हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #264 – कविता – ☆ खबर उड़ी हम नही रहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता खबर उड़ी हम नही रहे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #264 ☆

☆ खबर उड़ी हम नही रहे…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(पिछले दिनों एक साथी के साथ घटी घटना से प्रेरित एक मुक्तछंद रचना)

यहाँ-वहाँ बात चली लगी भली

पर मौका चूक गए

खबर उड़ी, हम नहीं रहे।

रेडियो, टी.वी. सोशल मीडिया

अखबारों में

शहर-शहर गाँव और

गलियों बाजारों में

किंतु, कुछ देर बाद हो गया

इसका खंडन, जीवित है

आएँ न झूठी अफवाहों में

सूचना अधिकृत आयी

मरे नहीं रामदीन

बात यह अपुष्ट थी

क्षमा सहित खंडन मंडन करके

गलती दुरुस्त की

पर सारे घटनाक्रम से व्यथित

हमने जब खुद अपने को देखा

चेहरे पर आई दुख की रेखा

साबूत पा कर हमको ये लगा

सम्भवतः नियति भी रुष्ट थी।

 

सोचा, गर हम अभी चले जाते

इस जर्जर तन से मुक्ति पाते

फिर श्रद्धांजलियों के सागर में

हर्षित हो

पुण्यमयी डुबकियाँ लगाते

अपनी यश-कीर्ति पर

गर्वित हो इतराते, ऐसे में

सचमुच ही मरण शोक भूलकर

स्वर्गीय सुख को पाते।

मृत्यु के बाद अहो!

सुख का एहसास हुआ

अपने परायों

सबसे ही मिलती दुआ

मृत्यु पर्व पावन में

अगणित सी खुशियाँ

जो मिलना एक मुश्त थी

सम्भवतः नियति भी रुष्ट थी

 

सोचा, गर असल में ही

मृत्यु को पा लेते, योजना बना लेते

फिर लेते जन्म कहीं

नये देह आवरण को देख-देख

मन ही मन मुदित

कहीं पालने में किलकाते

शैशव में स्मृतियाँ होती अब की

याद कर इन्हें रोते-मुस्काते,

किंतु साध रह गई अधूरी सी

जाते-जाते फिर से रह गए

मायावी मोह पाश में

फिर से बँध गए

मन को समझाने में लगे रहे

पर कहाँ नियंत्रण में आता है

अपनी ही चाल चले जाता है

माया मृगतृष्णाएँ, इसके दायें बायें

उकसाती उलझाती

और अधिक जीने का

लालच दे भरमाती

भीतर में वर्षो से छिपी हुई

मन के द्वारा कल्पित

अंतर में लिखी हुई

इच्छाएँ  दुष्ट थी

सम्भवतः नियति भी रुष्ट थी।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 88 ☆ सपने सोये… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सपने सोये…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 88 ☆ सपने सोये… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

देहरी रोई

घर आँगन आँचल भीगा

छप्पर छानी तक रोये।

 

सिंहासन पर

बैठा राजा

जाँच रहा परचे

किसने कितनी

करी कमाई

खुशियों पर खरचे

किस्मत सोई

रातों में काजल भीगा

आँखों में सपने सोये।

 

डरा डरा सा

हर पल जीता

आशंकित जीवन

कब बँट जाये

गंगा जमुनी

तहजीबों का मन

नफरत बोई

नहीं कहीं बादल भीगा

राहों में काँटे बोये।

 

शिथिल बाजुओं

पर हैं साधे

शेष अशेष उमर

जीता मरकर

घटनाओं में

घायल पड़ा शहर

पीर निचोई

दर्दों में पल पल भीगा

किसने किसके दुख धोये।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समानांतर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – समानांतर ? ?

समानांतर चले

पर समानांतर में भी

कितना अंतर रहा,

उसने मेरा लिखा पढ़ा,

मैं उसे पढ़कर लिखता रहा..!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 9:11 बजे, 21 जनवरी 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन।) 

☆  दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

काफी उथल-पुथल का समय था। एक संत, आचार्य विनोबा भावे, जबलपुर को संस्कारधानी घोषित करके जा चुके थे और दूसरे संत, आचार्य रजनीश, जिनका मिजाज़ कुछ अलग था, संभोग से समाधि की ओर जाने का मार्ग बता रहे थे। महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का भी प्रवर्तन हो रहा था। यह नगरी अभी इतनी प्रगतिशील नहीं हुई थी कि टॉर्च बेचने वाले जादूगरों के अलावा अन्य बुद्धिजीवियों को स्वीकार कर सके। व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को ‘वैष्णव की फिसलन’ लिखने के परिणामस्वरूप अपने हाथ-पांव तुड़वाने पड़े थे।

रॉबर्टसन कॉलेज तब तक गवर्नमेंट साइंस कॉलेज कहलाने लगा था। बगल में, महाकौशल आर्ट कॉलेज था। सिविल लाइंस के पचपेड़ी में इनके विशालकाय परिसर थे। निकट ही, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार और ‘कृष्णायन’ ग्रन्थ के रचयिता, पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र का निवास था। थोड़ा आगे चलकर, जबलपुर यूनिवर्सिटी थी, जिसका नामकरण अब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय हो गया है।

सेठ गोविंददास लंबे समय तक जबलपुर के सांसद रहे। उन्होंने हिंदी की सेवा की और ‘केरल के सुदामा’ तथा अन्य रचनाओं का अपनी कलम से सृजन किया। मुझे तो उस वक्त शहर के सबसे बड़े विद्वान दर्शनाचार्य गुलाबचंद्र जैन प्रतीत होते थे क्योंकि पाठ्यक्रम में उन्हीं की लिखी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं! सेठ गोविंददास के बाद, विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष, शरद यादव, अगले सासंद चुने गए।

जब हमने कॉलेज में दाखिला लिया (1971), तो उसके तुरंत बाद पाकिस्तान से दूसरा युद्ध हुआ और बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ। जनरल नियाज़ी और उसके साथ आत्म-समर्पण करने वाले पाक सैनिकों को कॉलेज के पास ही आर्मी एरिया में कैद रखा गया था। हम रांझी से साइकिल में, गन कैरेज फैक्ट्री होते हुए, सेंट्रल स्कूल के परिसर के अंदर से शॉर्टकट लेकर, कॉलेज की पिछली ओर साइकिल स्टैंड में पहुंचते थे। कुछ समय तक वेस्टलैंड खमरिया से, प्रदीप मित्रा का साथ मिला। लंबे रास्ते में हम कार्ल मार्क्स के साम्यवाद और अमेरिका में पूंजीवाद की चर्चा करते थे। मुझे तो इन विषयों की कोई खास समझ नहीं थी लेकिन प्रदीप, फर्ग्यूसन कॉलेज पूना और आई आई टी कानपुर होते हुए, अमेरिका पहुंचकर वहां प्रोफेसर बन गया।

कॉलेज में पढ़ाई का अनुकूल वातावरण था और प्रोफ़ेसर बहुत योग्य थे। प्रोफेसर हांडा हमें गणित पढ़ाते थे। वह बहुत लंबे थे। गर्दन टेढ़ी कर कार चलाते थे। क्लास के अंत में पूछते, “एनी क्वेशचन?” जब हम ‘न’ में सिर हिलाते, तो वो बोलते, “नो क्वेशचन, वैरी इंटेलीजेंट!” छोटे कद के, अत्यंत प्रखर, डॉ प्रेमचंद्र, गणित के हमारे दूसरे प्रोफेसर थे। उनकी मूछें बहुत आकर्षक थीं। वे ‘इक्वेशन’ और ‘इक्वल टू’ का बहुत अजीबोगरीब और नाटकीय उच्चारण करते थे। ऐसा करने में, उनकी मूछें, तराजू के दो पलड़ों की तरह ऊपर-नीचे झुक जाती थीं – एक नीचे की तरफ और दूसरी ऊपर की ओर!

केमिस्ट्री के प्रोफेसर डॉ महाला और मिश्रा सर सादगी की प्रतिमूर्ति लेकिन गहन विद्वान थे। महाला सर तो ब्लैकबोर्ड के सामने बीचोंबीच खड़े होकर, दोनों तरफ दाएं और बाएं हाथ से एक जैसा लिखते थे। सहस्त्रबुद्धे सर पुलिस अधिकारी की तरह कड़क थे, हम उनसे डरते थे। फिजिक्स डिपार्टमेंट के प्रोफेसर एस के मिश्रा और निलोसे सर बहुत सौम्य थे। उन्हें विषय का गहरा ज्ञान था। पालीवाल सर अप्लाइड मैथेमेटिक्स के अंतर्गत स्टेटिस्टिक्स पढ़ाते थे। उनका पढ़ाने का ढंग मज़ेदार था। वो पढ़ाते वक्त, कलाई को स्पिन गेंदबाज की तरह घुमाते थे, आँखें भी गोलगोल नचाते थे और उनकी जीभ भी घिर्रघिर्र करती थी। वे जब कक्षा को ‘कोरिलेशन’ का गणितीय पाठ पढ़ा रहे होते तो छात्र उस युग की तारिकाओं, शर्मीला टैगोर, वहीदा रहमान, तनूजा और डिंपल कपाड़िया के सौंदर्य का आपस में कोरिलेशन ढूंढ रहे होते।

जबलपुर उन दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन की महत्वपूर्ण टेरिटरी हुआ करती थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हुई तो उन्होंने, नुकसान की भरपाई के लिए, एक बोल्ड फिल्म ‘बॉबी’ बना डाली जिसने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इस शहर में, ‘दो रास्ते’ और ‘जय संतोषी मां’ जैसी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। पुराने समय में तो श्याम टॉकीज, श्रीकृष्णा, सुभाष, प्लाजा, विनीत और लक्ष्मी टॉकीज जैसे ही पुराने सिनेमा हॉल थे। फिर, कुछ अच्छे बने जैसे ज्योति टॉकीज, आनंद और शीला टॉकीज। प्रेमनाथ की एम्पायर टॉकीज और डिलाइट टॉकीज का अपना ऑडियंस था। वहां हमने ‘द गंस ऑफ नेवरोन’, ‘एंटर द ड्रैगन’ और चार्ली चैपलिन की फिल्में देखीं। डिलाइट में एक बार हंगेरियन फिल्म फेस्टिवल भी आयोजित हुआ था।

हमारे सहपाठी थे – विजय कुमार चौरे, इंद्र कुमार दत्ता, जी पी दुबे, पी पी दुबे, अरविंद हर्षे, विजय कुमार बजाज, प्रवीण मालपानी (सेठ गोविंददास के नाती), रविशंकर रायचौधुरी, प्रदीप मित्रा, आशीष बैनर्जी… और मैं, जगत सिंह बिष्ट। एक नाम मैं भूल रहा हूं। उनकी उम्र हमसे कुछ अधिक थी और वो शायद सिहोरा के आसपास से आते थे। उनका स्वभाव अत्यंत मृदु था। दो छात्र यमन से पढ़ने आए थे – अब्दुल रहमान सलेम देबान और उमर बशर। हमारी कक्षा में दो ही छात्राएं थीं – मंजीत कौर और  उमा देवी। हम सब शुद्ध, सात्विक और दूध के धुले थे। न जाने किस मनचले ने कन्याओं की बेंच की ओर, चुपके से प्रेमपत्र खिसका दिया। तत्पश्चात वह प्रतिदिन उत्तर की प्रतीक्षा करता। कुछ दिन खामोशी रही। आखिर उस तरफ से, उस लड़के को एक पर्ची पहुंची, जिसमें लिखा था – “ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे!”

कॉलेज परिसर में एक छोटी सी कैंटीन थी जिसमें चाय और समोसे मिलते थे। कभी कभी हम कुछ दोस्त इंडियन कॉफी हाउस (सदर या सिटी) जाकर डोसा और कॉफी का लुत्फ़ उठाते थे। शायद इसी के लिए, हमें हर महीने स्कॉलरशिप मिलती थी। प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर ही बाबू लोग बैठते थे। हमें तो कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन अरविंद को अपने पिताजी को लेकर आना पड़ता था क्योंकि वो इतना मासूम लगता था कि बाबू उसके हाथ में पैसे देने से हिचकिचाते थे। तत्कालीन प्रिंसिपल, कालिका सिंह राठौर बहुत सख़्त थे। अनुशासन का पालन न करने वाले को ऐसी डांट लगाते थे कि वो तौबा करने लगता था।

इस बार मैं न्यूज़ीलैंड गया तो बेटे ने अपने दोस्त रौनक से मिलवाया। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके पापा भी जबलपुर के हैं और साइंस कॉलेज से पढ़े हैं। निकुंज श्रीवास्तव नाम है उनका। मॉडल स्कूल और साइंस कॉलेज में पढ़े हैं। हम दोनों ने स्कूल 1971 में पास किया और दोनों ही 1974 में ग्रेजुएट हुए। कॉलेज में सेक्शन जरूर अलग अलग थे। मिलते ही, पहली बात उन्होंने पूछी, “तुमने कॉलेज में घोड़े की आवाज़ सुनी थी?” मैंने कहा, “हां, कई बार।” बोले, “वो मैं ही था!” मैंने पूछा, “आपको एक बार सस्पेंड भी कर दिया था न?” बोले, “हां, एक बार नहीं, सात बार सस्पेंड हुआ हूं!” ज़बरदस्त शख्सियत है उनकी! लगता है, मेले में बिछुड़ गए थे हम। अब मिले हैं। उनसे मिलकर बहुत आनंद आता है। लगता है, अभी भी वही कॉलेज के दिन चल रहे हैं। वही उमंग, वही मस्ती। ढेर सारे किस्से हैं उन दिनों के जाे एक के बाद एक याद आते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 92 ☆ बुराई किसकी करूँ, किसकी  मैं करूँ तारीफ़… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बुराई किसकी करूँ किसकी  मैं करूँ तारीफ़“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 92 ☆

✍ बुराई किसकी करूँ, किसकी मैं करूँ तारीफ़… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

करम जमाने पे ये बे हिसाब जिसका है

सवाल उसने  किया है जबाब जिसका है

 *

अब ऐसे हुस्न पर इतरा रही है ये दुनिया

नतीजा दोस्तो मिस्ले तुराब जिसका का है

 *

उसे लुटेरों का कोई भी डर नहीं होगा

अदब का इल्म का आला निसाब जिसका है

 *

बुराई किसकी करूँ किसकी  मैं करूँ तारीफ़

उसी के ख़ार शुगुफ्ता गुलाब जिसका है

 *

दखल किसी का नहीं उसकी कारसाजी में

अँधेरे  करता है वो आफ़ताब जिसका है

 *

उसी की मिहर से तू साँस ले रहा है यहाँ

करम उसी का है तुझ पर इताब जिसका है

 *

उसे न नाम कोई और दो जहां वालो

रसूले हक़ का जहां में ख़िताब जिसका है

 *

अरुण उसी ने ख़िज़ाँ की भी रुत बनाई है

फिजां में फूल पे आया शबाब जिसका है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 6 ☆ कविता – छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे..“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 6 ☆

✍ कविता – छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बंदिशें आएंगी, रुकावटें आएंगी,

पर तुम न रुकना, राह बन जाएंगी।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

आगे चलते रहना, मुड़ कर न देखना,

असफला न देखना सफलता देखना।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

हारना सोचना मत, कोशिश छोड़ना मत,

 उडोगे तो गिरोगे, पर उड़ना छोडना मत।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

लोग गिराएंगे डराएंगे, तुम कुछ न देखना,

बस उड़ने की सोचना, आगे ही देखना।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

साथ कोई दे न दे,  जमींन तेरे साथ है,

ज़मीर पक्का हो, आसमान साफ है।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

तू लक्ष्य तय कर, उसे पाने का संकल्प कर,

और कुछ मत कर, लक्ष्य को प्राप्त कर।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

हिम्मत तेरा हथियार है, जजवा तेरा उद्गार है,

सपना देखना ऊंचाई का, होगा साका है।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 584 ⇒ शौकीन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शौकीन।)

?अभी अभी # 584 ⇒ शौकीन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ लोग मीठे के शौकीन होते हैं, कुछ नमकीन के ! सन् १९८१ में बसु चटर्जी की एक फिल्म आई थी शौकीन, जिसमें उत्पल दत्त, अशोक कुमार, रति अग्निहोत्री और मिथुन चक्रवर्ती जैसे मंजे हुए कलाकार थे। ऋषिकेश मुखर्जी और बसु चटर्जी अक्सर पारिवारिक हल्की फुल्की, मनोरंजक स्वस्थ फिल्में बनाते हैं। मैं यह फिल्म नहीं देख पाया। मैं तब सठियाया नहीं था, फिर भी सठियाए लोगों की उल्टी सीधी हरकतें मुझे न तब पसंद थी, न आज हैं।

पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना की तरह ही लोगों के अपने अपने शौक होते हैं। अच्छी आदत को शौक समझा जाता है और बुरी आदत को लत। आदत और तबीयत में बड़ा महीन फर्क होता है। जो शौकीन तबीयत के लोग होते हैं उनमें से कुछ केवल पान का शौक रखते हैं तो कुछ के अन्य शौकों में पान भी शामिल होता है। वैसे पान का शौक संगीत रसिकों और भोजन प्रिय लोगों को भी होता है। पान खाएं सैंया हमार। ।

कहते हैं, समय बड़ा कीमती होता है। फिर भी हर व्यक्ति अपने कीमती समय में से कुछ समय अपने शौक के लिए निकाल ही लेता है। इसे अंग्रेजी में hobby हॉबी कहते हैं। सेलिब्रिटीज और विशिष्ट व्यक्तियों से यह सवाल अवश्य पूछा जाता है, आप फुर्सत के वक्त में क्या करते हैं। जब से लोगों के हाथ में मोबाइल आया है, फुर्सत के कीमती पल, पलक झपकते ही निकल जाते हैं।

शौक का संबंध रुचि से होता है। सुरुचि से सृजन होता है। शौक जब passion बन जाता है तब कलाकार मुखर हो उठता है। कलम और कूची रंग लाती है। पेशे और शौक में बड़ा अंतर होता है। पेशा अगर पैसा देखता है तो शौक सिर्फ जुनून और मस्ती देखता है। ।

कुछ लोगों को खतरों से खेलने का शौक होता है। यह खतरा अगर रोमांच अथवा एडवेंचर तक सीमित है, तो ठीक, लेकिन अगर यह जीवन को एक विपरीत अथवा नकारात्मक दिशा की ओर ले जा रहा है, तो यह एक खतरे का संकेत है। ऐसे शौक से तौबा, ऐसे खतरे से बचना और किसी को बचाना ही बेहतर।

जीवन में अरुचि ना हो। रुचि टेस्ट को कहते हैं। आप इसे जीवन मूल्य भी कह सकते हैं। सुरुचि, रस, मिठास, कोमलता एवं सहजता कुछ ऐसे गुण हैं, जो शौक से आजमाए जा सकते हैं। अच्छा खाएं, अच्छा पहनें, अच्छा बोलें। अपने शौक़ को एक दिशा दें, हो सकता है, वह आपकी दशा बदल दे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 56 – मानवता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मानवता।)

☆ लघुकथा # 56 – मानवता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’        

“भैया अम्मा की तबियत ठीक नहीं है आप भाभी और बच्चों को लेकर आ जाइए।”

शांति ने अपने बड़े भाई को फोन किया।

बड़े भाई  अरुण की  आंखें भर आयीं थी और वह अपनी छोटी बहन से कह रहा था कि 4 साल से मां बिस्तर में हैं और तू अपना घर परिवार देखते हुए कैसे सेवा कर रही है?

अपनी माँ को अकेले में छोड़कर तुम्हारी भाभी से डर कर के घर में शांति बनी रहे अपने बच्चों को देख रहा था लेकिन तूने हर कर्तव्य का निर्वाह किया।

सुबह शाम मां को खाना बनाकर अपने हाथ से उनको खाना खिलाना। उनके बिस्तर को ठीक करना, गन्दे कपड़े धोना आदि  सभी काम वह स्वयं ही करती है इतनी हिम्मत कहां से आई जीजाजी और बच्चों को भी तो तू ही संभालती है।

शांति ने मुस्कुरा कर कहा भैया “अरे कुछ नहीं , आप तो बेकार ही परेशान हो जाते हैं,  आप ही आ जाते तो कम से कम अम्मा आपको ही देख लेतीं उनकी तबियत बहुत खराब है।”

बड़ी दीदी भी आई है मां दरवाजे की तरफ अपनी उदास नजरों से देखती है कुछ कह नहीं पाती। आप हम दोनों बहनों के बीच में अकेले भाई हो। आप ही का इंतजार कर रही है अब जल्दी से आ जाओ भैया।

इतने में अंदर से कुछ आवाज आती है और शांति – भैया अब मैं फोन रख रही हूं।

हाथ का पानी का गिलास छूटकर नीचे जा गिरा।

उसकी मां अब इस दुनिया से जा चुकी थी बड़ी बहन कमला ने आवाज दी। वह भी हड़बड़ा कर मां के कमरे में पहुंची।

क्या हुआ कहते हुए जब उसने मां को छुआ तो वह भी सन्न रह गई।

वे तो अनन्त यात्रा पर निकल चुकी थीं।

सभी को फोन कर के बुलाया गया। कुछ ने थोड़ा सच में तो कुछ ने नाटक में आंसू भी गिराये, दुख  प्रकट किया।

बड़े बेटे के साथ भाभी भी आई।

भाभी का ध्यान अम्मा के बक्से  पर ही टिका हुआ था।

अन्तिम संस्कार के बाद शाम को बड़ी बहन कमला से बोली  जीजी  सन्दूक मैं मां के गहने सब छोटी ने ही रख लिए क्या? हमें उन में कुछ नहीं मिलेगा?

बीच में सन्दूक रख कर छोटी बहन ने चाबी भाभी को दे दी।

भाभी भाई और बड़ी बहन कमला के बीच उनकी अम्मा से अधिक उनके जेवरों और पैसों पर चर्चा हो रही थी। 

भाई ने कहा – दोनों भी अम्मा की एक एक चीज यादगार के रूप में रख लो।

भैया आज ही सुनार बुला रहे हो जो भी लोग  सुनेंगे वे क्या कहेंगे?

अरे कोई कुछ भी क्यों कहेगा ? किसी के घर डाका डालने जा रहे हैं क्या ? बड़े भाई भाभी एक ही जबान में बोल पड़े।

अब  जेवर कौन रखता है? सोनार को बुलाकर इसे बेच देते हैं और रकम ले लेते हैं।

कोई प्रॉपर्टी खरीद लेंगे।

फिर बहस का विस्तार हुआ।

यही अधिकार तब दिखाते जब अम्मा बीमार थीं। तब तो उनकी सेवा में हिस्सेदारी करने कोई भी नहीं आया।

रहने दो दीदी बेकार की बात बढ़ाने में क्या फायदा?  भाई ने बहन को शान्त करते हुए

कहा।

सुनार बहुत देर तक गहनों को देखता रहा।

सुनार  की आंखों  से दो बूंद आंसू लुढ़क आए…। कमला मां की कमरे में जाकर उनकी तस्वीर देखने लगी। मां सारे संस्कार तूने हम बहनों को ही दिए भाई को क्या कुछ भी नहीं सिखाया?

भाई के अंदर की सारी मानवता मर गई है क्या…?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ अट्टहास के प्रधान संपादक श्री अनूप श्रीवास्तव जी नहीं रहे – विनम्र श्रद्धांजलि ☆ प्रस्तुति – श्री रमाकांत ताम्रकार ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

💐 अट्टहास के प्रधान संपादक श्री अनूप श्रीवास्तव जी नहीं रहे – विनम्र श्रद्धांजलि 💐

अभी हम स्मृति शेष जय प्रकाश पांडे जी के अवसान से उबर भी नहीं पाए और एक और दुःखद समाचार मिला. य़ह व्यंग्य के क्षेत्र की अपूरणीय क्षति है.

अभी नवंबर 24 में कादम्बरी सम्मान समारोह में अनूप जी जबलपुर आए थे तब 3 दिन स्मृति शेष व्यंग्यकार श्री जय प्रकाश पांडे जी तथा मैं उनके साथ रहे और अट्टहास पत्रिका हम लोगों को सौंप कर वे निश्चिंत होना चाह रहे थे। इस बाबत उन्होंने हम लोगों से गहन चर्चा भी की थी. इसके साथ ही व्यंग्य की स्थिति और उसके उन्नयन पर बहुत ही सार्थक चर्चा की. 10 नवम्बर 24 को एक भव्य आयोजन में उन्होंने जबलपुर के व्यंग्यकारों को अट्टहास और माध्यम परिवार की ओर से व्यंग्य गौरव अलंकार से सम्मानित किया था. आप अपनी अगली पीढ़ी को व्यंग्य की बारीकियां समझाते और उन्हें अपनी पत्रिका में स्थान भी देते थे.

व्यंग्य के प्रकाश पुंज को ईश्वर अपने श्री चरणों में स्थान दें.

प्रस्तुति – श्री रमाकांत ताम्रकार, जबलपुर

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से स्मृतिशेष अनूप श्रीवास्तव जी को विनम्र श्रद्धांजलि  💐

– श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 257 ☆ ओझी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 257 ?

☆ ओझी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

 सारी ओझी जड झाली

नाती कशी निभवावी

कुणी कुणाला टाळावे

कुठे जत्रा भरवावी ?

*

 संग अंसगाशी नको

असे सांगती नावाला

जिथे जायचे नसते

येतो तरी त्या गावाला

*

जगण्याच्या असोशीला

काय समजावे आता

माथी ओझी जड झाली

यश का येईना हाता

*

 सांजवेळ आयुष्याची

रम्य असो भगवंता

डोई वरची ही ओझी

कशी उतरावी आता ?

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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