सूचनाएँ/Information ☆ अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ मुक्ता के गहरे पानी पैठ आलेख-संग्रह का हुआ लोकार्पण ☆ साभार – डॉ निशा अग्रवाल

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ मुक्ता के गहरे पानी पैठ आलेख-संग्रह का हुआ लोकार्पण 🌹

कल दिनांक 8 अप्रैल 2023 को अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था, बंगलौर द्वारा हिंदी भवन,नई दिल्ली में डॉ मुक्ता,माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत,हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ महिला रचनाकार के सम्मान से सम्मानित,सदस्य केंद्रीय साहित्य अकादमी,पूर्वनिदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी, तदोपरांत पूर्वनिदेशक,हरियाणा ग्रंथ अकादमी को साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्कृष्ट योगदान के निमित्त अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय सम्मान 2022 से अलंकृत किया गया।

गहरे पानी पैठ अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में रचित डॉ• मुक्ता का दसवाँ आलेख-संग्रह का जिसमें पचहत्तर आलेख संग्रहीत हैं।प्रथम भाग में समसामयिक ज्वलंत मुद्दों से संबंधित 37 चिंतनपरक आलेख हैं और द्वित्तीय भाग में सकारात्मक सोच से संबंधित 38 सुचिंतनपरक आलेख हैं,जिनमें जीवन-दर्शन निहित है और वे मानव को जीने की सहज व सुगम राह दर्शाते हैं।जीवन के रंग अजब-गज़ब हैं और प्रकृति पल-पल रंग बदलती है।समय निरंतर बहता रहता है।साहित्यकार अपने आसपास जो देखता व अनुभव करता है,उनमें से कुछ घटनाएं,हादसे व पात्र उसके ज़हन में इस क़दर घर बना लेते हैं,जिनके प्रभाव से वह चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाता।उन असामान्य परिस्थितियों में उसकी लेखनी हृदय के उद्वेलन को शब्दबद्ध करने को विवश कर देती है।सो!यह है समसामयिक चिंतन के आलेखों की रूपरेखा,जो इस संग्रह के प्रथम भाग का हिस्सा बने हैं।उक्त ज्वलंत मुद्दे हमारे जीवन को प्रभावित नहीं करते, तहलक़ा तक मचा देते हैं। वास्तव में वे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।इसलिए लेखक उनका सांगोपांग विश्लेषण करने को बाध्य होता है।

द्वितीय खंड के आलेख भोर की सिंदूरी आभा की स्वर्णिम रश्मियाँ हैं,जो संपूर्ण विश्व को ही नहीं;जनमानस को भी आलोकित व ऊर्जस्वित करती हैं।वे संशय व दुविधाग्रस्त भ्रमित मानव का पथ-प्रशस्त कर विषम विसंगतियों से आहत व त्रस्त हृदय को आत्मविश्वास से आप्लावित करती हैं;उजास से भरती हैं तथा जीवन से निराश मानव को आशान्वित करती हैं।ये आलेख मरूभूमि में भटकते अतृप्त मानव मन की तृषा को शांत करने में समर्थ है;दु:खों के सागर में डूबते-उतराते मानव को साहिल तक पहुंचाने की क्षमता रखते हैं तथा जीवन में समन्वय व सामंजस्यता को अपनाने की सीख देते हैं। वास्तव में साहित्य संवेदनाओं, एहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है,जिनका सृजन- अनुभव सागर के गहरे जल में पैठकर किया जा सकता है। जनवरी माह में विश्व पुस्तक मेले में इंद्रप्रस्थ लिट्रेचर फेस्टिवल के समृद्ध मंच पर डॉ• मुक्ता के क्षितिज चिंतन के आलेख-संग्रह का लोकार्पण हुआ और उन्हें विशिष्ट साहित्य सेवा अवॉर्ड 2022 से विभूषित किया गया।

 – डॉ मुक्ता 

🌹 अभ्युदय अन्तरराष्ट्रीय द्वारा हिन्दी भवन दिल्ली में पुस्तक लोकार्पण व आस्ट्रेलिया से पधारी विश्व प्रसिद्ध विदुषी डॉ मृदुल कीर्ति व जयपुर से पधारी वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला बिहारी जी के विशेष स्वागत व सम्मान में भव्य आयोजन 🌹

अभ्युदय अन्तर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम का शुभारंभ अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन से हुआ। तत्पश्चात नरेंद्र शर्मा खामोश द्वारा सरस्वती वंदना व चंदा प्रह्लादका, इन्दु झुनझुनवाला, रचना शर्मा तथा मञ्जरी पाण्डेय द्वारा गाए गए संस्था के ध्येयगीत के साथ आयोजन का प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ में शाॅल, मुक्तकमाला, मनीप्लांट के पौध प्रदान कर अतिथियों का भव्य स्वागत हुआ।

इस भव्य आयोजन में वर्ष 2022 का धोषित अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय संस्था का 21,000 /- (इक्कीस हजार) राशि के साथ अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय शलाका सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला बिहारी, अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय आदि शंकराचार्य सम्मान 2021 डॉ. मृदुल कीर्ति व अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय चित्रा मुद्गल सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार डॉ शशी मंगल को प्रदान किया गया । इसके साथ ही दिल्ली की कुछ ख्यातिलब्ध विभूतियों को भी सम्मानित किया गया ।

संस्था की संस्थापक अध्यक्ष डाॅ इन्दु झुनझुनवाला ने स्वागत के साथ संस्था की संक्षिप्त रिपोर्ट प्रस्तुत की ।

इस अवसर पर लोकार्पित दस पुस्तकें थीं –

कबीर एक शाश्वत यात्रा, प्रेमचंद कथन और संदर्भ, वो जो गुमनाम हुए – ये तीन पुस्तकें अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय द्वारा सम्पादित व प्रकाशित की गई।

बूंद बूंद जीवन व आज की अहिल्या – डॉ इन्दु झुनझुनवाला

यशोधरा, वृथा नही है रागिनी – चन्दा प्रह्लादका

भाव प्रवाह- छत्र छाजेड

शिक्षा के बदलते स्वरूप – डॉ निशा अग्रवाल

गहरे पानी पैठ – डॉ मुक्ता

परिचर्चा में वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपने विचार रखे ।

जिनमें मुख्य रूप से कबीर पुस्तक पर बोलते हुए दिल्ली दूरदर्शन के भूतपूर्व निदेशक डाॅ अमरनाथ “अमर” जी ने कबीर की शाश्वत यात्रा से अभ्युदय की यात्रा का अद्भुत साम्य बताते हुए शोधार्थियों के लिये एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बताया। मुख्य अतिथि, जाने माने साहित्यकार, शिक्षाविद प्रो ( डाॅ) नवीनचन्द्र लोहनी ने प्रेमचंद पर सारगर्भित वक्तव्य देते हुए हर युग मे प्रासंगिक प्रेमचंद से लिखने की ताकत ग्रहण करने की बात कही। काशी से पधारी प्रो ( डाॅ) रचना शर्मा ने गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों पर आधारित संस्मरणों पर आधारित डाॅ इन्दु झुनझुनवाला द्वारा संपादित पुस्तक पर भावपूर्ण वक्तव्य देते हुए स्वतंत्रता के लिये गुमनाम कुर्बानियों के संस्मरण का उल्लेख किया।

डाॅ इन्दु द्वारा लिखित आज की अहिल्या पर अपने विचार व्यक्त करती हुई कलकत्ता से पधारी चंदा प्रह्लादका ने पुस्तक के अंश पर आधारित नारी सशक्तिकरण का उल्लेख करते हुए आज के संदर्भ में संदर्भित अहल्या के स्वरूप का वर्णन किया। डाॅ इन्दु की दूसरी पुस्तक ” बूँद बूँद जीवन” पर काशी से आई डाॅ मञ्जरी ने पुस्तक पर विचार व्यक्त करते हुए बताया – कि नट नटी संवाद की तरह कथोपकथन शैली पर आधारित संस्कृत के चम्पू काव्य विधा मे लिखा है । इसकी कहानी पूर्णतया नारी संघर्ष पर और आज के लिये प्रेरक है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार विजयकिशोर मानव ने अभ्युदय के भगीरथ प्रयास की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए सभी साहित्यकारों को एकजुट होकर सार्थक सृजन का समर्थन करने पर बल दिया । इसके लिये कार्यशालाओं के आयोजन की भी अपील की ।

वरिष्ठ कवि व साहित्यकार लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने भी महत्वपूर्ण आयोजन और साहित्य की वर्तमान दशा पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए सारगर्भित वक्तव्य दिया । विशिष्ट अतिथि जयपुर से आयीं मृदुला बिहारी अभिभूत थी । अस्वस्थता के बावजूद भव्य आयोजन का हिस्सा बनीं और साहित्य संबंधी महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला । ऑस्ट्रेलिया से विशेष रूप से आई परम विदुषी मृदुलकीर्ति जी ने उपनिषद, गीता पर अपने काव्यानुवाद को सुना कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । आपने ओजस्वी भाषण से सबको झंकृत किया ।

दिल्ली आकाशवाणी के पूर्व सहायक निदेशक संस्था के उपाध्यक्ष भीमप्रकाश शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन किया । सफल संचालन चार सत्रों में सुषमा सिंह, डाॅ प्रियंका कटारिया, सुमन द्विवेदी, सुनीता बंसल, डॉ निशा अग्रवाल ने किया ।

इस आयोजन में सहभागिता निभाने के लिए राजस्थान से पश्चिम जोन की अध्यक्ष डॉ निशा अग्रवाल, विशेष सचिव राजपूताना इतिहास के अध्येता शिवराज पाल, संतोष बंसल, सुरेश बिंदल, रामवतार बैरवा , आचार्य विजय आर्य, सुषमा आर्य, छत्र छाजेड , चन्मद्हारशेखर आश्री, कर्नल प्रताप सिंह, मदन साहनी, शाखा की अध्यक्ष लता नौवाल, हरियाणा शाखा सचिव मंजु तंवर, डाॅ महालक्ष्मी केशरी के साथ दिल्ली व हरियाणा के संस्था के पदाधिकारियों व सदस्यों के साथ दिल्ली शहर के तमाम प्रतिष्ठित वरिष्ठ गणमान्य साहित्यकारों व कलाप्रेमियों विद्वतजनों जैसे रमा सिंह, डाॅ मुक्ता, अमरजीत कौर आदि की गरिमामय उपस्थिति ने कार्यक्रम को अद्भुत स्वरूप प्रदान किया । कला साहित्य संस्कृति को समर्पित संस्था “कस्तूरी” और उसके कलाकारों व अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय के उपस्थित सदस्यों को माला, प्रमाणपत्र आदि से अभिनन्दन किया गया।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन आकाशवाणी के भूतपूर्व निदेशक संस्था के उपाध्यक्ष भीमप्रकाश शर्मा जी ने किया ।

– डाॅ इन्दु झुनझुनवाला, संस्थापक अध्यक्ष, अभ्युदय अन्तर्राष्ट्रीय संस्था

साभार –  डॉ निशा अग्रवाल, जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ राधेचा शेला ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

😅 💃 राधेचा शेला ! 💃 😅 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

माता पुसतसे राधेला

येवून तिच्या महाली

तव शेल्यावर ही नवीन

निळाई गं कसली

 

पडली संभ्रमात राधा

आता काय सांगावे

प्राणाहून प्रिय मातेला

कारण काय ते द्यावे

 

आठवून रासरंग क्रीडा

राधा मनोमनी लाजली

धीर करुनी मग मातेला

हसत हसत उत्तरली

 

शेला उडोनी हरीच्या

मुखावरी बघ पडला

बहुदा रंग त्‍या मुखाचा 

त्याने अलगद उचलला

 

उत्तर ऐकून राधेचे

माता गालात हसली

मुख झाकत शेल्याने

राधा अंतःपुरी पळाली

 

© प्रमोद वामन वर्तक

११-०२-२०२३

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 148 – पंढरीची वारी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 148 – पंढरीची वारी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

आषाढी कार्तिकी

पंढरीची वारी।

नामाचा जल्लोष

करी वारकरी।।

 

विरालासे दंभ।

नसे भेदभाव ।

भजनात रंगे

रकं आणि राव ।।

 

श्रद्धेची पताका

खेळती पावली।

टाळ मृदुंगाच्या

तालात चालली ।।

 

सजले कळस

डोई ही तुळस ।

गाऊया अभंग

सोडूनी आळस ।।

 

वैष्णवांचा धर्म

नाम संकीर्तन

धरोनी रिंगन

सद्भावे नर्तन ।।

 

वरी भीमा तीरी

धन्यती नगरी ।।

भक्तांच्या संगती

भुलला पंढरी।। 

 

अनाथाची आई

माझी ग विठाई।

रूसली कौतुके

राई रूख्माबाई।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जसे अन्न तसे मन… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

 🌸 विविधा 🌸

☆ जसे अन्न तसे मन… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆ 

खूप लहानपणी एक म्हण ऐकली होती. माणसाच्या मनातला मार्ग त्याच्या पोटातून जातो याचा अर्थ काहींनी सांगितला होता व तोच अर्थ मनात खोलवर बसला होता.तो असा होता की चांगले खाल्ले की लोक चांगले वागतात, खाणाऱ्याचे मिंधे होतात.आपल्या विषयी त्यांचे मन चांगले होते इत्यादी….

खरे तर हे फारसे पटत नव्हते.कारण ज्या व्यक्तीच्या हातचे छान छान खातात त्यांनाच नावे ठेवताना व त्यांच्या विरुद्ध कारस्थाने करताना बघितले आहे. आणि आपल्या पूर्वजांनी ज्या म्हणी,सुविचार मांडले आहेत त्याचा फार गहन अर्थ असतो.काही वाचन,थोडी समज व अनुभव यातून पुढील निष्कर्ष निघाले.

स्वयंपाक करणाऱ्याचे विचार त्या पदार्थांमध्ये उतरतात.

अन्न, पाणी याला भावना देऊ शकतो.

मग हे प्रयोग घरातच केले. खूप त्रागा, राग राग, चिडचिड करत स्वयंपाक केला. सलग ७ दिवस असे केले. आणि निष्कर्ष समोर आले. घरातील सगळी माणसे उगीचच वाद घालू लागली, भांडू लागली, आरोप प्रत्यारोप करू लागली.मी काहीही न बोलता अन्नाला देण्याच्या भावना बदलल्या व हळूहळू परिस्थिती बदलली.

आपणा सर्वांना काही ना काही चिंता, काळजी, आजार अशा काहीतरी समस्या असतातच. त्याच घेऊन स्वयंपाक केला तर तेच अन्न घरातील खाणार आणि त्या भावनांचे त्यांच्या मनात प्रोग्रॅमिंग होणार व ते शरीर, मन या द्वारे प्रगट होणार. हे आपणच बदलू शकतो.

आपल्याला जसे हवे आहे तसे विचार स्वयंपाक करताना मनात ठेवायचे.उदाहरण म्हणून काही वाक्ये देत आहे.

१) घरात सुख, समाधान, शांतता, समृद्धी, आनंद आहे.

२) सर्वजण एकमेकांशी मैत्री भावनेने वागत आहेत.

३) मी आनंदी आहे. सुखी आहे.

४) घरातील सगळे जण आपापली कर्तव्ये मनापासून व आनंदाने,जबाबदारीने पार पाडत आहेत.

हे जरूर करावे किंवा स्वयंपाक करताना

🪷 कोणताही जप करावा

🪷 एखादे स्तोत्र म्हणावे स्वयंपाक करतांना अन्नपूर्णा स्तोत्र म्हणावे.

🪷 मन आनंदी ठेवावे.विचार सकारात्मक ठेवावेत.

🪷 उत्तम संगीत किंवा गाणी लावावीत

आपल्याकडे जेवताना श्लोक म्हणण्याची पद्धत सर्वात उत्तम आहे.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ वादळ  – भाग-१ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ वादळ  – भाग-१ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

‘हुश्श, संपली बाबा एकदाची परीक्षा!’ असं म्हणत वसुमती सोफ्यावर आरामात पसरली. मुलांच्या परीक्षा म्हणजे आई-वडिलांनासुद्धा ताण असतो हल्ली! मुक्ताचा तिच्या लेकीचा आज शेवटचा पेपर होता बारावीचा. सगळे कैदी मोकाट सुटणार होते आज! वर्षभर कॉलेज, क्लास आणि अभ्यास या चक्रात अडकले होते.

‘आई, आज आम्ही सगळेजण पिक्चरला जाणार आहोत हं परस्पर! खादाडी पण होईलच तिकडे. पिक्चर सुटला की श्रीमतीच्या घरी दादरला नाईटआउट! तिच्या बाबांची दिल्लीला बदली झाली आहे. ते मागच्या आठवड्यातच तिकडे जॉईन झालेत. आता दोन-तीन दिवसांनी श्रीमती आणि तिची आई पण जाणार. मग कधी भेट होईल आमची कोण जाणे! ‘

‘ अग, हो हो! तुमचं प्लॅनिंग म्हणजे काय विचारता? पण कोण कोण येणार आहे तिच्याकडे? म्हणजे राहायला.’

‘ आर्या, सुनिधी आणि शमिका, आम्ही चौघीजणीच! बाकीचे फक्त पिक्चरला येणार आहेत.’ 

‘कपडे घेतलेस का रात्री बदलायला? आणि उद्या कधी उगवणार आहात आपण?’ 

‘हो आई, उद्या संध्याकाळी येणार . आज रात्री उशिरापर्यंत गप्पा, म्हणजे उठायला उशीरच. आणि परीक्षा संपल्यावर आता कशाला लवकर उठायचंय? मग सगळं आवरून निघायला ४-५ वाजतीलच.’ असं म्हणत आपली सॅक पाठीवर लटकवून मुक्ता बाहेर पडली सुद्धा. 

मुक्ताच्या या कार्यक्रमामुळे आता संध्याकाळपर्यंत वसुमतीला निवांतपणा होता. 

ठाण्याला राहणारं गोखलेंचं कुटुंब टिपिकल मध्यमवर्गीय!  वसुमती गृहिणी. वसंतराव, मुक्ताचे बाबा नरिमन पॉइंटला बँक ऑफ इंडियामध्ये हेडक्लार्क ! साडेसातपर्यंत यायचे घरी कामावरून. मुक्ता माटुंग्याच्या रूईया कॉलेजला. मिहीर, त्यांचा लेक  आठवीत होता. साडेपाचला शाळेतून आला की तो काहीतरी नाश्ता करून फुटबॉल खेळायला जायचा ग्राउंडवर! साडेसातच्या आसपासच तो पण घरी यायचा.  मग थोडावेळ एकत्र टी. व्ही. बघणं, आणि जेवणं आवरून, साडेदहाला मंडळी गुडुप! सकाळी सहा वाजता  परत वसुमतीचा दिवस सुरू व्हायचा. मुक्ता आणि मिहीर, दोन्ही मुलं अभ्यासात तशी चांगली होती, ७०-७५% मिळवणारी आणि सरळमार्गी. एकूण सुखी कुटुंब! 

दुसऱ्या दिवशी दुपारी जेवण झाल्यावर वसुमतीनं मोबाईल हातात घेतला आणि वॉटसप उघडलं आणि….. तिला एकदम गरगरायला झालं. कुठल्यातरी अनोळखी नंबरवरून एक फोटो आला होता. राजा सावंत आणि मुक्ता गोखले यांचा शुभविवाह नुकताच पार पडला, हार्दिक शुभेच्छा! वसुमतीनं खात्री करून घेण्यासाठी पुन्हा पुन्हा तो फोटो बघितला. हो, शंकाच नाही, ही आपलीच लेक आहे. पण…. तिला जबरदस्त धक्का बसला होता. काय करावं तेच सुचेना. कितीतरी वेळ ती तशीच विमनस्क अवस्थेत बसून राहिली.

कोण हा राजा? आणि लग्नापर्यंत मजल गेली तरी मुक्तानं एका शब्दानं आपल्याला सांगितलं नाही? आणि आत्ता कुठे अठरावं पूर्ण झालंय, शिक्षण व्हायचंय. ही काय दुर्बुद्धी सुचली हिला. तिच्यावर जबरदस्ती तर झाली नसेल? एक ना हजार विचारांनी वसुमती भेंडाळून गेली. तिच्या मैत्रिणींना फोन करावा का? पण कोण जाणे त्यांना हे माहीत आहे की नाही ? तरी तिने आर्याला फोन लावलाच. ती पण ठाण्यातच राहणारी. मुक्ता आणि ती कॉलेजला बरोबरच जायच्या.

दोनदा प्रयत्न केल्यावर, तिसऱ्यांदा एकदाचा फोन लागला. ‘काय झालं काकू? काही काम आहे का? तुमचा आवाज नीट ऐकू येत नाही. मी ट्रेनमध्ये आहे, आम्ही सगळे कोकणात निघालोय ना, आजीकडे!’

‘बरं, बरं!’ म्हणून वसुमतीनं फोन बंद केला. सुनिधीचा नंबर काही मिळेना. मग तिनं शमिकाला फोन केला. तर ती कोणत्या तरी कार्यक्रमात होती. जरा विचार करून तिनं ज्या नंबरवरून फोटो आला होता, तिथे फोन लावला. पण तो फोन स्वीच्ड ऑफ़!’ काय उपयोग आहे का या मोबाईलचा!’ म्हणत ती नवऱ्याला  कळवावं का आणि काय सांगावं या विचारात बऱ्याच वेळ अडकली.

मनाच्या या सैरभैर अवस्थेत तिनं तिच्या मैत्रिणीला,  फोन केला. बाजूच्या सोसायटीतच राहायची ती!

‘ साधना, प्लीज, येतेस का लगेच माझ्याकडे?’

‘अगं वसू काय झालं काय? ‘

‘ तू ये तर खरी, आल्यावर सांगते ना’, म्हणून फोन बंद करून वसुमती तशीच बसून राहिली.

दहा मिनिटात साधना हजर झाली. वसुमती तिच्या गळ्यात पडून ओक्साबोक्शी रडू लागली आणि तिने तिला मोबाईलमधला तो फोटो दाखवला. साधना पण चकित झाली. काय बोलणार ना? तो फोटो निरखून बघितला आणि ती म्हणाली,’ हा राजा सावंत म्हणजे आपल्या गल्लीच्या कोपऱ्यावर चौकात ते गॅरेज आहे ना, तोच वाटतोय. काय शिकलाय माहित नाही, पण दिसायला देखणा आहे. त्याचीच तर भूल नाही पडली आपल्या मुक्ताला?  हे वय असंच वेडं असतं ग! पण तुला काहीच कल्पना नव्हती याची?’

‘नाही ग! मी समजावलं नसतं का तिला? बघ ना काय करून बसली? आता ह्यांना कसं सांगायचं हे? ‘

मग साधनानेच वसंतरावांना फोन लावला,’ वसूची तब्येत जरा बरी नाहिये, चक्कर येतेय तिला. तुम्ही जरा लवकर येऊ शकाल का घरी? मी थांबते इथे तोपर्यंत. ‘

साधनाच्या फोनमुळे वसंतराव गडबडून गेले. साहेबांना सांगून लगेच निघतो म्हणाले. पण तरी त्यांना घरी पोचायला पाच वाजून गेले असते. 

साधनानेच चहा केला आणि वसुमतीला बळजबरीने प्यायला लावला .वसंतराव घरी आले. साधनाने त्यांच्या कानावर घडला प्रकार घातला. ते पण हडबडून गेले. तोवर मिहिरही घरी आला, त्यामुळे त्यालाही सगळं समजलं. 

‘ झालं ते झालं! दोन्ही मुलं सज्ञान आहेत, त्यामुळे आपण विरोध करून काही उपयोग नाही. आता जरा शांत डोक्याने विचार करून काय ते ठरवा. काही लागलं तर कळवा.’ असं म्हणून साधना घरी गेली. तिची लेक शाळेतून येण्याची वेळ झाली होती.

दोन-तीन दिवस तणावातच गेले. वसंतराव आणि वसुमतीला हा धक्का पचवणं सोपं नव्हतं. लेकीची चिंता सतावत होतीच. शिवाय सोशल मिडियामुळे ही बातमी सर्व नातेवाईकांपर्यंत पोचायला वेळ लागला नव्हता. फोनवरून, वॉटसपवरून वेगवेगळ्या प्रतिक्रिया उमटत होत्या. सध्या कोणाला काही उत्तर देण्याच्या मनःस्थितीत ही दोघं नव्हतीच. साधना आणि तिचा नवरा मात्र सर्व प्रकारची मदत करत होते. साधना दोन्ही वेळचं जेवण घेऊन येत होती. वसुमतीला चार गोष्टी सांगून, मानसिक आधार देत होती. सुरेशने तिच्या नवऱ्याने, त्या मुलाची माहिती काढली होती.

राजा सावंतचं कुटुंब, मुळचं सावंतवाडीचं. तिकडे त्यांचं वडिलोपार्जित राहातं घर आणि बागायत होती. राजा पाचवीत असतानाच त्याचे वडील वारले काविळीने. मग ठाण्यात राहणारा काका, राजाला शिक्षणासाठी आपल्याकडे घेऊन आला. काकाचा केबल नेटवर्कचा व्यवसाय होता. शिवाय  घरचे आंबे, सुपाऱ्या, नारळ आणि इतर कोकणातील उत्पादनं विकण्यासाठी ठाण्यात एक दुकानही टाकलं होतं. राजाची काकी आणि चुलत भाऊ ते दुकान चांगलं चालवत होते. राजाची आई आणि मोठी बहीण गावाकडे  बाग सांभाळत होती आणि लोणची, मसाले, कोकम सरबत इ. बनवून ठाण्यात पाठवत होती. राजा बारावीत नापास झाला. त्याला पुढे शिकण्यापेक्षा स्वतःच्या पायावर उभं राहणं जास्त गरजेचं होतं. त्याने एक-दोन वर्षे एका गॅरेजमध्ये काम करून, दुचाकी गाड्या दुरूस्तीचं काम शिकून घेतलं. त्याला या विषयात गती होती. मग काकाच्या मदतीने, बँकेकडून कर्ज काढून स्वतःचं गॅरेज काढलं. पोटापाण्यापुरतं उत्पन्न मिळत होतं त्याला. तो काकाकडेच पोखरणला राहात होता. जमेची बाजू म्हणजे राजा मेहनती आणि निर्व्यसनी होता. मागच्या वर्षी बहिणीचं लग्न करून दिलं होतं. 

क्रमश:  भाग १

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ..आणि पदार्थ वाफाळू लागला भाग -1… शेफ शंकर विष्णू मनोहर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ ..आणि पदार्थ वाफाळू लागला भाग -1… शेफ शंकर विष्णू मनोहर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆ 

एकीकडे रेसिपी सांभाळून, सगळं कसं छान आहे असंच शूटिंगच्या वेळी चेहऱ्यावर दाखवणारा शेफ एक उत्तम अभिनेताही असतो. भटारखाना म्हणजे ‘दृष्टीआड सृष्टी’ असते, ती म्हण रेसिपी शोज्ना तंतोतंत लागू पडते!  तिथे वेळ पडली तर काय काय करावं लागतं, हे सांगताहेत प्रसिद्ध शेफ विष्णू मनोहर.

कोणत्याही भटारखान्यात डोकावून बघू नये.. दृष्टिआड सृष्टीच ठीक , असं म्हणतात पण ते काही फारसं खरं नाही. निदान माझ्याबाबतीत तर नाहीच नाही..माझ्या म्हणजे आमच्या ‘विष्णुजी की रसोई’ बाबतीत.. या ‘रसोई’च्या भटारखान्यात कोणीही जावं..खाण्याची इच्छा मरणार नाही तर तिथला खमंग दरवळ नक्कीच जठराग्नी प्रदीप्त करील!..रसोईचं ओपन किचन असतं..म्हणजे दृष्टी समोरच सृष्टी म्हणायला हरकत नाही! पण ही ‘दृष्टी आड सृष्टी’ असते ना ती म्हण रेसिपी शोज् ना तंतोतंत लागू पडते! तिथे वेळ पडली तर काय-काय करावं लागतं हे नंतर आठवलं तरी आमचं आम्हालाच आश्चर्य वाटतं!

गंमत म्हणून एक आठवण सांगतो, एका हिंदी सिनेमाच्या सेटवर गेलो होतो. मस्त झाडं-नदी वगरेचा सेट लावला होता. नदीत पाणीही होतं. शॉट ओके झाला. हिरो-हिरॉईन निघून गेले आणि मग मी माझ्या दिग्दर्शक मित्राबरोबर बोलत होतो. त्यालाही कोणी तरी बोलावलं म्हणून तोही गेला. इतक्या वेळ गजबजलेला सेट एकदम रिकामा झाला. तो सेट जवळून बघू या म्हणून मी गेलो, एका झाडाला हात लावला आणि ते झाड धाडकन खाली पडलं. माझं चांगलंच धाबं दणाणलं पण त्या सेटवाल्यांना स्वयं असावी. सेटवाला आला त्यानं खिळे वगरे ठोकून दोन मिनिटांत परत ते झाड होतं तसं उभं केलं. तेव्हा मला कुठे माहिती होतं की पुढे हे असं ‘चिटिंग’ आपल्यालाही करायचं आहे ते!

माझा पहिला अनुभव होता तो ‘क्रिम’ करण्याचा. सेटवर खूप लाइट्स, कॅमेरे असतात यामुळे वातावरणात उष्णता भरून राहिलेली असते. अशा वेळी एखाद्या पदार्थात जर क्रीमचा वापरायची वेळ आली तर ते वितळून जातं. मग प्रेक्षकांना दाखवणार काय? मग मी नकली क्रीम करायला शिकलो ते मदा, दूध, कॉर्नस्टार्च आणि तेलाचा वापर करून. पण एकदा तर क्रीम करण्यासाठी हे पदार्थच नव्हते. शूट झाल्यावर पुन्हा फोटोशूटही करायचं होतं म्हणजे क्रीमचा परिणाम फक्त शूटिंगपुरता साधला जाऊन उपयोगाचा नव्हता. आमचा फोटोग्राफर इतका हुशार निघाला की त्यानं क्रीम म्हणून चक्क फेव्हिकॉलचा वापर केला.

जाहिरातीमध्ये किंवा रेसिपी शोमध्ये छान वाफाळता पदार्थ दाखवतात. एकदा केलेला पदार्थ शॉट होईपर्यंत कसा वाफाळता राहील? मग त्यासाठी एक खास तंत्र असतं. टेबलावर मांडलेले पदार्थ असतील तर त्यात कापूस जळत ठेवतात किंवा एखाद्या पदार्थामध्ये कापसाचा जळता बोळा टाकतात. तुम्ही इडली किंवा वडा-सांबारची जाहिरात बघता ना त्या कशा मस्त फुगलेल्या वाफाळत्या असतात. त्या दोन इडल्यांमागे कापसाचा बोळा जळत असतो. पदार्थावर चकचकीतपणा आणण्यासाठी त्यावर ग्लिसरिन टाकतात. तांदळाची जाहिरात दाखवताना छान दाणेदार भात दाखवतात किंवा मग त्यांच्या भाज्या छान हिरव्यागार दिसतात..कोणत्याही गृहिणीला असा भात कसा करायचा? किंवा अशी हिरवीगार भाजी कशी ठेवायची, हा प्रश्न पडल्यावाचून राहत नसेल. पण या भात किंवा भाज्या पूर्ण शिजवलेल्या नसतात तर फक्त उकळत्या पाण्यात घालून बाहेर काढतात.

अशा अनेक गमतीजमती आमचा कार्यक्रम ‘मेजवानी’च्या शूटिंगच्या वेळीही घडतात. सेट लागलेला असतो, चार-चार कॅमेरा सेटअप असतो आणि सगळ्यात महत्त्वाचं म्हणजे दिवसाला तीन/चार कधी कधी पाच एपिसोड पूर्ण करायचंही बंधन असतं. त्यामुळे सगळ्यांनाच खूप घाई असते. काय सामान हवंय याची मी आधीच यादी दिलेली असते. रेसिपी सांगितलेल्या असतात. तरीही आयत्या वेळी व्हायचा तो घोळ होतोच. चवीपुरतं मीठ घालू, असं मी बोलतो पण लक्षात येतं की तिथे मीठ ठेवलेलंच नाही. कॅमेरा तर ऑन आहे. आता जर शूट थांबवलं तर अर्धा तास वाया जाणार म्हणून मग मी काही तरी बोलत क्षण-दोन क्षण घालवतो आणि तितक्या वेळात त्या ओटय़ावर काय-काय पदार्थ आहेत त्यावर नजर टाकतो आणि मग मदा, तांदळाची पिठी जे काही हाती लागेल ते मीठ म्हणून घालतो. चाट मसाला, धणे-जिरे पावडर, तेल, तूप या पैकी कोणत्याही गोष्टी बाबत हे असं ‘चिट’ करावं लागतं. कधी कधी रेसिपी करताना ही ‘चिट’ करावं लागतं. दुधाची रबडी दाखवायची असेल तर दूध आटेपर्यंत थांबण्याइतका वेळ नसतो. मग दुधाला उकळी आली की भाजलेली कणिक दुधात भिजवून ती पेस्ट दुधाला लावतो. लगेच दूध रबडीसारखं दाट दिसू लागतं. थोडय़ा  वेळात खास शूटिंगसाठीची रबडी तयार! आता ही रेसिपी वाचून घरी प्रयोग करू नका! घरी करताना दूध आटवूनच रबडी किंवा बासुंदी करा.

एकदा हिरव्यागार मिरच्या फोडणीला टाकण्याचा शॉट होता. मी तेलात मिरच्या टाकल्या आणि जो खखाणा उठला त्यानं मला चांगलाच ठसका लागला. शॉट वाया गेला.  पुन्हा तेच घडलं. शेवटी मी लाँग शॉट घ्या म्हणून सुचवलं. पण दिग्दर्शकाला शॉटमध्ये धूरही हवा होता आणि मीही हवा होतो. आता हे दोन्ही साधायचं तर काही तरी युक्ती करायलाच हवी होती. मग सिमला मिरची बारीक चिरून घेतली. बियांसकट ती बारीक चिरलेली सिमला मिरची घातली. त्यामुळे दिग्र्शकाला हवा तसा शॉट मिळाला आणि मला ठसकाही आला नाही. ग्रेव्ही किंवा रश्शाला तेल सुटलेले दाखवण्यासाठी माझी नेहमीची युक्ती म्हणजे तेलात लाल तिखट कालवून, एक उकळी आली की ते वरून घालायचं! मस्त तेलाचा तवंग येतो.

कोणताही शेफ हा वैज्ञानिक आणि तंत्रज्ञसुद्धा असतो! तंत्रज्ञ कारण तो अनेक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणं सहजी हाताळतो आणि वैज्ञानिक कारण त्याला पदार्थाच्या रसायनाच्या अनेक युक्त्या माहिती असतात. तुम्हाला माहितेय का की बिटाच्या रसात हळद घातली की केशरी रंग येतो ते! अनेक शेफ ही युक्ती अनेकदा वापरतात. अशा अजूनही युक्त्या आहेत.. बिटाच्या रसात काजूची पेस्ट मिसळा, जांभळा रंग तयार! सोडय़ात हळद मिसळली की लाल रंग येतो. पदार्थाला छान रंग येण्यासाठी शूटिंगच्या वेळी कृत्रिम रंग सर्रास वापरले जातात. पण नंतर चॅनलनं कृत्रिम रंग वापरण्यावर बंदी आणली. माझ्या एका पदार्थासाठी केशराचा रंग हवा होता. आता चांगल्या प्रतीचं केशर आणता येईलच असं नाही. मग मी काही प्रयोग करून बघितले आणि त्यातला यशस्वी झालेला प्रयोग म्हणजे हळदीच्या पाण्यात लिंबू पिळून ते उकळलं आणि त्याचा अगदी केशरासारखा रंग आला. लिंबाचा विषय निघालाच आहे म्हणून एक गंमत आठवली. एकदा एका रेसिपीच्या वेळी मी वरून लिंबू पिळा असं म्हटलं आणि लिंबू पिळू लागलो तो पिळलंच जाईना. ते लिंबू कच्चं होतं. मग मी काय केलं त्या लिंबाच्या अर्ध्या भागावर पाणी घातलं आणि पिळल्याची अ‍ॅक्टिंग केली.. वेळ साधली गेली.

– क्रमशः भाग पहिला

लेखक : शेफ विष्णू मनोहर

संग्रहिका  : मीनल केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ती चक्रधर आयुष्याच्या रथाची….! ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

अल्प परिचय 

अभिनव विद्यालय हायस्कूल,मराठी माध्यम, कर्वे रस्ता,पुणे या शाळेत मराठी,इंग्रजी हे विषय शिकवतो. पूर्ण वेळ शाळा आणि उर्वरित वेळेत थोडेसे सामाजिक काम आणि लेखन असा दिनक्रम असतो.

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “ती चक्रधर आयुष्याच्या रथाची….!” ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

आयुष्य संपवण्याचा निश्चय केलेला तो.. तरूण शेतकरी गडी.. आणि त्याचे आयुष्य वाचवण्यासाठी कंबर कसून लढायला उभी असलेली ती!

त्याच्या शरीरात विष पसरत जाण्याचा वेग त्याच्या दवाखान्यात आणल्या जाण्याच्या वेगापेक्षा जास्त होता. त्याच्या खेड्यातल्या घरातून, खाच खळगे असलेल्या वाटेवरून या प्राथमिक आरोग्य केंद्रात त्याला आणायला झालेला उशीर त्याच्या जीवावर बेतू पाहतो आहे. अशाच एका खेड्यातून जिद्दीने शिकून, वैद्यकीय अभ्यासाचं शिवधनुष्य पेलून डॉक्टर झालेली ती…  दुपार ते रात्र अशा सेकंड शिफ्ट ड्युटीवर तैनात आहे. आणि हो, पाच महिन्यांची गर्भार सुद्धा ! खूप काळजी घ्यावी लागते पोटातल्या जीवाची. मानसिक ताण नको, जोराच्या हालचाली नको आणि धक्के बसतील असा प्रवास तर नकोच नको !

विष प्राशन करण्याचे भलते पाऊल उचलणाऱ्या त्या तरुणाचा देह आता तिच्या टेबलवर आहे. त्याची पत्नी आलीये त्याला घेऊन कशीबशी. तिने बहुदा आशा तशी सोडलीच आहे आणि त्याला तरी कुठे जगायचे होते?

नाशिकच्या ग्रामीण भागात असलेल्या म्हाळसाकोरे या गावातील प्राथमिक आरोग्य केंद्रातल्या सोयी त्याचा जीव वाचविण्याच्या कामात तशा अपुऱ्या पडतील, हे ड्यूटीवर असलेल्या तिला उमगले लगेच. त्याला प्राथमिक उपचार आणि त्याच्या बायकोला धीर देऊन तिने त्वरित निर्णय घेतला!

रुग्ण वेगाने आधुनिक सुविधा असलेल्या निफाडच्या रुग्णालयात पोहोचवता आला तर जीव वाचण्याची शक्यता अधिक! रुग्णवाहिका होती दारात, पण चालक रजेवर असल्याने उपलब्ध नव्हता आणि दुसरा चालक किंवा वाहन मिळवण्यात वेळ लागला असता. रात्रीचे आठ-साडे आठ वाजलेत. रुग्णालय पंधरा किलोमीटर्सच्या अंतरावर. इतर वाहनाने रुग्ण हलवणे जिकिरीचे आणि धोक्याचे होतेच.

तिला चार चाकी स्वयंचलित वाहन हाकता येत होतं, परवानाही होताच. पण रुग्णवाहिका कधीच नव्हती चालवलेली. हो, रूग्णालयाच्या मोकळ्या आवारात काहीवेळा रुग्णवाहिका चालवून थोडा हात साफ करून घेतला होता. तो साफ हात आता उपयोगात आणण्याची वेळ आली होती.

तिने पटकन सूचना दिल्या… आरोग्यसेवकाला सोबत घेतले. रूग्ण वाहनात घेतला आणि ती चक्रधर बनली ! पोटातलं बाळ सुध्दा जीव मुठीत धरून बसलं असावं. तिने स्टार्टर मारला… सायरनचा कान पिळताच त्याने आवाज घुमवायला आरंभ केला.

चार चाकं तिच्या हातातल्या चाकाच्या इशाऱ्यावर डावी उजवी, हळू, वेगात अशा खेळात रमली. सुदैवाने रस्ता उत्तम स्थितीत होता. जे असतील ते खड्डे आज तिला पाहून काहीसे उथळही झाले असावेत…. डॉक्टर रुग्णवाहिका चालवताहेत…. हे त्या खड्ड्यांनी, गतिरोधकांनी, रस्त्यावरच्या मैलांच्या दगडांनी, रात्रीच्या अंधारात चकाकणाऱ्या रिफ्लेक्टर्सनी आज बहुदा पहिल्यांदाच पाहिले असावे…..आज नागमोडी वळणं शहाण्यासारखी वागली… कुणीही मध्ये नाही आलं!….. हा एक प्रकाराचा ग्रीन कॉरीडॉरच.

सुमारे सत्तर किलोमीटर प्रति तास या वेगाने तिने गाडी हाकली. सफाईदारपणे रूग्णालयाच्या आवारात आणली… रुग्णाला व्हीलचेअरवरून वेगाने इमर्जन्सी रूममध्ये आणलं.. रुग्णाच्या श्र्वासांची मालिका समाप्त होण्याआधी त्याचे श्वास तज्ज्ञ डॉक्टर आणि यंत्रांच्या हवाली झाले होते…. रुग्ण वेळेपूर्वी रुग्णालयात पोहोचला होता ! त्याचा जीव बचावला होता…

डॉक्टर प्रियांका पवार यांनी गर्भारावस्थेत, धोका पत्करून, रुग्णाच्या जीवासाठी आपला आणि पोटातल्या तान्हुल्याचा जीव पणाला लावला होता.

प्रभु रामचंद्रांचे पितामह राज दशरथ यांच्या रथाची धुरा ऐन युद्धात तुटली…. राजा दशरथ देव-दानवांच्या युद्धात देवांच्या साहाय्यासाठी लढत होते… राणी कैकेयी सोबत होत्या… त्यांनी आपला हात रथाच्या धुरेत घातला आणि रथाचे चाक निखळू दिले नाही….. युद्ध संपेपर्यंत. अगदी या प्रसंगाची आठवण यावी असा डॉक्टर प्रियांका पवारांचा पराक्रम. कैकेयीने प्रभू रामचंद्रांना वनवासात पाठवले होते… या डॉक्टररूपी शूर स्त्रीने रूग्णाला मृत्यूच्या वनवासातून माघारी आणले !

डॉक्टर साहेबा पुन्हा तीच रूग्णवाहिका घेऊन ग्रामीण प्राथमिक आरोग्य केंद्र रूग्णालयातल्या आपल्या ड्यूटीसाठी परतही आल्या. एका कोपऱ्यात शांत, क्लांत उभी असलेली आणि आजवर शेकडो रूग्णांना इकडून तिकडे घेऊन जाण्याचा अनुभव असलेली ती रुग्णवाहिका या आपल्या नव्या चालकाकडे पाहून बहुदा गालातल्या गालत हसत असावी आणि डॉक्टर प्रियांका पवारांचं बाळ, आईनं किती छान राईड मारून आणली म्हणून भलतंच खुशही झालं असावं ! आपल्या आईने कर्तव्यपूर्तीसाठी किती मोठा धोका पत्करला होता हे त्या पिलाला कळलं नसावं… पण ते जेंव्हा जन्माला येऊन मोठं होईल ना तेंव्हा त्याला आपल्या आईचा अभिमान निश्चितच वाटेल… नाही का?

 © श्री संभाजी बबन गायके

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ झाकली मूठ सव्वालाखाची…अंबर कर्वे ☆ प्रस्तुती – सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर ☆

?  वाचताना वेचलेले ? 

☆ झाकली मूठ सव्वालाखाची…अंबर कर्वे ☆ प्रस्तुती – सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर

एकदा एका मंदिरात पूजेला एक राजा येणार आहे असे त्या पुजार्‍याला कळले… त्याने सहा हजार रुपयांचे कर्ज काढले आणि देऊळ चांगले सजवले रंगवले.

*

राजा पूजेला आला आणि त्याने दक्षिणा म्हणून चार आणे ठेवले. पुजार्‍याला तिथेच घाम फुटला. आपण सहा हजार कर्ज काढून मंदीर रंगवले आणि राजाने फक्त चार आणे दक्षिणा ठेवली… आता या चवन्नी छाप राजाला अद्दल घडवायचीच.

*

पुजारी हुशार होता… राजा गेल्यावर पुजार्‍याने ते चार आणे मुठीत घेतले आणि सगळ्यांना सांगू लागला…

“राजाने मंदिरात दान केलेली एक वस्तू आहे. ती मला झेपणार नाही. म्हणून मी तिचा लिलाव करतोय. आपापली बोली लावा.”

आता राजाने वस्तू ठेवलीय म्हणल्यावर साधी ठेवली असेल का… ? पहिलीच बोली दहा हजार पासून… सुरु झाली. पुजारी डोके हालवूनच ‘नाही परवडत’ असे म्हणत होता. लिलावातील बोली वाढत वाढत पन्नास हजारावर पोचली.

*

तिकडे राजाला पहारेकरी म्हणाला, “महाराज, पुजाऱ्याने आपण मंदीरात दान केलेल्या वस्तूचा लिलाव सुरु केला आहे आणि ती वस्तू तो दाखवतही नाही आणि सांगतही नाही, मुठीत ठेवलीय…”

*

राजाला घाम फुटला. तो पळत पळत आला आणि पुजाऱ्याच्या डोक्यावरून हात फिरवून म्हणाला, “हे माझ्या बाप्पा, सव्वालाख देतो पण कुणाला ती वस्तू दाखवू नको….”

*

तेव्हा पासून ही म्हण रुजू झाली….

*….झाकली मूठ सव्वालाखाची….*

संग्राहिका : सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ एका रानवेड्याची शोधयात्रा… श्री कृष्णमेघ कुंटे ☆ परिचय – सौ. उज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ एका रानवेड्याची शोधयात्रा… श्री कृष्णमेघ कुंटे ☆ परिचय – सौ. उज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ एका रानवेड्याची शोधयात्रा… श्री कृष्णमेघ कुंटे ☆ परिचय – सौ. उज्वला केळकर ☆ 

एका रानवेड्याची शोधयात्रा

लेखक – कृष्णमेघ कुंटे

राजहंस प्रकाशन

पृष्ठे – १६९ मूल्य – १२५ रु.

परिचय उज्वला केळकर

कृष्णमेघ कुंटे हे मदुमलाईच्या जंगलात पूर्णपणे एक वर्ष राहिले. ऑगस्ट ९४ ते जुलै ९५ या काळात ते तिथे राहिले. त्यांनी तिथे जगलेलं जीवन, घेतलेले अनुभव म्हणजे एका रानवेड्याची शोधयात्रा’. तिथे ते घामानं थबथबेपर्यंत, पोटर्‍या लटपटेपर्यंत, बूट फाटेपर्यंत, मांड्या दुखेपर्यंत, पाठीचा कणा मोडेपर्यंत हिंडले. नादावल्यासारखे परत परत झाडीमाध्ये फिरत गेले. जंगलातील सर्व ऋतूंमधीलरूप, रंग, नाद, स्पर्श अनुभवले. त्यामधला रस घेतला आणि तितक्याच रसिलेपणाने, शब्दांमधून तो अनुभव वाचकांपर्यंत पोचवला.   

पहिल्या प्रकरणात लेखकाने आपण मदुमलाईच्या जंगलात का व कधी गेलो, ते सांगितलय. कॉलेजच्या पहिल्या वर्षाला ते रसायनशास्त्रात नापास झाले. दुसर्‍या वर्षाचे सर्व विषय सुटले होते, पण रसायनशास्त्रात पास झाल्याशिवाय पुढे जाता येणार नव्हते. मग वर्षभर काय करायचं? याबद्दल विचार चालू असतानाच, त्यांचे सर मिलिंद वाटवे यांनी विचारणा केली की मदुमलाईच्या जंगलात अभ्यासाठी जातोस का? त्यांना रानकुत्र्यांचा काही अभ्यास करायचा होता. त्यांच्या अभ्यासाचा पाठपुरावा कृष्णमेघांनी करावा, असा प्रस्ताव त्यांनी मांडला. तिथला त्यांचा सगळा खर्च ते करणार होते. जंगल भ्रमंतीचं वेड असणार्‍या आणि वन्य प्राण्यांबद्दल कुतूहल असणार्‍या कृष्णमेघांनी या प्रस्तावाला मान्यता दिली. ते ६ वीत असताना ‘फ्रेंडस ऑफ अॅनिमल्स’ या संस्थेने अंदमान येथे घेतलेल्या शिबिराला हजर राहिल्यापासून त्यांना वन्य जीवनाबद्दल कुतूहल निर्माण झाले होते. मदुमलाईच्या जंगलात राहून ते मिलिंद वाटवे यांच्यासाठी त्यांच्या पद्धतीने अभ्यास करणार होते.

त्यानंतर लेखकाने मदुमलाईचे जंगल आणि त्यांच्या पंचक्रोशीची माहिती दिली आहे. त्यांनी लिहिलय, ‘अन्य जंगलांप्रमाणे हे एकांडं जंगल नाही. तामीळनाडू, कर्नाटक आणि केरळ या तीन राज्यात पसरलेल्या भल्या मोठ्या अरण्याचा, मदुमलाईचे जंगल हा एक भाग आहे. नीलगिरी पर्वतरांगेत हे जंगल येते.’ पुस्तकाच्या शेवटी मदुमलाईच्या जंगलाचा नकाशाही दिलेला आहे. ते म्हणतात, मदुमलाईचा गाभा बघायचा असेल, तर म्हैसूर-उटीचा डांबरी रस्ता सोडून उजवीकडे आत शिरलं पाहिजे. तिथून पुढे फक्त झाडा-झुडपांचं, दाट गवताचं, हत्ती –अस्वलांचं, केताचं ( कृष्णमेघ यांचा आदिवासी वाटाड्या) आणि त्याच्यासारख्या जंगलात रमणार्‍यांचं साम्राज्य. आपण त्यात प्रामाणिकपणे घुसखोरी करण्याचा प्रयत्न केला आणि तो थोडा-फार यशस्वी झाला, असं ते म्हणतात. त्यांनी लिहिलय, ‘मी मदुमलाईला आलो आणि कक्कनल्लापासून थोरापळ्ळीपर्यन्त आणि मासिनागुडीपासून गेम हटपर्यन्त, साधारण देडशे- दोनशे चौ. की. मीटरचं जंगल मला उंडारायला मिळालं.’

मदुमलाईला  आल्यावर प्रथम ते मासिनागुडीत राहिले. इथे त्यांचे स्वतंत्र घर होते. इथे ५-६ घरातून रहाणार्‍या शेजारी संशोधकांची थोडी माहिती ते देतात. चार-दोन लेखणीच्या फटकार्‍याने बोम्मा या त्यांच्या स्वयंपाक्याचे आणि कोता या त्यांच्या आदिवासी वाटाड्याचे दर्शन ते घडवतात. इथून आपल्या आनंदी प्रवासाची सुरुवात झाल्याचे ते सांगतात.

ते ज्या प्रदेशात फिरले, तिथली झाडे-झुडुपे, पक्षी-प्राणी, नद्या-ओढे, उंचवटे-टेकड्या या सार्‍यांचं वर्णन अगदी चित्रमय शैलीत झाले आहे. आनईकट्टी येथील वर्णन उदाहरण म्हणून बघता येईल. ‘या भागाचं रूपही वेगळं आहे. इथे उंच डोंगर नाही की सपाट जंगल नाही. आहेत त्या अगदी दाटीवाटीने उभ्या असलेल्या, एकमेकांच्या पोटात शिरणार्‍या छोट्या छोट्या टेकड्या आणि त्यांच्यामधून वाहणारे उन्हाळ्यात रोडावणारे सडपातळ ओढे. पाऊस कमी, त्यामुळे आभाळाला हात लावणार्‍या पण एकमेकांपासून अलिप्त रहाणार्‍या उंच झाडांऐवजी इथे एकमेकांच्या हातात हात आणि गळ्यात गळे घतलेल्या , नसती गर्दी करून राहणार्‍या बुटक्या झाडांची आणि झुडुपांची रेलचेल आहे. आनईकट्टीत बाभळी, ईखळ, धावडा, खैर, पांगारा, चंदन, निवडुंगाचं साम्राज्य.. इथल्या धसमुसळ्या, बाकदार काटेरी जाळ्यांच्या प्रेमळपणापासून, काट्यात कपडे धरून ठेवण्याच्या हट्टापासून थोडं जपूनच राहिलेलं बरं. इथलं रहाणीमान पाठीचा कणा मोडणारं आणि हिंडणं पायाचे तुकडे पाडणारं, पण इतकं रोमांचकारी की इथून पाय लवकर हलत नाही.’

आपल्या भटकंतीतील प्रदेशाप्रमाणे इथले प्राणी, पक्षी, कीटक इ. चे वर्णनही त्यांनी सविस्तर केले आहे. त्यांच्या दिसण्याप्रमाणेच, त्यांचे स्वभाव, सवयी याबद्दल लिहिले आहे. काही निरीक्षणे, अभ्यास नोंदवला आहे. हत्तींमध्ये नराला दात असतात. माद्यांना  नसतात. . त्यांना आपल्या कळपाजवळ कुणी इतर प्राणी आलेला चालत नाही. ते लगेच त्याला हुसकावून लावतात. पाणी जसं ते आपल्या अंगावर घालून घेतात, तसंच पाण्याकाठची मातीही सोंडेने आपल्या अंगावर घालून घेतात. उन्हापासून आणि एक प्रकारच्या रक्तपिपासू माशांपासून आपला बचाव करण्यासाठी ते आपल्याला मातीने माखून घेतात. आपल्या विष्ठेचा वास सहन न झाल्यामुळे किंवा आसपासचे गवत जून निबर झाल्याने, कोवळ्या लुसलुशीत गवताच्या शोधात हत्ती स्थलांतर करतात. डिसेंबरमध्ये मोठ्या प्रमाणावर हत्ती आईनकट्टीला येतात. हा भाग हत्तींच्या शिकारीसाठी कुप्रसिद्ध आहे. इथे शिकार करणार्‍या वीरप्पनसह आणखी तीन टोळ्या आहेत. हस्तीदंतासाठी शिकार होते. एकदा या भागात गेलेले नर पुन्हा दिसत नाहीत. शिकार्‍याच्या गोळीला बळी पडतत, असं आदिवासी सांगतात. 

रानकुत्री ही बुटकी असतात. ती भुंकत नाहीत. इतर प्राण्यात नर, तर या कुत्र्यांमध्ये मादी ही टोळीची राणी असते. तीच तेवढी नवी पिले जन्माला घालू शकते इतर माद्या नवी पिल्ले जन्माला घालत नाहीत. त्या नवीन जन्मलेल्या पिल्लांना वाढवायला मदत करतात. राणी म्हातारी झाली किंवा मेली की दुसरी मादी राणी होते. रानकुत्री भुंकत नाहीत. एकमेकांशी संपर्क करण्यासाठी शीळ घालात.  अशी अनेक प्राण्यांबद्दलची निरीक्षणे त्यांनी इथे नोंदवली आहेत. रानकुत्र्यांच्या पोटातील परजीवी आणि चितळांच्या पोटातील परजीवी यांचा परस्परांशी काही संबंध आहे का, याचा अभ्यास करण्यासाठी लेखक तिथे गेला होता. हा संबंध असायचं कारण म्हणजे चितळ हे रानकुत्र्यांचं भक्ष. तसाच हातींचाही अभ्यास त्यांना करायचा होता.

जंगल भ्रमंतीत अनेक थरारक प्रसंगांचे अनुभव त्यांनी घेतले. अगदी जीवघेणे प्रसंगही आले. ते वाचताना त्याचा थरार वाचकांनाही जाणवतो. मग प्रत्यक्ष अनुभवलेल्यांची त्यावेळी कशी स्थिती झाली असेल? हे सारं वर्णन इतक्या चांगल्या शब्दात झालय की आपण वाचत नसून व्हिडिओ बघतोय असं वाटतं. खरं तर या पुस्तकावर उत्तम माहितीपट होऊ शकेल.

एकदा आईनकट्टीला असताना ते व केता, त्यांचा मागकाढया , दुपारी एका ओढ्याकाठी जेवायला बसले होते. पाठीमागे गच्च जाळी. ओढ्याच्या पलीकडे झुडुपांमध्ये जोरात खसखस सुरू झाली. चित्कार, आरोळ्या यांनी जमीन हादरू लागली. हत्तींचा एक कळप जवळ जवळ पळतच त्यांच्या दिशेने येत होता. ओढा उथळ असल्याने हत्तींना सहज ओलांडता येणार होता. पाठीमागच्या जाळीमुळे त्यांना पळून जाणंही शक्य नव्हतं. पण सुदैवाने हत्ती ओढा ओलांडून, त्याला समांतर चालत राहिले. ते त्यांच्या दिशेने आले असते तर…  

एकदा रानकुत्र्यांच्या गुहेच्या शोधात ते मोयार गॉर्जपाशी आले. खाली खोल दरी. तिथे उतरायला वाट नव्हती. शेवटी त्यांच्यापासून ४-५ फुटांवर असलेल्या झाडावरून त्यांनी खाली उतरायचं ठरवलं. झाडावर त्यांनी उडी मारली. तो अंदाज बरोबर ठरला. नाही तर त्यांचा कपाळमोक्षच झाला असता. इथे रानकुत्र्यांची गुहा शोधताना त्यांना अजगर दिसला. मगरी दिसल्या. अस्वल, वाघ, पाणमांजरे यांच्या गुहा दिसल्या. हे सगळं वाचता वाचताही आपल्याला धडकी भरते.

कारगुडीला एकदा कुत्र्याच्या टोळीचं निरीक्षण करत कृष्णमेघ आणि अरुण बसले होते. थोड्या वेळाने कुत्री अस्वस्थ झाल्यासारखी वाटू लागली. त्यांनी आवाज केला. त्या आवाजात धोक्याची सूचना होती. जीवाचा आकांत होता. ती कुत्री बघत होती, त्यामागे एक उंचवट्याचा उतार होता. त्यापलीकडे ओढा. ओढ्याभोवती दाट झाडी होती. तिथून गोलसर चेहर्‍याचा पिवळ्या रंगाचा, अंगावर काले पट्टे असलेला वाघ बाहेर आला आणि चालत त्यांच्याच दिशेने पुढे आला. उंचवट्यावर आल्यावर तो क्षणभर थांबला. वाटेतल्या कुत्र्याच्या अंगावर तो धावला. पण कृष्णमेघ लिहितात, ‘आम्हाला बघून तो बुजला असावा. कुत्र्याचा पाठलाग सोडून तो वळला आणि एक मोठी डरकाळी फोडून तो उंचवट्यामागे गायब झाला. एकदा हत्तींणीने त्यांचा पाठलाग केला आणि त्यांना पळता भुई थोडी झाली. असे अनेक थरारक प्रसंग यात लेखकाने दिले आहेत.

विरप्पन प्रकरणात त्यांनी, आदिवासींच्या काही समस्यांबद्दल, त्यांच्या स्थिती-गतीबद्दल लिहिले आहे.

पुस्तकात जागोजागी, जंगल, हत्ती, गवे, वाघ, कुत्री, पक्षी इ.ची छायाचित्रे वर्णनाला अधीक मूर्त स्वरूप देतात. ऋतुचक्र हे यातलं शेवटचं प्रकरण. उन्हाळा, पावसाळा, हिवाळा या तीनही ऋतूतील जंगलाच्या बदलत्या रंगरूपाचं वर्णन यात केलं आहे. यात पक्षी, कीटक, कीडे-मकोडे यांच्या जीवनाबद्दल आणि त्यांच्या जीवनसंघर्षाबद्दल लिहिलय. जंगल त्यांच्या देहाच्या कणाकणात मुरलय. सरत्या वर्षाबरोबर, म्हणजे, जुलै ९५ मधे त्यांची शोधायात्रा तात्पुरती थांबली. पण संधी मिळताच ती पुन्हा सुरू होईल, यात संदेह नाही.  

ज्यांना रानं-वनं- जंगल, प्राणी-पक्षी, झाडं – झुडुपं, नद्या-टेकड्या याविषयी कुतुहल असेल, त्यांनी ‘एका रानवेड्याच्या शोधायात्रे’त जरूर सामील व्हावं आणि आनंद मिळवावा.

©  उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170 ईमेल  – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #178 ☆ कोशिश, सत्य व विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोशिश, सत्य व विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 17८ ☆

☆ कोशिश, सत्य व विश्वास 

जब आप अपना दिन प्रारंभ करते हैं, तो यह तीन शब्द जेब में रखिए। कोशिश बेहतर भविष्य के लिए,  सच अपने काम के साथ और विश्वास भगवान में रखिए; सफलता आपके कदमों तले होगी। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ बच्चन जी की यह पंक्तियां अत्यंत सार्थक हैं। जब तक आप नौका को जल में नहीं उतारेंगे, सागर से पार कैसे उतरेंगे?  साहस, उत्साह व एकाग्रता से निरंतर अभ्यास करने से एक मूर्ख भी बुद्धिमान हो सकता है। इसलिए परिश्रम कीजिए, बीच राह थक कर मत बैठिए; आपका भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल होगा। इसके साथ ही आवश्यकता है कि आप अपने काम को ईमानदारी से कीजिए; सत्य की राह पर चलते रहिए और राह में आने वाली बाधाओं का डटकर सामना कीजिए… क्योंकि बाधाएं वीरों का रास्ता कभी नहीं रोक सकतीं। जिनमें साहस व उत्साह है, उन्हें प्रलोभन भी पथ-विचलित नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, बहुत से लोग आपको आकर्षित कर भटकाने का प्रयास करेंगे, परंतु आप को रुकना नहीं है, चलते रहना है, क्योंकि चलना ही ज़िंदगी है।  ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम/ यह रास्ता कट जाएगा मितरा/ यह बादल छंट जाएगा मितरा।’ समय सदैव एक सा नहीं रहता; निरंतर गतिशील रहता है, चलता रहता है। जैसे रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के बाद पूनम व पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन निश्चित है; उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख का आना भी अवश्यंभावी है। विपत्ति का समय सदा नहीं रहता। समय परिवर्तनशील है, निरंतर अबाध गति से बहता रहता है। सो! अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ नश्वर है। इसलिए मानव को सांसारिक माया-मोह के बंधनों में उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि माया के कारण यह संसार हमें सत्य भासता है। वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझना कारग़र नहीं है, क्योंकि यह अवरोधक मानव को अपनी मंज़िल तक पहुंचने नहीं देते।

विश्वास मानव की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है। यदि आप खुद पर भरोसा व प्रभु में आस्था रखेंगे, तो सफलता आपके कदम चूमेगी। सो! प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए, क्योंकि जब तक उसकी करुणा-कृपा बनी रहती है, मानव निरंतर उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है। कबीरदास जी के शब्दों में ‘बाल न बांका हो सके, चाहे जग बैरी होय’ अर्थात् कोई उसे लेशमात्र हानि भी नहीं पहुंचा सकता। इसलिए प्रभु में आस्था रखते हुए निष्काम कर्म करते रहिए, आपको मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। भरोसा व आशीर्वाद भले ही दिखाई नहीं देते, परंतु असंभव को संभव बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि यदि आपमें श्रद्धा व अगाध विश्वास है, तो आप धन्ना भक्त की भांति पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर सकते हैं। सो! आस्था व विश्वास रखिए क्योंकि संदेह, संशय व शक़ आपको विचलित करते हैं, भटकाते हैं। इसलिए मानव को अहं व वहम दोनों से बचने की सीख दी गयी है, क्योंकि यह अहं की पोषक हैं और मानव-मात्र के लिए घातक हैं।

संपन्नता मन की अच्छी होती है, धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहं को जन्म देती है और मन की संपन्नता संस्कार को। धन, संपत्ति, सत्ता और शरीर सदा साथ नहीं देते, परंतु समझदारी व सच्चे संबंध सदा साथ देते हैं। सो! इनसे प्रभावित हो सच्चे संबंधों पर कभी शंका मत कीजिए। समय के साथ यह सब बदलते रहते हैं, क्योंकि वे सब किसी की मिल्कियत नहीं और न ही सदा साथ रहने वाले हैं। मानव शरीर क्षणभंगुर है और दिन-प्रतिदिन इसका क्षय होता रहता है। परंतु यदि मानव समझदारी से काम लेता है, तो संबंधों पर आंच नहीं आती। सच्चे मित्र सदैव आपके साथ रहते हैं। इसलिए संबंधों को सदैव धरोहर-सम सहेज-संजो कर रखिए।

संसार में आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है, शेष सब मिथ्या है। है इसलिए हर पल प्रभु का नाम- स्मरण कीजिए; एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाने दीजिए। इंसान खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे इस जहान से लौट जाना है। हां! केवल नाम-स्मरण की दौलत ही उसके साथ जाती है। इसलिए मालिक से यही अरदास की जाती है कि ‘शुभ कर्मण से कबहुं ना टरौं’ अर्थात् मैं सदैव सत्कर्म करता रहूं। सो! धन-संग्रह मत कीजिए, क्योंकि यह मानव में अहंनिष्ठता का भाव पोषित करता है और मन की संपन्नता उसे सु-संस्कारों से पोषित करती है। यह मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचा देते हैं। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है, ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए। दूसरों से परिवर्तन की आशा करने से बेहतर है, खुद में बदलाव लाना। ‘दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत करो; आत्म-सम्मान बनाए रखो और चले आओ’–स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति हमें मूल्यों से समझौता न करने की सीख देती है, क्योंकि उस स्थिति में आपको आत्म-सम्मान दांव पर नहीं लगाना पड़ता। अच्छा स्वभाव, अच्छी समझ, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सदा साथ देते हैं। इसलिए मानव के लिए सत्मार्ग पर चलना व  स्नेह, प्रेम, करुणा, त्याग, सहनशीलता, सहानुभूति आदि गुणों को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है। यह मानव के सच्चे साथी हैं, जो कभी धोखा नहीं देते।

संसार में कुछ लोग बिना रिश्ते के रिश्ते निभाते हैं, शायद वे ही सच्चे दोस्त कहलाते हैं और वे कभी धोखा नहीं देते। सो! दूसरों की खुशी में खुश रहने का हुनर सीखें। जो यह हुनर सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। सो! अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है, उसे समझने की कला यदि इंसान सीख लेता है, तो रिश्ते कभी टूटते नहीं। कलाम जी के शब्दों में ‘एक सच्चा दोस्त वह होता है, जो तब तक आपके पास चलकर आए, जब सारी दुनिया आप को अकेला छोड़ कर चली जाए।’ सब आप के भीतर है। प्रतीक्षा मत करें, कोई तुम्हारे जीवन को रोशन करने नहीं आयेगा। आग जलाने के लिए माचिस की तीलियां तुम्हारे पास हैं। आत्मविश्वास रखो, कोशिश करो और अपनी कश्ती को लहरों के सहारे छोड़ दीजिए, क्योंकि सागर से पार उतरने के लिए नौका को जल में उतारना ज़रूरी है, अन्यथा कबीरदास जी की तरह ‘मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ उस स्थिति में आप किनारे पर बैठे रहेंगे। जीवन के हर क्षेत्र में मानव को आपदाओं का सामना करने के लिए जूझना पड़ता है। बिना प्रयास के सफलता आपसे कोसों दूर रहेगी। संसार में सबसे बहुमूल्य धन बुद्धिमत्ता और सबसे मज़बूत औज़ार धैर्य है और सबसे अच्छी सुरक्षा, विश्वास व सबसे अच्छी दवा हंसी है और यह सब ही मुफ्त में मिलती हैं। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है तथा व्यवहार से सिद्ध होती है। सुखी रहने के तीन उपाय हैं, शुक्राना, मुस्कुराना और किसी का दिल न दु:खाना। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि सम्मान व सब्र ऐसे दो तोहफ़े हैं, यदि देने लग जाएं, तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। ‘अहसासों की नमी ज़रूरी है हर रिश्ते में/  रेत यदि सूखी हो, तो हाथ से फिसल जाती है।’ इसलिए संवेदनशील बने रहिए और सुखी बने रहने के लिए अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को सीमित कर लीजिए…जीवन स्वतः सुचारु रुप से चलता रहेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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