोणताही पंथ नव्हे. व्यक्ती स जन्म देणारे त्याचे आई वडील हा पहिला समाज.

बालपणात संपर्कात  आलेले समवयस्क सवंगडी,  शाळू सोबती हा दुसरा समाज,  जीवनाच्या कुठल्याही टप्प्यावर ज्ञानदान करणारे गुरूजन हा तिसरा समाज,  बालपण, तारूण्य, वृद्धावस्था यात सुखदुःखात सामिल होणारा चौथा समाज,  आणि  आपल्या कार्यकर्तृत्वाच्या प्रभावाने प्रेरित होऊन त्याचे बरे वाईट परिणाम भोगणारा  पाचवा समाज माणसाला सतत जाणीव करून देतो. तो माणूस  असल्याची.

माणसाचं माणूसपण त्याच्या आचारविचारात, दैनंदिन लेखन कला व्यासंगात,त्याच्या कार्य कर्तृत्वात आणि माणसाने माणसावर ठेवलेल्या विश्वासात अवलंबून असते. हा विश्वास माणसाला धरून रहातो तेव्हा तो माणूस समाजप्रिय होतो. समाज प्रिय माणसे जीवनात यशस्वी झाली की आपोआप समाजाभिमुख होतात. हा समाज तेव्हा माणसाला नवा विचार देतो. विचारांची दिशा त्याला कार्यप्रवण ठेवते. त्याच्या या जीवनप्रवात कुठे तरी आपले माणूस सोबत  असावेसे वाटते.

ही सोबत, हा विसावा  शब्दातून, अक्षरातून, विचारातून, मार्गदर्शनातून  ,प्रोत्साहनातून मनाला जेव्हा मिळते ना तेव्हा ही  अनुभवांची  शिदोरी माणसाला वैचारिक मेजवानी देते. एक निर्भेळ आनंद देते.  हे वैचारिक  खाद्य माणसाला आयुष्यभर पुरते.  त्याचा जीवनप्रवास समृद्ध  करते.  हा विसावा ही वैचारिक बैठक वेगवेगळ्या जीवनानुभुतीतून माणसाला विसावा देते. जगायचे कसे? याचे उत्तर देखील या पारावर सहजगत्या उपलब्ध होते.

माणूस जेव्हा माणसाच्या संपर्कात येतो ना  तेव्हा तो  ख-या अर्थाने विकसित होतो. त्याचे हे विकसन त्याला जगाची सफर घडवून  आणते.  कुठल्याही परिस्थितीत खंबीरपणे जगायला शिकवते. मान, पान, पद, पैसा ,  प्रतिष्ठा मिळवून देण्याचा राजमार्ग याच समाजपाराला वळसा घालून जातो.  इथे जगणे आणि जीवन यातला  सुक्ष्म फरक कळतो आणि माणसाचं जीवन प्रवाही बनते. हा जीवनप्रवाह या शब्द पालवीत जेव्हा विसावला तेव्हा नाविन्यपूर्ण  आणि वैविध्यविपूर्ण  आशय ,विषयांची लेखमाला  आकारास  आली हा विसावा रंजनातून सृजनाकडे वळतो तेव्हा हाच माणूस  माणसाला विचारांचे दान देतो. मानाचे पान देतो. हे  आठवणींचे पान समाज पारावर  रेंगाळते आणि

माणूस माणसाशी जोडला जातो.  हे  एकत्रीकरण,  हे  समाज सक्षमीकरण,  अभिव्यक्ती परीवाराशी या लेखमालेतून संलग्न झाले  आणि  विविध विषयांवरील लेख रसिक सेवेत दाखल  झाले. विविध विषयांवर लेख या लेखमालेतून देणार आहे. हे लेख केवळ  शब्द बंबाळ आलेख नव्हे तर हा  आहे. समाजपार. ह्रदयाचा परीघ. वास्तवाचा  आरसा  आणि शब्दांचे  आलय. . .

तुमच्या  आमच्या  अभिव्यक्ती साठी.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #1 ☆ मैं ऐसा नहीं ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए  हमारे अनुरोध को स्वीकार किया इसके लिए हम उनके आभारी हैं । इस स्तम्भ के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  हृदयस्पर्शी लघुकथा “मैं ऐसा नहीं”। )

 

☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #1 ☆

 

☆ मैं ऐसा नहीं ☆

 

वह फिर गिड़गिड़ाया, “साहब ! मेरी अर्जी मंजूर कर दीजिए. मेरा इकलौता पुत्र मर जाएगा.”

मगर, नरेश बाबू पर कोई असर नहीं हुआ, “साहब नहीं है. कल आना.”

“साहब, कल बहुत देर हो जाएगी. मेरा पुत्र बिना आपरेशन के मर जाएगा.आज ही उस के आपरेशन की फीस भरना है. मदद कर दीजिए साहब. आप का भला होगा,” वह असहाय दृष्टि से नरेश की ओर देख रहा था.

“ कह दिया ना, चले जाइए, यहाँ से,” नरेश बाबू ने नीची निगाहें किए हुए जोर से चिल्लाते हुए कहा.

तभी उस का दूसरा साथी महेश उसे पकड़ कर एक ओर ले गया.

“क्या बात है नरेश! आज तुम बहुत विचलित दिख रहे हो.” महेश बाबू ने पूछा, “वैसे तो तुम सभी की मदद किया करते हो ? मगर, इस व्यक्ति को देख कर तुम्हें क्या हो गया?” वह नरेश का अजीब व्यवहार समझ नहीं पाया था.

नरेश कुछ नहीं बोला. मगर, जब महेश बाबू ने बहुत कुरैदा तो नरेश बाबू  ने कहा, “क्या बताऊँ महेश ! यह वही बाबू है, जिस ने मेरी अर्जी रिश्वत  के पैसे नहीं मिलने की वजह से खारिज कर दी थी और मेरे पिता बिना इलाज के मर गए थे.”

“क्या !’’ महेश चौंका.

“हाँ, ये वहीं व्यक्ति है.”

“तब तू क्या करेगा?” महेश ने धीरे से कहा, “जैसे को तैसा?”

“नहीं यार, मैं ऐसा नहीं हूं,” नरेश ने कहा, “मैंने इस व्यक्ति की अर्जी कब की मंजूर कर दी है और इलाज का चैक अस्पताल पहुंचा दिया है. यह बात इसे नहीं  मालूम है.’’ कहते हुए नरेश खामोश हो गया.

महेश यह सुन कर कभी नरेश को देख रहा था कभी उस व्यक्ति को. जब कि वह व्यक्ति माथे पर हाथ रख कर वहीं ऑफिस में बैठा था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य #1 – राऊळ…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी ने हमारे  इस स्तम्भ के आग्रह को स्वीकारा इसके लिए हम उनके आभारी हैं।  अब आप उनकी रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  राऊळ….”)

 

☆ सुजित साहित्य #1 ☆ 

 

☆ राऊळ…. ☆ 

 

जाऊ नको खचूनीया

टाक पुढेच चाहूल

येते आहे मागावर

सुख शोधीत पाऊल. . . . !

 

सुख सोबती घेताना

नको जाऊ हुरळून

माय तुझी रे पाहते

यश तुझे दारातून. . . . !

 

फुलापरी वाढवले

काळजाच्या तुकड्याला

खाच खळगे पाहून

थोडा जप जीवनाला. . . . !

 

दोन घडीचे जीवन

जन्म मृत्यूचा प्रवास.

नको विसरू मायेचा

एका भाकरीचा घास. . . . !

 

खण जीवनाचा पाया

नको वाकडे पाऊल

यशोमंदिराचे तुझ्या

माय बोलके राऊळ.. . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #1 – निर्मिती प्रक्रिया ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(प्रत्येक कवि की कविता के सृजन के पीछे कोई न कोई तथ्य होता है, जो कवि को तब तक विचलित करता है, जब तक वह उस कविता की रचना न कर ले। और शायद यही उस कविता की सृजन प्रक्रिया है।  किन्तु, इसके पीछे एक संवेदनशील हृदय भी कार्य करता है। ऐसी ही संवेदनशील कवियित्रि सुश्री प्रभा सोनवणे जी  ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर “कवितेच्या प्रदेशात” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने हेतु अपनी सहमति दी है।  इसके लिए हम आपके आभारी हैं।  अब आप प्रत्येक बुधवार को उनकी रचनाओं को पढ़ सकेंगे।

यह सच  है कि- कवि को काव्य सृजन की प्रतिभा ईश्वर की देन है। उनके ही शब्दों में  “काव्य प्रतिभा ही आपल्याला मिळालेली ईश्वरी देणगी आहे हे नक्की!”  आज प्रस्तुत है  काव्य सृजन पर उनका आलेख “निर्मिती प्रक्रिया”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात ☆

 ☆ निर्मितीप्रक्रिया ☆

 

मला आठवतंय मी पहिल्यांदा कविता लिहिली ती इयत्ता आठवीत असताना हस्तलिखितासाठी, *माँ पाठशाला*  या शीर्षकाची ती हिंदी कविता होती, आठवी ते अकरावी या काळात मी तुरळक हिंदी कविता लिहिल्या, त्या रेडिओ श्रीलंका- रेडिओ लिसनर्स क्लब च्या रेडिओ पत्रिकांमध्ये प्रकाशित ही झाल्या!

१९७० सालापासून कविता सतत माझ्या बरोबर आहे, आयुष्याचा एक अविभाज्य घटक  बनली आहे!

चित्र काव्य, विषयावर आधारित काव्य रचताना, कुठली तरी घटना, स्थळ आपल्या मनात येतं आणि आपण कविता रचत जातो,

आपल्याला आवडलेलं, खुपलेलं, खदखदणारं कवितेत उतरत असतं, मी सकाळ नाट्यवाचन स्पर्धेसाठी ग्रामीण भागात परीक्षक म्हणून जात असताना, नुकतीच घडलेली जवळच्या नात्यातल्या तरूण मुलीच्या  आत्महत्येची घटना मनाला क्लेश देत होती, भोर च्या शाळेत नाट्यवाचनाचे परिक्षण करत असताना अचानक रडू कोसळले आणि तिथेच पहिला शेर लिहिला—

 

*तारूण्यातच कसे स्वतःला संपवले पोरी*

*आयुष्याला असे अचानक थांबवले पोरी*

 

काफिये रदीफ़ काहीच मनात योजले नव्हते, मी एकीकडे नाट्यवाचन ऐकत होते, विद्यार्थ्यांना, नाटकाला गुण देत होते आणि त्याचवेळी मला शेर सुचत होते….

 

बाईपण हे नसेच सोपे वाटा काटेरी

रक्ताने तन मृदूमुलायम रंगवले पोरी

 

आले होते मनात तुझिया स्वप्नांचे पक्षी

गोफण फिरवत कठोरतेने पांगवले पोरी

 

तळहातावर ठळक प्रितीची रेषा असताना

निष्प्रेमाचे दिवस कसे तू घालवले पोरी

 

सौंदर्याला दिलीस शिक्षा क्लेश जिवालाही

परक्यापरि तू स्वतःस येथे वागवले पोरी

 

संपवता तू तुझी कहाणी दोष दिला दैवा

अंगण आता पुन्हा नव्याने सारवले पोरी

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #1 ?नीम की छांव ? ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। सुश्री सिद्धेश्वरी जी ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए मेरे आग्रह को स्वीकारा इसके लिए उनका आभार।  अब आप प्रत्येक मंगलवार उनकी एक लघुकथा पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “नीम की छांव”।)

 

☆ सुश्री सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं ☆

?नीम की छांव ?

 

एक गांव में नीम की छांव पर उसने अपना घर बनाया। दिमाग से थोड़ा विक्षिप्त घर से निकाल दी गई थी। सही गलत का फैसला कर नहीं पाती थी। एक तो गरीबी और उपर से बेटी की लाचारी पर तरस तो सभी खाते पर कोई सहारा देना नहीं चाहते थे।  बूढ़े मां बाप के खतम होने के साथ उसका रूप भी नीम की छांव के नीचे सब को दिखने लगा था।

एक बडे़ घर से कार आकर रोज ही रूकने लगी, कभी खाने का सामान तो कभी कपड़े। वो नासमझ समझ न सकी कि उस पर इतनी मेहरबानी क्यों हो रही है। उसे उसका साथ अच्छा लगने लगा। अब तो कार वाला छुपके से दरवाजा खोल कार में बिठा उसे ले जाने लगा। समय पंख लगा कर उड़ चला।उसे देखने से समझ में आने लगा कि वो किसी झांसे का शिकार हो चुकी है। अब कार आना बंद हो चुका था। मातृत्व की झलक उस बेचारी पर दिखने लगी। समय आने पर उसने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया और फिर उसे अपने तरीके से पालने लगी। कहते हैं उसके दुखों का अंत नहीं हुआ। असमय अनेक प्रकार की बीमारी से उसका अंत हो गया और छोड़ गयी एक नन्ही सी जान। सभी उस पर दया की भावना रखने लगे। उसी नीम की छांव पर खेलती और वहीँ सो जाया करती।

एक बढे भव्य भवन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था। कन्या भोज के समय उसे भी बुला लिया गया। पूछने पर पता चला कि नीम की छांव ही उसका घर है। पिताजी को देखीं नहीं और माँ को किसी ने जला दिया। इतना ही कह सकी। उस भवन की जैसे नीव ही हिल चुकी थी । जिस प्रकार से बेटी ने अपना परिचय दिया। सारी कहानी सुनते ही आँखों से आँसू गिरने लगे। सभी परेशान थे कि मामला क्या है। अचानक ही उसने सबसे कहा कि बरसों से मैं शीतला देवी की पूजा करता था। आज शीतला कन्या के रूप में स्वयं मेरे यहां आई है। और अब से यही घर ही इसका मंदिर है। समाज ने कोई आपत्ति नहीं उठाई। गर्व से उसने अपनी बेटी को सत्कार पूर्वक अपना लिया और किसी को पता भी नहीं लगने दिया। बिटिया भी इस चीज को समझ न सकी पर भक्त रूपी पिता को पा कर बहुत ही खुश हो गयी। बस उसकी एक इच्छा थी कि घर के सामने उसे अपनी माँ ” नीम की छांव ” चाहिए।

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© सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #1 -शब्द माझे ☆  – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ में अपनी काव्याभिव्यक्ति के लिए उन्होने मेरे आग्रह को स्वीकारा। इसके लिए श्री अशोक जी का आभार।  अब आप प्रत्येक मंगलवार उनकी कविता पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “शब्द माझे” )

☆ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती ☆

☆ शब्द माझे ☆ 

 

शब्द माझे एवढे शालीन होते

सभ्यतेची आब ते राखून होते

 

वाह वा ऐकू न आली जाहलेली

आपल्या गाण्यात ते तल्लीन होते

 

देवळाच्या आत अन् बाहेर भिक्षुक

आत गुर्मी पायरीवर दीन होते

 

बोलतो भिंतीसवे कळते तिलाही

घर घराला एवढे लागून होते

 

बुरुज आता ढासळाया लागले का ?

प्रेम माझे हे कुठे प्राचीन होते

 

सांगतो ठोकून छाती या इथे मी

प्रेम का तू ठेवले झाकून होते ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #1 – आत्मकथ्य – युवा सरोकार के लघु आलेख ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री अनुभा जी का आत्मकथ्य।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  ☆

☆ आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख☆

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-1  उन्हाळ्याची सुट्टी ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी की कविताएं  जमीन से जुड़ी  हैं एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देती हैं।  उनके द्वारा रचित बाल साहित्य की विशेषता यह है कि वह बच्चों के साथ ही बड़ों को भी संदेश देती है।  निश्चित ही उनके साहित्य  कीअपनी ही एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है  बाल गीत – उन्हाळ्याची सुट्टी )

? रंजना जी यांचे साहित्य #-1 ? 

 

☆ उन्हाळ्याची सुट्टी ☆

 

झाली सुट्टी उन्हाळीssss

हो झाली सुट्टी उन्हाळी , झटपट तिकीट कटवा।

मला करमेना इथे बाबा बिगीनं अजोळी  पाठवा।धृ।।।

 

या शाळेच्या नादात साल पुरा लोटला।

अभ्यास करून करून कंटाळा आई ग आला।

बसलो तयार होऊन….

बसलो तयार होऊन  , छंद वर्गाचा पत्ता कटवा ।।१।।

 

आली पाडाने बहरून मामाची आंबेराई ।

संत्री मोसंबी द्राक्षाची गणती कशाला बाई।

दोस्त कंपनी सारी…

दोस्त कंपनी सारी, झटपट सार्‍यांना भेटवा।।२।।

 

घुंगराच्या गाडीने डुलत डौलात जाईन।

डोंगर दरी खोऱ्यांची  घमाल रोजच पाहीन।

पोहू माशा परि…

पोहू माशा परि  आम्हा पहाटे बिगीन उठवा।।३।।

 

आजी आजोबाची हो, लाडाची चिमणी पोरं।

आणला मामा मामीनी झोक्याला घोटीव दोर।

उंच आभाळी झोका..

उंच आभाळी झोका अशी धमाल मनात साठवा।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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