हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 1 ☆ फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  हम श्री संतोष नेमा जी के  ह्रदय से अभारी हैं जिन्होंने  हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” के लिए रचनाएँ प्रेषित करना स्वीकार किया है.   हमें पूर्ण विश्वास है कि “इंद्रधनुष” को पाठकों का स्नेह /प्रतिसाद मिलेगा और उन्हें इस स्तम्भ में हिंदी के साथ ही बुंदेली रचनाओं को पढनें का इंद्रधनुषीय अवसर प्राप्त होगा. आज प्रस्तुत है वर्षा ऋतु पर एक सामयिक बुंदेली कविता “फूटी मेड़ें बही क्यारी “. अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष #1 ☆

 

☆  फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆

 

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

 

गरज गरज,बादर डरा रये ।

बिजली भी,अब कौंधा रये ।।

जा बरस की बरखा न्यारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी  ।।

 

नाले नरवा भी इतरा रए ।

गांव कस्बा डूब में आ गए ।।

बहकी नदियां भरे खुमारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

 

नदी सीमाएं लांघ गई हैं  ।

छलक रए अब बांध कईं हैं ।।

परेशान है जनता सारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

मंदिरों के शिखर डूब गये ।

हम सें भगवन भी रूठ गये ।।

अति वृष्टि सें दुनिया हारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

हैरां हो रये ढोर बछेरु  ।

ठिया ढूंडे पंक्षी पखेरू ।।

अब “संतोष”करो तैयारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

जा साल भईं बरखा भारी ।।

 

कछु अपनी भी जिम्मेदारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

———————-

@संतोष नेमा “संतोष”

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प चौदावा # 14 ☆ सिग्नलवरचा भारत ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।   आज श्री विजय जी ने एक गंभीर विषय “सिग्नल का भारत” चुना है।  हम प्रतिदिन सिग्नल पर जी रही दुनिया और लोगों को देखते हैं किन्तु, न तो हम उन लोगों के लिए कुछ विचार करते हैं और न ही शासन।  ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प चौदावा # 14 ☆

 

☆ सिग्नलवरचा भारत ☆

 

दारिद्रय रेषेखालील जनता म्हणजे हा  सिग्नलवरचा भारत.  ज्यांना  अन्न, वस्त्र आणि निवारा या मूलभूत गरजा देखील स्वायत्त तेने भागवता येत नाहीत  अशी कुटुंबे. भीक मागणारी मुले म्हणून त्यांची उपेक्षा होत रहाते. फुटपाथ वर पथारी पसरून किंवा  एखाद्या झाडाच्या  आडोश्याने यांचा संसार सुरू होतो. असे  बेघर जगणे आणि यातून जन्माला येणारी नवी पिढी,  जीवन संघर्ष करताना व्यसनाधीन  आणि गुंडगिरी याकडे मोठ्या प्रमाणावर वळत आहे

सिग्नलवर राहणाऱ्या लोकांच्या समस्या सामाजिक व्यवस्थेशी झगडा करीत  समाघास घातक ठरत आहेत. जीवनाश्यक मुलभूत गरजा,  शिक्षण,  संस्कार  यांचा अभाव, पुरेश्या सेवा  सुविधा उपलब्ध नसताना, उघड्यावर थाटलेले संसार  प्रदुषण,  दैन्य,  चोरी मारी यांना खतपाणी देताना दिसतात.

प्रथमत: सर्व दारिद्रय रेषेखालील लोकांना रोजगार  उपलब्ध करून देण्यासाठी महापालिका स्तरावर विशेष  उपाय योजना राबविण्यात यायला हव्यात. रस्त्यावर बेवारसपणे फिरणारे हे लोक यांची ठोस व्यवस्था व्हायला हवी.  भीक मागून जगायचे  आणि पुरेशी भीक मिळाली नाही की चोरी करायची ही वृत्ती  बळावत चालली आहे.

रोजगार निर्मिती  आणि मुलभूत गरजा  उपलब्ध करून दिल्यास हा समाज  उपेक्षित रहाणार नाही.   फुटाथवर राहणाऱ्या लोकांसाठी स्वत:चा हक्कांचे घर मिळेल. उघड्यावर मांडलेला संसार त्यांना स्वतःच्या पायावर उभे  करेल.  शिक्षण मोफत  आणि विशिष्ट ठिकाणी  अशा लोकांना निवारा  उपलब्ध करून दिल्यास सार्वजनिक ठिकाणी होणारे दैन्य प्रदर्शन  आपोआप थांबेल.  भीक मागायला मनाई करून  रोजगार उपलब्ध करून दिल्यास बरेच परीवर्तन घडून येईल.

सिग्नलवरील  अनाथ मुलांस अनाथश्रम तसेच  अंध, वृद्ध अपंगांना  महापालिकेने विशिष्ट ठिकाणी आसरा द्यायला हवा.  सामाजिक कार्यकर्ते यांच्या मदतीने त्यांना विशेष सेवा उपलब्ध करून देता येईल.   ज्यांना मुलेबाळ नाही अशा  सधन कुटुंबातील व्यक्तींनी  अशी मुले  दत्तक घेतल्यास हे  मागासलेपण दूर होईल.

माणसाने माणसाला मदतीचा हात देऊन त्यांचा सांभाळ करणे उत्तम शिक्षण व संस्काराची प्रेरणा अंतरी रुजवणे  गरजेचे  झाले आहे. भीक देणे बंद केले की माणूस  आपोआप रोजगार शोधून स्वतःच्या  उदरनिर्वाहचे साधन शोधेल. काम करणा-या व्यक्तीला मदत करणे गैर नाही पण भिकारी जमात पोसणे हे मात्र पाप आहे.

प्रत्येक व्यक्तीस  तो निराधार नाही,  भिकारी नाही,  माणूस  आहे,  भारतीय नागरिक  आहे ही जाणीव करून दिल्यास ती व्यक्ती स्वतःचे आयुष्य  मार्गी लावू शकेल. सदर व्यक्ती रोजगार निर्मिती करेपर्यंत मुलभूत सेवा सुविधा दिल्यास ती व्यक्ति  समाजात स्वतःचे स्वतंत्र  अस्तित्व निर्माण करू शकेल.

भीक मागण्या पेक्षा भीक देणे हा  गुन्हा आहे  ही भावना मनात ठेऊन केलेली मदत सेवा कार्य  खूप मोलाचे ठरेल.  धडधाकट व्यक्तीला कष्टाची कामे करायला लावून  अर्थार्जन  उपलब्ध करून दिल्यास  भीकारी संख्या कमी होईल.  जेंव्हा भीक देणे बंद होईल तेव्हाच ही जमात  स्वयंरोजगार उपलब्ध करून स्वतःच्या पायावर उभे राहिल.

शेवटी  व्यक्ती घडली की कुटुंब घडते. कुटुंब घडले की समाज सुधारतो,  समाज घडला की देशाची प्रगती होते हे सत्य विसरून चालणार नाही.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆ बेबस ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “बेबस ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆

 

☆ बेबस ☆

 

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहू हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है .

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहू ले गया. अब ५ बोरी गेहू बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहू भरा . ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करू ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ?” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ 

 

 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय☆

 

धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं। यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें, पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है, तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं, यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हमें इस पर गर्व है। इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं, कुल, जाति, उपजाति,गोत्र, संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है। समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं, आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है। वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं। जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ। इन जातियों, कुल, गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन, अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी, जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया। चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये, कहीं ये हौसले दबा दिये गये, तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई। जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली, और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर, तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी। जो भी हो, इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है। धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह, रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये। पर दिल तो दिल है, गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े, प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं। प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं। इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है।

यह सदी नवाचार की है। नई पीढ़ी नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है। आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से, डाक्टर की डाक्टर से, साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से, जज की जज से, मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं। ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं। ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं। माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं। बच्चों से संबंध रखना है तो, उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता। मतलब शिक्षा, व्यवसाय, कंपनी, ने कुल, गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है। इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं। रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं। ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है। सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली, बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है। कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है। ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं। कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं। लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है। लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है, इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है। हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है, पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है, क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है।

यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, अफेयर, ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है, पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई, पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है, उसकी जगह शादी डाट काम, जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है। युवा पीढ़ी एस एम एस, चैटिग, मीटिग, डेटिंग, आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है। सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं, हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री, ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं। नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन। सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं। मैं इस परिवर्तन को व्यंजना, लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 15 – सहवास……! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है।  श्री सुजित जी द्वारा डेढ़ दिन के गणपति जी  में स्वर्गीय पिता की डेढ़ दिन तक छवि देखना और उनके साथ रहने की कल्पना ही अद्भुत है. ऐसा सामंजस्य कोई श्री सुजित जी जैसा संवेदनशील कवि ही कर सकता है. प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “सहवास …! ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #15☆ 

 

☆ सहवास…! ☆ 

 

दर वर्षी मी घरी आणणा-या गणपतीच्या

मुर्तीत मला माझा बाप दिसतो

कारण…!

मी लहान असताना माझा बाप जेव्हा

गणपतीची मुर्ती घेऊन घरी यायचा

तेव्हा त्या दिवशी

गणपती सारखाच तो ही अगदी….

आनंदान भारावलेला असायचा

आणि त्या नंतरचा

दिड दिवस माझा बाप जणू काही

गणपती सोबतच बोलत बसायचा…

माझ्या बापानं केलेल्या कष्टाची आरती

आजही…

माझ्या कानातल्या पडद्यावर

रोज वाजत असते

आणि कापरा सारखी त्याची

आठवण मला आतून आतून जाळत असते

आज माझा बाप जरी माझ्या बरोबर नसला

तरी..,त्याच्या नंतर ही गणपतीची मुर्ती

मी दरवर्षी घरी आणतो

कारण.. तेवढाच काय तो

बापाचा..!

आणि

बाप्पाचा..!

दिड दिवसाचा सहवास मिळतो..!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 15 – माझ्यानंतर ……. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी ह्रदय स्पर्शी कविता माझ्यानंतर …….अर्थात मेरे बाद…. .  

मैंने सुश्री प्रभा जी की  पिछली कविता के सन्दर्भ में लिखा था कि वे जानती हैं  – समय गहरे  से गहरे घाव भी भर देता है. हम कल रहें या न रहें यह दुनिया वैसे ही चलती रहेगी और चलती रहती है.   इस कविता में उन्होंने अपने भविष्य की परिकल्पना की है.  उस परिकल्पना को न तो मैं नकारात्मक सोच में परिभाषित कर पा रहा हूँ और न  ही सकारात्मक.   क्योंकि, कल हमारा न होना तो शाश्वत सत्य है.  शायद, सुश्री प्रभा जी नहीं जानती कि उनके प्रकाशक और पाठक उनकी रचनाएँ  उनके मोबाईल / डायरी और जहाँ कही भी रखी हों , उन्हें जरूर ढूंढ लेंगे . आपकी ग़ज़लों को गायिका  आपकी गजलों को स्वर देकर अमर कर देंगी. आपके  परिवार की वो महत्वपूर्ण तथाकथित सदस्या “घुंघराले बालों वाली पोती/नातिन” उन्हें पुनः नवजीवन देने का सामर्थ्य रखेंगी. 

आपका एक एक पल अमूल्य है . आप नहीं जानती जो रचना संसार  रच रही हैं , वह साहित्य नहीं  इतिहास रचा जा रहा  है.  २०१७ की कविता अपने आप में इतिहास है. यात्रा जारी रहनी चाहिए….. . आपकी संवेदनशील कवितायें पाठकों में संवेदनाएं जीवित रखती हैं. 

सुश्री प्रभा जी का साहित्य जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। हृदय के उद्गार इतना सहज लिखने के लिए निश्चित ही सुश्री प्रभा जी के साहित्य की गूढ़ता को समझना आवश्यक है। यह  गूढ़ता एक सहज पहेली सी प्रतीत होती है। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 15 ☆

 

☆ माझ्यानंतर ……☆

 

कोणीच वाचणार नाहीत माझी कवितेची पुस्तके ……

डायरीतली कविता राहील पडून….

एमिली डिकिन्सन च्या

कवितांसारखी कुणी आणणार नाही प्रकाशात !

 

मोबाईल मधेही असतीलच काही कविता  …..

त्यांचा कोणी शोध घेणार नाही ….

 

गायकाने दर्दभ-या

आवाजात गायलेली

माझी गजल ऐकणारही

नाही कोणी …..

 

जिवंतपणी मला नाकारणारे ,

का कवटाळतील मला

मृत्यूनंतर ????

 

कुणी घालू नये हार

माझ्या फोटोला ,

पिंडाला कावळा

शिवतो की नाही

हे ही पाहू नये,

याची तजवीज मी आधीच करून ठेवलेली असेल—

देहदानाने !

 

माझी स्मृतिचिन्हे फोटोंचे अल्बम

धूळ खात पडून राहतील काही दिवस

नंतर नामशेष होतील !

 

संपून जाईल माझे

खसखशी एवढे अस्तित्व  —

 

पण माझ्या नातवाला

होईल कदाचित

एक कुरळ्या केसाची मुलगी —-

 

आणि ती मी च असेन !!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 13 – बाल कविता-वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बाल कविता  “वरदायी चक्की और मेरी चाह।  आदरणीय डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय ‘ जी ने बड़ी ही सादगी से बाल अभिलाषा को वरदायी चक्की के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है । )

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 13 ☆

 

☆ बाल कविता – वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆  

 

सोच रहा हूं अगर मुझे

मनचाही चीजे देने वाली

वह चक्की मिल जाती

तो जीवन में मेरे भी

ढेरों खुशियां आ जाती.

 

सबसे पहली मांग

मेरी होती कि

वह मम्मी के सारे काम करे

और हमारी मम्मी जी

पूरे दिनभर आराम करे…

 

मांग दूसरी

पापा जी की सारी

चिंताओं को पल में दूर करे

और हमारे मां-पापाजी

प्यार हमें भरपूर करे…

 

मांग तीसरी

भारी भरकम बस्ता

स्कूल का ये हल्का हो जाए

जो भी पढ़ें, याद हो जाए

और प्रथम श्रेणी पाएं…

 

चारों ओर रहे हरियाली

फल फूलों से लदे पेड़

फसलें लहराए

चौथी मांग

सभी मिल पर्यावरण बचाएं…

 

मांग पांचवी

देश से भ्रष्टाचार

और आतंकवाद का नाश हो

आगे बढ़ें निडरता से

सबके मन में उल्लास हो…

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 4 – तेरी बद्दुआएँ ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “तेरी बद्दुआएँ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 4☆

 

☆ तेरी बद्दुआएँ 

 

(विधा:कविता)

कवि: मच्छिंद्र भिसे,

 

अरे सुन प्यारे पगले,

देख तेरी बद्दुआएँ काम कर गईं,

पटकना था जमीं पर हमें,

यूँ आसमाँ पर बिठा गईं।

 

तेरी रंग बदलती सूरत ने,

परेशान बारंबार किया,

यही रंगीन सूरत मुझे,

हर बार सावधान कर गई।

 

आप एहसास चाहा जब भी,

नफरत ही नफरत मिली,

न जाने कैसे तेरी यह नफरत,

खुद को सँजोये प्रीत बन गई।

 

छल-कपट की सौ बातें,

इर्द-गिर्द घूमती रहीं,

तेरा बदनसीब ही समझूँ,

जो उभरने का गीत बन गई।

 

तेरी हर एक बद्दुआ,

मेरी ताकत बनती गई,

देनी चाही पीड़ा हमें,

वह तो दर्द की दवा बन गई।

 

सुन, अभिशाप से काम न चला,

आशीर्वचन का चल एक दीप जला,

आएगा जीवन में एक नया विहान,

दीप की ज्योति बार-बार कह गई।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7 ☆ हिस्सा ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “हिस्सा”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7  

☆ हिस्सा  

 

तुमने

कर दिया है बंद मुझे

किसी सूने से लफ्ज़ की तरह

जो छुपा हुआ है

किसी ठहरी सी नज़्म में,

किसी किताब के मौन सफ्हे पर!

 

खामोश सी मैं

एक टक देख रही हूँ

तुम्हारी आँखों के चढ़ते-उड़ते रंगों को

और निहार रही हूँ

तुम्हारे होठों की रंगत को,

तुम्हारे माथे की चौड़ाई को

और तुम्हारे जुल्फों के घनेरेपन को!

 

सुनो,

मैं तुम्हारी मुहब्बत का

एक छोटा सा हिस्सा हूँ,

तुम ही हो मुझे बनाने वाले

और मेरी पहचान भी तभी तक है

जब तक तुम मुझे चाहो;

वरना मिटाने में तो

बस एक लम्हा लगता है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 3 ☆ काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 3☆ 

 

 ☆ काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल ☆

 

पुस्तक चर्चा

काव्य संग्रह .. कंटीले कैक्टस में फूल 

लेखक.. आनन्द बाला शर्मा

पृष्ठ ६०, मूल्य २५० रु

संस्करण.. हार्ड बाउन्ड मूल्य

आई एस बी एन..९७८ ८१ ९३४८२६ ९ ८

प्रकाशक.. विनीता पब्लिशिंग हाउस, ग्रेटर नोयडा

 

☆ काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल  – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

आनंद बाला शर्मा, कविता, गीत, संस्मरण, लेखो में अपने मनोभाव व्यक्त करती हैं. आकाशवाणी से उनके प्रसारण होते रहे हैं. इन दिनो वे जमशेदपुर में रहकर अपने रचना कर्म द्वारा समाज को दिशा प्रदान करने में निरत हैं. प्रस्तुत पुस्तक में उनकी समय समय पर लिखी गई ४८ छोटी बड़ी अतुकांत कवितायें संग्रहित हैं. स्वाभाविक रूप से कविताओ के विषयो में वैभिन्य है. वे लिखती हैं

 

सपने पूरे होते हैं

बस उन्हें चाहिये थोड़ी जगह हवा पानी धूप

और खुला आसमान

ओढ़ने के लिये समय की चादर और

एक चाहत उनको बिखरने से बचाने के लिये.

 

इसी तरह के बिम्ब और प्रतीको के माध्यम से नई कविता की उन्मुक्त शब्द विन्यास शैली में प्रौढ़ कवियत्री ने स्त्री विमर्श पर कन्यादान, रिस्ते, माँ तो बस मां होती है, आंख के दो आंसू बेटियां औरत जैसी रचनायें की हैं. कारगिल युद्ध के दौरान जब एक बच्ची अपना जन्मदिन मनाने से मना कर देती है तो इस अनुभव की साक्षी रचनाका को संवेदनाओ के जिंदा होने का प्रमाण मिल जाता है और वे आस्वस्ति के साथ कविता लिख डालती हैं. कवितायें जो लिखी ही नही गईं, उनकी संग्रह की अंतिम रचना है. आशा करनी चाहिये कि भविश्य में उनसे हिन्दी जगत को ओर परिपक्व, और भी प्रयोगात्मक, और भी नये बिम्ब के साथ उपजी प्रौढ़ कवितायें मिल सकेंगी.

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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