हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहिर और महेन्द्र कपूर।)

?अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो साहिर अपनी मर्जी के शायर थे और किसी खूंटे से बंधे नहीं थे, लेकिन फिल्म नया दौर से, वक्त तक, बी आर चोपड़ा से उनकी जोड़ी खूब जमी। नया दौर में अभिनेता दिलीपकुमार थे, और इस फिल्म के सभी हिट गीतों को जहां मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था, वहीं ओ पी नैय्यर ने इन्हें अपने मधुर संगीत में ढाला था।

लेकिन बी आर चोपड़ा, ओ पी नैय्यर और साहिर लुधीयानवी की तिकड़ी और रफी साहब की आवाज का यह करिश्मा आगे चल नहीं पाया। बी आर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों के लिए ही गीत गाएं, जो कि रफी साहब को मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि उनकी आवाज सभी संगीतकारों के लिए बनी है, वे कोई दरबारी गायक नहीं हैं।।

बस यही बात चोपड़ा साहब को चुभ गई और उन्होंने प्रण कर लिया कि वे एक और मोहम्मद रफी खड़ा करेंगे और इसके लिए उन्होंने रफी साहब के ही शागिर्द महेन्द्र कपूर को चुना। वैसे भी मुकेश, किशोर कुमार और रफी साहब के चलते महेन्द्र कपूर साहब को फिल्में कम ही मिलती थी, फिर भी उपकार फेम मनोज कुमार भी उन पर पूरी तरह से मेहरबान थे, जिस कारण कल्याण जी आनंद जी के भी वे प्रिय हो चले थे। याद कीजिए, दिलीप कुमार की फिल्म गोपी के रफी साहब के एक भजन को छोड़कर, सभी गीत महेन्द्र कपूर ने ही गाये थे।

अधिक विषयांतर ना करते हुए हम साहिर और महेन्द्र कपूर के साथ के बारे में चर्चा करते हैं। फिल्म गुमराह के गीतों को ही ले लीजिए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। यहां संगीतकार ओ पी नैय्यर नहीं हैं, रवि हैं। श्रोता को समझ भी नहीं आता, वह शब्दों में खो गया है, अथवा आवाज की मिठास में। इसी फिल्म के एक और गीत, इन हवाओं में, इन फिज़ाओं में, में आशा भोंसले का कंठ अधिक मधुर है अथवा महेन्द्र कपूर का, आप ही बताइए।।

गुमराह(1963) के बाद वक्त(1965) और हमराज(1967) गीत संगीत के हिसाब से सफल रही, जहां साहिर और महेन्द्र कपूर अपने जलवे बिखेरते नजर आए। इसके बाद की तीन फिल्में क्रमशः धुंध, (1973)इंसाफ का तराजू(1980) और निकाह(1982) बॉक्स ऑफिस पर चली जरूर लेकिन तब तक चोपड़ा साहब का एक और रफी तैयार करने का सपना चूर चूर हो चला था। फिल्म वक्त में थक हारकर उन्हें वापस रफी साहब की ही आवाज लेनी पड़ी। आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़।।

फिल्म हमराज़ के तीनों गीत, नीले गगन के तले, तुम अगर साथ देने का वादा करो अथवा किसी पत्थर की मूरत से, जब मैं सुनता हूं, तो मुझे महेन्द्र कपूर की सूरत में साहिर की सीरत नजर आती है।

इतनी सॉफ्ट मखमली आवाज से वे शुरू करते हैं, लेकिन अपनी रेंज में रहते हुए खूबसूरत आलाप भी बखूबी ले लेते हैं। वे कहीं भी बेसुरे नजर नहीं आते। साहिर और महेन्द्र कपूर के सर्वश्रेष्ठ गीतों का एल्बम अगर बनेगा तो उसमें ये गीत अवश्य शामिल होंगे।

साहिर और महेंद्र कपूर की सबसे यारी रही। गुरुदत्त की प्यासा हो या कागज़ के फूल, साहिर ने अगर संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे तो चित्रगुप्त और लक्ष्मी प्यारे के लिए भी। बस शायद नौशाद और शंकर जयकिशन को कभी साहिर की याद नहीं आई। एक के पास अगर शकील थे तो दूसरे के हाथ में दो दो लड्डू, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।

साहिर और महेन्द्र कपूर का ही एक गीत है, संसार की हर शै का, इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है। एक और शायर कैफ़ी आज़मी गुरुदत्त के लिए भी कह गए, जो हम सब पर लागू होता है,

देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 143 ☆ मुक्तक – ।। ऐ जिंदगी तेरा अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 143 ☆

☆ मुक्तक ।। ऐ जिंदगी तेरा अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

जिंदगी अभी चल कि प्रभु कर्ज चुकाना बाकी  है।

किसी पराए का भी कुछ दर्द     मिटाना बाकी है।।

रिश्तों की   तुरपाई  करनी है वैसी  ही मिल  कर।

ईश्वर के शुकराने में भी सिर    झुकाना बाकी है।।

=2=

किसी के उदर कीआग अभी बुझाना    बाकी है।

नई-नई पीढ़ी को भी सही राह सुझाना बाकी है।।

बहुत ही काम कर लिया जीवन के इस सफर में।

लेकिन फिर भी कुछ नया करके दिखाना बाकी है।।

=3=

जीवन की राहों में गाँठे अभी सुलझाना बाकी है।

हँसते-हँसते हुए अभी रूठना मनाना  बाकी है।।

छूट गया जो भी   जीवन   की लंबी सी दौड़ में।

तिनका-तिनका जोड़ कर उसको जुटाना बाकी है।।

=4=

दिल की अधूरी बात अभी सबको सुनाना बाकी है।

किसी रोते हुए को भी हमें अभी हँसाना बाकी है।।

जो मिली अनमोल वरदान  सी यह  एक  जिंदगी।

उस जिंदगी का रह गया फ़र्ज़ अभी निभाना बाकी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ।

औरों के कष्ट का सही अनुमान दीजिये ॥

*

दुनिया में भाई-भाई से हिलमिल के सब रहें

है द्वेष जड़ लड़ाई की – यह ज्ञान दीजिये ॥

*

होता नहीं लड़ाई से कुछ भी कभी भला

सुख-शांति के निर्माण का अरमान दीजिये ॥

*

निर्दोष मन औ’ शुद्ध भावनाओं के लिये

हर व्यक्ति को सबुद्धि औ’ सद्ज्ञान दीजिये ॥

*

दुनिया सिकुड़ के  आज हुई एक नीड़ सी

इस नीड़ के कल्याण का विज्ञान दीजिये ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “धुके…” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “धुके…” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

झाली पहाट आली जाग हळूहळू साऱ्या सृष्टीला

थंडी गुलाबी लपेटलेल्या तरुण निसर्गाला… 

*

किलबिल चिवचिव करीत सारे पक्षीगण ते उठले

किलकिल डोळे करीत आणि जागी झाली फुले… 

*

पहाटवारा गाऊ लागला भूपाळी सुस्वर

पानांच्या त्या माना हलवीत दाद देती तरुवर… 

*

मिठी परी साखरझोपेची, निसर्गराजा त्यात गुंगला

गोड गुलाबी पहाटस्वप्ने जागेपणी अन पाहू लागला… 

*

बघता बघत चराचर आता धूसर सारे झाले

आपल्या जागी स्तब्ध जाहली वेली वृक्ष फुले… 

*

स्वप्नांचा तो मोहक पडदा धुके लेवुनी आला

कवेत घेऊन जग हे सारे डोलाया लागला… 

*

फिरून एकदा निरव जाहले वातावरणच सारे

धुके धुके अन धुके चहूकडे.. काही न उरले दुसरे… 

*

परी बघवेना दिनकरास हे जग ऐसे रमलेले

स्वप्नरंगी त्या रंगून जाता.. त्याला विसरून गेले… 

*

गोड कोवळे हासत.. परि तो लपवीत क्रोध मनात

आला दबकत पसरत आपले शतकिरणांचे हात… 

*

दुष्टच कुठला, मनात हसला, जागे केले या राजाला

बघता बघता आणि नकळत स्वप्नरंग उधळून टाकला… 

*

 स्वप्न भंगले, दु:खित झाला निसर्गराजा मनी

दवबिंदूंचे अश्रू झरले नकळत पानोपानी… 

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ घडो ऐसे… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ घडो ऐसे… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

विग्रहा समोर

बसता डोळे मिटून

येते अबोल उत्तर

तिच्या हृदयातून…

 

न लगे शब्द

नच स्पर्श वा खूण

मौनात मी, मौनात ती

संवाद तरी मौनातून…

 

न मागणे न देणे

व्यवहार नाहीच मुळी

मी तू गेले लया

जन्मलो तुझिया कुळी..

 

सुटली येरझार

चक्रव्यूही भेदला

आई तूझ्या कृपे

सार्थक जन्म झाला…

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गीता जशी समजली तशी… – मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक – भाग – ४ ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

☆ गीता जशी समजली तशी… – मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक – भाग – ४ ☆ सौ शालिनी जोशी

मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक

गीता हा अर्जुनाला पुढे करून सर्व मानव जातीला केलेला उपदेश आहे. ते आचरण शास्त्र आहे. त्यातील सर्वच श्लोक सारख्याच महत्त्वाचे आहेत. त्यामुळे त्यात सरस-निरस ठरवणे कठीण. तरीही ७०० श्लोकातून माझ्या दृष्टीने महत्त्वाचे वाटलेले पाच लोक निवडण्याचा प्रयत्न मी केला. त्यातील पहिला श्लोक म्हणजे उन्नतीचा मंत्रच व स्वावलंबनाचा धडा

 १) उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् l

 आत्मैव ह्यात्मनो बंन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:ll(६/५)

माणसाने स्वतः स्वतःचा उद्धार करावा. स्वत:च स्वतःच्या नाशाला कारण होऊ नये. प्रत्येक जण आपणच आपला बंधू (हित करणारा) आणि आपणच आपला शत्रू (अधोगती करणारा )असतो.

यातून लक्षात येते की प्रत्येकाने आपल्यातील दोषांकडे दुर्लक्ष न करता ते घालवण्याचा व सद्गुण जोपासण्याचा प्रयत्न करावा म्हणजेच बंधू व्हावे. ‘ जो दुसऱ्यावरी विसंबला त्याचा कार्यभाग बुडाला’ हेच येथे लक्षात ठेवावे. उच्च स्थितीला पोहोचावे व यशस्वी व्हावे.

अशा प्रकारे स्वतःच्या उद्धारासाठी कर्म करत असताना कोणते पथ्य पाळावे हे सांगणारा दुसरा श्लोक

 २) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन l

 मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते सङ्गोsस्त्वकर्मणी ll(२/४७)

कर्म करत असताना कर्त्याची भूमिका कशी असावी याची चार सूत्रे येथे सांगितली आहेत. कर्म करण्याचा तुला अधिकार आहे, त्याच्या फळाविषयी कधीही नाही. कर्मफलाच्या इच्छेने कर्म करणारा होऊ नको. तसेच ते न करण्याच्या आग्रहही नको.

कर्म केल्याशिवाय कोणीही राहू शकत नाही. म्हणून स्वधर्माने प्राप्त झालेले कर्म उत्तम प्रकारे आचरावे. पण त्याचे फळ मिळणे आपल्या हातात नसते. फळ मिळणे हा भविष्यकाळ आहे. त्यात रमून वर्तमानातील कर्मावर दुर्लक्ष करू नये. कामातील आनंद घ्यावा. कर्मफल काहीही मिळो, त्याला कारण मी असे समजून कर्तुत्व अभिमान घेऊ नये. येथे अकर्म म्हणजे कर्म न करणे. मी कर्मच करत नाही म्हणजे फळाचा प्रश्न नाही असा विचार करून कर्म त्यागणे अयोग्य आहे.

अशा प्रकारे केलेले कर्म ईश्वरार्पण कसे करावे हे पुढील श्लोकात.

 ३) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्l

 यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्ll (९/२७)

भगवंत अर्जुनाला सांगतात तू जे कर्म करतोस, जे खातोस, जे हवन करतोस, जे दान देतोस, जे तप करतोस ते मलाच अर्पण कर. माणसाची कर्मे ही साधारणपणे चार प्रकारची असतात आहार, यज्ञ, दान आणि तप. कर्म अर्पण करणे म्हणजे त्यातील कर्तृत्व भाव अर्पण करणे व फळ प्रसाद रूपाने ग्रहण करणे. यज्ञ म्हणजे फळांचा काही भाग समाजासाठी अर्पण करणे. दान म्हणजे सत्पात्री व्यक्तीला योग्य काळी शक्य ती मदत करणे आणि तप म्हणजे शरीर, मन आणि वाणी यांनी केलेली साधना. या सर्व ज्यावेळी भगवंतासाठी होतात, निस्वार्थ बुद्धीने अपेक्षा रहित होतात, तेव्हा प्रत्येक कर्म म्हणजे त्याची पूजा होते. त्याची प्राप्ती करून देणारे होते. बंध निर्माण होत नाही. अशीही कर्मा मागची खूबी व भक्तीचे व्यापकपण.

अशाप्रकारे कर्म करण्याचा अधिकार कोणाकोणाला आहे भगवंत सांगतात

 ४) मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येsपि स्यु: पापयोनय: l

 स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेsपि यान्ति परां गतिम् ll(९/३२)

हे अर्जुना, स्त्रिया, वैश्य, शूद्र तसेच पापयोनी कुणीही असो माझ्या आश्रयाला आले असता परमगतीला प्राप्त होतात. म्हणजे भगवंत प्राप्तीचा अधिकार सर्वांना आहे. तेथे कोणताही भेदभाव नाही. म्हणून सर्व जातीत आणि स्त्रिया सुद्धा संत पदाला पोचल्या. त्यांनी भगवंताची प्राप्ती करून घेतली. जो त्याच्या आश्रयाला जातो तो त्याचाच होतो. वेदाने जे अधिकार नाकारले ते गीतेने मिळवून दिले. म्हणून शबरी अनन्य भक्तीने मुक्त झाली व वाल्याचा वाल्मिकी झाला. आपणही जातीपातीवरून भेदभाव करू नये. सर्वाभूती परमेश्वर लक्षात घ्यावे.

गीता ग्राह्य व अग्राह्य दोन्ही गोष्टी सांगते. कोणत्या गुणाचा त्याग करावा म्हणजे सत मार्ग सापडतो त्याचे मार्गदर्शन गीता करते.

 ५) त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:l

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तादेतत्त्रयं त्यजेत्ll(१६/२२)

काम क्रोध आणि लोभ ही तीन प्रकारची नरकाची द्वारे आहेत. आपला नाश करणारी आहेत. म्हणून या तिघांचा त्याग करावा.

हे तीनही तामसी गुण आहेत. माणसाच्या अधोगतीला कारण होणारे आहेत. मोठे मोठे विद्वानही यांच्या अधीन होऊन आपल्याच अपयशाला कारण झाले. उदाहरणार्थ विश्वामित्र (काम), दुर्वास (क्रोध). अतृप्त इच्छा क्रोधाला जन्म देतात. त्या कामना पूर्ण करण्यासाठी द्रव्यासक्ती निर्माण होते हाच लोभ. त्यासाठी अवैध मार्गाचाही अवलंब केला जातो. परिणामतः नरकासारख्या हीन अवस्थेत राहण्याची वेळ माणसावर येते. म्हणून योग्य वेळीच विवेक व वैराग यांच्या बळावर या तीनही टाळाव्या व मिळेल त्यात सुखी समाधानी राहावे.

अशा प्रकारे स्वतः स्वतःचे हित साधणे. फलेच्छारहित कर्म करणे. ते ईश्वरा अर्पण करणे. असे कर्म कोणीही करू शकतात. मात्र तेथे लोभ नको. हा मार्ग सुख समाधान देणारा. म्हणून मला हे पाच श्लोक आवडले. नित्य आचरणात आणण्यासारखे आहेत.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘आभाळाला हात टेकवून जमिनीवर येणारा माणूस !’ – भाग – १ ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? जीवनरंग ?

आभाळाला हात टेकवून जमिनीवर येणारा माणूस !‘ – भाग – १ श्री संभाजी बबन गायके 

एक दिवसच कसाबसा टिकला तो वेदपाठशाळेत ! पण त्या एका दिवसात तो थेट गुरुजी दिसायला लागला होता! शेंडी वगळता डोईवरच्या उर्वरीत सर्व केसांना त्याला मुकावं लागलं होतं! तो वेदपाठशाळेतून घरी कसा परतला कुणास ठाऊक.. पण घरी आल्याबरोबर त्याच्या भावंडांनी त्याला “टक्कल! टक्कल!” म्हणून चिडवायला आरंभ केला. त्यावर या पठ्ठ्याने हाती काठी धरली… आणि तिचे दोन फटकारे लगावून त्या दोघा भावांना गावातल्या केशकर्तकाच्या समोर पोत्यावर नेऊन बसवले.. आणि ते दोघेही तंतोतंत आपल्या सारखे दिसावेत याची तजवीज केली! हा थोरला आणि ती बिचारी दोन लहान पोरं… करणार काय? 

छत्रपती शिवरायांच्या पदस्पर्शाने अक्षरश: पावन झालेल्या मातीत तो जन्माला. घरात उदरभरणाचे दोनच मार्ग… एक पौरोहित्य आणि भातशेती. पण पहिल्या मार्गावर त्याची पावले फारशी स्थिरावली नाहीत… मात्र भाताच्या खाचरांमध्ये तो उतरला की शेतक-याचं रुपडं पांघरलेला बळीराजा भासायचा. पंचक्रोशी हे जणू त्याचं खेळायचं अंगण… आणि गावातले सारे सख्खे मित्र. परंपरेने आलेले त्याला बुद्धीमत्तेचा वारसा त्याच्या वडिलांकडूनच लाभला होता.

शिक्षणासाठी गावापासून थोडे दूर पण एका सोयीच्या गावी सर्व भावंड कंपनी एकत्र वास्तव्यास असताना त्याच्या बाललीलांना केवळ बहरच आला होता. गुरुजींना चकवा देऊन बहिणीची गृहपाठाची वही स्वत:ची म्हणून तपासून घेण्यात त्याला सहजी यश मिळायचे.

तो त्याच्या काकांकडून मंडप बांधायला शिकला आणि स्पीकर लावायला सुद्धा. हा व्यवसाय मात्र त्याने अगदी गंमत म्हणूनच केला. त्यासाठी लागणारी सारी सामग्री त्याने जमवून ठेवली होतीच. आणि सोबतच अक्षरश: बारा बलुतेदारांना आवश्यक असतात अशी आयुधे त्याच्याकडे जमा झाली होती… त्यामुळे कोणतंही काम कधी अडून राहायचं नाही.. गावातल्या कुणाचंही.

जनसंग्रह करण्याची त्याची नैसर्गिक ओढ होती… त्याला सतत माणसं लागायची. आणि या माणसांच्या हृदयात प्रवेश करायला त्याला फारसे सायास लागत नसत. लाल मातीने माखलेल्या पायांनी तो कुणाच्याही घरी गेला तरी सर्वांना तो यायला हवा असायचा.

पण खोडकरपणा हा गुण त्याने जाणीवपूर्वक जोपासला होता की काय, अशी शंका यावी एवढी त्याने या अस्रावर हुकुमत मिळवली होती. ज्या व्यक्तीवर तो हे असले अचाट प्रयोग करी, त्यांना त्याचा कधी फार राग आला आहे, असे कधी व्हायचे नाही.

अंगणातल्या बाजेवर दिवसाउजेडी गाढ झोपी गेलेल्या माणसाच्या शेजारच्या भिंतीवरच्या खुंटीवर, कुठून तरी पैदा केलेल्या रिकाम्या सलाईनच्या बाटलीत पाणी भरून, ती बाटली टांगून ठेवणे आणि त्या बाटलीची नळी त्या माणसाच्या पायाजाम्याच्या खिशात अलगद घालून तिथून पोबारा करणे, असा अफाट उद्योग तोच करू जाणे! गरज नसेल त्यावेळी काथ्याच्या बाजेला बांधलेल्या, विणलेल्या दो-या लोक काढून ठेवत आणि गरज असेल तेंव्हा पुन्हा बांधत. अशा दो-या न बांधलेल्या बाजेवर सुंदर गोधडी अंथरूण, गावातल्या एका मित्राला मोठ्या आग्रहाने त्या बाजेवर त्याने बसायला भाग पाडले आणि तिथून पलायन केले!

वडिलांना शक्य नसेल अशा वेळी कुणाच्या घराचे कार्य अडून राहू नये म्हणून खांद्यावर पिशवी लटकावून रानावनातून, दोन-तीन डोंगर ओलांडून, चढून यजमानांच्या घरी काका म्हणून तंगडतोड करीत जाण्यात त्याने कधी कंटाळा नाही केला.

बारावी कॉमर्स उत्तीर्ण या एवढ्या शिदोरीवर त्याने शहरात येऊन सुरु केलेला प्रवास गेल्या काही वर्षांत एका अर्थाने आभाळाला हात टेकवू शकेल इतपत झाला.

मिळालेल्या संधीचा मनमोकळेपणाने स्वीकार करत त्याने मेहुण्यांच्या दुचाकीवर मागे बसून कामावर जाणे ते कंपनी मालकाच्या हेलिकॉप्टरमधून नियमित प्रवास करण्यापर्यंत मजल मारली. यात त्याला इथपर्यंत आणणा-या सहृदय माणसांचे श्रेय होते तेवढेच त्याच्या स्वकर्तृत्वाचे सुद्धा होते. लोक ज्या सहजतेने ‘ मी आताच एस. टी. तून उतरलो’ एवढ्या सहजतेने तो मी आताच हेलिकॉप्टरमधून उतरून घरी आलो’ असं सांगायचा. आणि हे सांगताना त्याच्या शब्दांत कोणताही बडेजाव मिरवण्याचा हेतू नसायचा.

औपचारिक व्यावसायिक शिक्षण पूर्ण करण्याआधीच त्याने त्या व्यवसायातील कित्येक कौशल्ये शिकून घेतली. कोणत्याही निमित्ताने इतरांशी आलेले संबंध सौहार्दाचे राखले. इतरांच्या घरांतील थेट स्वयंपाक घरापर्यंत तो सहजी पोहोचत असे, यातच त्याच्या निर्मळ मनाचे आणि वर्तनाचे सार होते.

मालकाचा प्रतिनिधी म्हणून देशभर वावरत असताना त्याने अत्यंत विश्वासाचे स्थान निर्माण केले होते. कोट्यवधी रुपयांच्या व्यवहारात कित्येक लाख कमावण्याची संधी असताना त्याने केवळ पगारात भागवले हे अगदी खरे. त्यामुळे त्याला कधी काही कमी पडले नाही. त्याच्या सर्व सामर्थ्याचा लाभ त्याच्या जवळच्या सर्वांनाच झाला. इतरांची आजारपणे, आर्थिक अडचणी, कायदेविषयक कटकटी, कौटुंबिक ताण त्याने स्वत:चे मानले. जबाबदारी ही गोष्ट प्रत्येकाच्या मानण्यावर असते. आणि समोर जर जबाबदारी बेवारस पडली असेल तर त्या जबाबदारीला हा गडी थेट आपलीच मानायचा… त्यामुळे त्यासोबत येणा-या सा-या साधका-बाधक गोष्टी त्याच्या खात्यावर डेबिट पडायच्या.

आणखी एक गोष्ट… त्याला वर्तमानपत्रातील शब्दकोडी सोडवायला आणि ती देखील अत्यंत वेगाने सोडवायला आवडायचे. पण एखादा तरी शब्द अडायाचाच.. मग जवळच्या लोकांना सकाळी सकाळी फोन लावणे आलेच. दर रविवारी तर महाशब्दकोडे हा प्रकार तो अत्यंत प्रतिष्ठेचा बनवून ठेवायचा. शिवाय शब्दकोडे सोडवण्यासाठी त्याने निवडलेली जागा अशी होती की त्याला कुणी तिथे त्रास द्यायला जाणार नाही! कुणी त्याला शब्द सांगायला थोडा अधिक वेळ लावला तर तो पर्यंत त्याला शब्द सुचलेला असायचा. बरं, फोनवर बोलताना तो समोरच्याला त्याच्या ख-या नावाने कधीच हाक मारायचा नाही. एखाद्याचे नाव प्रसन्न असेल तर तो त्याला गोपाळ संबोधणार हे ठरलेले. मित्रांच्या बायकांना तर तो नावे ठेवून म्हणजे नवी नावे देऊन अक्षरश: वात आणायचा… पण या सर्व बायाबापड्या वर्गाला हा म्हणजे हक्काचा माणूस वाटायचा…. निर्मळ दृष्टी, प्रेमाचे बोलणे, हिताचे बोलणे, आर्जवाचे बोलणे हे त्याचे वैशिष्ट्य. आपल्या सभ्य वागण्याने त्याने त्याच्या सहवासात येणा-या सा-याच महिलांचा आदर कमावला. त्या सा-या जणींना त्याच्या सहवासात सुरक्षित वाटायचे! 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ स्मृतिगंध — लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? मनमंजुषेतून ?

☆ मोठ्या मनाचा छोटा सेल्समन ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

४ ) मनमंजुषा —

 “ स्मृतिगंध “ लेखक : अज्ञात प्रस्तुती : डॉ. ज्योती गोडबोले

स्मृतिगंध…..

 

मला आठवतंय,…

खूप मोठं होईपर्यंत आम्ही लहानच होतो !

सगळंच स्वस्त होतं तेव्हा, बालपण सुद्धा….

भरपूर उपभोगलं त्यामुळे…. उन्हापावसात, मातीत, दगडात, घराच्या अंगणात, गावाबाहेरच्या मैदानात… कुठेही गेलं तरी बालपणाची हरित तृणांची मखमल सर्वत्र पसरलेली असायची…

 

आता तसं नाही…

लहानपणीच खूप मोठी होतात मुलं ! 

खूप महाग झालंय बालपण…. !

 

पूर्वी आईसुद्धा खूप स्वस्त होती,

फुल टाईम ‘ आईच ‘ असायची तेव्हा ती…… !

 आम्हाला सकाळी झोपेतून उठवण्यापासून ते रात्री कुशीत घेऊन झोपवण्यापर्यंत सगळीकडे आईच आई असायची….

 

आता ‘मम्मी’ थोडी महाग झालीय 

जॉबला जातेयं हल्ली. संडेलाच अव्हेलेबल असते…. ! 

 

मामा चे गाव तर राहिलच नाही….

मामा ने सर्वाना मामाच बनवल….

प्रेमळ मामा आणि मामी आता राहिलेच नाहीत पूर्वीसारखे….

आधी मामा भाच्यांची वाट पहायचे….

आता सर्वाना कोणी नकोसे झालाय….

 हा परिस्थितीचा दोष आहे…

 

मित्र सुद्धा खूप स्वस्त होते तेव्हा…

हाताची दोन बोटं त्याच्या बोटांवर टेकवून नुसतं बट्टी म्हटलं की कायमची दोस्ती होऊन जायची…. शाळेच्या चड्डीत खोचलेला पांढरा सदरा बाहेर काढून त्यात ऑरेंज गोळी गुंडाळायची आणि दाताने तोडून अर्धी अर्धी वाटून खाल्ली की झाली पार्टी… !!!

 

आता मात्र घरातूनच वॉर्निंग असते,

“डोन्ट शेअर युअर टिफिन हं !” 

मैत्री बरीच महाग झालीय आता.

 

हेल्थला आरोग्य म्हणण्याचे दिवस होते ते…. !!! 

 

सायकलचा फाटका टायर आणि बांबूची हातभर काठी एवढ्या भांडवलावर अख्ख्या गावाला धावत फेरी घालताना तब्येत खूप स्वस्तात मस्त होत होती…..

 

घट्ट कापडी बॉलने आप्पाधाप्पी खेळताना पाठ इतकी स्वस्तात कडक झाली की पुढे कशीही परिस्थिती आली तरी कधी वाकली नाही ही पाठ…

इम्युनिटी बूस्टर औषधं हल्ली खूपच महाग झालीत म्हणे…. !!!

 

ज्ञान, शिक्षण वगैरे सुद्धा किती स्वस्त होतं…..

फक्त वरच्या वर्गातल्या मुलाशी सेटिंग लावलं की वार्षिक परीक्षेनंतर त्याची पुस्तकं निम्म्या किंमतीत मिळून जायची…..

वह्यांची उरलेली कोरी पानं काढून त्यातून एक रफ वही तर फुकटात तयार व्हायची….

 

आता मात्र पाटीची जागा टॅबने घेतलीय,

ऑनलाईन शिक्षण परवडत नाही आज !

 

एवढंच काय, तेव्हाचे 

आमचे संसार सुद्धा किती स्वस्तात पार पडले….

शंभर रुपये भाडं भरलं की महिनाभर बिनघोर व्हायचो…

सकाळी फोडणीचाभात/पोळी किंवा भात आणि मस्त चहा असा नाष्टा करून ऑफिसमध्ये जायचं, जेवणाच्या सुट्टीत (तेव्हा लंच ब्रेक नव्हता) डब्यातली भेंडी/बटाटा/गवारीची कोरडी भाजी, पोळी आणि फार तर एक लोणच्याची फोड… !!

 रात्री गरम खिचडी, की झाला संसार…

 ना बायको कधी काही मागायची ना पोरं तोंड उघडायची हिंमत करायची…..

 

आज सगळंच विचित्र दिसतंय भोवतीनं…. !! 

Live-in पासून ते Divorce, Suicide पर्यंत बातम्या बघतोय आपण…. , मुलं बोर्डिंगमधेच वाढतायत, सगळं जगणंच महाग झालेलं….. !! 

 

काल परवा पर्यंत मरण तरी स्वस्त होतं…..

पण आता….

 तेही आठ दहा लाखांचं बिल झाल्याशिवाय येईनासं झालंय….

 

म्हणून म्हणतोय… जीव आहे तोवर भेटत रहायचं.. आहोत तोवर आठवत रहायचं……

नाहीतर आठवणीत ठेवायला सुद्धा कोणी नसणार…. ही जाणीव पण झाली तर रडत बसण्याशिवाय दुसरा पर्याय नसेल हो..

म्हणून जमेल तेवढे नातेवाईक किंवा मित्र गोळा करून ठेवा….

नाहीतरी ह्या स्मृतीगंधा शिवाय आहे काय आपल्याजवळ.. हो ना….. !!!

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “मकर संक्रांत आणि खगोलशास्त्र…” ☆ श्री जगदीश काबरे ☆

श्री जगदीश काबरे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “मकर संक्रांत आणि खगोलशास्त्र…☆ श्री जगदीश काबरे ☆

पृथ्वीच्या परिभ्रमणामुळे सूर्याच्या मागील अवकाशाची पार्श्वभूमी बदलते आणि सूर्य वेगवेगळ्या नक्षत्रांमधून जात असल्याचे दिसते. संपूर्ण चक्र 12 भागांमध्ये विभागले गेले आहे ज्याला राशिचक्र म्हणून ओळखले जाते आणि ज्या दिवशी सूर्य धनु राशीतून मकर राशीत प्रवेश करतो. त्या दिवशी मकर संक्रमण होते. सूर्याभोवती प्रदक्षिणा घालताना, सूर्याच्या पार्श्वभूमीवर राशीचक्र बदलत असताना पृथ्वीच्या अक्षाचा कल सारखाच राहतो. परंतु, त्यामुळे एक गोलार्ध सूर्यासमोर सहा महिने आणि दुसरा सहा महिने सूर्याच्या मागे राहतो. यामुळे पृथ्वीवरील सूर्यकिरणांचा कोन सतत बदलत राहतो आणि सूर्य सहा महिने उत्तरेकडे आणि सहा महिने दक्षिणेकडे फिरल्याचा आभास देतो. यालाच भौगोलिक भाषेत उत्तरायण आणि दक्षिणायन म्हणतात. मकर संक्रांतीत सूर्याचे दक्षिणायन संपून उत्तरायण सुरू होते. कारण सूर्य धनु राशीतून मकर राशीत प्रवेश करतो. मकर संक्रांतीनंतर, उत्तर गोलार्धात सूर्य उत्तरेकडे जाऊ लागतो आणि हिवाळा कमी होऊ लागतो. भारतासह उत्तर गोलार्धात उन्हाळा वाढू लागतो. हे 21 जूनपर्यंत होते, त्यानंतर सूर्याचे दक्षिणायन सुरू होते.

मकर संक्रांतीनंतर दिवस मोठे होतात आणि रात्री लहान होतात, उत्तर गोलार्धात 14-15 जानेवारीपर्यंत सूर्यास्ताची वेळ हळूहळू पुढे सरकते. त्यानंतर 21 मार्च ही तारीख येते, जेव्हा दिवस आणि रात्र अगदी समान असतात त्याला इक्विनॉक्स म्हणतात. याचा अर्थ सूर्य जवळजवळ उत्तर गोलार्धाच्या मध्यभागी असतो. सूर्यास्ताच्या वेळेत हळूहळू बदल होणे म्हणजे हिवाळा कमी होतो, त्यानंतर उन्हाळा वाढायला सुरुवात होते. कारण सूर्य उत्तर गोलार्धात जास्त काळ राहणार असतो.

सूर्याभोवती पृथ्वी फिरते हे सर्वज्ञात आहे, पण पृथ्वीवरून पाहताना पृथ्वीभोवती सूर्य फिरतो असं भासतं. याला सूर्याचं भासमान भ्रमण असं म्हणतात. सूर्य उगवताना ज्या तारकासमूहांच्या पार्श्वभूमीवर तो दिसतो ती जागादेखील रोज बदलते. एक-दोन दिवसांमध्ये सूर्याच्या स्थानातला बदल फार लक्षणीय नसतो. पण महिन्याभरात ही जागा अगदी निश्चितपणे बदललेली दिसते. आणि वर्षभरानंतर सूर्य पुन्हा नेमक्या त्याच तारकासमूहाच्या पार्श्वभूमीवर नेमक्या त्याच जागी दिसू लागतो. या तारखासमूहांना त्यांच्या आकारावरून जी नावे दिली गेली त्यांनाच आपण राशी म्हणतो. थोडक्यात, वर्षभरात सूर्य या विविध तारकासमूहांमधून भ्रमण करतो आहे असं भासतं म्हणजेच सूर्य विविध राशीमधून प्रवास करत असतो. वर्षभरात सूर्याच्या या भासमान भ्रमणाचा जो मार्ग त्याला ‘क्रांतिवृत्त’ असं म्हणतात.

या क्रांतिवृत्तावर सूर्याचं नेमकं स्थान कसं सांगायचं? मग त्यासाठी या क्रांतिवृत्ताचे बारा भाग पाडले आहेत. या बारा भागांना नावं देणं आलं. त्या प्रत्येक भागात दिसणाऱ्या तारकासमूहातले तारे काल्पनिक रेषांनी जोडले (हे म्हणजे लहानपणी ‘बिंदू जोडून आकृती तयार करा’ असा खेळ असायचा तसंच झालं!) तर तयार होणाऱ्या आकृतीचं पृथ्वीवरच्या विविध गोष्टींशी साधर्म्य आहे असं लक्षात आलं आणि नावांचा प्रश्न सुटला. मग ज्या तारकासमूहातली आकृती मगरीसारखी दिसत होती त्याला नाव दिलं मकर रास, वगैरे वगैरे. अनेकांना असं वाटतं की, राशींनी या अथांग अंतराळाचे बारा भाग केले आहेत. तसं मुळीच नाही. राशी या केवळ सूर्याच्या भासमान भ्रमणमार्गाचे भाग आहेत. आणि सूर्याचा भासमान भ्रमणमार्ग हा या अथांग अंतराळावर मारलेला एक छोटासा काल्पनिक पट्टा आहे.

वैज्ञानिकदृष्ट्या बोलायचे झाले तर सूर्याच्या उत्तरायणाची सुरुवात खरे तर 21 डिसेंबर होते, जेव्हा सूर्य दक्षिणायन संपवून उत्तरेकडे सरकायला लागतो. परंतु, भारत आणि उत्तर ध्रुवाच्या दरम्यान असलेल्या देशांमध्ये हा प्रभाव मकर संक्रांतीच्या दिवशी अधिक प्रभावी मानला जातो. ती तारीख 14 किंवा 15 जानेवारी असते. सध्या हा फरक 24 दिवसांचा आहे. तसेच दर वर्षीचा नऊ मिनिटे दहा सेकंद हा काळ साठत साठत जाऊन दर 157 वर्षांनी मकर संक्रांतीचा दिवस आणखी एक दिवसाने पुढे जातो. दर 1500 वर्षांनी पृथ्वीच्या परिभ्रमणाच्या अक्षात होणाऱ्या बदलामुळे हा फरक दिसून येतो. आजपासून 1200 वर्षांनंतर ही तारीख बदलून फेब्रुवारी महिन्यात येईल. 2001 ते 2007 पर्यंत 14 जानेवारीला मकर संक्रांत येत होती. पण 2008 मध्ये 14 जानेवारीला 12. 07 मिनिटांनी संक्रांत आली, त्यामुळे संक्रांतीचा सण त्याच वर्षी 15 जानेवारीला झाला. दरवर्षी ही वेळ 6 तास 9 मिनिटांनी पुढे सरकते आणि चार वर्षांत ती 24 तास 36 मिनिटांनी पुढे सरकते. परंतु, लीप वर्षामुळे ती 24 तासांनी मागे सरकते म्हणजेच दर चार वर्षांनी ती 36 मिनिटांनी पुढे सरकते. काही वर्षांत संक्रांतीची तारीख पुढे सरकते. सन 2009 ते 2012 पर्यंत संक्रांतीचा दिवस 14-14-15-15 होता. हे चक्र 2048 पर्यंत चालू राहील, त्यानंतर ते 14-15-15-15 असेल. नंतर 2089 पासून ते 15-15-15 -15 होईल. हे दर 40 वर्षांनी होईल. परंतु, 2100 हे वर्ष लीप वर्ष असूनही, 400 ने भागल्यास लीप वर्ष मानले जाणार नाही, कारण ग्रेगरियन कॅलेंडरच्या नियमाप्रमाणे शतकपूर्तीच्या अंकास चारशेनी भाग जात नसेल, तर त्या वर्षी लीप वर्ष धरले जात नाही. त्यामुळे दर चारशे वर्षांनी मकर संक्रांतीचा दिवस तीन दिवसांनी पुढे जातो. म्हणून 2100 ते 2104 पर्यंत संक्रांतीच्या तारखा 16-16-16-16 अशा असतील.

सामान्यतः भारतातील सर्व सण हे चंद्राच्या चक्रानुसार असतात, त्यामुळे इंग्रजी दिनदर्शिकेनुसार त्यांच्या तारखा दरवर्षी बदलतात. म्हणूनच होळी, दिवाळीसारखे सण वेगवेगळ्या तारखांना येतात. परंतु मकर संक्रांती हा एकमेव सण आहे, जो सूर्याच्या भासामान भ्रमाणावर आधारित असतो. इंग्रजी कॅलेंडर देखील सूर्याच्या यात गतीवर आधारित आहे. म्हणून मकर संक्रांत दरवर्षी 14 किंवा 15 जानेवारीला सध्या येते.

©  जगदीश काबरे

मो ९९२०१९७६८०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “पु. ल. – दि ग्रेट…” – संग्राहक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆

📚 वाचताना वेचलेले 📖

☆ “पु. ल. – दि ग्रेट” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे

मराठीत “लागण्याची” गंमत बघा:

बाजूच्या गावात एक चित्रपट *लागला* होता.

तो बघून परत येतांना वाटेत मित्राचा बंगला “लागला”.

त्याचा मुलगा माझ्या ऑफीस मध्ये नुकताच “लागला” होता.

बंगल्यात शिरतांना कमी उंचीमुळे दरवाजा डोक्याला “लागला”.

घरचे जेवायचा आग्रह करू “लागले”. मला जेवणात गोड “लागतं” हे माहिती असल्याने गोड केलं होतं.

भात थोडा “लागला” होता पण जेवण छान होतं. जेवणानंतर मला सुपारी दिली ती नेमकी मला “लागली”. पाहुण्यांना आपल्यामुळे त्रास झाला ही गोष्ट घरच्यांना फार “लागली”.

निघताना बस फलाटाला “लागली”*च होती, ती *”लागली”च पकडली.

पण भरल्या पोटी आडवळणांनी ती मला बस “लागली”. मग काय…

घरी पोहोचेपर्यंत माझ्या पोटाची मला भलतीच काळजी “लागली” कारण आल्या आल्या घाईची “लागली”.

थोडक्यात माझी अगदी वाट “लागली”..

घरची मंडळी हसायला “लागली”.

The only & only Great पु ल!!

 

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती : श्री सुनीत मुळे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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