हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “जल है तो कल है“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆

✍ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

जल की उपयोगिता और आवश्यकता बताने के लिए तरह तरह के नारे लगाए जा रहे हैं। रणजीत जब भी घर में देखता है कि नल चल रहा है और उसकी मम्मी बर्तन घिस रही है। यानी पानी बेकार बह रहा है। वह चीख पड़ता है, “मम्मी, प्लीज़, नल तो बंद कर दो, पानी बेकार बह रहा है। अगर ऐसे ही पानी बहाना है तो यह स्लोगन क्यों टाँग रखा है, “जल है तो कल है।”

रणजीत घर से बाहर निकल जाता है। उसका मन उदास हो जाता है। अभी वह दस वर्ष का है और सोचता है ” जब मैं जवान होऊंगा तो पानी की हालत क्या होगी।  क्या हम प्यासे ही मर जाएंगे?”  वह अपनी गर्दन झटकता है, “नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अपने भविष्य के लिए कुछ करना होगा।” सोहन की आवाज़ सुनकर वह होश में आता है। सोहन पूछता है,”कहाँ खोए हुए थे।” विचारमग्न अवस्था में रणजीत ने सोहन से पूछा, ” तुम्हारे घर में ऐसा होता है कि नल चलता रहे और पानी बहता रहे।” सोहन बोला, “हाँ होता है, माँ बर्तन माँजती है तो नल चलता रहता है। ऐसे ही नहाते समय भी होता है कि हम साबुन लगा रहे होते हैं पर नल चलता रहता है। लेकिन हुआ क्या?”

रणजीत ने धीरे से कहा, ” यार ऐसे ही चलता रहा तो हम बड़े होकर प्यासे ही मर जाएंगे। हमारे लिए तो पानी बचेगा ही नहीं।  सब कहते हैं, जल है तो कल है, पर कल की चिंता तो किसी को है ही नहीं।”  सोहन बोला, ” हाँ रणजीत मैंने जगह जगह लिखा देखा है, जल है तो कल है, पर पानी बरबाद करते रहते हैं।  मैंने बड़े लोगों के मुँह से सुना है कि जमीन में पानी का लेवल नीचे चला गया है, पीने के पानी का संकट बढता जा रहा है।” रणजीत बोला, ” यही तो मेरी चिंता है पर हम छोटे बच्चे हैं, करें क्या?” सोहन बोला, “कहते तो तुम ठीक हो। क्या स्कूल में अपनी मिस से बात करें। वो बहुत अच्छी हैं और बड़ी भी हैं, हमारी बात सुनेंगी और कुछ करेंगी भी। घर में तो किसी से कहना बेकार है। ऐसी बातों को फालतू समझते हैं।” “तो मिला हाथ, कल मिस से बात करेंगे।” सोहन गर्व से बोला। लेकिन दोनों बच्चों ने और प्रयास किए और अपनी क्लास के बच्चों को भी बताया। पूरी क्लास के बच्चे मिस से बात करने को तैयार हो गए।

जब मिस से बात की तो वह बहुत प्रभावित हुई और उसने कहा कि शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। उसने कहा ” घर जाकर एक तख्ती पर लिखना “हमारी रक्षा करो, जल है तो कल है, और हम ही कल हैं।”  और दो दो या चार बच्चे वह तख्ती लेकर अपनी सोसायटी में मेन गेट के पास ऐसे खड़े होना कि आने जाने वाले सभी लोग तख्ती देख पढ सकें।”… “और हाँ अगले दिन तख्ती लेकर स्कूल में आ जाना।” बच्चों ने ऐसा ही किया। लोग रुकते और तख्ती पढकर अपने घर चले जाते।  रणजीत जब अपने घर पहुँचा तो उसकी मम्मी ने बड़े लाड़ से अपने पास बिठाया और दोनों कानों पर हाथ रखकर कहने लगी ” सॉरी रणजीत, ऐसी गलती अब नहीं होगी।” ऐसा ही कुछ सोहन के यहाँ भी हुआ। रणजीत अपनी सफलता पर बहुत खुश हुआ। अगले दिन रणजीत की क्लास के बच्चे स्कूल पहुँचे तो अपने अपने घर के अनुभव मिस को सुनाए। अब मिस ने स्कूल छूटने के समय उन बच्चों को एक कतार में खड़ा कर दिया जहाँ बच्चों को लेने पेरेंट्स आते हैं। सभी बच्चों के पेरेंट्स ने पढा। दूसरे दिन स्कूल के सभी बच्चे तख्ती बनाकर ले आए। और तख्ती हाथ में लेकर स्कूल से निकलने लगे।

 मिस ने बच्चों को समझाया कि जब किसी चौराहे पर लाल बत्ती देखकर तुम्हारी गाड़ी रुक जाए तो गाड़ी से उतर कर सबको तख्ती दिखलाओ। धीरे धीरे तख्ती की खबर मीडिया तक पहुँची। और अखबारों तथा चैनलों पर इसकी चर्चा होने लगी। रणजीत और सोहन बहुत खुश थे कि उन्होंने अपने कल के लिए कुछ तो किया। अपना कल बचाने की दिशा में एक छोटा सा कदम।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 577 ⇒ बहुत बड़ा आदमी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बहुत बड़ा आदमी।)

?अभी अभी # 577 ⇒ बहुत बड़ा आदमी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे शहर में जब जैमिनी सर्कस आता था, तो शाम को आकाश से सर्च लाइट चमकती थी और दिन में दो लंबे बांस के ऊपर चलता आदमी जैमिनी सर्कस का प्रचार करता हुआ सड़क पर चलता नज़र आता था। हमारी नज़र में तब वह सबसे बड़ा आदमी नज़र आता था।

समय समय की बात है ! जैसे जैसे हम बड़े होते गए, बड़े और बहुत बड़े आदमी की परिभाषा बदलती चली गई। सड़क पर खड़े पुलिस वाले से, पुलिस बाबा राम राम कहना, बड़े फख्र की बात थी, और जब वह जवाब देता, तो यही फीलिंग आती थी, मानो किसी बड़े आदमी से मिलकर आ रहे हों। जब कोई बड़ा आदमी पूछता, बेटा, बड़े होकर क्या बनोगे, तो मुँह से झट से पुलिस वाला ऐसा निकलता था, मानो अमेरिका का राष्ट्रपति बनने की बात कही हो।।

ईश्वर की निगाह में हर इंसान बराबर है। आदमी की एक जात होती है, लेकिन हर आदमी की अपनी औकात भी होती है। आप सुविधा की दृष्टि से इन्हें छोटा आदमी, आम आदमी, बड़ा आदमी और बहुत बड़ा आदमी कह सकते हैं।

छोटा आदमी बड़ा सुखी होता है, वह सिर्फ आदमी बनना चाहता है। उसे बड़ा आदमी नहीं बनना ! बड़ा आदमी बनना इतना आसान भी नहीं। खूब पढ़ना-लिखना, धंधा-व्यापार करना, रिश्वत लेना-देना, शेयर मार्केट पर नज़र रखना सबके बस की बात नहीं। राजनीति में चालाक, धूर्त, बेईमान और स्वार्थी बने बिना क्या कोई बड़ा आदमी बना है। ईमानदार बनने और दिखने में बड़ा अंतर होता है।।

कोशिश करके छोटा आदमी, आदमी भी बना रह सकता है, और बड़ा आदमी भी बन सकता है, लेकिन बहुत बड़ा आदमी बनना इतना आसान नहीं ! आपकी पहुँच किसी बड़े आदमी तक तो आसानी से हो सकती है, लेकिन बहुत बड़े आदमी तक पहुँचने के लिए आपको कम से कम बड़ा आदमी तो बनना ही होगा।

हममें से बहुत, बड़े आदमी बन गए, लेकिन उनमें से जो बहुत बड़े आदमी बन गए, वो हमसे बहुत दूर चले गए। अब हम उनके महज प्रशंसक बन रह गए। आप whatsapp पर अपने मित्रों, रिश्तेदारों और परिचितों से जुड़ सकते हो। कई बड़े आदमी आपके फेसबुक फ़्रेंड भी हो सकते हैं। लेकिन बहुत बड़ा आदमी आजकल केवल ट्विटर पर उपलब्ध होता है, और फेसबुक पर वायरल होता है।।

बहुत बड़े आदमी आजकल ट्वीट करते हैं। ट्विटर पर उनके प्रशंसकों के आंकड़े आते हैं। बहुत बड़े आदमी के प्रशंसक ही फेसबुक पर उसका मोर्चा संभाल लेते हैं। बहुत बड़े आदमी का सम्मान उनका सम्मान होता है, और बहुत बड़े आदमी का अपमान, उनका अपना अपमान। आप बहुत से बड़े आदमियों को जानते होंगे, लेकिन वे आपको नहीं, केवल अपने प्रशंसकों को जानते हैं। हर आदमी किसी बहुत बड़े आदमी को जानता है, लेकिन बहुत बड़ा आदमी उस आदमी को नहीं जानता।

बहुत से आदमी आज भी ऐसे हैं जो सिर्फ बिग बी और मोदी जी को ही बहुत बड़ा आदमी मानते हैं। बहुत बड़े आदमी को जाना नहीं जाता, सिर्फ माना जाता है। इसमें आखिर अपना क्या जाता है। आप जिसे चाहें बड़ा आदमी मानें, जिसे चाहे, बहुत बड़ा आदमी, आपकी मर्जी, आपकी पसंद। बस, उसमें एक खूबी हो, वह आदमी पहले हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिस मैचिंग।)

☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

एक रिसोर्ट में पार्टी हैं ऑफिस के सभी लोग अपने परिवार के साथ आ रहे हैं। मेरे बॉस सुशांत सर ने कहा है कि तुम्हें जरूर आना है। तुम ठीक 1:00 बजे पहुंच जाना अरुण ने फोन पर कहा। घर के काम और सभी की सेवा में रोज लगी रहती हो देखना देर नहीं होनी चाहिए?

प्राची ने अपनी सास से कहा कि मां मुझे ऑफिस की पार्टी में जाना है घर का सारा काम हो चुका है मैं 11:00 बजे निकलती हूं तभी समय पर वहां पहुंच पाऊंगी।

सास ने हां कर दी बोली तुम जाओ तुम्हारे पति को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है। उसने जीवन में कोई काम अच्छा नहीं किया। लेकिन, तुम्हें चुनकर हमारे लिए यह काम सबसे अच्छा किया है।

वह तैयार होकर पीले परिधान में जाती है पर उसका उसे शूट के साथ का दुपट्टा नहीं मिल रहा था इसलिए उसने लाल रंग का दुपट्टा डाला और एक पीला शॉल लेकर घर से बाहर निकली।

उसे विचार आया कि क्यों ना मैं सिटी बस में बैठकर आराम से जाती हूं, एंजॉय करते हुए जैसे कॉलेज में अपनी सखियों के साथ जाती थी। बस में बैठकर उसने कंडक्टर से कहा जब सिटी पार्क आएगा तो मुझे बता देना ।

बस पूरी खचाखच भरी थी उसमें कुछ बेचने वाले भी चढ़ गए थे। कई लोग खरीद भी रहे थे।  उसने भी दो कान के झुमके और चूड़ियां खरीद लिया।

फिर सोचने लगी की कॉलेज के दिन कितने अच्छे थे तब अरुण मेरा कितना ख्याल भी रखते थे लेकिन यह नहीं पता था कि वह अकाउंटेंट और गणित में इतना खो जाएंगे। एक-एक चीज का हिसाब किताब रखेंगे। अब तो पल-पल और सांसों का भी हिसाब किताब रखते हैं।

काश! मैं भी कुछ काम करती लेकिन घर में सब लोगों के चेहरे पर खुशी देखकर मुझे एक  शांति मिलती है।

तभी फोन की घंटी बाजी। उसने उठाया और कहा हेलो इतनी देर से मैं तुम्हें फोन कर रहा हूं तुम फोन उठा क्यों नहीं रही हो, घर से निकली या नहीं?

हां मैं घर से निकल चुकी हूं आप चिंता मत करो  सिटी पार्क में आपको मिल जाऊंगी। आधे घंटे में मैं वहां पहुंच जाऊंगी। अरे तुम तो जल्दी आ गई। ठीक है मैं भी ऑफिस से वहां पर पहुंच जाता हूं। वह जैसे ही बस से उतरती है तो देखती है कि अरुण वहीं पर खड़ा है। तुमने झूठ क्यों कहा कि तुम देर से पहुंचोगे।

यह तुमने क्या पहन रखा है?

आज के दिन पीला कलर का कपड़ा पहनना चाहिए और मुझे दुपट्टा नहीं मिल रहा था ? आजकल फैशन भी यही है?

अरुण धीरे से मुस्कुराया। तुम अच्छी लग रही हो।

मैं या मेरे कपड़े प्राची ने कहा।

तुम्हारे कपड़े भी हमारी तरह है हम लोग भी अलग होकर एक है मिस मैचिंग।

प्राची ने कहा – जिस तरह खिचड़ी संक्रांति में सब कुछ डालकर बनती है हम लोग भी ऐसे हैं।

दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर रिसोर्ट में जल्दी जल्दी जाने लगते हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ डॉ. ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ को बाल साहित्य कार्यों के लिए मिला मानद डॉक्टरेट – अभिनंदन ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

डॉ. ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ को बाल साहित्य कार्यों के लिए मिला मानद डॉक्टरेट – अभिनंदन ☆

प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ. ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ को उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए विश्व संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण आयोग द्वारा मानद डॉक्टरेट से सम्मानित किया गया है। डॉ. क्षत्रिय को यह सम्मान बाल साहित्य के क्षेत्र में उनके अद्वितीय योगदान और समाज सेवा के लिए दिया गया है। उनकी कई बाल पुस्तकें बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं और उन्होंने बच्चों के मन में पढ़ने की आदत डालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

डॉ. क्षत्रिय ने न केवल बाल साहित्य के माध्यम से बल्कि विभिन्न सामाजिक कार्यों के माध्यम से भी समाज सेवा की है। उन्होंने कई सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर काम किया है और जरूरतमंद लोगों की मदद की है।

विश्व संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण आयोग के निदेशक मंडल ने डॉ. क्षत्रिय के कार्यों को देखते हुए उन्हें यह सम्मान देने का निर्णय लिया। आयोग का मानना है कि डॉ. क्षत्रिय ने बाल साहित्य और सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है।

इस अवसर पर डॉ. क्षत्रिय ने कहा, “मुझे यह सम्मान मिलना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। मैं इस सम्मान को समर्पित करता हूँ अपने सभी पाठकों को, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया है।”

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई 💐

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 256 ☆ तिळगुळ… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 256 ?

☆ तिळगुळ… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

संक्रातीच्या गोड दिवसाच्या ,

अनेक आहेत आठवणी,

हेडसरांच्या घरी,

मिळायची मोठ्ठी तिळवडी!

आईच्या चंद्रकळेवर,

चांदण्याची खडी ,

संक्रातीचा दिवस खूपच छान,

लहानपणी नव्हतंच कसलं भान !

  आत्ताच आला ,

बालमैत्रीणीचा फोन,

“तिळगुळ घे गोड बोल”

म्हटलं, “तिळगुळ घे गोड बोल”!

 

“ओवसून आलीस का ?”

म्हटलं , “नाही गं , तसलं काही नाही करत !”

पूर्वी हे सर्व केलंय रूढी परंपरेनं,

अंतर्मुख झाले तिच्या फोन नं !

पारंपरिक जगणं,

सोडून माणूस म्हणून,

जगण्याचा ध्यास घेतला —

तेव्हापासूनच आयुष्य,

मुक्त होत गेलेलं!

जगण्याचे दोन प्रवाह,

समांतर!!

बदललं आयुष्य पण—

तिळ आणि गुळ तोच —

जीवनाची गोडी वाढवीत,

दरवर्षीच तो संदेश देणारा–

  तिळगुळ घ्या गोड बोला

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सण संक्रांतीचा… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

?  कवितेचा उत्सव  ?

☆ सण संक्रांतीचा… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

 सण संक्रांतीचा येता,

 सुगीचा हा काळ आला!

निसर्गाच्या लयलुटीचा,

 बहर सर्वत्र पसरला !… १

 *

 निरभ्र आकाशात जमला,

 रंगीत पतंगांचा मेळा!

 आनंद त्याचा लुटण्याला,

 सान – थोर झाले गोळा!… २

 *

 तिळगुळ आणि हलव्याचा,

 सुगंध मनी दरवळला!

 थंडीत शेकोटीचा आनंद,

 जमले सगळे लुटण्याला!… ३

 *

 जात, धर्म, पंथ सगळे,

 विसरून जाती आनंदात!

 एकमेकाप्रती सौहार्दाचा,

 तिळगुळ देऊन सौख्य लुटत!… ४

 *

 होता सूर्याचे संक्रमण,

 दिवस होई मोठा मोठा!

 ऋतुचक्राच्या संगतीत,

 लुटु या आनंदाचा साठा!… ५

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हिंदमाता- हिंदपुत्र… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हिंदमाता- हिंदपुत्र… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

(राजमाता जिजाऊ व स्वामी विवेकानंद यांचे जयंती थोरवीस)

 एक ज्ञानयोगी एक राजमाता

थोर शौर्यगाथा जिजा नरेंद्र.

*

दोन्ही सुसंस्कारे हिंदवी धर्माशी

सज्ञाने कर्माशी अहंः विनाशा.

*

भुमी उपासना देशास अखंड

गुलामीस बंड विचार निती.

*

 विवेक शिवबा जन्मा प्रजारक्षे

स्वरुप प्रत्यक्षे दुष्टासंहार.

*

माऊली जिजाऊ नरेंद्र ज्ञानेश

भारता संदेश हिंदवी गाथा.

*

 वंदावे प्रार्थना मुर्तींचे चरण

असावे स्मरण सुस्वराज्याशी.

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मकर संक्रांत… ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

?  विविधा ?

☆ मकर संक्रांत… ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

हिंदू संस्कृतीतील इंग्रजी तारखे प्रमाणे येणारा एकमेव सण म्हणजे ‘ मकर संक्रांत ‘. पौष महिन्यातला हा महत्त्वाचा सण. संक्रमण याचा अर्थ ओलांडून जाणे किंवा पुढे जाणे. संक्रांतीच्या सण म्हणजे निसर्गाचा उत्सव आहे असे म्हणायला हरकत नाही. भारत हा कृषिप्रधान देश असल्याने, निसर्गाशी, शेतीशी, पर्यावरणाशी, आयुर्वेदाशी निगडित असणारा असा हा उत्सव आहे. 22 डिसेंबर पासून सूर्याच्या उत्तरायणाला सुरुवात झाली तरी, सूर्य धनु राशीतून मकर राशीत प्रवेश करतो, संक्रमण करतो तो दिवस 14 जानेवारी. मकर संक्रांत ही सूर्यभ्रमणामुळे पडणारा फरक भरून काढण्यासाठी दर आठ वर्षांनी संक्रांतीचा दिवस एक दिवस पुढे ढकलला जातो. आणि 15 जानेवारीला तो सण उत्सव साजरा केला जातो. मकर राशीतील प्रवेशानंतर सूर्याचे तेज वाढत जाते. दिवसाचा काळ मोठा आणि रात्रीचा काळ लहान व्हायला सुरुवात होते. संपूर्ण देशभर हा उत्सव किंवा सण साजरा केला जातो. पौराणिक, भौगोलिक, अध्यात्मिक, संस्कृतिक, ऐतिहासिक अशा सर्व दृष्टीने या सणाचे महत्त्व आहे. पुढे येणाऱ्या रथसप्तमी पर्यंत तो साजरा केला जातो. वेगवेगळ्या प्रदेशानुसार या सणाची नावे आणि साजरा करण्याच्या पद्धती वेगवेगळ्या आहेत. महाराष्ट्रात ‘संक्रांत, ‘ तामिळनाडूमध्ये ‘पोंगल’, कर्नाटक आणि केरळ मध्ये ‘संक्रांति’, उडपी भागात ‘संक्रमण, ‘ तर काही ठिकाणी या दिवशी सूर्याने उत्तरायणी चळवळ सुरू केली म्हणून त्यास ‘उत्तरायण’ असेही म्हणतात. तसेच शेतात धान्याची कापणी चालू असते म्हणून ‘कापणीचा सण’ असेही म्हणतात. तेलुगु लोक त्याला ‘बेंडा पाडुंगा ‘, तसेच बुंदेलखंडात ‘सकृत ‘, उत्तर प्रदेश बिहारमध्ये खिचडी करून ती सूर्यदेवाला अर्पण करून दानही दिले जाते, त्यामुळे या दिवसाला ते ‘खिचडी ‘असेच म्हणतात. हिमाचल आणि हरियाणा मध्ये ‘मगही ‘ आणि पंजाब मध्ये ‘लोव्ही, ‘ मध्यप्रदेशात ‘सक्रास, ‘ जम्मूमध्ये ‘उत्तरैन ‘, काश्मीरमध्ये ‘ शिशुर सेन्क्रांत ‘, आसाम मध्ये ‘ ‘भोगाली बिहू ‘असे म्हणतात. ओरिसामध्ये आदिवासी लोक या दिवसापासून नवीन वर्ष सुरू करतात. केरळमध्ये तर हा उत्सव ७, १४ २१ किंवा ४० दिवसांचाही करून, संक्रांती दिवशी त्याची सांगता करतात. गुजरात मध्ये आजही तिळाच्या लाडू मध्ये दान घालून, गुप्त दान देण्याची प्रथा आहे. तसेच तेथे पतंग उडविण्याच्या स्पर्धाही घेतल्या जातात. त्यामागील शास्त्र म्हणजे पतंग उडविण्यासाठी मैदानात जावे लागते. आणि आपोआप सौरस्नान घडते. सूर्याच्या संक्रमणाशी जीवनाचे संक्रमणही जोडलेले आहे. त्या दृष्टीने या उत्सवाचे सांस्कृतिक दृष्ट्या ही खूप महत्त्व आहे. संपूर्ण देशभर हा सण साजरा होत असल्याने विविधतेत एकता (युनिटी इन डायव्हर्सिटी )आणणारा असा हा सण आहे असे म्हणायला हरकत नाही. केवळ भारतातच नाही

तर थायलंड, लाओस, म्यानमार येथेही हा सण साजरा करतात. या दिवसानंतर हळूहळू ऋतूतही बदल होतो.

सूर्याचा (पृथ्वीचा) धनु रास ते मकर रास या प्रवासाच्या काळाला ‘धनुर्मास ‘ किंवा ‘धुंधुरमास ‘ म्हणतात. (१३ डिसेंबर ते १३ जानेवारी). मकर संक्रांतीचा आदला दिवस ‘भोगी’ हा धनुर्मासाचा शेवटचा दिवस. या काळात एक दिवस पहाटे स्वयंपाक करून उगवत्या सूर्याला नैवेद्य दाखविला जातो. संक्रांतीचा तीन दिवसांचा उत्सव असतो. भोगी, संक्रांत, आणि किंक्रांत.

भोगी दिवशी सुगडाच्या (मातीचा घट) पूजेला महत्त्व असते. मातीचे नवीन घट (दोन किंवा पाच) आणून त्यामध्ये छोटी बोळकी (ज्याला चिल्लीपिल्ली म्हणतात.) ठेवून, या ऋतूत आलेले घेवडा, सोलाणा, गाजर, ऊस, बोरं, गहू, तिळगुळ असे जिन्नस त्यात भरून ते देवापुढे ठेवून त्याची पूजा करतात. एका सुपामध्ये बाजरीचे पीठ, कांदा, शेंगा, मुंगडाळ, वांग, वस्त्र, विड्याची पानं, दक्षिणा, सुपारी, इतकच नाही तर स्नानासाठी, खोबरेल तेल, शीकेकाई, असे सर्व ठेवून ते स्नानापूर्वी सुवासिनीला वाण (भोगी) देण्याची पद्धत आहे. त्या दिवशीच्या स्वयंपाकात तीळ लावून बाजरीची भाकरी, राळ्याचा भात, खिचडी, सर्व भाज्या एकत्र करून मिक्स भाजी, (त्या भाजीला लेकुरवाळ म्हणतात) भरपूर लोणी, दही असा आरोग्यदायी थाट असतो.

यानंतरचा मुख्य दिवस ‘संक्रांत’. या दिवसाची एक पौराणिक कथाही सांगतात. संक्रांत देवीने शंकरासुर दैत्याचा वध केला. तो हा आनंदाचा दिवस मानला जातो. संक्रांति म्हणजे ‘ सम्यक क्रांती’. क्रांती मध्ये हिंसेला महत्त्व असेल, पण सं – क्रांतीमध्ये, मानवी मनाचे संकल्प बदलण्याचा विचार असतो. संक्रांती म्हणजे ‘संघक्रांती ‘. प्रत्येकाने मुक्त, आनंदी जीवन जगणाऱ्या लोकांशी संघयुक्त होऊन षड्रिपूं पासून दूर राहण्याचा संकल्प करायला हवा, असा एक विचार आहे. संक्रांती म्हणजे ‘संघक्रांती, ‘संघे शक्ति कलौयुगे’. संघामध्ये शक्ती विपुल प्रमाणात एकत्र आल्याने कठीण कार्यही सहजगत्या पार पडते. हा सण- उत्सव लोकांना जोडण्याचे काम करतो. म्हणून आनंद, सुसंवाद आणि ऐक्य तसेच अंधाराकडून प्रकाशाकडे जाण्याचा मार्ग (तमसोमा ज्योतिर्गमय ) असा मानला जातो. या दिवशी रात्र आणि दिवस समसमान असतात. हळूहळू नंतर दिवस मोठा व्हायला लागतो आणि रात्र लहान व्हायला लागते.

संक्रांतीला तीळ (स्नेह ) गुळ (गोडी) याला महत्त्व आहे. आयुर्वेदानुसार थंडीच्या दिवसात रुक्ष झालेल्या शरीराला स्निग्धतेची आणि उष्णतेची गरज असते. ती गरज भागवणारे तीळ आणि गूळ हे सर्वोत्तम खाद्य आहे. या दिवशी तीळयुक्त पाण्याने स्नान करतात. अध्यात्मानुसार तिळामध्ये इतर तेलांपेक्षा सत्व लहरी ग्रहण करण्याची क्षमता जास्त असल्याने, सूर्याच्या संक्रमण काळात साधना चांगले होते. तिळाचे तेल पुष्टीप्रदही असते. या दिवशी ब्राह्मणांना तीळ दान, आणि शिवमंदिरात तिळाच्या तेलाचे दिवे लावतात. पितृश्राद्ध करून, तिलांजली देऊन, तर्पण करतात. तिळामुळे असुर श्राद्धात विघ्न आणत नाहीत अशी समजूत आहे. जेवणात गुळाच्या किंवा पुरणाच्या पोळ्या हे मुख्य पक्वान्न असते. आप्तेष्टांना तीळ- गुळाची वडी- लाडू देऊन, ” “तिळगुळ घ्या गोड बोला” असे शब्द उच्चारले जातात. तिलवत वद स, स्नेह गुडवत मधुरं वद/ उभयस्य प्रदानेन स्नेहवृद्धी: चिरंभवेत “अशी सदिच्छा व्यक्त केली जाते. काही जण पुण्यकाळाच्या मुहूर्तावर सूर्य देवाला आर्घ्य देऊन, आरती करून, सूर्य मंत्र (चांगल्या भविष्यासाठी २१ किंवा १०८ वेळा पठण करतात. पूजेच्या वेळी काही भाविक १२ मुखी रुद्राक्ष धारण करतात. त्यामुळे चेतना व वैश्विक बुद्धिमत्ता बऱ्याच पातळ्यांपर्यंत वाढून कामे यशस्वी होतात, असा समज आहे. शनिदेव मकर राशीचे स्वामी असल्याने जप, तप, ध्यान अशा धार्मिक क्रियां नाही महत्त्व आहे.

नवीन लग्न झालेल्या मुलीला सासरचे लोक काळी साडी, हलव्याचे दागिने आणि तिळगुळ आणतात. तसेच जावयाला हार. गुच्छ वाटीत ( चांदी किंवा स्टील ऐपतीप्रमाणे) तिळगुळ घालून देतात. त्याचप्रमाणे लहान बाळालाही, काळे कपडे व हलव्याचे दागिने घालून बोरन्हाण घालण्याची प्रथा आहे. कोणी कोणी बाळ पाच वर्षाचा होईपर्यंत दरवर्षी बोरन्हाण घालतात. दिवस थंडीचे असल्याने, काळ्या रंगाने उब येत असल्याने काळे कपडे घालण्याची प्रथा असावी. तसेच काळ्या रंगाची वस्त्रे नेसून काळोख्या मोठ्या रात्रीला निरोप दिला जातो.

भगवान विष्णूनी राक्षसांचा वध करून, त्यांची मस्तकं मंदार पर्वतात पुरून टाकली. त्यामुळे नकारात्मकता दूर झाली. त्याचे प्रतीक म्हणून, “तिळगुळ घ्या गोड बोला” असं म्हणून अबोला, नकारात्मकता, राग, द्वेश दूर व्हावेत असे विचार केले जातात. या दिवशी गंगा, गोदावरी, प्रयाग, अशा नदीस्नानाचे महत्त्व जास्त आहे. तरी त्यातही, अश्वमेध आणि वाजपेय यज्ञ यासारखे पुण्य संक्रांतीला गंगासागराच्या स्नानाने प्राप्त होते असे समजतात. या दिवशी गंगा स्नान करून दानधर्म केल्यास चांगले फळ मिळते.

वैदिक पंचांगानुसार यावर्षी १४ जानेवारी मंगळवार रोजी ९ वा ३ मी. यावेळी सूर्याचा मकर राशीत प्रवेश होत आहे. गंगा स्नान आणि दान करण्याचा शुभ मुहूर्त ९ वा. ३ मि. ते ५ वा ४६ मी. पर्यंतचा आहे. यावर्षीचा शुभकाळ ८ तास ४२ मिनिटे तर पवित्रकाळ १ तास ४५ मिनिटे आहे. या काळात सूर्यदेवाची पूजा करावी. यावर्षीचे संक्रांत देवतेचे वर्णन असे केलेले आहे की, तिचे वाहन वाघ, आणि उपवाहान घोडा असून, तिने पिवळे वस्त्र परिधान केले आहे. तिच्या हातात गदा हे शस्त्र असून, कपाळावर केशराचा टिळा लावलेला आहे. वयाने ती कुमारी व बसलेली स्थिती आणि वासासाठी जाईचे फुल घेतलेले आहे. ती पायस प्राशन करत आहे. सर्प जातीची असून तिचे भूषण – अलंकार मोत्याचे आहेत. वार आणि नक्षत्र नाम ‘महोदरी’ असे आहे. ती पूर्वेकडून पश्चिमेकडे जात असून वायव्य कडे पाहत आहे. संक्रांतीच्या पर्वकाळात खोटं, कठोर बोलू नये. गवत, वृक्ष तोडू नये. गाई म्हशींची धार काढू नये. दान करताना नवीने भांड, गोग्रास, अन्न, तिळगुळ घालून पात्र, भूमी, सोन, वस्त्र यथाशक्ती दान करावे. सूर्याच्या उत्तरायाणात मृत्यू आल्यास मोक्ष मिळतो, अशा समजुतीने भीष्मानीही बाणाच्या शैयेवर पडून उत्तरायणाची वाट पाहिली. आणि नंतर संक्रांतीच्या दिवशी देवांना आपला देह दान केला. म्हणून दानाला महत्त्व जास्त आहे. संक्रांतीची सर्व माहिती काल महात्म्यानुसार होणाऱ्या बदलाला अनुसरून असते. हा दिवस भूगोल दिन असून कुंभमेळा प्रथम शाही स्नान दिवस असा आहे.

 संक्रांतीच्या दुसरा दिवस किंक्रांत. या दिवशी देवीने किंकरासुर राक्षसाला

ठार मारले. या दिवसाला ‘करी दिन ‘असेही म्हणतात. भोगी दिवशी पूजा केलेली सुगडी या दिवशी हळदीकुंकू देऊन दान देतात. तसेच भोगीला केलेली बाजरीची भाकरी झाकून ठेवून यादिवशी खाण्याची पद्धत आहे.

 संक्रांतीच्या अशा शुभ, पवित्र आणि गोड दिवशी सर्वांना शाब्दिक तिळगुळ घ्या गोड बोला असे म्हणूया.

“भास्करस्य यथा तेजो/ मकरस्थस्य वर्धते/

तथैव भवतां तेजो वर्धतामिती कामये/

मकर संक्रांती पर्वण: सर्वेभ्य: शुभाशया://

 ज्याप्रमाणे मकर राशीतील प्रवेशाने सूर्याचे तेज वाढते, त्याप्रमाणे ही मकर संक्रांत तुमचे यश, आरोग्य, धनधान्य रुपी तेज वाढविणारी ठरो.

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ प्रेमाचीसुद्धा जबरदस्ती करू नये.… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ प्रेमाचीसुद्धा जबरदस्ती करू नये… लेखक : अज्ञात ☆  प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर

आपली मुलं आपली नसतात. एकनाथांचं वचन आहे, ‘पक्षी अंगणात आले, अपुला चारा चरून गेले. ’ हा जगाचा नियम आहे. पैशाचं परावलंबित्व नको, तसं भावनांचं परावलंबित्व असता कामा नये’… स्वातीताईंनी उमाकांतना जगण्याचं तत्त्वज्ञान सांगितलं आणि आयुष्य नव्याने जगायला ते बाहेर पडले..

कॅलेंडरचं पान उलटताना उमाकांत विशेष आनंदात होते, चंद्रनील जर्मनीहून येण्यासाठी आता फक्त पंधरा दिवस राहिले होते. लगबगीनं त्यांनी, संगणकावर त्याचा मेल आहे का पाहिलं आणि त्यांनी खूश होऊन स्वातीताईंना हाक मारली.

‘‘लौकर ये, आपला चंदा चार दिवसांतच येतो आहे. हा मेल पाहा! घरातले पडदे उद्याच बदलून टाक, घरासाठी कार्पेटची देखील ऑर्डर दिली आहे. आज चौकशी करायलाच पाहिजे आणि पुरणपोळीची ऑर्डर देणार आहेस ना… ?’’

आपल्या नवऱ्याचा उत्साह पाहून ताईंना गंमत वाटली. त्यांच्या मनात आलं, ‘‘परदेशातील समृद्धी, मोठी जागा, चैन सोडून चंदा कायम इथे येणं शक्य नाही. यांना मनोराज्य करू दे. आपलं काय जातं? परवा मालूताई सांगत होत्या, समृद्धी आली की मुलांना आई-वडिलांजवळ राहायला आवडत नाही. मुलींनादेखील माहेरची ओढ वाटत नाही.

मुलगा दोन दिवस येणार, त्यासाठी एवढा खर्च कशासाठी?’’

‘‘कार्पेट कशासाठी? उगीच नस्ता खर्च नको. दोन दिवस पाहुण्यासारखा तो बायको-मुलाला आणणार.

माझी कामं वाढवू नका. तो परत गेल्यावर तुम्ही कार्पेट साफ करणार का? ‘‘अगं! तो आता इथेच राहील ना? त्यानं सांगितलं होतं की, हे तीन वर्षांचं कॉन्ट्रॅक्ट झालं की तो पुन्हा जाणार नाही. त्यानं पाठवलेले सर्व पैसे मी ठिकठिकाणी गुंतवले. व्याजासकट चांगली रक्कम हातात आली की तो त्याचा व्यवसाय सुरू करील. माझी खात्री आहे, तू नसत्या शंका काढू नको. ’’

ताई हसून म्हणाल्या, ‘‘ती घरावरची कविता ठाऊक आहे ना? 

घरातून उडून गेलेल्या पिलांना, घरच्या उंबरठय़ाची ओढ असावी,

 एवढंच माझं मागणं आहे. ठीक आहे, परदेशात असतानाही आई-वडिलांना पाहावं, एवढं तरी त्याला वाटत आहे, हे काय कमी आहे?’’

ताईंचं हे बोलणं उमाकांत यांना फारसं आवडलं नाही. ‘निळ्याभोर आकाशात जसा चंद्र, तसा आपल्या घरात हा बाळ. म्हणून त्याचं नाव चंद्रनील. मित्रांमध्ये मात्र त्यानं आपलं नाव नील सांगितलं. चंदा नाव काय वाईट आहे? मेलही नील नावानं करतो, जाऊ दे नावात काय आहे म्हणा. ’ उमाकांत स्वत:शीच म्हणाले.

मुलगा येण्याचा दिवस जसा जवळ येऊ लागला, तशी मात्र स्वातीताईंची धांदल सुरू झाली. चकल्यांची भाजणी दळायला दिली होती. भडंग, चुरमुऱ्याचा चिवडा झाला होता, पण शंकरपाळे राहिले होते. ते आज झाले असते. चकल्या गरम चांगल्या लागतील. तेव्हा तो आल्यावर चकल्या करू. शिवाय पुरणपोळीची ऑर्डर देण्यापेक्षा घरीच कराव्यात. बाहेरच्या पोळीत वेलची-जायफळ फार कमी असतं. मैदा जास्त असतो, नकोच ते. काय करू न काय नको असं त्यांना झालं होतं.

ताईंनी चण्याची डाळ भिजत घातली, साजूक तूप कढवलं. आणखी काय करता येईल याचा विचार करू लागल्या. चार खोल्यांचं घर उत्साहानं भरून गेलं. घराच्या भिंतीदेखील सजीव झाल्यासारख्या वाटू लागल्या. भिंतीवर उमाकांत यांनी सुंदर निसर्गचित्रं लावली होती. हिरव्यागार झाडांच्या आडून इवली पांढरी फुलं मन प्रसन्न करीत होती. नुसती निसर्गचित्रंदेखील मनाला प्रसन्नता देतात.

हा अनुभव ताईंना वेगळाच वाटत होता की चंद्या येणार म्हणून ती चित्रं अधिक सुंदर वाटत होती? त्यांचं त्यांना कळत नव्हतं. मन मात्र प्रफुल्लित झालं होतं.

चंद्रनील येण्याच्या आदल्या दिवशी उमाकांत शांत झोपूच शकले नाहीत. पहाटे चार वाजता, खासगी गाडी करून एअरपोर्टवर आले. चंदाला पाहून त्याला घट्ट मिठी मारली. आनंदात सून, मुलगा, नातू घरी आले. दोन दिवस धमाल चालली होती. तिसऱ्या दिवशी सकाळी निवांत चहा घेताना चंदानं आपलं प्रोजेक्ट अजून तीन र्वष चालू राहणार आहे हे जाहीर केलं. त्या वेळी उमाकांत आपल्या चेहऱ्यावरची निराशा लपवू शकले नाहीत. ताई मात्र हे असंच होणार हे जाणून होत्या. त्यामुळे त्यांना फारसं दु:खं झालं नाही.

आल्या आल्या सून आणि नातू सुनेच्या माहेरी गेले. त्यामुळे घरात आता हे तिघेच होते.

‘‘चंदा, आला आहेस तर इथेच चांगली नोकरी पाहा. स्वतंत्र राहायचे असेल तरी आमची हरकत नाही, ’’ उमाकांत म्हणाले.

‘‘बाबा, आपली चार खोल्यांची जागा असताना स्वतंत्र राहण्याचा विचार तरी मनात येईल का? परंतु पुढील तीन वर्षांत तरी नोकरी सोडता येणार नाही, तुम्ही पैशांची चिंता करू नका. मी दर महिन्याला पुरेसे पैसे पाठवीन, ’’ चंदा म्हणाला.

उमाकांत कपाटाजवळ गेले. बँकेचे पासबुक त्याच्या पुढय़ात ठेवून म्हणाले, ‘‘चंदा! तू आत्तापर्यंत पाठवलेले सर्व पैसे मी बँकेत जमा केले

आहेत. मला तुझे पैसे नकोत. मला तू भारतात यायला हवा आहेस. ’’

‘‘बाबा! प्लीज, या ट्रिपमध्ये मला खरंच जास्त राहता येत नाही. आणखी तीन वर्षांनी मी नक्की भारतात येईन. ’’ चंद्रनीलनं विषय संपवला आणि घाईघाईनं तो पत्नीच्या माहेरी गेला.

पाहता पाहता महिना कुठे निघून गेला ते समजलं नाही.

चंद्रनीलचा जाण्याचा दिवस उजाडला. या वेळी स्वातीताईंनी त्याला बरोबर देण्यासाठी कुठलेही जिन्नस तयार केले नाहीत. आपली बॅग भरताना काहीच तयारी नाही हे पाहून चंदाला राहवलं नाही.

‘‘आई! लसणीची, तिळाची चटणी, मेतकूट, भाजणी दे लौकर. सामानात कुठे ठेवायची ते पाहतो. फार जिन्नस देऊ नकोस. ’’

लेकाची हाक ऐकून किचनमधून ताई बाहेर आल्या. ‘‘चंदा! या वेळी तुझ्यासाठी काहीही करता आलं नाही रे. वेळच झाला नाही. असं कर, नाक्यावर आपटे गृहोद्योग दुकान आहे. तिथून तुला काय हवं ते आण.

चंद्रनीलला नवल वाटलं. आईला काय झालं? मागच्या ट्रिपला तिने केवढे पदार्थ दिले होते. आत्ता मी आल्या आल्यादेखील केवढे पदार्थ केले होते. हिला वेळ नसायला काय झालं? जास्त विचार न करता त्यानं बॅग बंद केली.

या वेळी निरोप देण्यासाठी रात्री झोपमोड करून एअरपोर्टवर जायचं नाही, असं ताईंनी आपल्या पतीला- उमाकांत यांना अगदी निक्षून सांगितलं. अगदी गोड बोलून दोघांनी मुलाला आणि सुनेला घरातूनच निरोप दिला.

दुसरा दिवस उजाडला त्या वेळी ताई वृत्तपत्रात काही तरी शोधत असल्याचं उमाकांत यांनी पाहिलं. ताई खुशीत कशा राहू शकतात, याचं उमाकांत यांना नवल वाटत होतं.

‘‘पुढच्या महिन्यात आपण युरोप टूरला जाणार आहोत. आधीच बुकिंगला उशीर झाला आहे. आजच पैसे भरून या. ही जाहिरात!’’ ताईंनी नवऱ्याला जाहिरात दाखवली. उमाकांत काही बोलले नाहीत. उदास चेहरा करून बसून राहिले आणि म्हणाले, ‘‘निदान एअरपोर्टवर तरी निरोप द्यायला गेलो असतो. घर अगदी रिकामं वाटत आहे. ’’

आता मात्र ताई थोडय़ा वैतागल्या. ‘‘तुम्हाला यायचं नसेल तर मी एकटी जाईन. संसाराच्या खस्ता खात जबाबदारी पेलताना थकून गेले. चंदा पहिल्यांदा जर्मनीला गेला त्या वेळी रोज रात्री त्याच्या आठवणीनं डोळ्यातल्या पाण्यानं उशी भिजून जायची. हळूहळू समजलं, प्रेमाचीसुद्धा जबरदस्ती करू नये. आपली मुलं आपली नसतात.

 एकनाथांचं वचन आहे- 

 

“‘पक्षी अंगणात आले, अपुला चारा चरून गेले’.

हा जगाचा नियम आहे. मुलं, त्यांना गरज आहे तोपर्यंत आपल्या जवळ राहणार. नंतर पक्ष्यांप्रमाणे दूर उडून जाणार. हे प्रत्येक व्यक्तीने समजून घेतलं पाहिजे.’’

उमाकांत ताईंचं बोलणं लक्षपूर्वक ऐकत होते. ताई बोलत होत्या, ‘‘पैशाचं परावलंबित्व नको म्हणून आपण काळजी घेतो. तसंच भावनांचं परावलंबित्व असता कामा नये. किती तरी दिवसांत मुक्त निसर्ग पाहिला नाही, तुम्ही कधी माझ्या कविता ऐकल्या नाहीत, संगीताचा आनंद घेतला नाही. उमाकांत ! प्रयत्नपूर्वक या ‘एम्टी नेस्ट सिन्ड्रोम’ मधून बाहेर या.’’

‘‘कसं बाहेर येऊ ? तूच सांग ना.. ’’ उमाकांत म्हणाले. ‘‘उमाकांत, मागच्या वेळी चंदा राहिला नाही. त्या वेळी मी माझ्या मनाची कशी समजूत घातली, ते मी ‘एकटी’ या कवितेत लिहिलं आहे. ऐकाल?’’

शून्यात पाहत उमाकांत यांनी होकार दिला.

ताई कविता वाचू लागल्या….

कळून चुकलंय तिला,

वयाची येताना साठी

आहे ती एकटी,

अगदीच ती एकटी

 

मुलंबाळं, प्रेमळ नवरा,

संसारही तो कसा साजिरा

प्रेमळ होती सगळी नाती,

तरीही ती एकटी

 

कष्टातही त्यात, होती मजा,

खुशीत होते राणी राजा

लुटुपुटीचा खेळ पसारा,

कळले हो शेवटी, आहे ती एकटी

 

सुंदर तेव्हा होती सृष्टी,

सुंदर जग ते अवती भवती

काळ कुठे तो निघून गेला,

आता वाटते भीती, आहे ती एकटी

 

कुणीतरी मग साद घातली,

तुझ्या आवडी कशा विसरली?

आठव संगीत अक्षर वाङ्मय,

कोण म्हणे तू एकटी?

 

मंजुळ गाणी पक्षी गाती,

आकाशी बघ रंग किती

बहर मनाला तुझ्या येऊ दे,

निसर्ग राणी तुझ्या संगती

 

जगन्नियंता निसर्गातुनी साथ तुला देईल

हाक मारूनी पहा गडे तू,

हात तुला देईल

तोच तुझ्या गे अवती भवती,

कशी मग तू एकटी?

 वेडे, नाहीस तू एकटी..

कविता ऐकल्यावर उमाकांत आवेगाने उठले. ताईंचा हात हातात घेऊन म्हणाले, ‘‘स्वाती,

युरोप टूरचं बुकिंग करायला तूही चल ना. येताना नवीन कपडे घेऊ. बाहेरच जेवण करू, कालच

चंदा गेला, दमली असशील. खूप केलंस महिनाभर त्यांच्यासाठी.’’

‘‘छे! मुळीच दमले नाही. माझं रिकामं घर मला किती ऊर्जा देऊन गेलं म्हणून सांगू? तुम्हाला आनंदात पाहून घराच्या भिंतीदेखील हसू लागल्या. बघा, आता चित्रातला नाही, तर खरा निसर्ग पाहायचा. ’’ आणि उत्साहानं ताई बाहेर जाण्यासाठी तयारी करू लागल्या.

लेखक : अनामिक

प्रस्तुती : सौ. उज्ज्वला केळकर 

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो. 836 925 2454, email-id – [email protected] 

≈संपादक –  श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जनजागृतीच्या मार्गावर – भाग – १ ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? मनमंजुषेतून ?

☆ जनजागृतीच्या मार्गावर – भाग – १ ☆ श्री सुनील देशपांडे

वयाच्या साठाव्या वर्षानंतर म्हणजेच ज्येष्ठ नागरिक (सीनियर सिटीजन झाल्यानंतर) समाजकार्याच्या तळमळीमुळे मी अवयव दानाचे क्षेत्र हे स्वतःचे कार्यक्षेत्र म्हणून निवडले.

अवयवदानाच्या क्षेत्रात कार्य करायचे ठरवल्यानंतर मी माझ्यापरीने अभ्यास करून व्याख्याने व स्थानिक कार्यक्रम यामधून लोकांपुढे जाऊन हा नवीन विषय त्यांच्यापुढे मांडण्याचा प्रयत्न करत होतो. परंतु नंतर लक्षात आले की या बाबतीत जनजागृती करायची असेल तर स्थानिक स्तरावरील तोटके प्रयत्न उपयोगाचे नाहीत. या विषयाला मोठ्या जनजागृतीची आवश्यकता आहे. जास्तीत जास्त लोकांपर्यंत हा विषय पोहोचवणे आवश्यक आहे. त्यामुळे पदयात्रा या संकल्पनेचा उगम माझ्या मनात झाला. त्यादृष्टीने मी प्रयत्न सुरू केले. फेडरेशन ऑफ ऑर्गन ॲन्ड बॉडी डोनेशन या संस्थेत सहभागी होऊन या आमच्या संस्थेमार्फत आजपर्यंत एकूण चार पदयात्रा यशस्वी रीत्या पूर्ण केल्या. माझ्या वयाच्या ६६व्या वर्षापासून ७० वर्षापर्यंत या चार पदयात्रां मधून जवळपास ४००० किलोमीटर अंतर पायी चालत जाऊन, एकूण पन्नास हजार पेक्षा अधिक लोकांपर्यंत हा विषय पोहोचवू शकलो. महाराष्ट्रातील जवळपास सर्व जिल्हे पायाखालून घातले. या सर्वांचा अनुभव मिश्र स्वरूपाचा असला तरी एकूण अनुभव उत्साहजनक होता हे नक्की. त्यामुळे माझ्या मनाप्रमाणे काही करू शकलो याचं समाधान आहेच. पण आता सत्तरी पार केली आहे. हळू हळू डोळे आणि कान सहकार्य करण्यासाठी कुरकुरत आहेत. प्रकृती चांगली असली तरी पदयात्रेचा मार्ग कितपत चालू ठेवता येईल याबाबत साशंक आहे. तरीही कार्य चालूच राहील. राहणार आहे आणि राहिले पाहिजे. पण हे प्रयत्न खूपच तोटके आहेत आणि अत्यंत तुटपुंजे आहेत याची नम्र जाणीव मला या पदयात्रांनी नक्कीच करून दिली आहे.

 अवयवदान प्रबोधनाच्या कार्यासाठी अनेक कार्यकर्ते निर्माण झाले पाहिजेत. तरुणांमध्ये मोठ्या प्रमाणावर जागृती निर्माण होऊन ते मोठ्या संख्येने सहभागी झाले पाहिजेत. आता याचसाठी कार्य करायचे आहे. त्यासाठी या विषयाचे प्रशिक्षण देणे आवश्यक आहे. या विषयाचे प्रबोधक व कार्यकर्ते निर्माण करणे आवश्यक आहे. त्यासाठी विविध स्थानिक स्तरावरील संस्थांमार्फत प्रशिक्षण कार्यक्रमांचे आयोजन करून या क्षेत्रातील कार्यकर्त्यांची संख्या आणि ज्ञान याची वृद्धी करणे आवश्यक आहे. आम्ही फेडरेशन ऑफ ऑर्गन ॲन्ड बॉडी डोनेशन या संस्थेतर्फे व केंद्र सरकारच्या अधिपत्याखालील रोटो-सोटो च्या सहकार्याने विविध प्रशिक्षण कार्यक्रम व या विषयावरील प्रबोधनपर साहित्य प्रकाशित करणे असे उपक्रम आयोजित करीत आहोत. त्यासाठी योग्य ते प्रशिक्षण कार्यक्रमांचे प्रारूप तयार केले गेले आहे.

आता याच कार्यावर भर देण्याचे निश्चित केले आहे. वास्तविक पाहता कोरोनाच्या प्रकोपामुळे व परिस्थितीमुळे एक धडा सर्वांनी शिकणे आवश्यक आहे.

इतक्या प्रचंड प्रमाणामध्ये सरकार, सर्व सरकारी यंत्रणा, सर्व मोठे उद्योग व्यवसाय, सर्व स्वयंसेवी संस्था, सर्व प्रसार माध्यमे आणि सर्व सोशल मीडिया या सर्वांमार्फत कोरोना, कोरोना आणि फक्त कोरोना, हाच विषय आणि त्याबाबतची माहिती आणि जागृती याचे सतत प्रयत्न सतत दोन वर्षे चालू आहेत. त्याच्या कायदेशीर अंमलबजावणीसाठी सर्व कायदा आणि सुव्यवस्था यंत्रणा तसेच आरोग्य यंत्रणा कार्यरत होत्या आणि तेही 24 तास. पण एवढे असूनही असे दिसून येते की लोकांमध्ये जागृती समाधानकारक होत नाही.

आपण बातम्यांमध्ये रोज पाहतच होतो की एवढी प्रचंड जागृती मोहीम चालू असून सुद्धा स्वतःला सुशिक्षित (?) म्हणवणारे परंतु खरे सुशिक्षण नसलेले फक्त विद्याविभूषित असे पांढरपेशे व मध्यमवर्गीय हे सुद्धा या सर्व जागृती मोहिमेपासून फारसा चांगला धडा शिकताना दिसत नव्हते. मग अशिक्षित व हातावरचे पोट असणारे यांची काय स्थिती असेल ही कल्पनाच करावी. त्याचप्रमाणे सांपत्तिक उच्च स्थितीमध्ये असणारे किंवा राजकारणी आमदार, खासदार, नगरसेवक, महापौर, नगराध्यक्ष अशांसारख्या काही व्यक्तीसुद्धा स्वतःच्या संबंधित अथवा वैयक्तिक समारंभाचे आयोजन व नियोजन करताना आणि त्यात सहभाग घेताना दिसत. अशा वेळेला सरकारी यंत्रणांचीही पंचाईत होते. त्यांना यावर काय कारवाई करावी हेच समजेनासे होते. धरलं तर चावतंय आणि सोडलं तर पळतंय अशी त्यांची बिकट अवस्था होऊन जाते. यावरून समाजाला जागृत करणे हे किती प्रचंड अवघड आहे हे लक्षात येते. पदयात्रेच्या निमित्ताने बऱ्याच वेळा हे लक्षात आले आहे की महाविद्यालयात किंवा शाळेमध्ये शिकणारे विद्यार्थी यांच्यामध्ये सुद्धा बर्‍यापैकी जागृती होऊ शकेल असे दिसते आहे. त्यामुळे एकंदरीत अवयवदानाच्या विषयासंबंधी जनजागृति व्हावयाची असेल तर किमान दोन-तीन पिढ्यांमध्ये तरी सातत्याने हे कार्य चालू असले पाहिजे. जेव्हा तरुण या कार्यात कार्यरत असताना, सामील होताना दिसतात तेव्हा पुढील पिढीत काहीतरी आशादायी घडेल अशा समजुतीला बळ मिळते. म्हणूनच तरुण आणि विद्यार्थी वर्ग यांच्यावर लक्ष केंद्रित करणे आवश्यक आहे. त्यादृष्टीने शाळा-महाविद्यालयांमध्ये विविध स्पर्धांचे आयोजन करणे उपयोगी ठरेल. त्या स्पर्धांमध्ये भाग घेणारे तरी निश्चित या विषयाचा अभ्यास करतातच. बऱ्याच वेळेला मी असे पाहिले आहे की शालेय विद्यार्थी जेंव्हा स्पर्धेमध्ये भाग घेत असतात तेव्हा त्या विषयाच्या अभ्यासामध्ये त्यांचे आई वडील सुद्धा सामील झालेले असतात. त्यामुळे शालेय विद्यार्थ्यांच्या स्पर्धांमधून संपूर्ण कुटुंब या विषयाच्या अभ्यासाकडे वळवता येईल.

तरुणांना या विषयाच्या अभ्यासाकडे वळवण्यासाठी या विषयासंबंधीच्या स्पर्धा काही संस्थांनी आयोजित केल्या होत्या. त्या मधूनही आजचे तरुण या स्पर्धेच्या निमित्ताने या विषयाचा अभ्यास करून त्याचे चांगल्या प्रकारे सादरीकरण करू शकतात हे लक्षात येते.

आजकालच्या तरुणांना या विषयाचे योग्य प्रकारे प्रशिक्षण देऊन चांगल्या प्रकारे समाजामध्ये या विषयाचे प्रबोधन करता येऊ शकेल याबाबत शंका नाही. त्यामुळे प्रशिक्षणाच्या माध्यमातून तरुण कार्यकर्ते तयार करणे हे उद्दिष्ट ठेवणे गरजेचे आहे. या गरजेपोटी फेडरेशनचे पुढचे पाऊल हे प्रशिक्षणाच्या माध्यमातून कार्यकर्त्यांच्या जागृतीचे असल्यास अवयवदानाच्या क्षेत्रात मोठ्या प्रमाणावर जागृती घडवून आणता येईल असा विश्र्वास वाटतो.

जनजागृती ज्या समाजपरिवर्तनासाठी करावयाची आहे त्याची दिशा काय असली पाहिजे हे प्रथम ठरवायचे आहे. तरुणांच्या डोळ्यात असलेली भविष्याची स्वप्ने जाणून घ्यायची आहेत. ती स्वप्नं साकार करण्यासाठी त्यांच्या हातांना श्रममूल्यांची जाणीव करून देऊन त्याची जपणूक केली पाहिजे. आकाशाला गवसणी घालणाऱ्या त्यांच्या मनात कार्याचं पाखरू हळू हळू फडफडवलं पाहिजे. आकाशी भरारी मारणाऱ्या त्यांच्या मनाबरोबर त्यांच्या पायांना जमिनीशी असलेलं नातं घट्ट करायला शिकवलं पाहिजे.

जमिनीवर रोवून पाय 

आभाळ धरता आलं पाहिजे 

उंच होता आलं पाहिजे 

आभाळ खाली आणलं पाहिजे 

मनात जिद्द धरली पाहिजे

कोणत्याही कार्यासाठी ही जिद्द निर्माण व्हायला हवी. त्या जिद्दीसाठी प्रयत्नशील राहण्याची जाणीव निर्माण केली पाहिजे. या जाणिवेतूनच समाजासाठी कार्य करणारी मने तयार होतील. त्यांचे कडूनच परिवर्तनाला दिशा मिळेल. परिवर्तनाची ही दिशा देण्यासाठी मग इतर समाज घटकांनीही आपापले योगदान देणे आवश्यक आहे.

— क्रमशः भाग पहिला 

© श्री सुनील देशपांडे 

 उपाध्यक्ष, फेडरेशन ऑफ ऑर्गन अँड बॉडी डोनेशन.

 फोन :९६५७७०९६४०

 ई मेल. : – organdonationfed@gmail. com;  [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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