(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 327 ☆
व्यंग्य – मेड, इन इंडिया… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
मेड के बिना घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं.
मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.
विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना पीरियड ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.
मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। पराठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे । इसीलिए मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।
सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है । मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है । मेड इन इंडिया, कपड़े धोने सुखाने प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम । इसलिए मेड, इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट अनार्गजाइज्ड किंतु वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड, इन इंडिया।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सूत उवाच…“।)
अभी अभी # 578 ⇒ सूत उवाच श्री प्रदीप शर्मा
यारों, शीर्षक हमारे पर मत जाओ ! कल एक भूले बिसरे मित्र का फोन आया, प्रदीप भाई कैसे हो !
ठंड में कोई खैरियत पूछे तो वैसे ही बदन में थोड़ी गर्मी आ जाती है। क्या आपने कभी पतंग उड़ाई है, उनका अगला प्रश्न था। उन्होंने मेरे जवाब का इंतजार नहीं किया और दूसरा प्रश्न दाग दिया, क्या कभी मंजा सूता है ? जो प्रश्न उन्हें सूत जी से पूछना था, वह उन्होंने मुझसे पूछ लिया। इसके पहले कि सूत उवाच, मैं अवाक् !और मैं पुरानी यादों में खो गया।
आज जिसे हमारे स्वच्छ शहर की कान्हा नदी कहा जाता है, तब यह खान नदी कहलाती थी, और हमें इसकी गंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। रामबाग और कृष्णपुरा ब्रिज के बीच, एक पुलिया थी, जिसे हम बीच वाली पुलिया कहते थे। यह हमारे घर और मिडिल स्कूल को आपस में जोड़ती थी। खान नदी के आसपास तब बहुत सा, हरा भरा मैदान था, जो हमारे लिए खुला खेल प्रशाल था। यह पुलिया सूत पुत्रों के लिए मंजा सूतने के काम आती थी। कांच को बारीक पीसने से लगाकर पतंग उड़ाने, काटने और लूटने का काम यहां बड़े मनोयोग से किया जाता था।।
ऐसा नहीं कि हमने कभी पतंग नहीं उड़ाई। जब भी उड़ाई, पतंग ने आसमान नहीं देखा, हमने हमेशा मुंह की खाई। जिसके खुद के पेंच ढीले होते हैं, वे दूसरों की पतंग नहीं काटा करते। लूटमार से हम शुरू से ही दूर रहे हैं, किसी की कटी पतंग भला हम क्यों लूटें।
हमारे इसी शांत स्वभाव के कारण हमने देवानंद की फिल्म लूटमार और ज्वेल थीफ़ भी नहीं देखी।
जब मंजा सूतने में मैने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई तो मित्र ने अगला प्रश्न किया, अच्छा आपने सराफे की चाट तो खाई ही होगी और कभी दाल बाफले भी तो सूते ही होंगे और जब स्कूल में माड़ साब बेंत से सूतते थे, तब कैसा लगता था। पहले चाट और दाल बाफले और बाद में सुताई, यह क्या है भाई, हम फोन रखते हैं भाई। और हमने फोन रख दिया।।
हमारा यह मिडिल स्कूल वैसे भी सुभाष मार्ग और महात्मा गांधी मार्ग के बीच सैंडविच बना हुआ था। हमारे गांधीवादी हेडमास्टर ने हमसे चरखा भले ही नहीं चलवाया हो, तकली पर सूत जरूर कतवाया है।
हम यह भी जानते हैं कि सूत को सूत्र भी कहते हैं और पुरुष मंगलसूत्र नहीं, यज्ञोपवीत धारण करते हैं, जो सूत के धागों से ही बनती है। सूत पुत्र दासी के पुत्र को भी कहते हैं और पवन के पुत्र को भी पवनसुत कहते हैं।।
आज तिल गुड़ का दिन है, जिन्हें मंजा सूतना है, मंजा सूतें, पतंग उड़ाएं, पेंच लड़ाएं, किसी की पतंग तो किसी के विधायक लूटें, हम तो बस मीठा खाएंगे मीठा बोलेंगे, मंजा नहीं, मज़ा लूटेंगे और भरपूर प्यार लुटाएंगे।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “परीक्षा की तैयारी के पंच”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 200 ☆
☆ आलेख – परीक्षा की तैयारी के पंच☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
परीक्षा की तैयारी छात्र जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। यह सफलता प्राप्त करने का एक माध्यम है, लेकिन इसके लिए सही रणनीति और मानसिक तैयारी की आवश्यकता होती है। हम इसकी जितनी बेहतर तैयारी करेंगे सफलता उसी अनुपात में हमें प्राप्त होगी।यही वजह है कि अच्छे परिणामों के लिए एक व्यवस्थित योजना बनानी चाहिए और उसे समय पर लागू करना चाहिए।
1. समय प्रबंधन:
राजीव कहता है कि यदि समय प्रबंधन करके मैंने पढ़ाई नहीं की होती तो मैं आज सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण नहीं होता। यही वजह हैं कि छात्रों के लिए सबसे पहले, समय का सही उपयोग करना आवश्यक है। इसके लिए आप तीन काम कर सकते हैं –
अध्ययन के लिए निश्चित समय तय करें और उसे नियमित रूप से पालन करें।
लिखने और पढ़ने का एक टाइम टेबल बनाकर उसे सही तरीके से फॉलो करें।
इसके साथ खेलने और मनोरंजन का समय भी तय करें।
2. विषयों को प्राथमिकता:
अपने समय में सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण हुई अनीता का कहना है कि सबसे पहले मैंने अपनी कमजोरी को समझा। मैं किस विषय में कमजोर हूं। यह जानकर मैंने विषय को प्राथमिकता देना तय किया। इसके लिए मैंने एक महत्वपूर्ण कार्य किया जो इस प्रकार है–
सभी विषयों को एक समान महत्व देने के बजाय, कठिन और महत्वपूर्ण विषयों को पहले तय करें।
उन्हें अच्छे से समझने का प्रयास करें।
अध्ययन के समय पहले कठिन फिर सरल, फिर कठिन और फिर सरल के क्रम में विषय को विभक्ति करें। तदनुसार उसको समझने का प्रयास करें।
3. मानसिक शांति:
वैभव कहता है कि एक बात बहुत जरूरी है जिनका छात्र कभी ध्यान नहीं रखते हैं। वह है- परीक्षा के समय तनाव प्रबंधन करने की। परीक्षा के समय मानसिक तनाव सामान्य होना, सामान्य बात होती है, मगर इसे नियंत्रित करना जरूरी है। इसके लिए प्रत्येक छात्र को दोएक काम करना चाहिए–
योग, ध्यान, और अच्छी नींद नियमित रूप से ले।
परीक्षा से घबरा बिना मानसिक शांति बनाए रखें।
4. निरंतर अभ्यास:
गौरव अपनी सफलता का राज अपने अभ्यास को देता है। उसका कहना है कि हरेक छात्र को यह काम नियमित रूप से करना चाहिए—
नियमित रूप से मॉक टेस्ट और पुराने प्रश्न पत्र को हल करें। इससे न केवल आत्मविश्वास बढ़ता है, बल्कि परीक्षा के पैटर्न का भी ज्ञान होता है।
5. आत्म-मूल्यांकन:
मोनिका कहती है कि परीक्षा में आत्मविश्वास बनाए रखना सबसे बड़ी बात है। यदि हमने अपना आत्म मूल्यांकन किया हो तो हमें अपने ऊपर आत्मविश्वास भरपूर होता है। इसके लिए हम निम्न काम कर सकते हैं –
समय-समय पर अपनी तैयारी का मूल्यांकन करें।
यह देखे कि कौनसा विषय मजबूत हैं और किसमें सुधार की आवश्यकता है।
जिसमें सुधार की आवश्यकता है उसमें मेहनत करके उसमें सुधार करें।
निष्कर्षतः
राहुल का कहना है कि इसके बावजूद हमें एक बात सदैव ध्यान रखना चाहिए। परीक्षा की तैयारी धैर्य, समर्पण और सही दिशा से की जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसे अपने आत्मविश्वास और सही दृष्टिकोण से अपनाने की जरूरत है। इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए।
(पूर्वसूत्र- “शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच तसं तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्तमहाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू”
बाबा गंमतीने हसत म्हणाले. कांहीच न समजल्यासारखी ती त्यांच्याकडे पहातच राहिली. )
आज जवळजवळ पन्नास वर्षांनंतर हे सगळे प्रसंग नव्याने आठवताना त्या आठवणींमधला एकही धागा विसविशीत झालेला किंवा तुटलेला नसतो ते त्या अनुभवांच्या त्या त्या वेळी माझ्या अंतर्मनाला जाणवलेल्या अलौकिक अनुभूतीमुळे! आणि या अनुभूतीमधला मुख्य दुवा ठरली होती ती हीच लिलाताई!
लिलाताई माझ्यापेक्षा जवळजवळ बारा वर्षांनी मोठी. अर्थातच माझ्या सर्वात मोठ्या बहिणीपेक्षाही सहा वर्षांनी मोठी. केवळ वयातलं अंतर म्हणूनच ती माझी ताई नव्हती तर तिने आपल्या सख्ख्या दहा भावंडांइतकंच आमच्यावरही मोठ्या बहिणीसारखंच प्रेम केलं होतं! मी तर तिचा तिच्या लहान भावंडांपेक्षाही कणभर जास्तच लाडका होतो. आम्ही त्यांच्या शेजारी रहायला गेलो तेव्हा मी चौथीतून पाचवीत गेलो होतो. त्याआधी मला अभ्यासात कांही शंका आली तर आईला किंवा मोठ्या बहिणीला विचारायचो. आता त्याकरता लिलाताई माझा पहिला चाॅईस असायची. तिचं शांतपणे मला समजेल असं समजावून सांगणं मला आवडायचं. माझी पुढची चारपाच वर्षे शाळेतल्या सगळ्या बौध्दिक स्पर्धांची तयारीसुध्दा तीच करुन घ्यायची चित्रकला, वक्तृत्व, कथाकथन, गद्यपाठांतर, गीतापठण, निबंधलेखन, हस्ताक्षर अशा सगळ्या स्पर्धांची तिने करुन घेतलेली तयारी म्हणजे खणखणीत नाणंच. अशा सगळ्या स्पर्धांत मला बक्षिसं मिळायची, कौतुक व्हायचं तेव्हा मिळालेलं बक्षिस, प्रमाणपत्र हातात घट्ट धरुन मी पळत घरी यायचो ते थेट शेजारी लिलाताईकडेच धाव घ्यायचो. तिला मनापासून झालेला आनंद, तिच्या नजरेतलं कौतुक आणि मला जवळ घेऊन तिने दिलेली शाबासकी हेच माझ्यासाठी शाळेत मिळालेल्या बक्षिसापेक्षाही खूप मोठं बक्षिस असायचं! तिच्यासोबतचे माझे हे भावबंध गतजन्मीचे ऋणानुबंधच म्हणायला हवेत. विशेषकरुन मला तसे वाटतात ते नंतर आलेल्या ‘अलौकिक’ अनुभवामुळेच!!
बाबांनी सांगितल्याप्रमाणे ती बाहेर जाऊन दत्ताला नमस्कार करुन आली, बाबांनी दिलेला तीर्थप्रसाद घेतला. बाबांना नमस्कार करून झरकन् वळली आणि डोळे पुसत खालमानेनं घरी निघून गेली.
“किती गुणी मुलगी आहे ना हो ही? दुखावली गेलीय बिचारी. तिच्या डोळ्यांत पाणी बघून बरं नाही वाटत. “
” ते दु:खाचे नाहीत, पश्चातापाचे अश्रू आहेत. देव पहातोय सगळं. तो तिची काळजी नक्की घेईल. बघच तू. “
बाबांच्या तोंडून सहजपणे बाहेर पडलेल्या या सरळसाध्या शब्दांमधे लपलेलं गूढ त्यांनाही त्याक्षणी जाणवलेलं होतं की नाही कुणास ठाऊक पण त्याची आश्चर्यकारकपणे उकल झाली ती पुढे चारच दिवसांनी कुरुंदवाडच्या बिडकर जमीनदारांच्या घराण्यातून लिलाताईसाठी मागणी आली तेव्हा!!
हे सर्वांसाठीच अनपेक्षितच नाही तर सुखद आश्चर्यकारकही होतं!
लिलाताईच्या आनंदाला तर पारावार नव्हता. “शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच, तसंच तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्त महाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू. ” बाबांच्या अगदी अंतःकरणापासून व्यक्त झालेल्या या बोलण्यातला शब्द न् शब्द असा खरा झाला होता! कारण तिला मागणी आली होती ती कुरुंदवाडच्या जमीनदार घराण्याकडून!!
“काका, मी लग्न होऊन सासरी गेले तरी आता नित्य दत्तदर्शन चुकवायची नाही. कारण कुरुंदवाडहून नृसिंहवाडी म्हणजे फक्त एक मैल दूर. हो की नै?” तिने बाबांना त्याच आनंदाच्या भरात विचारले होते.
“तुझी मनापासून इच्छा आहे ना? झालं तर मग. तुझ्या मनासारखं होईल. पण त्यासाठी अट्टाहास नको करू. तू सासरी जातेयस. आधी त्या घरची एक हो. तुझं कर्तव्य चुकवू नको. बाकी सगळं दत्त महाराजांवर सोपवून निश्चिंत रहा. “
बाबांनी तिला समजावलं होतं.
पाटील आणि बिडकर या दोन्ही कुटुंबांची कोणत्याच बाबतीत बरोबरी होऊ शकत नव्हती. पाटील कुटुंब कसंबसं गुजराण करणारं. बिडकर जमीनदार घराणं. सख्खं-चुलत असं वीस बावीस जणांचं
एकत्र कुटुंब. उदंड धनधान्य. दुभती जनावरं त्यामुळं दूधदुभतं भरपूर. ददात कशाचीच नव्हती. रोज दिवसभर डोक्यावर पदर घेऊन वावरणं मात्र लिलाताईला एक दिव्य वाटायचं. इकडच्या मोकळ्या वातावरणामुळे या कशाची तिला सवयच नव्हती. पण सासरची माणसं सगळी चांगली होती. हिच्या डोक्यावरचा पदर पहिल्या दिवशी सारखा सारखा घसरत राहिला तेव्हा सगळ्या सासवा एकमेकींकडे पाहून गंमतीने हसायच्या. तिला सांभाळून घ्यायच्या. ‘सवयीने जमेल हळूहळू’ म्हणायच्या. दारापुढं हिने काढलेल्या रांगोळ्या बघून बायकाच नव्हे तर घरातले कर्ते पुरुषही तिचं मनापासून कौतुक करायचे. मूळच्याच शांत, हसतमुख, कलासक्त, कामसू, सुस्वभावी लिलाताई त्या आपुलकीच्या वातावरणामुळे अल्पकाळातच त्या घरचीच एक कधी होऊन गेली तिचं तिलाच समजलं नाही.
“घरचं सगळं आवरून मी नृसिंहवाडीला रोज दर्शनाला जाऊन आले तर चालेल?”
एक दिवस तिने नवऱ्याला विचारलं. त्याने चमकून तिच्याकडे पाहिलं.
“एकटीच?”
“हो. त्यात काय?”
“घरी नाही आवडायचं. “
“कुणाला?”
“कुणालाच. मोठे काका नकोच म्हणणार. ते म्हणतील तीच पूर्व दिशा असते. “
“मी विचारु त्यांना?”
“तू? भलतंच काय?”
“मग मोठ्या काकींना विचारते हवंतर. त्या परवानगी काढतील. चालेल?”
तिच्या निरागस प्रश्नाचं त्याला हसूच आलं होतं.
“नको. मी बोलतो. विचारतो काकांना. ते हो म्हणाले तरच जायचं”
“बरं” तिने नाईलाजाने होकारार्थी मान हलवली. काका काय म्हणतील या विचाराने रात्रभर तिच्या डोळ्याला डोळा लागला नव्हता.
“देवदर्शनालाच जातेय तर जाऊ दे तिला. पण एकटीने नाही जायचं. तू तिच्या सोबतीला जात जा. त्यानिमित्ताने तुझंही देवदर्शन होऊ दे. ” काका म्हणाले. घरच्या इतर बायका़ंसाठी हे आक्रीतच घडलं होतं. ज्या घरच्या बायका आजपर्यंत नवऱ्याबरोबर कधी फिरायला म्हणून घराबाहेर पडल्या नव्हत्या त्याच घरची ही मोठी सून रीतसर परवानगी घेऊन रोज देवदर्शनासाठी कां असेना नवऱ्याबरोबर फिरून येणार होती याचं त्या सगळ्यांजणींना अप्रूपच वाटत राहिलं होतं!
दुसऱ्याच दिवसापासून लिलाताईचं नित्य दत्तदर्शन सुरु झालं. पहाटे उठून आंघोळी आवरून झपाझप चालत दोघेही नृसिंहवाडीची वाट धरायचे. दर्शन घेऊन अर्ध्यापाऊण तासात परतही यायचे.
लिलाताईच्या या नित्यनेमानेच तिला आमच्याशीही जोडून ठेवलं होते. कारण मोबाईल नसलेल्या पूर्वीच्या त्या काळात पाटील कुटुंबीयांपैकी बाकी कोणाशीच भेटीगाठी, संपर्क राहिला नव्हता. पण लिलाताई मात्र आम्हाला अधून मधून भेटायची ती तिच्या या नित्यनेमामुळेच. आईचाही पौर्णिमेला वाडीला जायचा नेम असल्याने दर पौर्णिमेला न ठरवताही लिलाताईची न् तिची भेट व्हायचीच. लिलाताई रोज तिथे आली की ‘अवधूत मिठाई भांडार’ मधेच चप्पल काढून ठेवून दर्शनाला जायची. पौर्णिमेदिवशी “लिमयेवहिनी आल्यात का हो?” अशी त्यांच्याकडे चौकशी ठरलेलीच. त्यांच्यामार्फत निरोपानिरोपी तर नेहमीचीच. कधी आईला सवड असेल तेव्हा आग्रहाने कुरुंदवाडला आपल्या सासरघरी घेऊन जायची. पुढे माझा नित्यनेम सुरु झाल्यावर आम्हीही संपर्कात राहू लागलो.
हे सगळे घटनाप्रसंग १९५९ पासून नंतर लिलाताई १९६४ साली लग्न होऊन कुरुंदवाडला गेली त्या दरम्यानच्या काळातले. पण तिचा तोच नित्यनेम पुढे प्रदीर्घकाळ उलटून गेल्यानंतर माझ्या संसारात अचानक निर्माण झालेल्या दु:खाच्या झंझावातात मला सावरुन माझ्या दु:खावर हळूवार फुंकर घालणाराय याची पुसटशी कल्पनाही मला तेव्हा नव्हती.
प्रत्येकाच्याच आयुष्यात घडणाऱ्या वरवर सहजसाध्या वाटणाऱ्या घटनांचे धागेदोरे ‘त्या’नेच परस्परांशी कसे जाणीवपूर्वक जोडून ठेवलेले असतात याचा प्रत्यय मात्र त्यानिमित्ताने मला येणार होता!!
– मकरसंक्रांत आली कि आपण पंचांग, कॅलेंडर पाहतो त्यावर बरच काही लिहिलेलं असतं मकर संक्रांति वर! म्हणजे त्या दिवशी संक्रांतीचा शुभकाळ, पर्वकाळ, पुण्यकाळ दान करायच्या गोष्टी कोणतं वस्त्र नेसायचं. याची शास्त्रशुद्ध माहिती असते. मकर संक्रांतीच्या आधी आपण धुंधुरमास साजरा करतो त्याचं महत्त्व मुलांना समजावून द्यावं लागत. नव्या मुगाची डाळ घालून केलेली खिचडी वांग्याची भाजी मटकीची उसळ असं चटकदार थंडीला पोषक जेवणं असत. आणि सूर्योदयाच्या आत हे भोजन करायचं. जणूं येणाऱ्या मकर संक्रमणात सूर्याचं स्वागतच. ते खरंच सुग्रास आणि चवदार काहीतरी वेगळं केल्याचं मनाला समाधान देणार असायचं. आता फारसं कोणी पहाटे उठून वगैरे करत नाही. त्या भोजनाचा आनंद सगळेच घेतात. त्यानंतर भोगी !. शक्ती म्हणजे देवी आणि कृषी म्हणजे शेती या दोन्हीचा समन्वय म्हणजे भोगीचा दिवस. भोग म्हणजे नैवेद्य त्याचा प्रसाद म्हणजे प्रसन्नता. ही प्रसन्नता घेऊनच भोगी येते या दिवसांत सगळीकडे नवधान्यं, भाज्या सगळं नवीन आलेलं असतं त्याचा आनंद प्रसन्नता ही संक्रांतीपूर्वीच आलेली असते म्हणून भोगी प्रथम येते नंतर मकरसंक्रांत!. भोगीला, तीळ लावलेली बाजरीची भाकरी त्याच्यावर लोण्याचा गोळा, खिचडी, तीळाची चटणी, आणि नवीन आलेल्या फळभाज्या, पालेभाज्या, यांची मिळून केलेली भोगीची खास अशी चवदार भाजी. ! याचा नैवेद्य आणि भोजनही! संध्याकाळी दिवे लागणीनंतर हळदी कुंकवाचा कार्यक्रम असायचा. तेव्हा नवीन वस्त्र परिधान करून हळदी कुंकू लावून विड्यांच्चा पानांवर, सुपारी, बदाम, खारका, सुकं खोबरं, लेकुरवाळ हळकुंड हातात देऊन नंतर सुवासिनी एकमेकींची हळद कुंकू लावून ओटी भरायच्या. याला विडा देणं- घेणं असं म्हणतात. आरसा कंगवा घेऊन त्यांच्या केसावरून फिरवायची एक रीत आहे. तिळाचा लाडू द्यायचा. वर पानांचा गोविंद विडा करून द्यायचा. संध्याकाळच्या वेळी हा कार्यक्रम असायचा. कांरण. पूर्वीच्या काळी संध्याकाळच्या वेळी घरातील स्त्रिया आरशांत पहात वेणी- फणी असं काही करतच नसत. त्यामुळे स्त्रियांना हा दिवस फार महत्त्वाचा वाटायचा. आता हे फारसं कुणी करतांना दिसत नाहीत. आता परिस्थितिही बदलली. आहे. यानंतर येणारा दिवस म्हणजे मकर संक्रांत!
या दिवशी सूर्य मकर राशीत प्रवेश करतो तो शुभकाळ म्हणजे पुण्यकाळ पर्वकाळ सूर्याचं हे संक्रमण म्हणजे मकर संक्रांत!. तीळ वाटून हळदीसह अंगाला लावून अभ्यंग स्नान करून या दिवसाची छान सुरुवात होते. दारात, देवापुढे सूर्य मंडल रेखून त्याची पूजा करायची पद्धत आहे. ‘सूर्यपूजन’ यासाठी हा दिवस महत्त्वाचा आहे. तसेच मातीच्या सुगडांची पूजाही! मातीच सुगड हे आपल्या देहाचं प्रतीक आहे या सगळ्यात म्हणजे देहात पंचमहाभूतांच प्रतिक म्हणून नव्या धान्यांची ऊंस, गाजर, नव्या शेंगभाज्या, तीळ गुळ, आणि हळदीकुंकू घालून कापसाचे गेजा वस्त्र वाहून व दोऱ्यांनी म्हणजे सुताने बांधून सुवासिनी पूजा करतात पूजा करताना या सुगडाला हळदी कुंकवाने रंगवलेली बोटं उठवलेली असतात. अशी सुगडाची पूजा म्हणजे आपल्यातील देवत्वाची पूजाच. !पुरण, तिळगुळ पोळी-लाडूचा नैवेद्य दाखवून’ ज्ञान, आरोग्य, वस्त्र, धनसंपदा, निवारा ‘, मिळावा यासाठी प्रार्थना करून देवीला सौभाग्याचं दान मागतात. शस्त्र शास्त्र यांच्या उपासनेमुळे शक्ती, कृषी, ज्ञान यांच्या साधनेत येणाऱ्या, विघ्नांचा नाश होतो अशी श्रद्धा आहे. हळदी कुंकू म्हणजे पवित्र भावना किंवा विधी. या दिवशी हळदीकुंकू हलवा तिळगुळ आणि वस्तू लुटायच्या. आयुष्यात चांगल्या गोष्टी तिळा-तिळा न येतात वाईट गोष्टी मात्र पटकन येतात आपल्या शरीराची मनाची तिळा-तिळान वाढ होते कोणतीही गोष्ट थोडी थोडी म्हणजे तिळा-तिळाने वाटून घेतली की त्यातलं दुःख कमी होतं पण सुख तिळातिळानं वाढतं यासाठी आपलं सुख आनंद आपल्या जाणिवा आपल्या दुःखासह तिळासारख्या सर्वांना वाटाव्यात दुसऱ्याच्याही घ्याव्यात या भावना यामागे आहेत. हाच खरा मकर संक्रमणाचा म्हणजे आपल्याही मनाच्या स्थित्यंतराचा खरा सणं म्हणूयात! तिळगुळ हे स्नेहाची नात्याची, मैत्रीची गोडी, कायम राहावी यासाठी देतात घेतात. तिळासारखं स्वच्छ स्नेहलमनं आणि त्याबरोबरच गुळाची गोडीही वाढते. काटेरी हलवा काट्यांबरोबर संसारात गोडीही असते हे सांगतो काळ वस्त्र म्हणजे अंधाराचं प्रतीक असलं तरी त्यावरील बुंदके ठिपके असणं म्हणजे नक्षत्रांना आवाहन करण्यासारखंच असतं. असं वस्त्र नेसून हळदीकुंकू एका व्रताप्रमाणे करून वस्तू हा एक सामाजिक वसाही म्हणता येईल. एखादी वस्तू मुक्तपणे दुसऱ्यांना दान करणे लुटणं यात सात्विक आनंद असतोच याबरोबरच या दिवशी आपल्याला जीवन देणाऱ्या सूर्यनारायणाची प्रार्थना करावी ” हे सूर्य नारायणा तुझ्या प्रकाशाबरोबर तू पृथ्वीवर ये अन आमच्या तनां मनातल्या अंधारावर छान सुंदर स्वप्नांचं पांघरून घाल. तुझी आग नको प्रकाश दे. निरामय व आरोग्यमय जीवन दे. आमच्या ज्ञानाची, नात्यांची, स्नेहांची, कक्षा वाढव. “
आज किती वर्षांनी साधना भारतात आली होती. तिची नोकरी, अभयचा बिझनेस मुलांची करिअर्स यात तिला भारतात यायला वेळच व्हायचा नाही. आली तरी तीन आठवड्याची सुट्टी घेऊन धावतपळत येणं व्हायचं त्यांचं. आजसुद्धा एका मीटिंग साठी ती आठवडाभर आली होती.
साधना मुंबईच्या लहान चाळीत राहिलेली मुलगी. अतिशय सामान्य परिस्थिति आणि वडिलांची साधीशी नोकरी. सुधीर आणि साधना ही दोन भावंडं. ती मात्र उपजतच हुशारी घेऊन आली होती. वडील म्हणायचे, ‘ माझी ही मुलं म्हणजेच माझी संपत्ती. ती बघा आपलं घर कसं वर आणतील ते. ’ भाऊंनी मुलांना काही कमी केलं नाही. होत्या त्या परिस्थितीत सगळं शक्य ते त्यांना मिळेल असं बघितलं. मुलं मोठी गुणी होती भाऊंची.
चाळीत साधनाच्या खूप मैत्रिणी होत्या. सगळ्याच बेताच्या परिस्थितीतल्या. अंजू माधुरी कला सगळ्या मराठी शाळेत साधनाच्याच वर्गातल्या. त्यातल्या त्यात वेगळी होती ती अय्यर मावशीची रेणुका. साधनाच्या बरोबरीने पहिल्या दोन नंबरात असायची रेणुका. तिच्याशी फार पटायचं साधनाचं. अशीच बेताबाताची परिस्थिति पण जिद्द विलक्षण. साधनाला म्हणायची, “आपण दोघी खूप शिकू, मोठ्या होऊ हं साधना. इथेच असं चाळीत आयुष्य नाही काढायचं आपण. ”
बघता बघता वर्षे उलटली. चाळ पडायला आली म्हणून बहुतेक लोकांनी दुसरीकडे उपनगरात घरे घेतली. साधना कॉलेजनंतर चाळीतल्या मैत्रिणींच्या फारशी संपर्कात राहिली नाही. तिने आपले जर्मन भाषेचे पीएचडी पूर्ण केले आणि तिला जर्मनीला युनिव्हर्सिटीमध्ये स्कॉलरशिप मिळाली होती ती पोटापुरती तुटपुंजीच.. पण साधनाने ती घेऊन पुढे शिकायचे ठरवले.
…. सोपी नव्हती ही वाट. पण साधनाने आपलं स्वप्न पूर्ण करायचं ठरवलं. ती जर्मनीला गेली. तिला तिकडचे पीएचडी करावे लागणार होते, त्याशिवाय जॉब मिळणार नव्हता. मिळणाऱ्या तुटपुंज्या स्कॉलरशिपवर भागवायचे होते आता.
तिकडे गेल्यावर मात्र गोष्टी थोड्या सोप्या झाल्या तिला. एजंटने तिला युनिव्हर्सिटी जवळ छानसा फ्लॅट भाड्याने बघून दिला. बघता बघता साधना तिकडे रुळून गेली.
एक दिवस मार्केटमध्ये खरेदी करत असताना अचानक मागून शब्द आले. ”तुम्ही भारतातून आलात का?”
अस्खलित जर्मन भाषेतून आलेले शब्द ऐकून ती मागे वळली. मागे एक भारतीय तरुण हसतमुखाने उभा होता. “हॅलो, मी अभय चितळे. इथे जर्मन कौंसुलेट मध्ये काम करतो. तुम्ही?”
“ मी साधना. युनिव्हर्सिटीत शिकवते. ”
कॉफी पिताना त्यांच्या बऱ्याच गप्पा झाल्या आणि ती भेट संपली ते पुन्हा भेटायचं ठरवूनच.
साधनाला आपल्या शहरातला मुलगा भेटल्याचा फार आनंद झाला. अतिशय एकाकी असलेल्या आणि आपलं कोणी नसलेल्या देशात साधनाला किती जड जात होतं आयुष्य जगणं.
अचानक अभय तिला भेटला आणि जणू सुखाचं दारच उघडलं गेलं तिच्या जीवनात. भेटी गाठी होत राहिल्या आणि मुंबईला येऊन दोघांनी आईवडिलांच्या संमतीने लग्न केलं. दोन्ही घरी आनंदच झाला हा निर्णय ऐकून. लग्न होऊन दोघंही परत जर्मनीला गेले.
बरीच वर्षे झाली आणि त्यांच्या भारताच्या भेटी कमीच होऊ लागल्या. मुलं तर पूर्ण जर्मन. घरी मराठी बोलत पण केवळ नावाला ती भारतीय होती. बाकी पूर्ण जर्मनच. तिथेच जन्मलेली आणि वाढलेली..
…. नेहमीचीच कहाणी.
साधनाचे आईभाऊ, अभयचे आईवडील अनेकवेळा जर्मनीला येऊन लेकीचा मुलाचा सुखी संसार, गोड नातवंडांना भेटून गेले. आता खूप मोठं छान घर घेतलं अभय साधनाने. त्यांनी जर्मन नागरिकत्व स्वीकारलं.
एका महत्त्वाच्या कॉन्फरन्ससाठी अचानकच साधनाला मुंबईला यावं लागलं. चार दिवस कॉन्फरन्स होती. शेवटचा दिवस झाला की साधना आपल्या आईकडे जाणार होती.
खूप थकली होती आई. भाऊ तर जाऊन बरीच वर्षे झाली. पण सुधीर आणि त्याची बायको आईला अगदी छान संभाळत. कधी कधी साधनाला वाईट वाटायचं, मुलगी म्हणून आपला आईभाऊंना काही उपयोग झाला नाही. लांबलांबच राहिलो आपण. पण त्यांना जमेल तितक्या वेळा तिने अपूर्वाईने जर्मनीला नेऊन आणले होते.
आज मध्ये बराच वेळ होता म्हणून ती मॉलमध्ये गेली. सहज चक्कर मारायला. विंडो शॉपिंग करत असताना आवाज आला ”, तुम्ही पूर्वीच्या साधना आगाशे का?”
चमकून मागे बघितलं साधनाने. बराच वेळ निरखून बघितल्यावर तिला ओळख पटली. “अग, माधुरी ना तू?” माधुरी हसत म्हणाली “ हो. नशीब ओळखलंस मला. चल, तिकडे कॉफी पिऊया. ”
साधनाला अतिशय आनंद झाला या भेटीचा. माधुरी म्हणाली “, किती दिवस आहेस ग तू? आम्ही भेटतो जुन्या मैत्रिणी. आठवतात का अंजू कला रेणुका? “
आनंदाने साधना म्हणाली “ हो तर. न आठवायला काय झालं? मग आपण भेटूया ना. मी तीन दिवस आहे इथे अजून. या समोरच्या हॉटेलमध्ये उतरलेय. ”
माधुरीने ते हॉटेल बघितलं. , “ वावा. फाईव्ह स्टार हॉटेल?मजा आहे बाई तुझी. आमच्या कुठलं नशिबात इथे रहाणं?”
साधनाने निरखून माधुरीकडे बघितलं. अंगावर अगदी साधी साडी, केस पिकलेले, गळ्यात साधं मंगळसूत्र. हातात साधी जुनाट पर्स. परिस्थिती बेताची दिसत होती तिची. ते हॉटेल बघून डोळे लकाकलेले दिसले तिचे साधनाला.
“ काय करतेस तू माधुरी?”
“ अग, मी एका शाळेत नोकरी करते. एसेसीनंतर केलं डीएड. काय करणार?पटकन पायावर उभं रहायला हवं होतं मला. मग लग्न झालं. हेही कॉर्पोरेशन मध्ये जॉब करतात. कला खाजगी नोकरी करते आणि अंजू मात्र कॉलेजमध्ये लेक्चरर आहे. तुला भेटायचं आहे का सगळ्याना?”
“ हो तर.. माधुरी अगं कित्ती वर्षांनी भेटणार आहोत आपण. तुमच्या एखादीच्या घरीच भेटूया ना, म्हणजे मस्त गप्पा होतील आणि निवांत भेटता येईल”.
माधुरीचा चेहरा पडला.
“ नको ग. आम्ही या तुझ्या हॉटेलपासून खूप लांब रहातो. आम्हीच येतो उद्या इकडे अकरा वाजता. इथेच मस्त जेवूया भेटूया. रेणुका अय्यर आठवते ना? ती मात्र खूप शिकली आणि मंत्रालयात मोठ्या पोस्टवर आहे म्हणे. ती नसते फारशी आमच्या संपर्कात. पण बघते. बोलावते तिलाही येत असली तर. ”
साधनाकडून तिचा मोबाईल नंबर घेऊन माधुरी उठलीच. साधनाने बघितलं तर बसच्या क्यू मध्ये उभी राहिलेली दिसली तिला माधुरी.
साधना हॉटेलवर आली. रात्री अभय, मुलं यांच्याशी गप्पा मारल्या आणि फक्त ज्यूस घेऊन साधना झोपलीच. अकरा वाजता तिला रिसेप्शनवरून कॉल आला, “ मॅडम, तुमच्याकडे गेस्टस आल्या आहेत. खाली येता का?”
“ आलेच. त्यांना बसवून ठेवा. “ साधना आवरून पटकन खाली आली.
रिसेप्शनमध्ये तिला दिसल्या अंजू कला, माधुरी. जरा त्यांच्यापासून लांब बसलेली बाई होती रेणुका अय्यर. किती वेगळी आणि छान दिसत होती रेणुका. बगळ्यात राजहंस जसा. सुरेख प्युअर सिल्कची साडी, लेदरची भारी पर्स आणि महागडे घड्याळ. मंद हसत रेणुका पुढे झाली आणि म्हणाली,
“ साधना, कित्ती वर्षांनी ग. ” तिने प्रेमाने मिठी मारली साधनाला. माधुरी कला अंजू हे बघत होत्या.
रेणुकाने साधनाच्या हातात सुंदर स्लिंग बॅग दिली.
” घे ग. बघ आवडते का. राजस्थानला गेले होते ना तिकडची खास आहे बघ कशिदाकारी. ”
अंजू कला म्हणाल्या ”, आम्हाला वेळच नाही झाला काही आणायला. चला आता जेवूया ना? एरवी कोण येणार इतक्या महागड्या हॉटेलात?”
साधना त्यांना डायनिंग हॉलमध्ये घेऊन गेली. तो अतिशय सुंदर भव्य आणि उच्च अभिरुचीने सजवलेला एरिया बघून डोळे विस्फारले या तिघींचे.