मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 188 ☆ माझे बापण… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 188 ? 

☆ माझे बापण ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(अष्टअक्षरी )

माझे बालपण आता,

नाही येणार हो पुन्हा

पुन्हा रडतांना मग,

नाही फुटणार पान्हा.!!

*

नाही फुटणार पान्हा,

आई आता नाही आहे

सर्व दिसते डोळ्याला,

तरी कुठे कमी राहे.!!

*

तरी कुठे कमी राहे,

बाप सुद्धा माती-आड

बोटं धरून चालावे,

प्रेम केले जीवापाड.!!

*

प्रेम केले जीवापाड,

त्याची सय आता येते

छत हे कोसळतांना,

मज पोरके भासते.!!

*

मज पोरके भासते,

आई-बाप नसतांना

त्यांचे छत्र शीत शुद्ध,

त्यांची स्मृती लिहितांना.!!

*

त्यांची स्मृती लिहितांना,

शब्द हे अडखळती

कवी राज दुःख करी,

अशी निर्मळ ही प्रीती.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 256 ☆ कथा-कहानी – पहचान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘पहचान’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ कथा कहानी ☆ पहचान

मिस्टर टी.पी. त्रिवेदी या तेज प्रकाश त्रिवेदी अब एक रिटायर्ड अफसर हैं। रिटायरमेंट के साथ ही ‘मिस्टर टी.पी. त्रिवेदी’ की खनक खत्म हो गयी और अब वे ‘त्रिवेदी साहब’ रह गये। रिटायरमेंट के बाद पुराने रोब-दाब की यादें थप्पड़ जैसी लगती हैं।

रिटायरमेंट के बाद लोगों के चेहरे कैसे बदल जाते हैं। आसपास मंडराते हुजूम एकदम छंट जाते हैं, जैसे कोई प्रवंचना थी जो मंत्र पढ़ते ही समाप्त हो गयी। दिन भर घर पर मत्था टेकने वाले, भेंटें लेकर आने वाले लोग जैसे किसी जादू से एकाएक ग़ायब हो जाते हैं। सड़क पर मिलते भी हैं तो उनकी नज़र रिटायर्ड आदमी के शरीर से बाहर निकल जाती है, देखकर भी देखना ज़रूरी नहीं समझते। सारे संबंध अपने असली, निर्मम रूप में आ जाते हैं, तटस्थ और व्यवहारिक। रह जाता है अकेलापन और किसी फिल्म की तरह सामने से तेज़ी से गुज़रती, बदलती हुई दुनिया।

रिटायरमेंट के बाद दिन बहुत लम्बे हो जाते हैं। बुढ़ापे में वैसे ही जल्दी आंख खुल जाने और देर से नींद आने के कारण दिन लम्बा हो जाता है, फिर काम से अवकाश दिन को और लम्बा कर देता है। त्रिवेदी जी सवेरे घूमने निकल जाते हैं, आधे घंटे पूजा कर लेते हैं। शाम को भी टहल लेते हैं। फिर भी वक्त भारी लगता है। शाम के घूमने के लिए वे निर्जन सड़कों को ही चुनते हैं क्योंकि व्यस्त सड़कों पर अब नमस्कार करने वाले कम मिलते हैं, उपेक्षा करने वाले ज़्यादा।

शास्त्री रोड पर जो मन्दिर है वहां शाम को अक्सर त्रिवेदी जी जाते हैं। आधा घंटा वहां गुज़ार लेने से उन्हें अच्छा लगता है। आसपास विश्वास और उम्मीद लिए बैठे या ध्यान में डूबे लोग, अगरबत्तियों की गंध, घंटी की टिनटिन— दृश्य सुखकर होता है। आस्था की बड़ी मज़बूत डोर से बंधीं, उसी के सहारे बड़ी-बड़ी मुश्किलों को झेलती स्त्रियां। त्रिवेदी जी को वह दूसरी ही दुनिया लगती है,खलबलाती हुई ज़िन्दगी से अलग।

लेकिन एक चीज़ त्रिवेदी जी को मन्दिर में चैन से नहीं बैठने देती। वह है जूतों की चिन्ता। जूते बाहर छोड़कर भीतर इत्मीनान से बैठना मुश्किल होता है। जूता-चोरी की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। लोग बताते हैं कि वहां आसपास कुछ फटेहाल लोग रहते हैं। उनके बच्चे भक्तों के जूते उड़ाने के चक्कर में घूमते रहते हैं, इसलिए लोगों को जूतों के मामले में सतर्क रहना पड़ता है। त्रिवेदी जी भी भरसक उपाय करते हैं। आजकल उन्होंने नया तरीका खोज लिया है। एक जूते को ढेर के एक कोने में और दूसरे को दूसरे कोने में रख देते हैं। इस तरह चोर को जल्दी जोड़ी चुराने में मुश्किल होती है। शायद इन्हीं तरकीबों की वजह से उनके जूते सुरक्षित रहे।

लेकिन एक दिन जिस चीज़ का डर था वह हो ही गयी। त्रिवेदी जी जूतों को उसी रणनीति से रखकर गये थे, लेकिन जब वे आधे घंटे बाद बाहर निकले तो जूते ग़ायब थे। इस छोर वाला भी और उस छोर वाला भी। लगता है चोर ने उन्हें जूते रखते वक्त देखा होगा, और उनकी चतुराई पर वह शायद बाद में हंसा भी हो। जो भी हो, त्रिवेदी जी के आठ सौ रुपये में खरीदे हुए, आठ महीने पुराने जूते ग़ायब थे, और त्रिवेदी जी बार-बार ढेर पर निगाह फेर रहे थे, जैसे उन्हें जूतों के खोने का भरोसा न हो रहा हो।

अन्ततः उन्होंने हार मान ली। कुछ हो भी नहीं सकता था। जूते की चोरी की रिपोर्ट पुलिस में करना हास्यास्पद लगता था। आये दिन की बात थी। पुलिस किस-किस के जूते ढूंढ़ती फिरे?

हताशा में एक क्षण के लिए एक गन्दा विचार भी आया कि क्यों न ढेर में से जूते का कोई दूसरा जोड़ा पांव में डाल लिया जाए। लेकिन त्रिवेदी जी ने शीघ्र ही अपने को इस घटिया खयाल से मुक्त कर लिया। बात नैतिक अनैतिक की नहीं थी। समस्या मध्यवर्गीय प्रतिष्ठा की थी। यदि किसी ने उन्हें जूता चुराते पकड़ लिया तो उम्र भर की कमाई इज्ज़त एक क्षण में सटक जाएगी। शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा। उससे बड़ी बात यह है कि उनके साथ-साथ पूरे खानदान की नककटाई होगी।

वे हार कर मन्दिर से निकल कर सड़क पर आ गये। नंगे पांव सड़क पर आते ही उनकी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ गयी।वे घर के भीतर भी पांव में चप्पल डाले रहते थे। कभी नंगे पांव चलना पड़ा तो पांव के नीचे की रेत मन में जाने कैसी गिजगिजाहट पैदा करती थी। शरीर के रोम खड़े हो जाते थे। अब नंगे पांव लम्बा रास्ता तय करना था।

पांव रखते ही रेत और छोटे-छोटे कंकड़ महसूस हुए। मुलायम तलवों में कंकड़ों की चुभन असहनीय लगी। वे पैरों को कुछ तिरछा रखते हुए बढ़े। आसपास बहुत से कांच के टुकड़े और कांटे दिखायी पड़ते थे। उन्हें लगता था कि ये सब उन्हीं के लिए हैं और उनके पांव में ज़रूर चुभेंगे। वे अक्सर इस रास्ते पर आते थे, लेकिन उन्हें इतने सारे कांच और कांटे कभी नहीं दिखे। उनकी नज़र बराबर ज़मीन पर ही गड़ी हुई थी।

उनका मन हुआ कि रिक्शा ले लें, लेकिन उधर रिक्शे बहुत कम थे। मन्दिर के सामने दो रिक्शे ज़रूर खड़े थे, लेकिन लौटने वाले थे। आगे दूर तक कोई रिक्शा दिखायी नहीं पड़ता था।

आगे बढ़ने पर आबादी शुरू हो गयी। उन्हें दो रिक्शे और मिले, लेकिन एक तो उनके रोकने से रुका ही नहीं और दूसरे ने इतने ज़्यादा पैसे मांगे कि वे चुप हो गये। आबादी शुरू होने के साथ वे जूतों के बिना बेहद असमंजस महसूस कर रहे थे। उन्हें लगता था जैसे उनका कद चार छः इंच छांट दिया गया हो। मुंह उठाकर रिक्शों को देखने के बजाय उन्हें सिर झुका कर चलना ज़्यादा सुरक्षित लग रहा था। सिर उठाने पर परिचित चेहरे नज़र आते थे। इस वक्त उन्हें लग रहा था जैसे सब उनके परिचित हैं और सब उन्हें कौतूहल से देख रहे हैं।

थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ खत्री की किताब की दूकान पड़ी। यहां से उनके घर के बच्चे पढ़ने के लिए किराये पर पत्रिकाएं ले जाते थे। वह उन्हें जानता था। उन्होंने बिना आंखें उठाये कनखियों से देख लिया कि खत्री दूकान पर था। वे सिर झुकाए, अपनी गति तेज़ करके आगे बढ़ गये। चलते-चलते उन्हें दूकान से किसी का स्वर सुनायी पड़ा— ‘रिटायर होने के बाद लोगों की क्या हालत होती है, उधर देखो।’

उन्हें लग रहा था कि सड़क बहुत लम्बी हो गयी है। वे अपनी समझ से घंटों चल चुके थे, लेकिन जब उन्होंने नज़र उठा कर देखा तो सामने ‘प्रदीप मिष्ठान्न भंडार’ था, यानी वे मुश्किल से एक किलोमीटर चले थे।

थोड़ा और बढ़ने पर उन्हें किसी ने आवाज़ दी। देखा, सक्सेना साहब थे। उनके पांव की तरफ इशारा करके बोले, ‘यह क्या है? नंगे पांव कैसे?’

त्रिवेदी जी ने फीकी हंसी हंसकर जवाब दिया, ‘जूते मन्दिर में चोरी हो गये।’

सक्सेना साहब ज़ोर से हंसे— ‘वही तो। मुझे तो देख कर चिन्ता हो गयी कि आप कहीं सनक तो नहीं गये।आजकल बहुत खराब ज़माना है। मेरे दोस्त प्रेमशंकर का जवान लड़का दस बारह दिन पहले एकाएक सनक गया। घर में रहता ही नहीं। इधर-उधर घूमता रहता है। न कपड़ों की चिन्ता, न खाने पीने की। इसीलिए आपको देखकर मैं घबरा गया। सोचा, कहीं ऐसा ही कुछ न हो।’

इसी समय एक रिक्शा बाज़ू से गुज़रा और त्रिवेदी जी ने उसे रोक लिया। घर अब मुश्किल से आधा किलोमीटर दूर था, लेकिन वे बीस रुपये देने को राज़ी हो गये। रिक्शे पर बैठते हुए उन्होंने वैसी ही राहत महसूस की जैसी रास्ते में एकाएक बीमार हो जाने वाले को घर लौटने के लिए कोई वाहन मिल जाने पर होती है। वे बहुत थकान महसूस कर रहे थे। यह थकान शारीरिक कम और मानसिक ज़्यादा थी। उन्हें लगा जैसे सारे रास्ते उन पर एक बहुत बड़ा बोझ लदा रहा हो।

घर में घुसते ही पूछताछ शुरू हुई। सब ने अफसोस ज़ाहिर किया, लेकिन सबको चर्चा के लिए एक विषय भी मिल गया। घर के लोग अपने दोस्तों के बीच बताते हैं, ‘यार, कल मन्दिर में किसी ने पिताजी के जूते पार कर दिये। क्या ज़माना है!’ सुनने वाला भी कोई किस्सा निकालता है। फिर किस्से में किस्सा जुड़ता जाता है। वक्त कट जाता है।

त्रिवेदी जी ने घर में घुसकर जैसे बड़ी मुसीबत से मुक्ति पायी। सड़क पर उन्हें लग रहा था जैसे जूते खोने के साथ समाज में उनकी पहचान गड़बड़ा गयी हो। समाज के साथ उनका समीकरण उलट-पलट हो गया हो। अब घर लौटने के बाद वे फिर आश्वस्ति महसूस कर रहे थे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 256 – उड़ जाएगा हंस अकेला… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 256 उड़ जाएगा हंस अकेला… ?

आनंदलोक में विचरण कर रहा हूँ। पंडित कुमार गंधर्व का सारस्वत कंठ हो और दार्शनिक संत कबीर का शारदीय दर्शन तो इहलोक, आनंदलोक में परिवर्तित हो जाता है। बाबा कबीर के शब्द चैतन्य बनकर पंडित जी के स्वर में प्रवाहित हो रहे हैं,

उड़ जाएगा हंस अकेला

जग दर्शन का मेला…!

आनंद, चिंतन को पुकारता है। चिंतन की अंगुली पकड़कर विचार हौले-हौले चलने लगता है। यह यात्रा कहती है कि ‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। लौटना ही पड़ता है क्योंकि मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं।

विचार अब चलना सीख चुका। उसका यौवनकाल है। उसकी गति अमाप है। पलक झपकते जिज्ञासा के द्वार पर आ पहुँचा है।  जिज्ञासा पूछती है कि महात्मा कबीर ने ‘हंस’ शब्द का ही उपयोग क्यों किया? वे किसी भी पखेरू के नाम का उपयोग कर सकते थे फिर हंस ही क्यों? चिंतन, मनन समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं। मनीषी अविरत चिंतन में डूबे होते हैं। समष्टि के हित का भाव ऐसा, सात्विकता ऐसी कि वे मुमुक्षा से भी ऊपर उठ जाते हैं। फलत: जो कुछ वे कहते हैं, वही विचार बन जाता है। अपने शब्दों की बुनावट से उपरोक्त रचना में द्रष्टा कबीर एक अद्वितीय विचार दे जाते हैं।

विचार कीजिएगा कि हंस सामान्य पक्षियों में नहीं है। हंस श्वेत है, शांत वृत्ति का है। वह सुंदर काया का स्वामी है। आत्मा भी ऐसी ही है, सुंदर, श्वेत, शांत, निर्विकार। हंस गहरे पानी में तैरता है तो हज़ारों फीट ऊँची उड़ान भी भरता है। आकाशमार्ग की यात्रा हो अथवा वैतरणी पार करनी हो, उड़ना और तैरना दोनों में कुशलता वांछनीय है।

हंस पवित्रता का प्रतीक है। शास्त्रों में हंस की हत्या, पिता, गुरु या देवता की हत्या के तुल्य मानी गई है।

हंस विवेकी है। लोकमान्यता है कि दूध में जल मिलाकर हंस के सामने रखा जाए तो वह दूध और जल का पृथक्करण कर लेता है। संभवत:  ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ मुहावरा इसी संदर्भ में अस्तित्व में आया। हंस के नीर-क्षीर विवेक का भावार्थ है कि स्वार्थ, सुविधा या लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु अपनी बुद्धि, मेधा, विचारशक्ति के माध्यम से उचित, अनुचित को समझना। मनुष्य जब भी कुछ अनुचित करना चाहता है तो उसे चेताने के लिए उसके भीतर से ही एक स्वर उठता है। यह स्वर नीर-क्षीर विवेक का है, यह स्वर हंस का है। हंस को माँ सरस्वती के वाहन के रूप में मिली मान्यता अकारण नहीं है।

कारणमीमांसा से उपजे अर्थ का कुछ और विस्तार करते हैं। दिखने में हंस और बगुला दोनों श्वेत हैं। मनुष्य योनि हंस होने की संभावना है। विडंबना है कि इस संभावना को हमने गौण कर दिया है।  हम में से अधिकांश बगुला भगत बने जीवन बिता रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बगुला भगतों की भरमार है। हंस होने की संभावना रखते हुए भी भी बगुले जैसा जीना, जीवन की शोकांतिका है।

मनुष्य को बुद्धि का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते ही वह नीर-क्षीर विवेक का स्वामी है। विवेक होते हुए भी अपनी सुविधा के चलते ढुलमुल मत रहो। स्पष्ट रहो। सत्य-असत्य के पृथक्करण का साहस रखो। यह साहस तुम्हें अपने भीतर पनपते बगुले से मुक्ति दिलाएगा, तुम्हारा हंसत्व निखरता जाएगा। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास जब महाभारत का वर्णन करते हैं तो पांडवों का उदात्त चरित्र उभरता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे पांडवों के प्रवक्ता हैं। सनद रहे कि महर्षि वेदव्यास सत्य के प्रवक्ता हैं।

अपनी एक कविता स्मृति में कौंध रही है,

मेरे भीतर फुफकारता है

काला एक नाग,

चोरी छिपे जिसे रोज़ दूध पिलाता हूँ,

ओढ़कर चोला राजहंस का

फिर मैं सार्वजनिक हो जाता हूँ…!

दिखावटी चोले के लिए नहीं अपितु उजला जीवन जिओ अपने भीतर के हंस के लिए। स्मरण रहे, वह समय भी आएगा जब हंस को उड़ना होगा सदा-सर्वदा के लिए। इस जन्म की अंतिम उड़ान से पहले अपने हंस होने को सिद्ध कर सको तो जन्म सफल है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः। 🕉️

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 203 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 203 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 203) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 203 ?

☆☆☆☆☆

इस सफ़र में

नींद ऐसी खो गई

हम न सोए

रात थक कर सो गई …

☆☆

In this sojourn of life…

Lost sleep like this

Never could I sleep

Tired night only slept off…

☆☆☆☆☆

हर रोज़ ख़ुद पे ही बहुत…

हैरान बहुत होता हूँ मैं

कोई तो है मुझ में  जो…

बिल्कुल ही जुदा है मुझ से…!

☆☆

Everyday  I  keep  getting

too  surprised  on  myself…

There’s someone in me who’s

completely different from me…

☆☆☆☆☆

सारी उम्र गुजर गयी……

खुशियाँ बटोरते बटोरते

बाद में पता चला कि

खुश तो वो लोग थे जो खुशियाँ बाट रहे थे…

☆☆

Whole life passed away in

Picking up  the  happiness…

Only to find happy were those

Who kept sharing happiness..!

☆☆☆☆☆

कौन कहता है कि

दिल सिर्फ सीने में होता है…

तुमको लिखूँ तो

मेरी उँगलियाँ भी धड़कती हैं…

 ☆☆

Who says that

Heart is in chest only

My fingers also throb

When I write to you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 467 ⇒ हरतालिका तीज ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरतालिका तीज।)

?अभी अभी # 467 हरतालिका तीज? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज गणेश चतुर्थी है, कल हरतालिका थी। बचपन में हम इसे हड़ताली तीज कहते थे, क्योंकि इस दिन घर में महिलाओं की खाने पीने की छुट्टी रहती थी। हमारे भारतवर्ष में, वर्ष भर में इतने व्रत उपवास और तीज त्योहार होते हैं कि शायद ही कोई दिन खाली जाता होगा।

कुछ विशेष दिनों को छोड़कर मुझे याद नहीं रहता, आज कौन सी तिथि है। यही हाल हमारी धर्मपत्नी जी का है, उन्हें सभी तिथि, वार और त्योहार तो कंठस्थ हैं, लेकिन अगर पूछा जाए, आज तारीख क्या है, तो वे अखबार की ओर नजरें दौड़ाती हैं। ।

वार त्योहार और तिथि का तो यह हाल है कि आप बस गिनते जाओ गिनती की तरह। गुड़ी पाड़वा, भाई दूज, सातोड़ी तीज, गणेश चतुर्थी, कभी नागपंचमी तो कभी ऋषि पंचमी, बैंगन छठ, सीतला सप्तमी, जन्माष्टमी, विजया दशमी, डोल ग्यारस/देव उठनी ग्यारस, बज बारस, धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, और गुरु/बुद्ध पूर्णिमा अथवा सर्व पितृ अमावस्या। मजाल है एक तिथि खाली छूट जाए। किसी का आज श्रावण सोमवार, किसी का मंगलवार तो किसी का बुधवार का व्रत। गुरुवार को एक टाइम, शुक्र है शुक्रवार बच गया। फिर शनिवार का व्रत। एकादशी कैसे भूल सकते हैं। बस, संडे ही ऑफ समझिए।

यों तो महिलाओं के लिए सभी त्योहार और व्रत उपवास महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन करवा चौथ और हरतालिका तीज की बात ही कुछ और है क्योंकि ये दोनों व्रत वे हमारे लिए करती हैं। हरतालिका व्रत तो कुंवारी कन्याएं भी कर सकती हैं ताकि उन्हें शिव जी जैसा पति मिल सके। पुरुष को सब कुछ पका पकाया ही मिल जाता है।

उसे अच्छी पत्नी पाने के लिए इतने पापड़ नहीं बेलने पड़ते। ।

निर्जला व्रत किसे कहते हैं, बाप रे !आदमी का तो गुटका नहीं छूटता, वह क्या व्रत करेगा। इसे कहते हैं व्रत और निष्ठा ! विष्णु भगवान का ऑफर ठुकरा दिया पार्वती जी ने, शिव जी को पाने के लिए। बात वही, लेकिन इसमें गूढ़ अर्थ है, आप नहीं समझोगे। दिल लगा जब शिव जी से, तो विष्णु जी क्या चीज हैं। यहां तो पुरुष सिर्फ दहेज का माल देखता है, वह क्या समझे, गुण क्या चीज होती है।

आज एक आदर्श पुरुष नारी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर व्रत उपवास भले ही कर ले, उनके साथ हरतालिका और करवा चौथ का व्रत भी रख ले, फिर भी उसकी निष्ठा और समर्पण में वह बात नहीं जो एक भारतीय नारी में है। इतना धर्मपरायण पुरुष नहीं हो सकता कि रात भर गीत गाता हुआ जागरण करे। उसे नौकरी धंधे भी संभालना है। उसका कंधा बड़ा है, भले ही पत्नी better half हो। ।

पुरुष इतना लालची है कि जब वह इश्वर को अपने जप तप से प्रसन्न कर लेता है तो वरदान में धन, संपत्ति और औलाद मांगता है, जब कि स्त्री इतनी आत्म संतुष्ट होती है, कि ईश्वर से वह, और कुछ नहीं, बस एक अच्छा वर मांगकर ही संतुष्ट हो लेती है। मांग के साथ तुम्हारा, मैने मांग लिया संसार। अब तो मांग भरो सजना।

पुरुष की अपेक्षाओं का कोई अंत नहीं। उसे तो अपनी होने वाली वधू में भी एक सर्वगुण सम्पन्न स्त्री की तलाश होती है।

हमें भी अपनी होने वाली धर्मपत्नी से कई आशाएं, अपेक्षाएं और अरमान थे। हम चाहते थे, उसके भी कुछ सपने हों, अरमान हों, अपने पति से भी कुछ अपेक्षाएं हों।

इसी उद्देश्य से जब हमने विवाह से पहले उनके सपनों, अरमानों और लक्ष्य के बारे में जानकारी ली, तो उनका एक ही जवाब था, मेरा तो जीवन का एक ही सपना है, मुझे एक अच्छा पति मिल जाए बस। हम समझ गए, तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा और तुम्हीं देवता वाला मामला है यह तो। समर्पण नहीं, टोटल सरेंडर। दिल के अरमाॅं (खुशी के?) आंसुओं में घुल गए। ।

अगर हमारी महिलाएं इतनी धार्मिक और पतिव्रता नहीं हों, तो बेचारे संत महात्माओं के कथा प्रवचन कौन सुने। शिव कथा, भागवत कथा, अथवा नानी बाई का मायरा, श्रोता अधिकतर महिलाएं ही होती हैं। कहीं कहीं तो सास बहू एक साथ भी देखी जा सकती हैं।

पुरुष जैसा भी हो चलेगा।

बस संसार ऐसा ही चलना चाहिए। बेहतर की उम्मीद पुरुष से ही की जा सकती है। नारी ने तो घर के बाहर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध ही नहीं कर दी, अपना लोहा भी मनवा लिया है। आधुनिकता की कितनी भी हवा बह ले, वह एक भारतीय नारी के आदर्श, संस्कार, और समर्पण को कम नहीं कर सकती। गृहस्थी की गाड़ी दो पहिये पर ही चलेगी, चाहे घर में साइकिल हो अथवा चार पहिये का वाहन। निष्ठा और समर्पण ही भारतीय नारी का वास्तविक आभूषण है, अनमोल गहना है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 203 ☆ सॉनेट – याद… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – याद…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 203 ☆

सॉनेट – याद ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

याद झुलाती झूला पल पल श्वासों को,

पेंग उठाती ऊपर, नीचे लाती है,

धीरज रस्सी थमा मार्ग दिखलाती है,

याद न मिटने देती है नव आसों को।

याद न चुकने-मिटने देती त्रासों को,

घूँठ दर्द के दवा बोल गुटकाती है,

उन्मन मन को उकसाती हुलसाती है,

याद ऊगाती सूर्य मिटा खग्रासों को।

याद करे फरियाद न गत को बिसराना,

बीत गया जो उसे जकड़ रुक जाना मत,

कल हो दीपक, आज तेल, कल की बाती।

याद बने बुनियाद न सच को ठुकराना,

सुधियों को संबल कर कदम बढ़ाना झट,

यादों की सलिला, कलकल कल की थाती।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

शुक्रवार, १२ अप्रैल, २०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “लघुकथा वामन के पांव जैसी !” – श्री कमलेश भारतीय ☆ साक्षात्कारकर्ता – श्री नेतराम भारती ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4। यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार। हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष। दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “लघुकथा वामन के पांव जैसी !” – श्री कमलेश भारतीय ☆ साक्षात्कारकर्ता – श्री नेतराम भारती  

(श्री नेतराम भारती जी की “लघुकथा – चिंतन और चुनौतियाँ”  साक्षात्कार शृंखला की 26वीं कड़ी में प्रस्तुत है आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य के शुरुआती दौर से अविश्रांत पथिक सदृश, लघुकथा साहित्य को समृद्ध करते चले आ रहे वरिष्ठ लघुकथाकार श्री कमलेश भारतीय जी से परिचर्चा) 

नेतराम भारती :- सर! लघुकथा आपकी नजर में क्या है लघु कथा को लेकर बहुत सारी बातें जितने स्कूल उतने पाठ्यक्रम वाली स्थिति है यदि नव लघु कथाकार के लिए सरल शब्दों में आपसे कहा जाए तो आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे ?

कमलेश भारतीय :- मेरी लघुकथा के बारे में इतनी सी राय है कि यह बिजली की कौंध‌ की तरह एकाएक चमकती है और जानबूझकर विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए। यहां तक पाठ्यक्रम जैसी बात है तो मेरा या आठवें दशक तक के किसी भी लघु कथाकार का कोई पाठ्यक्रम नहीं था। हमें एकलव्य की तरह खुद ही अपनेआप से जूझना पड़ा और अब अगर मैं दिये गये या बनाये गये पाठ्यक्रम से लिखना चाहूं तो बुरी तरह खराब लघुकथा लिखूं। नहीं, मैं वही एकलव्य ठीक हूँ। अपना रास्ता खुद खोजता रहूं।

श्री नेतराम भारती

नेतराम भारती :- लघुकथा विधा में आपकी विशेष रुचि कब और कैसे उत्पन्न हुई?

कमलेश भारतीय :- लघुकथा में रूचि आठवें दशक की शुरुआत में सन् 1970 में ही हो गयी थी जब ‘प्रयास’ अनियतकालीन पत्रिका का प्रकाशन-संपादन शुरू किया। इसी के अंकों में मेरी पहली पहली लघुकथायें-किसान, सरकार का दिन और सौदा आदि आईं। प्रयास का दूसरा ही अंक लघुकथा विशेषांक था, जो संभवत : सबसे पहला लघुकथा विशेषांक या बहुत पहले विशेषांकों में एक है, जिसकी चर्चा सारिका की नयी पत्रिकाओं में भी हुई और यह विशेषांक चर्चा में आ गया। बाद में मैंने दस वर्ष सुपर ब्लेज़ (लखनऊ) मासिक पत्रिका का संपादन किया और फिर दैनिक ट्रिब्यून में उप संपादक रहते समय सात वर्ष कथा कहानी पन्ने का संपादन किया। इसी प्रकार कथा समय का संपादन तीन वर्ष तक किया। और मेरी रूचि निरंतर लघुकथा में बढ़ती ही गयी।

नेतराम भारती :- लघुकथा, कहानी और उपन्यास के बीच क्या अंतर है, आपके दृष्टिकोण से ?

कमलेश भारतीय :- वैसे ये अंतर वाली बातें बहुत पीछे छूट चुकी हैं। उपन्यास बृहद जीवन कथा तो कहानी एक घटना, भाव का कथन और लघुकथा वामन के पांव जैसी ! ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगें, घाव करे गंभीर।

नेतराम भारती :- एक लघुकथा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व आप किसे मानते हैं ?

कमलेश भारतीय :- सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात कि आप कहना क्या चाहते हैं, उसका ट्रीटमेंट कैसा किया ? कहने-सुनने में अच्छा पर ट्रीटमेंट में फेल तो क्या करेगी लघुकथा ? संदेश क्या है ? छोटे पैकेट में बड़ा धमाका चाहिए लघुकथा में।

नेतराम भारती :- आजकल देखने में आ रहा है कि लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है। अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है। कह सकते हैं कि जिस प्रकार एक नाटक में उसका रंगमंच निहित होता है उसी प्रकार एक लघुकथा में भी उसके कथ्य, उसके शिल्प में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है। मैं छोटी बनाम लंबी लघुकथाओं की बात कर रहा हूंँ। आप इसे किस रूप में देखते हैं ?

कमलेश भारतीय :- लघुकथा का आकार जितना लघु हो सके, होना चाहिए, , यही तो इसकी लोकप्रियता का आधार है। संवाद शैली में रंगमंच का आभास होता है और ऐसी लघुकथाओं का पाठ बहुत मज़ेदार और लोकप्रिय रहता है। छोटी बनाम लम्बी कोई लघुकथा का विभाजन सही नहीं। लघुकथा बस, लघुकथा है और होनी चाहिए।

नेतराम भारती :- क्या लघुकथा साहित्य में वह बात है कि वह एक जन आंदोलन बन जाए अथवा क्या वह समाज को बदल सकने में सक्षम है?

कमलेश भारतीय :- कोई विधा जनांदोलन नहीं बन सकती। निर्मल वर्मा का कहना सही है कि साहित्य क्रांति नहीं कर सकता बल्कि विचार बदल सकता है। वही काम साहित्य की हर विधा करती है। यह भ्रम है। साहित्य मानसिकता बदलता है, राजपाट नहीं बदलता।

नेतराम भारती :- सर ! गुटबाजी और खेमेबाजी की बातें कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर आजकल कर रहा है। मैं आपसे सीधे-सीधे पूछना चाहता हूं क्या वास्तव में आज लघुकथा में खेमे तन गए हैं ?

कमलेश भारतीय :- लघुकथा भी राजनीति की तरह गुटबाजी की बुरी तरह शिकार है, यह कहने में संकोच नहीं लेकिन मेरा कोई गुट नहीं, न मैं किसी के गुट हूँ। मैं लघुकथा के साथ हूँ, यही मेरा गुट है।

नेतराम भारती :- वर्तमान लघुकथा में आप क्या बदलाव महसूस करते हैं ?

कमलेश भारतीय :- बदलाव तो संसार का, प्रकृति का नियम है और लघुकथा इससे अछूती नहीं। लघुकथा में नित नये विषय आ रहे हैं। अब तो थर्ड जेंडर पर भी लघुकथा संग्रह आ रहे हैं तो पुलिस पर भी। अब जो जैसे बदलाव कर सकते हैं, वे कर रहे हैं। ताज़गी बनी रहती है, नयापन बना रहता है।

नेतराम भारती :- आपको अपनी लघुकथाओं के लिए प्रेरणा कहाँ से मिलती है ?

कमलेश भारतीय :- शायद सबको साहित्य रचने की प्रेरणा आसपास से ही मिलती है। मैं भी निरंतर आसपास से लघुकथाओं की भावभूमि पाता हूँ। कोई बात चुभ जाये या फिर किसी का व्यवहार अव्यावहारिक लगे तो लघुकथा लिखी ही जाती है। प्रेरणा समाज है।

नेतराम भारती :- सर ! एक प्रश्न और सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघु कथाकारों के लिए कितना जरूरी है जरूरी है भी या नहीं क्योंकि कुछ विद्वान् कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनके लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली के प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है इस पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?

कमलेश भारतीय :- मेरी राय में पढ़ना चाहिए, मैंने पढ़ा है, पढ़ता रहता हूँ। बहुत प्रेरणा मिलती है। मंटो, जोगिंदरपाल, विष्णु प्रभाकर, कुछ विदेशी रचनाकार जैसे चेखव सबको पढ़ना अच्छा लगता है, सीखने को मिलता है, कहने का सलीका आता है। प्रभावित होकर न लिखिये, सीखिये। बस। नकल तो सब पकड़ लेंगे।

नेतराम भारती :- क्या कोई विशेष शैली है जिसे आप अपनी लघुकथाओं में पसंद करते हैं ?

कमलेश भारतीय :- संवाद शैली बहुत प्रिय है और मेरी अनेक लघुकथायें संवाद शैली में हैं।

नेतराम भारती :- आपके अनुसार, एक अच्छी लघुकथा की विशेषताएं क्या होती हैं?

कमलेश भारतीय :- अच्छी लघुकथा वह जो अपनी छाप, अपनी बात, अपना संदेश पाठक को देने में सफल रहे।

नेतराम भारती :- लघुकथा लिखने की प्रक्रिया के दौरान आप किन चुनौतियों का सामना करते हैं ?

कमलेश भारतीय :- चुनौती यह कि जो कहना चाहता हूँ, वह कहा गया या नहीं ? यह कशमकश लगातार बदलाव करवाती है और जब तक संतुष्टि नहीं होती तब तक संशोधन और चुनौती जारी रहती है।

नेतराम भारती :- आपकी स्वयं की पसंदीदा लघुकथाओं में से कुछ कौन- सी हैं और क्यों ?

कमलेश भारतीय :- यह प्रश्न‌ बहुत सही नहीं। लेखक को सभी रचनायें अच्छी लगती हैं जैसे मां को अपने बच्चे। फिर भी मैं सात ताले और चाबी, किसान, और मैं नाम लिख देता हूं, चौराहे का दीया, पुष्प की पीड़ा, मेरे अपने, आज का रांझा, खोया हुआ कुछ, पूछताछ शाॅर्टकट, जन्मदिन, मैं नहीं जानता, ऐसे थे तुम ऐसी अनेक लघुकथायें हैं, जो बहुत बार आई हैं और प्रिय जैसी हो गयीं हैं। और भी हैं लेकिन एकदम से ये ध्यान में आ रही हैं।

नेतराम भारती :- भविष्य में आप किस प्रकार की लघुकथाएं लिखने की योजना बना रहे हैं ?

कमलेश भारतीय :- वही संवाद शैली और समाज व राजनीति पर लगातार चोट करती़ं लघुकथायें।

नेतराम भारती :- आपके पसंदीदा लघुकथाकार कौन-कौन हैं और क्यों ?

कमलेश भारतीय :- रमेश बतरा, मंटो, जोगिंदरपाल, चेखव, मोपांसा, विष्णु प्रभाकर, शंकर पुणतांबेकर आदि जिनकी रचना जहां मिले पढ़ जाता हूँ।

नेतराम भारती :- आपके अनुसार लघुकथा का क्या भविष्य है ?

कमलेश भारतीय :- भविष्य उज्ज्वल है। सारी बाधायें पार कर चुकी लघुकथा। संशय के बादल छंट चुके हैं।

नेतराम भारती :- अगर आपसे पूछा जाए कि उभरते हुए अथवा लघुकथा में उतरने की सोचने वाले लेखक को कुछ टिप्स या सुझाव दीजिए, तो एक नव-लघुकथाकार को आप क्या या क्या-क्या सुझाव देना चाहेंगे ?

कमलेश भारतीय :- वही, ज्यादा से ज्यादा पढ़िये और कम से कम, बहुत महत्त्वपूर्ण लिखिये। कोई सुझाव नहीं, सब महारथी ही आ रहे हैं। दूसरों से हटकर लिखिये, आगे बढ़िये, बढ़ते रहिये। शुभकामनाएं।

नेतराम भारती :- सर ! आज बहुतायत में लघुकथा सर्जन हो रहा है। बावजूद इसके, नए लघुकथाकार मित्र इसकी यात्रा, इसके उद्भव, इसके पड़ावों से अनभिज्ञ ही हैं। आपने प्रारंभ से अब तक लघुकथा की इस यात्रा को न केवल करीब से देखा ही बल्कि उसपर काफ़ी कुछ कहा और लिखा भी है। कैसे आँकते हैं आप इस यात्रा को ?

कमलेश भारतीय :- आठवें दशक से अब तक पचास वर्ष से ऊपर की लघुकथा की यात्रा का गवाह हूं। बहुत, रोमांच भरी रही यह यात्रा। पहले इसके नामकरण को लेकर खूब बवाल मचा। कोई अणु कथा, मिन्नी कथा तो कोई व्यंग्य को ही इसका आधार बनाने पर तुले रहे लेकिन इन सब झंझावातों से बच निकल करकर यह आखिरकार लघुकथा के रूप में अपनी पहचान बना पाई। बहुत से बड़े रचनकारों‌ ने इसे फिलर, स्वाद की प्लेट या फिर रविवारीय लेखन तक कह कर‌ नकारा लेकिन सब बाधाओं और बोल कुबोल‌ को सहती लघुकथा इस ऊंचे पायदान पर पहुंची है।

नेतराम भारती :- सर ! लघुकथा आज तेजी से शिखरोन्मुख हो रही है। उसकी गति, उसके रूप, उसके संस्कार और उसके शिल्प से क्या आप संतुष्ट हैं ?

कमलेश भारतीय :- संतुष्ट होना नहीं चाहिए, संतोष जरूर है। शिखरोन्मुख अभी नहीं। अभी आप देखिये, कुछ बड़े समाचारपत्र इसे अब भी प्रकाशित नही कर रहे। उनके वार्षिक विशेषांक भी इसे अछूत ही मानते हैं। अभी लघुकथा को ज़ोर‌ का झटका धीरे से लगाना बाकी है।

साक्षात्कारकर्ता – श्री नेतराम भारती  

साभार – श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा #138 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है पुस्तक “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास की समीक्षा)

📚 पुस्तक चर्चा # 137 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा 📚

पुस्तक समीक्षा : कृष्ण प्रयोजन

पुस्तक ; अच्छे होने की कठिनाई

(Difficulty being Good)

लेखक : गुरुचरण दास

समीक्षक : सुरेश पटवा

गुरुचरण दास (जन्म 3 अक्टूबर, 1943), एक भारतीय लेखक, टिप्पणीकार और सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं। वह “द डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ धर्म” के लेखक हैं जो महाभारत पर सवाल उठाता है कि “क्या हरेक स्थिति में अच्छा बना रहना कठिनाई पूर्ण नहीं होता है।”

लेखक महाभारत के कथानक की ओर मुड़ते हैं, और पाते हैं कि महाकाव्य की नैतिक अस्पष्टता और अनिश्चितता आज की दुनिया की संकीर्ण और कठोर वास्तविकता के कितने क़रीब है। इससे महाभारत का यह श्लोक सही सिद्ध होता है कि :-

जो यहाँ है वही अन्यत्र पाया जाता है।

जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है.

– महाभारत I.56.35-35

“अच्छा होने की कठिनाई पुस्तक धर्म की सूक्ष्मता पर” प्रसिद्ध भारतीय लेखक और राजनयिक गुरचरण दास की एक विचारोत्तेजक और व्यावहारिक पुस्तक है। प्राचीन भारतीय महाकाव्य महाभारत से सीख लेते हुए, लेखक सद्गुण और धार्मिकता की खोज में व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली जटिल नैतिक दुविधाओं और नैतिक चुनौतियों का पता लगाते हैं।

लेखक ने महाभारत के पात्रों और घटनाओं को एक लेंस के रूप में उपयोग करते हुए मानव व्यवहार और निर्णय लेने को आकार देने वाले रिश्तों, मूल्यों और आदर्शों के जटिल जाल की पड़ताल की, जिसके माध्यम से कर्तव्य, वफादारी, न्याय और प्रकृति जैसे सार्वभौमिक विषयों की जांच की जा सके। अपने अच्छे और बुरे का विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को अस्पष्टता, परस्पर विरोधी प्रेरणाओं और नैतिक धूसर क्षेत्रों से भरी दुनिया में नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं की गहन और सूक्ष्म समझ प्रदान करते हैं। जी कि कृष्ण के व्यक्तित्व का एक गूढ़ हिस्सा था।

लेखक आकर्षक कहानी और तीक्ष्ण विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को सही और गलत के बारे में अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करने और एक ऐसी दुनिया में अच्छा होने की अंतर्निहित कठिनाइयों से लड़ने की चुनौती देते हैं जो अक्सर धोखे, महत्वाकांक्षा और स्वार्थ को पुरस्कृत करती है। अंततः, “अच्छे होने की कठिनाई” नैतिकता, सदाचार और मानवीय स्थिति की एक सम्मोहक खोज प्रदान करती है, जो पाठकों को नैतिक उत्कृष्टता की खोज में अपने स्वयं के विश्वासों और कार्यों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करती है।

लेखक प्रत्येक पात्र की कहानी लेता है और उसकी व्याख्या इस प्रकार करता है कि प्रत्येक पात्र स्वयं अच्छा करने का प्रयास कर रहा है; जिस स्थिति में वे हैं, वे खुद को सही और गलत, अच्छे और बुरे के अपने मानकों के प्रति जवाबदेह मानते हैं, अंततः उन व्यक्तियों और समूहों के गुणों के रूप में उभरते हैं जिन्हें हम अपने आसपास देखते हैं।

प्रत्येक पात्र, सही होने की कोशिश करते हुए, और अपनी स्थिति को देखते हुए अपने स्वयं के नैतिक मानकों के अनुसार अच्छा बनने की कोशिश करते हुए, एक प्रकार के व्यक्तित्व के रूप में उभरता है; मैं यह नहीं कहूंगा कि वे आदर्श हैं। बल्कि वे लोग हैं, जो अलग-अलग समय में रहे होंगे, लेकिन उन्हीं चीज़ों से प्रेरित हैं जिनसे हमारे आस-पास के लोग प्रेरित होते हैं – ईर्ष्या, कर्तव्य की भावना, निराशा, निस्वार्थता, विजय, पराजय, छल और बदला।

पुस्तक “धर्म” की व्याख्या “एक जटिल शब्द के रूप में करती है जिसका अर्थ विभिन्न प्रकार से गुण, कर्तव्य और कानून है, लेकिन यह मुख्य रूप से सही काम करने से संबंधित है।” यह निश्चित रूप से यह सवाल उठाता है कि क्या एक सार्वभौमिक सत्य, सही और गलत का एक सार्वभौमिक उपाय, “धर्म” की एक सार्वभौमिक परिभाषा हो सकती है। इस बीच, दास एक परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। धर्म को उसकी अनुपस्थिति से पहचानना सबसे आसान है: महाभारत धर्म के विपरीत, अधर्म के माध्यम से धर्म के बारे में सिखाने की शैक्षणिक तकनीक का उपयोग करता है। महाभारत का हर चरित्र दुविधा में है, सिवाय कृष्ण और शकुनि को छोड़कर। शकुनि का लक्ष्य हस्तिनापुर का नाश करना है। वहीं कृष्ण का उद्देश्य हस्तिनापुर को मानव कल्याणकारी राज्य में बदलना है।

कृष्ण के चरित्र पर प्रश्न उठाए जाते हैं कि उन्होंने युद्ध में अधर्म का सहारा लिया। जैसे:-

  1. कुंती को कर्ण के पास भेजकर यह रहस्य उद्घाटन कराया कि वह पाण्डवों का भाई है। कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर बाक़ी चार भाइयों का न वध करने का वचन दे दिया। उसने बाक़ी चारों भाइयों को निशाने पर आने के बावजूद छोड़ दिया। इस बात पर उसका दुर्योधन से विवाद भी हुआ।
  2. कृष्ण जानते थे कि कवच कुंडल युक्त कर्ण अर्जुन से श्रेष्ठ यौद्धा है। उन्होंने अर्जुन के पिता इन्द्र को भिक्षुक बनाकर भेजा और कवच कुंडल उतरवा लिये। जो कि कर्ण का सबसे अहम रक्षा कवच था।
  3. कृष्ण ने अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने को द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा का स्वाँग रच सत्य पर अड़िग युधिष्ठिर के मुँह से आधा झूठ बुलवाया और आधा सच शंखों की ध्वनि में छुपाया।
  4. कृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध उस समय करवाया जब वे निरस्त्र होकर युद्ध भूमि पर निढाल ही बैठे थे। जबकि किसी निरस्त्र यौद्धा पर वार करना युद्ध के नियमों के विरुद्ध था।
  5. कृष्ण ने भीष्म पितामह का वध एक शिखंडी की आड़ में युद्ध करते हुए अर्जुन को सुरक्षित रखकर करवाया।
  6. कृष्ण ने कर्ण का युद्ध उस समय करवाया जब वह युद्ध भूमि में फँसे रथ के पहिये को निकाल रहा था जबकि निहत्थे पर अस्त्र चलाना नियम विरुद्ध था।
  7. कृष्ण ने अर्जुन के हाथों जयद्ररथ का वध सूर्य ग्रहण का प्रयोग करके करवाया।
  8. कृष्ण ने दुर्योधन का वध गदा युद्ध में कमर के नीचे नियम विरुद्ध गदावार से करवाया।

इस सभी का उत्तर मिलता है इसी पुस्तक में। महाभारत का आधार चार पुरुषार्थ के सिद्धांत पर रखा है अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष। महाकाव्य का आरंभ सृजन के हेतु “काम” से होता है। ऋषि पराशर के द्वारा धीवर कन्या सत्यवती से नाव में व्यास जी का जन्म, शान्तनु से गंगा देवी के संसर्ग से भीष्म पितामह का जन्म, विचित्र वीर्य की रानियों के व्यास जी के नियोग से धृष्टराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म, कुंती से सूर्य द्वारा कर्ण का जन्म, कुंती से धर्म, इंद्र और वायु देव द्वारा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम का जन्म और अश्विनीकुमारों द्वारा माद्रि से नकुल सहदेव का जन्म।

ग्रंथ का दूसरे हिस्से का कथानक “अर्थ” केंद्रित है। हस्तिनापुर का विभाजन न होकर इंद्रप्रस्थ का निर्माण, फिर ईर्ष्या द्वेष का नंगा खेल आरंभ होता है। जो सुई की नोक के बराबर भूमि के बराबर भी अर्थ का विभाजन स्वीकार नहीं करता है। युद्ध अपरिहार्य होता जाता है। द्रौपदी के शब्द, चीरहरण  और भीम की प्रतिज्ञा युद्ध निर्धारित कर देते हैं।

तीसरा कथानक “धर्म” पर आधारित है। भगवत्गीता का कर्मयोग एक निरंतर धर्म है। युद्ध निश्चित है तो संघर्ष करो। डिगो नहीं। उसके बाद मोक्ष का द्वार खुलेगा।

ग्रंथ की सबसे बड़ी सीख है कि पुरुष चतुष्टय भी समय के साथ बदलते रहते हैं। ब्रह्म के अलावा प्रत्येक चीज और सिद्धांत परिवर्तन शील है। धर्म भी अधर्म के अनुरूप उसे पस्त करने को रूप बदलता है।

असल महाभारत शकुनि और कृष्ण की विचारधाराओं के मध्य है। शकुनि की कूटनीतिक समझ है कि कृष्ण युद्ध में अधर्म का सहारा नहीं लेगा। युधिष्ठिर भी धर्म पुत्र है। राम के त्रेता युग से लेकर कृष्ण के द्वापर तक मनुष्यों का मस्तिष्क कूटनीति की बारीकियों से नीति निपुण हो चुका था। हृदय की शुद्धता कम होती जा रही थी। कृष्ण को यह कूटनीतिक समझ थी कि अधर्म को अधर्म से ही जीता जा सकता है। और अधर्म को परास्त करने हेतु अद्भुत तरीक़े धर्म के पक्ष में जाते हैं। मुख्य बात है धर्म युद्ध जीतना। युद्ध जीतने में स्थापित धर्म की मान्यताओं को धता बताकर नयी मान्यताएँ और परम्परायें स्थापित करना भी धर्म का एक अंग है।

एक घटना को लेते हैं। कृष्ण भीम को इशारा करते हैं कि गदायुद्ध में दुर्योधन की कमर के नीचे जंघा पर गदा से वार करे। जबकि गदायुद्ध के नियमों के अनुसार कमर के नीचे वार नहीं किया जाता। यह अधर्म है। लेकिन कृष्ण की दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति बुद्धि देखिए कि भरी सभा में किसी पराई स्त्री को नग्न करके जाँघ पर बिठाने के प्रयत्न भी घोर अधर्म है। उस अधर्म पर चोट करने हेतु जंघा पर गदा प्रहार भी धर्म हो जाता है। यानि धर्म की मान्यता भी समय के साथ रूप बदलती है। यहीं कृष्ण हमेशा प्रासंगिक हैं।

धर्म मानव कल्याण हेतू ‘व्यवस्थित अस्तित्व का अनुशासन’ हैं। हमारे पूर्वजों की दुनिया के विपरीत, जो काली और सफ़ेद थी, जहाँ अपना पेट भरने के लिए जानवरों को मारना ही जीने का एकमात्र तरीका था, जहाँ कोई नैतिक द्वंद्व नहीं था, हमारी दुनिया इस सवाल से भरी है कि क्या सही है और क्या गलत है। हम भूरे काल में रहते हैं, काले या सफेद रंग में नहीं। गुरचरण दास हमारे सामने मौजूद नैतिक दुविधाओं को कई आर्थिक घोटालों से परिचित कराते हुए समय के साथ बदलते धर्म की व्याख्या करते चलते हैं।

अच्छा बनने की कठिनाई से 5 मुख्य सबक

  1. अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलता और भ्रष्ट और अन्यायी दुनिया में नैतिक सिद्धांतों का पालन करने में व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों की जांच करती है।
  2. पुस्तक धर्म, या कर्तव्य की अवधारणा और व्यक्तियों द्वारा उनके नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों के अनुसार अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्व की पड़ताल करती है।
  3. लेखक, गुरचरण दास, भारतीय महाकाव्य, महाभारत में पात्रों द्वारा सामना की गई नैतिक दुविधाओं पर प्रकाश डालते हैं, और उनके कार्यों के उनके स्वयं के जीवन और दूसरों के जीवन पर परिणामों पर जोर देते हैं।
  4. अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं से निपटने के लिए आत्म-अनुशासन, संयम और करुणा, सहानुभूति और अखंडता जैसे गुणों को विकसित करने के महत्व पर जोर देती है।
  5. कुल मिलाकर, यह पुस्तक पाठकों को प्रलोभन, भ्रष्टाचार और नैतिक अस्पष्टता से भरी दुनिया में एक सदाचारी जीवन जीने की चुनौतियों के बारे में मूल्यवान सबक सिखाती है। यह व्यक्तियों को नैतिक उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने और ऐसे नैतिक विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित करता है जो उनके मूल्यों और विश्वासों के अनुरूप हों।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 129 ☆ गीत – मंजिल की फितरत है कि खुद चलकर नहीं आती है ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 130 ☆

गीत – मंजिल की फितरत है कि खुद चलकर नहीं आती है ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

मंजिल की फितरत है कि खुद चल कर नहीं आती है।

जो बहाता है पसीना बस यह उसको ही मिल पाती है।।

****

ऊंची नीची डगर पर   हमेशा लंबा ही    होता सफर है।

बस तू चलते रहना मत छोड़ जाना करकेअगर मगर है।।

छोटी सोच कभी  किसी को  भी जीत नहीं  दिलाती है।

मंजिल की फितरत है कि खुद चलकर नहीं आती है।।

****

जिनके इरादे मेहनत की   स्याही से ही लिखे जाते हैं।

वह किस्मत के पन्ने    कभी भी खाली नहीं   पाते हैं।।

आपकी मेहनत आपको सफलता का मंत्र बतलाती है।

मंजिल की फितरत है कि खुद चलकर नहीं आती है।।

***

अनुभव का निर्माण नहीं होता ये कर्म करके ही आता है।

जो चाहता है सीखना वो हर गलती से भी सीख जाता है।।

अंधेरे में भी रोशनी आपकी हिम्मत लगातार लाती है।

मंजिल की फितरत है कि खुद चलकर नहीं आती है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 193 ☆ सुखदाई वर्षा… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता – “सुखदाई वर्षा। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 193 ☆ सुखदाई वर्षा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

आती जब बरसात सुहानी

लेकर घन कारे कजरारे-

सदा उमगता आंनंद मन में

छाते हैं सपने रतनारे।

*

सावन ही सुखपुर बौछारें

 दु‌नियाँ को देती हरियाली

इन्द्रधनुष से दृश्य उभरते

छुप जाते नभ के सब तारे

*

 उड़‌ते दिखने बादल- बगुले

आसमान में पंख पसारे

बरसाते जाते है पानी

जो है जीवन प्राण हमारे।

*

नदी-जलाशय सब भर जाते

लोग खुशी में रमते-गाते

घर घर झूला डाल झुलाने

आते है त्यौहार हमारे

*

पर जब बाढ़ तेज बारिश का

वर्षा दुखद रूप दिखलाती

उससे होते कष्ट अनेकों

जन जीवन में सब घबराते

*

वर्षा जो देती है खुशियां

आकांक्षाओं को उपजाती

सदा उसी की प्रति नीति से

भारत का भंडार बढाती

*

कृषको के जीवन में कम वर्षा

या अतिवर्षा लाती बरबादी

सरल शांत संतोषी भारत

है समता सुविधा का आदी

*

बसुधा एक कुटुम्ब हमारा

 हम सबकी है यही भावना

सभी जिये सुख से निर्भय हो

सब की यही रही परिपाटी।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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