मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ स्वच्छतेचा देवदूत. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आज प्रस्तुत है राष्ट्र संत बाबा गाडगे जी महाराज पर उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति स्वच्छतेचा देवदूत. . . ! )

 

 ☆  स्वच्छतेचा देवदूत. . . !  ☆

(श्री विजय सातपुते जी की फेसबुक वाल से साभार )

( अष्टाक्षरी )

चिंध्या पांघरोनी बाबा धरी मस्तकी गाडगे

डेबुजी या बालकाने दिले स्वच्छतेचे धडे. . . . !

 

विदर्भात कोते गावी ,जन्मा आली ही विभूती.

हाती खराटा घेऊन ,स्वच्छ केली रे विकृती. . . !

 

वसा लोकजागृतीचा ,केला समाज साक्षर

श्रमदान करूनीया ,केला ज्ञानाचा जागर.

 

झाडूनीया माणसाला ,स्वच्छ केले  अंतर्मन.

धर्मशाळा गावोगावी ,दिले तन, मन, धन. . . . !

 

देहश्रम पराकाष्ठा, समतेची दिली जोड

संत अभंगाने केली ,बोली माणसाची गोड.. . !

 

धर्म, वर्ण, नाही भेद ,सदा साधला संवाद

घरी दारी, मनोमनी , गोपालाचा केला नाद. . . !

 

स्वतः कष्ट करूनीया , सोपी केली पायवाट

संत गाडगे बाबांचा  ,वर्णीयेला कर्मघाट .. . . !

 

स्वच्छतेचा देवदूत ,मन ठेवतो निर्मळ

राष्ट्रसंत बाबा माझा ,प्रबोधन परीमल.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा )

 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌।।32।।

 

मेरा आश्रय ग्रहण कर पापी नारी शूद्र

भी पाते है परम गति ,पार्थ ! न यह विद्रूप।।32।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं।।32।।

 

For, taking refuge in Me, they also, who, O Arjuna, may be of sinful birth-women, Vaisyas as well as Sudras-attain the Supreme Goal!।।32।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 17 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “ बदलाव ”।  समाज में व्याप्त नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 17 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

माँ सुबह ६ बजे उठती है। झाड़ू लगाती है, नाश्ता बनाती है, स्नान कर तुलसी में जल चढ़ाती है। हाथ जोड़कर सूर्य भगवान की  परिक्रमा करती है।  मन ही मन कुछ कहती है। निश्चित ही पूरे परिवार के  लिए मंगलकामना करती है। पति-पुत्र को अपने व्रत और पूजा-पाठ के बल पर दीर्घायु करती है। बेटा देसी घी का लड्डू भले ही हो, बेटी भी उसके दिल का टुकड़ा है। दोपहर का खाना बनाती है। बर्तन माँजकर रसोई साफ करती है। कपड़े धोती है। शाम की चाय, रात का खाना, पति की प्रतीक्षा और फिर थकी बेसुध माँ लेटी है। बेटा तो सुनता नहीं, बेटी से पैर दबवाना चाहती है वह। दिन भर काम करते-करते पैर टूटने लगते है। माँ कहती है- बेटी ! मेरे पैरों पर खड़ी हो जा, टूट रहे हैं।

बेटी अनमने भाव से एक पैर दबाकर टी.वी. देखने भाग जाना चाहती है कि माँ उनींदे स्वर में बोलती है – बेटी ! अब दूसरे पैर पर भी खड़ी हो जा, नहीं तो वह रूठ जाएगा। बेटी पैरों को हाथ लगाने ही वाली थी कि ‘अरे ना- ना’, माँ बोल पड़ती है – ‘पैरों को हाथ मत लगाना, बस पैरों पर खड़ी हो जा।  बेटियाँ माँ के पैर नहीं छूतीं।’ नर्म –नर्म पैरों के दबाव से माँ के पैरों का दर्द उतरने लगता है या दिन भर की थकान उसे सुला देती है, पता नहीं…….. ?

अनायास बेटी का ध्यान माँ के पैर की उँगलियों में निश्चेष्ट पड़े बिछुवों की ओर जाता है। काले पड़े चाँदी के बिछुवों की कसावट से उंगलियां काली और कुछ पतली पड़ गयी हैं। बेटी एक बार माँ के शांत चेहरे की ओर देखती है और बरबस उसका हाथ बिछुवेवाली उँगलियों को सहलाने लगता है। बड़े भोलेपन से वह माँ से पूछ बैठती है – माँ तुम बिछुवे क्यों पहनती हो ?

नींद में भी माँ खीज उठती है – अरे ! तूने मेरे पैरों को हाथ क्यों लगाया ? कितनी बार मना किया है ना ! और कुछ भी पूछती है तू ? पहना दिए इसलिए पहनती हूँ बिछुवे, और क्या बताऊँ……

बेटी सकपका जाती है, माँ पैरों को सिकोडकर सो जाती है।

दृश्य कुछ वही है आज मैं माँ हूँ। याद ही नहीं आता कि कब, कैसे अपनी माँ के रूप में ढ़लती चली गयी। कभी लगता है – ये  मैं नहीं हूँ, माँ का ही प्रतिरूप हूँ। आज मेरी बेटी ने भी मेरे दुखते पैरों को दबाया, बिछुवे वाली उँगलियों को सहलाया, बिछुवों की कसावट थोडी कम कर दी, उंगलियों ने मानों राहत की साँस ली।

मैंने पैर नहीं सिकोडे। बेटी मुस्कुरा दी।

अरे ! यह क्या, बेटी के साथ-साथ मैं भी तो मुस्कुराने लगी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 21 – “A Martyr’s Son ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager,Indian Railways, Pune Division. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “A Martyr’s Son.  This poem  is from her book “The Frozen Evenings”.)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 19

☆  A Martyr’s Son ☆

 

My father’s voice, so full of vivacity!

A voice I love and adore!

It’s lost forever in the valleys of Kashmir-

Alas! That voice would be heard no more!

 

Born to a soldier, a patriot by choice,

A person who rowed the nation’s oar!

The voice that told me about Bose, Nehru and Gandhi,

Alas! That voice would be heard no more!

 

I am only four, not even young enough

To wipe the tears that my mother’s eyes wore;

Silenced by the bullets, his voice was massacred,

Alas! That voice would be heard no more!

 

Proud I am of your sacrifice papa!

Stories of your valour galore!

One day I shall become your voice papa!

And then, you will be heard once more!

 

The enemies may try their best to wound us,

But for every soldier killed, there will be four!

The sacrifice of the martyrs shall not go in vain

And, one day, my flag shall fly and soar!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भूकम्प ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – भूकम्प 

 

पहले धरती में कंपन अनुभव हुआ। फिर तने जड़ के विरुद्ध बिगुल फूँकने लगे। इमारत हिलती-सी प्रतीत हुई। जो कुछ चलायमान था, सब डगमगाने लगा। आशंका का कर्णभेदी स्वर  वातावरण में गूँजने लगा, हाहाकार का धुआँ हर ओर छाने लगा।

उसने मन को अंगद के पाँव-सा स्थिर रखा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। अब बाहर और भीतर पूरी तरह से शांति है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

17 जनवरी 2020, दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 10 ☆ कविता/गीत – वाणी में संगीत जगा दे ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत  “वाणी में संगीत जगा दे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 10 ☆

☆ वाणी में संगीत जगा दे ☆ 

 

शब्द-साधना को महका दे

सात स्वरों के दीप जला दे

वीणापाणी जय-जय तेरी

वाणी में संगीत जगा दे

 

सब हो जाएं मेरे अपने

तेरा हर दिन ध्यान करूँ माँ

मन मेरा पावन मंदिर हो

पल-छिन मंगलगान करूँ माँ।।

 

मनुज-मनुज में प्रेम बढ़े माँ

ऐसी कोई रीत चला दे

वीणापाणी जय-जय तेरी

वाणी में संगीत जगा दे

 

तेरा-मेरा सब मिट जाए

सत्य, ज्ञान का अवलम्बन दे।

मिटे तमिस्रा भय-संशय की

ऐसा अर्चन-आराधन दे।।

 

मित्र बने हर शत्रु अंततः

जीत करा दे, प्रीत करा दे

वीणापाणी जय-जय तेरी

वाणी में संगीत जगा दे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 29 ☆ पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक सामायिक व्यंग्य  “पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए। इस व्यंग्य को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साह9त्य  # 29 ☆ 

☆ पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन 

 

अर्जुन जी का नेचर ही थोड़ा कनफुजाया हुआ है. वह महाभारत के टाईम भी एन कुरुक्षेत्र के मैदान में कनफ्यूज हो गये थे. भगवान कृष्ण को उन्हें समझाना पड़ा तब कहीं उन्होनें धनुष उठाया.

पिछले कई दिनो से आज के अरजुन देख रहे थे कि  सत्ता से बाहर हुये नेता गण जनसेवा के लिए और सत्तासीन कुर्सी बचाने के लिए बेचैन हो रहे हैं. येन केन प्रकारेण फिर से कुर्सी पा लेने/कुर्सी बचाने के लिये गुरुकुलों तक में तोड़ फोड़, मारपीट, पत्थरबाजी सब करवाई जा रही थी. कौआ कान ले गया की रट लगाकर भीड़ को कनफ्यूजियाने का हर संभव प्रयास चल रहा था. तेज ठंड के चलते जो लोग कानो पर मफलर बांधे हुये हैं वे. बिना कान देखे कौए के पीछे दौड़ते फिर रहे हैं. ऐसे समय में ही राजधानी के चुनाव आ गये.  अरजुन जी किसना के संग पोलिंग बूथ पर जा पहुंचे. ठीक बूथ के बाहर वे फिर से कनफुजिया गये. किंकर्तव्यविमूढ़ अरजुन ने किसना से कहा कि ये चारों बदमाश जो चुनाव लड़ रहे हैं मेरे अपने ही हैं. मैं भला कैसे किसी एक को वोट दे सकता हूं ? इन चारों में से कोई भी मेरे देश का भला नही कर सकता. मैँ इन सबको बहुत अच्छी तरह जानता हूं. अरजुन की यह दशा देख इंद्रप्रस्थ पोलिंग बूथ पर लगी लम्बी कतार में ही किसना ने कहा..

हे पार्थ तुम केवल प्याज की महंगाई की चिंता करो तुम्हें देश की चिंता क्यों सता रही है !

हे पार्थ तुम फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री वाईफाई और मेट्रो में पत्नी के फ्री सफर, शिक्षा/स्वास्थ्य केन्द्रों की चिंता करो तुम्हें भला देश की चिंता का अधिकार किसने दिया है.

हे पार्थ तुम  बेटे के रोजगार की चिंता करो. बेरोजगारी भत्ते की चिंता करो तुम्हें जातियों के अनुपात की  चिंता क्यों !

हे पार्थ तुम शहर की स्मार्टनेस की चिंता करो तुम्हें साफ सफाई के बजट की और उसमें दिख रहे घपले की चिंता नहीं होनी चाहिये  !

हे पार्थ तुम सीमा पर शहीद जवान की शव यात्रा में शामिल होकर देश भक्ति के नारे लगाओ  भला तुम्हें इससे क्या लेना देना कि यदि नेता जमात ने  सही निर्णय लिये होते तो जवान के शहीद होने के अवसर ही न आते !

हे पार्थ तुम देश बंद के आव्हान पर अपनी दूकान बन्द करके बंद को समर्थन दो.  अन्यथा तुम्हारी दूकान में तोड़फोड़ हो सकती है. तुम्हें इससे कोई सरोकार नहीं रखना चाहिये कि यह बन्द किसने और क्यों बुलाया ?

हे पार्थ तुम्हें सरदार पटेल. आजाद. सुभाष चन्द्र बोस. सावरकर. विवेकानन्द  या गोलवलकर जी वगैरह को पढ़ने समझने की भला क्या जरूरत तुम तो आज के मंत्री जी को पहचानो उनसे अपने ट्रांसफर करवाओ. सिफारिश करवाओ और लोकतंत्र की जय बोलो व प्रसन्न रहो !

हे पार्थ तुम्हें शाहीन रोड पर  धरना देने के लिए पार्टियों का प्रतिनिधित्व करने पर सवाल उठाने की कोई जरूरत नहीं तुम मजे से चाय पियो. अखबार पढ़ो. बहस करो. टीवी पर बहस सुनो. कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाओ.

हे पार्थ तुम्हें सच जानकार भला क्या मिलेगा ? तुम वही जानो जो तुम्हें बताया जा रहा है ! यह जानना तुम्हारा काम नही है कि जिसे चुनाव में पार्टी टिकिट मिली है उसका चाल चरित्र कैसा है. वह सब किसी पार्टी में हाई कमान ने टिकिट के लिए करोड़ो लेने से पहले. या किसी पार्टी ने वैचारिक मंथन कर पहले ही देख लिया होता है.

हे पार्थ वैसे भी तुम्हारे एक वोट से जीतने वाले नेता जी का ज्यादा कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं. सो तुम बिना अधिक संशय किये मतदान केंद्र में जाओ चार लगभग एक से चेहरों में से जिसे तुम देश का कम दुश्मन समझते हो उसे या जो तुम्हें अपनी जाति का अपने ज्यादा पास दिखता हो उसे अपना मत दे आओ, और जोर शोर से लोकतंत्र का त्यौहार मनाओ.

किसना अरजुन संवाद जारी था. पर मेरा नम्बर  आ गया और मैं अंगुली पर काला टीका लगवाने आगे बढ़ गया.

कुरुक्षेत्र में कृष्ण के अर्जुन को उपदेशों से गीता बन पड़ी थी. आज भी इससे कईयों के पेट पल रहे हैं. कोई गीता की व्याख्या कर रहा है. कोई समझ रहा है.  कोई समझा रहा है. कोई छापकर बेच रहा है. इसी से प्रेरित हो हमने भी अरजुन किसना संवाद लिख दिया है. इसी आशा से कि लोग कानो के मफलर खोल कर अपने कान देखने का कष्ट उठायें. और पोलिंग बूथ पर हुये इस संवाद के निहितार्थ समझ सकें तो समझ लें.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆ हास परिहास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “हास परिहास। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆

☆ हास परिहास

मोबाइल को चार्ज पर लगा चैटिंग का आनन्द उठा ही रही थी तभी  अचानक से बैटरी लो का संकेत हुआ और जब तक मैं कुछ समझती मोबाइल एक मीठी सी आवाज़ के साथ ऑफ हो गया । अब तो एक  बेचारगी की स्थिति हो गयी , तभी ध्यान आया कि अपने पड़ोसी से मुलाक़ात की जाए जो फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते अरे भई  पत्रकार जो ठहरे कुछ न कुछ करते ही रहते हैं ज्यादातर तो टी. व्ही. के सामने ही देखा जाता है उनको ।

फोन पर वे किसी को बड़े प्यार से समझा रहे थे, यह सर्वोत्तम है किन्तु अधिक व्यक्ति होने से एवं समय कम होने से ही बिना नाम के देने पड़े, भविष्य में नाम वाले  प्रतीक चिन्ह देंगे।

तभी फोन के दूसरी ओर से किसी ने कहा हमें इतनी खुशी न दें कि हम  बर्दाश्त ही न कर सकें , चेहरा तो फिर पीलिया से ग्रसित दिखने लगा पत्रकार महोदय का, मैंने धीरे से टोकते हुए कहा कुछ गड़बड़ हुआ क्या ?

उन्होंने हाथ के इशारे से मौन रहने का संदेश दिया  सो मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी ।

फोन पर वार्तालाप को विराम देते  हुए उन्होंने कहा आप  दो चार कविता सुना ही दीजिए कुछ समस्याओं  का हल भी मिल जाएगा ।  फेसबुक में पढ़ा कि आपको कोई सम्मान मिला है, कोई अधिकारी बन  गयीं हैं आप ।

बुझे मन से मैंने कहा हाँ जब तक कोई शिरा न खींच दे , मणि तो आप सब हैं मैँ तो एक शिरा हूँ दूसरे शिरे पर लोग पदों  को छीनने के लिए लालायित बैठे हैं ।

मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा “ऐसे ही लोगों के लिए क्या खूब कहा गया है –

जब भगवान दे खाने को

       जाए कौन कमाने को

मैंने कहा भगवान से खजूर और ताड़ी याद आ गयी…..

अब खजूर पे मत चढ़ा देना मुझको । वो मिसेज शर्मा भी तो काव्य पाठ करतीं  हैं एक कार्यक्रम में देखा था, वहाँ तो बिल्ला लगाएँ थीं, मुझे देखा तो मुस्कुराकर  अभिवादन किया  मेरा,  वहाँ पर  काव्य पाठ वीर रस से शृंगार  रस तक  पहुँच गया, श्रोता भी गजब के थे, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पंडाल गूंज उठा,  एक कवि की कल्पना तो देखिए उसने कहा ताड़ के नीचे खड़ा कर देंगे, ताड़ी का मजा मिलेगा ।

उन्होंने बात को बदलते हुए कहा आपकी बड़ी दीदी को संरक्षिका होना चाहिए काव्य सम्मेलन का ।  हम कब तक पुरानी यंग लेड़ी की वापसी का इन्तज़ार करेंगे,  बहुत ही सुस्त व भयंकर कामचोर हैं अभी तक डॉकूमेंट भी  नहीं भेजा चलिए कोई बात नहीं,  व्यंग्य लिखने हेतु टॉपिक ढूंढ रहे थे मिल गया पत्रकार महोदय ने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा । आप भी मेरे अखबार में जुड़ जाइए खूब काव्य रचनाएँ प्रकाशित होंगी ।

अपने दो चार व्यंग्य दे दीजिए, काव्यपाठ के बीच- बीच में हास परिहास के काम आएंगे जब श्रोताओं का मन भटका तो उनको रोकने के लिए सुना दिया  करेंगे , लोग भी कमाल के होते हैं कविता से  तो ऊब जाते हैं पर हास्य मिश्रित चुटकुले को सर आँखो पर लेते हैं अब कौन पूँछे कि अमा कविता सुनने को आए थे आप या यूं ही गम ग़लत करने को तशरीफ का टोकरा लेकर हाज़िर हो गए  ।

पत्रकार महोदय ने फिर बात बदलते हुए कहा किसी और को ढूंढ लीजिये वरना मेरा तो  …… मंत्र है ही ।

बने रहो पगला

काम करेगा अगला ।

अनुभवी लोगों का सूत्र है ये , अरे कुछ देर पहले ताड़ी की बात निकली थी आप कैसे जानती हैं ?

क्या आपके यहाँ निकाली जाती है ?

संभव तो नहीं है पर कहावतों के बिना कोई बात प्रभावी होती ही नहीं सो बीच – बीच में फिट कर देती हूँ मंद- मंद मुस्कुराते हुए कहा ।

चलो कुछ तो टाइम पास हुआ अब चलती हूँ मोबाइल भी चार्ज हो गया होगा ।

बहन जी तो अभी तक क्या सत्संग हो रहा था ।

अरे वो ताड़ी की बात याद आई हमारे इलाके में

बरसात में खूब बिकती है।

पढ़ती तो हमेशा थी आपका लिखा व्यंग्य पेपर में पर  अब देख रही हूँ बात- चीत में भी आप बख़ूबी कटाक्ष करते हैं ।

व्यंग्य माला निकल जायेगी, कहिए तो अपनी संस्था में बात करूँ मैंने कहा । शुभकामना पत्र पर , अलंकारिक भाषा में आप लिख लेना मेरी तरफ़ से , सिग्नेचर मैं कर दूंगी मुस्कुराते हुए मैंने कहा ।  चलते- चलते चंद पंक्तियाँ सुना ही देती हूँ , वो कहते हैं न जहाँ भी मौका मिले काव्यज्ञान देने से नहीं चूकना चाहिए…….

गीतिका जो कवि रचे , संगीत सँग मधुहास हो ।

नेह रंग  में   रंग सभी, करते  चलें  परिहास हो ।।

भावनाओं को समेटे,   मान  अरु  सम्मान  नित ।

वक्त  चाहें  कुछ  रहे,  छाया नवल उत्साह  हो ।।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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सूचनाएँ/Information ☆ व्यंग्यम समाचार – व्यंग्य समीक्षा  गोष्ठी संपन्न ☆ प्रस्तुति -श्री रमेश सैनी

सूचनाएँ/Information

☆ व्यंग्यम समाचार – व्यंग्य समीक्षा  गोष्ठी संपन्न   ☆

श्री रमेश सैनी

विगत दिवस व्यंग्यम जबलपुर द्वारा डा.लालित्य  ललित का व्यंग्य संग्रह “पांडेय जी और जिंदगीनामा’ तथा डॉ रमेश चंद्र खरे का व्यंग्य संग्रह “श्रेष्ठ व्यंग्य” पर समीक्षा गोष्ठी आयोजित की गई. गोष्ठी के आरंभ में  विमर्श की सुविधा हेतु लालित्य ललित की पुस्तक “पांडेय जी और जिंदगीनामा” से एक रचना”पाण्डेय जी और सोशल मीडिया” का पाठ रमेश सैनी ने और रमेश चंद्र खरे की पुस्तक “श्रेष्ठ व्यंग्य” से एक रचना “लोकतांत्रिक लोचों का तंत्र लोक”का पाठ जयप्रकाश पांडेय ने किया .

तत्पश्चात “पांडेय जी और जिंदगीनामा” पर अभिमन्यु जैन और प्रतुल श्रीवास्तव ने समीक्षात्मक आलेख का पाठ किया और दोनों समीक्षकों ने पुस्तक की अनेक रचना पर विस्तार से अपनी बात करते हुए रचनाओं की विशेषताओं पर विभिन्न बिंदुओं पर बारीकी से चर्चा की.  डॉ. रमेश चंद्र खरे की पुस्तक “श्रेष्ठ व्यंग्य” पर डॉ कुंदन जी परिहार और व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ने अपने समीक्षात्मक आलेख पढ़े. संग्रह की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते हुए समीक्षक द्वय कहा कि लेखक के विषय चयन से लेखक की सामाजिक संबंद्धता और मानवीय मूल्यों की चिंता झलकती है. विमर्श को आगे बढ़ाते कहा डॉ विजय तिवारी किसलय ने दोनों पुस्तकों पर चर्चा करते हुए कहा कि जिंदगीनामा में लेखक को जीवन और अपने आसपास की प्रवृत्तियों को पकड़ने की महारत हासिल है. खरे जी की रचनाएं, व्यंग्य परंपरा की रचनाएं है. उनकी दृष्टि स्पष्ट है और वे सहज ढंग से विसंगतियों को पाठक के समक्ष रखते हैं. इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए डाँ कुंदन सिंह परिहार ने जिंदगीनामा की रचनाओं पर कहा कि लेखक को अपने  कहन में सावधानी रखना चाहिए .लेखक को जीवन की विसंगतियों को पकड़ने की दृष्टि है एन एल पटेल ने अपनी चर्चा में कहा कि रमेश चंद्र खरे के लेखन में सामाजिक संवेदना और विचारों में परिपक्वता झलकती है .जबकि लालित्य ललित दैनिक जीवन और आम वर्ग की विसंगतियों को सफलतापूर्वक पकड़ते हैं. अभिमन्यु जैन ने पांडेय जी और जिंदगी नामा पर अपने आलेख में अपनी बात रखते हुए कहा कि ललित में एक अलग प्रकार की स्वच्छंदता है. उनकी भाषा  प्रकृति के अनुरूप शब्द चुन लेती है .जयप्रकाश पांडे ने खरे जी की पुस्तक पर अपने विचार रखते हुए कहा कि उनकी रचनाएं सामाजिक विसंगतियों पर सटीक प्रहार करते हैं और ललित व्यक्तिगत अधिक है. जो रचना की पठनीयता को बढ़ा देते हैं .

दूसरे सत्र में व्यंग्यम की नियमित.व्यंग्य पाठ गोष्ठी हुई। विवेक रंजन श्रीवास्तव ने “डर के आगे जीत है” अभिमन्यु जैन ने “दुखी हैं’ जयप्रकाश पांडेय ने “अच्छे दिन आने वाले हैं’ ओ पी सैनी “आजकल” और रमाकांत ताम्रकार नै “बाबू का सर्टिफिकेट” का पाठ किया. गोष्ठी की अध्यक्षता डा.कुंदन सिंह परिहार ,संचालन रमेश सैनी और आभार प्रदर्शन विजय तिवारी किसने किया .

प्रस्तुति – श्री रमेश सैनी, जबलपुर  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 32 – श्रद्धा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  जीवन का कटु सत्य दर्शाती लघुकथा  “श्रद्धा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #32☆

☆ लघुकथा – श्रद्धा☆

“तू कहती थी न कि हमारा हरीश औरत का गुलाम है. वह बड़ा आदमी हो गया. अब हमारी सेवा क्या करेगा. पर तू देख. वह मेरे हार्टअटेक की खबर सुनते ही शीघ्र चला आया. उस ने मुझे अस्पताल में भरती कराया और यह मोबाइल दे दिया.” हरीश के बापू अपने बड़े बेटे की अपनत्व से अभिभूत थे.

मगर दूसरे ही क्षण उन का यह दिव्यस्वप्न मोबाइल पर आए दोस्त के फोन को सुन कर टूट गया, “अरे भाई हरीश ! अब तो सब बंटवारा हो गया होगा. जल्दी से यहाँ चले आओ. क्या बूढ़े को जिंदगी भर रोने का इरादा है. ”

पिता के हाथ से मोबाइल छूट कर दूर जा गिरा और बेटे के प्रति श्रद्धा की अर्थी उन की अंतिम साँस के साथ निकल गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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