हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 23 ☆ कविता ☆ सागर की गहराई ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता सागर की गहराई । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 23  साहित्य निकुंज ☆

☆ सागर की गहराई

 

कौन जान सका

है सागर की गहराई

कौन समझ सका

सागर के उतार चढ़ाव को।

कितना चाहा

सागर को कसना।

पर न हो सका संभव

उठती है जब तरंगे

मचलता है सागर

आता है उफान

बांहे फैलाता है सागर

समेटने के लिए

संभव नहीं लम्हों को रोकना

बेबस सी मै देखती हूं

इन लम्हों लम्हों को

उफनते सागर को

छलकते गागर को ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प बावीस # 22 ☆ साहित्य संवर्धनात मोबाईलचे योगदान ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक भावप्रवण कविता  “सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प बावीस # 22 ☆

☆ साहित्य संवर्धनात मोबाईलचे योगदान ☆

 

सद्य परिस्थितीत माणूस माणसापासून मनाने दुरावत चालला आहे. त्याला  औपचारिक रित्या जोडून ठेवण्याचे महत्वाचे कार्य मोबाईल करतो आहे.  जे प्रत्यक्ष भेटीत बोलता येत नाही ते काम सामंजस्यानं ज्ञानवर्धक ससंदेशवहनातून मोबाईल सातत्याने करीत आहे. मदतीचा हात म्हणून  मोलाची भूमिका  मोबाईल पार पाडीतआहे .  दैनंदिन लेखन कला व्यासंग जोपासताना नोकरी,  व्यवसाय, सर्व  जबाबदाऱ्या पार पडतांना अनेक प्रकारे  विविध माध्यमातून हा मोबाइल गुरू, मित्र, प्रचारक,  प्रसारक  या भूमिकेतून मोबाईल व्यासंग वाढविण्यात  उपयोगी ठरतो.

नित्य लेखन करणारे  मोबाईल द्वारे  समाजात आपले साहित्य प्रसारित करीत आहेत.   मोबाईल, व्हाट्सएप, फेसबुक आणि सोशल मिडिया तंत्रज्ञानाचा वापर करून स्वतःला सिद्ध करीत आहे.

इतरांचे विविध विचार मत प्रवाह संग्रहीत करून त्यातून  कलाव्यासंग जोपासण्याची  आणि  आवश्यक ते  ज्ञान मिळवण्याची सेवा संधी मोबाईल मुळे मिळाली आहे.

साहित्यिक  ग्रुपची  महत्वपूर्ण  वैचारीक देवाण घेवाण  आणि लेखन प्रगती, कवितेचा प्रचार  आणि प्रसार करण्यात  मोबाईल ने उच्चांक गाठला आहे.  साहित्यिकांना आवश्यकता आहे.

सोशल नेटवर्किंग साईट वर सर्व साहित्यिकांच्या मुलाखती,  विविध  नवे जुने काव्य प्रकार  मोबाईल मधून वाचायला, लिहायला मिळतात.   त्यातून रसिक वाचक, साहित्यिक यांचे  अतूट स्नेहबंधन निर्माण होते.

अनेक स्पर्धा,  उपक्रम  यात सहभागी होण्याचे भाग्य केवळ मोबाईल मुळे मिळते.  कलावंतांचे कलागुण व अंगी असलेल्या साहित्य गुणांना,  त्यांच्या विचारांना नाव, गाव, वाव  आणि भाव देण्याचे महत्त्व पूर्ण कार्य मोबाईल करत आहे.

लेखन करायचे  म्हटले की अनेक गोष्टी जुळून याव्या लागतात. पण मोबाईल मुळे   फार काही विनासायास घडत आहे.  मोबाईल  अद्ययावत माहिती तंत्रज्ञानाचा आरसा आहे.  याच्यात डोकावणारे काळाचे भान विसरून जातात.  पण संयमाची कळ त्यांना हवे ते  मिळवण्याचा  अनुभव  आणि संधी  उपलब्ध करून देते. मोबाईल  खळाळणारी नदी. मोबाईल घनगर्द  अंबराई. मोबाईल  एक नयनमनोहर शब्द चित्र, रेखाचित्र,  भावदर्पण आणि बरेच काही. . . . !

समाज पारावरून मोबाईल हा विषय आता केवळ टिकेचे लक्ष्य नसून  साहित्य संवर्धन करणारे प्रभावी माध्यम ठरला आहे.

असा हा जिव्हाळ्याचा विषय  अतिरेक केला तर व्यसन  आणि प्रसंगी शापही ठरू शकतो. हा धोका टाळायचा कसा हे देखिल मोबाईल च शिकवतो.  कुणाशी काय, कधी, कसे किती बोलायचे  याचे अनुभव प्रचुर धडे मोबाईल  क्षणोक्षणी देत रहातो. माणूस सुजाण करण्यात मोबाईल यशस्वी झाला आहे.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 13 ☆ चंगी जान,जहान है ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण  कविता  “चंगी जान,जहान है ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 13 ☆

☆ चंगी जान,जहान है  ☆

 

चंगी जान,जहान है ।

सेहत ही धनवान है ।।

 

मिलता किसको साथ यहाँ।

सोचो सभी अनाथ यहाँ।।

ईश्वर कृपा महान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

सबकी अपनी राह अलग।

भरी स्वार्थ से चाह अलग ।।

कहाँ बचा ईमान है ।।

चंगी जान,जहान है ।।

 

बातें केवल प्यार की ।

चाहत के इकरार की ।।

चढ़ती जो परवान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

सच से सब कतराते हैं।

जिन्दा झूठ पचाते हैं।।

कैसा अब इंसान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

मंज़िल सबकी एक यहाँ ।

राहें अपितु अनेक यहाँ ।।

तन की गति शमशान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

होगा स्वस्थ अगर तन-मन।

तब होगा “संतोष” भजन।।

जीवन कर्म प्रधान है ।

चंगी जान,जहान है

चंगी जान,जहान है ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 7 ☆ लघुकथा – गलत सवाल ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय  लघुकथा “गलत सवाल ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 7 ☆

☆ लघुकथा – गलत सवाल ? ☆ 

 

बेटी कंप्यूटर इंजीनियर। प्रतिष्ठित कॉलेज से बी.ई.। मल्टीनेशनल कंपनी में चार वर्ष से साफ्टवेअर इंजीनियर के पद पर कार्यरत। छह महीने के लिए ऑनसाइट ड्यूटी पर मलेशिया भी जा चुकी है। पैकेज सालाना आठ लाख। अपनी सुंदर, संस्कारी लड़की को इंजीनियर बनाने में आठ–दस लाख तो खर्च कर दिए होंगे माता-पिता ने ?

शादी की विभिन्न वेबसाइट पर उनकी लड़की के योग्य जो लड़का ठीक लगता तो वे उसके माता–पिता का फोन नं. लेकर बातचीत शुरू करते। लड़की के पिता के प्रश्न होते – “लड़के का पैकेज कितना है? आपका अपना मकान है या किराए पर रहते हैं? लड़के की शादी कैसी करेंगे आप?”

“मतलब …………… ?”

“मतलब साफ है साहब – 20 लाख, 25 लाख, कितना खर्च करेंगे आप अपने लड़के की शादी में? मेरी बेटी इंजीनियर है बहुत खर्च किया है मैंने उसकी पढाई-लिखाई पर” – लडकी के पिता ने विनम्रता से कहा।

“क्या …………….?” और झटके से लड़केवालों का फोन कट जाता। किसी एक ने गुस्से से कहा – “ये कैसे बेहूदे  सवाल कर रहे हैं आप? लड़कीवाले हैं ना? भूल गए क्या?”

लड़की के पिता सकते में, यही सवाल तो पिछले दो साल से हर लड़के के माता–पिता उनसे पूछ रहे थे, मैंने पूछा तो क्या गलत किया?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 1 ☆ गीत – अभिनन्दन है ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है। 

हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ राकेश जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। 

यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं उनका एक गीत   “अभिनन्दन है ”..)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 1 ☆

☆  अभिनंदन है  ☆ 

 

प्रीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वन्दन है,वंदन है,वन्दन है

 

जयति राष्ट्र गान हो

लय ललित विधान हो

प्रेम की प्रतीति का

मान, स्वाभिमान हो

 

मीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है, वंदन है, वंदन है

 

वीणा को तान दो

मधुरिम मुस्कान दो

पावन उजियारे को

नव नित पहचान दो

 

रीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है, वंदन है, वंदन है

 

नयनों में सागर हो

जीवन ये गागर हो

झरते ये झरनों का

नदियों सा जागर हो

 

कीर्ति भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है , वंदन है ,वंदन है

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 23 – पान हिरवे… ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता पान हिरवे…  )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #23☆ 

 

☆  पान हिरवे… ☆ 

 

पान हिरवे झाडाचे

वा-यासंगे गाते गाणे

शिवाराच्या त्या मातीला

भेटायाचे पान म्हणे. . . . !

 

जाते बोलून मनीचे

झाड  बिचारे  ऐकते

ऊन वा-याचे तडाखे

बळ झुंजायाचे देते. .. . !

 

स्वप्न पाहण्यात दंग

पान हिरवे झाडाचे

वयानूरुप सरले

गूढ गुपित पानाचे. . . . . !

 

हळदीच्या रंगामध्ये

पान हिरवे नाहते

सोन पिवळ्या रंगात

रूप त्याचे पालटते. . . . !

 

झाडालाही हुरहुर

पान पिवळे होताना

रंग हिरवा देठात

मातीमध्ये पडताना. . . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #24 ☆ आदत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “आदत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #24 ☆

 

☆ आदत ☆

 

दिल में उथलपुथल मची हुई थी. वह बोला, “क्या सोच रहा है ? काट डाल.”
दिमाग ने कहा, “नहीं नहीं! तू ऐसा नहीं कर सकता है?” मगर दिल कब मानने वाल था. वह बोला, “उस ने पहली बार मोटरसाइकल की आगे की लाइट पर लगा नाम खुरेद दिया था. इस से मोटरसाइकल का आगे का हिस्सा भद्दा हो गया था.”
“तो?”
“दूसरी बार उस ने नए सीट कवर को चाकू से काट दिया था. वह तो तूने देखा था.”
“हां” दिमाग ने कहा, “चाकू अभी वही बरामदे के एक कोने में पड़ा है.” उस ने ऊपरी मंजिल से नीचे रखी नई मोटरसाइकल की ओर झांका.
“रात का समय है. कोई देख नहीं रहा है. मोटर साइकल नई है. उसे अपनी हरकत का जवाब मिलना चाहिए,” दिल ने कहा, “नीचे चल और उसी चाकू से उस की मोटरसाइकल की नई सीट को काट डाल.”
दिमाग ने नानुकूर की. मगर दिल की बात मान कर शरीर नीचे बरामदे तक चला आया. हाथ ने चाकू पकड़ लिया. दिल ने जोर दिया, “इधर उधर देख. काट दे.”
मगर, दिमाग ने आदेश नहीं दिया, “यदि सुबह ‘वह’ चिल्लाया कि मोटरसाइकल की सीट किस ने काटी, तब?”
“कह देना, उसी भूत ने काटी है जिस ने मेरी मोटरसाइकल की सीट काटी थी,” यह कह कर दिल मुस्कराया. मगर, दिमाग अभी भी यह बात मानने को तैयार नहीं था.
“नहीं. मैं यह नहीं कर सकता हूं.” उस ने दिल से कहा.
“जैसे के साथ वैसा करना चाहिए ताकि वह दूसरे के साथ वह नहीं करें जो तेरे साथ किया है,” दिल ने कहा तो दिमाग बोला, “वह अपनी आदत नहीं छोड़ सकता है तो मैं अपनी आदत क्यों छोड़ दूं?” कह कर दिमाग ने हाथ को कोई आदेश नहीं दिया.
दूसरे ही पल चाकू नई मोटरसाइकल की सीट पर पड़ा था और पैर शरीर को लिए हुए प्रथम मंजिल की ओर चल दिए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 24 – उत्तरायण ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “उत्तरायण.  जीवन के उत्तरार्ध  में रुक कर भी भला कोई कैसे अपने जीवन पर उपन्यास लिख सकता है।  सुश्री प्रभा जी की कविता जीवन के उत्तरायण में  सहज ही पाप-पुण्य, काल के सर्प  के दंश और भी जीवन के कई भयावह पन्नों से रूबरू कराती है।  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 24 ☆

☆ उत्तरायण ☆ 

 

माहीत नाही यापुढचं

आयुष्य कसं असेल?

वय उतरणीला लागल्यावर

आठवतात

तारुण्यातले अवघड घाट

वळण-वळसे…

स्वप्नवत्‌ फुलपंखी

अभिमंत्रित वाटा…

 

ठरवून थोडीच लिहिता येते

आयुष्याची कादंबरी?

काय चूक आणि काय बरोबर

हेही कळेनासं होतं

काळाच्या निबिड अरण्यातले सर्प

भिववतात मनाला

कुठल्या पाप-पुण्याचा

हिशेब मागेल काळ

मनात फुलू पाहताहेत

आजही कमळकळ्या

त्या उमलू द्यायच्या की

करायचं पुन्हा परत

भ्रूणहत्येचं पाप?

की निरीच्छ होऊन

उतरायचं नर्मदामैय्येत

मगरमत्स्यांचं भक्ष्य होण्यासाठी ?

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 21– ये चेहरे सब दूध धुले हैं…. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  मन  से  एक कविता   “ये चेहरे सब दूध धुले हैं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 22☆

☆ ये चेहरे सब दूध धुले हैं….☆  

 

इन्हें कुर्सियों पर बैठाओ

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

ये नैतिकता के चारण हैं

कान लगाकर ध्यान लगाओ

कहे रात को दिन, तो दिन है

दिन को कहे रात, सो जाओ।

है बेदागी ये वैरागी

त्यागी, तपसी शहद घुले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

दिवस-रैन, बेचैन-व्यथित

नृपवंशज राजकुमार दुलारे

देशप्रेम, जन-जन के खातिर

भटक रहे दर-दर बेचारे।

कुनबों सहित समर्पित,अपने

अपनों के करतब भूले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

कोई भी हद पार करेंगे

बस यह आसन्दी है पाना

लक्ष्य एक,अवरोधक है जो

कैसे भी है उसे हराना।

दलदलीय क्रन्दनवन में

मिल,झूल रहे सावन झूले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

उधर कहे वे, मेरी सल्तनत

यहाँ, नहीं कोई आएगा

पूछ-परख की नहीं इजाजत

सही वही, जो मन भायेगा।

क्रय-विक्रय, सौदेबाजी

गठबंधन के बाजार खुले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

इधर सभी हैं आत्ममुग्ध

सत्ता के मद में, हैं बौराये

दर्प भरे से, भ्रमित उचारे

बिन सोचे जो मन में आये।

राष्ट्रप्रेम ज्यूँ निजी धरोहर

जतलाकर, मन में फूले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

अदल-बदल के खेल चल रहे

बेशर्मी के ओढ़ मुखौटे

कठपुतली से नाच रहे हैं

खूब चल रहे सिक्के खोटे।

इधर रहे बेभाव अन्तुले

उधर गए तो स्वर्ण तुले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 4 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 4 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

हिन्दू अहिंसक है मुसलमान हिंसक है। इस प्रश्न का उत्तर महात्मा गांधी देते हुए हिन्द स्वराज में लिखते हैं कि हिन्दू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसक का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरण वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।

लेकिन क्या तमाम हिन्दू अहिंसक हैं? सवाल की जड़ में जाकर मालुम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीवों को तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करने से मालुम होता है कि बहुत से हिन्दू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ कहना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है जब ऐसी हालत है तो मुसलमान हिंसक और हिन्दू अहिंसक है इसलिये दोनों की नहीं बनेगी यह सोचना बिलकुल गलत है।

ऐसे विचार स्वार्थी धर्म शिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओं ने हमें दिए हैं और इसमें जो कमी रह गई थी उसे अंग्रेजों ने पूरा किया है। उन्हें इतिहास लिखने की आदत है; हरेक जाति के रीति रिवाज जानने का वे दम्भ करते हैं। ईश्वर ने हमारा मन तो छोटा बनाया है फिर भी वे ईश्वरी दावा करते आये हैं और तरह तरह के प्रयोग करते हैं। वे अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मन में अपनी बात सही होने का विश्वास जमाते हैं। हम भोलेपन में उस सबपर भरोसा कर लेते हैं।

जो टेढा नहीं देखना चाहते वे देख सकेंगे कि कुरआन शरीफ में ऐसे सैकड़ो वचन हैं, जो हिन्दुओं को मान्य हों;भगवद्गीता में ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ मुसलमान को कोई भी ऐतराज नहीं हो सकता। कुरआन शरीफ का कुछ भाग मैं न समझ पाऊं या कुछ भाग मुझे पसंद न आये, इस वजह से क्या मैं उसे माननेवाले से नफरत करूँ? झगडा दो से ही हो सकता है। मुझे झगडा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? हवा में हाथ उठानेवाले का हाथ उखड जाता है। सब अपने-अपने धर्म का स्वरुप समझकर उससे चिपके रहें और  शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगडे का मुह हमेशा के लिए काला ही रहेगा।

मेरी टिप्पणी :-  महात्मा जी की हिंसा को लेकर कही गई उपरोक्त बातें आज भी कितनी सार्थक है।  अभी जब आये दिन माब लीचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं, प्रेमी युगलों की आनर किलिंग के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, स्त्रियों पर बलातकार हो रहे हैं,  तब अँधेरे में रोशनी की किरण के रूप में गांधीजी द्वारा १९०९ में लन्दन से वापिस दक्षिण अफ्रीका जाते हुए जहाज में लिखी गई यह पुस्तक है। गांधीजी द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म की बात करते हैं वे हिंसा की जगह आत्मबलिदान को प्रमुखता देते हैं। अहिंसा को लेकर वे दुराग्रही भी नहीं है। हमारे देश में अहिंसा का सर्वाधिक दृढ़ स्वरुप जैन धर्म में दिखाई देता है।गांधीजी की अहिंसा वैसी न थी।बालिका इंदिरा ने एक बार उनसे पूंछा के क्या मैं अंडे खा सकती हूँ गांधीजी ने जबाब दिया हाँ अगर तुम्हारे घर में लोग खाते हैं तो तुम भी खा सकती हो। जीव ह्त्या को लेकर वे हिन्दुओं पर जितने सख्त थे व बलि प्रथा का जितना विरोध वे करते थे उतना उन्होंने शायद मुसलामानों में कुर्बानी प्रथा का नहीं किया। शायद वे मानते होंगे कि पहले हिन्दुओं में सुधार हो फिर मुसलमान सुधर जायेंगे। वे धार्मिक कट्टरता और वैर भाव जगाने का  दोषी शास्त्री और मौलवी को मानते हैं, आज के परिप्रेक्ष्य में उनकी यह बात कितनी सही है हम सब महसूस करते हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

Please share your Post !

Shares