मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #3 – कवितेवरची कविता ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी गजल यात्रा का एक और पड़ाव  “कवितेवरची कविता“। अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 3 ☆

 

 ☆ कवितेवरची कविता☆

कवितेमधला गझल हा प्रकार मनाला खुप भावला. १९९२ साली अनिल तरळे या अभिनेत्याने बालगंधर्व परिसरात गझलकार इलाही जमादार यांची ओळख करून दिली, कॅफेटेरियात आमची कविता-गझल अशी मैफल जमली,इलाहींच्या गझलांनी मी खुपच भारावून गेले, असे वाटले कविता लिहिणं सोडून द्यावं,वरचेवर इलाहींशी भेटी होत होत्या, इलाहींनी गझलतंत्र, गझलची बाराखडी या विषयी काहीच सांगितलं नाही, ते म्हणाले तुम्ही, “आपकी नजरोने समझा प्यारके काबील मुझे”.. ही ओळ गुणगुणत रहा, त्या मीटर मध्ये तुम्हाला गझल सुचेल! पण तसं काही झालं नाही!
बरेच दिवसांनी अचानक शब्द आले…गझल पूर्ण झाली! शरद पाटील हा कवी त्या काळात झपाटल्यासारखी गझल लिहित होता, त्याला दाखवली,त्यानी सांगितलं होतं पहिल्या शेरात गडबड आहे बाकी सगळे शेर बरोबर आहेत, पहिला शेर मी सुरूवातीला असा लिहिला होता,

“यायचे स्वप्नी तसे हे गाव नाही
ओळखीचा एकही पहेराव नाही”

काय गडबड आहे हे त्यालाही सांगता आलं नाही आणि मलाही समजलं नाही, एका खाजगी मैफलीत इलाही, दीपक करंदीकर यांच्या समोर सादर केली,त्यांनी ही ईस्लाह वगैरे केलं नाही, माझ्या पहिल्या संग्रहात मी तशीच छापली आहे, पुढे डाॅ. राम पंडितांचे लेख वाचून गझलची लगावली समजली मग मी सानी मिसरा बदलला….घेतलेले राज्य अन तो डाव नाही…आणि लक्षात आलं हे मंजुघोषा वृत्त आहे, अचानकच हातून लिहिलं गेलेलं!
पुढे गझलेवरची गझल ही झाली… *आज अचानक लेखणीस गवसली गझल, स्नेहभराने काळजात उतरली गझल*

माझी पहिली गझल

यायचे स्वप्नी तसे हे गाव नाही
घेतलेले राज्य अन तो डाव नाही

आज मज हाका नका मारू कुणीही
जे तुम्ही घेताय माझे नाव नाही

का असे डोळ्यात पाणी पावलांनो
स्वैर आभाळी तुम्हा का वाव नाही

जायचे वस्तीत चोरांच्या कशाला
सोबती येथे कुणीही साव नाही

सोनियाचे मुकुट डोई देवतांच्या
भक्तिला आता कुठेही भाव नाही

जाहल्या जखमा किती या काळजाला
मारणारा एकही मज घाव नाही

झुरत अंधारात आहे एकटी मी
सावलीला ही इथे शिरकाव नाही

संपता आयुष्य माझे भेटण्या ये
मरणयात्रेला कुणा मज्जाव नाही

 

(१९९३ साली रचलेली गझल आहे )

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #3 सेव पापड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सेव पापड़ी ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने  राजन वेलफेयर एवं डेवलपमेंट संस्थान, जोधपुर एवं लघुकथा मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान  प्राप्त किया है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 3 ☆

 

☆ सेव पापड़ी ☆

 

गरीब परिवार की सुंदर सी बिटिया नाम था ‘सेवती’। दुबली पतली सी मगर नाक नक्श बहुत ही सुंदर। पिताजी गंभीर बीमारी से दुनिया से जा चुके थे। मां पडोस में बरतन चौका का काम कर अपना और अपनी बच्ची गुजारा करती थी। बिटिया की सुंदरता और चंचलता सभी मुहल्ले वालो को बहुत भाती थी। सब का कुछ न कुछ काम करती रहती। बदले में उसको खाना और पहनने तथा पढने का सामान मिल जाया करता था।

पास में ही लाला हलवाई की दुकान थी। हलवाई दादा उसे बहुत प्यार करते थे। उसकी कद काठी के कारण सेवती की जगह वे उसे सेव पापड़ी कह कर बुलाते थे। अब तो सब के लिये सेव पापड़ी हो गई थी। अपना नाम जैसे वह भूल ही गई थी। धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। पढ़ाई में भी बहुत तेज थी और मन लगा कर पढ़ाई करती थीं। मां अच्छे घरों में काम करती थी सभी सलाह देते कि बिटिया को पढ़ाना। हमेशा गरीबी का अहसास कर कहती मैं इसे ज्यादा नहीं पढा सकुगीं। पर हलवाई दादा हर तरफ से मदद कर रहे थे। कभी कहते नहीं पर सभी आवश्यकताओं को पूरा करते जाते थे।

सेव पापड़ी भी उन्हें अपने पिता तुल्य मानती थी। उनके घर का आना जाना लगा रहता था। धीरे-धीरे वह बारहवीं कक्षा पास कर ली। अब तो मां को और ज्यादा चिंता होने लगी थी। पर हलवाई दादा कहते इतनी जल्दी भी क्या है। मां बेचारी बडों का कहना मान चुप हो जाती थी।। कालेज में दाखिला हो गया और आगे की पढ़ाई कर सेवती स्कूल अध्यापिका बन गई। मां अब तो और भी परेशान होने लगी ब्याह के लिए।

हलवाई दादा ने कहा अब तुम विवाह की तैयारी करो लड़का हमने देख लिया है। मुहल्ले में सभी तरफ खुशी खुशी सेव पापड़ी की शादी की बातें फैल गई। बिटिया की मां दादा को कुछ न बोल सकी। काडॅ छप गये* सेव पापड़ी संग रसगुल्ला *। ये कैसा काडॅ छपवाया दादा ने। बात करने पर कहते मै तुम्हारा कभी गलत नहीं करूंगा। तुम्हें बहुत अच्छा जीवन साथी मिलेगा। घर सज चुका था सारी तैयारियाँ हो चुकी। मुहल्ले वाले सभी अपनी सेव पापड़ी बिटिया के लिए उत्साहित थे कि दुल्हा कहा का और कौन हैं। सेव पापड़ी भी बहुत परेशान थीं। पर बडों की आज्ञा और कुछ अपने भाग्य पर छोड़ शादी के लिए तैयार होने लगी। बारात ले दुल्हा बाजे और बारातियों के साथ चला आ रहा था।

सेहरा बंधा था और कुछ जान बुझ कर दूल्हे ने अपना चेहरा छुपा रखा था। द्वार चार पूजा पाठ और फिर वरमाला। सेव पापड़ी की धडकन बढते जा रही थीं। पर ज्यो ही दुल्हे ने वरमाला पर अपना सेहरा हटाया सब की निगाहें खुली की खुली रह गई। दुल्हे राजा कोई और नहीं हलवाई दादा का अपना बेटा रमेश जो बाहर इंजीनियर बन नौकरी कर रहा था। सबने खुब ताली बजाकर उनका स्वागत किया। दादा सेवपापडी के लिये अपने ही बेटे जो मन ही मन सेवती को बहुत प्यार करता था और सारा खेल उसी ने बनाया था। अब सेव पापड़ी सदा सदा के लिए (मिठाई) दुल्हन बन हलवाई दादा के घर चली गई। सारे घराती बरातियों को आज सेवपापडीऔर रसगुल्ला बहुत अच्छा लग रहा था। सभी चाव से खाते नजर आ रहे थे। और हलवाई दादा के आंखों में खुशी के आंसू। मां भी इतनी खुश कुछ बोल न सकी पर हाथ जोड़कर हलवाई दादा के सामने खड़ी रही। सेवती (सेवपापडी) अपने रमेश (रसगुल्ला) की दुल्हन बन शरमाते हुये बहुत खुश दिखने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #3 – गझल गीत गाण्यासाठी ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है अप्रतिम मराठी गीत गझल गीत गाण्यासाठी जिसे प्रख्यात गायक एवं संगीतकार श्री  राजेश दातार जी ने स्वरबद्ध किया है। इसके साथ ही प्रस्तुत है स्थिर-चित्र आडियो /वीडियो  यूट्यूब लिंक । )

 

☆ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 3 ☆

? गझल गीत गाण्यासाठी ?

 

 

(Please Click ⇑⇑⇑⇑  to hear song or click on YouTube Link  >> गझल गीत गाण्यासाठी

 

पाखरात कोकिळ गातो तसे गाऊ दे रे गजल गीत गाण्यासाठी सूर लावू दे रे

 

शब्दफुलांच्या या बागा नकोना पहारे तिच्या मोरपंखी ओळी आणती शहारे

अभिषेक कानावरती रोज होऊ दे रे

 

गोटीबंद आहे गजला परि जीव घेण्या एक एक शब्दांच्या या शेकडो कहाण्या दु:ख असे भळभळणारे मला पाहू दे रे

 

दु:ख सुखाच्या रे येथे किती येरझारा कधी शब्द घुसमटणारे कधी थंड वारा ब्रीद जीवनाचे सारे मला मांडू दे रे

 

शब्द कोण घेऊन आले पहाट पहाटे कोवळीच सुमने येथे नसे तिथे काटे

हाच वसा आनंदाचा मला घेऊ दे रे

 

रचना : अशोक श्रीपाद भांबुरे

गायक आणि संगीतकार : राजेश दातार

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #3 – जीवन भी क्रिकेट ही है ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  साप्ताहिक  स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन भी क्रिकेट ही है”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ सकारात्मक सपने  #-3 ☆

 

☆ जीवन भी क्रिकेट ही है ☆

 

२० .. २०  क्रिकेट की तेजी ही उसकी रोचक रोमांचकता है, जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. आज के व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २० ..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी से जल्दी आउट करना होता है.  जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं, विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं, ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है. प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २०  .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन के रन सिंगल्स हो सकते हैं, यश अर्जन के चौके, समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है, रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है. सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है. जो खिलाड़ी इस जीवन क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है. जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है, जिस दिशा में हम उसे मारते हैं. जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रियता ही हमें स्थापित करती है, जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं.

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-3 वृत्त  वियदगंगा ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश  देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है  भावप्रवण गीत   – वृत्त  वियदगंगा )

 

? रंजना जी यांचे साहित्य #-3 ? 

 

☆ वृत्त  वियदगंगा   ☆

 

*लगागागा लगागागा लगागागा लगागागा*

 

मानवा

जरा परमार्थ जीवाचा ,

रुचेना  मानवा तुजला।

कसा बाजार मोहाचा,

कळेना मानवा तुजला।

 

कसा धुंदीत पैशाच्या ,

विसरला माय बापाला।

निरागस भाव का त्यांचा

दिसेना मानवा तुजला।

 

नको धावू  सुखामागे

जरी भुलवी दिखावा हा।

कसा रे बोध सत्याचा,

घडेना मानवा तुजाला।

 

जरी खडतर खरा आहे

कितीही मार्ग सौख्याचा।

इथे कष्टाविना काही

मिळेना मानवा तुजला।

 

असे सत्ता किती लोभस,

मनाला ओढ ती लावी ।

कसे हे पाश मोहाचे,

तुटेना मानवा तुजला।

 

पुरे कर खेळ स्वार्थाचा

जरा ये भूवरी थोडा ।

कुठे का बंध नात्यांचे

जुळेना मानवा तुजला।

 

अभ्यासक ✍

©  रंजना मधुकर लसणे✍

मार्गदर्शक सुश्री अर्चनाजी

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #3 – जूते ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य   एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “जूते” जो निश्चित ही  आपको जीवन के  कटु सत्य एवं कटु अनुभवों से रूबरू कराएगी।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 3 ☆
☆ जूते  ☆

हम नर्मदा-यात्रा पर थे। आदिवासी फगनू सिंह हमारे मार्गदर्शक थे। साथ मदद के लिए छोटू भी था। फिर भी सामान ढोने के लिए हमें रोज़ अपने पड़ाव से दो आदमी लेने पड़ते थे जिन्हें हम अगले पड़ाव पर छोड़ देते थे। गाँवों में निर्धनता ऐसी कि मज़दूरी के नाम से तत्काल लोग हाज़िर हो जाते। जितने चाहिए हों, उठा लो।

मंडला तक के आखिरी चरण में हमारे साथ दो आदिवासी किशोर थे। चुस्त, फुर्तीले, लेकिन पाँव में जूता-चप्पल कुछ नहीं।  कंधे पर बोझ धरे, पथरीली ज़मीन और तपती चट्टानों पर वे नंगे पाँव ऐसे चलते जैसे हम शीतल, साफ ज़मीन पर चलते हैं।  हम में से कुछ लोग हज़ार दो हज़ार वाले जूते धारण किये थे।  दिल्ली से आये डा. मिश्र उन लड़कों की तरफ से आँखें फेरकर चलते थे।  कहते थे, ‘इन्हें चलते देख मेरी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ती है। देखा नहीं जाता।  हम तो ऐसे दो कदम नहीं चल सकते।’

मंडला में यात्रा की समाप्ति पर डा. मिश्र इस दल को सीधे जूते की दूकान में ले गये।  बोले, ‘सबसे पहले इन लड़कों के लिए चप्पल ख़रीदना है।  उसके बाद दूसरा काम।’

जूते की दूकान वाले ने पूरे सेवाभाव से उन लड़कों को रबर की चप्पलें पहना दीं।  लड़कों ने तटस्थ भाव से चप्पलें पाँव में डाल लीं।  हमारा अपराध-बोध कुछ कम हुआ।  जूते की दूकान से हम कपड़े की दूकान पर गये जहाँ फगनू सिंह को अपने लिए गमछा ख़रीदना था।  सब ने अपने जूते दूकान के बाहर उतार दिये।  ख़रीदारी ख़त्म करके हम सड़क पर आ गये। आदिवासी लड़के हमारे आगे चल रहे थे। गर्मी में सड़क दहक रही थी।

एकाएक डा. मिश्र चिल्लाये, ‘अरे,ये लड़के अपनी चप्पलें दूकान में ही छोड़ आये।’ लड़कों को बुलाकर चप्पलें पहनने के लिए वापस भेजा गया।

हमारे दल के लीडर वेगड़ जी ताली मारकर हँसे, बोले, ‘प्रकृति को मालूम था कि हमारा समाज इन लड़कों को पहनने के लिए जूते नहीं देगा, इसलिए उसने अपनी तरफ से इंतजाम कर दिया है। ये लड़के हमारी दया के मोहताज नहीं हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #7 – देऊळ.…. ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  सातवीं कड़ी देऊळ…. । आज के इस आध्यात्मिक विषय पर कदाचित गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे प्रभु की मूरत वैसी ही दिखाई देती है। किन्तु ,उस मूरत से अपने आप को कैसे जोड़ना है वह आपको तय करना है।सुश्री आरूशी जी का यह आलेख ईश्वर के सम्मुख अपनी भावनाओं को परत दर परत खोलता जाता है। इस शृंखला की  कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी  – #7  ? 

☆ देऊळ….   ☆

 

पवित्रता, श्रद्धा, भक्ती ह्यांचा निवास… परमेश्वरापुढे नतमस्तक होऊन, मीपणा दूर ठेवून, आपल्या मनातील भावना त्याला सांगण्याचे ठिकाण… आपले दुःख दूर व्हावे म्हणून त्याला साकडे घालायचे असेल तर इथेच येतो आपण…

प्रत्येकाच्या आयुष्यात एखादे तरी देऊळ असते जिथे त्या व्यक्तीला खूप शांत, आनंदी, समाधानी वाटते… त्या जागी पोचताच क्षणी एकदम हलकं वाटतं…

काही जण रोज देवळात जातात, काही जण मनात आलं की जातात, तर काही जण देवळात जायचं म्हटलं की नाक मुरडतात… काही जण नेम म्हणून जातात, तर काही जण नवस फेडायला जातात… प्रत्येकाचा देव वेगळा, तसं प्रत्येकाचं देऊळ वेगळं… पण सरते शेवटी देवळात गेल्यावर शरणागती हाच एक भाव उरतो… त्याचा दिखावा करायची गरज नसते, तिथे फक्त तो आणि आपण असतो… एका दैवी पातळीवर संवाद घडतो, त्यात कोणाची ढवळा ढवळ नसते…

घरी दररोज पूजा केली तरी देवळात गेल्यावर जे हाती लागतं, ते शब्द बद्ध करणं मुश्किल आहे… ज्याला त्याला आयुष्य सुखकर करतांना आधार देण्याचं, धीर देण्याचं काम बऱ्याचवेळा देऊळ करतं… हे झालं बाह्य रुपी मंदिराबद्दल.. पण कधी अंतस्थ मंदिराबद्दल विचार केला आहे?

मीपण हल्ली हल्लीच असा विचार करू लागले आहे… म्हणजे तशा भावना जागृत व्हायला लागल्या आहेत… म्हणजे नेमकं काय हे सांगू शकत नाही, पण बऱ्याच वेळा बसल्या जागी त्याला शरण जाते आणि त्याच्याशी गप्पा मारते, मन मोकळेपणाने… शरीर रुपी मंदिरात तो कधी मित्र म्हणून असतो, कधी पिता म्हणून, कधी आई, कधी मोठा भाऊ, कधी जोडीदार बनून समोर येतो… सर्व भाव भावनांना त्याच्या पर्यंत पोचवताना, आपला भार आपण त्याच्यावर टाकून मोकळे होतो… सहजच अगदी…

तो हृदयस्थ असतो, फक्त त्याला ओळखायची गरज असते… जन्म, मृत्यू ह्याच्या पलीकडे जाताना तोच तर नेहमी बरोबर असतो, हो ना !

 

© आरुशी दाते

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 – छोले चावल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक और संस्मरण “छोले चावल”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 ☆

☆ छोले चावल ☆

 

सितम्बर 2005 से लेकर फरवरी 2006 तक मैने दिल्ली से C-DAC का कोर्स किया था जिसमे उच्च (advanced) कप्म्यूटर की तकनीक पढ़ाई जाती है । हमारा केंद्र दिल्ली के लाजपत नगर 4 मे था, अमर कॉलोनी में । हमारे अध्यन केंद्र से मेरे किराये का कमरा बस 150 – 200 मीटर दूर था । हमारे केंद्र मे सुबह 8 से रात्रि 6 बजे तक क्लास और लैब होती थी उन दिनों हम रात में लगभग 2-3 बजे तक जाग कर पढ़ाई करते थे । हमारा अध्यन केंद्र और मेरा किराये का कमरा बीच बाज़ार में थे ।

मेरे साथ मेरे तीन दोस्त और रहते थे क्योकि हमारा कमरा बीच बाज़ार में था तो वहाँ खाने और पीने की चीजों की दुकानों और होटलो की कोई कमी ना थी । जिस इमारत में तीसरी मंजिल पर हमारा कमरा था उस ही मंजिल में भूतल (ground floor) पर एक चाय वाले की दुकान थी चाय वाले का नाम राजेंद्र था उसके साथ एक और लड़का भी काम करता था जिसका नाम राजू था । उस पूरे क्षेत्र में केवल वो ही एक चाय की दुकान थी तो राजेंद्र चाय वाले के यहाँ सुबह 7 से लेकर रात 11 बजे तक काफी भीड़ रहती थी । राजेंद्र की चाय औसत ही थी इस लिए कभी कभी हम थोड़ा दूर जा कर भी किसी और टपरी पर चाय पी लिया करते थे और अगर कभी देर रात को चाय पीनी हो तब भी हम टहलते टहलते दूर कहीं चाय पीने चले जाते थे ।

धीरे धीरे समय के साथ राजेंद्र की दुकान पर भीड़ बढ़ने लगी । उसकी दुकान पर हमेशा लोगो का ताँता लगा रहता था । राजेंद्र की दुकान पर सब ही तरह के लोग आते थे कुछ वो भी जो लोगो को डराने धमकाने का काम करते थे कुछ हमारे जैसे पढ़ने वाले छात्र एवं कुछ पुलिस वाले भी । धीरे धीरे राजेंद्र की चाय की गुणवत्ता घटने लगी । मैं और मेरे मित्र चाय के लिए कोई और विकल्प ढूंढ़ने लगे । हम राजेंद्र की चाय से ऊब गए थे । अचानक एक दिन जब मैं अपने केंद्र पर जा रहा था मैने देखा की राजेंद्र की चाय की दुकान की बायीं और की सड़क पर एक 23-24 साल का लड़का कुछ सामान लगा रहा था वो लड़का देखने में बहुत सुन्दर और हटा कट्ठा था एवं बहुत अच्छे घर का लग रहा था । शाम को जब मैं अपने अध्ययन केंद्र से वापस आ रहा था तो मैने देखा की राजेंद्र की दुकान के बायीं ओर  सुबह जहाँ एक लड़का कुछ सामान लगा रहा था वहाँ पर एक नयी चाय की दुकान खुल चुकी थी उस चाय की दुकान को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा । उस चाय की दुकान पर कोई भी ग्राहक ना था जैसे ही मैने चाय वाले की तरफ देखा उस चाय वाले के मुस्कुराते हुए चेहरे ने मेरी तरफ देख कर बोला ‘भईया चाय पियोगे ?’

मैं थका हुआ था मैने कुछ देर सोचा उसकी तरफ देखा और बोला ‘हाँ भईया एक स्पेशल चाय बना दो केवल दूध की’ पांच मिनट के अंदर उसने चाय का गिलास मेरी तरफ बढ़ाया चाय काफी अच्छी बनी थी मैने चाय पीते पीते कहा ‘भईया चाय अच्छी बनी  है’ उसने कहा ‘धन्यवाद सर’ फिर मैने पूछा की उसका नाम क्या है और वो कहाँ का रहनेवाला है तो उसने अपना नाम चींकल बताया और वो पंजाब के किसी छोटे से शहर का था । धीरे धीरे मैने और मेरे तीन साथियो ने राजेंद्र की जगह चींकल की टपरी से चाय पीना शुरू कर दिया । चींकल केवल 1 कप चाय या 1 ऑमलेट भी तीसरी मंजिल तक ऊपर आ कर दे देता था वह बहुत ही जिन्दा दिल लड़का था बड़ा हंसमुख सब को खुश रखने वाला । धीरे धीरे चींकल, चाय वाले से ज्यादा हमारा दोस्त बन गया था । 1 महीने के अंदर ही अंदर राजेंद्र चाय वाले के ग्राहक कम होने लगे और चींकल के बढ़ने लगे ।

क्योंकि हम लोगो को काफी पढ़ाई करनी होती थी तो हम चींकल की दुकान पर कम ही जाते थे और जो कुछ चाहिए होता था वो तीसरी मंजिल के छज्जे से आवाज़ लगा कर बोल देते थे और चींकल ले आता था । कई बार मैने उससे पूछने की कोशिश की कि वो तो अच्छे घर का लगता है फिर ये चाय बेचने का काम क्यों करता है ? पर वो हर बार टाल जाता था । एक दिन जब करीब सुबह के 11 बजे मैं अपने केंद्र जा रहा था तो चींकल ने आवाज़ लगायी और बोला ‘भईया मेरी बीवी ने आज छोले चावल बनाये है आ जाओ थोड़े थोड़े खा लेते है’ मैने काफी मना किया पर वो नहीं माना और टिफिन के ढक्कन में मेरे लिए भी थोड़े से छोले चावल कर दिए मैने खा लिए । छोले चावल बहुत ही स्वादिष्ट बने थे ।

उस दिन मैं बहुत थक गया था हमारे कंप्यूटर केंद्र में मैं नयी तकनीक में प्रोग्रामिंग सीख रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रहा थी तो शाम के करीब 6 बजे जब मैं निराश और थक कर कमरे पर वापस जा रहा था तो मैंने देखा की चींकल की दुकान के पास कुछ लोग खड़े है तीन चार लोग उसे पीटते जा रहे थे और दो लड़के उसकी चाय की टपरी का सामान तोड़ रहे थे । पास ही में राजेंद्र चाय वाला खड़ा हुआ हंस रहा था मैं समझ गया की ये सब राजेंद्र चाय वाला ही करवा रहा था । मैं कुछ बोलने वाला ही था कि  राजेंद्र चाय वाले ने मेरी तरफ घूर कर देखा और मैं डर गया । चींकल ने मुझे आवाज़ भी लगायी ‘आशीष भईया’ पर मैं अनसुना कर के आगे निकल गया और अपने कमरे में जाने के लिए इमारत में घुस गया । पता नहीं क्यों मैं डरपोक बन गया था अगली सुबह वहाँ जहाँ पर चींकल की चाय की दुकान हुआ करती थी उसके कुछ अवशेष पड़े थे मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे । चींकल द्वारा खिलाये हुए घर के बने छोले चावल शायद मैं आज भी नहीं पचा पाया हूँ ।

रस : करुण

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #2 ☆ औरत की ज़िन्दगी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।   साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “औरत की ज़िन्दगी ”। 

 

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #2 ☆

 

☆ औरत की ज़िन्दगी ☆

 

औरत की ज़िन्दगी

कोल्हू के बैल की मानिंद

खूंटे से बंधी गुज़रती

उसके चारों ओर

चक्कर लगाती

वह युवा से

वृद्ध हो जाती

 

बच्चों की

किलकारियों से

घर-आंगन गूंजता

परन्तु वह सबके बीच

अजनबी-सम रहती

और उसके रुख्सत

हो जाने के पश्चात्

एकसूत्रता की डोर टूट जाती

 

घर मरघट-सम भासता

जहां उल्लू

और चमगादड़ मंडराते

वहां बिल्ली,कुत्तों

व अबाबीलों के

रोने की आवाज़ें

मन को उद्वेलित कर

सवालों और संशयों के

घेरे में खड़ा कर जातीं

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दुसरा #2 – ?? पर्यावरण नाते. ….!  ?? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज संस्कृतिसाहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प दुसरा – पर्यावरण नाते  ….!” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प दुसरा #-2 ☆

 

?? पर्यावरण नाते. ….!  ??

 

व्यक्ती  आणि निसर्गाचे, नाते कळी नी फुलांचे .

कधी होई पारिजात,  कधी पुष्प बकुळीचे . . . !

 

एका एका बिजापोटी, कुणी सर्वस्व वाहते.

कळी मरता मरता,  तिथे फूल जन्मा येते.

 

अन्न, वस्त्र, निवार्‍याचा , निसर्गाने दिला हात.

दान द्यावे, दान घ्यावे, रूजविले अंतरात. . . . !

 

जीवनाच्या वावरात,  सुखदुःख रेलचेल.

होई मौसमी वार्‍याने, उरामध्ये घालमेल. . . . !

 

रंग ढंग जीवनाचे, दुःख, दैन्य सहायचे.

मातीतून जन्मायाचे,मातीमध्ये मरायचे. . . . !

 

व्यक्ती आणि निसर्गाची, वाट चुकलेली वारी

जीवनाच्या फांदीसवे, घेती आकाश भरारी. . . . !

 

कधी वास्तवाचे जग, कधी नभ कल्पनेचे.

होई काळीज कागद, सूत जुळता दोघांचे. . . !

 

पाणी अडवा, जिरवा, झाडे लावा नी जगवा

समतोल सांभाळाया,नाते नाजूक फुलवा. . . . !

 

आसवांची झाली शाई, होता नात्यांची पेरण .

वसुंधरेच्या भाळाला,भावफुलांचे तोरण. . . !

 

कळी काय, फूल काय,एकमेकां जपायचे

पर्यावरणीय मेळ,सांधताना फुलायचे. . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

Please share your Post !

Shares
image_print