Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 4 – Amba’s wrath ☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Amba’s wrath”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 4

 

☆ Amba’s wrath ☆

(Denied justice from Bheeshma, a sufferer of fate, Amba seeks justice from God)

 

O life! You have made me a chattel

Loved, lost, owned and dismissed.

And on one leg I stand here on the Himalayas

O God! Before you, to ask for justice.

 

King Shalva I loved, gave away my heart

And accepted I was by pleasure and grace

And yet, taken away from my swayamwar I was

Bheeshma, by virtue of force, caused my disgrace.

 

Owned by Bheeshma, to Vichitrveerya presented

A conquered property I became, exchanging hands

When informed that it was King Shalva I loved

Kind enough they were to understand

 

Went I, to King Shalva, with love in my heart

And…oh! rejected, refused and denied I was

Said he, that he could not have someone as wife

Some other man’s possession who was…

 

With a despondency, I returned

And asked Vichitraveerya to take me as his wife

Declined again, I asked Bheeshma for justice

He was the one, who had changed course of  my life

 

He was the one who had snatched me away

He was the one in whose chariot I sat

Rightfully, I asked him to marry me

And it was then I realized, I had become a doormat

 

Bheeshma rebuffed me, reminded me of his pledge;

Wandered I from place to place, to get even.

Parshurama did help, fought for me-

Unfortunately, against Bheeshma, no one could have won

 

O God! Death of Bheeshma is what I seek

As a revenge for what I had to endure and face

O God! Give me justice, for I know I did not falter

O God! Most humbly, before you, I present my case

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “रेल्वे फाटक के उस पार ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ 

 

 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆

 

मेरा घर और दफ्तर ज्यादा दूर नहीं है, पर दफ्तर रेल्वे फाटक के उस पार है. मैं देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली, लौह पथ गामिनी के गमनागमन का सुदीर्घ समय से साक्षी हूँ. मेरा मानना है कि पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश को जोड़े रखने में, समानता व एकता के सूत्र स्थापित करने मे, भारतीय रेल, बिजली के नेशनल ग्रिड और टीवी सीरीयल्स के माध्यम से एकता कपूर ने बराबरी की भागीदारी की है.

राष्ट्रीय एकता के इस दार्शनिक मूल्यांकन में सड़क की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर चूँकि रेल्वे फाटक सड़क को दो भागों में बाँट देता है, जैसे भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर हो, अतः चाहकर भी सड़क को देश की एकता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता. इधर जब से हमारी रेल ने बिहार का नेतृत्व गृहण किया है, वह दिन दूनी रात चौगिनी रफ्तार से बढ़ रही है. ढ़ेरों माल वाहक, व अनेकानेक यात्री गाड़ियां लगातार अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं, और हजारों रेल्वे फाटक रेल के आगमन की सूचना के साथ बंद होकर, उसके सुरक्षित फाटक पार हो जाने तक बंद बने रहने के लिये विवश हैं.

मेरे घर और दफ्तर के बीच की सड़क पर लगा रेलवे फाटक भी इन्हीँ में से एक है, जो चौबीस घंटों में पचासों बार खुलता बंद होता है. प्रायः आते जाते मुझे भी इस फाटक पर विराम लेना पड़ता है. आपको भी जिंदगी में किसी न किसी ऐसे अवरोध पर कभी न कभी रुकना ही पड़ा होगा जिसके खुलने की चाबी किसी दूसरे के हाथों में होती है, और वह भी उसे तब ही खोल सकता है जब आसन्न ट्रेन निर्विघ्न निकल जाये.

खैर ! ज्यादा दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है, सबके अपने अपने लक्ष्य हैं और सब अपनी अपनी गति से उसे पाने बढ़े जा रहे हैं अतः खुद अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिये फाटक के उस पार तभी जाना चाहिये, जब फाटक खुला हो. पर उनका क्या किया जावे जो शार्ट कट अपनाने के आदि हैं, और बंद फाटक के नीचे से बुचक कर,वह भी अपने स्कूटर या साइकिल सहित,निकल जाने को गलत नहीं मानते.नियमित रूप से फाटक के उपयोगकर्ता जानते हैं कि अभी किस ट्रेन के लिये फाटक बंद है,और अब फिर कितनी देर में बंद होगा. अक्सर रेल निकलने के इंतजार में खड़े बतियाते लोग कौन सी ट्रेन आज कितनी लेट या राइट टाइम है, पर चर्चा करते हैं. कोई भिखारिन इन रुके लोगों की दया पर जी लेती है, तो कोई फुटकर सामान बेचने वाला विक्रेता यहीं अपने जीवन निर्वाह के लायक कमा लेता है.

जैसे ही ट्रेन गुजरती है, फाटक के चौकीदार के एक ओर के गेट का लाक खोलने की प्रक्रिया के चलते, दोनो ओर से लोग अपने अपने वाहन स्टार्ट कर, रेडी, गेट, सेट, गो वाले अंदाज में तैयार हो जाते हैं. जैसे ही गेट उठना शुरू होता है, धैर्य का पारावार समाप्त हो जाता है. दोनो ओर से लोग इस तेजी से घुस आते हैं मानो युद्ध की दुदंभी बजते ही दो सेनायें रण क्षेत्र में बढ़ आयीं हों. इससे प्रायः दोनो फाटकों के बीच ट्रैफिक जाम हो जाता है ! गाड़ियों से निकला बेतहाशा धुआँ भर जाता है, जैसे कोई बम फूट गया हो ! दोपहिया वाहनों पर बैठी पिछली सीट की सवारियाँ पैदल क्रासिंग पार कर दूसरे छोर पर खड़ी, अपने साथी के आने का इंतजार करती हैं. धीरे धीरे जब तक ट्रैफिक सामान्य होता है, अगली रेल के लिये सिग्नल हो जाता है और फाटक फिर बंद होने को होता है. फाटक के बंद होने से ठीक पहले जो क्रासिंग पार कर लेता है,वह विजयी भाव से मुस्कराकर आत्म मुग्ध हो जाता है.

फाटक के उठने गिरने का क्रम जारी है.

स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवर ब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं. लोकल अखबारों को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खिया मिल जाती हैं. देर से कार्यालय या घर आने वालों के लिये फाटक एक स्थाई बहाना है. फाटक की चाबियाँ सँभाले चौकीदार अपनी ड्रेस में, लाल, हरी झंडिया लिये हुये पूरा नियँत्रक है, वह रोक सकता है मंत्री जी को भी कुछ समय फाटक के उस पार जाने से.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12 ☆ माँ तो माँ है! ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “माँ तो माँ है!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #12☆

 

☆ माँ तो माँ है!☆

 

रमा अपने बेटे को छाती से चिपका कर रो पड़ी, “सुनते हो जी ! कुछ करो ना ? ” उस की बोली निकल नहीं पा रही थी.

आज शाम से ही रमा के बेटे को उलटी दस्त होने लगे थे. जो रूकने का नाम नहीं ले रहे थे. उस ने डॉक्टर को दिखाया. दवा पिलाई. मगर दस्त थे कि बंद नहीं हुए. यह देख कर रमा अपने पुत्र को गोद में ले कर रात भर बैठी रही. वह अपनी सब सुधबुध खो चुकी थी.

तभी रमा के पति अविनाश की आँखें लग गई.

यह देख कर रमा चिल्लाई, “ये क्या है?” वह लगभग चीख पड़ी थी, “हमारा बेटा बीमार पड़ा है और आप नींद निकाल रहे है ?”

अविनाश हड़बड़ा कर उठ बैठा, “क्या हुआ ?”

“मेरे पुत्र की हालत देखो. इस के लिए कुछ भी करो. यह ठीक नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगी.”  वह तड़फ उठी, “तुम क्या जानो. माँ क्या होती है ?”

यह सुन कर अविनाश की आँखें फटी की फटी रह गईं, “माँ अपने बच्चे के लिए इतने दुख-दर्द झेलती है ?”

“हाँ, और नहीं तो क्या?” रमा कहने को तो कह गई. मगर, जब अविनाश को उठते हुए देखा तो पूछ बैठी, “अब कहाँ चल दिए ?”

“अपनी बीमार माँ को अनाथालय से लेने,” अविनाश ने कहा और अनाथालय की ओर चल दिया,  “माँ तो माँ होती है. चाहे वह तुम जैसी माँ हो या मेरे जैसे बेटे की माँ?’’

यह सुन कर रमा की आँखों में भी आँसू आ गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प बारावे # 12 ☆ रक्षाबंधन :- स्नेह संवर्धन  ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं आज रक्षा बंधन के इस पर्व पर इस लेखमाला की शृंखला  के अंतर्गत  आलेख रक्षाबंधन :- स्नेह संवर्धन  को हम विशेष रूप से गुरुवार को प्रस्तुत कर रहे हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प  बारावे  # 12 ☆

 

रक्षाबंधन :- स्नेह संवर्धन   

 

*चिंधी बांधते द्रौपदी हरीच्या बोटाला* 

किंवा 

*रेशमाच्या धाग्यांनी सजली राखी पौर्णिमा* 

*बंधुत्वाच्या बंधुतेची दे प्रेरणा मजला*. 

अशा भावस्पर्शी ओळीतून ही भावस्पंदने मनात रूजली आहे.  पौराणिक आणि ऐतिहासिक काळात  संधी, तह, सलोखा,  सामंजस्य,  राज्य विस्तार, देशरक्षण,  अशा भावनेतून सुरू झालेली ही रक्षाबंधन परंपरा एक संस्कार क्षम सण  आहे.

समाजपारावरून  हा  कौटुंबिक विषय चर्चेला घेताना मन भरून आले.  पण सध्या साजरे होत  असणारे सण पाहिले की मन विषण्ण होते.  मूळ  उद्देश समजावून न घेता केवळ मनोरंजनाचे माध्यम आणि  एकत्र  येण्याचे निमित्त म्हणून  रक्षाबंधन  या सणांकडे पाहिले जाते.

आधुनिक काळात मात्र देणे घेणे यात नवी

पिढी जास्त गुंतलेली आहे.  भावनेला दिखाऊ पणाची आणि नात्याला हिशेबी व्यवहारीकतेची जोड मिळाल्याने या सणाचे मांगल्य,  पावित्र्य कुठेतरी हरवत चालले आहे. बहिणीचे रक्षण आणि बहिणीने भावाच्या दिर्घायुष्यासाठी केलेले औक्षण ,  देवाकडे केलेली प्रार्थना  ,भाऊ बहीण यांचे स्नेहभोजन हा हेतू या सणाचा बाजूला पडून या सणाकडे फक्त  एकत्र येण्याचे निमित्त म्हणून पाहिले जात आहे.

रक्षाबंधनाचा आणखी  एक हेतू म्हणजे   बहिणीने  भावाला राखीच्या नाजूक भावबंधनात बद्ध करताना  आपल्यावर  जर एखादे संकट आले तर तै निवारण करण्यासाठी केलेली विनंती आणि भावाने  आशिर्वाद देऊन रक्षण करण्याचे दिलेले वचन  हा  आहे.  यासाठी : आपला भाऊ सदैव सावलीप्रमाणे उभा असावा आजन्म त्याचे प्रेम,  स्नेह  बहिणीला लाभावा म्हणून बहाणीने केलेले स्नेहबंधन  म्हणजे रक्षाबंधन होय ……!

कौटुंबिक मालमत्तेत बहिणीला मिळणारा वाटा यावर  आता हे नाते  आपला तोल सांभाळत  आहे.  कित्येक वेळा बहिण भावाचे रक्षण करते अशी  उदाहरणे  आपल्याला पहायला मिळत आहेत.  अशा वेळी भाऊ आणि बहिण यांच्यातील भावनिक नाते,  एकमेकांना साथ देण्याची  आश्वासक भूमिका रक्षाबंधनाचा मूळ हेतू साध्य करू शकेल  असे मला वाटते.

भावाने बहिणीला किंवा बहिणीने भावाला काय दिले यापेक्षा परस्परांनी एकमेकांना  आपल्या ह्रदयात दिलेली जागा तो चंदनी पाट,  एकमेकांची वाट पहाताना पाणावलेले डोळे,  भेट झाल्यावर  उजळलेले चेहरे  आणि रेशमी राखीने अंगभर फिरणार्‍या  मोरपिशी  आठवणी या  रक्षाबंधनाची महती जास्त प्रगल्भ करतात.

बहिण लहान की मोठी या पेक्षा बहिण  आणि भाऊ यांनी एकमेकांना बहाल केलेली  अंतरीक माया ममतेची उंची या राखीला अलौकिक उंची प्राप्त करून देते. भावाला पोटभर जेवताना पाहून दाटून  आलेला बहिणीचा स्वर,  स्वतःची काळजी घे,  येत जा  या  वाक्यातला आपलेपणा हा सण साजरा करून जातो.  भावना,  विचार आणि आचार यांच्या  त्रिसूत्रीने हे रक्षाबंधन फक्त बहिणीची नाही तर प्रत्येक व्यक्तीमत्वात दडलेल्या माणसाची,  त्याच्यातल्या माणुसकीची रक्षा करणारे  आहे.

चंद्राच्या सोळा कला ज्या प्रमाणे कला,सुख,  समृद्धी,  यांची वृद्धी  आणि दुःख, दैन्य,  दारिद्र्य यांचा क्षय करतात त्या प्रमाणे भाऊ बहीणीचे हे नाते स्वभाव, कला, स्नेह यांच्या चांदण्याने फुलत राहो अशी कवी कल्पना या सणाचे महत्त्व  अधिक संवेदनशील करते.  राखी हे निमित्त  आहे  माणूस माणसाशी जोडला जाणे ही मूळ भावना हे भावबंधन हा सण शिकवून जातो हेच खरे.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 12 – रिक्षा ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  

अक्सर हमारे रिश्तों के साथ कई क्षण, कई जीवित और अजीवित भी जुड़े होते हैं।  जो उनके जीवित रहते भी और जाने के बाद भी उनकी स्मृति दिलाते रहते हैं। मैं श्री सुजीत जी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजीत जी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “रिक्षा ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #12 ☆ 

 

☆ रिक्षा ☆ 

 

दारा समोर उभी असलेली

रिक्षा पाहीली की…

बाप आठवल्या शिवाय रहात नाही

आणि रिक्षा बरोबरच दिवस भर

राबणारा माझा बाप आजही

डोळ्यासमोरून जात नाही

कारण…

पहाटेच्या उशाला अंधार असतानाच

माझा बाप रिक्षा घेऊन घरातून

बाहेर पडायचा आणि

दिवसभराच्या खर्चाची

सारी गणित सोडवूनच

पुन्हा घराकडं परतायचा.

माझ्या खर्चा साठी त्यानं कधी

स्वतः ची मुठ आवळून धरलीच नाही

आणि माझ्या बापाकडं मी

कोणत्या गोष्टीसाठी हट्ट असा

केलाच नाही..कारण..

माझ्या मनातलं त्याला सारं काही

न बोलताच कळायचं आणि

त्याला रिक्षा चालवताना बघितलं की

माझं काळीज..

त्याच्या कपड्या सारखंच

मळकटलेलं वाटायचं…!

माझा बाप कधी कधी

रिक्षातचं अंगाची घडी करून

झोपायचा..

तेव्हा त्याच्या इतका साधा माणूस

मला दुसरा कुणीच नाही दिसायचा…!

घरासारखीच त्याला तेव्हा

रिक्षा ही जवळची वाटायची अन्

रिक्षात बसल्यावर त्याला

त्याची मायच भेटल्यासारखी वाटायची पण…

आता मात्र दारा समोर

उभी असलेली रिक्षा

दिवसेंदिवस खचत चाललीय

आणि…

बापाच्या आठवणीत ती ही आता

शेवटच्या घटका मोजू लागलीय…!

 

…©सुजित कदम

मो.7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 10 – किसे पता था….? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “किसे पता था….?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 10 ☆

 

☆ किसे पता था….? ☆  

 

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वांस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे संवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पंखेरू उड़ जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,सांझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में

ऐसे भटकाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 1 – खुशी तुझे ढूंढ ही लिया ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी

का e-abhivyakti  में हार्दिक स्वागत है। आपकी अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आपने हमारे आग्रह पर यह साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज प्रारम्भ करना स्वीकार किया है, इसके लिए हम आपके आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी कविता “खुशी तुझे ढूंढ ही लिया”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 1 ☆

☆ खुशी तुझे ढूँढ़ ही लिया

 

आँख खुली नींद में,

मुस्कराती माँ के आँचल में,

पिता के आदर, गुस्सा, प्यार में,

भाई की अनबन तक़रार में,

दीदी की अठखेली मुस्कान में,

हे खुशी, तू तो भरी पड़ी है,

मेरे परिवार के बागियान में।

 

पाठशाला के भरे बस्ते में,

टूटी पेन्सिल की नोक में,

फटी कापी की पात में,

दोस्त की साजी किताब में,

परीक्षा और नतीजे खेल में,

हे खूशी तू खड़ी, खड़ी रंग में,

तेरा निवास ज्ञानमंदिर में।

 

कालेज की भरी क्लास में,

यार-सहेली के शबाब में,

प्यार कली खिली उस साज में,

चिट्ठी-गुलाब-बात के अल्फ़ाज में,

गम-संगम आँसू बरसाती बरसात में,

हे खुशी, तू बसी विरहन आस में,

और पियारे मिलन के उपहास में।

 

समझौते या कहे खुशी के विवाहबंध में

पति-पत्नी आपसी मेल-जोल में,

गृहस्ती रस्में-रिवाज निभाने में,

माता-पिता बन पदोन्नति संसार में,

जिम्मेदारी एहसास और विश्वास में,

हे खुशी, तुझे तो हर पल देखा,

तालमेल करती जिंदगी तूफान में।

 

बचपन माँ के आँचल में,

मिट्ठी-पानी हुंकार में,

यौवन की चाल-ढाल में,

सँवरती जिंदगी ढलान में,

पचपन के सफेद बाल में,

हे खुशी, तू सजती हर उम्र में,

और चेहरे सूखी झुर्रियों में।

 

आँख मूँद पड़े शरीर में,

आँसू भरें जन सैलाब में,

चार कंधों की पालखी में,

रिश्तों की टूटती दीवार में,

चिता पर चढ़ते हार में,

हे खुशी, तुझे तो पाया,

जन्म से श्मशान की लौ बहार में।

 

हे खुशी, एक सवाल है मन में,

क्यों भागे हैं जीव, ख्वाइशों के वन में,

लोग कब समझेंगे तू भी है गम में,

जिस दिन ढूँढेंगे तुझे खुद एहसास में,

और औरों को बाँटते रहे प्यार में,

हे खुशी, खुशी होगी मुझे लिपटे कफन में,

और लोगों के लौटते भारी हर कदम में।

 

हे खुशी आखिर तुझे ढूँढ ही लिया,

जन्म से मृत्यु तक के अंतराल में।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल: [email protected] , [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 12 – कौतुक आणि टीका ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनका आलेख कौतुक आणि टीका ।  प्रत्येक साहित्यकार को जीवन में कई क्षणों से गुजरना होता है। कुछ कौतूहल के तो कुछ आलोचनाओं के; कभी प्रशंसा तो कभी हिदायतें। सुश्री प्रभा जी ने इन सभी को बड़े सहज तरीके से अपने जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जिया है। मुझे आलेख के अंत में उनकी कविता के अंश को पढ़ कर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो उन्होने आज से लगभग 37 वर्ष पूर्व मुझे लिखा था। उन्हें मैं आपसे साझा करना चाहूँगा। “एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।” 

सुश्री प्रभा जी का  पुनः आभार अपने संस्मरण साझा करने के लिए। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 12 ☆

 

☆ कौतुक आणि टीका ☆

१९७४/७५  सालापासून मला छापील प्रसिद्धी मिळते आहे. रेडिओ सिलोन च्या श्रोतासंघांच्या रेडिओ पत्रिकेत हिंदी कविता प्रकाशित झाल्या, राजबिराज- नेपाळ हून एका वाचकाचं पत्र आलं, “आपकी रचना सबसे सुंदर है !” छान वाटलं पण फार हुरळून गेले नाही!

१९७५ मध्ये मनोरा मासिकातून पत्र आलं, “कविता स्विकारली आहे, भेटायला या ” त्यांनी काही सूचना केल्या, शुद्धलेखनाच्या चुका होता कामा नयेत वगैरे….

माझ्या बहुतेक कवितांचे वाचकांनी कौतुकच केले आहे, “लोकप्रभा” मध्ये प्रकाशित झालेल्या कवितेला सुमारे चाळीस प्रशंसा पत्रे आली!

अजूनही लोक काही वाचलं की फोन करून, व्हाटस् अप वर आवडल्याचे सांगतात, एकदा माझी एक विनोदी कथा वाचून निनावी पत्र आलं, “तुम्ही कथा लिहू नका फक्त कविताच करा” पण ह.मो.मराठे यांनी ती कथा वाचल्याचे आणि आवडल्याचे एकदा कार्यक्रमात भेटले तेव्हा सांगितलं!

आपण कसं लिहितो,याची आपल्याला साधारण कल्पना असते, मी खुप प्रयत्नपूर्वक काही लिहित नाही…सहज सुचलं म्हणून लिहिते, फार नोंद घेतली जावी असं ही काही नाही….पण रवींद्र पिंगे,लीला दीक्षित, निर्मलकुमार फडकुले,  रवींद्र शोभणे आणि मधु मंगेश कर्णिक यांनी  लेखनाचं कौतुक केलेलं खुप आनंददायी वाटलं होतं!

माझे मामा नेहमीच माझ्या कवितेची टिंगल करतात, ते “दावणी ची गाय” वगैरे ऐकवत जाऊ नकोस वगैरे, एकदा त्यांचा मला फोन आला, टीव्ही वर अमुक तमुक च्या गझल चा कार्यक्रम लागला आहे पहा तुला काही शिकता आलं तर तिच्याकडून!!!

त्यानंतर दोन वर्षांनी ती गझलकार आणि मी एका मुशाय-यात एकत्र होतो…तिच्या पेक्षा माझ्या गझल निश्चितच चांगल्या गेल्या…ही आत्मस्तुती नाही…तुलना मी मुळीच करत नाही पण…तिच्या कडून मी काही शिकावं असं काही नव्हतं, टीका करणारे करतात,आपला आवाका आपल्याला माहित असतोच टीकेचा किंवा कौतुकाचा माझ्यावर फारसा परिणाम झालेला नाही!

 

मी माणूस आहे

संत नव्हे

माझी कविता, एक वेदना

अभंग नव्हे

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4 ☆ चले जाने तलक ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “चले जाने तलक”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4   

 

☆ चले जाने तलक ☆

 

तेरे चेहरे पर यह मुस्कान बनी रहेगी कब तलक?

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक?

 

क्या तेरे मन को यह कोई अधूरी सी ख्वाहिश है

जो तुझे ख़ुशी देगी सिर्फ तेरी गली आने तलक?

 

या फिर यह कोई ठहरी सी दिल की तमन्ना है

जो तेरे साथ चलेगी सिर्फ मेरे वापस जाने तलक?

 

सुन, तू ज़हन को हर एहसास से आज़ाद कर दे,

मुस्कान का रिश्ता हो जहाँ भी झलके तू पलक!

 

ख़ुशी और जुस्तजू अपनी रूह में तू ऐसी भर दे,

कि जब-जब तू पंख फैलाए, नज़र आये फ़लक!

 

तेरे हर लम्हे में तब सुकून होगा जो न बदलेगा

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 12 – लाल जोड़ा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लाल जोड़ा”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 12 ☆

 

☆ लाल जोड़ा ☆

 

बहुत बड़ी स्मार्ट सिटी। चारों तरफ से आवागमन के साधन। स्कूल, कॉलेज, सिनेमा घर, बाजार, अस्पताल, सभी प्रकार की सुविधा। सिटी से थोड़ी दूर बाहर करीब 50 किलोमीटर के पास एक छोटा सा तालाब वहां 60-65 मकान जो झुग्गी झोपड़ी नुमा। शहर के वातावरण से बिल्कुल अनजान। अपने में ही मस्त रहना। और चाहे दुख हो चाहे सुख, बस वही सभी को निपटना। गांव से शहर कोई आता, जरूरत का सामान ले जाता। गाय भी पाले परंतु दूध अपने उपयोग के लिए नहीं करना। शहर में बेच कर पैसे कमाना। किसी के यहां मुर्गी का दड़बा भी है। बकरियां भी पाल रखे हैं। छोटे- बड़े, बच्चे, महिला, लड़कियां, सभी आपस में ही मिलकर रहना यही उनकी जिंदगी है।

रोज शाम को काम से सभी लौटने के बाद खाना बनाने वाले खाना बनाते हैं बाकी सब एक गोल घेरा बनाकर बैठे दिन चर्चा करते। किसी की बेटी की शादी, किसी के बेटे का ब्याह, सभी आसपास ही होता था।

उन्हीं घरों में बैदेही अपने माता – पिता के साथ रहती थी। जैसा नाम वैसा ही उसका काम। सभी का काम करती। बड़े – बुजुर्गों के काम पर चले जाने के बाद खुद 14 साल की बच्ची परंतु, अपने से छोटे सभी का ध्यान रखती थी। स्कूल तो जैसे किसी ने देखा ही नहीं। कभी गए, कभी नहीं गए। क्योंकि, जाने पर घर का काम कौन करता। अक्षर ज्ञान सभी को आता था।

बैदेही पढ़ने में होशियार थी। उसके अपने साथ की सहेली उससे कहती “बैदेही तुम तो निश्चित ही शहर जाओगी।” परंतु बेहद ही कहती “अरे नहीं इस मिट्टी को छोड़कर मैं कहीं भी नहीं जाऊंगी। देखना इसी मिट्टी पर मेरा अपना घर होगा।”

दिन बीतते गया। बैदेही का ब्याह तय किया माँ बापू ने। एक लड़का पास के गांव में स्कूल में चौकीदार का काम करता था। सभी बस्ती के लोग बहुत खुश थे, बैदेही के ब्याह को लेकर। बाजे – गाजे बजने लगे, सुहाग का जोड़ा भी आ गया। बैदही के लिए सभी लाल सुर्ख जोड़े को देखकर प्रसन्न थे।

दिन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था बस्ती के सभी महिलाएं पुरुष पास में मंदिर गए हुए थे। छोटा सा पंडाल लगा था बैदही के घर। घर में कुछ छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बैदेही को हल्दी लगनी थी।  सारी तैयारियां चल रही थी। खाना भी बन रहा था।

थोड़ी देर बाद अचानक आँधी चलने लगी। पंडाल जोर-जोर से हिलने लगा। मिट्टी का मकान सरकने की आवाज से बैदेही चौंक गई। तुरंत बच्चों को बाहर कर दिया और जरूरत का सामान बाहर लाने जा रही थी। हाथ में अपना लाल जोड़ा लेकर बैदेही बाहर दौड़ रही थी परंतु ये क्या! ऊपर से खपरैल वाला छत बैदेही के ऊपर आ गिरा। सैकड़ों लाल खपरैल से बैदेही दब गई। और जैसे आँधी एक बार में ही शांत हो गई। सभी आकर जल्दी-जल्दी बैदेही को निकालना शुरू किए। बहुत देर हो जाने के कारण बैदेही के प्राण- पखेरू उड़ चुके थे। बच्चों की जान बचाते बैदेही अपने सुहाग का जोड़ा हाथ में लिए सदा-सदा के लिए उसी मिट्टी में सो गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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