English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 135 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 135 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 135) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 135 ?

☆☆☆☆☆

Introspection

 निकले हैं वो लोग मेरी

शख्सियत बिगाड़ने,

किरदार खुद के जिनके

मरम्मत मांग रहे हैं…!

☆☆

Those people are trying

to spoil my character…

Whose personality itself

needs desperate repairs…!

☆☆☆☆☆

 Recovery

 तफ़सील से तफतीश हुई

जब मेरी  गुमशुदगी की,

टुकड़े-टुकड़े में बरामद

हुआ मैं उनके ख़्यालों में…!

☆☆ 

When my disappearance

was investigated in detail,

I was recovered in bits and

pieces in her thoughts…!

☆☆☆☆☆

Gratefulness

जरा सा हट के चलता हूँ

जमाने की तमाम रिवायतों से,

जिन पे कभी बोझ डाला हो उन

कंधो का हमेशा शुक्रगुजार रहता हूँ…

 ☆☆

 I walk a little bit away from

the traditions of the world,

I’m indebted to the shoulders

which carried my burden.

☆☆☆☆☆

 तुम ही तुम दिखते हो हमेशा

हमें हुआ तो कुछ ज़रूर है,

क्या ये आईने की भूल है या

फिर मेरी नज़र का कसूर है…

☆☆

Something must’ve happened,

you only are seen to me,

Is it the fault of the mirror

or the defect of my eyes…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 186 ☆ अनिर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 185 ☆ अनिर्णय ?

एक परिचित अपना संस्मरण सुना रहे थे। चौराहे पर लाल सिग्नल होने के कारण उनकी कार रुकी हुई थी। भीख की आस में एक बच्चे ने कार के शीशे को खटखटाया। पहले उन्होंने बच्चे को निर्विकार भाव से देखा। फिर भीतर कुछ हलचल हुई। हाथ जेब में गया। दस का नोट निकाला पर दूँ या न दूँ की ऊहापोह बनी रही। बच्चा खटखटाता रहा, नोट हथेली में दबा रहा। तभी सिग्नल हरा हो गया और ऊहापोह से छुटकारा मिल गया।

इस प्रसंग में भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देने को लेकर अलग-अलग मत हो सकते हैं तथापि यह हमारे विवेचन का विषय नहीं है। हमारे चिंतन के केंद्र में है अनिर्णय।

जीवन में अनेक बार मनुष्य स्पष्ट निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पाता है। कुछ लोग अनिर्णय को अस्त्र की तरह उपयोग करते हैं तो कुछ लोगों के लिए अनिर्णय ही समाधान है।

सत्य तो यह है कि अनिर्णय किसी समस्या का हल नहीं अपितु स्वयं जटिल समस्या है। अनिर्णय के शिकार व्यक्ति के जीवन में सदा एक ठहराव दृष्टिगोचर होता है। अपनी लघुकथा ‘अनिर्णय’ स्मरण हो आई है।

‘…यहाँ से रास्ता दायें, बायें और सामने, तीन दिशाओं में बँटता था। राह से अनभिज्ञ दोनों पथिकों के लिए कठिन था कि कौनसी डगर चुनें। कुछ समय किंकर्तव्यविमूढ़ -से ठिठके रहे दोनों।

फिर एक मुड़ गया बायें और चल पड़ा। बहुत दूर तक चलने के बाद उसे समझ में आया कि यह भूलभुलैया है। रास्ता कहीं नहीं जाता। घूम फिरकर एक ही बिंदु पर लौट आता है। बायें आने का, गलत दिशा चुनने का दुख हुआ उसे। वह फिर चल पड़ा तिराहे की ओर, जहाँ से यात्रा आरंभ की थी।

इस बार तिराहे से उसने दाहिने हाथ जानेवाला रास्ता चुना। आगे उसका क्या हुआ, यह तो पता नहीं पर दूसरा पथिक अब तक तिराहे पर खड़ा है, वैसा ही किंकर्तव्यविमूढ़, राह कौनसी जाऊँ का संभ्रम लिए।

लेखक ने लिखा, ‘गलत निर्णय, मनुष्य की ऊर्जा और समय का बड़े पैमाने पर नाश करता है। तब भी गलत निर्णय को सुधारा जा सकता है पर अनिर्णय मनुष्य के जीवन का ही नाश कर डालता है। मन का संभ्रम, तन को जकड़ लेता है। तन-मन का साझा पक्षाघात असाध्य होता है…..।’

समस्या के असाध्य होने की जड़ में बहुधा अनिर्णय ही होता है। संत कबीर ने लिखा है,

काल करे सो आज करे, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब?

निर्णय विचारपूर्वक लें। आवश्यकता पड़ने पर निर्णय बदलें पर अनिर्णय में न रहें।.. इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ गिल्ली डंडा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिल्ली डंडा”।)  

? अभी अभी ⇒ गिल्ली डंडा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गिल्ली डंडा एकमात्र ऐसा भारतीय मैदानी खेल है, जो समय के साथ वयस्क नहीं हो पाया। कम से कम संसाधनों के साथ खेला जाने वाला यह खेल, आज अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। हॉकी, फुटबॉल और क्रिकेट जैसे खेलों की आंधी में गिल्ली न जाने खो गई, और डंडा न जाने कहां गुम हो गया।

मुझे अच्छी तरह याद है, तैमूर के परदादा के पहले हमने क्रिकेट का नाम भी नहीं सुना था।

भला हो लिटिल मास्टर गावस्कर, भारत रत्न सचिन और कपिल पाजी का, जिन्होंने बच्चे बच्चे के हाथ में बल्ला और क्रिकेट बॉल पकड़ा दी। हमने तो होश संभालते ही गिल्ली और डंडे को ही हाथ लगाया था।।

जब भी घर में लकड़ी का काम होता, सुतार हमारे लिए तीन चार धारदार गिल्लियां और गोल गोल डंडे अपनी मर्जी से बना देता था। दुकानों पर भी गिल्ली डंडा अपनी शोभा बढ़ाते थे। हमें अधिक बुरा तब लगता था, जब हमारे खेल के बीच कोई घर का बड़ा सदस्य, बिना बुलाए हठात् आकर, हमसे डंडा लेकर गिल्ली पर अपनी ताकत आजमाकर वहां से रवाना हो जाता था। ऐसे वक्त अक्सर गिल्ली गुम हो जाने पर खेल अपने आप ही रुक जाता था।

एक तरह से क्रिकेट जैसा ही खेल है यह गिल्ली डंडा। यहां डंडा ही बैट है और बॉल की जगह गिल्ली।

यहां विकेट गाड़े नहीं जाते, बस एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है, जहां गिल्ली को रखकर उसे डंडे से उछाला जाता है। यहां भी कैच पकड़ने के लिए फील्डर होते हैं। अगर पकड़ लिया तो आऊट और अगर किसी ने नहीं पकड़ा, तो रन मशीन शुरू हो जाती है।यहां शॉट को टोल कहते हैं। गिल्ली को डंडे से उछालकर उस पर जोर से प्रहार किया जाता है। फिर देखा जाता है, गिल्ली कितनी दूर गई है। प्रहार के ऐसे मौके सिर्फ तीन बार ही दिए जाते हैं।

इस खेल में रन दौड़कर नहीं बनाते। अंदाज से, जहां गिल्ली गिरी है, वहां तक की दूरी मानकर पॉइंट्स मांगे जाते हैं, अगर सामने वाले को हजम हो गया तो हां, वर्ना उसी डंडे से जमीन नापी जाती है। और अगर अंदाज गलत हुआ तो खिलाड़ी आउट।।

वैसे तो यह खेल दो लोग भी खेल सकते हैं, लेकिन अधिक खिलाड़ियों की टीम बनाकर भी यह खेला जा सकता  है।एक राजा बाली के समय में वामन अवतार हुए थे, जिन्होंने तीन कदम में तीनों लोक नाप लिए थे, और यहां इस गिल्ली डंडे के खेल में तीन प्रहार से आप जितनी चाहो, ज़मीन नाप सकते हो।

पहले तो यह खेल हम घर के आंगन में ही खेल लेते थे, लेकिन जब यह गिल्ली उछलती थी तो उन लोगों की आँखों को ही निशाना बनाती थी जिन्हें यह खेल फूटी आंखों पसंद नहीं था।।

इंसान अब बड़ा हो गया है। अब डंडे की जगह वह गगनचुंबी बांस से आसमान को हिला सकता है, गिल्ली अपना महत्व खो चुकी है, लालच के गड्ढे बहुत गहरे हो चुके हैं।

अफसोस गिल्ली डंडे के खेल में कोई मेजर ध्यानचंद नहीं, कोई मास्टर चंदगीराम नहीं, कोई हेलीकॉप्टर शॉट वाला धोनी नहीं। सही कारण तो यह है कि जब आज की युवा पीढ़ी को डांडिया रास आ रहा है, तो उसे छोड़ गिल्ली डंडा कौन खेलना चाहेगा।

एक अफवाह है, सरकार एक जांच आयोग बिठा रही है जो इस आरोप की जांच करेगा कि गिल्ली डंडे जैसे स्वदेशी खेल की दुर्दशा के लिए पिछली सरकार ही दोषी है। लगता है पतंग की तरह, गिल्ली डंडे के दिन भी अच्छे आ रहे हैं। आप गिल्ली डंडा खेलने कब आ रहे हैं।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 134 ☆ अवधी हाइकु सलिला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  “अवधी हाइकु सलिला”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 134 ☆ 

☆ अवधी हाइकु सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सुखा औ दुखा

रहत है भइया

घर मइहाँ.

*

घाम-छांहिक

फूला फुलवारिम

जानी-अंजानी.

*

कवि मनवा

कविता किरनिया

झरझरात.

*

प्रेम फुलवा

ई दुनियां मइहां

महकत है.

*

रंग-बिरंगे

सपनक भित्तर

फुलवा हन.

*

नेह नर्मदा

हे हमार बहिनी

छलछलात.

*

अवधी बोली

गजब के मिठास

मिसरी नाई.

*

अवधी केर

अलग पहचान

हृदयस्पर्शी.

*

बेरोजगारी

बिखरा घर-बार

बिदेस प्रवास.

*

बोली चिरैया

झरत झरनवा

संगीत धारा.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८.७.२०१८, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ राजगढ़ में लघुकथा सम्मेलन

राजस्थान के कस्बे राजगढ़ में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के सहयोग से साहित्य समिति ने दो दिवसीय लघुकथा सम्मेलन आयोजित किया । इसका उद्घाटन सादुलपुर की विधायक व प्रसिद्ध खिलाड़ी कृष्णा पूनिया व अकादमी के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने किया । इसमें देश भर से कम से कम चालीस लघुकथाकार शामिल हुए और दोनों दिन लघुकथा पाठ के सत्र बहुत ही प्रभावशाली रहे । उद्घाटन सत्र में कुछ पत्रिकाओं व लघुकथा संग्रहों का विमोचन भी किया गया । इस सफल आयोजन के लिये डाॅ रामकुमार घोटड़ बधाई के पात्र हैं जो हर समय अतिथियों की सेवा सत्कार में जुटे रहे । इनकी धर्मपत्नी लाजवंती व बेटी डाॅ प्रेरणा भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ रहीं । ऐसा आयोजन मुश्किल से हो पाता है पर यह बहुत स्मरणीय रहा । इससे पहले पंजाब की मिन्नी संस्था ने पिछले वर्ष अक्तूबर माह में लघुकथा सम्मेलन किया था ।

कथा संवाद के सम्मान : प्रसिद्ध कथाकार से रा यात्री के बेटे आलोक यात्री, संभाष चंदरशिवराज मिलकर गाजियाबाद में चला रहे हैं -कथा संवाद ! इसमें प्रतिमाह कथा गोष्ठी का आयोजन करते हैं । अगले माह मई मे वे देने जा रहे हैं कथा सम्मान ! इसमें अनेक नामों के बीच कथाकर सिनीवाली का नाम उल्लेखनीय है । वे गाजियाबाद में ही रहती हैं । उनके नये कथा संग्रह का नाम है -गुलाबी नदी की मछलियां ! इसमें नौ कहानियां संकलित हैं और बहुत ही प्रभावशाली हैं । आने वाले समय की महत्त्वपूर्ण कथाकार को सम्मानित किये जाने की घोषणा पर बधाई ।

मुम्बई में बैठकी : जहां जहां लेखक जाते हैं, वहीं वहीं रचनाकार उनके स्वागत् करें, गोष्ठियां करें तो कितना अच्छा हो । ऐसे ही खुशकिस्मत लेखक हैं व्यंग्य यात्रा के संपादक व प्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ प्रेम जनमेजय जिनको मुम्बई पहुंचने पर भी पूरा प्यार, सम्मान व स्नेह मिलता है। इसी स्नेह के चलते वे जब पुष्पा भारती से मिले तब एक नयी पुस्तक ने जन्म लिया जो प्रसिद्ध रचनाकार व धर्मयुग के यशस्वी संपादक धर्मवीर भारती पर आधारित रही बल्कि एक सम्मान भी तय हुआ धर्मवीर भारती की स्मृति में । मुम्बई में उनका बेटा रहता है, जब वे वहां जाते हैं तो मुम्बईकर हो जाते हैं। आजकल मुम्बईकर हैं डाॅ प्रेम जनमेजय! वे कहते हैं कि मुम्बई में मेरा आत्मीय साहित्यिक परिवार है। इस परिवार के एक महत्वपूर्ण हिस्से–हरीश पाठक, संजीव निगम और सुभाष काबरा संग बैठकी का मुक्तानन्द प्राप्त किया। इनके ताज़ा व्यंग्य संकलन ‘सींग वाले गधे’ और व्यंग्य यात्रा के ताजा अंक ने, सही हाथों में पहुंचकर इस आनंद को दो दूनी चार कर दिया ।

भिवानी में नाट्य कार्यशाला : मीरा कल्चरल सोसायटी के संचालक व रंगकर्मी सोनू रोझिया ने आजकल भिवानी में नाट्य कार्यशाला चला रखी है । इसे अनोखी कार्यशाला भी कह सकते हैं क्योंकि इसमें साठ वर्ष से ऊपर की महिलायें भी आ रही हैं और सारी महिलायें ही हैं । बधाई ।

हिसार में ईना , मीना, डीका : इसी बीच हिसार की नृत्यम् संस्था की ओर से ईना , मीना , डीका बाल नाटक का मंचन किया गया जिसमें छब्बीस कलाकारों ने अपना कमाल दिखाया । यह बाल नाटक गीत, संगीत व सीख का मिश्रण है । तीन लड़कियाँ अनाथाश्रम से भागती हैं और इसी भागमभाग में वे दहेज के लोभी दूल्हे , बच्ची की खरीद फरोख्त कर रहे लोभी व्यक्ति और वृद्धा मां को रेलवे स्टेशन पर छोड़कर गये बेटे से टकराती हैं और उन्हें सबक सिखाती हैं । इसी बीच अनाथाश्रम का मैनेजर दो गुंडों के साथ इन्हें पकड़ना चाहता है जबकि वे इन्हें भी धराशायी कर देती हैं । इस तरह बहुत ही प्रभावशाली मंचन संजय सेठी और ज्योति चुघ के निर्देशन में ! बहुत बहुत बधाई ।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आंधळा… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आंधळा… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

 

आंधळा होतास मनुजा, आजही तू आंधळा,

पाऊले चंद्रावरीं, पण तू मनाने पांगळा ||धृ||

 

वास्तवाशी खेळता तू, आंधळी कोशिंबीरी,

अंधश्रद्धा जोजवितो, आपल्या मनमंदीरी,

चालल्या वाटा पुढे, अन तूच मागे चालला  ||१ ||

 

भूवरी ग्रह तारकांची, झेलूनी तू सावली,

धरुनिया वेठीस त्यांना, मांडितो तू कुंडली,

देव दैवा शोधणारा, तू कसा रे वेंधळा?||२||

 

सोडूनी वाटा रूढींच्या, जाऊ या क्षितिजाकडे,

सप्तपाताळात गाडू , अंधश्रध्देचे मढें,

जोडूनी नाते भ्रमाशी, तू कशाला थांबला?||३||

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुगंधस्मृती… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

🌸 सुगंधस्मृती… 🌸 श्री सुहास सोहोनी ☆ 

पहाट समयी विखरुन पडला

सडा अंगणी शुभ्र फुलांचा

प्राजक्ताचा परिमळ पसरे

स्मरण देतसे हरिनामाचा …

 

रामप्रहरी कानि सांगतो

सुगंध मोहक बकुल फुलांचा

राखुन ठेवी दोन घास रे

दुर्मिळ अतिथी आज यायचा …

 

चांफेकळि ये उतून मातुन

सायंकाळी सौेरभ फेकित

शुभंकरोती राहुन जाइल

विसरु नको रे घाईगर्दित …

 

परिमळ सांगे रातराणिचा

घालित रुंजी देइ आठवण

सखे सोबती अन् स्वकियांची

काळाने ज्या दिले देवपण …

 

हलके फुलके गंध सुवासिक

जाग्या करिती स्मृती शुचिर्भुत

गुलाब जाई जुइ चमेली

भरून घ्यावी नित्य ओंजळित …

 

उत्तररात्री गंध न उरती

स्मृतीहि अवघ्या विरून जाती

रिक्त मनाच्या पटलावरती

शून्य भावना केवळ उरती

 

सुगंधापरि ध्वनी स्पर्श अन्

दृष्टीहि चमको सतेजतेने

लाभ मिळो आगळा तयांचा

जीवन अवघे व्हावे सोने …

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

दि. १९-०३-२०२३.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ मला पावसात जाऊ दे… कै. वंदना विटणकर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

 ☆ मला पावसात जाऊ दे… कै. वंदना विटणकर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

काव्यानंद:

☆ मला पावसात जाऊ दे… कै. वंदना विटणकर ☆

     ए आई मला पावसात जाऊ दे

    एकदाच ग भिजूनी मला चिंब चिंब होऊ दे..

 

मेघ कसे बघ गडगड करिती

विजा नभातून मला खुणविती

 त्यांच्या संगे अंगणात मज खूप खूप नाचू दे..

 

 बदकांचा बघ थवा नाचतो

बेडूक दादा हाक मारतो

 पाण्यामधून त्यांचा मजला पाठलाग करू दे .

 

धारे खाली उभा राहुनी

 पायाने मी उडविन पाणी

ताप खोकला शिंका सर्दी वाटेल ते होऊ दे  

 

 ए आई मला पावसात जाऊ दे

 एकदाच ग भिजुनी मला चिंब चिंब होऊ दे…

रसग्रहण: 

हे बालगीत सुप्रसिद्ध कवियत्री कै. वंदना विटणकर यांचे आहे. वंदना विटणकर यांनी प्रेम गीते, भक्ती गीते, कोळी गीते, बालगीते लिहिली.  जवळजवळ ७०० गाणी त्यांनी लिहिली आहेत. त्यांच्या बालकथा, बालनाट्ये आणि बालगीते खूप गाजली आहेत.  त्यापैकीच  “ए ! आई मला पावसात जाऊ दे..” हे आठवणीतले बालगीत.

या बालगीतात ध्रुव पद आणि नंतर तीन तीन ओळीचे चरण आहेत.  प्रत्येक चरणात, पहिल्या दोन ओळीत यमक साधलेले आहे.  जसे की करिती— खुणाविती, नाचतो —मारतो, राहुनी— पाणी.  आणि प्रत्येक चरणातील शेवटच्या ओळीतील, शेवटचा शब्द ध्रुवपदातल्या दुसऱ्या ओळीच्या शेवटच्या शब्दाशी यमक साधते,.

मला चिंब चिंब होऊ दे— या ध्रुवपदातल्या  दुसऱ्या ओळीशी, खूप खूप नाचू दे, पाठलाग करू दे ,वाटेल ते होऊ दे, या प्रत्येक चरणातल्या शेवटच्या पंक्ती छान यमक जुळवतात. त्यामुळे या गीताला एक सहज लय आणि ठेका मिळतो.

हे संपूर्ण गीत वाचताना, ऐकताना आईपाशी हट्ट करणारा एक अवखळ लहान मुलगा दिसतो.  आणि त्याचा हट्ट डावलणारी त्याची  आई सुद्धा अदृष्यपणे  नजरेसमोर येते.  पावसात भिजायला उत्सुक झालेला हा मुलगा त्याच्या बाल शब्दात पावसाचे किती सुंदर वर्णन करतोय! मेघ गडगडत आहेत, विजा चमकत आहेत, आणि त्यांच्या संगे खेळण्यासाठी मला अंगणात बोलवत आहेत. या लहान मुलाला पावसात खेळण्याची जी उत्सुकता लागलेली आहे ती त्याच्या भावनांसकट या शब्दांतून अक्षरशः दृश्यमान झाली आहे.

साचलेल्या पाण्यात बदके पोहतात, बेडूक डराव डराव करतात ,त्या पाण्यामधून त्यांचा पाठलाग या बालकाला करायचा आहे.हा  त्याचा बाल्यानंद आहे.  आणि तो त्याने का उपभोगू  नये याचे काही कारणच नाही. या साऱ्या बालभावनांची आतुरता, उतावीळ वंदनाताईंच्या या सहज, साध्या शब्दातून निखळपणे सजीव झाली आहे.  स्वभावोक्ती अलंकाराचा या गीतात छान अनुभव येतो.

“पावसाच्या धारात मी उभा राहीन, पायांनी पाणी उडवेन, ताप, खोकला, शिंका, सर्दी काहीही होऊ दे पण आई मला पावसात जाऊ दे…”.हा बालहट्ट अगदी लडीवाळपणे या गीतातून समोर येतो.यातला खेळकरपणा,आई परवानगी देईल की नाही याची शंका,शंकेतून डोकावणारा रुसवा सारे काही आपण शब्दांमधून पाहतो.अनुभवतो.आठवणीतही हरवतो या गीतात सुंदर बालसुलभ भावरंग आहेत.

खरोखरच ही कविता, हे गीत वाचणाऱ्याला, ऐकणाऱ्याला आपले वयच विसरायला लावते.  आपण आपल्या बालपणात जातो.  या काव्यपटावरचा हा पाऊस, ढग, विजा,  बदके, बेडूक,  तो मुलगा सारे एक दृश्य रूप घेऊनच आपल्यासमोर अवतरतात.  एकअवखळ बाल्य घेउन येणारे,आनंददायी  रसातले हे रसाळ गीत आहे.

वंदना विटणकर यांचे शब्द आणि मीना खडीकर यांचा सूर यांनी बालसाहित्याला दिलेली ही अनमोल देणगीच आहे.  सदैव आठवणीत राहणारी सदाबहार.

 – कै. वंदना विटणकर

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ वादळ – भाग – २ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ वादळ – भाग- २☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

(मागील भागात आपण पाहिले – त्याने एक-दोन वर्षे एका गॅरेजमध्ये काम करून, दुचाकी गाड्या दुरूस्तीचं काम शिकून घेतलं. त्याला या विषयात गती होती. मग काकाच्या मदतीने, बँकेकडून कर्ज काढून स्वतःचं गॅरेज काढलं. पोटापाण्यापुरतं उत्पन्न मिळत होतं त्याला. तो काकाकडेच पोखरणला राहात होता. जमेची बाजू म्हणजे राजा मेहनती आणि निर्व्यसनी होता. मागच्या वर्षी बहिणीचं लग्न करून दिलं होतं. आता इथून पुढे)

वसंतराव उद्विग्न झाले होते. फार श्रीमंत नसले तरी आपल्या दोन्ही मुलांना त्यांनी लाडाकोडात वाढवलं होतं. एकीकडे लेकीची चिंता तर दुसरीकडे तिनं असं लग्न केल्यामुळे संताप, यामुळे त्यांचं डोकं काम करेनासं झालं होतं. वसुमतीनं काही बोलायचा प्रयत्न केला तर, ‘मुक्ताचं नावही काढायचं नाही या घरात आता! तिनं लग्न केलंय ना आई-बापांना न सांगता, बघेल तिचं ती!’ असं त्यांनी तिला बजावलं होतं. वसुमती आता जरा सावरून, शांत डोक्याने विचार करत होती. तिनं लेकीला भेटून यायचं ठरवलं. पण वसंतराव काही या गोष्टीला तयार होणार नव्हते आणि रागाच्या भरात काही उलट-सुलट बोलून बसतील, अशी धास्ती होती तिला. साधनाबरोबर जाऊन आपण गुपचूप भेटून यावं, असं तिनं ठरवलं. सुरेशला काकांचा पत्ता शोधायला सांगितला.

पण राजाच्या मित्राकडून, लेक आणि जावई सावंतवाडीला गेल्याचं समजलं. आंब्याचा सीझन असल्याने तिथे कामही होतं. त्यामुळे दोन महिने ते तिकडेच राहणार होते. शिवाय इथे राहायच्या जागेची पंचाईत होतीच. काही न सांगता कळवता, पुतण्याने लग्न केल्यामुळे काकाही नाराज होता. तसंही काकांचं घर वन बीएचके, त्यामुळे आता तिथे राहाणं शक्य नव्हतंच. 

एक आठवडा असाच गेला . वसंतराव घरीच बसून होते. मिहिरही गुमसुम झाला होता. ही कोंडी फोडायची तरी कशी! वसुमतीनं मनाशी काही एक ठरवलं आणि मिहिर शाळेत गेल्यावर ती वसंतरावांशी बोलायला आली. वसंतराव डोळे मिटून सुन्नपणे बसले होते. वसुमतीची चाहुल लागताच त्यांनी डोळे उघडले आणि प्रश्नार्थक नजरेनं तिच्याकडे बघितलं. वसुमती म्हणाली, ‘ हे बघा मी काय म्हणते ते जरा शांतपणे ऐकणार आहात का?’ 

त्यांची नजर वसुमतीवर स्थिरावली. रडून रडून तिचे डोळे सुजले होते.  चेहरा भकास दिसत होता. या आठ दिवसांत तिची रयाच गेली होती. तिची अवस्थादेखील आपल्यासारखीच झाली आहे. पण ती कोणाला सांगणार? वसंतरावांच्या मनात आलं. 

‘ बोल ‘ असं म्हणत ते ती काय सांगते या अपेक्षेने बघू लागले. 

मुक्ता चुकीचं वागली हे तर खरंच आहे. पण आपलं लेकरू चुकलं तर आपणच नको का सांभाळून घ्यायला तिला? त्यांची बाजूपण समजून तर घेतली पाहिजे. थांबा, चिडू नका. तुम्ही तरी किती दिवस तोंड लपवून घरात बसणार आहात? आणि तिनं लग्न केलंय. नसते रंग उधळून लाज आणण्यासारखं तरी काही वागली नाहीयेत ती दोघं! तरूण आहेत पण बेजबाबदार नक्कीच नाही. नाहीतर आजकाल आपण काय काय ऐकतो आणि बघतो, एकेका मुलांचं! सुरेशरावांनी माहिती काढली, त्यावरून मुलगा सज्जन वाटतो. आपण एकदा भेटलं तर पाहिजे ना त्याला? आणि आपण आपल्या मुलीच्या पाठिशी उभं आहोत हा विश्वास तिला द्यायला नको का? चूक झाली तर ती सुधारण्याची संधी, तिच्या दुष्परिणामांपासून आपणच मुलांना वाचवायला हवं ना? का खड्ड्यात उडी मारलीत, आता तिथंच अडकून राहा, म्हणून हातावर हात धरून बघत बसायचं आहे? ‘

‘ काय म्हणणं आहे तुझं? त्यांची काय आरती ओवाळायची आहे का? ‘

‘ शांतपणे विचार करा जरा! आणि एक सांगते. माझ्या लेकीच्या पाठिशी मी उभी राहणार हे नक्की. ती लहान आहे, अजून विचारांची परिपक्वता नाही तिच्याकडे. आयुष्यातल्या टक्क्याटोणप्यांचा अनुभवही अजून यायचा आहे. त्यांना सावध करणं, आधार देणं हे आपलं कर्तव्य नाही का? तिचं नाव काढू नका म्हणता॰  असं रक्ताचं नातं तोडून टाकता येतं का हो? आणि मग रात्र-रात्र अस्वस्थपणे फेऱ्या कशाला मारत बसता तुम्ही? लेकीच्या काळजीनंच ना!  आपण तिच्या पाठीशी उभे राहिलो की बोलणाऱ्यांची तोडंपण आपोआप गप्प होतील. आणि सासरच्या लोकांनाही थोडा चाप राहिल. ते कसे आहेत हे अजून आपल्याला माहीत नाही, पण माझी मुलगी असहाय्य नाही, हे त्यांना माहीत असलं पाहिजे. ‘

‘ काय करायचं आहे तुला ते स्पष्ट सांग ना. ‘

‘ आपण सावंतवाडीला जायचं का त्यांना भेटायला? ‘

‘ काय?  तुझं म्हणजे ना.. ‘

‘ अहो ते आले नाहीत तर आपण जायचं. त्यानिमित्ताने त्यांचं घर आणि एकूण परिस्थिती पण पाहता येईल ना! आपल्या लेकीला आयुष्य काढायचं आहे, ती माणसं, त्यांचं वागणं, ठाऊक नको? लग्न ठरवलं असतं लेकीचं, तर हे सगळं केलं असतंच ना? मग आता करायचं. हवं तर साधना आणि सुरेशना पण सोबत घेऊया. ‘

मग त्या दोघांशी बोलून वसंतरावांनी कोकणरेल्वेची तिकिटं बुक केली. सावंतवाडीचा राजाच्या घरचा पत्ता मिळवला. दुसर्‍या दिवशी संध्याकाळी मंडळी तिथे पोचली. आधी तर राजा आणि त्याच्या घरचे चपापले. हे लोकं आता काय गोंधळ घालणार म्हणून! पण सुरेश आणि साधनानं त्यांना आश्वस्त केलं. सावंत कुटुंबाने मग प्रेमानं स्वागत केलं.

तीन खोल्यांचं पण प्रशस्त घर होतं. शिवाय मागेपुढे ओसरी. आंबे आणि नारळ-सुपारीची बरीच झाडं होती. पण ते उत्पन्न सामाईक होतं. राजाची आई साधी पण प्रेमळ वाटली. तिनं लेक आणि सुनेला स्वीकारलं होतं. ” त्या म्हणाल्या, ‘वय वेडं असतं. चुका होतात मुलांकडून, पण आपलीच आहेत ना, घ्यायचं सांभाळून! ‘ बहीण आणि मेव्हणे पण आले होते. आनंदात जेवणखाण पार पडलं.

रात्री जावयाशी आणि लेकीशी सविस्तर बोलणं झालं. मुक्तानं आईला मिठी मारून, दोघांची माफी मागितली. 

ठाण्याला घराच्या येण्या-जाण्याचा वाटेवर राजाचं गॅरेज होतं. मुक्ता आणि राजा एकमेकांकडे आकर्षित झाले. ओळखीचं रूपांतर प्रेमात झालं आणि ठरवून गाठीभेटी होऊ लागल्या. कॉलेजला, क्लासला येता-जाता. लोणी विस्तवाजवळ आलं तर वितळणारच. दोघांना मोह टाळता आला नाही. पण दोन-तीनदा असं झाल्यावर मुक्ताला भयंकर अपराधी वाटायला लागलं. आई-बाबांना हे कळलं तर याची भितीही वाटायला लागली. आणि स्वतः कोणत्या तोंडाने सांगणार ती? तिनं राजाकडे लग्नाचा हट्ट धरला. त्यालाही तिच्याशी लग्न करायचं होतंच. पण हातात थोडे पैसे जमायची वाट बघत होता तो. राहायला जागा तर हवी. शिवाय संसार थाटायचा म्हणजे सगळं आलंच की! आता गॅरेजच्या मागच्या भागातच थोडी सोय करून त्यांना सध्या राहावं लागणार होतं. 

बाबांनी गहिवरून दोघांना जवळ घेतलं. ते आणि सुरेशकाका त्यांना ठाण्यात भाड्याचं घर घ्यायला मदत करणार होते. मुक्तानं आपलं शिक्षण पूर्ण करावं असं त्यांना वाटत होतं. पण मुक्ताला तिचं ब्युटी पार्लर काढायचं होतं. ठाण्यात आल्यावर ती ब्युटिशियनच्या कोर्सला अ‍ॅडमिशन घेणार होती. बाबांनी तिची फी भरायची तयारी दर्शवली. जमेल तेवढी आर्थिक मदत ते करणार होते. लग्नाचा खर्च आपण केला असताच ना! मग तोच पैसा मुलांना आपल्या पायावर उभं राहण्यासाठी खर्च झाला तर छानच की!

वसुमतीनं मुक्ताचे कपडे असलेली बॅग आणि तिचा मोबाईल तिच्याकडे सोपवला. मुक्ता आणि राजा भारावून गेले होते. असं काही घडेल याची त्यांनी कल्पनाच केली नव्हती. त्यांनी तसं बोलूनही दाखवलं.

वसुमती त्यांना म्हणाली, ‘असेच तर असतात आई-बाप!’ 

आठवड्यापूर्वी उठलेलं वादळ आता शांत झालं होतं.

– समाप्त – 

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845 ईमेल [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ..आणि पदार्थ वाफाळू लागला भाग -2… शेफ शंकर विष्णू मनोहर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ ..आणि पदार्थ वाफाळू लागला भाग -2… शेफ शंकर विष्णू मनोहर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆ 

( मग मी काय केलं त्या लिंबाच्या अर्ध्या भागावर पाणी घातलं आणि पिळल्याची अ‍ॅक्टिंग केली.. वेळ साधली गेली.) इथून पुढे — 

रेसिपीज् हाताळणं हा माझा डाव्या हातचा मळ. त्यामुळे त्यातले काहीही प्रश्न समोर आले तरी मी लीलया सोडवतो. पण माणसाला कसं हाताळायचं आणि त्यातूनही ते जर सेलेब्रिटी असतील तर झालंच! या लढाईला तोंड देताना मात्र खरंच माझ्या तोंडचं पाणी पळालेलं असतं! कित्येक सेलेब्रिटींना अक्षरश: चमच्यानंसुद्धा ढवळता येत नाही. त्यांच्याकडून कॅमेऱ्यासमोर पदार्थ करून घेणं मुश्कीलच नाही कित्येकदा अशक्य असतं! त्यांना साहित्यातला मसाला कुठला आणि धणे-जिरे पावडर कोणती हेही समजत नाही. अशा वेळी मी तुम्हाला मदत करतो, असं म्हणत मलाच कॅमेऱ्यासमोर सगळं साहित्य सांगावं लागतं, पदार्थात घालावं लागतं. हे कमी काय म्हणून काही वेळा या सेलेब्रिटींना लगेच जायचं असतं. आता पदार्थ शिजून होईपर्यंत तर वाट बघायलाच हवी ना! कॅमेरा बंद केला की लगेच त्यांचं मोबाइलवर बोलणं, घडय़ाळ्यात बघणं सुरू होतं. मग एकदा आम्ही शक्कल लढवली चक्क बंद कॅमेरा त्यांच्यापुढे उभा करून शूटिंग सुरू असल्याचा आभास निर्माण केला म्हणजे त्यांना घडय़ाळ्यात बघायला फुरसतच मिळाली नाही किंवा मग शो सुरू असताना ते भान सुटल्यासारखे नुसतेच बोलत राहतात, तेही कोणत्याही विषयावर. अशा वेळी त्यांना परत मुख्य विषयाकडे वळवून गप्पा सुरू करायच्या हेही कसबच असतं!

एकदा तर एका हास्य अभिनेत्याने कमालच केली होती. तो येणार म्हणून सेटवरचं वातावरण एकदम उत्साही होतं. पण तो आलाच मुळी मरगळलेल्या चेहऱ्यानं. त्याला बघून क्षणभर मीच गोंधळलो की, आपण ज्याची वाट बघत होतो तो हाच का नक्की? पण विचार केला, दमला असेल म्हणून त्याला चहा दिला, जरा निवांत बसू दिलं आणि मग मेकअपला सुरवात केली. पण त्याची कळी खुलेना. शेवटी तसंच शूटिंग सुरू केलं. पदार्थ मीच दाखवला. तो चांगला झाला पण वातावरण जसं रंगायला पाहिजे ना तसं रंगलंच नाही. का तर म्हणे त्याला टेन्शन आलं होतं! अशा वेळी त्याला सतत बोलतं ठेवून, एकीकडे रेसिपी सांभाळून, सगळं कसं छान आहे, असंच शूटिंगच्या वेळी चेहऱ्यावर दाखवणारा शेफ एक उत्तम अभिनेताही असतो हे मान्य कराल ना!

कधी-कधी मात्र खरंच परीक्षा असते. सगळं शूटिंग संपल्यावर लक्षात येतं की एक पदार्थ कमी झाला आहे! आता? अजून एक पदार्थ तर दाखवायलाच हवा. शूटिंग संपलं म्हणून बॅक किचन आवरलं जातं. त्यामुळे हाताशी ना रसद असते ना कोणी मदतनीस. असंच एकदा दिवाळी रेसिपी शूटिंगच्या वेळी घडलं होतं. पॅकअप झाल्यावर कळलं की एक पदार्थ कमी पडतो आहे. बॅक किचन बंद झालं होतं. सेटवर तेल, मसाला, कणिक, मीठ वगरे दोन/चार आधीच्या रेसिपीमधले पदार्थ होते तितकेच. रात्रही इतकी झाली होती की दुकानं उघडी असण्याची शक्यताही नव्हती. इतकं टेन्शन आलं की विचारू नका. त्याच टेन्शनमध्ये कणिक आणि रवा भिजवला तो चांगलाच घट्ट झाला. आता पुढे काय करायचं या विचारानं हाताशीच असलेल्या किसणीवर तो गोळा किसू लागलो. बघितलं तर त्याचा चुरमुऱ्याच्या आकाराचा मस्त कीस पडत होता. गंमत तर पुढेच आहे.. तो कीस छान तळला गेला, तरतरून फुलला. मग मलाही हुरूप आला. सेटवर जितके मसाल्याचे पदार्थ होते ते सगळे एकत्र केले आणि त्या तळलेल्या चिवडय़ावर टाकले. तो माझा रव्याचा चिवडा इतका फेमस झाला की एका नामांकित कंपनीने तो माझ्याकडून विकत घेऊन बाजारात देखील आणला!

शूटिंगप्रमाणेच माझा कॅटिरगचा व्यवसाय होता तेव्हा किंवा मी फूड फेस्टिव्हल किंवा लाइव्ह शोज् करतो तेव्हाही, काही वेळा अशा परिस्थितीला तोंड द्यावं लागतं की वाटतं इथे आपलं सगळं कसब पणाला लागलंय. जर यातून नाही तरलो तर कायमची नामुष्की. अशाच एका भीषण परिस्थितीला तोंड द्यावं लागलं होतं ते महाराष्ट्र दिनानिमित्त राज ठाकरेंनी आयोजित केलेल्या खाद्य महोत्सवाच्या वेळी. मी पाच फूट बाय पाच फूटचा पराठा केला होता हे त्यांना समजल्यावर त्यांनी अशीच मोठय़ा आकाराची पुरणपोळी करा, असं फर्मान काढलं. पण पराठा करणं वेगळं आणि पुरणपोळी करणं वेगळं. पुरणपोळी तव्यावर पडली की पुरण पातळ होऊ लागतं आणि ती उलटणं जड होतं. शिवाय पराठा पुरणपोळीच्या तुलनेत हलकाही असतो. तरीही मी पोळी केली. तव्यावरही टाकली. पण आता ती उलटायची कशी? तवा तर एकदम तापलेला होता तसंच आजूबाजूचं वातावरणंही उत्साहानं तापलेलं होतं, राज ठाकरेंसह सगळे टक लावून बघत होते. पोळी उलटता नाही आली आणि जळली तरी नामुष्की आणि उलटताना पडून तुटली तरी नामुष्की. पोटात गोळा येणं..घशाला कोरड पडणं..जे जे काही म्हणून होतं ते सगळं माझं झालं होतं. तरीही चेहऱ्यावर काही दिसू द्यायचं नव्हतं. पण इथे माझी, माझ्या आई-वडिलांची पुण्याईच कामी आली आणि पोळी न जळता, न तुटता उलटली जाऊन मस्त खमंग पुरणपोळीचा रेकॉर्ड मला पूर्ण करता आला! ही खरी दृष्टिआड सृष्टी!

खरं तर यापुढे काही सांगण्यासारखं नाहीच पण पुरणपोळीच्या गंभीर किश्शानंतर एक गमतीदार किस्सा सांगतो. आम्ही केटरिंगची काम घ्यायचो तेव्हा एका लग्नाच्या वेळी जेवणखाण सगळं उरकलं. भांडी, उरलेला शिधा वगरे सगळं टेम्पोमध्ये लोड झालं आणि टेम्पो गेला सुद्धा. फक्त आमच्या चहासाठी एक स्टोव्ह दोन भांडी, थोडं दूध, चहा पावडर, थोडीशी साखर इतकंच सामान मागे होतं. इतक्यात वधूमाय धावत आली, काय तर म्हणे वरमायेला चहा हवाय. झालं लेकीच्या सासूचं मागणं म्हणजे पूर्ण करायलाच हवं! आम्ही चहा करून दिला. तो कप घेऊन त्या बाई तशाच परत माघारी. का तर म्हणे त्यांना चहा अगोड लागतोय, आणखी साखर हवी. गंमत म्हणजे साखर सगळी संपलेली. मग मी तो कप हातात घेतला. त्यात एक चमचा घातला. तो कप घेऊन वरमायेकडे गेलो आणि म्हणालो, ‘बघा चव, साखर पुरेशी आहे का?’ आणि त्या बाईंनाही चक्क साखर पुरेशी वाटली!

या अशा अनुभवांनी मला खूप शिकवलंय. मात्र यापुढे माझा शो बघताना प्रत्येक वेळी मी मीठच टाकतोय ना किंवा साखरच घालतोय ना, असे प्रश्न मनात येऊ देऊ नका! आणि घरी असले प्रयोगही करू नका! हे असं ‘चिटिंग’ प्रत्येक वेळी नाही करावं लागत आणि कुणाला खायला द्यायच्या पदार्थात तर ते करणं कुठल्याच शेफला कधीच शक्य नाही ! तेव्हा एन्जॉय खाद्यायात्रा !

– समाप्त – 

लेखक : शेफ विष्णू मनोहर

संग्रहिका  : मीनल केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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