(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
अपनी धरती, अपने लोग थे। यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था। वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी। ईंट ईंट को, ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी। दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने, सिर उठाये, शान से खड़ा रहे।
उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था। बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी। कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी। यहां बच्चे किलकारियां भरते थे। किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं। वह भी मुस्करा दी। फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी। जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया। परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली- “या अल्लाह रहम कर। साथ खड़ी घर की औरत ने सहम कर पूछा- क्या हुआ ?”
– “कुछ नहीं।”
– “कुछ तो है। आप फरमाइए।”
– “इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है। कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है। अफवाहों का धुआं छाया हुआ है। कभी यह घर मेरा था। एक मुसलमान औरत का। आज तुम्हारा है। कल … कल यह घर किसका होगा? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान। अंधेर साईं का, कहर खुदा का। इस घर में इंसान कब बसेंगे ???”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय लघुकथा – चाबी)
☆ लघुकथा – चाबी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
बरसों बाद घर का मालिक घर लौटा था। घर की इमारत खंडहर में तब्दील हो गई थी। द्वार जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, द्वार पर लटका ज़ंग खाया ताला बूढ़ा हो चला था। इस ताले ने बरसों अपनी बेटी चाबी के लौट आने का इन्तज़ार किया था। उसे वह क्षण कभी नहीं भूला, जब घर का मालिक उसे द्वार पर लटका, चाबी को जेब में डालकर चला गया था। लंबे इन्तज़ार के बाद ताले को लगने लगा था कि उसकी चाबी सामान की भीड़ में कहीं खो गई होगी, जैसे कोई बच्ची मेले में खो जाती है। अवसाद में डूबा ताला चाबी से मिलने की आशा छोड़ चुका था। घर के मालिक ने चाबी को दाएँ हाथ की उँगलियों में थामा।
उत्कंठित चाबी चिल्लाई – मैं आ गई हूँ मेरे प्यारे पिता!
मालिक ने बाएँ हाथ में ताले को थामा कि दाएँ हाथ में थामी चाबी से उसे खोल सके। हाथ लगते ही ताला मालिक के हाथ में आ गिरा।
चाबी बार-बार चिल्ला रही थी – मैं आ गई हूँ मेरे प्यारे पिता!
भला मर चुका ताला अपनी चाबी की बेसब्र आवाज़ को कैसे सुनता?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है
प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s“दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”
In the next part of this series, we present a memoir by Shri Jagat Singh Bisht Ji “Through the Eyes of Gratitude: A Vision Reborn.“)
☆ दस्तावेज़ # 23 – Through the Eyes of Gratitude: A Vision Reborn ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆
A New Dawn of Clarity
It was early morning, the day after my cataract surgery. As I sat on my balcony, the world before me shimmered with an ethereal glow. My newly restored eyesight was not just a medical marvel—it was a gift, a revelation. The neem tree stood before me, more radiant and distinct than I had ever seen. Its nascent green and purple leaves danced joyfully in the soft embrace of the breeze, basking in the golden-red hues of the rising sun. Beyond, the vast blue sky stretched endlessly like a divine canopy, serene and infinite. The birds, perched on delicate branches, filled the air with a symphony of chirps, their melodies weaving magic into the morning. I felt a joy so pure, so unfiltered—it was as if I had been gifted the exuberance of a fifteen-year-old once again.
The Hands That Heal:
As my heart absorbed the beauty around me, it overflowed with gratitude for the man who had made this transformation possible—Dr Mahesh Agrawal. To say he is a skilled ophthalmic surgeon would be an understatement. He is a healer in the truest sense—one who blends precision with compassion, expertise with empathy. The doctor-patient relationship, at its best, is never just a transaction. It is a sacred connection, built on trust, care, and understanding.
A patient arrives at the doorstep of a doctor with not just a physical ailment but also an emotional burden—anxiety, fear, and uncertainty. The true healer alleviates not just the illness but also the worries that accompany it. A doctor can be a messenger of hope, transforming pain into relief, darkness into light, despair into faith. Dr Agrawal embodies this philosophy with effortless grace. His skill is matched only by his humility, his knowledge tempered by his humanity.
The Twilight of Vision, the Dawn of Hope:
Aging brings with it a gradual dimming—of energy, of faculties, of the senses. The knees ache, hearing wanes, and teeth weaken. But when the eyes, the windows to the world, begin to fail, it feels as though the very essence of life dims. To be able to restore sight, even in the later years, is nothing short of a blessing. And for that, we must thank not only the skilled surgeons but also the brilliant minds that have advanced medical science from the era of Extra Capsular Cataract Extraction to today’s modern, painless, precise techniques.
Yet, despite the advancements, my own journey to surgery was not straightforward. An unexpected health complication, undetected for years, delayed the procedure by more than three years. The uncertainty weighed on me, compounded by well-meaning but disheartening advice: “Cataract surgery is not an emergency; you can wait.” But waiting meant enduring a world that was slowly blurring, a reality that was becoming increasingly elusive.
It was during this phase of doubt and desperation that I found solace in Dr Agrawal’s wisdom. He reassured me with words that resonated deeply: “I have always seen you as a happy person. You bring joy to others. I would never want you to take unnecessary risks. Have patience—we will find a way.” His confidence, his belief in a solution, became my anchor. And, by divine grace, a solution did emerge, allowing me to finally move forward with the surgery.
A Master’s Touch:
The procedure itself was nothing short of extraordinary. Dr Agrawal, trained at the prestigious Shankar Netralaya in Chennai and Arvind Eye Hospital in Madurai, performed the surgery with a finesse that can only be described as artistry. The Micro Incision Cataract Surgery—painless, patchless, punctureless, pinhole—was executed with a seamless flow, a rhythm that spoke of years of dedication. Inside the operation theatre, he was calm, precise, and ever mindful of the patient. His reassuring voice guided me through the process, transforming what could have been an anxious experience into one of absolute trust and surrender.
The hospital he has built, Shree Ganesh Netralaya in Indore, is a testament to his commitment. It is no mere medical institution—it radiates warmth and care. His team of optometrists, operation theatre technicians, nurses, and support staff work with a quiet efficiency, their smiles making the journey smoother. Perhaps it is no coincidence that Dr Agrawal trained at ‘Shankar’ Netralaya, named his own hospital ‘Ganesh’ Netralaya, and bears the name ‘Mahesh’—Lord Shankar, Lord Ganesh, and Lord Mahesh, revered in Hindu mythology, known for their wisdom and benevolence. There is a divinity in the air at his hospital, a sense of sacred purpose.
A World Rekindled:
Today, as I step out with my newly restored vision, the world appears reborn. My eyesight is now 6/6, N6—sharper and clearer than I have ever known it to be. I regret not having undergone the surgery sooner, but regret is fleeting. What remains is immense joy, an insatiable curiosity to rediscover life’s wonders. Books have regained their charm, television is more engaging, distant landscapes are more vivid. The world, in its entirety, is brighter, more beautiful, more alive. I feel unshackled, as if I could take flight like a bird, kissing the sky with newfound freedom.
A Heartfelt Salute:
Dr Mahesh Agrawal, with his unparalleled skill, humility, and kindness, has not just restored my vision—he has rekindled my spirit. He has turned what seemed like a closing chapter into a fresh beginning. For this, I shall remain forever grateful. His wisdom, patience, and humaneness have touched me in ways beyond words. To him, I offer my heartfelt thanks. May he continue to bring light into the lives of many more, guiding them from the shadows of uncertainty into the brilliance of clarity and hope.
The world is beautiful again—and I owe it all to him.
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२० ☆ श्री सुरेश पटवा
दोपहर होने को थी। हमारी परीक्षा लेने के लिए दिनकर पूरी चमक से सिर के ऊपर तांडव नृत्य कर रहे थे। पानी की बोतलें खाली होने लगी थीं। लोग दूसरों की बोतलों को चाहत भरी निगाह से देखने लगे थे। तभी भीड़ की चाल सुस्त हुई और रुकावट आ गई। ज़ाहिर था कि मनुष्यों का ट्रैफ़िक जाम हो गया था। यह तो ठीक था कि सीढ़ियों के आसपास घने पेड़ की छाँह थी। कुछ उत्साही युवक इन पेड़ों की शाख पकड़ कर सीढ़ियों से हटकर पत्थरों पर चढ़ बंदरों की तरह चढ़ने-उतरने लगे। हमने उन बंदरों से ट्रैफ़िक जाम का कारण पूछा। उन्होंने बताया चढ़ने और उतरने वाली भीड़ सामने-सामने जम गई है। जब बहुत देर होने लगी, तो हम सीटी बजाते हुए बंदरों की तरह पत्थरों से कूदकर आगे बढ़े। काफ़ी मेहनत मशक्कत के बाद ट्रैफ़िक जाम स्थान पर पहुँच सीटी बजा-बजा कर एक तरफ़ का रास्ता खुलवाया। ट्रैफ़िक चालू हो गया। भलमनसाहत में एक अजनबी ने पानी भी पिलवा दिया। थोड़ी देर में हमारे साथी भी आ मिले।
एक साथी ने पूछा – इंद्र के बारे में कुछ और बताइए। ये पौराणिक कथाओं में हर कहीं प्रकट क्यों हो जाते हैं। महाभारत में अर्जुन के पिता बनकर आ जाते हैं।
हमने कहा – देखो भाई, इंद्र बड़ा रोचक चरित्र है। पौराणिक साहित्य में इन्द्रियों का स्वामी सत्ता लोभी वर्णित है। जैसे हम सभी इन्द्रिय लोभी हैं। इंद्र की सत्ता लोलुपता इससे पता चलती है कि वह अपनी पुत्री जयंती को शुक्राचार्य की तपस्या भंग करने भेजता है। यह जयंती को पसंद नहीं है, परंतु पिता की आज्ञा पालन हेतु वह शुक्राचार्य की सेवा करके दस वर्ष बिताती है। दोनों के संसर्ग से देवयानी का जन्म होता है। जिसका विवाह महाभारत के एक प्रमुख चरित्र ययाति से होता है। जो इंद्र सत्ता के कारण पुत्री तक को दाव पर लगा सकता है, वह नेताओं की तरह कुछ भी कर सकता था। इसी से उसकी सत्ता लोलुपता का पता चलता है। भारतीय दर्शन में ब्रह्म विचार आने के पश्चात विष्णु के अवतार मात्र अवतार ना रहकर ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं। तब कृष्ण इंद्र की सत्ता की चुनौती देकर गिरिराज होकर इंद्र की पूजा स्थगित करवाते हैं। याने इंद्र की सत्ता के ऊपर ब्रह्म की सत्ता स्थापित होती है।
एक अन्य साथी ने पूछा- ‘हनुमान जी को बजरंग क्यों कहा जाता है ?
हमने बताया – हनुमान वानर के मुंह वाले अत्यंत बलशाली पुरुष हैं। जिनका शरीर वज्र के समान है। इंद्र का वज्र अस्त्र बहुत शक्तिशाली है। इंद्र के वज्र अस्त्र के वार से हनुमान के मुँह से सूर्य देव मुक्त तो हुए लेकिन उनकी देह वज्र की होने से उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ था। उनका अंग वज्र का था। वज्र+अंग = वज्रांग अर्थात् वजरंग हुआ। अवधी में ‘व’ शब्द नहीं होता ‘ब’ होता है। इसीलिए तुलसीदास जी ने हनुमान की महिमा और शक्तियों का बखान करने के लिए बजरंग बाण रचा था।
बन उपबन मग गिरि गृह माही, तुम्हरे बल हम डरपत नहीं।
अपने जन को तुरत उबारौ, सुमिरत होय आनंद हमारौ।
यह बजरंग बाण जेहि मारै, ताहि कहौ फिरि कौन उबारै।
पाठ करै बजरंग बाण की, हनुमत रक्षा करै प्रान की।
यह बजरंग बाण जो जापै, तासौं भूत प्रेत सब काँपै।
धूप देय जो जपै हमेशा, ताके तन नहि रहे कलेशा।
ध्यान दीजिए अवधी में वन को बन और उपवन को उपबन लिखा है। इस तरह वजरंग जी बजरंग जी हुए। आदमियों की तरह शब्द भी बहरूपिए होते हैं। अब देखो, बजरंग से एक शब्द गढ़ लिया ‘बजरंगी भाईजान’| इस नाम से फ़िल्म भी बन गई, और खूब चली। बजरंगी भाईजान पासपोर्ट-वीसा के बिना पाकिस्तान तक हो आए। यह फ़िल्म पाकिस्तान में भी खूब देखी गई। आख़िर वो लोग भी हैं तो हिंदुस्तानी ही, अपने सदियों पुराने मन से बजरंग को कैसे निकाल सकते हैं।
इसके बाद हनुमान जन्म कथा चर्चा चल पड़ी। उनको बताया कि यहाँ भी इंद्र की भूमिका है। पुंजिकथला नाम की एक अप्सरा थी जो इंद्र के दरबार में नृत्य किया करती थी। पुंजिकथला जिसे पुंजत्थला भी कहा जाता है, एक बार धरती लोक में आई। महर्षि दुर्वासा एक नदी के किनारे ध्यान मुद्रा में तपस्या कर रहे। पुंजत्थला ने उन पर बार-बार पानी उछाला, जिससे उनकी तपस्या भंग हो गई। तब उन्होंने पुंजत्थला को शाप दे दिया कि तुम इसी समय वानरी हो जाओ। वह उसी समय वानरी बन गई और पेड़ों पर इधर उधर घूमने लगी। देवताओं के बहुत विनती करने के बाद ऋषि ने उन्हें बताया की इनका दूसरा जन्म होगा और यह वानरी ही रहोगी लेकिन अपनी इच्छा के अनुसार अपना रूप बदल सकेगी।
केसरी सिंह नाम के एक राजा वन में एक मृग का शिकार करते ऋषि आश्रम पहुंचे। वह मृग घायल था और वह ऋषि के आश्रम में छुप गया ऋषि ने राजा केसरी से कहा कि तुम मेरे आश्रम से इसी समय अतिशीघ्र चले जाओ नहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा। यह सुनकर केसरी हँसने लगे और बोले ‘मैं किसी शाप को नहीं मानता।’ क्रोध में आकर ऋषि ने उन्हें भी शाप दे दिया और कहा कि ‘तुम बांदर हो जाओ’ उधर पुंजत्थला भी बांदरी थी।
इन दोनों ने भगवान शिव की तपस्या की भगवान शिव ने इन्हें वरदान दिया कि तुम अगले जन्म में वानर के रूप में ही जन्म लोगे। तुम दोनों को एक पुत्र होगा जो बहुत तेजस्वी और बहुत पराक्रमी होगा जिनका नाम युगों युगों तक लिया जाएगा फिर उन दोनों वानरों का शरीर वही पर त्याग कर दोनों ने अलग-अलग रूप में अलग-अलग राज्य में जन्म लिया। जिसमें केसरी वासुकि नाम के एक राजा के यहां जन्म लेकर वह वानरों के राजा बना और पुंजत्थला पुरू देश के राजा पुंजर के यहां जन्मी।
पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन के बाद शिव जी ने भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखने की इच्छा प्रकट की। उनका वह आकर्षक रूप देखकर वह कामातुर हो गए, और उनका पुंसत्व तिरोहित हो गया। वायुदेव ने शिव जी के अंश को वानर राजा केसरी की पत्नी अंजना के गर्भ में पवन देव द्वारा स्थापित कर दिया। इस तरह अंजना के गर्भ से वानर रूप हनुमान का जन्म हुआ, इसलिए उन्हें शिव का 11 वां रूद्र अवतार माना जाता है। साथ में पवन पुत्र भी कहा जाता है।
वृतांत मिलता है कि महाराज पुंजर ने अपनी बेटी अंजना का विवाह महाराज वासुकि के पुत्र केसरी से किया कुछ दिनों के उपरांत उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम वज्रअंग अर्थात् बजरंगबली हनुमान केसरी नंदन आदि नामों से जाना जाता है उन्हें पवन पुत्र भी कहा जाता है क्योंकि हनुमान जी के पालनहार वायु देवता ही हैं उन्होंने हनुमान जी को जन्म से लेकर हमेशा उनका साथ दिया है और उनका पालन पोषण भी वायु देवता के निकट ही हुआ है इसलिए उनको पवन पुत्र भी कहा जाता है और यह थी माता अंजना की विस्तृत कहानी। हनुमान के अलावा अंजना के गर्भ से पांच पुत्रों का भी जन्म हुआ था। जिनके नाम हैं, मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान, धृतिमान।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – कामना…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 219 ☆
☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कामना… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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चाह नहीं मेरी कि मुझको मिले कहीं भी बड़ा इनाम
इच्छा है हो सादा जीवन पर आऊँ जन-जन के काम ॥
निर्भय मन से करूँ सदा कर्त्तव्य सभी रह निरभिमान
सेवाभाव बनाये रक्खे मन में नित मेरे भगवान ॥
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रहूँ जगत् के तीन-पाँच से दूर मगर नित कर्म-निरत
भाव कर्म औ’ मन से जग में करता रहूँ सभी का हित ॥
मन में कभी विकार न उपजे, देश प्रेम हो सदा प्रधान
सद्विचार का रहूँ पुजारी, बुद्धि सदा यह दें भगवान ॥
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उखड़े हुए लोग…“।)
अभी अभी # 646 ⇒ उखड़े हुए लोग श्री प्रदीप शर्मा
कभी मैं भी इसी जमीन से जुड़ा था, इसी मिट्टी में पला बढ़ा था। आज जहां चिकने टाइल्स का फर्श है, कल वहां गोबर से लिपा हुआ आंगन था। एक नहीं, तीन तीन दरख़्त थे। कल कहां यहां सोफ़ा, कुर्सी, कूलर और ए सी थे, बस फकत एक कुआं और ओटला था।
सर्दी में धूप और गर्मी में नीम की ठंडी ठंडी छांव थी, बारिश में पतरे की छत टपकती थी, आसमान में बादल गरजते थे, बिजली चमकती थी। तब दीपक राग से चिमनी, कंदील नहीं जलती थी, केरोसीन के तेल से ही स्टोव्ह भी जलता था। ।
घरों में लकड़ी का चूल्हा तो था, पर गैस नहीं थी। सिगड़ी भी कच्चे पक्के कोयले की होती थी, सीटी वाले कुकर की जगह तपेली और देगची में दाल चावल पकते थे। बिना घी के ही चूल्हे पर फूले हुए फुल्कों की खुशबू भूख को और बढ़ा देती थी। तब कहां नमक में आयोडीन और टूथपेस्ट में नमक होता था।
मौसम के आंधी तूफ़ान को तो हमने आसानी से झेल लिया लेकिन वक्त के तूफ़ान से कौन बच पाया है। पहले मिट्टी के खिलौने हमसे दूर हुए, फिर धीरे धीरे मिट्टी भी हमसे जुदा होती चली गई। वक्त की आंधी में सबसे पहले घर के बड़े बूढ़े हमसे बिछड़े और उनके साथ ही पुराने दरख़्त भी धराशाई होते चले गए। ।
इच्छाएं बढ़ती चली गई, भूख मरती चली गई। सब्जियों ने स्वाद छोड़ा, हवा ने खुशबू। रिश्तों की महक को स्वार्थ और खुदगर्जी खा गई, अतिथि भी फोन करके, रिटर्न टिकट के साथ ही आने लगे। दूर दराज के रिश्तेदारों के पढ़ने आए बच्चे घरों में नहीं, हॉस्टल और किराए के कमरों में रहने लगे।
सब पुराने कुएं बावड़ी और ट्यूबवेल सूख गए, घर घर, बाथरूम में कमोड, शॉवर और वॉश बेसिन लग गए।
पानी का पता नहीं, गर्मी में चारों तरफ टैंकर दौड़ने लग गए। सौंदर्यीकरण और विकास की राह में कितने पेड़ उखाड़े, कितने गरीबों के घर उजाड़े, कोई हिसाब नहीं। ।
पहले जड़ से उखड़े, फिर मिट्टी से दूर हुए, पुराने घर नेस्तनाबूद हुए, बहुमंजिला अपार्टमेंट की तादाद बढ़ने लगी। अपनी जड़ें जमाने के लिए हमें अपनी मिट्टी से
जुदा होना पड़ा। कितने घर उजड़े होंगे तब जाकर कुछ लोगों को मंजिलें मिली होंगी। अपनी मंजिल तक अब आपको लिफ्ट ले जाएगी। इसी धरा पर, फिर भी अधर में, क्या कहें, उजड़े हुए, उखड़े हुए अथवा लटके हुए ;