(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश जी के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी शिक्षाप्रद लघुकथा “उपहार ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆
☆ उपहार ☆
नन्ही परी का जन्मदिन मनाया जा रहा था .
उस की प्यारी टीचर भी आई हुई थी.
जैसे ही परी ने मोमबत्ती को फूंक मारा वैसे ही सभी ने एक स्वर में कहा , ” हैप्पी बर्थ डे टू यू …………… हैप्पी बर्थ डे टू परी, ” और सभी बारी-बारी से परी को केक खिलाने लगे .
अंत में पापा ने परी से पूछा , “ बोलो ! तुम्हें कौन सा उपहार चाहिए ?”
यह सुनते ही परी ने टीचर की तरफ देखा. टीचर ने मम्मी की पेट की तरफ इशारा कर दिया.
इसलिए परी ने तपाक से कहा, ” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए .”
यह सुन कर मम्मी-पापा दंग रह गए.
कहीं परी ने उन की बात तो नहीं सुन ली थी कि वे इस बच्ची को दुनिया में नहीं आने देंगे.
वे क्या बोलते. चुप हो गए .
और परी बार-बार यही दोहरा रही थी ,” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए.”
(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत प्रत्येक गुरुवार को आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता ऋतू हिरवा….।)
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “सुहाग की चूड़ी…… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #3 ☆
☆ सुहाग की चूड़ी…… ☆
हमेशा की तरह आज भी गुलशेर अहमद चूड़ियां लेकर फेरी पर निकला था। पिछले 15-20 वर्षों से हफ्ते-दस दिनों के अंतर से आसपास के सभी गांवों में उसके चक्कर लगते रहते हैं। हर एक गाँव में उसने कुछ ठीये बना रखे हैं, जहाँ से चूड़ी बेचने की उसकी अटपटी कलात्मक आवाज सुन मुहल्ले की सभी महिलाएं जुट जाती है।
बेटी-बहू से ले कर बूढ़ी तक सभी गुलशेर मियाँ को ‘गुलशेर भाई’ के नाम से संबोधित करती हैं।
प्रायः होटल से खाना खाने के बाद मुफ्त की मुट्ठी भर सौंफ-मिश्री व 2-4 दांत खुरचनी तथा किलो-पाव किलो सब्जी की खरीदी के बाद मुफ्त की मिर्ची-धनिया लेने की परिपाटी जैसे ही यहां भी भाव-ताव की झिकझिक के साथ निर्धारित चूड़ियाँ पहनने के बाद सुहाग के नाम पर फोकट की एक चूड़ी की मांग इन महिलाओं की सदा से बनी रहती है।
आज गुलशेर मियाँ के द्वारा किसी को भी सुहाग की अतिरिक्त चूड़ी नहीं मिलने से नाराज वे सब शिकायत करने लगी-
क्या गुलशेर भाई – हमेशा तो आप एक चूड़ी अपनी ओर से देते हो फिर आज क्यों नहीं….
मेरी बहनों! बूढ़ा हो रहा हूँ, अब पहले जैसी भागदौड़ नहीं हो पाती मुझसे, यूँ ही एक-एक कर दिन भर में सौ-डेढ़ सौ चूड़ियां ऐसे ही निकल जाती है, ऊपर से कांपते हाथों से ज्यादा टूट-फुट हो जाती है सो अलग। फिर मैं आप बहन बेटियों से ज्यादा मुनाफा भी तो नहीं लेता हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी?
पर भैया सुहाग की एक चूड़ी तो सब जगह देते हैं!
सच बात तो ये है मेरी बेन – वो सुहाग की नहीं भीख की चूड़ी होती है।
भीख की चूड़ी! ये क्या कह रहे हो गुलशेर भाई आप?
अच्छा ये बताओ मुझे क्या, आपके सुहाग की कोई कीमत नहीं है जो उनके नाम से मुफ्त की एक चूड़ी की मांग करते रहते हैं आप सब। फिर ये जो चूड़ियां पहनी है आपने, क्या ये आपके सुहाग की चूड़ियां नहीं है? मुफ्त की एक चूड़ी के बिना क्या आप सुहागिन नहीं समझी जाएंगी? और मांग कर फोकट में बेमन से मिली चूड़ी।
(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में उनकी एक बाल कविता “सार्थक आणि लक्ष्य”। हिन्दी में एक कहावत है “मूलधन से ब्याज प्रिय होता है “। सभी दादा दादी/नाना नानी को अपने नाती पोते सर्वप्रिय होते हैं। मैं क्या आप सभी सुश्री प्रभा जी के कथन से सहमत होंगे ।
“नातवंडे प्रत्येक आजी आजोबांना खुप प्रिय असतात, त्यांच्या बाललीला पहाणं हे एक *आनंद पर्व* असतं ,एका लग्न समारंभात माझ्या नातवाकडे पाहून एक महिला मला म्हणाली, “तुमचा नातू गोड आहे” यावर पाच वर्षाचा माझा नातू पटकन म्हणाला होता, “सगळे नातू गोडच असतात”. याच माझ्या नातवाच्या -सार्थक च्या मैत्रीची एक कविता….” – प्रभा सोनवणे
अब आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं । )
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । साप्ताहिक स्तम्भ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक कवि के हृदय में काव्य सृजन की प्रक्रिया को उजागर करती उनकी कविता “शस्त्रक्रिया”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 4 ☆
(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति कोम. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज चौथी कड़ी में प्रस्तुत है “मस्तिष्क-दृष्टि” इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि । हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है। यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।
सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्क-दृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।
क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं। किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं, असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्क-दृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है।
(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं। सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं। सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से जुड़ा है एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है। निश्चित ही उनके साहित्य की अपनी एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। मानसून ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है एवं इसी संदर्भ में आज प्रस्तुत है उनकी एक सामयिक रचना “मान्सून।”)
(हम श्री संजय भारद्वाज जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने e-abhivyakti के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमित छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाचशीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की प्रथम कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
संक्षिप्त परिचय
अध्यक्ष – हिंदी आंदोलन परिवार
सदस्य – हिंदी अध्ययन मंडल, (बोर्ड ऑफ स्टडीज), पुणे विश्वविद्यालय।
संपादक – हम लोग
पूर्व सदस्य – महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी
ट्रस्टी – जाणीव वृद्धाश्रम, फुलगाँव, पुणे।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 1 ☆
बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं। पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।
वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं, यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?
मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।
वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।
पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेस कैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।
शायर लिखता है- शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।
मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “मज़ाक ” जो निश्चित ही आपको अपने आस पास के किसी मानव चरित्र से रूबरू कराएगी। डॉ परिहार जी के साहित्य के पात्र अक्सर हमारे आस पास से ही होते हैं। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 4 ☆
☆ मज़ाक ☆
दीपक जी मकान बनवा रहे थे। बीस साल किराये के मकान में रहे। उस मकान की छत टपकती थी। दीवारें बदरंग थीं और फर्श टूटा-फूटा। उसी मकान में दीपक जी ने बीस साल काट दिये। अब बड़ी हसरत से अपना मकान बनवा रहे थे—–सागौन के खिड़की दरवाज़े, फर्श में काले-सफेद पत्थर, बाथरूम और रसोईघर में रंगबिरंगी टाइल्स और दीवारों पर मंहगा चमकदार पेन्ट। दीपक जी एक एक चीज़ को बारीकी से देखते रहते थे। मकान को बनाने में वे अपने मन की सारी भड़ास निकाल देना चाहते थे।
मकान से उन्हें बड़ा मोह हो गया था। अकेले होते तो मुग्ध भाव से दरो-दीवार को निहारते रहते थे। ऐसे ही घंटों गुज़र जाते थे और उन्हें पता नहीं चलता था। अपने इस कृतित्व के बीच खड़े होकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। लगता था जीवन सार्थक हो गया।
मकान को खुद देखकर उनका मन नहीं भरता था। उन्हें लगता था हर परिचित-मित्र को अपना मकान दिखा दें। मुहल्ले में कोई ऐसा नहीं बचा था जिससे उन्होंने मकान का मुआयना न कराया हो। दूसरे मुहल्लों से रिश्तेदारों-मित्रों के आने पर भी वे पहला काम मकान दिखाने का करते थे। चाय-पानी बाद में होता था, पहले मकान के दर्शन कराये जाते थे। मकान दिखाते वक्त दीपक जी मेहमान के मुँह पर टकटकी लगाये, प्रशंसा के शब्दों की प्रतीक्षा करते रहते। प्रशंसा सुनकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता था।
उनकी दीवानगी का आलम यह था कि किसी के थोड़ा भी परिचित होने पर वे नमस्कार के बाद अपना मकान देखने का आमंत्रण पेश कर देते। कोई ज़रूरी काम का बहाना करके खिसकने की कोशिश करता तो दीपक जी कहते—-‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है? दो मिनट की तो बात है।’और वे उसे किसी तरह गिरफ्तार करके ले ही जाते।
यह उनका नित्यकर्म बन गया था। दिन में दो चार लोगों को मकान न दिखायें तो उन्हें कुछ कमी महसूस होती रहती थी। सड़क से किसी न किसी को पकड़ कर वे अपना अनुष्ठान पूरा कर ही लिया करते थे।
एक दिन दुर्भाग्य से मकान दिखाने के लिए दीपक जी को कोई नहीं मिला। सड़क के किनारे भी बड़ी देर तक खड़े रहे, लेकिन कोई परिचित नहीं टकराया। उदास मन से दीपक जी लौट आये। बड़ा खालीपन महसूस हो रहा था।
शाम हो गयी थी। अब किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। निराशा में दीपक जी ने इधर उधर देखा। सामने एक मकान अभी बनना शुरू ही हुआ था। उसका चौकीदार रोटी सेंकने के लिए लकड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर रहा था।
दीपक जी ने इशारे से उसे बुलाया। पूछा, ‘हमारा मकान देखा है?’
वह विनीत भाव से बोला, ‘नहीं देखा, साहब।’
दीपक जी ने पूछा, ‘कहाँ के हो?’
वह बोला, ‘इलाहाबाद के हैं साहब।’
दीपक जी ने कहा, ‘वहाँ तुम्हारा मकान होगा।’
चौकीदार बोला, ‘एक झोपड़ी थी साहब। नगर निगम ने गिरा दी। चार बार बनी, चार बार गिरी। अब बाल-बच्चों को लेकर भटक रहे हैं।’
दीपक जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी। बोले, ‘आओ तुम्हें मकान दिखायें।’
वे उसे भीतर ले गये। फर्श के खूबसूरत पत्थर, किचिन की टाइलें, पेन्ट की चमक, दरवाज़ों का पॉलिश, रोशनी की चौकस व्यवस्था—-सब उसे दिखाया। वह मुँह बाये ‘वाह साहब’, ‘बहुत अच्छा साहब’ कहता रहा।
संतुष्ट होकर दीपक जी बाहर निकले। चौकीदार से बोले, ‘तुम अच्छे आदमी हो। बीच बीच में आकर हमारा मकान देख जाया करो। ये दो रुपये रख लो। सब्जी-भाजी के काम आ जाएंगे।’
चौकीदार उन्हें धन्यवाद देकर अपनी उस अस्थायी कोठरी की तरफ बढ़ गया जहाँ बैठा उसका परिवार इस सारे नाटक को कौतूहल से देख रहा था।
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की आठवीं कड़ी नातं…। जीवन में रिश्ते और रिश्तों पर आधारित दिवसों को मनाना रिश्तों को पुनर्जीवित करने जैसा है। श्री आरूशी जी का यह आलेख मानवीय रिश्तों के अतिरिक्त ईश्वर एवं प्रकृति के रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ता है। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )
साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #8
☆ नातं… ☆
जे नातं माझ्या चेहऱ्यावर हसू आणतं, ते हृदयस्थ आहे !
पाडवा असला की नवऱ्याला ओवळायचं… आज भाऊबीज म्हणजे भावाला ओवाळायचं… मातृदिन, पितृ दिन, मैत्री दिन अशा वेगवेगळ्या दिवसाचं औचित्य साधून आपल्या आयुष्यातील वेगवेगळ्या नात्याचं स्मरण करतो… हे असे दिवस साजरे केलं ना की मला खूप आनंद मिळतो… हा उत्सव खूप काही देऊन जातो… एक तर ही नाती rejuvenate होतात असं मला नेहमी वाटतं आणि त्या नात्यातील खोली कळते, वीण अजून घट्ट होते…
काही नाती खूप वेगळी असतात… कुठल्याही व्याख्येत बसत नाहीत… किंवा त्यांना कुठलंही नाव देता येत नाहीत… मग अशी नाती खरंच टिकतात का? तर हो टिकतात… नक्कीच… फक्त ह्यात कधी दिखावा नसतो, कारण त्याची गरज नसते… ही अंतरबाह्य दैवी असतात… आजही काही जणांचा आधार फक्त त्यांच्या स्मरणाने देखील बळ देतो…
ही नाती फक्त दोन व्यक्तींमध्येच असतात असं नाही… येतंय ना लक्षात मी काय सांगायचा प्रयत्न करतीये ते ! म्हणजे कसं आहे माहित्ये का?
समुद्र किनारी गेले की तो समुद्र, त्या लाटा आणि तो सूर्य माझं आयुष्य परिपूर्ण करतात ही भावना खूप सुखावह वाटते… संध्याकाळी देवापाशी दिवा लावला की त्या तेजाबरोबर मिळणारा लख्ख आधार, जणू त्या नात्याचं अस्तित्व प्रकाशमान करतो…. किंवा रात्रीची शाल पांघरून जेव्हा आकाशातील चांदण्या प्रसन्नतेची उधळण करतात, तेव्हा आकाशाशी असलेलं मायेची पाखरण करणारं हे नातं वात्सल्यपूर्ण वाटतं…
ह्या नात्याला नाव द्यायची कधी गरज पडलीच नाही… आणि तसा कधी प्रयत्नही केला नाही… ह्यातच त्या नात्याचं यश दडलेलं आहे, हो ना!