हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #263 ☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नसीहत बनाम तारीफ़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 263 ☆

☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆

‘नसीहत वह सच्चाई है, जिसे हम कभी ग़ौर से नहीं सुनते और तारीफ़ वह धोखा है, जिसे हम पूरे ध्यान से सुनते हैं’–जी हाँ! यही है हमारे जीवन का कटु सत्य। हम वही सुनना चाहते हैं, जिसमें हमें श्रेष्ठ समझा गया हो; जिसमें हमारे गुणों का बखान और हमारा गुणगान हो। परंतु वह एक धोखा है, जो हमारे विकास में बाधक होता है। इसके विपरीत जो नसीहत हमें दी जाती है, उसे हम ग़ौर व ध्यान से कभी नहीं सुनते और न ही जीवन में धारण करते हैं। नसीहत हमारे भीतर के सत्य को उजागर करती है और हमें सही राह पर चलने को प्रेरित करती है; पथ-विचलित होने से हमारी रक्षा करती है। परंतु जीवन में चमक-दमक वाली वस्तुएं अधिक आकृष्ट करती हैं, क्योंकि उनमें बाह्य सौंदर्य होता है। यही आज के जीवन की त्रासदी है कि लोग आवरण को देखते हैं, आचरण को नहीं।

‘आवरण नहीं, आचरण बदलिए/ चेहरे से अपने मुखौटा उतारिए/ हसरतें रह जाएंगी मुंह बिचकाती/ तनिक अपने अंतर्मन में तो झांकिए।’ ये स्वरचित पंक्तियां जीवन के सत्य को उजागर करती हैं कि हमें चेहरे से मुखौटा उतार कर सत्य से साक्षात्कार करना चाहिए। हमारे हृदय की वे हसरतें, आशाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं पीछे रह जाएंगी; उनका हमारे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा, क्योंकि झूठ हमेशा पर्दे में छिप कर रहना चाहता है और सत्य अनेक परतों को उघाड़ कर प्रकट हो जाता है। भले ही सत्य देरी से सामने आता है और वह केवल उपयोगी व लाभकारी ही नहीं होता; हमारे जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है तथा उसकी सार्थकता को नकारने का सामर्थ्य किसी में नहीं होता। सत्य सदैव कटु होता है और उसे स्वीकारने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। इसलिए सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा साहित्य में वर्णित है, जो सबके लिए मंगलकारी है। सत्य सदैव शिव व सुंदर होता है, जो शुभ तथा सर्वजन- हिताय होता है।

सौंदर्य के दो रूप हैं–बाह्य व आंतरिक सौंदर्य। बाह्य सौंदर्य रूपाकार से संबंध रखता है और उसमें छल की संभावना बनी रहती है। इस संदर्भ में यह कथन सार्थक है– ‘Beautiful faces are always deceptive.’ क्योंकि जो चमकता है, सदैव खरा व सोना नहीं होता। उस पर भरोसा करना आत्म-प्रवंचना है। यदि सोने को कीचड़ में फेंक दिया जाए, तो भी उसकी चमक-दमक कम नहीं होती और हीरे के जितने भी टुकड़े कर दिए जाएं; उसकी कौंध भी यथावत् बनी रहती है। इसलिए आंतरिक सौंदर्य अनमोल होता है और मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों का संचय करना चाहिए। प्रसाद जी भी जीवन में दया, माया, ममता, स्नेह, करूणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग आदि की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे जीवन को केवल सुंदर ही नहीं बनाते; आलोकित व ऊर्जस्वित भी करते हैं। वास्तव में वे अनुकरणीय जीवन-मूल्य हैं।

जीवन में दु:ख व करुणा का विशेष स्थान है। महादेवी जी दु:ख को जीवन का अभिन्न अंग स्वीकारती हैं। क्रोंच वध को देखकर बाल्मीकि जी के मुख से जो शब्द नि:सृत हुए, वे ही प्रथम श्लोक के रूप में स्वीकारे गये। ‘आह से उपजा होगा गान’ भी यही दर्शाता है कि दु:ख, दर्द व करुणा ही काव्य का मूल है और संवेदनाएं स्पंदन हैं, प्राण हैं। वे जीवन को संचालित करती हैं और संवेदनहीन प्राणी घर-परिवार व समाज के लिए हानिकारक होता है। वह अपने साथ-साथ दूसरों को भी हानि पहुंचाता है। जैसे सिगरेट का धुआं केवल सिगरेट पीने वाले को ही नहीं; आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। उसी प्रकार सत्साहित्य व धर्म-ग्रंथों को उत्कृष्ट स्वीकारा गया है, क्योंकि वे आत्म-परिष्कार करते हैं और जीवन को उन्नति के शिखर पर ले जाते हैं। इसलिए निकृष्ट साहित्य व ग़लत लोगों की संगति न करने की सलाह दी गई है और बुरी संगति की अपेक्षा अकेले रहने को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। श्रेष्ठ साहित्य मानव को शीर्ष ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं तथा जीवन में समन्वय व सामंजस्य की सीख देते हैं, क्योंकि समन्वय  के अभाव में जीवन में संतुलन नहीं होगा और दु:ख अनवरत आते रहेंगे। सो! मानव को सुख में कभी फूलना नहीं चाहिए और दु:ख में विचलित होने से परहेज़ रखना चाहिए। यहां मेरा संबंध अपनी तारीफ़ सुनकर फूलने से है। वास्तव में वे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमारी तारीफ़ों के पुल बांधते हैं तथा उन शक्तियों व गुणों को दर्शाते हैं;जो हमारे भीतर होती ही नहीं। यह प्रशंसा का भाव हमें केवल पथ-विचलित ही नहीं करता, बल्कि इससे हमारी साधना व विकास के पहिये भी थम जाते हैं। हमारे अंतर्मन में अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव जाग्रत हो जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हृदय में संचित स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति आदि दैवीय भाव इस प्रकार नदारद हो जाते हैं, जैसे वह उनका आशियाँ ही न हो।

वास्तव में निंदक व प्रशंसा के पुल बांधने वाले हमारे शत्रु की भूमिका अदा करते हैं। वे नीचे से हमारी सीढ़ी खींच लेते हैं और हम धड़ाम से फर्श पर आन पड़ते हैं। इसलिए कबीरदास जी ने निंदक को सदैव अपने अंग-संग रखने की सीख दी है, क्योंकि ऐसे लोग अपना अमूल्य समय लगाकर हमें अपने दोषों से परिचित कराते हैं; जिनका अवलोकन कर हम श्रेष्ठ मार्ग पर चल सकते हैं और समाज में अपना रुतबा क़ायम कर सकते हैं। सो! प्रशंसक निंदक से अधिक घातक व पथ का अवरोधक होते हैं, जो हमें अर्श से सीधा फर्श पर धकेल देते हैं।

हम अपने स्वाभावानुसार नसीहत को ध्यान से नहीं सुनते, क्योंकि वह हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराती है। वैसे ग़लत लोग सभी के जीवन में आते हैं, परंतु अक्सर वे अच्छी सीख देकर जाते हैं। शायद इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ग़लती बेशक भूल जाओ, लेकिन सबक अथवा नसीहत हमेशा याद रखो, क्योंकि दूसरों के अनुभव से सीखना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कला है।’ इसलिए जीवन में जो आपको सम्मान दे; उसी को सम्मान दीजिए, क्योंकि हैसियत देखकर सिर झुकाना कायरता का लक्षण है। आत्मसम्मान की रक्षा करना मानव का दायित्व है और जो मनुष्य अपने आत्म- सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, वह किसी अन्य के क्या काम आएगा? सो! विनम्र बनिए, परंतु सत्ता व दूसरों की हैसियत देखकर स्वयं को हेय समझ, दूसरों के सम्मुख नतमस्तक होना निंदनीय है, कायरता का लक्षण है।

इच्छाओं की सड़क बहुत दूर तक जाती है। बेहतर यही है कि ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं। जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा लेते हैं तो तनाव व अवसाद की स्थिति नहीं प्रकट होती। सो! जब हमारे मन में आत्म-संतोष का भाव व्याप्त होता है; हम किसी को अपने से कम नहीं आंकते। सो! झुकने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि संवाद में विश्वास रखें, विवाद में नहीं, क्योंकि विवाद से मनमुटाव व अंतर्कलह उत्पन्न होता है। हम बात की गहराई व सच्चाई से अवगत नहीं हो पाते और हमारा अमूल्य समय नष्ट होता रहता है। संवाद की राह पर चलने से रिश्तों में मज़बूती आती है तथा समर्पण भाव पोषित होता है। इसलिए हमें दूसरों की नसीहत पर ग़ौर करना चाहिए और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मानव को जीवन में जो अच्छा लगे; अपना लेना चाहिए तथा जो मनोनुकूल न हो; मौन रहकर त्याग देना चाहिए। सो! प्रोत्साहन व प्रशंसा के भेद को समझना आवश्यक है। प्रोत्साहन हमें ऊर्जस्वित कर बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है, वहीं प्रशंसा का भाव हमें फ़र्श पर ला पटकता है। यदि प्रशंसा गुणों की जाती है तो सार्थक है और हमें अच्छा करने को प्रेरित करती है। दूसरी ओर यदि प्रशंसा दुनियादारी के कारण की जा रही है, उसके परिणाम विध्वंसक होते हैं। जब हमारे भीतर अहम् रूपी शत्रु प्रवेश पा जाता है तो हम अपनी ही जड़ें काटने में मशग़ूल हो जाते हैं। हम अपने सम्मुख दूसरों के अस्तित्व को नकारने लगते हैं तथा अपने सब निर्णय दूसरों पर थोप डालना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने आदेशों के अनुपालना न होने पर हम प्रतिपक्षी के प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करते। हर चीज की अधिकता बुरी होती है, चाहे अधिक मीठा हो या अधिक नमक। अधिक नमक रक्तचाप का कारण बनता है, तो अधिक चीनी मधुमेह का कारण बनती है। सो! जीवन में संतुलन रखना आवश्यक है। जो भी निर्णय लें–उचित- अनुचित व लाभ-हानि को देख कर लें अन्यथा वे बहुत हानि पहुंचाते हैं। ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही न ज़िंदगी को रुसवा कीजिए/ हसरतें न रह जाएंगी दिल में अधूरी/ कभी ख़ुदा से भी राब्ता किया कीजिए। ‘जी हां! आत्मावलोकन कीजिए। विवाद व प्रशंसा रूपी रोग से बचिए तथा दूसरों की नसीहत को स्वीकारिए, क्योंकि जो व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का अनुसरण करते हैं और जीवन में खुशी व सुक़ून से जीवन जीते हैं। कोई सराहना करे या निंदा–लाभ हमारा ही है, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है तो निंदा सावधान होने का अवसर प्रदान करती है। इसलिए मानव को अच्छी नसीहतों को विनम्र भाव से जीवन में धारण करना चाहिए।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ – ‘This January…’ – ☆ Ms. Roopam Chadha ☆

Ms. Roopam Chadha

(Roopam Chadha is an award-winning bilingual poet. She is a graduate in Economics (hons) from Delhi University. She has authored two books of English poetry. She received an award for her debut anthology ’And the Canaries Sing On’ from ‘Autism for Help Village Project Trust” (2021). She has also won the best English collection award for her second anthology ‘Blushing Candles’ from The Literary Warrior Group at Sahitya Akademi New Delhi (2023) Her poems share space in several national and international anthologies. Besides writing she also pursues her passion for painting.)

We present her prize-winning entry in the Literary Warriors Group Contest ~ ‘This January…~. 

☆ ~ ‘This January…’ ~? ☆

(Prize winning entry in the Literary Warriors Group Contest. The prompt given was to start with the lines “This January”.)

This January, let the frost of hatred thaw

May there be no more bloodshed or war

No more widows or orphans to be born of vengeance

And no more martyrs brought home in decorated coffins

 

This January, let there be no more shadows of deceit

Lurking in the dark corners of lust

May every girl or woman hold her grace, honour and trust

May there be no more Nirbhaya, ever a repeat

 

This January, let the golden fields of corn sway

In bountiful, for the starved where hunger lay

May there be rain of happiness for all

And the rainbow of hope spread peace

Across horizons, crossing barriers of religion and creed

~ Ms. Roopam Chadha

© Ms. Roopam Chadha

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 25 ?

?दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- दस्तक देती आँधियाँ

विधा- कविता

कवयित्री- डॉ. कांतिदेवी लोधी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? भीतर तक प्रवेश करती आँधियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी का यह  काव्यपुष्प उनके पूर्ववर्ती संग्रह ‘भावों के पदचिह्न’ का विस्तार है। पूर्ववर्ती संग्रह में उभरती प्रतिमाएँ यहाँ पूर्ण आकृति ग्रहण कर सृजन को प्रसूत करती हैं। विभिन्न भावों से विभूषित संवेदनाओं के इस नीड़ का नामकरण कवयित्री ने ‘दस्तक देती आँधियाँ’ किया है।

इस संग्रह में डॉ. लोधी ने अनुभूति और भाव साम्य की दृष्टि से कविताओं को क्रम दिया है। यह क्रम रचनाकार के विभिन्न भावों को कुशलता से चित्रित करने के सामर्थ्य को उभारता है तो कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति और लेखन शैली की सीमाओं को भी चित्रित करता है। समान भावों को एक साथ पिरोते समय यह होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता से समझौता किये बिना उसे रेखांकित होने देना कवयित्री की सहजता एवं साहस का परिचायक है।

रचनाएँ, रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ परिचय होती हैं। उन्हें पढ़ते समय आप रचनाकार को भी पढ़ सकते हैं। डॉ. लोधी की रचनाओं से एक ऐसी आकृति उभरती है जो उन्हें प्रयोगधर्मी सर्जक के रूप में स्थापित करती है। कवयित्री कहीं-कहीं सीधे लोकभाषा में संवाद करती हैं तो कहीं अंग्रेजी का एक ही शब्द प्रयोग कर काव्य को वर्तमान धारा और पाठक से सीधे जोड़ देती हैं। वे कहीं साहित्य के शुद्ध भाषा सौंदर्य के साथ बतियाती हैं तो कहीं परिधियों को लांघकर हिन्दी-उर्दू की मिली जुली ज़बान में अपनी बात प्रकट करती हैं। इतने विविध रूपों में एक बात समानता से दिखती है कि कवयित्री हर वर्ग के साथ संवाद स्थापित करने में सफल होती हैं। यही रचना का सामर्थ्य है, यही रचनाकार की विशेषता है। फलत: उनकी आकृति मानसपटल पर अधिक गहरी हो जाती है।

कवयित्री डॉ. लोधी के इस संग्रह में उनकी तीन दशकों की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं । इन अभिव्यक्तियों के पड़ाव, उनकी भाषा, प्रवाह और भाव कुछ स्थानों पर देखते ही बनते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता की अनुगूँज है। अधिकाश स्थानों पर यह अनुगूँज प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ प्रतिध्वनित हुई है। इसका चित्रण करते समय वह नाटककार या कथाकार की-सी कुशलता से एक चित्र का वर्णन करते हुए दूसरे को अवचेतन में इतना प्रभावी कर देती हैं कि वह चेतन पर भी हावी हो जाए, फिर हौले से चेतन और अवचेतन का एकाकार कर देती हैं। एकाकार का उदाहरण देखिए-

प्रकृति का अनुपम शृंगार,

हमें मिला अद्भुत उपहार,

कण-कण रोमांचित करती हुई,

बरबस उस कलाकार की याद दिला रही है।

ईश्वर में आस्था और आध्यात्मिकता के स्वर उनकी कई रचनाओं में सुनने को मिलते हैं।

डॉ. लोधी की रचनाओं में प्रकृति के सौंदर्य और शृंगार का चित्रण गहराई से हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण बेहद सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। उनकी उपमाएँ शब्दों को जीवित कर देती हैं। बादलों का वर्णन करते हुए वे लिखती है –

मानो कोई नटखट बालक,

मौसी का हाथ छुड़ा, माँ की ओर भाग रहा हो।

इसी भाव की कविताओं में चाय के बागानों को हरे मखमली दुशाले ओढ़े धरती की बेटियाँ कहना या बांस के वृक्षों से आच्छादित द्वीपों को, ‘रात में अनेक दैत्य घुटनों तक पानी में खड़े होकर षड्यंत्र रच रहे हों’ की दृष्टि से देखना उनके काव्य लेखन का सशक्ततम बिंदु है। ये उपमाएँ एक निष्पाप, मासूम-सी अभिव्यक्ति लगती हैं जिनके साथ पाठक लौह-चुंबक सा जुड़ जाता है। प्रकृति के साथ लिखने की यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं बादलों से जोडती है, कहीं सागर से, कभी सूर्य से तो कभी नदियों और झरनों से भी ।

कवयित्री की रचनाओं में प्रकृति के विनाश विशेषकर वृक्षों की कटाई को लेकर मार्मिक टिप्पणियाँ हैं। विकास के नाम पर होने वाले इस विनाश का प्रबल विरोधी होने के कारण संभवतः मुझे इन रचनाओं ने अधिक प्रभावित किया है। पर यह भी सत्य है कि वृक्षों के विनाश का दृश्य अपने एक परिजन को खोने की अनुभूति उपस्थित कर देता है-

जिसकी पूजा करती थी सुहागिनें,

अक्षत सौभाग्यदायी वटवृक्ष,

आज क्षत-विक्षत असहाय पड़ा था,

वहाँ आज बहुत बड़ा गड्ढा हो गया है।

शहर में मई महीने में गर्मी के पूछकर आने का अतीत और अब मार्च से ही पाँव पसार कर सो जाने का वर्तमान हृदय में शूल चुभो देता है। सड़क चौड़ी करने के अभियान में घर के बगीचे को काटने के निर्णय से घर को मिली ‘मौत और काले पानी की एक साथ सज़ा,’ ‘वसंत का भ्रम मात्र होना ‘जैसी पंक्तियाँ, उनकी संवेदनाओं को पाठकों के मानसपटल पर सीधे उतार देती हैं।

संवेदना, प्रेम की माता है। रचनाकार का संवेदनशील होना आवश्यक होता है……और संवेदनशील रचनाकार प्रेम पर, फिर वो चाहे जीवन के जिस पड़ाव और जिस स्वरूप का हो,  न लिखे, यह हो नहीं सकता । प्रेम को कवयित्री यूँ स्वर देती हैं-

अलक्षित अहिल्या थी मैं, पथ के किनारे और तुम राम हो, मेरे लिए ।

प्रेम के बल पर विभिन्न पड़ावों और कठिनाइयों के बीच सहचर के साथ की सहयात्रा को कांति जी बड़ी मंत्रमुग्ध शैली में ‘हम साथ चलते रहे’ कविता में उकेरती हैं। वानप्रस्थ की बेला में घोसले की परिधियों को पार कर गगन में उड़ानें भरते अपने ही पंछियों को देखकर वे पुलकित हैं तो एकाकी होना उन्हें म्लान भी करता है। पर यहाँ भी उम्र की गठरी बांधे अपने सहचर की अंगुली थामे अंत में वह पूछती हैं, ‘कहाँ है हमारा घर ?’ ‘मैं’ से ‘हम’ होने की प्रक्रिया उनकी प्रेमाभिव्यक्ति को विशाल आयाम प्रदान करती है।

कवयित्री वर्तमान की त्रासदियों और भविष्य की चिंताओं से भी साक्षात्कार करती हैं। ‘मानवीय क्लोन होने की प्रवृत्ति’ में वह भविष्य की भयावहता को अधोरेखित करती हैं। समाज में निरंतर घटते जीवनमूल्यों पर ‘कर्तव्य आज का’ कविता में सीधे प्रश्न करती हैं। ‘दृश्य आज का’ राजनीति के मुखौटों के पीछे दबी कालिख व कटु सच्चाइयों का दर्पण है। ‘हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं ‘में आतंकवाद और हिंसा से दुखी आम आदमी स्वर पाता है। ‘मीलों तक कोहरा है’ में अपने समय की सक्रिय खूँख़्वार प्रवृत्तियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं पर गहरे शब्द सामर्थ्य का वह परिचय देती हैं।

कवयित्री की रचनाओं में ‘माटी आंगन’ में जहाँ लोकभाषा उभरी है, वहीं कई रचनाएँ उर्दू के शब्द प्रयोग से युक्त हैं। काव्य की विभिन्न धाराओं और मनोभावों के बीच रचनाकार का जो पक्ष मजबूती से उभरता है, वह है उनके भीतर के प्रबल आशावाद का । मनुष्य के भीतर के बौने आदमी से सकारात्मक स्वर सुनने की आशा लिये वे खंडित होते-होते अखंडित रहने का मंत्र फूँकती हैं। आशा के प्रति ये आस्था जीवन और काल की सीमाओं को भी लांघती है। यथा-

प्रतीक्षा है आहट की, जब चाहे चल दूँगी, आस्था-विश्वास भरी, अक्षय डोरी थामे।

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी की रचनाओं का यह संग्रह ‘दस्तक देती आँधियाँ’ स्तरीय है। उन्होने अभिव्यक्ति के सागर में शब्दों को अनमोल मोती लिखा है। शब्द और बह्म को वह समान ऊँचाई पर रखती हैं। शब्दों के माध्यम से वह रचना का पाठक से एकाकार करा देती हैं। अपनी शब्दयात्रा के बीच एक नन्ही आकांक्षा को भी शब्द देती हैं, कहती हैं –

ज़िंदगी की क़िताब में मेरा नाम दर्ज हो,

फूलों की जगह ।

शब्दों की स्वामिनी, भावनाओं की कुशल चितेरी डॉ. कांतिदेवी लोधी की रचनाएँ  साहित्य की फुलवारी में गुलाब के पुष्प-सी प्रतिष्ठित हों, यह आशा करता हूँ। भविष्य की शब्द यात्रा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ।) 

☆  दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

ज्यों ज्यों समय आगे बढ़ता है, कुछ तस्वीरें दस्तावेज़ में तब्दील हो जाती हैं। उन तस्वीरों में उपस्थित कुछ इंसान हमें छोड़कर न जाने कहां चले जाते हैं और कुछ यहीं बैठे उनको याद करते हैं।

इस संस्मरण के साथ, यह कोलॉज जो आप देख रहे हैं, तीन तस्वीरों से बना है। तीनों के पीछे अपनी एक कहानी है।

पहली तस्वीर (ऊपर) रीवा विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में ली गई है। संभवतः वर्ष 1995 के दौरान। डॉ कमला प्रसाद वहां हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने हिंदी कहानी की दशा और दिशा पर एक भव्य संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें दिल्ली से ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ नामवर सिंह और काशी से प्रतिष्ठित कहानीकार काशीनाथ सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। मेरा सौभाग्य कि मैं उस कार्यक्रम में सपरिवार उपस्थित था। नामवर जी को विश्वविद्यालय प्रांगण में 8-9 वर्ष के छोटे बालक (हमारे पुत्र अनुराग) को देखकर कौतूहल हुआ। जब हम उनसे मिले तो उन्होंने पूछा, “बालक, तुम भी कुछ लिखते-पढ़ते हो?” हमारे बेटे ने उन्हें तुरंत निराला की कविता, “अबे, सुन बे गुलाब..” सुनाकर अचंभित कर दिया। यह तस्वीर उस अवसर की है।

दूसरी तस्वीर (नीचे, बाएं) देहरादून में रवींद्रनाथ त्यागी के घर में उनके पुस्तकालय में ली गई है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में कभी। हम गर्मियों की छुट्टी में उनसे मिलने लगभग हर दूसरे साल जाते थे। उनका विशेष स्नेह मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त था। यदि मैं उनके पास साहित्यिक मार्गदर्शन के लिए कभी अकेला जाता, तो वे मुझे अगली शाम सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित करते। कहते, “जल्दी आ जाना, पहले कुछ देर बातें होंगी और फिर पेटपूजा।”

तीसरी तस्वीर जबलपुर की है। वर्ष 1992। साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का आयोजन था। उस कार्यक्रम में, कहानीकार और संपादक ज्ञानरंजन के कर-कमालों से मेरे प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के विमोचन का यह दृश्य है। संयोगवश, ज्ञानरंजन जी ने ही कटनी में ‘पहल’ के एक आयोजन में, मेरी दूसरी पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ का विमोचन किया। फिर, प्रगति मैदान में, दिल्ली पुस्तक मेले में मेरी पुस्तक ‘हिन्दी की आख़िरी क़िताब’ का विमोचन जब डॉ शेरजंग गर्ग ने किया, तो वहां भी ज्ञानरंजन जी उपस्थित थे। इसका प्रसारण दूरदर्शन पर भी हुआ।

यह मेरा परम सौभाग्य है कि इन महान साहित्य-सेवियों का आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ और उनके साथ खींची गई ये तस्वीरें एक यादगार बन गई हैं।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #36 – गीत – बावरा मन चाहता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतबावरा मन चाहता

? रचना संसार # 36 – गीत – बावरा मन चाहता…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।

अब किनारा भी दिखादो, डूबते मझधार में।।

 *

प्रेम की सौगात ढूँढे ,हम बिछे इन शूल में।

साथ बस उल्लास हो अब भावना के मूल में।।

छल कपट का बोलबाला झूठ की सत्ता सजे।

मौन बैठा ये गगन पाखंड की वंशी बजे।।

द्वेष कटुता ही बसी हिय,क्या रखा सत्कार में।

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।।

 *

धर्म  को सब भूलते गठरी भरी है पाप की।

लोभ की सत्ता रहे ये नित्य ही संताप की।।

अब कहाँ रिश्ते रहे हैं डोर टूटी आस की ।

भूलते निज कर्म को सब छोड़ गति विश्वास की।।

सब मनुज ने अब गँवाया जान लो इंकार में।

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।।

 *

दुष्टता बढ़ती धरा में फैलता  व्यभिचार है।

त्याग का अब नाम क्या जीवन बना अब भार है।।

शांति अरु सदभाव रूठे देख कैसी ये घड़ी।

रक्तरंजित है डगर आहत हुई आत्मा बड़ी।।

तार दो रघुनाथ हमको हम खड़े हैं द्वार में।

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #263 ☆ भावना के दोहे – पर्यावरण ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – पर्यावरण)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 263 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – पर्यावरण ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

झरने झील पहाड़ की, करो न कोई बात।

याद मुझे आने लगी, वहीं सुहानी रात।।

*

मन प्रसन्न अब हो गया, देख तेरा ये रुप।

तुझमें अन्तर बहुत है, लगी समय की धूप।।

*

चिंता अब बढ़ने लगी, नहीं बचेंगे प्राण।

पर्यावरण  को नष्ट कर, करते भवन निर्माण।।

*

भानु देवता कर रहे, चारों ओर प्रकाश।

सूर्य उगता दिखा रहा, है सुंदर आकाश।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #245 ☆ संतोष के दोहे – अहम… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – अहम आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 245 ☆

☆ संतोष के दोहे – अहम… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कभी न हम पालें अहम, इसकी गहरी मार

मान गिराता यह सदा, होता है अपकार

*

अहम करे किस बात का, हे मूरख इंसान

जाना सबको एक दिन, बचता नहीं निशान

*

बचें सदा हम क्रोध से, इसमें लिपटा दंभ

अहंकार की आग में, गिरें टूट के खम्भ

*

सदा कभी रहता नहीं, धन-वैभव अभिमान

माटी में मिलता सदा, माटी का इंसान

*

साथ न देते बंधु प्रिय, महल अटारी कोष

वहम बढ़ाता अहम को, और बढ़ाये रोष

*

धन दौलत सम्मान से, मिले अहम को खाद

कमतर समझे गैर को, करे झूठ आबाद

*

अहंकार से सब मिटे, वैभव, इज्जत, वंश

देखें तीन उदाहरण, रावण, कौरव, कंस

*

साईं इतना दीजिए, आ ना सके गुरूर

चलें धर्म की राह हम, प्रेम रहे भरपूर

*

मनसा, वाचा कर्मणा, सबके बनें चरित्र

स्वयं रहे “संतोष” भी, रहें विचार पवित्र

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 579 ⇒ बड़े बूढ़े और महान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े बूढ़े और महान।)

?अभी अभी # 579 ⇒ बड़े बूढ़े और महान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जन्म से कोई बड़ा नहीं होता। बिना बड़ा हुए कोई बूढ़ा भी नहीं होता। कुछ लोग बड़े तो हो जाते हैं, लेकिन कभी बूढ़े नहीं होते। ऐसे लोग बोलचाल की भाषा में बिग बी कहलाते हैं। बिन्दास रोमांस और कम उम्र की लड़कियों के साथ फ्लर्ट करते हैं, और अगर इन्हें बूढ़ा कहो, तो पलटकर जवाब देते हैं, बूढ़ा होगा तेरा बाप।

होते हैं, होते हैं कुछ लोग ऐसे भी, जो ठीक से बड़े भी नहीं हो पाते, और बूढ़े हो जाते हैं। नीरज ने शायद इशारों इशारों में ही सही, यही बात कही है ;

नींद भी खुली ही न थी

कि हाय धूप ढल गई

पांव जब तलक उठे

कि जिंदगी फिसल गई

बड़ा होने, और बूढ़ा होने में बहुत फर्क है। जहां बड़प्पन और बुढ़ापा एक साथ नजर आता है, वहीं आसपास हमें एक बड़ा बूढ़ा नजर आता है। ए.के.हंगल को आपमें हर दृष्टि से एक बड़ा बूढ़ा नजर आएगा।।

बहुत पहले डाबर च्यवनप्राश का एक विज्ञापन आता था, जिसमें एक अधेड़ व्यक्ति को सीढियां चढ़ते दिखाया जाता था, इस शीर्षक के साथ, साठ साल के बूढ़े अथवा साठ साल के जवान ? आजकल ऐसे विज्ञापन आउट ऑफ फैशन हो गए हैं, क्योंकि योगा और जिम, मेन्स पार्लर और विमेंस ब्यूटी पार्लर, हेयर डाई, डेंटल केयर और आई एंड फेशियल सर्जरी इंसान को बूढ़ा होने ही नहीं देती। कल के एक पैंतालीस वर्ष के अधेड़ इंसान के आगे आज का एक पचहत्तर वर्ष का आधुनिक इंसान, पुराने लेकिन हमेशा जवां गीत की तरह आकर्षक और मनमोहक प्रतीत होता है।

बढ़े और बूढ़े के बीच की एक अवस्था और होती है जहां आदमी बड़ा होने के बाद और भी बड़ा होता चला जाता है। इसे आप बोलचाल की भाषा में कामयाबी कह सकते हैं। कामयाबी कभी इंसान को बूढ़ा नहीं होने देती। आदमी पढ़ लिखकर बड़ा आदमी तो बन सकता है, लेकिन उपलब्धियां ही उसे एक कामयाब इंसान भी बनाती है।।

उपलब्धियां कोई लॉलीपॉप नहीं और ना ही कोई फूले हुए रंग बिरंगे गुब्बारे। कामयाबी से प्रसिद्धि, प्रसिद्धि से उपलब्धि और अल्टीमेट उपलब्धि तो खैर महानता ही है, जो इंसान को न तो बूढ़ा होने देती है और न ही मरने देती है। महान लोग अमर हो जाते हैं।

कहने वाले तो यहां तक कह गए हैं, कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महान बनकर दिखाते हैं, और कुछ पर महानता थौंप दी जाती है। जन्म से महानता की बात तो हमारी समझ से परे है, और बाकी के बारे में, नो कमेंट्स।।

कोई साधारण व्यक्ति कब एक बड़ा आदमी बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। बूढ़ा होना भी कहीं कोई उपलब्धि है।

पहले सिटिजन थे, फिर सीनियर सिटिजन बन गए। वे तनकर चले, जब तक वेतन था, लाइफ सर्टिफिकेट पर तो झुककर ही हस्ताक्षर किया जाता है।

अगर आप बूढ़ा नहीं होना चाहते, हमेशा बड़ा बने रहना चाहते हैं तो उपलब्धियों की बैसाखी को थामे रहिए। कुछ पद्म पुरस्कार, कुछ सम्मान, एक ऐसी संजीवनी है, जो आपको अपनी निगाहों में ऊंचा उठा देगी। हो सकता है, महानता आपकी राह देख रही हो, अथवा बिल्ली के भाग से छींका टूट जाए और आप पर महानता थौंप दी जाए। महानता तेरा बोलबाला, बुढ़ापा, तेरा मुंह काला।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 239 ☆ संस्कार सावली… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 239 – विजय साहित्य ?

संस्कार सावली ☆

(काव्यप्रकार अष्टाक्षरी.)

अनाथांची माय

करुणा सागर

आहे भोवताली

स्मृतींचा वावर…! १

*

ममतेची माय

आदर्शाची वाट

सुख दुःख तिच्या

जीवनाचा घाट..! २

*

परखड बोली

मायेची पाखर

आधाराचा हात

देतसे भाकर…! ३

*

जगूनीया दावी

एक एक क्षण

संकटाला मात

झिजविले तन…! ४

*

पोरकी जाहली

माय ही लेखणी

आठवात जागी

मूर्त तू देखणी…! ५

*

दु:ख पचवीत

झालीस तू माय

संस्कार सावली

शब्द दुजा नाय..! ६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खरे-खोटे… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

? कवितेचा उत्सव ?

खरे-खोटे☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

माझ्या सभोवताली स्वार्थांध लोक जमले

त्यांना पुरून उरण्या जगणे तसेच शिकले

 *

परके कधी न माझे का त्यास दोष देऊ

अपुलेच शत्रू झाले त्यांनी मलाच लुटले

 *

जो दुर्जनास आधी वंदेल तो शहाणा

ही रीत ज्यास कळली जीवन तयास कळले

 *

ज्यांच्या घरात आहे साम्राज्य मंथरेचे

तुटतील खांब तिथले पक्के खरेच असले

 *

नाना कळा मनी पण दिसतो वरून भोळा

त्याने दिले जरीही खोटेच शब्द खपले

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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