English Literature – Poetry – ☆ Suryadev ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwj’s Hindi Poetry “ सूर्यदेव” published in today’s edition as ☆ संजय दृष्टि  – सूर्यदेव् ☆  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.   )

☆ Suryadev ☆

Suryadev, the Lord Sun, means *certified truth of amazing, unique (Almighty) visible through the eyes.* Sun entering the planetary house of Capricorn sign or Capricorn transition is important from all angles, especially, with the point of view of astronomy, geography, spirituality, philosophy etc.

Uttarayan is the arrival of this divine light beam near the northern hemisphere.  Uttarayana is  the contraction of the period of darkness and expansion of light. Naturally in this period, the days will be bigger and the nights will be shorter.

Bigger day leads to more opportunities *for illumination*, bigger consciousness, larger scope for action.

The representative of the determined resolution to have more action is the consumption of substances made of sesame and jaggery.

The implication is that the energy of sesame and the sweetness of jaggery remain resplendent in our thoughts, words and deeds…

*From the darkness, lead me to the effulgent light!*

 

*Eternal wishes for Makar Sankranti / Uttarayan / Bhogali Bihu / Maghi / Pongal / Khichdi.*

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM




हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆ धड़कता अहसास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वाराव्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है बुंदेलखंडी भाषा की चाशनी में लिपटा एक व्यंग्य “धड़कता अहसास”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆

☆ धड़कता अहसास ☆

भगतराम  बद्रीनाथ धाम की  यात्रा पर गए थे कल ही सकुशल लौटे, जैसे ही घर में प्रवेश किया प्रश्नों की झड़ी लग गयी। भाई पुरोहित जी जो हैं, कालोनी के  लोगों में इनकी अच्छी पैठ है। कम दक्षिणा में भी ग्रह  व गृह दोनों शान्ति करवा देते हैं।

सबकी एक ही शिकायत थी आप फोन क्यों नहीं उठा रहे थे … ???

उन्होंने कहा वहाँ नेटवर्क नहीं आता है, तथा चार्ज करने की समस्या भी रही,  समझा भी तो करिए आप लोग,भगवान से सीधी मुलाकात करके आये हैं अब तो चुटकियों में आप सभी की समस्या यूँ निपट जायेगी जैसे……. कहते – कहते पंडित जी चुप हो गए।

जैसे क्या गुरूजी ……अकेले लड्डू खाय आए, कुछू परसाद भी लाएँ हैं या  कोई और बहाना …?  सुना है संगम भी नहाय आए, सबके लिए कुछ माँगा भगवान बद्दरीनाथ से?

भगतराम जी ने मुस्कुराते हए कहा   अवश्य माँगा वत्स …. *सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्ति-  – –

संगम सब को पार उतार देता है, यहीं तैरना सीखो और भव सागर पार करो, कुछ को सीधे मोक्ष भी देते हैं संगम के पंडे कहते हुए भगत राम जी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए  चुप हो गए।

सुवीर ने कहा बुन्देलखण्ड में कहावत है

*कुंआ की माटी*

*कुअई मैं लगत*

संगम के साथ

ज्ञान की गंगा

यत्न की यमुना

और सरस्वती विलुप्त होकर समाहित है पंडित जी ने कहा।

परम सत्य आदरणीय जय हो नर्मदा की पवित्रता,महानदी की स्वतंत्रता और ब्रह्मपुत्र का विस्तार आपकी  वाणी में समाहित है  भावेश ने कहा।

*सौ डंडी एक बुंदेलखंड़ी* किसी ने सही ही कहा है गुरुदेव सुवीर ने कहा।

अरे भाई  कहावते सुनाना छोड़ो अब, आराम करने दो गुरुदेव को   बिहारी काका ने कहा।

*ऐसो है आग को छड़को लडैया बिजली खों डरात* बोलते हुए पंडित जी ने सबको प्रणाम कर आगे के कार्यक्रम की तैयारी में जुट गए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1

बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788

[email protected]




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 28 ☆ व्यंग्य – वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में ”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 28 ☆ 

☆ वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में 

समय की तेजी और अनिश्चिंतता में ही उसकी रोमांचकता है.  वर्ष २००० के आने की धमक याद है ना ? लगता था कि कम्प्यूटर के सारे साफ्टवेयर गड़बड़ा जायेंगे वर्ष के अंत में ०० होने के चलते. १९९९ से २००० में प्रवेश नई शताब्दि का आगाज था, और देखते देखते फटाफट नई शताब्दि के दूसरे दशक में आ चुके हैं हम . वर्ष २० २० आ चुका है. ट्वेंटी  ट्वेंटी क्रिकेट में भी यही तेजी है,  जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. इस व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २०..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी  से जल्दी आउट करना होता है.

जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि  कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं,विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं,ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है.प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २० .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन  के रन सिंगल्स हो सकते हैं,यश अर्जन के चौके,  समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते  हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका  है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो साथ ही कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और  खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है,रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है.सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है.  जो खिलाड़ी इस जीवन के क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत  के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है.जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है ? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है. हमें ही तय करना है कि  किस दिशा में हम गेंद मारते हैं.

जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रयता ही हमें स्थापित करती है,जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं. हमें सदैव हर परिस्थिति के लिये फिट बने रहने के यत्न करने होंगे. वर्ष २०२० तो जल्दी ही बीत जायेगा, पर इसकी किस तारीख को हम स्वर्ण अक्षरो में लिख देंगे या किस तारीख पर दुनियां कालिख पोत देगी यह कैलेंडर में छिपा हुआ है. सकारात्मक प्रयास ही हमारे हाथो में हैं, जो हमें निरंतर करते रहना होगें.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 31 ☆ समय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  बेबाक लघुकथा  “समय । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #31☆

☆ लघुकथा – समय☆

 

“सुधीरजी ! सुना है कि आप का एक बेटा इंजिनियर और एक डॉक्टर है.”

“जी ! ठीक सुना है आप ने,” उन्होंने अस्पताल के बिस्तर पर करवट ली .

“फिर भी आप यहाँ पर, अकेले दुःख देख रहे है.”

“वह तो देखना ही है.”

“मैं समझा नहीं. आप क्या कहना चाहते है?”

“यही कि मेरे बच्चें वही कर रहे है जी मैं ने अपने पिता के साथ किया था. यह तो नियति चक्र है. जो जैसे बौता  है वैसा ही काटता है ”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 30 – मराठी क्षणिकाएं …! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है कुछ अतिसुन्दर  मराठी क्षणिकाएं …! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #30☆ 

मराठी क्षणिकाएं …! ☆ 

 

[ 1 ]

हल्ली हल्ली शब्दांचाही

विसर पडू लागलाय

हे आयुष्या तुला संभाळता संभाळता….,

अक्षरांचा हात सुटू लागलाय..

 

[ 2 ]

लहान असताना . . .

फुलपाखरू पकडताना ,

जितकी तारांबळ उडायची ना…

तितकीच तारांबळ ,

सुखाच्या बाबतीत होते हल्ली…!

 

[ 3 ]

मी ठरवलंय आजपासून

मनाशी वाद नाही घालायचा

वाद झालाच तर

विकोपाला नाही न्यायचा…

 

[ 4 ]

सरत्या उन्हात आठवणींचा

सुरू होतो पुन्हा खेळ

जुन्याच आठवणींना पुन्हा

नव्याने घेऊन येते कातरवेळ…

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626




हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 21 ☆ भोर ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  उनकी अतिसुन्दर कविता  “भोर ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 21 ☆

☆ भोर ☆

रात अंधेरी छट गई, हुई सुनहरी भोर

गम के साये से निकल, चल प्रकाश की ओर

 

☆ प्रभात ☆

नई उमंगें ला रहा, लेकर नया प्रभात

कोने में दुबकी खड़ी, वही अंधेरी रात

 

☆ ऊषा ☆

ऊषा की यह लालिमा, भरती मन उत्साह

नई सोच नव जोश से, नई दिखाती राह

 

☆ उजास ☆ 

अंधकार के इरादे, कभी न रहते नेक

बाधित करे उजास को, बुरा काम यह एक

 

☆ सूरज ☆

सूरज से जीवन चले, है प्रकाश का पुंज

चलते रहना सिखाता, कभी न होना लुंज

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌ ।।25।।

देव पुजारी देव को पितृभक्त पितुप्राप्त

भूत उपासक भूत को ,मेरे भक्त मेरे साथ।।25।।

      

भावार्थ :  देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता (गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में देखना चाहिए)।।25।।

 

The worshipers of the Gods go to them; to the manes go the ancestor-worshipers; to the Deities who preside over the elements go their worshipers; My devotees come to Me.।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 30 – स्वयं कभी कविता बन जाएँ …… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक गीत  स्वयं कभी कविता बन जाएं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 30☆

☆ स्वयं कभी कविता बन जाएं…. ☆  

 

होने, बनने में अन्तर है

जैसे झरना औ’ पोखर है।।

 

कवि होने के भ्रम में हैं हम

प्रथम पंक्ति के क्रम में हैं हम

मैं प्रबुद्ध, मैं आत्ममुग्ध हूँ

गहन अमावस तम में हैं हम।

तारों से उम्मीद लगाए

सूरज जैसे स्वप्न प्रखर है……

 

जब, कवि हूँ का दर्प जगे है

हम अपने से दूर भगे हैं

भटकें शब्दों के जंगल में

और स्वयं से स्वयं ठगे हैं।

भटकें बंजारों जैसे यूँ

खुद को खुद की नहीं खबर है।……

 

कविता के संग में जो रहते

कितनी व्यथा वेदना सहते

दुःखदर्दों को आत्मसात कर

शब्दों की सरिता बन बहते,

नीर-क्षीर कर साँच-झूठ की

अभिव्यक्ति में सदा निडर है।……

 

यह भी मन में इक संशय है

कवि होना क्या सरल विषय है

फिर भी जोड़-तोड़ में उलझे

चाह, वाह-वाही, जय-जय है

मंचीय हावभाव, कुछ नुस्खे

याद कर लिए कुछ मन्तर है।……

 

मौलिकता हो कवि होने में

बीज नए सुखकर बोने में

खोटे सिक्के टिक न सकेंगे

ज्यों जल, छिद्रयुक्त दोने में

स्वयं कभी कविता बन जाएं

यही काव्य तब अजर अमर है।…..

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601




English Literature – Poetry ☆ Silence of inner-voice…. ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.)

Creation of this poem is just a drifting thought…pen again broke free…

☆ Silence of inner-voice…☆

Sometimes,

There’s an urge

To drift away endlessly

with the stark solitude,

Sometimes,

There’s an urge

To listen

to the silence of inner-voice…

 

While often

Drowned with thinking,

It occurs

Why not to laugh

on self before the mirror…!

 

Bird trapped

inside this body-cage

Keeps wondering,

Why not

To break free

To soar high in the sky

with expanded wings…

 

In the long life-voyage,

Had a longing desire,

Why not

To say something,

which has always

remained untold…

 

Limiting to self-fragrance,

Spent the entire life…

Why not

To spend some time

Away from the self of myself…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – भोर भई  

 

“मेरे जैसा सूरमा कोई नहीं।”

मैंने कहा, “सही।”

“मेरे जैसा एक मैं ही।”

मैंने कहा, “सही।”

“तब सूरमाओं की यह फौज कहाँ से निकल पड़ी?”

“तुम से कमतर या बेहतर होने का हक रखते हैं सभी।”

उसने कहा, “सही।”

 

आज का समय चिंतनशील हो। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(13 जनवरी 2020, सुबह 11:11)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]