मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 1 ☆ नवनिर्मिती ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। हम श्रीमती उर्मिला जी के आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” शीर्षक से  प्रारम्भ करने हेतु अपनी अनुमति प्रदान की। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख नवनिर्मिती  

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 1☆

 

☆ नवनिर्मिती ☆

 

मागच्या वर्षीची गोष्ट.उन्हाळ्याची तलखी संपून नुकताच वर्षाऋतू येवू घातला होता.मी प्रवासाला निघाले होते.गाडीतनं बाहेर पहात होते.सग्गळीकडं नांगरलेली काळीभोर शेतं कशी ओळीनं जाजमं अंथरल्यागत दिसत होती.शेतीची खरीपाची लगबग सुरू होती.काही शेतात शेतकरी पाभारीवर उभे राहून पेरणी करताना दिसत होते.बैलांच्या गळ्यातला घुंगुरांची किणकिण ,शेती औजारांचे कुर्रकुर्र आवाज आणि पावसाळी कुंद हवा , खूप छान वाटत होतं.

मी आठ-दहा दिवसांनी माझं काम संपवून परतीच्या प्रवासात होते.येताना परत तीच शेतं पहात होते पण आज त्या काळ्याभोर जाजमांवर सुंदर रेशीमहिरवी नक्षी काढल्यागत दिसत होतं.नाजुक हिरवीगार पानं वाऱ्यानं डुलताना दिसत होती.पेरलेल्या बियाणांना अंकुर फुटले होते.निसर्गाची ही नवनिर्मिती खूपच मनभावन वाटतं होती.

अशीच एकदा काही दिवसांसाठी परगावी गेले होते.प्रवासातून आल्याआल्या जरा खुर्चीत डोकं टेकून शांतपणे बसले होते, इतक्यात खिडकीच्या बाजूने मला छानसा सुगंध जाणवला.मी झटकन् उत्सुकतेने खिडकी उघडून पहाते तो काय, मागच्या पंधरवड्यात वानरांनी ज्या छोट्याशा झाडांची सग्गळी पानं खाऊन टाकली होती अन् अगदी उघडंबोडकं केलं होतं त्याच झाडाला इतका देखणा सोनपिवळ्या रंगाचा मोहोर आला होता,ते छोटंसंच झाड पण मोहोराने खूप भरगच्च डवरलेलं दिसत होतं मी पहातच राहिले.

माझं विचारचक्र सुरू झालं.निसर्गाचं कसं आहे पहा! ज्यावेळी त्या बिचाऱ्या वानरांना भूक लागली होती ती शमवण्यासाठी त्यांना त्या झाडाची पानं खायची परवानगी निसर्गानंच म्हणजे पर्यायानं देवानंच दिली, आणि आज त्याच निसर्गानं त्या झाडाला भरभरुन मनमोहक झुपकेदार मोहोर बहाल केला होता.चैत्रपालवी  फुटल्यानंतर पानं पण  झाडावर येवू लागली होती व जोडीला मोहोर आला .निसर्गाची नवनिर्मिती किती अगाध आहे पहा..!  या विचारांनी त्या निसर्गदेवतेपुढे मी नतमस्तक झाले.

मध्यंतरी माझ्या वाचनात आलं की, अपंगांसाठी ज्यांनी आपलं संपूर्ण जीवन वाहून घेतलं त्या कोल्हापूरच्या नसीमा हुरजुक दिदींचे डॉ. पी. जी. कुलकर्णी म्हणतात “मी दिदींना,आता हे काम तुमच्या तब्येतीला त्रास देतंय, तर तुम्ही विश्रांती घ्या ,शांत रहा”. असं म्हटल्यावर दिदी एकदम म्हणाल्या “तुम्ही माझ्या विश्रांतीचा, शांतीचा विचार करु नका. माझी अशांतता मला नवीन काम करायला प्रवृत्त करते. माझ्या माघारी काय होईल असा विचार करत बसले तर या जगात नवं काही स्थापनच होणार नाही. प्रत्येकाच्या माघारी हे जग चालतंच ! मी हे सारं करणारच ! आपल्या देशात लाखो  अपंग दुर्लक्षिले जात असताना तुम्ही मला शांत रहाण्याचा सल्ला देताय?”

डॉ. म्हणतात, दिदींचा डॉक्टर म्हणून त्यांच्या मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्याचा विचार मी करत होतो.पण दिदींच्या बोलण्याने मला आज एका नव्या सत्याचा स्पर्श झाला होता.

काही माणसं स्वत:च्या जीवनाची आहुती देऊनच अगतिकांना ऊर्जा देत असतात.त्यांची अस्वस्थता ही नवनवीन ऊर्जा स्रोतांची केंद्रे असतात.ते करत असलेल्या नवनिर्मिती साठी लागणारा अग्नी ते स्वत:च्या त्यागातून प्रज्वलित करत असतात.

असे असीम कार्य करणाऱ्या आपल्या सर्वांच्या “नसीमा दिदींच्या ” असामान्य सेवेला जबरदस्त. सलाम !!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 11 ☆ अपने अपने खेमें ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की प्रस्तुति “अपने अपने खेमे ” ।उनकी यह बेबाक रचना आपको साहित्य जगत के कई पक्षों से रूबरू कराती है। साथ ही आपके समक्ष साहित्य जगत के सकारात्मक पक्ष को भी उजागर करती है जो किसी भी पीढ़ी के साहित्यकार को सकारात्मक रूप से साहित्य सेवा करते रहने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे निष्पक्ष आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी का अभिनंदन एवं आभार।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 11 ☆

 

☆ अपने अपने खेमे ☆

 

चार-पाँच वर्ष पहले एक आलेख पढ़ा था, अपने- अपने खेमों के बारे में… जिसे पढ़कर मैं अचंभित- अवाक् रह गई कि साहित्य भी अब राजनीति से अछूता नहीं रहा। यह रोग सुरसा के मुख की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है… थमने का नाम ही नहीं लेता। लगता है यह सुनामी की भांति सब कुछ निगल जाएगा। हाँ! दीमक की भांति इसने साहित्य की जड़े तो खोखली कर दी हैं, रही-सही कसर व्हाट्स ऐप व फेसबुक आदि ने पूरी कर दी है। हाँ! मीडिया का भी इसमें कम योगदान नहीं है। वह तो चौथा स्तंभ है न, अलौकिक शक्ति से भरपूर, जो पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है और फर्श से आकाश पर पहुँचा सकता है.. जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आप सबके समक्ष है।

हाँ! चलो, हम बात करते हैं — देश की एक प्रसिद्ध पत्रिका की, जिसमें साहित्य के विभिन्न खेमों का परिचय दिया गया था…विशेष रूप से चार खेमों के ख्याति-प्राप्त, दबंग संचालकों के आचार व्यवहार, दबदबे व कारस्तानियों को भी उजागर किया गया था, जिसका सार था ‘आपको किसी न किसी खेमे के तथाकथित गुरू की शरणागति अवश्य स्वीकारनी होगी, अन्यथा आपका लेखन कितना भी अच्छा, सुंदर, सटीक, सार्थक, मनोरंजक व समाजोपयोगी हो, आपको मान्यता कदापि नहीं प्राप्त हो सकेगी। इतना ही नहीं, उसका यथोचित मूल्यांकन भी सर्वथा असम्भव है।

इसके लिये आवश्यकता है… साष्टांग दण्डवत् प्रणाम व नतमस्तक होने की, सम्पूर्ण समर्पण की..तन-मन-धन से उनकी सेवा करने की तत्परता दिखलाने की, यह इसमें प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। दूसरे शब्दों में यह है, सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की, सफलता पाने की एकमात्र कुंजी..आप सब इस तथ्य से तो अवगत हैं कि ‘जैसा बोओगे,वैसा काटोगे’ अर्थात् उनकी करुणा, कृपा व निकटता पाने के लिए आपको संबंधों की गरिमा को त्याग, मर्यादा को दरक़िनार कर, आत्म-सम्मान को दाँव पर लगाना होगा, तभी आप उनके कृपा-पात्र बनने में सक्षम हो पायेंगे। इस उपलब्धि के पश्चात् एक पुस्तक के प्रकाशित होने पर भी आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो सकते हैं क्योंकि इस संदर्भ में पुस्तक-प्रकाशन की अहम् भूमिका नहीं होती। आपको प्रिंट मीडिया में अच्छी कवरेज मिलेगी तथा विभिन्न काव्य गोष्ठियों व विचार गोष्ठियों में आपको सुना व सराहा जाएगा। आपकी चर्चा समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में ही नहीं होगी, टी•वी•और दूरदर्शन भी आप की राह में पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहेंगे। देश-प्रदेश में आपका गुणगान होगा।

इतना ही नहीं, आप पर एम•फिल• व पीएच•डी• करने वालों की लाइन लगी रहेगी। देश के सर्वोच्च सम्मान आपकी झोली में स्वत: आन पड़ेंगे। हाँ! आपको पी•एच•डी• ही नहीं, डी•लिट• तक की मानद उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। आपकी कृति पर टेलीफिल्म आदि बनना तो सामान्य-सी बात है, बड़े-बड़े संस्थानों के संयोजक व सरकारी नुमाइंदे आप पर संगोष्ठियां करवा कर, स्वयं को धन्य समझेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि वे लोग अपने आला साहित्यकारों को प्रसन्न करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते।

इन विषम परिस्थितियों में आप भी मंचासीन होकर विद्वत्तजनों को धूल चटा कर, सातवें आसमान पर होते हैं और फूले नहीं समाते। आप सिद्ध कर देते हैं कि प्रतिभा साम, दाम,  दंड, भेद के सामने पानी भरती है, उनकी दासी है। बस! दरक़ार है…आत्मसम्मान को खूँटी पर टाँग, दूसरों के बारे में कसीदे गढ़ने की, अपने अहं को मार, ज़िंदा दफ़न करने की, उनकी अंगुलियों पर कठपुतली की भांति नाचने की, उनके संकेत-मात्र पर उनकी इच्छानुसार कुछ भी कर गुज़रने की, उनके कदमों में बिछ जाने की, उनके हर आदेश को शिरोधार्य करने की….यदि आप इनमें से चंद योग्यताएं भी रखते हैं, तो आप रातों-रात महान् बन जाते हैं और आप की तूती दसों दिशाओं में मूर्धन्य स्वर में गूँजने लगती है।

अपने-अपने खेमों के संयोजक, संचालक व सूत्रधार आप से वफ़ादारी की अपेक्षा रखते हैं और उनके शिष्य एक-दूसरे पर नज़र भी रखते हैं कि अमुक प्राणी कहीं, किसी दूसरे खेमें के बाशिंदों से मिलता तो नहीं? वह कहाँ जाता है, क्या करता है, उनके प्रति वफ़ादार है या नहीं?

यह समाज का कटु यथार्थ है कि हर बेईमान व्यक्ति वफ़ादार सेवक चाहता है, जो दिन-रात उसके आस-पास मंडराता रहे, उसकी चरण-वंदना करे, उसकी कीर्ति व यश को दसों दिशाओं में प्रसारित करे। जैसे मलय वायु का झोंका समस्त दूषित वातावरण को आंदोलित कर सुवासित कर देता है।

विभिन्न कार्यक्रमों में भीड़ जुटाना, वाहवाही करना, वन्स मोर के नारे लगाना….यह तो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। इतना ही नहीं उसके घर का पूरा दारोमदार, तथाकथित शिष्य-अनुयायी के कंधों पर रहता है। पत्नी से लेकर बच्चों की हर इच्छा को तरज़ीह देना, पत्नी से लेकर बच्चों को पिकनिक पर ले जाना, उस घर का पूरा साज़ो-सामान जुटाना, उन्हें सिनेमा दिखलाना आदि उनका नैतिक दायित्व समझा जाता है। यदि वह बाशिंदा बिना परिश्रम के, पूर्ण निष्ठा से वह सब पा लेता है, तो उसे आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता।

चलिए! इन ख़ेमों की कारगुज़ारियों से तो आप अवगत हो ही गए हैं, अब पुरस्कारों के बारे में विवेचन-विश्लेषण कर लेते हैं। बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठान व सरकारी संस्थानों में तो फिफ्टी-फिफ्टी की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। यदि आप इस समझौते के लिए तैयार हैं, तो सम्मान आपके आँचल में आश्रय पाने को बेक़रार मिलेगा।

वैसे भी इसका एक और उम्दा विकल्प है…आप नई संस्था बनाइए, हज़ारों साहित्यकार मधुमक्खियों की भांति आसपास मंडराने लगेंगे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर संस्थापक बंधु आजकल सम्मान-राशि व आयोजन के खर्च से भी कहीं अधिक बटोर लेते हैं। आजकल उनका यह गोरख-धंधा पूरे यौवन पर है…फल-फूल रहा है। संस्थापक होने के नाते वे हर कार्यक्रम में केवल आमंत्रित ही नहीं किये जाते, मंचासीन भी रहते हैं। बड़े-बड़े साहित्यकार अनुनय-विनय कर प्रार्थना करते देखे जाते हैं कि वे अपनी संस्था के बैनर तले, उनकी पुस्तक का विमोचन करवा दें या उन्हें किसी संगोष्ठी में भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करें। चलिए यह भी आधुनिक ढंग है… साहित्य-सेवा का।

मुझे इस तथ्य को उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज भी राष्ट्रीय सम्मान इससे अछूते हैं, जिनमें राष्ट्रपति सम्मान शीर्ष स्थान पर हैं। वास्तव में यह आपकी साहित्य-साधना, कर्मशीलता व विद्वत्ता का वास्तविक मूल्यांकन है। यह अँधेरी रात में घने काले बादलों में, बिजली की कौंध की मानिंद है। जब आपको सहसा यह सूचना मिलती है, तो आप चौंक जाते हैं… विश्वास नहीं कर पाते और कह उठते हैं, ऐसा कैसे संभव है? और इसे क़ुदरत का करिश्मा बतलाते हैं।

आजकल अक्सर सम्मानों के लिए आवेदन करना होता है। हाँ! राज्य-स्तरीय व राष्ट्रीय पुरस्कारों के अंतर्गत कई बार किसी संस्था का अध्यक्ष या शीर्ष कोटि का साहित्यकार आपके नाम की संस्तुति कर देता है, जिससे आप बेखबर होते हैं…वास्तव में यह पुरस्कार आपके जीवन की सच्ची धरोहर के रूप में सुक़ून देते हैं।

हां! इसके एक पक्ष पर प्रकाश डालना अभी भी शेष है कि इन सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में अफसरशाही या राजनीति या कोई योगदान है या नहीं?

मैं अपने अनुभव से नि:संकोच कह सकती हूं कि यदि आप निष्काम भाव से, तल्लीनता-पूर्वक, पूर्ण समर्पण भाव से अपने दायित्व का वहन करते हैं तो आप स्वतंत्र होते हैं, हर निर्णय स्वेच्छा से ले सकते हैं और निरंकुश होकर अपना कार्य कर सकते हैं। हां! इसके लिये अपेक्षा रहती है… प्रबल इच्छाशक्ति की, सकारात्मक सोच की, पूर्ण समर्पण की, कर्तव्यनिष्ठता की। यदि आप निस्वार्थ व निष्काम कर्म करने का माद्दा रखते हैं, तो आप हर विषम परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हैं। आपको कोई भी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता, यदि आप स्वार्थ का त्याग कर, संघर्षशील बने रहते हैं तो आपको उसका अप्रत्याशित फल अवश्य प्राप्त होगा क्योंकि परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। हाँ आवश्यकता है…यदि हमारे कदम धरती पर और नज़रें आकाश की ओर स्थिर रहती हैं और हम अपनों से, अपनी जड़ों से सदैव जुड़े  रहते हैं, तो हम हर प्रकार की आबोहवा में पनप सकेंगे…हमें अपने लक्ष्य से कोई डिगा नहीं सकता। विपरीत हवाएं व आंधी-तूफ़ान भी हमारा रास्ता नहीं रोक पाएंगे और न ही खेमों के मालिक हमें नतमस्तक होने को विवश कर पाएंगे।

समय के साथ परिवर्तित होती है सत्ता, बदलते हैं अहसास व जज़्बात और कायम रहता है विश्वास,तो आप निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहते हैं क्योंकि आत्मविश्वास संतोष व संतुष्टि का संवाहक होता है और इसकी रीढ़ व धुरी होता है। इसके साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ …इसी आशा के साथ कि हमारे साहस, उत्साह, धैर्य व आत्म- विश्वास के सम्मुख विसंगतियां व विषम परिस्थितियां स्वतः ध्वस्त हो जाएंगी, अस्तित्वहीन हो जायेंगी और सब को विकास के समान अवसर प्राप्त होंगे।

इसी आशा और विश्वास के साथ…उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न संजोए…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 9 ☆ उलझन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “उलझन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 9 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ उलझन 

 

“मैं कई दिनों से बड़ी उलझन में हूँ।  सोच रहा हूँ क्या करूँ  क्या न हूँ। आज न चाहते हुए भी आपसे कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि आप माँ जैसी है आप समझोगी और रास्ता भी बताओगी।”

“क्या हुआ है तुझे, निःसंकोच बता, मैं हूँ तेरे साथ!”

“आप तो जानती हैं कि हमारी शादी को 15 वर्ष हो चुके है हमें संतान नहीं है और हमारी बीबी को कोई गंभीर बीमारी है सन्डे के दिन ये सास बहू की जाने क्या खिचड़ी पकती है और मेरा घर में रहना दूभर हो जाता है।”

“क्या करती हैं वे?”

“क्या करूं, बीबी कहती है तुम्हारी प्रोफाइल शादी डॉट कॉम में डाल दी है मैं चाहती हूँ फोन आयेंगे तो तुम लड़की सिलेक्ट कर लो और हमारे रहते शादी कर लो और माँ  का भी यही कहना है।”

“तो, तुमने क्या कहा?”

“हमने कहा यह नहीं हो सकता।  भला तुम्हारे रहते ऐसा कैसे कर सकते हैं,  तुम पागल तो नहीं हो गई हो?”

“फिर?”

“फिर क्या, वह कहती है, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती मैं तलाक दे दूंगी सामने वाले अपने दूसरे घर में रह जाऊँगी पर मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ तुम्हारे बच्चे को खिलाना चाहती हूं।”

 

“उसका कहना भी सही है।”

“पर मासी, यह समझ नहीं रही मेरे मन की हालत, इसके रहते मैं कैसे यह कदम उठा सकता हूं।”

“मेरी मानो तो एक ही सामाधान है इसका!”

“क्या?”

“मातृछाया से एक नवजात शिशु गोद ले लो!”

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प अकरावे # 11 ☆ शेतकरी आत्महत्या का करतो? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  किसान आत्महत्या क्यों करते हैं? इस विषय पर एक शोधपूर्ण आलेख “शेतकरी आत्महत्या का करतो?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प  अकरावे # 11 ☆

 

☆ शेतकरी आत्महत्या का करतो? ☆

 

पावसावर अवलंबून  असणारी भारतातली शेती. भारतीय  अर्थ व्यवस्थेचा मूलाधार.  आणि हा  आधार भक्कम ठेवणारा शेतकरी म्हणजेच बळीराजा उत्पादन खर्च  आणि शेती उत्पादनाला योग्य प्रमाणात न मिळालेला बाजार भाव यामुळे  अत्यंत  अडचणीत आला आहे. नवीन पिढीला तंत्रज्ञान क्षेत्राचे आकर्षण  असल्याने या व्यवसायात नवी पिढीचे प्रमाण कमी झाले आहे.  येत्या काही वर्षांत शेती उत्पादन ही समस्या गंभीर स्वरूप धारण करू शकते.  पिकवलेच नाही तर खाणार काय? हा प्रश्न  ऐरणीवर आला आहे. शेतकरी अनेक कारणांमुळे  आत्महत्या करीत आहे.

शेतकरी  आत्महत्या करतात याचे मुख्य कारण म्हणजे सहज सुलभ मार्गाने येणारा पैसा बंद झाला की कींवा कर्जबाजारी पणा वाढला की स्वार्थी,  आणि आत्मकेंद्रीत व्यक्ती  आत्महत्या करताना दिसतात.  संयम, चिकाटी, धैर्य, सातत्य आणि सहनशीलता या गुणांच्या  अभावाने शेतकरी माणूस लवकर खचतो. मनुष्य जोवर  इतरांना दोषी ठरवून जगत असतो तोपर्यंत तो अनेक प्रसंगाना तोंड देत जीवन संघर्ष करू शकतो. पण स्वतःच्या चुका मान्य करण्याची वेळ आली तो हातपाय गाळून निष्क्रिय होऊन स्वतःहून परीस्थिती नियंत्रणाबाहेर नेतो आणि आत्महत्येचा पर्याय स्विकारतो.

शेतकऱ्याला  आत्महत्या का करावी वाटते या प्रकरणी सरकार त्याच्या परीने प्रयत्न करेलच. पण मला वाटते कौटुंबिक पातळीवर प्रत्येक घराघरातून हा विषय चर्चेला आला पाहिजे. या समस्येवर समाजप्रबोधन होणे गरजेचे आहे.  संयम, चिकाटी, दुर्दम्य आशावाद, यांनी मोठमोठय़ा संकटांवर मात केली आहे.  आत्महत्या होऊ नये म्हणून कुटुंबात संवाद साधला जाण  अत्यंत गरजेचे आहे.

शेती प्रधान उद्योग धंद्यात सुजलाम सुफलाम  असणाऱ्या या भारत देशातील शेतकऱ्याला  आपण बळीराजा म्हणून मानाचे स्थान दिले आहे.  असे असताना देखील त्याच्या गळी गळफास येतो आहे ही बाब चिंताजनक आहे.  जोडधंदा,  आणि शेती पुरक व्यवसाय यामध्ये शासनाने दिलेल्या सोयी सुविधांचा वापर करून उदरनिर्वाह करीत रहाणे हा  पर्याय  आत्महत्येस बगल देऊ शकतो.  गोपालन,कुक्कुट पालन, मधुमक्षिका पालन, यासारखे शेती पुरक व्यवसाय ग्रामीण भागात कार्यरत ठेवणे आवश्यक झाले आहे.

आपण स्वतःसाठी,  कुटुंबासाठी आणि  समाजासाठी  आपली दायित्व पूर्ण करीत जगायचे आहे.  आपण  एकटे नाही.  आपल्यावर अनेकांची जबाबदारी आहे ती नाकारून चालणार नाही हा विश्वास  अशा माणसांमधे  उत्पन्न झाला तर  आत्महत्या कमी होतील.  स्वतःला संपवणे हा  उपाय नसून गंभीर गुन्हा आहे ही जाणीव शेतकरी वर्गाला करून देणे  हे समाज प्रबोधन गरजेचे झाले आहे.

समाज पारावरून या विषयावर चर्चा करताना लहान तोंडी मोठा घास घेतला  असेन कदाचित पण माणूस म्हणून जगताना  आपल्याला पोसणारा शेतात  अन्न धान्य पिकवणारा हा बळी राजा हकनाक बळी जाऊ नये  असे मनापासून वाटते. आत्महत्या थांबतील तरच विकसन आणि प्रगतीची दारे आपल्या साठी खुली होतील. संवाद  आणि विचार  अत्यंत गरजेचा आहे.  जय हिंद.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

Please share your Post !

Shares

Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 3 – Celestial Ganga☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Celestial Ganga”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 3

 

☆ Celestial Ganga ☆

 

Oh what a beauty!

Thought Shantanu, as he at Ganga glanced

Fell in love in first glimpse

And for her hands for marriage, he asked.

 

By Shantanu’s father already blessed

Ganga had nothing to fear

“Oh yes!” she smiled and replied,

“Provided you never question me dear!”

 

The king’s lawful queen she became

And soon, her first son was born

As he witnessed her go and drown him

Between his love and promise was Shantanu torn

 

Child after child thrown in river

King Shantanu felt that he had had a lot

When to drown the eighth child Ganga went

He felt that he could thus continue to suffer not

 

“O pretty queen, do stop your ghastly acts;

Pray leave this child,” he muttered

“Your promise is broken oh dear King!

I shall leave you now!” she uttered.

 

“The children killed by me were none

But Gods known as Vasus who were cursed

Seven of them could forsake life and misery

Though the eighth shall have to be nursed.”

 

Saying so, Ganga quickly disappeared

With Devratta safely cushioned under her arms

To be raised and trained as perfect warrior

Under the patronage of Parshurama!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ♥ कम्प्यूटर पीडित ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कम्प्यूटर पीडित”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ☆ 

 

♥ कम्प्यूटर पीडित ♥

हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।

कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है – दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।

कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें  “सिंगल विंडो प्रणाली” बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को ओबलाइज कैसे करेगा? हुये ना बड़े बाबू कम्प्यूटर पीड़ित।

दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहाँ तो “एंटर” का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।

वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीड़ा भर नहीं देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूँ । जो पहली नौकरी मिली, आज तक उसी में लगा हुआ हूँ यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता “नौकरी डॉट कॉम” की मदद से, पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीड़ित युवाओं की तरह नहीं कि सगाई के समय किसी कंपनी में, शादी के समय किसी और में, एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में, ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही-सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूँ, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते-उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।

आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी, फिर बीटिंग करते हुए तलाक।

हॉं, हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीड़ाओं की चर्चा कर रहे थे, अब तो ”पेन ड्राइव” का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अर्थात कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, “सेलरॉन” से “पी-5” के कम्प्यूटर बदलते-बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर, डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदेशों के चलते मेरी कम्प्यूटर पीड़ित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहाँ इंटरनेट पर सब कुछ खुला-खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11 ☆ न्याय ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “न्याय ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11☆

 

☆ न्याय ☆

 

“तेरे पिता ने कहा था कि मेरे जीते जी बराबर बंटवारा कर ले तब तू ने कहा था ,’ नहीं बाबूजी ! अभी काहे की जल्दी है ?’ अब उन के मरते ही तू चाहता है की बंटवारा हो जाए ?” माँ ने पूछा तो रवि ने जवाब दिया ,” माँ ! उस समय मोहन खेत पर काम करता था.”

“और अब ?”

“उसे पिताजी की जगह नौकरी मिल गई . इसलिए बंटवारा होना ज्यादा जरुरी है ?”

“ठीक है ,” कहते हुए माँ ने मोहन को बुला लिया ,” आज बंटवारा कर लेते है.”

“जैसी आप की मर्जी माँ ?” मोहन ने कहा और वही बैठ गया .

“इस मकान के दो कमरे तेरे और दो कमरे इसके. ठीक है ?”

दोनों ने गर्दन हिला दी.

“अब  खेत का बंटवारा कर देती हूँ,” माँ ने कहा,” चूँकि मोहन को पिता की जगह  नौकरी मिली है, इसलिए पूरा पांच बीघा खेत रवि को देती हूँ.”

“यह तो अन्याय है मांजी ,” अचानक मोहन की पत्नि के मुंह से निकल, ” इन्हों ने मेहनत कर के पढाई की और इस लायक बने की नौकरी पा सके. इस की तुलना खेत से नहीं हो सकती है. यदि रवि जी पढ़ते तो ये नौकरी इन को मिलती.”

“मगर बहु ,यह तो एक माँ का न्याय है जो तुझे भी मानना पड़ेगा”, सास ने कहा .

इधर मोहन कभी माँ को, कभी रवि को और कभी अपनी पत्नी को निहार रहा था .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 11 – मित्रा…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मेरे विचार से हम मित्रता दिवस वर्ष में एक बार मनाते हैं किन्तु,  मित्रता वर्ष भर ही नहीं आजीवन निभाते हैं। श्री सुजित जी की यह कविता इतनी संवेदनशील और भावुक है कि पढ़ते हुए मित्रों के मिलन का सजीव चित्र नेत्रों के समक्ष अपने आप आ जाता है और नेत्र नम हो जाते हैं।  मुझे अनायास ही मेरी निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा –

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता।

निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “मित्रा…!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #11 ☆ 

 

☆ मित्रा…! ☆ 

 

आज ब-याच वर्षानंतर तो घरी आला

दारावरची बेल वाजवली .

आणि बघता क्षणी आम्ही एकमेकांना

कडकडून मिठी मारली .

अगदी श्रीकृष्ण सुदाम्या सारखी

दोघांच्याही डोळ्यांत .. . .

शाळा सोडताना दाटून आलेलं पाणी

आज पुन्हा एकदा दाटून आलं.

आणि..आमच्या भेटीनं

आज माझ घर सुध्दा हळव झालं.

बालपणीच्या सा-याच आठवणीं

डोक्यात भोव-या सारख्या फिरू लागल्या.

अन् वयाच अंतर पुसून ,

चिंचेखाली धावू लागल्या.

शाळेत जाताना दोघांत मिळून

आमची एक पिशवी ठरलेली

अन् पिशवी मधली अर्धी भाकर

रोज दोघांत मिळून खाल्लेली..

मी जिंकाव.. म्हणून तो

कितीदा माझ्यासाठी हरलेला. . . . !

त्याच्यासाठी मी कितीदा

मी बेदम मार खाल्लेला.. . . !

त्याच्या इतका जवळचा मित्र

मला आजपर्यंत कुणीच भेटलाच नाही.

गाव सोडून आल्यापासून

आमची भेट काही झालीच नाही…..!

बराच वेळ एकमेकांशी

आमचं बरंच काही बोलणं झालेलं

तो निघतो म्हणताना त्याच्या डोळ्यांत

एकाएकी आसवांच गाव उभं राहिलेलं

तो म्हंटला..,

माय गेली परवा दिवशी .. . .

तेव्हापासून एकट एकट वाटत होतं

मनमोकळ रडायला कोणी

आपलं असं मिळत नव्हतं..

शाळेत असताना बाप गेला

तेव्हाही मित्रा

तुझ्यापाशीच रडलो होतो..!

खरंच सांगतो मित्रा

माय गेली तेव्हापासून

तुझाच पत्ता शोधत होतो..

मित्रा..,तुझ्या

खांद्यावरती डोकं ठेऊन

मला एकदा मनमोकळं रडू दे

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

© सुजित कदम

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 9 – कौन दूध इतना बरसाता है? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “कौन दूध इतना बरसाता है?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कौन दूध इतना बरसाता है? ☆  

 

सौ घर की बस्ती में

कुल चालीस गाय-भैंस

फिर इतना दूध कहाँ से

नित आ जाता है।

 

चार, पांच सौ के ही

लगभग आबादी है

प्रायः सब लोग

चाय पीने के आदि है

है सजी मिठाईयों से

दस-ग्यारह होटलें

वर्ष भर ही, पर्वोत्सव

घर,-घर में, शादी है।

नहीं, कहीं दूध की कमी

कभी भी पड़ती है,

सोचता हूँ, कौन

दूध इतना, बरसाता है

सौ घर की………….।

 

शहरों में सजी हुई

अनगिन दुकाने हैं

दूधिया मिष्ठान्नों की

कौन सी खदाने हैं

रंगबिरंगे रोशन

चमकदार आकर्षण

विष का सेवन करते

जाने-अनजाने हैं।

जाँचने-परखने को

कौन, कहाँ पैमाने

मिश्रित रसायनों से

जुड़ा हुआ, नाता है

सौ घर की……….।

 

नए-नए रोगों पर

नई-नई खोज है

शैशव पर भी,अभिनव

औषधि प्रयोग है

अपमिश्रण के युग में

शुद्धता रही कहाँ

विविध तनावों में

अवसादग्रस्त लोग हैं।

मॉलों बाजारों में

सुख-शांति ढूंढते

दर्शनीय हाट,

ठाट-बाट यूँ दिखाता है

सौ घर की बस्ती में….।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 11 – मुक्त ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  बेबाक  कविता मुक्त संवेदनशील होकर मात्र कुछ शब्दों को  छंदों बंधों में जोड़कर, उनकी तुकबंदी कर अथवा अतुकान्त गद्य में स्वांतः सुखाय कविता की रचना कर क्या वास्तव में सार्थक कविता की रचना हो सकती है? यह वाद का विषय हो सकता है।  मैं निःशब्द हूँ। सुश्री प्रभा जी द्वारा तथाकथित साहसी अभिनेत्री एवं  कवियित्री के संदर्भ से कविता के सांकेतिक जन्म का साहसी प्रयास पूर्णतः सार्थक रहा है। यह एक शाश्वत सत्य है कि – जिन कलाकारों और साहित्यकारों ने सामाजिक बंधनों को तोड़कर मुक्त अभिव्यक्ति का साहस किया है, उन्होने इतिहास ही रचा है। इस संदर्भ में मुझे प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन जी का वक्तव्य याद आ रहा है जिसमें उन्होने कहा था  कि  – “कोई भी कलाकार या साहित्यकार अपनी कला अथवा साहित्यिक अभिव्यक्ति का दस प्रतिशत ही अभिव्यक्त कर पाता हैं, शेष नब्बे प्रतिशत उनके साथ ही  दफन हो जाती है। इस बेबाक कालजयी रचना के लिए सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।  

आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 11 ☆

 

☆ मुक्त ☆

 

तो म्हणाला,

“मला नाही  आवडत कविता बिविता,शेरो शायरी…..”

 

ती नाही हिरमुसली,

तिनं बंद केला,मनाचा तो कप्पा!

ठरवलं मनाशी,

नाही लिहायची कविता  इथून पुढे…..

 

फक्त संसार  एके संसार……

भांडी कुंडी चा खेळ ही….

खेळलोय ना लहानपणी…..

बाहुला बाहुली चं लग्न ही लावलंय….

 

लग्न हेच  इतिकर्तव्य हेच बिंबवलं

गेलं लहानपणापासून…

 

मग ती “नाच गं घुमा” चा खेळ

खेळत राहिली…

पण नाही रमली.

कधीतरी वाचलं, विकत घेऊन,

मल्लिका अमर शेख चं,

“मला  उध्वस्त व्हायचंय”

 

दीपा साही चा,

*माया मेमसाब*

ही पाहून आली…

 

उमजला बाईपणाचा अर्थ…

आणि तिची सनातन दुःखंही…

 

तिच्या गर्भात गुदमरून गेलेली कविता  अचानक बाहेर  आली..

फोडला तिने टाहो….

स्वतःच्या  अस्तित्वाचा…

 

तेव्हा पासून,

ती होतेय व्यक्त…

 

अवती भवती च्या पसा-यातून…

केव्हा च झालीय मुक्त…..

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

Please share your Post !

Shares
image_print