हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ आचरण की शुद्धता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “आचरण की शुद्धता।)  

? अभी अभी ⇒ आचरण की शुद्धता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आचरण की शुद्धता और चरित्र की पवित्रता ऐसे मानवीय मूल्य हैं, जिनकी अपेक्षा हम हर इंसान में करते हैं। हम स्वयं इस कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं, शायद हमारे अलावा यह और कोई नहीं जानता।

हमारी बोलचाल, चाल ढाल, रहन सहन और हावभाव के अलावा बुद्धि के प्रयोग का भी इन मूल्यों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। हमें अच्छे लोग आकर्षित करते हैं और बुरे लोग हमारी प्राथमिकता में नहीं आते। यानी हमारी अपेक्षा, पसंद और प्राथमिकता तो सर्वश्रेष्ठ की रहती है, लेकिन हमारा अपने खुद की स्थिति के बारे में हमारा आकलन हमारे अलावा कौन कर सकता है। ।

अपनी थाली में अधिक घी डालने से आपको कौन रोक सकता है। अगर आप ही परीक्षार्थी और आप ही परीक्षक हों, तो अंधा रेवड़ी आखिर किसको बांटेगा। एक सुनार सोने की शुद्धता को तो कसौटी पर परख सकता है, लेकिन उसमें खुद में कितनी खोट है, यह उसे कौन बताएगा।

शायद इसीलिए हमारी नैतिक मान्यताओं के मानदंड व्यवहारिक धरातल पर सही नहीं उतर पाते। हम व्यवहार में अच्छा दिखने की कोशिश तो जरूर करते हैं, लेकिन हमारे मन में खोट होता है। हमें दूसरों के दोष तो बहुत जल्दी नजर आ जाएंगे, लेकिन खुद के नहीं आते। झूठी तारीफ और प्रशंसा के धरातल पर जिस महल का निर्माण किया जाता है, उसकी बुनियाद बड़ी कमजोर नज़र आती है। ।

हम नैतिकता और आदर्श के महल तो खड़े कर लेते हैं, लेकिन उनमें वह गरिमा और दिव्यता नहीं होती, जो इस धरती को स्वर्ग बना दे। स्वार्थ, अहंकार और लोभ के मटेरियल से बना महल भले ही हमें भव्य नज़र आए, लेकिन अंदर से यह खोखला ही होता है।

चरित्र और आदर्श के जितने नालंदा, गुरुकुल और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय आज हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और अध्यात्म आज अपनी पराकाष्ठा पर है। इतने मठ, मंदिर, आश्रम, जगतगुरु, महामंडलेश्वर, समाज सुधारक और सोने में सुहागा, मोटिवेशनल स्पीकर्स। कितनी पारमार्थिक संस्थाएं, कितने एन जी ओ, रोटरी और लायंस और सबके पास पुण्य और परमार्थ का लाइसेंस। ।

और बेचारा आम आदमी वहीं का वहीं। उसके आदर्श आज भी राम, कृष्ण, बजरंग बली और भोलेनाथ हैं। उसका दुख शायद रुद्राक्ष से मिट जाए या किसी सिद्ध पुरुष की पर्ची से। महल और झोपड़ी, आदर्श और यथार्थ तो यही दर्शाते हैं कि हमारी कथनी और करनी में बहुत अंतर है।

आज कबीर हमारे लिए प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वह हमसे सवाल करता है, हमें खरी खोटी सुनाता है, हमें अपने अंदर झांकने के लिए मजबूर कर देता है। चादर में पांव अब नहीं समाते। हमें चादर बड़ी करनी ही पड़ती है। बड़ा मकान, बड़ी गाड़ी, आवश्यकता बढ़ी !

काजल की कोठरी में दाग तो लगेगा ही, कब तक मैली चादर का रोना रोते रहेंगे। ।

लोग खुद तो सुधरने को तैयार नहीं और हमें निंदक नियरे राखने की सलाह दे रहे हैं। हम ऐसे परामर्शदाताओं की घोर निंदा करते हैं। हम रजिस्टर्ड आय.एस.आई. मार्का दूध से धुले इंसान हैं, खोट कहीं आप में ही है।

आप सुधरे, जग सुधरा..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कृष्णस्पर्श भाग-2 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श भाग-2 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

अब बापू के मित्र भी उसे छोड़ गए थे। बापू के पास कुछ भी बचा नहीं था। खेत चिड़िया चुग गई थी। बाद में बापू बीमार हो गए। साँस लेना भी दुष्कर हो गया। जितना हो सके, माई पत्नी का कर्तव्य निभाती रही। बापू की सेवा करती रही, किन्तु पति-पत्नी में प्यार का रिश्ता कभी बना ही नहीं था। अपने जीवन का अर्थ तथा साफल्य माई ने कीर्तन में ही खोजा। उनका सूनापन कीर्तन से ही दूर होता रहा।

ऐसे में एक दिन बापू का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास या नरकवास पता नहीं, किन्तु बापू चल बसे। माई अब एकदम नि:संग हो गई। ऐसे नालायक, गैर जिम्मेदार पति से कोई संतान नहीं हुई, इस बात की उन्हें खुशी ही थी। ससुराल की किसी भी बात की निशानी न रहे, एसलिए वाई का घर-बार बेचकर वह हमेशा के लिए नासिक चली गई।

सुश्री मानसी काणे

माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। उनका नाम हो गया। कीर्ति बढ़ गई। हर रोज कहीं ना कहीं कीर्तन के लिए आमंत्रण आता था, या आने-जाने में दिन गुजरता था। आज देशमुख जी के मंदिर में उनका कीर्तन है। निरूपण के लिए उन्होंने संत चोखोबा का अभंग चुना था।

उस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा॥

(ऊस टेढ़ा-मेढ़ा होता है। मगर उस का रस टेढ़ा-मेढ़ा नहीं होता, ऐसे में तुम ऊपरी दिखावे पर क्यों मोहित हो रहे हो?)

नदी डोंगी परि जल नाही डोंगे।

(नदी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है, पर जल टेढ़ा नहीं होता।)

देखते देखते पूरा सभामंडप कुसुम के सुरों के साथ तदाकार हो गया। सुरीली, साफ, खुली खड़ी आवाज, फिर भी इतनी मिठास, मानो कोई गंधर्वकन्या गा रही हो। श्रोताओं को लगा, यह गाना पार्थिव नहीं, स्वर्गीय है। ये अलौकिक स्वर जिस कंठ से झर रहे हैं, वह मनुष्य नहीं, मनुष्य देहधारी कोई शापित गंधर्वकन्या है।

कुसुम गंधर्वकन्या नहीं थी, किन्तु शापित जरूर थी।

कुसुम माई की मौसेरी ननद की बेटी थी। वह पाँच छ: साल की थी, तब उसकी माँ दूसरे बच्चे को जन्म देनेवाली थी। प्रसूति के समय माँ अपने जने हुए नवशिशु को साथ लेते हुए चल बसी। कुछ सूझ-बूझ आने के पहले ही घर की जिम्मेदारी कुसुम के नाजुक कंधों पर आ पड़ी। कली हँसी नहीं, खिली नहीं। खिलने से पहले ही मुरझा गई। वह दस साल की हुई नहीं, कि एक दिन पीलिया से, उसके पिता की मौत हुई। उसके बाद तो, उसके होठ ही सिल गए।

साल-डेढ़ साल उसके ताऊ ने उसकी परवरिश की। अपने तेज और होशियार चचेरे भाई-बहनों के सामने, सातवी कक्षा में अपनी शिक्षा समाप्त करनेवाली यह लड़की एकदम पगली सी दिखती थी। काली-कलूटी और कुरूप तो वह थी ही। उसे बार-बार अपने भाई-बहनों से तथा उनके स्नेही-सहेलियों से ताने सुनने पड़ते। ये लोग उसे चिढ़ाते, परेशान करते, उपहास करते हुए, स्वयं का मनोरंजन करते। लगातार ऐसा होने के कारण वह आत्मविश्वास ही खो बैठी। इन दिनों, वह पहले, कुसुम से कुस्मी और बाद में कुब्जा बन गई।

कोई उससे बात करने लगे, तो वह गड़बड़ा जाती। फिर उससे गलतियाँ हो जाती। हाथ से कोई ना कोई चीज़ गिर जाती। टूटती। फूटती। ‘पागल’ संबोधन के साथ कई ताने सुनने पड़ते। एक दिन ताऊ जी ने उसे उसका सामान बाँधने को कहा और उसे माई के घर पहुँचा दिया।

माई परेशान हो गई। उनकी नि:संग ज़िंदगी में, यह एक अनचाही चीज़ यकायक आकर उनसे चिपक गई। वह भी कुरूप, पागल, देखते ही मन में घृणा पैदा करने वाली। उसकी जिम्मेदारी उठाने वाला और कोई दिखाई नहीं दे रहा था। कुसूम जैसी काली-कलूटी, विरूप लड़की की शादी होना भी मुश्किल था। माई को लगा, यह लड़की पेड़ पर चिपके परजीवी पौधे की तरह, मुझसे चिपककर मेरे जीवन का आनंद रस अंत तक चसूती रहेगी। पर अन्य कोई चारा तो था नहीं। उसे घर के बाहर तो नहीं निकाला जा सकता था। दूर की ही सही, वह उनकी भानजी तो थी। मानवता के नाते उसे घर रकना माई ने जरुरी समझा। माई सुसंस्कृत थी। कीर्तन-प्रवचन में लोगों को उपदेश करती थी। अब उपदेश के अनुसार उन्हें बरतना था।

कुसुम अंतिम चरण तक पहुँची।

चोखा डोंगा परि भाव नाही डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा।

(चोखा टेढ़ा-मेढ़ा है, पर उसके मन का भाव वैसा नहीं। अत: ऊपरी दिखावे से क्यों मोहित होते हो…?)

कुसुम को लगा, अभंग में तल्लीन लोगों से कहे,

कुसुम कुरूप है, किन्तु उस का अंतर, उसमें समाये हुए गुण कुरूप नहीं हैं।

माई जी ने दोनों हाथ फैलाकर कुसुम को रुकने का इशारा किया। सभागृह में बैठे लोगों को सुध आ गई। कुसुम सोचने लगी, अभंग गाते समय उससे कोई भूल तो नहीं हुई? वह डर गई। गाते समय उसके चेहरे पर आई आबा अब लुप्त सी हो गई। बदन हमेशा की तरह निर्बुद्ध सा दिखने लगा।

माई जी ने अभंग का सीधा अर्थ बता दिया। फिर व्यावहारिक उदाहरण देकर, हर पंक्ति, हर शब्द के मर्म की व्याख्या की।

‘देखिये, नव वर्ष के पहले दिन, गुढ़ी-पाड़वा के दिन हम कडुनिंब के पत्ते खाते हैं। कड़वे होते है, पर उन्हें खाने से सेहत अच्छी रहती है। आरोग्य अच्छा रहता है। आसमान में चमकनेवाली बिजली… उस की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती है, किन्तु उसकी दीप्ति से आँखे चौंध जाती है। नदी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है, लेकिन उसका पानी प्यासे की प्यास बुझाता है।

एक तृषार्त राजा की कहानी, अपने रसीले अंदाज में उन्होंने सुनाई और अपने मूल विषय की ओर आकर कहा, ‘‘चोखा डोंगा है, मतलब टेढ़ा-मेढ़ा है, काला कलूटा है, पर उसकी अंतरात्मा सच्चे भक्तिभाव से परिपूर्ण है। सभी संतों का ऐसा ही है। ईश्वर के चरणों पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। अपना शरीर रहे, या न रहे, उन्हें उसकी कतई परवाह नहीं है। उनकी निष्ठा अटूट है।”

माई जी ने पीछे देखकर कुसुम को इशारा किया, और कुसुम गाने लगी,

देह जावो, अथवा राहो। पांडुरंगी दृढ़ भावो।

यह शरीर रहे, या न रहे। पांडुरंग के प्रति मेरी भक्तिभावना दृढ़ रहे। सच्ची रहे। फिर एक बार पूरा सभामंडप कुसुम के अलौकिक सुरों के साथ डोलने लगा। माई को थोड़ी फुरसत मिल गई। माई की बढ़ती उमर आज-कल ऐसे विश्राम की,? फुरसत की, माँग कर रही थी। इस विश्राम के बाद उनकी आगे चलने वाली कथा में जान आ जाती। जोश आ जाता। विगत तीन साल से कुसुम माई के पीछे खड़ी रहकर उनका गाने का साथ दे रही है। माई जी निरूपण करती है और बीच में आनेवाले श्लोक, अभंग, ओवी, साकी, दिण्डी, गीत सब कुछ कुसुम गाती है। उसकी मधुर आवाज और सुरीले गाने से माई जी का कीर्तन एक अनोखी उँचाई को छू जाता है। माई जी का कीर्तन है सोने का गहना, और कुसुम का स्वर है, जैसे उस में जड़ा हुआ झगमगाता हीरा।

कुसुम का गाना अचानक ही माई के सामने आया था। जब से वह घर आई थी, मुँह बंद किए ही रहती थी। जरूरी होने पर सिर्फ हाँ या ना में जवाब देती। देखनेवालों को लगता, गूँगी होगी। माई के घर आने के बाद, वह घर के कामकाज में माई का हाथ बँटाने लगी। उसे तो बचपन से ही काम करने की आदत थी। धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगीं। माई गृहस्थी के काम-काज में उस पर अधिकतर निर्भर रहने लगी। उसके घर आने से माई को पढ़ने के लिए, नये-नये आख्यान रचने के लिए, ज्यादा फुरसत मिलने लगी। बाहर से आते ही उन्हें चाय या शरबत अनायास मिलने लगा। खाना पकाना, बाज़ार में जाकर आवश्यक चीज़े खरीदना, घर साफ-सुथरा रखना, यह काम कुसुम बड़ी कुशलता से करती, पर कोई पराया सामने आए, तो न जाने क्या हो जाता, वह गड़बड़ा जाती। उसके चेहरे पर उभरा पागलपन का भाव देखकर माई को चिढ़ आने लगती और वह चिल्लाती, ‘‘ऐ, पागल, ध्यान कहाँ है तेरा?” तो कुसुम हड़बड़ी में और कोई न कोई गलती कर बैठती।

माई को कभी-कभी अपने आप पर ही गुस्सा आ जाता। उसमें उस बेचारी की क्या गलती है? रूप थोड़े ही किसी के हाथ होता है! मैं खुद प्रवचन में कहती फिरती हूँ, ‘काय भुललासी वरलिया रंगा?’ (ऊपरी रंग पर क्यों मोहित होते हो?) यह सब क्या सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए ही है? फिर कुसुम के बारे में उनके मन में ममता उभर आती। पर उसे व्यक्त कैसे करे, उनके समझ में नहीं आता। पिछले छ: सात सालों से कुसुम के बारे में करुणा और घृणा दोनों के बीच उनका मन आंदोलित होता रहता था। अट्ठारह साल की हो गई थी कुसुम। चुप्पी साधे हुए घर का सारा काम निपटाती थी, इस तरह, कि देखने वालों को लगता लड़की गूँगी है।

उस दिन पालघर से कीर्तन समाप्त करने के बाद माई घर लौटी, तो घर से अत्यंत सुरीली आवाज में उन्हे गाना सुनाई दिया।

धाव पाव सावळे विठाई का मनी धरली अढ़ी?

(हे साँवले भगवान, विठूमैया, तुम क्यों रुष्ट हो? अब मुझ पर कृपा करो।)

माई के मन में आया, ‘‘इतनी सुरीली आवाज में कौन गा रहा है। कीर्तन का आमंत्रण देनेवालों में से तो कोई नहीं है? माई अंदर गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। कुसुम अकेली ही थी। अपना काम करते-करते गा रही थी। एकदम मुक्त… आवाज में इतनी आर्तता, इतना तादात्म्य मानो, सचमुच उस साँवले विठ्ठल के साथ बात कर रही हो? माई के आने की जरा भी सुध नहीं लगी उसे। वह गा रही थी और माई सुन रही थी।

अचानक उसका ध्यान माई की ओर गया और वह घबरा गई। गाना एकदम से रुका। ताज़ा पानी भरने के लिए हाथ में पकड़ा फूलदान जमीन पर गिरा और टूट गया। उसके बदन पर पागलपन की छटा छा गई। डरते-डरते वह काँच के टुकड़े समेटने लगी। ‘‘कुसुम फूलदान टूट गया, तो ऐसी कौन सी बड़ी आफत आ गई? कोई बात नहीं। इसमें इतनी डरने वाली क्या बात है?” माई ने कहा।

आज पहली बार माई ने उसे पागल, न कहकर उसके नाम से संबोधित किया था। जिस मुँह से अंगार बरसने की अपेक्षा थी, उसमें से शीतल बौछार करने लगी, तो उसका बदन और भी बावला सा दिखने लगा।

यह क्षण माई के लिए दिव्य अनुभूति का क्षण था। उन्हें लगा, ईश्वर ने कुसुम से रूप देते समय कंजूसी ज़रूर की है, किन्तु यह कमी, उस को दिव्य सुरों का वरदान देकर पूरी की है। अपना सारा निर्माण कौशल्य भगवान् ने उसका गला बनाते समय, उसमें दिव्य सुरों के बीज बोते समय इस्तेमाल किया है। उस दिन उसका गाना सुनकर माई ने मन ही मन निश्चय किया कि वह उसे कीर्तन में गाए जाने वाले अभंग सिखाएगी और कीर्तन में उसका साथ लेगी। उन्होंने यह बात कुसुम को बताई और कहा, ‘‘कल से रियाज शुरू करेंगे।” कीर्तन में गाए जाने वाले पद, ओवी अभंग, साकी दिण्डी, दोहे सब की तैयारी माई अपने घर में ही करती थी। हार्मोनियम, तबला बजाने वाले साजिंदे रियाज के लिए कभी-कभी माई के घर आते। हमेशा घर में होता हुआ गाने का रियाज सुनते-सुनते कुसुम को सभी गाने कंठस्थ थे। माई जब कुसुम को कीर्तन में गाए जाने वाले गाने सिखाने लगी, तो उन्हें महसूस हुआ, कि कुसुम को ये सब सिखाने की ज़रूरत ही नहीं है। उसे सारे गाने, उसके तर्ज़सहित मालूम है। उसमें कमी है, तो बस सिर्फ आत्मविश्वास की। यों तो अच्छी गाती, किन्तु बजाने वाले साथी आए, तो हडबड़ा जाती। सब कुछ भूल जाती। उसने डरते-सहते एक दिन माई से कहा,

‘‘ये मुझसे नहीं होगा। लोगों के सामने मैं नही गा पाऊंगी।”

अब थोड़ा सख्ती से पेश आना ज़रूरी था। माई ने धमकाया,

‘‘तुझे ये सब आएगा। आना ही चाहिये, अगर तुझे इस घर में रहना है, तो गाना सीखना होगा। मेरा साथ करना होगा।”

बेचारी क्या करती? उसे माई के सिवा चारा था ही कहाँ? माई ने धमकाया। साम-दाम-दण्ड नीति अपनाई और कुसुम का रियाज शुरू हुआ। अब कुसुम गाने लगी, माई से भी सुंदर, भावपूर्ण, सुरीला गाना। गाते समय वह हमेशा की पगली-बावली कुसुम नहीं रहती थी। कोई अलग ही लगती। गंधर्वलोक से उतरी हुई एखादी गंधर्वकन्या। पिछले तीन सालों से माई के पीछे खड़ी होकर वह कीर्तन में माई के साथ गाती आ रही थी।

माई जी ने भजन करने के लिए कहा, ‘‘राधाकृष्ण गोपालकृष्ण” – ‘‘राधाकृष्ण-गोपालकृष्ण”

पूरा सभामंडप गोपालकृष्ण की जयघोष से भर गया। तबला और हार्मोनियम के साथ तालियाँ और शब्द एकाकार हो गए। भजन की गति बढ़ गई।

क्रमशः…

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 206 ☆ आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 206 ☆  

? आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी ?

पिन कोड ४६२०१६ मतलब, शिवाजी नगर भोपाल ! इसलिये विशेष रूप से भोपाल वासियों को तो छत्रपति शिवाजी के बारे में संज्ञान होना ही चाहिये. देश के अनेक नगरों में शिवाजी नगर हैं, कई चौराहों, पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर छत्रपति शिवाजी की मूर्तियां स्थापित हैं. वर्तमान में गुजरात में बनी दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा सरदार वल्लभ भाई पटेल की ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ है, जो 182 मीटर ऊंची है. मुम्बई में अरब सागर में शिवाजी स्मारक प्रस्तावित है, जहां इससे भी उंची १९० मीटर की सिवाजी महाराज की प्रतिमा प्रस्तावित है. अनेक योजनायें उनके नाम पर हैं, जबकि शिवाजी महाराज को गुजरे हुये लगभग ३४० वर्ष से अधिक हो चुके हैं. उनका देहान्त ३ अप्रैल १६८० को रायगढ़ में हुआ था. उनका जन्म १९ फरवरी १६३० में हुआ था. उनका शासनकाल ६ जून १६७४ से उनके देहान्त तक की स्वल्प अवधि ही रही, पर इतने छोटे समय में भी उन्होंने जो नीतियां अपनाईं उनने उन्हें छत्रपति बना कर भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय कर दिया. वे एक कुशल शासक, सैन्य रणनीतिकार, वीर योद्धा, मुगलों का सामना करने वाले, सभी धर्मों का सम्मान करने वाले और देश में हिन्दू राज्य के पुनर्संस्थापक थे. यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी का नाम प्रभावी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा शिव सेना शिवाजी को प्रमुखता से आईकान के रूप में प्रस्तुत करती हैं.

जब मुगल शासको का हिन्दू दमन पराकाष्ठा पर था तब हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए ही उन्होंने 1674 ई. हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी. उनकी माता जीजाबाई के दिये संस्कार ने बचपन से ही उनके मन में हिन्दुत्व की प्रबल भावना भर दी थी. ऐसे में उनका उद्देश्य हिन्दुओं में आत्म सुरक्षा का भाव जागृत करना, सभी को भारत के सदाशयी मिलनसार हिन्दू चरित्र से परिचित कराना था. मुगल आक्रमणकारियों के शोषण, अन्याय, माताओं, बहनों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार, प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और हिंदू धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों को नष्ट करने के परिणामस्वरूप पूरा देश पीड़ित था. जनमानस मानसिक रूप से बेहद टूटा हुआ था. ऐसे समय में भक्तिकालीन साहित्य ने जहां भारत की सांस्कृतिक तथा धार्मिक चेतना में प्राण फूंका वहीं राजनैतिक प्रभुत्व की इच्छा शक्ति जगाने, बिखरते हुये हिन्दू राजाओ को एक जुट कर उनमें नई ताकत का संचार करने का कार्य श्रीमंत छत्रपति शिवाजी ने किया. उन्होंने ‘हिंदवी स्वराज्य अभियान’ नामक आंदोलन शुरू किया. शिवाजी की चतुराई पूर्ण रणनीतियों के अनेक किस्से लोक प्रिय और प्रेरक हैं, ऐसे हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी को कोटिशः नमन.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #135 – “बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 135 ☆

 ☆ “बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’   

गोलू गधे को आज फिर मीठा खाने की इच्छा हुई। उसने गबरू गधे को ढूँढा। वह अपने घर पर नहीं था। कुछ दिन पहले उसी ने गोलू को मीठी चीज ला कर दी थी। वह उसे बहुत अच्छी लगी थी। मगर वह क्या चीज थी? उसका नाम क्या था? उसे मालूम नहीं था।

आज ज्यादा मिर्ची वाला खाना खाने से उसका मुँह जल रहा था। उसे अपने मुँह की जलन मिटानी थी। इसलिए वह पास के खेत पर गया। यहीं से गबरू गधा वह खाने की चीज लाया था। वहाँ जाकर उसने इधर-उधर देखा। खेत पर कोई नहीं था। तभी उसे मंकी बन्दर ने आवाज दी, “अरे गोलू भाई किसे ढूंढ रहे हो? इस पेड़ के ऊपर देखो।”
“ज्यादा मिर्ची वाला खाना खाने से मेरा मुँह जल रहा है। मुझे कुछ मीठा खाना है।” गोलू ने कहा तो मंकी बन्दर कुछ फेंकते हुए बोला, “लो पकड़ो। इसे चूस कर खाओ। यह मीठा है।”

“मगर, इसका नाम क्या है?” गोलू ने पूछा तो मंकी बोला, “इसे आम कहते हैं।” 

“जी अच्छा, ” कह कर गोलू ने आम चूसा। मगर, वह खट्टा-मीठा था। उसे आम अच्छा नहीं लगा।

“मुझे तो मीठी चीज़ खानी थी,” यह कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया।

कुछ दूर जाने पर उसे हीरू हिरण मिला।

“मुझे कुछ मीठी चीज खाने को मिलेगी ? मेरा मुंह जल रहा है,” गोलू ने उसका अभिवादन करने के बाद कहा तो हीरू ने उसे एक हरी चीज पकड़ा दी, “इसे खाओ। यह मीठा लगेगा।”

गोलू ने वह चीज खाई, “यह तो तुरतुरीऔर मीठी है। मगर मुझे तो केवल मीठा खाना था,” यह कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया। उसके दिमाग में गबरू की लाई हुई मीठी चीज़ खाने की इच्छा थी। मगर उसे उस चीज़ का नाम याद नहीं आ रहा था।

वह आगे बढ़ा। उसे चीकू खरगोश मिला। वह लाल-लाल चीज़ छील-छील कर उसके दाने निकाल कर खा रहा था। गोलू ने उससे अपनी मीठा खाने की इच्छा जाहिर की। चीकू ने वह लाल-लाल चीज उसे पकड़ा दी, “इसे खाओ। यह फल मीठा है। इसे अनार कहते हैं।”

गोलू ने अनार खाया, “यह उस जैसा मीठा नहीं है,” कहते हुए वह आगे बढ़ गया। 

रास्ते में उसे बौबौ बकरी मिली। उसने बौबौ को भी अपनी इच्छा बताई, “आज मेरा मुँह जल रहा है। मुझे मीठा खाने की इच्छा हो रही है।”

बौबौ ने एक पेड़ से पीली- पोली दो लम्बी चीजें दीं, “इस फल को खा लो। यह मीठा है।”

गोलू ने वह फल खाया, “अरे वाह! इसका स्वाद बहुत बढ़िया है। मगर उस चीज जैसा नहीं है। मुझे वही मीठी चीज खानी है,” कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया।

अप्पू हाथी अपने खेत की रखवाली कर रहा था। उसके पास जाकर गोलू ने अपनी इच्छा जाहिर की, “अप्पू भाई!  आज मुझे मीठा खाने की इच्छा हो रही है।”

यह सुनकर अप्पू बोला, “तब तो तुम बहुत सही जगह आए हो।”

यह सुनकर गोलू खुश हो गया, “यानी मीठा खाने की मेरी इच्छा पूरी हो सकती है।”

“हाँ हाँ क्यों नहीं,” अप्पू ने कहा, “मीठी शक्कर जिस चीज से बनती है, वह चीज मेरे खेत में उगी है।” कहते हुए अप्पू ने एक गन्ना तोड़ कर गोलू को दे दिया, “इसे खाओ।”
गोलू ने कभी गन्ना नहीं चूसा था। उसने झट से गन्ने पर दांत गड़ा दिए। गन्ना मजबूत था। उसके दांत हिल गए।

“अरे भाई अप्पू। तुमने मुझे यह क्या दे दिया। मैंने तुम से मीठा खाने के लिए माँगा था। तुमने मुझे बाँस पकड़ा दिया। कभी बाँस भी मीठा होता है।” यह कहते हुए गोलू ने बुरा-सा मुँह बनाया।

यह देखकर अप्पू हँसा, “अरे भाई गोलू! नाराज क्यों होते हो। इसे ऐसे खाते (चूसते) हैं, ” कहते हुए अप्पू ने पहले गन्ना छीला, फिर उसका थोड़ा-सा टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डाला। उसे अच्छे से चबाकर चूसा। कचरे को मुँह से निकाल कर फेंक दिया।

“इसे इस तरह चूसा जाता है। तभी इसके अन्दर का रस मुँह में जाता है।” 

यह सुनकर गोलू बोला, “मगर, मुझे तो लम्बी-लम्बी, लाल-लाल और पीछे से मोटी और आगे से पतली यानी मूली जैसी लाल व मीठी चीज़ खानी है। वह मुझे बहुत अच्छी लगती है।”

यह सुन कर अप्पू हँसा, “अरे भाई गोलू। यूँ क्यों नहीं कहते हो कि तुम्हें गाजर खाना है,” यह कहते हुए अप्पू ने अपने खेत में लगे दो चार पौधे जमीन से उखाड़कर उनको पानी से धो कर गोलू को दे दिए।

“यह लो। यह मीठी गाजर खाओ।”

बस! फिर क्या था? गोलू खुश हो गया। उसे उसकी पसन्द की मीठी चीज खाने को मिल गई थी। उसने जी भर कर मीठी गाजर खाई। उसका नाम याद किया और वापस लौट गया।

वह रास्ते भर गाजर, गाजर, गाजर, गाजर रटता जा रहा था। ताकि वह गाजर का नाम याद रख सके। इस तरह उसकी गाजर खाने की इच्छा पूरी हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 155 ☆ बाल कविता – मीन हैं प्यारी-प्यारी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 155 ☆

☆ बाल कविता – मीन हैं प्यारी-प्यारी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

रंग- बिरंगी मीन घूमतीं

     बड़े जार के अंदर।

ढूँढ़ रही हैं नदियाँ कल- कल

     गहरा नील समंदर।।

 

बार – बार टकरातीं तट से

     दूर कहीं मंजिल है।

चारों ओर लगे है ऐसा

     खड़ी हर तरफ हिल है।।

 

सूरज की किरणों सी चमचम

       मीन हैं प्यारी- प्यारी।

अपनी माँ से बिछुड़ घूमतीं

      नन्ही राजकुमारी।।

 

कैद नहीं मीनों को भाए

     आजादी सबको प्यारी।

शौक पालते अपने सुख को

       गजब है दुनियादारी।।

 © डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत 🌹

(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

☆ अखिल भारतीय साहित्य परिषद् भोपाल इकाई का अमृत शक्ति सम्मान, व्याख्यान, पुस्तक समीक्षा एवं लोक भाषा रचना पाठ सम्पन्न ☆

अखिल भारतीय साहित्य परिषद् भोपाल इकाई का अमृत शक्ति सम्मान व्याख्यान पुस्तक समीक्षा एवं लोक भाषा रचना पाठ कार्यक्रम नव संवत्सर 2080 की मांगलिक बेला में विश्व संवाद केंद्र शिवाजी नगर में संपन्न हुआ। उक्त कार्यक्रम में मुख्य अतिथि सुश्री प्रियंका शक्ति ठाकुर सुविख्यात निर्देशिका अध्यक्ष डॉ नुसरत मेहदी निदेशक उर्दू अकादमी एवं अध्यक्ष अखिल भारतीय भोपाल इकाई विशिष्ट अतिथि राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ बिनय राजाराम एवं सारस्वत अतिथि के रूप में डॉ साधना बलवटे उपस्थित रहीं।

मातृशक्ति श्रीमती सर्वप्रथम मनोरमा पंत और डॉ राजिया हामिद जी को अमृत शक्ति सम्मान से व नेपथ्य की शक्ति सम्मान से डॉ विनीता चौबे को सम्मानित किया गया। डॉ साधना बलवटे को विश्व हिन्दी सम्मेलन फिजी में भारत का प्रतिनिधित्व करने पर  भोपाल इकाई ने सम्मानित किया।

भोपाल इकाई के इन सदस्यों को भी सम्मानित किया गया। सुनीता यादव ,ममता वाजपेई, मांडवी सिंह ,राकेश सिंह तथा पुरु शर्मा। अध्यक्षता करते हुए डॉक्टर नुसरत मेहदी ने कहा “जब – जब भाषा, संस्कारों व परम्पराओं की नब्ज कमजोर होती प्रतीत होती है अखिल भारतीय साहित्य परिषद् इनकी नब्ज को टटोलकर उसे पुनर्जीवित करने का कार्य करती है।”

मुख्य अतिथि प्रियंका शक्ति ठाकुर ने अपने विचार रखें। उन्होंने कहा कि “अखिल भारतीय साहित्य परिषद भोपाल इकाई अमृत सम्मान की परम्परा के निर्वहन का उत्कृष्ट कार्य कर रही है। साथ ही लोक भाषा पर आधारित कार्यक्रम का आयोजन भी सराहनीय है।”

विशिष्ट अतिथि राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ राजाराम ने कहा कि “हमारे भारत में ही छह उप ऋतुएँ आती हैं। शरीर को नवरात्रि में अनुकूलन करने के लिए तैयार किया जाता है। चौदह दिन का कोरोंटाईन भारतीय परम्परा में बहुत पहले से ही किया जाता है।”

सारस्वत अतिथि राष्ट्रीय डॉ साधना बलवटे ने अपने उद्बोधन में कहा कि “प्रकृति की पूजा हमारे संस्कारों में होनी चाहिए। जीवन के सारे तत्व प्रकृति के देवता सूर्य चंद्रमा, वायु, अग्नि आदि लोक में हमेशा पूजे जाते हैं।” परितप्त लंकेश्वरी पुस्तक की समीक्षा करते हुए उन्होंने मंदोदरी के मनोभावों को बहुत बारीकी से विश्लेषण किया।”

कार्यक्रम में लोक भाषाओं की रचनाओं का पाठ हुआ जिसमें बघेली में गीतकार संदीप शर्मा ने बुंदेली में अशोक गौतम घायल ने, श्रीमती श्यामा गुप्ता ने, मालवी लोकभाषा में श्रीमती शालिनी व्यास ने , निमाड़ी लोकभाषा में अशोक दुबे ‘अशोक’ ने रचना पढ़ी।

कार्यक्रम में संचालन नीता सक्सेना स्वागत वक्तव्य पुरूषोत्तम तिवारी आभार ममता बाजपेई ने व्यक्त किया।

☆ प्रवासी भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध केंद्र, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय का परिसंंवाद आयोजित ☆

विषय था हिंदी भाषा शिक्षण की चुनौतियाँ और समाधान : वैश्विक संदर्भ“.  कार्यक्रम की अध्यक्षता की श्री संतोष चौबे, कुलाधिपति, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय ने। विशिष्ट अतिथि थे डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, भाषा प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ, (पूर्व निदेशक, रेल मंत्रालय) तथा विशिष्ट वक्ता थे एल्मार जोसेफ रेनर, एसोसिएट प्रोफेसर, कोपनहेगन विश्वविद्यालय, डेनमार्क। कार्यक्रम संयोजन डॉ. मौसमी परिहार द्वारा किया गया।  

☆ श्री संतोष चौबे के उपन्यास “सपनों की दुनिया में ब्लैक होल” का लोकार्पण ☆

कुशाभाऊ ठाकरे इंटरनेशनल कन्वैक्शन सेंटर, भोपाल में श्री संतोष चौबे जी के उपन्यास “सपनों की दुनिया में ब्लैक होल” का लोकार्पण हुआ जिसकी अध्यक्षता श्री विनोद तिवारी जी ने की स्वागत वक्तव्य मुकेश वर्मा जी ने किया। उपन्यास के अंश का पाठ श्री संतोष चौबे जी ने किया ।आमंत्रित वक्ता थे हरि भटनागर, प्रकाश कांत, राकेश बिहारी, पंकज सुबीर आशुतोष, प्रज्ञा रोहिणी। संचालन श्री अरुण शुक्ला ने और आभार प्रदर्शन श्री बलराम कुमार ने किया। संयोजन किया सुश्री ज्योति रघुवंशी ने।

☆ भोपाल के फ़ौजी इतिहास पर एक अनोखी किताब “निज़ाम ए भोपाल” लोकार्पित ☆

किताब में लिखी फ़ौजी दास्तान भोपाल रियासत से जुड़ी है। जी हाँ, अवसरवादी दोस्त मुहम्मद ख़ान द्वारा स्थापित भोपाल रियासत की अपनी एक फ़ौज थी। उस फ़ौज का 1710 से 1949 तक का एक इतिहास है। उसी फ़ौजी इतिहास को आज़ाद भारत के एक फ़ौजी लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवा निवृत्त) मिलन नायडू ने अंग्रेज़ी में कलमबद्ध किया है- और उसका हिंदी अनुवाद किया है भोपाल में फ़ौजी से साहित्यकार बने कर्नल डॉक्टर गिरिजेश सक्सेना ने।

हिंदी भवन के मंत्री-संचालक कैलाश चंद पंत की अध्यक्षता, लेफ़्टिनेंट जनरल विपुल शिंघल , एस एम के मुख्य आतिथ्य और वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार महेश श्रीवास्तव के विशिष्ठ आतिथ्य में आयोजित गरिमामय कार्यक्रम में “निज़ाम ए भोपाल” पुस्तक का लोकार्पण हुआ। वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार घनश्याम सक्सेना सारस्वत अतिथि और क़लीम अख़्तर एवं प्रोफ़ेसर सीमा रायजादा विशेष अतिथि के रूप में मंचासीन रहे। कार्यक्रम का कुशल संचालन वरिष्ठ साहित्यकार गोकुल सोनी ने किया। लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवा निवृत्त) मिलन नायडू ने स्वागत उद्बोधन में पुस्तक लेखन और अनुवाद से जुड़ी मुश्किलों को रेखांकित किया।

पुस्तक लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए कैलाश चंद पंत ने लेखक द्वारा भोपाल रेजिमेंट के विकास की कहानी इस पुस्तक में पिरोई गई है। पुस्तक का हिन्दी अनुवाद सरल, सुबोध और पठनीय बन पड़ा है।

मुख्य अतिथि महेश श्रीवास्तव ने बताया कि यह शोधपूर्ण किताब प्रामाणिक रूप से ऐतिहासिक है। भोपाल रियासत का अधिकांश समय बेगमों द्वारा शासित रहा। बेगमों ने पौने दो सौ सालों में रियासत को बुद्धिमत्ता पूर्ण शासन से संचालित करके लोक कल्याण कार्यों को अंजाम दिया था। उन्होंने शिक्षा और चिकित्सा का कार्य प्राथमिकता से करवाया। उन्होंने भोपाल की फ़ौज को आधुनिक बनाया था।

लेफ़्टिनेंट जनरल विपुल शिंघल ने कहा कि सैनिक और साहित्य का बहुत पुराना संबंध है। भगवतगीता का दार्शनिक साहित्य युद्ध भूमि में ही भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश स्वरूप अस्तित्व में आई थी।

वरिष्ठ कलमकार घनश्याम सक्सेना ने पुस्तक की समीक्षा करते हुए कहा कि जब मैंने पुस्तक को पढ़ने के लिए उठाया और दो-तीन पृष्ठ पढ़े तो पुस्तक इतनी रोचक लगी कि इसे समाप्त करके ही दम लिया।

भोपाल के फ़ौजी इतिहास के अधिकृत विद्वान क़लीम अख़्तर ने बताया कि इस पुस्तक के लेखन में मिलन नायडू जी ने सटीक प्रमाणों को समावेश किया गया है। इसलिए यह पुस्तक एक प्रामाणिक दस्तावेज है।

लोकार्पण कार्यक्रम में फ़ौजी मुहकमे के आला अफ़सरों के अलावा हिंदी और उर्दू के गणमान्य साहित्यकार डॉक्टर गौरी शंकर शर्मा गौरीश, राम वल्लभ आचार्य, सुरेश पटवा, राजकुमार शर्मा, विनोद जैन, मुज़फ़्फ़र सिद्दीक़ी, कांता रॉय, घनश्याम मैथिल, चरण जीत सिंह की उल्लेखनीय उपस्थिति रही। लेफ़्टिनेंट जनरल मिलन नायडू ने स्वागत उद्बोधन दिया और आभार प्रदर्शन करते हुए कर्नल डॉक्टर गिरिजेश सक्सेना ने उन मुश्किल हालातों का ज़िक्र किया जब उन्होंने कोरोना ग्रस्त अवस्था में अस्पताल के बिस्तर पर  इस किताब के अंतिम दो अध्याय अनुवादित किए थे।

☆ मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा मीर तकी मीर की 300 वीं जयंती का आयोजन सम्पन्न ☆

“मीर के शेरों में जिंदगी के हर रंग मौजूद हैं ” मीर एक ऐसे शायर हैं जिनकी महानता को हर शायर और हर दौर में सराहा गया है यह बात कनाडा से आए उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान डॉ तकी आबिदी ने कही। राज्य संग्रहालय सभागार में मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा मीर तकी मीर की 300 वीं जयंती समारोह पर “मुस्तनद है मेरा फरमाया हुआ” कार्यक्रम संपन्न हुआ । उर्दू अकादमी की निदेशक डॉ नुसरत मेहंदी ने कहा कि संगोष्ठी में नए रचनाकार विशेष रुप से रिसर्चर्स जान सकेंगे कि उर्दू शायरी में मीर को खुदा ए सुखन क्यों कहा जाता है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजीज इरफान ने कहा कि मेल की कल्पनाशीलता जमीनी है और उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी को शायरी की जुबां बनाया है। 

दुष्यंत संग्रहालय के संस्थापक स्व राजूरकर राज की स्मृति में “स्मृतियों में राज” कार्यक्रम संपन्न ☆

दुष्यंत संग्रहालय में संग्रहालय के संस्थापक स्व राजूरकर राज की स्मृति में “स्मृतियों में राज” नामक कार्यक्रम संपन्न हुआ। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे आदरणीय संतोष चौबे जी, कुलपति रविंद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय, विशेष अतिथि के रूप में श्री शशांक, पूर्व उपनिदेशक दूरदर्शन भोपाल तथा अध्यक्ष श्री मनोज श्रीवास्तव आईएएस सेवानिवृत्त मध्यप्रदेश शासन थे। इस कार्यक्रम में संग्रहालय से जुड़े सभी सदस्यों ने उन्हें याद किया ।इस कार्यक्रम में निदेशक साहित्य अकादमी श्री विकास दवे जी  ने भी राजूरकर जी कोई याद किया। इस अवसर पर राजूरकर राज के ऊपर एक स्मारिका का भी विमोचन किया गया।

☆ हिंदी लेखिका संघ की मासिक व्यंग्य गोष्ठी आयोजित ☆

हिंदी लेखिका संघ की मासिक व्यंग्य गोष्ठी आयोजित हुई ।आयोजन की मुख्य अतिथि वरिष्ठ व्यंगकार एवं राष्ट्रीय मंत्री अखिल भारतीय साहित्य परिषद, डॉक्टर साधना बलवटे ने अपने उद्बोधन में कहा कि व्यंग का उद्गम करुणा से होता है जब हास्य व्यंग एक संतुलित मात्रा में मिलकर आते हैं तब एक सार्थक संतुलित व्यंग रचना तैयार होती है lव्यंग का उद्देश्य समाज की विसंगतियों को दूर करना हैl सारस्वती अतिथि सुमन ओबेरॉय ने अपने उद्बोधन में कहा कि व्यंग की क्षमता बहुत अधिक होती है। यह नैतिक और सामाजिक मूल्यों का प्रहरी होता है । लेखिका संघ के अध्यक्ष डॉ कुमकुम गुप्ता ने अतिथियों का स्वागत किया और पुष्प की अभिलाषा कविता का पाठ किया इस अवसर पर लेखिकाओं ने हास्य व्यंग रचनाओं का पाठ किया गोष्ठी का संचालन डॉक्टर विनीता राहुरिकर ने किया । तथा आभार सुनीता मिश्रा ने व्यक्त किया। 

☆ अ. भा .कला मँदिर भोपाल द्वारा होली पर काव्य गोष्टी संपन्न ☆

आकाशवाणी भोपाल के नमस्कार एम पी कार्यक्रम के अंतर्गत मध्यप्रदेश लेखिका संघ की अध्यक्ष कुमकुम गुप्ता का साक्षात्कार वृंदा प्रधान द्वारा लिया गया जिसमें उनसे नारी प्रकृति और बेटी संबंधित चर्चा की गई ।

☆ आर्य समाज मंदिर, भोपाल का 38 माह वार्षिक उत्सव संपन्न ☆

भोपाल में आर्य समाज मंदिर का 38 माह वार्षिक उत्सव मनाया गया। सवेरे प्रभात रैली के साथ ही विभिन्न प्रकार के आयोजन 3 दिन तक चले जिसमें मुख्य रुप से धर्म संसद, युवा संसद, मातृशक्ति सम्मेलन थे।

धर्म और ईश्वर दोनों मानव जीवन से जुड़े हुए बहुत महत्वपूर्ण विषय हैं ।दोनों ही समस्त विश्व के मानवों को संगठित सुखी और अभय कर सकते हैं किंतु उस समय जब इनमें विरोधाभास ना हो । इसी भावना से मनुष्य जीवन में धर्म की आवश्यकता क्यों उसका महत्व और स्वरूप क्या है विषय पर विभिन्न विचारधाराओं के विद्वानों ने अपने विचार रखे।

युवा सम्मेलन में विषय था “एक भारत श्रेष्ठ भारत के निर्माण में युवाओं की भूमिका चुनौतियां और समाधान” यह आयोजन स्कूल और कॉलेज के छात्र छात्राओं के लिए था जिसमें उन्होंने इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए, नारी सशक्तिकरण के लिए क्या उचित कदम उठाए जाएं इस विषय पर श्रीमती प्रज्ञा, रिचा श्रीवास्तव अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक महिला सुरक्षा पुलिस मुख्यालय पर ने विशिष्ट अतिथि के रूप में सारगर्भित भाषण दिया, सुश्री मनोरमा पंत के साथ विभिन्न क्षेत्रों की विदुषी महिलाओं ने भी महिला सशक्तिकरण पर अपने विचार प्रकट किए।

☆ अ. भा .कला मँदिर भोपाल द्वारा होली पर काव्य गोष्टी संपन्न ☆

स्वामी विवेकानंद लाइब्रेरी में हिंदी चिल्ड्रंस बुक्स समर कलेक्शन का आरंभ हुआ यहां पर पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियां, चार्ली एंड द चॉकलेट फैक्ट्री ,भारत की अद्भुत लोक कथाएं ,अमर चित्र कथा की किताबें, वेद पुराण उपनिषद की किताबें पढ़ने को मिलेंगी।

अखिल भारतीय कलामन्दिर संस्था, भोपाल द्वारा नव संवत्सर पर नवरंग काव्य ग़ोष्ठी का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता – डॉ. गौरीशंकर शर्मा ‘गौरीश’ राष्ट्रीय अध्यक्ष अ.भा. कलामन्दिर संस्था भोपाल ने की ।मुख्य अतिथि थे श्री राजेन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं विशिष्ट अतिथि थे डॉ जवाहर सिंह कर्णावत

मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच द्वारा भोपाल की वरिष्ठ साहित्यकार उषा सक्सेना को मातो श्री सम्मान

मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच द्वारा भोपाल की वरिष्ठ साहित्यकार उषा सक्सेना को मातो श्री सम्मान और चाणक्य सम्मान स्मृति चिन्ह के साथ प्राप्त हुआ ।

साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ धुकं… ☆ मेहबूब जमादार ☆

मेहबूब जमादार 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ धुकं… ☆ 🖋 मेहबूब जमादार ☆

अशी कशी तू धुक्यात

क्षणी जातेस विरुन

थोडं बघ वाटेकडे

सूर्य जाईल घेऊन

 

धुक्यांच्या वलयात

तू जातेस लपून

पहाटेच्या थंड दवा

चिंब अंग भिजून

 

धुक  दाट पडलेलं

त्यांन सूर्या धरलेलं

आसुशी  भेट धरा

तरी थोडं थांबलेलं

 

पडू दे विरहाच धुकं

पण तू विरू नकोस

मनवेड्या धुक्यात

आंधळी होऊ नकोस

 

वनी धुकं मनी धुकं

कसं  दिसे डोळ्यांना

आत शिरू दे सूर्याला

फूल येऊ दे कळ्यांना

 

वृक्ष वल्लरींना कसं

गेलं धुकं लपेटून

घरंगळती कांही मोती

ओल्या  पानांपानांतून

 

हळुहळू उजाडेल

चरी धुक्याचा वावर

थबकली सारी किरणं

पांघरली सूर्यानं चादर

 

© मेहबूब जमादार

मु -कासमवाडी पो .पे ठ  जि .सांगली

मो .9970900243

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #156 ☆ संत कबीर… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 156 ☆ संत कबीर… ☆ श्री सुजित कदम 

सत्य कर्म सिद्धांताचे

संत कबीर द्योतक

पुरोगामी संत कवी

दोहा अभंग जनक…! १

 

ज्येष्ठ पौर्णिमेचा दिन

कबिरांचा जन्म दिन

देव आहे बंधु सखा

जपू नाते रात्रंदिन….! २

 

कर्म सिद्धांताचे बीज

संत कबीरांची वाणी

धर्म भाषा प्रांतापार

निर्मियली बोलगाणी….! ३

 

सांगे कबिराचे दोहे

सोडा साथ अज्ञानाची

भाषा संस्कृती अभ्यास

शिकवण विज्ञानाची…! ४

 

बोली भाषा शिकोनीया

साधलासे सुसंवाद

अनुभवी विचारांना

व्यक्त केले निर्विवाद…! ५

 

एकमत एकजूट

दूर केला भेदभाव

सामाजिक भेदभाव

शोषणाचे नाही नाव…! ६

 

समाजाचे अवगुण

परखड सांगितले

जसा प्रांत तशी भाषा

तत्त्वज्ञान वर्णियले…! ७

 

राजस्थानी नी पंजाबी

खडी बोली ब्रजभाषा

कधी अवधी परबी

प्रेममयी ज्ञान दिशा…! ८

 

ग्रंथ बीजक प्रसिद्ध

कबीरांची शब्दावली

जीवनाचे तत्त्वज्ञान

प्रेममय ग्रंथावली…! ९

 

नाथ संप्रदाय आणि

सुफी गीत परंपरा

सत्य अहिंसा पुजा

प्रेम देई नयवरा…! १०

 

संत कबीर प्रवास

चारीधाम भारतात

काशीमधे कार्यरत

दोहा समाज मनात…! ११

 

आहे प्रयत्नात मश

मनोमनी रूजविले

कर्ममेळ रामभक्ती

जगा निर्भय ठेविले…! १२

 

हिंदू मुस्लिम ऐक्याचा

केला नित्य पुरस्कार

साखी सबद रमैनी

सधुक्कडी आविष्कार…! १३

 

बाबा साहेबांनी केले

संत कबीरांना गुरू

कबीरांचे उपदेश

वाट कल्याणाची सुरू…! १४

 

काशीतले विणकर

वस्त्र विणले रेशमी

संत कबीर महात्मा

ज्ञान संचय बेगमी…! १५

 

सुख दुःख केला शेला

हाती चरखा घेऊन

जरतारी रामनाम

दिलें काळीज विणून…! १६

 

संत्यमार्ग चालण्याची

दिली जनास प्रेरणा

प्रेम वाटा जनलोकी

दिली नवी संकल्पना…! १७

 

मगहर तीर्थक्षेत्री

झाला जीवनाचा अंत

साधा भोळा विणकर

अलौकिक कवी संत…! १८

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वेळ… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

? विविधा ?

☆ वेळ… ? ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

“शब्दकळा लावती लळा”

आजचा शब्द आहे = वेळ = 

वेळ एक फ्री हिट

कोणतीही स्पर्धा आपण त्या स्पर्धेसाठी वेळ काढून बघत असतो आणि काही फ्रॅक्शन ऑफ सेकंदाच्या फरकाने कोणीतरी विजेता होतो. तेव्हा आपल्यालाही वेळेचे महत्व पटते .पण ती जिंकणार्‍याची जिंकण्याची वेळ असते तीच वेळ हरणार्‍याची हरण्याची वेळ असते. मग लक्षात येते की वेळ एकच असली तरी प्रत्येकाची वेळ वेगळी वेगळी असते.

मग वेळ लावून केलेल्या कामाला वेळ लागला म्हणायचं का वेळेत केले म्हणायचंअसं वेळेच्या बाबतीत वेळोवेळी काहीतरी वेगळेच मनात आले आणि मन वेळे बाबत विचार करू लागले.

वेळ शब्दाचा अर्थ २४ तासातील काही भाग असे म्हणता येईल. पण किती गंमत आहे पहा या वेळेची••••

वेळेच्या आधी क्रियापद लागून त्याची वेळ म्हटले तर अर्थ एक पण तेच क्रियापद नंतर लावले तर अर्थ वेगळा••••

बघा••• भरतीची वेळ,ओहोटीची वेळ,झोपेची वेळ, खायची वेळ, घ्यायची वेळ, द्यायची वेळ पण हेच उलटे केले तर?

वेळ भरली, वेळ ओसरली, वेळ झोपली, वेळ दिली/दिला ,वेळ घेतली/घेतला••••

मग विचार करताना असे लक्षात आले वेळेचा अभ्यास करण्यासाठी वेळ दिला तर डॉक्टरेट तर मिळेलच पण तरी सगळ्या प्रकारचा सगळ्या विषयाचा वेळ , यासाठी वेळच पुरणार नाही.

आपल्या मराठी भाषेत अनेक गमतीशीर शब्द आहेत त्यापैकी सगळ्यात मजेदार शब्द मला वेळ वाटतो.

कारण तुम्ही जसे फिराल तसा वेळ फिरत राहील तुम्हाला फिरवत ठेवील आणि तुम्ही त्याला शेकडो क्रियापदे जोडू शकता असा सर्वव्यापी सर्वसमावेशक असा शब्द आहे वेळ.

या वेळेला कितीही क्रियापदे लावून वाक्प्रचार केले ना तरी सगळे वाक्प्रचार वापरले असे म्हणताच येणार नाही. थोडे शब्द फिरवून त्या वेळेची छटा बदलता येऊ शकते.

वेळ••••• असते,नसते,पळते,पाळते,देते,घेते,येत,जाते,बघते,ओळखते,बदलते,घालवते,टळते,गाजवते,रेंगाळते,झोपते,साधते,बाधते काहीही करू शकते.

वेळ••••

पहाटेची, झुंजुमुंजूची, सकाळची, मध्यान्हाची, दुपारची, संध्याकाळची, रात्रीची, एकांताची, कातरवेळ, झांझरवेळ, साजणवेळा, धुंदवेळ, वाईट वेळ, चांगली वेळ, शिळोप्याची वेळ, अंतिमवेळ किंवा•••

उठायची, बसायची, नाष्त्याची, चहाची, विधी करण्याची, जेवायची, फिरायची, विश्रांतीची ऑफिसला जायची, झोपायची अशी कोणतीही असू शकते.

वेळापूरच्या वृद्धाश्रमात रहायची वेळ आलेले  वेळापुरे आजी आजोबा बोलत होते, आपले लग्न वेळेवर झाले म्हणून लेकरं बाळं वेळेत झाली. तेव्हा वेळेची तमा न बाळगता काम केले. वेळात वेळ काढून मजा केली वेळेवर उठण्यापासून ते वेळेवर झोपण्यापर्यंत वेळेचे वेळापत्रक आखून वेळेचे नियोजन केले. म्हणूनच वेळेचे गणित बसून आपण सगळीकडे वेळेवर हजर होत होतो. वेळेची चालढकल केलेली तुम्हाला चालायचीच नाही.वेळेचे पक्के होतात. तुमच्या हुषारीने कामाने तुम्ही कितीतरी वेळा ऑफिसची वेळ गाजवली होती.

आजोबा पण म्हटले हो ना तू पण  मी रागवायची वेळ येऊ नये म्हणून जीवाचा आटापिटा करून वेळेचे भान ठेवत माझी एकही वेळ चुकवू द्यायची नाहीस. वेळ महत्वाची असते आणि वेळेचे महत्व तुला होते त्यामुळे सगळे सहज सोपे वाटत होते.

वेळ वाया न घालवता तू सतत कामात वेळ घालवायचीस.खूप कष्टातही हसून तू म्हणायचीस अहो वेळ सांगून येत नसते. ही पण वेळ निघून जाईलच आणि वेळ बदलून चांगली वेळ येईल. या तुझ्या सकारात्मकतेने संसाराचा वेळ कापरासारखा उडून गेला.

खरचं वेळीच मुलांना शिक्षण दिले वेळेची कदर करीत मुलांनाही वेळेचा वेळेवर तुकडा पाडायचे भान दिले. वेळेचा अपव्यय न करता वेळेचा सदुपयोग करायला शिकवले. त्यामुळे आपल्या सुखी संसाराची वेळ जमून आली होती.

तसेच वेळ आल्यावर बघू अशा बेफिकिर वृत्तीत न रहाता वेळेची मर्यादा पाळून वेळकाढूपणा न करता वेळ कोणासाठी थांबत नसते हे जाणून वेळेनुसार दिलेली वेळ पाळत वेळेच्या बंधनात राहून  एकमेकांना सांभाळलं म्हणून या साथीत ५० वर्षाचा वेळ कसा गेला हे कळलच नाही.

वेळ वखत पाहून वागलं म्हणजे वेळ गेल्यावर हळहळावे नाही लागत. पण बाई वैर्‍यावर पण अशी वेळ येऊ नये. पण वेळ सांगून येत नाही.

अगदी खरे आहे हो. आता बघा ना एवढा वेळ मेहेरबान असताना आपल्यावर अशी वृद्धाश्रमात रहायची वेळ येईल असे वाटले तरी होते का?

आपली दोन्ही पोरं मोठ्या कंपनीत मोठ्या हुद्द्यावर आहेत म्हणून आपण भारावलो होतो. अचानक थोरल्याच्या मनात फॉरेनला जायचं खूळ आलं. नुकतीच तुमची रिटायरमेंट झाली होती. सुदैवाने मुबलक पैसा हाती होता. पण थोरल्याला लगेच फॉरेनला जायचे होते म्हणून त्याने वेळ साधून पैशाची मागणी केली. वेळ न दवडता त्याला मदत करणे वेळेत जमवायला पाहिजे होते. म्हणून वेळोवेळी केलेली गुंतवणूक , मिळालेले पैसे हे सगळे वेळेचा अभाव असल्याने हातची संधी जाउ नये वेळ गेला असे होउ नये म्हणून मी वेळीच घातलेल्या लगामाकडे दुर्लक्ष करून तुम्ही त्याला दिली.

ते बघून धाकट्याला झोंबलं. त्यानेही तोच मार्ग धरला आणि यावेळी थोडी वेळ निराळी आहे कारण वेगळ आहे पण पैशाची नड असल्याने तुम्ही दादाला दिले तर मलाही पाहिजेत म्हणून हट्टच धरला. त्याने वेळ पाहून खेळ मांडलेला मला कळत होतं . मी काही कारणे सांगून वेळ मारून न्यायचा प्रयत्न केला पण त्यावेळी तुम्ही वेळ वखत पाहून नाही वागला. थोरल्याला दिले म्हणून राहिलेले धाकल्याला देऊन मोकळे झालात.  तुम्ही वेळ बदलेल या विश्वासाने यावेळी आपण मदत केली तर पुढच्यावेळी ते आपली मदत करतील या भ्रमात होता. 

ते किती चुकीचे होते हे उशीरा कळले पण तो पर्यंत वेळ निघून गेली होती. आपले होणारे हाल पाहून एका सद्गृहस्थाने आपल्याला या वृद्धाश्रमात आणले आणि आपल्याला डोक्याला हात लावून बसायची वेळ आली.

आजोबा म्हटले खरं आहे तुझं. वेळेमुळे कशाचे काय होईल काही सांगता येत नाही.  पण अजूनही वेळ गेलेली नाही. आता तर आपल्याकडे वेळच वेळ आहे. अशी वेळ कोणावर येऊ नये म्हणून आपण रिटायर्ड होणार्‍यांना सतर्क करण्याचे काम करू. त्यामुळे आपला वेळही सत्कारणी लागेल शिवाय कालची वेळ आज नसते हे शहाणपण आपणही घेऊन याच वृद्धाश्रमातील गरजूंची आपण मदत करूया. आता तर फक्त आपल्या दोघांसाठीच आपण जगणार असल्याने एकमेकांना भरपूर वेळ देऊ या. वेळ न वखत बसली खोकत अशी गत करून तेच तेच दु:ख उगाळत बसू नको. चल दोघांनी मिळून नवी सुरूवात करू. मागच्या वेळेची अनुभूती नकोच . वेळेचे गुलाम होणेही नको. आपण आपल्या वेळेनुसार वेळेला आपल्यापुढे वाकायला शिकवू. शेवटी वेळच आपला गुरू असल्याने त्याची विद्या त्यालाच देऊ. आणि हो , आता परत उदास सूर लावण्याची वेळ नको म्हणून वेळेची एक गंमत सांगतो.

तुला सांगतो हा वेळ आहे ना एक जादूगार आहे. केव्हा काय कोणत्याक्षणी बदलेल हे सांगता येत नाही.

आता हेच बघ ना पूर्वी क्रिकेट ५- ५ दिवस टेस्ट मॅचेस मधे खेळायचे. तेवढा वेळ बघणार्‍याकडे असायचा. मग नंतर ३ दिवसीय मॅचवर आला कारण लोकांचा वेळ कमी झाला. तो वेळ अजून कमी झाला आणि वन डे मॅच आली. आता २०-२० म्हणजे फक्त काही तासच.

पण मजा तेवढीच उत्सुकता तेवढीच आणि कौतूकही तेवढेच. वेळ कमी आहे म्हणून माणसाने आपली करमणूक नाही कमी केली.

अगं आता आपल्या जीवनातील ५० गेली अन ५ राहिली अशी गत असताना चल आपण वेळेशीच २०- २० खेळू.

आमच्यावेळी ५ दिवसाची होती तरी आमच्यावेळीच २०-२० पण आहे. यावेळी आपण जरा वेगळी मजा घेऊ.  वेळेचे चेंडू वेळेवर फ़टकावू, वेळेवर अडवू, वेळेवर झेलू . वेळेवर विकेट जाणारच आहे हे ध्यानात ठेऊन प्रत्येक वेळी मागच्या वेळपेक्षा वेगळ्या खेळाचे प्रदर्शन करू. वेळेला केळ आणि न्याहारीला सिताफळ खात

कोणत्याही वेळी टपकणारा वेळेचा चेंडू अवेळी विकेट न जाऊ देता चौकार षट्कार यांनी टोलवत राहू. वेळ बदलून क्षेत्ररक्षण करायचे तेव्हा दरवेळी चेंडू न आडवता फलंदाजालाच खेळते ठेऊ. वाटले तर तेथे थोडा वेळखाऊपणा पण करू. आपले मस्त वेळ घालवणे पाहून वेळेला रेंगाळायला लावू. आपल्याकडे थोडा वेळ आहे पण मॅच जिंकायचीच आहे म्हणून वेळेचे भान ठेवत ही वेळ पुन्हा येणार नाही म्हणून एक उनाडवेळ पुन्हा जगू या. वेळेचे भान हरपून आपण वेळेला चकवू या. वाढवेळ खेळात नसतो कधीतरी वेळ संपल्याचे वेळ सांगेलच पण त्यावेळी वेळेलाच नो बॉल म्हणून परत बॉल टाकायला लावू आणि मग त्या वेळेच्या चेंडूला फ्री हिट समजून सीमापार करू आणि नॉट आऊट राहून सामना जिंकू.

खरच वेळ एक फ्री हिट आहे त्याचा लाभ घेऊ.

हे पचवायला जरा वेळ लागेल पण वेळ बदलणे वेळेच्या हातात नाही तर तुमच्या हातात आहे हे पटवून देऊ. चल आपण वेळीच हा पायंडा पाडू.

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ होंगे कामयाब … ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ होंगे कामयाब … ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆ 

सिंहगड एक्स्प्रेसने छत्रपती शिवाजी महाराज टर्मिनस स्टेशनला प्रवास करत होतो. बहुधा रामनवमीची सार्वजनिक सुट्टी असल्याने, आज दादरनंतर गाडीला बऱ्यापैकी कमी गर्दी होती. दादर स्टेशनलाच समोरच्या सीटवर एक चाळीस पंचेचाळीस वर्षांचा माणूस येऊन बसला. त्याने माझ्याकडे बघून एक general स्मितहास्य केलं, मीही प्रत्युत्तर दिलं. 

सर्वसाधारण दिसणारा माणूस, पण थोडासा खंगल्यासारखा दिसणारा. पण त्याच्या चेहऱ्यावर आनंद थुईथुई नाचत होता. प्रचंड खुश दिसत होता तो. अर्थात संपूर्ण अनोळखी माणसाला आपण कसं विचारणार, “का हो, एवढे खुश का आहात ?”

तो, डोळे मिटून, स्वतःशीच गाणं गुणगुणत होता. आणि हळूहळू तो स्वतःच्याच भावविश्वात एवढा रममाण झाला की, त्याच्या नकळत, तो ते गाणे मोठ्याने म्हणू लागला. गाणं होतं – “होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब.”

आजूबाजूचे सगळे आधी आश्चर्याने – कुतूहलाने त्याच्याकडे पाहू लागले. मग कोणीतरी त्याच्या सुरात सूर मिसळला, मग आणखी एकाने, आणखी एकाने. आम्ही सगळे “होंगे कामयाब” म्हणत होतो. अंगावर शहारा येत होता. प्रत्येकालाच सगळ्या ओळी ठाऊक होत्या असं नाही. पण त्याला ते गाणं पूर्ण पाठ होतं. जणू अनेक वर्षे तो हे गाणं म्हणत होता. त्याने ओळ म्हणायला सुरुवात केली, की बाकीचेही त्याला साथ देत होते. वातावरण नुसतं भारावून गेलं होतं. 

गाडीची गती हळू हळू कमी होऊ लागली. स्टेशन येत होतं. गाणं संपलं. त्याने डोळे उघडले. आम्ही सगळे उभे राहून गाणं म्हणत होतो. गाणं संपल्यावर उत्स्फूर्तपणे टाळ्या वाजवत होतो.

तो अवघडला, संकोचला. मग तोही उठून उभा राहिला. रंगमंचावर, कलाकार अथवा जादूगार, प्रयोगानंतर जसा कुर्निसात करतात तसा त्याने सगळ्यांकडे बघत लवून कुर्निसात केला आणि म्हणाला, ” मी आज खूप खूश आहे. आत्ताच टाटा हॉस्पिटलमधून येत आहे. Today is my first cancer free day. आज माझा कॅन्सर पूर्णपणे निघून गेल्याचं, मी कॅन्सरवर मात केल्याचं डॉक्टरांनी मला सांगितलं आहे. आज मी माझ्या मुलाबाळांकडे, बायकोकडे गावाला परत जाणार आहे. Thank you all for joining in.”

गाण्यामागचं कारण समजल्यावर गाण्याची अर्थपूर्णता आणखीनच वाढली, त्यानं हेच गाणं का म्हटलं तेही कळलं. आमच्या टाळ्यांचा जोर वाढला, आणि कॅन्सरवर मात करणारा तो योध्दा ताठ मानेने गाडीतून उतरून निघून गेला. 

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड

मो ८६९८०५३२१५   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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