मराठी साहित्य – विविधा ☆ “ते” होते म्हणून – भाग-4 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे 

☆ विविधा ☆ “ते” होते म्हणून – भाग-4 ☆ सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे 

पुण्यापासून जवळच केडगाव आहे. तिथली नारायण महाराजांची सोन्याची दत्तमूर्ती Bank of Maharashtra मधे असते आणि वर्षातून एकदा दर्शनासाठी बाहेर काढली जाते. महाराजांचं सोन्याचं सिंहासन होतं. संन्यस्त असून हे ऐश्र्वर्य असल्याने नारायण महाराज उगाचच गैरसमजाच्या धुक्यात होते. पण त्यांच्या कार्यामागचा अर्थ वडिलांनी समजाऊन सांगितलेला… सहज शेअर करावासा वाटतो.

तसे घरातून माझ्यावर सर्वधर्मसमभावाचे संस्कार झालेले. म्हणजे घरी पारंपरिक सणवार, पूजाअर्चा, स्तोत्रपठण आणि गीतापाठांतर असेच वातावरण असले तरी मशीद आणि चर्चची ओळख आवर्जून करून दिली होती वडिलांनी. सगळ्याच लोकांना आणि चक्क मार्क्सवादी लोकांनाही आमचं घर “आपलं” वाटायचं कारण साऱ्या विचारांचा स्वीकार व्हायचा.

तरीही धर्म हा विषय समाजजीवनावर परिणाम करतोच. केडगावात तेच होत होतं. मिशनरी लोक गरीब लोकांना फक्त खायला द्यायचे आणि धर्मांतर करायचे. पंडिता रमाबाईंचं मिशनही कडेगावातच आहे. अर्थात तिथे आश्रयाला येणाऱ्या स्त्रियांवर धर्मांतराची सक्ती नसे… पण स्वतः रमाबाईंनी ख्रिश्चन धर्म स्वीकारला होता.

पुन्हा दयानंदांच्या वेळचाच मुद्दा इथेही लक्षात घ्यायला पाहिजे. एक विचार केवळ धाकानं किंवा पैशानं का नष्ट करायचा? शिवाय राजकीय विषयही होताच हा. ब्रिटिशांचा धर्म स्वीकारला की त्यांची गुलामी बोचणारच नाही. मग देशाचं आर्थिक शोषण, आत्मविश्वास संपणं सगळं आलंच….यासाठी भुकेमुळं होणारं धर्मपरिवर्तन थांबवणं गरजेचं होतं. हिंदुस्थानच्या धार्मिक बाबीत ढवळाढवळ करणार नाही अशी राणीची पॉलिसी होती. म्हणून नारायण महाराजांनी एकशेआठ सत्यनारायण रोज करण्याची पद्धत सुरू केली. त्यासाठी खास रेल्वेच्या वॅगन मधून तुळशी यायच्या. प्रसाद म्हणून मोठे वाडगे भरून प्रसाद सगळ्यांना द्यायचे. गोरगरीबांना साजूक तुपाचा उत्तम शिरा पोट भरून दिला जायचा. एकच माणूस पुन्हा आला तरी त्याला पुन्हा दिला जायचा. या एका गोष्टीमुळे भुकेपोटी होणारं धर्मपरिवर्तन थांबलं. आपलं कार्य संपल्यावर सगळं ऐश्र्वर्य सोडून एका वस्त्रानिशी अवघ्या बत्तीसाव्या वर्षी नारायण महाराज केडगावहून निघून गेले आणि बंगलोर इथे राहून शेवटी त्यांनी देह ठेवला.

“नामस्मरण करून आनंदात राहावे” हा त्यांचा एकमेव उपदेश आहे.

नामस्मरण करावं हे ठीक आहे.. पण आनंदात राहावे हे तितकेच महत्त्वाचे आहे ना.. आनंदी राहण्यासाठी मनाला केवढी शिस्त हवी! एवढ्यातेवढ्याने रागवायचे नाही, कुणाचा हेवा करायचा नाही, कशाचा लोभ धरायचा नाही, निंदेला घाबरायचं नाही, समाधानी राहायचं तर आनंदात राहता येईल. थोडक्यात इतका स्वत:चा विकास विवेकानं करता आला तरच आनंद मिळणार. हा एवढा अर्थ भरला आहे या छोट्या वाक्यात.

श्रावणात घरोघरी सत्यनारायण पूजा सुरू झाल्या की मला केडगावच्या नारायण महाराजांची आठवण येते.

 

© सुश्री राजलक्ष्मी देशपांडे

मो – 7499729209

(लेखात व्यक्त केलेली मते लेखकाची वैयक्तिक मत आहेत.)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆ ख़लिश☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ख़लिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆

☆ ख़लिश

ज़िंदगी ख़लिश का ही तो दूसरा नाम है, है ना?

 

कभी बेवजह बहते आंसुओं की खलिश,

कभी दिल-भेदती दर्द की ख़लिश,

कभी रातों को तनहाई की ख़लिश,

कभी सुबह किसी की नामौजूदगी की खलिश,

कभी आफताब के तेज़ से जलने की खलिश,

कभी मुकम्मल मुहब्बत की ख़लिश…

 

खलिश भी होती कुछ ऐसी चीज़ है

जो मिटाए नहीं मिटती,

कोई इरेज़र काम नहीं आता,

कोई वाइपर इसे नहीं हटा पाता,

किसी नेट में यह नहीं पकड़ आती,

बस यह घर बसाए रहती है

दिल में, जिगर में, आँखों में…

 

बस यह कभी-कभी निकल जाती अब्र बनकर;

कुछ पल को ज़हन शांत हो जाता है,

पर फिर जोर से थरथराता है,

एक बार फिर आकर वहाँ

खलिश घर बना ही लेती है-

और ज़िंदगी है कि

चलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यमदूत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – यमदूत

मुझे प्रायः

दिखते हैं यमदूत,

सुरक्षा रक्षक बनते

साथ कदमताल करते,

एस्कॉर्ट का यह घेरा

अभेद्य होता है

दुनियावी ऐबों से

रक्षा करता है,

व्यसन मेरे पास

फटक नहीं पाते

स्थितियों के व्यूह

डिगा नहीं पाते,

आदमी का भीतर

जगाये रखने का

साधन सच्चा होता है,

यमदूत का साथ

मनुष्य के लिए

अच्छा होता है!

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 4:56 बजे, 26.6.19 )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ खिड़की…/The Window… – Ms. Neelam Saxena Chandra ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Ms. Neelam Saxena Chandra’s mesmerizing poem  “खिड़की ….  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this awesome translation.)

Ms Neelam Saxena Chandra

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager, Indian Railways, Pune Division.

☆ खिड़की … ☆

वो कच्चा सा मिट्टी का घर,

और उसपर टंगी हुई वो खिड़की…

 

ऐसा लगता था जैसे

उसे किसी का इंतज़ार है…

 

किसका इंतज़ार था उसको?

उस घर के आसपास

न ही कोई मकाँ थे, न कोई सड़क…

 

जब मैंने उसे छूते हुए, उससे पूछा यह सवाल,

उसने मेरी आँख में आँख डालते हुए कहा,

“मुझे इंतज़ार है रास्ते का!”

मैं आश्चर्य से भरी लौट गयी…

 

पर अगले साल जब फिर उधर जाना हुआ

तो मेरी आँख खुली की खुली रह गयीं…

एक कच्चा रास्ता वहाँ वाकई बन गया था!

उस रास्ते को वो खिड़की बड़ी मुहब्बत से

देख रही थी, मानो वो दोनों ख़ामोशी में ही,

कुछ बातें कर रहे हों!

 

कई साल तक उधर जाना ही नहीं हुआ,

पर जब अब कई बरसों बाद फिर पहुंची तो देखा

कि उस कच्चे रास्ते की जगह,

कंक्रीट का पक्का रास्ता बन गया था

और छुप गया था वो कच्चा रास्ता उसके नीचे…

 

मुझे लगा शायद अब खिड़की बहुत खुश होगी-

आखिर उसके पास से ही एक नया रास्ता गुज़र रहा था…

पर उस खिड़की को मैंने बहुत उदास पाया!

उससे जब मैंने पूछा कि “क्या हुआ है उसे”

तो वो तुनककर बोली,

“पहली मुहब्बत को भुलाया जा सकता है क्या भला?

वो रास्ता भले ही कच्चा था,

पर वो सिर्फ और सिर्फ मेरा था

और केवल मुझसे ही मुहब्बत करता था-

अब इस पक्के रास्ते के चारों तरफ

हज़ारों पक्के मकाँ बन चुके हैं,

उनकी खिड़कियाँ भी बहुत खूबसूरत हैं,

और वो नया रास्ता मुझे देखता भी नहीं!”

 

उस रास्ते पर चलकर जब मैं वापस आने लगी,

तो कहीं से उस दबे हुए कच्चे रास्ते की हलकी सी आवाज़

आ तो रही थी, पर वो पक्का रास्ता उसे दबा दे रहा था,

उसपर बेधड़क चली जा रही स्टाइलिश गाड़ियों से!

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

☆ The Window….

 That mud clay house,

adorn with the ageless window, precariously hanging on it …

As if, endlessly

waiting for someone…

 

Always wondered,

what could it be waiting for?

Since, around that house

Neither were there any houses, nor were any roads…

Delicately tapping it,

I asked quizzically about the reason,

It said, staring straight into my eyes,

“I’m waiting for the pathway!”

Bewildered, I returned with astonishment…

 

But the next year,

when I visited it again

My eyes were literally

awestruck to see…

A rough dusty road was indeed there!

And, the smitten window was chitchatting with it gladly

As if, they were both greatly in love with each other,

oblivious of the passersby!

 

Time flew off,

Couldn’t visit the place for a long time,

But soon, got the chance to visit it again,

Found that instead of  dusty pathway,

a concrete road was laid majestically,

And that rustic pathway was hidden somewhere under it…

 

Thinking, maybe the window must be very happy now-

After all, a new flashy road was passing below it …

Alas! I found the window to be very sad…

Curious about the reason of its sombre state, I inquired: “What happened to you?”

It retorted nonchalantly,

“Can you ever forget your first love?

Even though that path was raw-and-rustic,

It was mine and mine only…

And it used to love me only-

Now around this concrete path thousands of new houses have been made,

with plenty of enchanting windows which are way beautiful than me,

And that new path doesn’t even care to look at me!”

 

Dumbfounded, I started my return journey…,

The meek sound of that buried rustic road

was barely audible

As if, the new concrete road had choked its throat, excruciatingly…

With swanky dashing vehicles  zooming past, deafeningly revving over it…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 89 ☆ ककनमठ (उपन्यास) – पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  उपन्यास  “ककनमठ ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – उपन्यास – ककनमठ  # 89 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – उपन्यास  – ककनमठ 

लेखक –  पंडित छोटेलाल भारद्वाज

पृष्ठ – 180

मूल्य – 500 रु

☆ पुस्तक चर्चा ☆ उपन्यास – ककनमठ  –  पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

विक्रम संवत 1015 से 1025 के मध्य काल में अद्भुत विशाल कच्छप घात राजवंश के शैव संप्रदाय में राजा कीर्तिराज और रानी कंगनावती के प्रेम की परिणीति के स्मारक के रूप में भगवान शंकर का विशाल लगभग 115 फिट ऊंचा मंदिर ककनमठ का निर्माण कराया गया था,  जो आज भी मुरैना जिले के अश्व नदी के किनारे महमूद ग़ज़नवी, अल्तमश और अन्य सिकंदर लोदी जैसे आक्रांताओं के प्रहारों को सहने के कारण क्षत-विक्षत स्वरूप में ही भले हो पर अपना गौरवशाली इतिहास समेटे हुए मीलों दूर से उच्च मीनार जैसा दिखने वाला शिल्प समुच्चय  आज भी मौजूद है । राजा कीर्तिराज और कंकण की प्रेम कहानी की अमरता का यह आध्यात्मिक  प्रतीक बना । प्रेम के आध्यात्मिक परिणीति की हमारी पुरातन संस्कृति का यह स्मारक खजुराहो, कोणार्क जैसे भव्य मंदिरों श्रृंखला में एक कम चर्चित पर पौराणिक स्थल है।

लेखक ने इस पुरातात्विक स्मारक के ऐतिहासिक मूल्यों की रक्षा  करते हुए जनश्रुतियों के आधार पर कहानी को बुना है।  सरल भाषा में यह ऐतिहासिक विषय वस्तु का उपन्यास पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।

यह महमूद गजनवी  जैसे आक्रांता पर राजा कीर्तिराज की वीरता पूर्ण जीत का भी गवाह है। जिसके कारण गजनवी केवल लूटपाट करके ही इस क्षेत्र से भाग गया था।

उपन्यास में वर्णन के माध्यम से लेखक ने अनेक शाश्वत मूल्य को भी स्थान दिया है उदाहरण के तौर पर गुरु हृदय शिव राजा से कीर्ति राज से कहते हैं “वत्स राज्य संचालन के लिए हृदय की जिस गरिमा की आवश्यकता है वही देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है संकुचित है ना स्वयं की रक्षा कर पाता है और ना अपने देश की”

यह ऐतिहासिक आंचलिक कथावस्तु पर आधारित उपन्यास वीरता व प्रेम का दस्तावेज भी है, जो तब तक प्रासंगिक बना रहेगा जब तक ककनमठ के क्षतिग्रस्त अवशेष भी हमारी धरोहर बने रहेंगे।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 77 – लघुकथा – लाइक्स वाली दादी…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर विनोदपूर्ण लघुकथा  “लाईक वाली दादी….। आज सोशल मीडिया हमारे जीवन में हावी हो गया है।  हम सब  सोशल मीडिया की दुनिया में सीमित होते जा रहे हैं और आपसी मेलजोल की जगह लाइक्स और कमैंट्स लेते जा रहे हैं। इस लघुकथा के माध्यम से  सोशल मीडिया से उपजे विनोद का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘लाईक वाली दादी’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 77 ☆

? लघुकथा – लाईक वाली दादी …. ?

सकारात्मक सोच जीवन में नई ऊर्जा भर देती है। ऐसे ही कोरोना काल में पड़ोस में रहने वाली दीप्ति को बिटिया हुई। देखभाल के लिए उसके मम्मी पापा लखनऊ ले गए।

लगभग आठ महीने के बाद बच्ची को लेकर दीप्ति बहू घर आई। क्योंकि, उसकी सासु माँ का अचानक अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। तब तक आवागमन के साधन नहीं शुरू हुए थे। घर में आना-जाना शुरु हो गया। सासु माँ की सहेलियां, पड़ोस की सभी मिलने आने लगी। बच्ची सभी को देखते ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती। यहां तक कि उसकी और सगी दादी को भी वह देखकर रोती थी।

मोहल्ले में चर्चा का विषय बन गया। ‘हाय बाई! कैसे देखन जाएं उसकी मोड़ी तो जाते ही रोने लगती है।’ सासू माँ की एक सहेली जिसका आना जाना तो कम होता था परंतु समय के अनुसार वह मोबाइल और फेसबुक के कारण सभी समाचार प्राप्त कर लेती थी।

वे थोड़ी आधुनिक विचार की थी। दीप्ति की शादी से लेकर डिलीवरी तक का हालचाल वह व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही शेयर और लाइक करती। दीप्ति भी बच्ची की तस्वीर लगातार दो चार दिनों में डालती रहती। सभी में लाइक और गुड कमेंट लिखा करती थी सहेली आंटी।

वह देखने घर पहुंच गई। दीप्ति बच्ची को उस समय खाना खिला रही थी। सासु माँ बोली – “अभी ये रोना शुरु कर देगी। बात भी नहीं करने देगी।” परंतु यह क्या बच्ची तो सहेली आंटी को देखते ही खिल – खिलाकर हंसने लगी।

सभी आश्चर्य से देखने लगे। लिटाए हुए बेबी को सहेली ने गोद में उठा कर लेना चाहा। सभी ने मना किया। परंतु वह गोद में ले कर हंसते हुए स्वयं खिलखिलाती बच्ची को गोद में उठाकर कहने लगी- “इसको मालूम है मैं फेसबुक में सबसे ज्यादा लाइक करने वाली दादी हूँ। इसको भी पता है लाइक नहीं करुंगी तो???”

सभी का मुँह खुला का खुला ही रह गया। भाई साहब जो अब तक चुप थे कहने लगे- “मैं भी आज फ्रेंड रिक्वेस्ट जल्द ही भेज रहा हूँ। एक बार फिर हंसी फूट पड़ी। ??

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३८॥ ☆

 अप्य अन्यस्मिञ जलधर महाकालम आसाद्य काले

स्थातव्यं ते नयनविषयं यावद अत्येति भानुः

कुर्वन सन्ध्यावलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयाम

आमन्द्राणां फलम अविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम॥१.३८॥

कहीं शाम के पूर्व जो मेघ पहुंचो

वहां सूर्य के अस्त तक विरम जाना

त्रिशूली महाकाल के सांध्यवंदन

समय गर्ज दुन्दुभि बजा पुण्य पाना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय ☆ ‘आजोपिझ्झा’ दुसर्‍या आवृत्तीचे प्रकाशन – सौ सावित्री जगदाळे ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ ‘आजोपिझ्झा’ दुसर्‍या आवृत्तीचे प्रकाशन – सौ सावित्री जगदाळे ☆

सौ. सावित्री जगदाळे

?? अभिनंदन! अभिनंदन! अभिनंदन! ??

☆ संपादकीय ☆

ई–अभिव्यक्तीच्या लेखिका सौ. सावित्री जगदाळे यांच्या आजोपिझ्झा या बालकथेच्या दुसर्‍या आवृत्तीचे प्रकाशन 26 डिसेंबर रोजी झाले.

आजच्या अंकात या पुस्तकाविषयीचे त्यांचे मनोगत वाचा.

? त्यांचे ई–अभिव्यक्तीतर्फे अभिनंदन व पुढील वाटचालीसाठी शुभेच्छा ?

 

सम्पादक मंडळ (मराठी) 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर  

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 94212254910

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 83 ☆ विचारांची चादर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 83 ☆

☆ विचारांची चादर ☆

उजाडलेल्या अस्तित्वाची

झोपलेल्या देहाला जाणीव होते

बंद डोळ्यांना

प्रकाश किरणांची

चाहूल लागताच

मंदावलेली स्पंदणे

कार्यरत होतात

देहावरची स्वच्छ चादर झटकून

प्रसन्न विचारांचा रथ

धावू लागतो प्रगती पथावर

कधीकधी ह्याच चादरीवर

अविचारांचा धुरळा बसायला सुरूवात होते

चादरीच्या छिद्रांमधे

दाटी वाटीने बसतात धुळीचे कण

मज्जाव करतात

सूर्यकिरणांनाही आत येण्यास

आणि आपण बसतो

पहाट होण्याची वाट बघत…

 

काळोखाच्या महासागरात

गटांगळ्या खावू लागतो

सुन्न झालेला देह

सागराचा तळ ओढत असतो पाय

मळक्या चादरीसह

मरून जाते हातपाय मारण्याची इच्छा

साऱ्या भविष्याच्या वाटा

अंधुक दिसू लागतात

बुजलेल्या छिद्रांमुळे

स्वच्छ विचारांची चादर

अविचारांच्या धुळीने

काळीकुट्ट होण्यापूर्वी

नीती मुल्यांच्या साबणाने

धुवायला हवी…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चाहूल… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ चाहूल… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆ 

चाहूल कशी लागते बकुळीला तुझ्या येण्याची

वेळ साधते बघ ती तुझ्या गालावर फुलण्याची.

 

ओढ कशी लागते पुन्हा इश्क जगण्याची

वर्दी कोण देते ग मनाला तुझ्या येण्याची.

 

ऊर्मी येते कुठून पुन्हा घायाळ होण्याची

हौस फिटली न अजुनी माझी दर्द सहण्याची.

 

उमगली न मला अजुनी तऱ्हा तुझ्या प्रेमाची,

भाषा कधीच न कळली तुझी गूढ जपण्याची.

 

येतील जातील वर्षे,यत्न दुःखे विसरण्याची

वहिवाट हीच जीवनी बकुल टिपण्याची.

 

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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