हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 11 ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “अनुरागी ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 11  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 13 ☆ ईज़ाद ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 13 ☆

 

☆ ईज़ाद ☆

 

वर्षों से गरीबी का दंश झेल रहे

माता-पिता ने विवश होकर कहा

हम नहीं कर पा रहे रोटी का जुगाड़

न ही करवा पा रहे हैं

तुम्हारी बहन का इलाज

 

बालक दौड़ा-दौड़ा

डाक्टर के पास गया

और उनसे किया सवाल

‘ क्या तुमने की है ऐसी दवा ईज़ाद

जो भूख पर पा सके नियंत्रण ‘

 

डॉक्टर साहब का माथा चकराया

आखिर उस मासूम बच्चे के ज़ेहन में

सहसा यह प्रश्न क्यों आया

 

वह बालक बेबाक़ बोला

‘तुमने चांद पर विजय पा ली

मंगल ग्रह पर सृष्टि रचना के स्वप्न संजोते हो

पूरी दुनिया पर आसीन होने का दम भरते हो’

 

ज़रा! हमारी ओर देखो…सोचो

कितने दिन हम जी पाएंगे पेट पकड़

भूख से बिलबिलाते

पेट की क्षुधा को शांत करने को प्रयासरत

शायद हम करेंगे लूटपाट,डकैती

व देंगे हत्या को अंजाम

और पहुंच जाएंगे सीखचों के पीछे

जहां सुविधा से स्वत:प्राप्त होगी

रोटी,कपड़ा और सिर छिपाने को छत

 

साहब! संविधान में संशोधन कराओ

सबको समानता का ह़क दिलवाओ

ताकि भूख से तड़प कर

कर्ज़ के नीचे दबकर

किसी को न करनी पड़े आत्महत्या

और देने पड़ें प्राण।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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मराठी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प तेरावे # 13 ☆ नात्यात येणारा दुरावा ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प तेरावे  # 13 ☆

 

☆ नात्यात येणारा दुरावा ☆

 

आजकाल नाते संबध  ही मानवी भावना राहिली नसून तो एक व्यवहार झाला आहे  असे खेदाने म्हणावेसे वाटते.  .  नाते  विश्वास, स्वभाव दोष,  आकलन  क्षमता  आणि अनुभव यावर सर्वस्वी अवलंबून असते.  नाते ही नैतिक जबाबदारी आहे हे जोपर्यंत मनात रूजत  नाही तोपर्यंत  हे नाते मनापासून निभावले जाऊ शकत नाही. .

मी कसा श्रेष्ठ आणि  विद्वान  हे  सिद्ध करण्यात प्रत्येक जण  इतरांच्या भावनांशी खेळतो आहे.  या स्पर्धेचे युगात पैशाच्या जोरावर नातेसंबंध हवे तसे जोपासले जात आहेत.   भ्रष्टाचार, लाच  या गोष्टी ठराविक समाजात शिष्टाचार बनत चालल्या आहेत. दुरावा होण्याची आणखी  कारणे आहेत  ती म्हणजे संशय आणी  षडरिपू .  रक्ताचे नाते समाज काय म्हणेल या भावनेतून  किंवा क्षुल्लक  स्वार्थ साधण्यासाठी निभावले जाते.  संशयाने मनभेद आणि मतभेद होतात.  मन  एकदा का दुखावले गेले की  आपलेपणा जाऊन परकेपणा निर्माण होतो.

नाते पैशात मोजायचे की शब्दात हे ज्याला समजले तो कुठलेही नाते  छान सांभाळू शकतो.  नातेवाईक  आपल्याला काय देतात , आपण त्यांना काय दिले यापेक्षा मी  आप्तांना काय देऊ शकत नाही ते देण्यासाठी जर निस्वार्थीपणे प्रयत्न केला तर नाते आदर्श निर्माण करू शकते. समाज पारावरून हा  विषय चर्चेला घेताना समाज नाते दृढ करणारी माणसे  आता  अभावानेच आढळतात. हे सत्य डावलून चालणार नाही.

नात्यात हेतू नसावा,  बंधुता  आणि मानवता साधण्यासाठी   आपण स्नेहाच्या दोन शब्दांनी  बांधलेला सेतू नात्यात कधीही नष्ट नाही होणारे स्नेहबंध प्रस्थापित करते.  ही सर्व नाती  टिकून राहण्यासाठी आपण सर्वांशी मिळून मिसळून रहाणे जमले की  नात्यांची नाळ  जुळलीच समजा .

रक्ताची पण नाती मांडव शोभेपुरती हवा तीतका पैसा खर्च करतात.  शब्दाची शस्त्रे नात्याला दूर करतात पण मानसिक भावबंध  माणसाला कायम निराशेच्या  अंधकारातून उजेडाचा मार्ग दाखवतात.माणसाला  क्षणैक  मोहाचे  आकर्षण नातेसंबंधात दरी निर्माण करीत आहे.

नाते भावनेशी,  मनाशी जितकी जवळीक साधते तितके पैलू या पा-याला ,  नातेसंबंधाना सहवासात  आपोआप पडतात. ते कसे जपायचे  याचे कौशल्य  अनुभवाने  अंगवळणी पडते.  सा-या जाणिवा नेणिवा या नात्याला  घडवितात  अन बिघडवतात देखील.  आपण मधल्या मधे  आपल्यातला माणूस जीवंत ठेवला की झालं.

नाते,  विश्वास, माणूसकी ,  आणि स्वभाव दोष विसरून दुसर्‍याला माफ करण्याची क्षमाशीलता

या गोष्टीवर सर्वस्वी  अवलंबून असते.  नात्याला भावनांचे  असलेले रेशमी स्नेहबंध जोपासायला शिकलो की आपोआपच नात्यातला दुरावा कमी होतो.  मुळातच नाते ही संकल्पना माणूस जोडण्यासाठी उपयोगात आणता येते हे जोपर्यंत आपण  मनापासून स्वीकारत नाही तोपर्यंत ते नाते आपण समर्थपणे निभावून नेऊ शकत नाही. माणूस दूर राहूनही  नातेसंबंध  उत्तम जोपासू शकतो.  माणसा माणसात मतभेद  असावेत पण मनभेद होणार नाहीत याची काळजी घेतली की नात्यात कधीही दुरावा येणार नाही.


✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 11 – करे कोई भरे कोई ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  लघुकथा  “करे कोई भरे कोई। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 11 ☆

 

☆ करे कोई भरे कोई ☆  

 

यार रमेश, ये अंकल आँटी को क्या हो गया है, आजकल दोनों बच्चों – पिंकी व रिंकू को हम लोगों से दूर-दूर क्यों रखने लगे हैं?

हाँ  शुभम् मैं भी तो इसी बात से हैरान हूँ। मैंने जब रामदीन दद्दा से पूछा तो वे अपना ही रोना ले बैठे, बोले- कुछ दिनों से बहू बेटे, दोनों बच्चों को उनके कमरे में आने से रोकने लगे हैं।

बता रहे थे वे- आजकल सब दूर यही सब चल रहा है।

उनके एक बुजुर्ग मित्र देवीदीन को तो उनके डॉक्टर बेटे बहू ने मुँह पर ही बोल दिया कि, वे बच्चों से दूरी बना कर रखें। उनके कारण पूछने पर उन लोगों ने स्वास्थ्य का हवाला दिया कि, बड़ी उम्र में शरीर में कई अज्ञात रोगाणु छिपे रहते हैं, इसलिए……

यार रमेश क्या सटीक कारण खोजा है, डॉक्टर बहू बेटे ने अपने ही पिता को बच्चों से दूर रखने का।

वैसे शुभम्- असली कारण मुझे कुछ और ही लग रहा है जो अब कुछ कुछ समझ में भी आ रहा है।

दरअसल आये दिन अखबारों और टी.वी. चैनलों पर बाल यौन उत्पीड़न की कुत्सित घटनाओं को देख सुन कर सभी माँ-बाप अपने बच्चों की सुरक्षा को ले कर काफी भयभीत व आशंकित हैं। शायद इसी भय के चलते सब के साथ उनके अपने भी संदेह के घेरे में आने लगे हैं।

रमेश, यह तो सही है कि  ऐसे हालात में सतर्कता और सावधानी रखना जरूरी हो गया है, पर ऐसे में जो साफ़ सुथरे निश्छल मन के स्नेही स्वजन हैं उनके दिलों पर क्या गुजरेगी।

गुजरना तो है शुभम्- गुजर भी रही है, तभी तो हम इस पर चर्चा कर रहे हैं। क्या करें समाज का ताना बाना ही ऐसा है, सुनी है ना वे सारी कहावतें – कि “एक पापी पूरी नाव को डूबा देता है”,

“दूध का जला छांछ भी फूँक कर पीता है”  या “करे कोई भरे कोई”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 2 – मिट जाएगा …. ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “मिट जाएगा…. ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 2 ☆

 

☆ मिट जाएगा….

 

खुशियों के चंद लमहों के लिए,

आस्था-परंपरा को पैरों तले रौंदने वाले,

मृग-मरीचिका के पीछे क्यों कर भागे,

खुद अस्तित्व भूल औरों को जहर पिलाने वाले,

मिट जाएगा क्षण भर में तू,

खुदगर्ज बन औरों की राह मिटाने वाले.

 

अपनों को तोड़कर लोलुपता के पकड़े जो रास्ते,

रोएगा वह फिर बिखरे रिश्ते जोड़ने के वास्ते,

फिर रिश्तों को सी पाया है भला कोई कभी,

ऐ रिश्तों को कच्ची-टुच्ची ड़ोर समझने वाले,

मिट जाएगा…….

 

संसार मोह, भरम का भंडार है यहाँ,

ईमान, सच्चाई, करम से छुटकारा भी कहाँ,

इन्हें छोड़ पथ तू सँवर पाएगा कभी,

द्वेष, दंभ को अपनाकर खुद को नोचने वाले,

मिट जाएगा…….

 

सपने सच होंगे सच्चाई जब साथ हो

स्वार्थ नहीं अब परोपकार  की बात हो,

उनको भला भूल पाया है संसार कभी,

खुद करने भला औरों के सिर काटने वाले,

मिट जाएगा…….

 

खाली हाथ आया था खाली हाथ ही जाएगा,

जो करम तुम्हारा था वही साथ ले जाएगा,

सत्कर्म नहीं झुके हैं जमाने के आगे कभी,

फूल ही बिखेरना औरों के पथ काँटे बिछाने वाले,

मिट जाएगा………

 

वक्त नहीं गुजरा अभी तू सिर को उठाए जा,

मत सोच खुद का पर काज हित बीज बोए जा,

फसल लहलहाएगी जिंदगी की कभी न कभी,

समझदार होकर ना समझी की नौटंकी वाले,

मिट जाएगा……..

-०-

१९ अगस्त २०१९

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 13 – चौथा कमरा ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनका  संस्मरणीय आलेख चौथा कमरा।  प्रत्येक साहित्यकार को जीवन में कई क्षणों से गुजरना होता है। कुछ कौतूहल के तो कुछ आलोचनाओं के; कभी प्रशंसा तो कभी हिदायतें। सुश्री प्रभा जी ने इन सभी को बड़े सहज तरीके से अपने जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जिया है। सुश्री प्रभा जी का साहित्य जैसे जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। हृदय के उद्गार इतना सहज लिखने के लिए निश्चित ही सुश्री प्रभा जी के साहित्य की गूढ़ता को समझना आवश्यक है। यह  गूढ़ता एक सहज पहेली सी प्रतीत होती है। हमारी समवयस्क पीढ़ी में शायद ही कोई साहित्यकार हो जो स्व. अमृता प्रीतम जी के साहित्य से प्रभावित न हुआ हो। संस्मरणीय आलेख में चौथा कमरा निर्मित करने  की परिकल्पना अद्भुत है।  सुश्री प्रभा जी का  पुनः आभार अपने संस्मरण साझा करने के लिए। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 13 ☆

 

☆ चौथा कमरा ☆

 

आयुष्य कथा, कविता ,कादंबरी कशातही न मावणारं….कथा लिहिल्या, कविता लिहिल्या….कादंबरी नाही लिहिली अजून….एक खुप जुनी कविता आठवते मी लिहिलेली….

न गीत बन सका, न गजल बनी.

पूरी न हो सकी अधूरी कहानी…

शाळेत असताना रचलेली ही कविता…कविता आयुष्यभर साथ देईल असं तेव्हा वाटलं नव्हतं!

अमृता प्रीतम…एक आवडतं व्यक्तिमत्व, आयुष्य मनःपूत जगलेली स्त्री! “चौथा कमरा” ही अमृता प्रीतम ची संकल्पना आमच्या पिढीतल्या मध्यमवर्गीय स्त्रीला विचार करायला लावणारी,

मी जेव्हा स्वतःचा विचार करते तेव्हा जाणवतं, मी ज्या कौटुंबिक पार्श्वभूमीतून आले आहे, तिथे शक्यच नव्हतं, कविता करणं, कार्यक्रमात भाग घेणं, मैत्रीणींबरोबर कार्यक्रमांसाठी गावोगावी जाणं..  .. ..

पण माझ्याबाबतीत स्वतंत्रवृत्तीची ही बीजं लहानपणीच रूजली होती, वाचनातून, रेडिओ सारख्या प्रसारमाध्यमातून…मी माझ्या जवळच्या अगदी जिवाभावाच्या मैत्रीणीच्या घराशी…एका ख्रिश्चन कुटुंबाशी जोडले गेले होते, ते एक सुखी, प्रेमळ आणि एकमेकांशी आदराने वागणारं कुटुंब होतं!

घरात आईवडिलांचा धाक होता.

विसाव्या वर्षी लग्न ठरलं, सासर जुन्या वळणाचं….

घर संसार हेच इतिकर्तव्य असायला हवं होतं, पण विरोध पत्करून घराबाहेर पडले…संसाराकडे थोडंफार दुर्लक्ष झालंही असेल पण सगळी कर्तव्य पार पाडली…कुचंबणा, अवहेलना, अपमान सहन करावे लागले,

पण थोडंफार मनासारखं जगता आलं  ….

संधी मिळत गेल्या…साधारण १९८८ साली..   एका दिवाळी अंकाचं संपादन करायची जबाबदारी मिळाली पहिल्यावर्षी पाचशे रुपये  मानधन मिळालं ते वाढत वाढत पाच हजारापर्यंत गेलं….

स्वतःचा दिवाळी अंक सुरु केला चार वर्षे चालविला पण आर्थिक गणितं जमेनात मग बंद केला!

फार काही भव्य दिव्य करता आलं नाही पण “चौथा कमरा” निर्माण करता आल्याचे समाधान निश्चितच आहे, पण ही सगळी वाटचाल एकटीची  ….प्रतिकुल परिस्थितीत केलेली… छंद जपता आले…स्वतःचं वेगळेपण जपता आलं हे ही नसे थोडके….. १९८८   सालापासूनची म्हणजे लग्नानंतर दहा वर्षांनी उंबरठा ओलांडल्यानंतरची कारकीर्द समाधानी, तृप्त…!!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5 ☆ छोटी ज़िंदगी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “छोटी ज़िंदगी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5   

☆ छोटी ज़िंदगी ☆

 

कभी देखा है ध्यान से तुमने

मस्ताने गुलों को पेड़ों की डालियों पर

मुस्कुराते हुए?

 

शर्माती सी कली

जब एक गुल में परिवर्तित होती है,

उसका चेहरा ही बदल जाता है

और लबों पर उसके लाली छा जाती है!

 

हवाएँ इन इठलाते गुलों को

कभी चूमती हैं,

कभी मुहब्बत से गले लगा लेती हैं;

सूरज इनमें रौशनी भर

इनमें नया जोश पैदा करता है;

तितलियाँ और भँवरे

इनसे इश्क कर बैठते हैं;

पर यह गुल

इन सभी बातों से अनजान,

सिर्फ ख़ुशी से झूलते रहते हैं!

 

कभी-कभी इनको देखकर

बड़ा आश्चर्य होता है…

क्या यह गुल नहीं जानते

कि इनकी ज़िन्दगी इतनी छोटी है?

 

सुनो,

शायद यह बात गुल

अच्छे से जानते हैं,

और शायद यह भी समझते हैं

कि जितनी भी ज़िन्दगी हो

उसमें हर पल का लुत्फ़ लेना चाहिए;

तभी तो यह इतना खुश रहते हैं…

 

आज

अपने बगीचे में

जब एक बार फिर एक शोख गुलाबी गुलाब को

ख़ुशी से सारोबार देखा,

मेरे भी सीने में बसा हुआ डर

कहीं उड़ गया!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 1 ☆ व्यंग्य संग्रह – अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 1 ☆ 

 

 ☆ व्यंग्य संग्रह – अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह… अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो

लेखक..सुदर्शन सोनी, चार इमली, भोपाल

प्रकाशक…बोधि प्रकाशन जयपुर

पृष्ठ..१३६, मूल्य १५० रु

 

☆ व्यंग्य संग्रहअगले जनम मोहे कुत्ता कीजोचर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

कुत्ते की वफादारी और कटखनापन जब अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा शक्ति के साथ इंसानो पर अधिरोपित किया जाता है तो व्यंग्य उत्पन्न होता है. मुझे स्मरण है कि इसी तरह का एक प्रयोग जबलपुर के विजय जी ने “सांड कैसे कैसे” व्यंग्य संग्रह में किया था, उन्होने सांडो के व्यवहार को समाज में ढ़ूंढ़ निकालने का अनूठा प्रयोग किया था. पाकिस्तान के आतंकियो पर मैंने भी “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान…” एवं “मेरे पड़ोसी के कुत्ते” लिखे,  जिसकी  बहुत चर्चा व्यंग्य जगत में रही  है.  कुत्तों का  साहित्य में वर्णन बहुत पुराना है, युधिष्टर के साथ उनका कुत्ता भी स्वर्ग तक पहुंच चुका है. काका हाथरसी ने लिखा था..

पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ

भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज

बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता

देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता

कहँ ‘काका’ कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला

पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला

हाल ही पडोसी के एक मौलाना ने बाकायदा नेशनल टेलीविजन पर देश के आवारा कुत्तो को सजा धजा कर दूसरे देशों को मांस निर्यात करने का बेहतरीन प्लान किसी तथाकथित किताब के रिफरेंस से भी एप्रूव कर उनके वजीरे आजम को सुझाया है, जिसे वे उनके देश  की गरीबी दूर करने का नायाब फार्मूला बता रहे हैं. मुझे लगता है  शोले में बसंती को कुत्ते के सामने नाचने से मना क्या किया गया, कुत्तों ने  इसे पर्सनली ले लिया और उनकी वफादारी, खुंखारी में तब्दील हो गई. मैं अनेक लोगो को जानता हूं जिनके कुत्ते उनके परिवार के सदस्य से हैं.सोनी जी स्वयं एक डाग लवर हैं, उन्हीं के शब्दों में वे कुत्तेदार हैं, एक दो नही उन्होने सिरीज में राकी ही पाले हैं. एक अधिकारी के रूप में उन्होनें समाज, सरकार को कुछ ऊपर से, कुछ बेहतर तरीके से देखा समझा भी है. एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी अनुभूतियों का लोकव्यापीकरण करने में वे बहुत सफल हुये हैं.  कुत्ते के इर्द गिर्द बुने विषयों पर  अलग अलग पृष्ठभूमि पर लिखे गये सभी चौंतीस व्यंग्य भले ही अलग अलग कालखण्ड में लिखे गये हैं किन्तु वे सब किताब को प्रासंगिक रूप से समृद्ध बना रहे हैं. यदि निरंतरता में एक ताने बाने एक ही फेब्रिक में ये व्यंग्य लिखे गये होते तो इस किताब में एक बढ़िया उपन्यास बनने की सारी संभावनायें थीं. आशा है सुदर्शन जी सेवानिवृति के बाद कुत्ते पर केंद्रित एक उपन्यास व्यंग्य जगत को देंगे, जिसका संभावित नाम उनके कुत्तों पर “राकी” ही होगा.

धैर्य की पाठशाला शीर्षक भी उन्हें कुत्तापालन और धैर्य कर देना था तो सारे व्यंग्य लेखो के शीर्षको में भी कुत्ता उपस्थित हो जाता. जेनेरेशन गैप इन कुत्तापालन, कम्फर्ट जोन व डागी,कुत्ताजन चार्टर, डोडो का पाटी संस्कार,  आदि शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं कि सोनी जी को आम आदमी की अंग्रेजी मिक्स्ड भाषा से परहेज नही है. उनकी व्यंग्यों में संस्मरण सा प्रवाह है. यूं तो सभी व्यंग्य प्रभावी हैं, गांधी मार्ग का कुत्ता, कुत्ता चिंतन, एक कुत्ते की आत्मकथा, उदारीकरण के दौर में कुत्ता आदि बढ़िया बन पड़े व्यंग्य हैं. किताब पठनीय है, श्वान प्रेमियो को भेंट करने योग्य है. न्यूयार्क में मुझे एक्सक्लूजिव डाग एसेसरीज एन्ड युटीलिटीज का सोरूम दिखा था “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ”  अंग्रेजी अनुवाद के साथ वहां रखे जाने योग्य मजेदार व्यंग्य संग्रह लगता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #13 – माथी पत्थर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता  “माथी पत्थर”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 13 ☆

 

? माथी पत्थर ?

 

चराचरावर तुझीच सत्ता जर आहे तर

चराचराला कशी लागली येथे घरघर

 

समृद्धीच्या दिल्यास चाव्या ज्यांच्या हाती

विज्ञानाच्या नावाखाली धरणी जर्जर

 

अतिरेकी अन् दारूगोळा करती गोळा

भीक मागती घरात त्यांच्या नाही भाकर

 

गगन व्यापुनी सारे येथे तिमिर बैसला

किती दिसांनी आज उगवला तेजोभास्कर

 

हिंस्त्र पशूंचे इथे टोळके फिरते आहे

धालत नाही कुणीच त्यांना येथे आवर

 

या देशाचे देणे घेणे नाही त्याला

लुटून देशा स्थावर जंगम केली जगभर

 

पुटीरवादी त्याला सवलत मिळते आहे

रक्षणकर्ता आहे त्याच्या माथी पत्थर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 13 – मेहंदी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “मेहंदी”यह रंग बिरंगा जीवन जीने का दूसरा अवसर नहीं मिलता, जिसे जीने का सबको बराबर हक है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 13 ☆

 

☆ मेहंदी ☆

 

कंचन अपने माता-पिता की इकलौती संतान । गोरा रंग और सुंदरता के कारण उसका नाम कंचन रखा गया। कंचन के पिताजी की रंगो और मेहंदी की छोटी सी दुकान । उन रंगों से खेलना कंचन को बहुत भाता था। हमेशा मेहंदी से हाथ रचाई रखना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गई थी। बहुत शौकीन सजने संवरने की।

समय बीतता गया, कंचन बड़ी हुई। घर में शादी की बात चलने लगी। कंचन जो अब तक मेहंदी – महावर लगा रही थी। अब उसके माथे मांग सिंदूर लगने जा रहा था।

शादी बहुत ही साधारण तौर पर हुई क्योंकि कंचन के पिताजी ज्यादा खर्च करने के लायक नहीं थे। कंचन के रूप- गुण के कारण ससुराल वाले उनका भी खर्चा उठाने के लिए तैयार हो गए। बस और क्या चाहिए। कंचन शादी विदा होकर अपने ससुराल पहुंच गई। पर उसके मन में बार-बार शंका हो रही थी कि आखिर क्यों इतना एहसान किया जा रहा है।

ससुराल पहुंचने पर कंचन को धीरे-धीरे पता चला कि उसका अपना पति बहुत ही बीमार रहता है। डॉक्टर ने उसे जवाब दे दिया है। पर कंचन बेचारी क्या करती। दूसरे दिन ही पति की बीमारी शुरू हुई और मौत हो गई।

कंचन मौन मूक से देखती रही। अभी तो उसने ठीक से पति को देखा भी नहीं और विधवा हो गई।

खैर सब अपने कर्मो का फल है ऐसा सब  कहने लगे। परंतु कंचन समझ ना पा रही थी कि इसमें उसका क्या कसूर।

दूसरे ही दिन से कंचन को सफेद साड़ी दे दिया गया। जिस कंचन को सब रंगों से इतना लगाव था वह तो पूरी सफेद बन चुकी।

महीने भर बाद माता-पिता जी ले गए अपनी बिटिया को अपने घर। जैसे खुशियां उनके घर से कोसों दूर चली गई है। कंचन अब अपनी दुकान पर भी नहीं बैठती थी। गुमसुम से एक जगह बैठी मिलती। बस अपने आप में खोई हुई। पास में ही कंचन के साथ पढ़ाई करने वाला लड़का कौशल पढ़ाई कर बाहर नौकरी पर चला गया था। जो कंचन को बहुत प्यार करता था। इसका पता उसे तब चला जब वह फिर लौट कर अपने घर आया हुआ था।

एक दिन पिताजी किसी काम से शहर से बाहर गए थे। कंचन की माँ अपने घर का काम कर रही थी। और कंचन दुकान पर बैठी, सफेद साड़ी में। उसी समय वह आया और लाल रंग और मेहंदी देने को कहा। पर कंचन ने मना कर दिया की वह रंगों को हाथ नहीं लगाएगी। कौशल ने फिर कहा “मुझे लाल रंग चाहिए।” कंचन ने गुस्से से कहा “तो फिर खुद ले लो और लगा लो।” बस कौशल को तो इसी की प्रतीक्षा थी। उसने लाल रंग निकाला और कंचन की सफेद साड़ी को सर से पांव तक लाल कर दिया। “ये क्या किया?” कंचन घबराहट से उठ खड़ी हुई।

माँ पीछे से मंद-मंद मुस्कुराते हुए बाहर आई और कौशल से बोली “ले जा मेरी कंचन को, मेहंदी महावर और लाल सिंदूर लगा कर। मेरी कंचन को रंगों से बहुत प्यार है।”

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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