English Literature ☆ Article ☆ How high should I rise? ☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  This article “How high should I rise?” will change your thinking.)    

 ☆ How high should I rise? ☆ 

It was one seemingly ordinary day when I decided to QUIT… All of a sudden, I made a decision to quit my job, my relationship and finally my spirituality. I just wanted to quit my life.

But before that, I went to the wood to have one last talk with God.

I started: “God, can you give me one good reason not to quit?”

His answer really surprised me: “Look around”, He said. “Do you see the fern and the bamboo?”

I replied: “Yes. When I planted the fern and the bamboo seeds, I took very good care of them. I gave them light. I gave them water. The fern quickly grew from the earth.

Its brilliant green covered the floor. Yet nothing came from the bamboo seed. But I did not quit on the bamboo. In the second year the Fern grew more vibrant and plentiful.

But still, nothing came from the bamboo seed. But I did not quit on the bamboo.

He said: “In year three there was still nothing from the bamboo seed. But I would not quit. In year four, again, there was nothing from the bamboo seed. I would not quit.”

“Then in the fifth year a tiny sprout emerged from the earth.

Compared to the fern it was seemingly small and insignificant…But just 6 months later the bamboo rose to over 100 feet tall.

It had spent the five years growing roots. Those roots made it strong and gave it what it needed to survive. I would not give any of my creations a challenge it could not handle.”

After that, He asked me: “Did you know, my child, that all this time you have been struggling, you have actually been growing roots. I would not quit on the bamboo. I will never quit on you.”

“Don’t compare yourself to others.” He added.  “The bamboo had a different purpose than the fern. Yet they both make the forest beautiful.” God said to me: “Your time will come”

“You will rise high”.

I asked: “How high should I rise?”

“How high will the bamboo rise?” He also asked.

I was confused: “As high as it can?”

” Yes.” He said, “Give me glory by rising as high as you can.”

After this conversation I left the forest and I wrote this amazing story. I really hope that these words can help you to see that God will never give up on you.

You should never, never, never, Give up.

Don’t tell the Lord how big the problem is, tell the problem how great the Lord is!…………………….

 

© Ashish Kumar

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी  को  स्व संतोष गुप्ता स्मृति सम्मानोपाधि  से सम्मानित किया गया।  ई- अभिव्यक्ति की ओर से हार्दिक शुभ कामनाएं ।  

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 6 – फांकाकशी ☆

(आपने अब तक पढ़ा – पगली माई शीर्षक से एक भारतीय नारी के जीवन का पूर्वाध पढ़ रहे थे कथा वृत्त पढ़ते हुए यह विचार भी आया होगा कि पगली की कहानी का पगली माई से क्या संबंध हो सकता है, इसके रहस्य को समझने के लिए आपको थोड़ा धैर्य रखना होगा।अब आगे पढ़ें ——–)

पगली का समय अच्छा बीत रहा था, गौतम की उम्र लगभग 12 बरस की हो गई थी, वह अब स्कूल भी जाने लगा था।

प्रा० पाठशाला की आखिरी सीढ़ी लांघने के कगार पर था। दूसरी तरफ उसका पति ज्यों ज्यों बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ रहा था। त्यों त्यों उसकी नशे की लत जवान होती जा रही थी।  जुए शराब के चलते पहले जानवर, फिर गहनें, फिर बर्तन फिर खेती बाड़ी।

अब घर की सारी संपन्नता शराब-जुए की भेंट चढ़ गई थी।  हालात यहां तक बद्तर हो चुके थे कि घर में रोटियों के लाले पड़ रहे थे।

अब तो फाकाकशी की नौबत आ गई थी। पहले उसका पति शराब पीता था, अब शराब उसे पीने लगी थी। नशे की अधिकता ने उसके पति को ठठरी की गठरी बना डाला था।

घर में राशन न होने की स्थिति में पति-पत्नी में अनबन भी  रहने लगी वह अपनी झूठी शान व शेखी के चलते उसे बाहर काम पर भी नही जाने देता। पगली जब भी बाहर काम पर  जाने की बात कहती तो उसे ऐसा लगता जैसे पगली उसके पुरूषार्थ को चुनौती दे रही हो और वह मरखने सांड़ की तरह बिदक जाता।  फिर पति पत्नी में वाक् युद्ध छिड़ जाता। घर महाभारत का मैदान बन जाता। इन सबको गौतम सूनी सूनी आंखों से  देखता सुनता तथा मौन, हो मूकदर्शक बन जाता।

वह पूस मास की जाड़े की रात थी। लगभग दो दिनों से घर में अन्न न होने से घर में फाकाकशी चल रही थी।  गौतम दो दिनों से भूखा था।

दो दिनों से उसका बाप भी घर नहीं आया था। अपनी भूख की पीड़ा तो पगली सीने पर पत्थर रख बर्दाश्त किये जा रही थी। लेकिन गौतम का भूख से मुरझाया चेहरा तथा ऐठती अंतड़ियां पगली  देख नही सकती थी। अंत में राशन लेने के लिए पगली पडोसियों से कुछ पैसे उधार ले आई थी। लेकिन दुर्भाग्य से घर पहुँचते ही उसका सामना पति से हुआ।

एक तरफ जहां पगली और गौतम भूख की पीड़ा से बिलबिला रहे थे। वहीं उसके मन में शराब की तलब मचल रही थी, वह शराब पीने के लिये पगलाया हुआ था। पगली और उसके पति दोंनों की दरवाजे पर ही नजरें चार हुई। यद्यपि वह पगली से नजरें नहीं मिला पाया।

फिर भी उसने चोर दृष्टि से पैसे को साड़ी की गांठ में छुपाते देख ही लिया था। उन पैसों के देखते ही उसकी आंखों में वहशियाना चमक नाच उठी। उसके चेहरे पर साक्षात् शैतान नग्न नर्तन कर उठा और उसने पगली से दारू पीने के लिए पैसे की मांग कर दी। जिसे सुनते ही पगली बौखला  उठी, उसका धैर्य साहस सभी कुछ जबाब दे गये।

उसने पतिव्रत धर्म की सारी मर्यादा तोड़ते हुये उसे पैसे देने से इंकार कर दिया। इस कारण पहले वाक् युद्ध।  फिर बात बढते बढ़ते मार पीट में बदल गई थी।

आज एक बार फिर गौतम ममता और हैवानियत का युद्ध मौन हो मूकदर्शक बन देखने को मजबूर था। एक तरफ एक माँ की ममता भूखी शेरनी की तरह पैसों की रक्षा के लिए अड़ी खड़ी थी, तो दूसरी तरफ उसका पिता नशे की तलब में इंसान से हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था। वह पगली से उधार के पैसे छीनने की ताक में उस पर गिद्ध दृष्टि जमाये खड़ा था। उसे तो अपनी पत्नी की लाचारी बेबसी और भूख से तड़पते बेटे की पीड़ा का एहसास ही नही हो रहा था।

उसकी आँखों में सिर्फ़ और सिर्फ़ शराब की रंगीन बोतलें नांच रही थी । सहसा अकस्मात् उसने भूखे बाज की तरह पगली के हाथ में छुपे पैसों पर झपट्टा मारा। वह भी सतर्क थी उसने उन पैसों को और कसकर पकड़ लिया था।  लेकिन फिर भी उसका दाव पगली पर भारी पड़ा। उसने उधार के पैसे पगली के हाथ से छीन लिए।  अब पगली भी झरबेरी के कांटों की तरह उससे लिपटती नजर आई । उसका उस वहशी शैतान को रोकने का हर प्रयास विफल हो गया।

वह उसके हाथ के पैसे छीन भाग चला था ठेके की ओर,

अब पगली की ममता भूख और पीड़ा से बिलबिलाते  बच्चे को गोद में छुपाये रोने पर विवश थी वह कुछ नहीं कर पा रही थी।

 – अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -7 – नशे का जहर 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 6 ☆ हौसले ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता हौसले । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #6 ☆ हौसले

 

तेरी लहरों पे चढ़ के जाएंगे,

ऐ समंदर हम तो भव सागर भी पार कर जाएंगे,

हौसले किये है हमने अब बुलंद,

अब अंधेरो में भी हम जुगनू जलाएंगे,

आएंगे दौर मुसीबतो के,

फिर भी हम आगे बढ़ाते जाएंगे,

अकेले ही चल पडेंगे हम,

कारवां तो अपने आप बनते जाएंगे,

अपनी मंज़िल वो ही पाते है जो खुद पे विश्वास दिखाते हैं

इसको हम अपना उद्देश्य बनाएंगे ,

तेरे मेरे के चक्कर में पड़े है सब,

हम सबको आरम्भ कर दिखाएंगे,

सीख लिया है हमने सफल जीवन का रहस्य,

अब इस रोशनी को हम सब में जगमगाएंगे,

तेरी लहरों पे चढ़ के जाएंगे,

ऐ समंदर हम तो भव सागर भी पार कर जाएंगे

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)

 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ।।20।।

 

रचते ज्ञानी यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति का योग

पुण्य प्राप्त कर स्वर्ग में करते सुख उपभोग।।20।।

 

भावार्थ :  तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष (यहाँ स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक देव ऋणरूप पाप से पवित्र होना समझना चाहिए) मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।।20।।

 

The knowers of the three Vedas, the drinkers of Soma, purified of all sins, worshipping Me by sacrifices, pray for the way to heaven; they reach the holy world of the Lord of the gods and enjoy in heaven the divine pleasures of the gods.।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक चर्चा ☆ डांस इंडिया डांस – श्री जय प्रकाश पांडेय ☆ “व्यंग्य-लेखन गंभीर कर्म है” – डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आज दिनांक 11 जनवरी को नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  के व्यंग्य संग्रह  “डांस इण्डिया डांस” का विमोचन है।  ऐसे शुभ अवसर पर वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का यह आलेख निश्चित ही पुस्तक की प्रस्तावना स्वरुप एक आशीर्वचन है जो हम अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे ।)
 
ई – अभिव्यक्ति की और से श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी को इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 
☆ पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य -लेखन गंभीर कर्म है”  – डॉ कुंदन सिंह परिहार  ☆

जो लोग व्यंग्य को मनोरंजन का साधन समझते हैं वे व्यंग्य की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझते ।  व्यंग्य -लेखन ज़िम्मेदारी का काम है , यह हल्केपन से ली जाने वाली चीज़ नहीं है ।  हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों ने अपनी सशक्त रचनाओं के माध्यम से पाठकों के समक्ष व्यंग्य के सही रूप को प्रस्तुत किया ।  उनकी रचनाएँ सिर्फ सिखाती ही नहीं है वे व्यंग्यकारों की अगली पीढ़ी के लिए चुनौती भी प्रस्तुत करती है ।  परसाई ने व्यंग्य लेखन को गंभीर कर्म माना ।

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

एक अच्छे व्यंगकार में अनेक गुण अपेक्षित हैं ।  पहले तो व्यंग्यकार संवेदनशील हो, ओढ़ी हुई करुणा से सार्थक व्यंग्यलेखन नहीं होगा ।  दूसरे उसकी द्रष्टि सही हो ।  रूढ़ीवादी और अवैज्ञानिक सोच वाले लेखकों के लिए व्यंग्य को साधना कठिन है ।  लेखक की अभिव्यक्ति प्रभावशाली होनी चाहिए ।  लेखन शैली ऐसी हो जो पाठक को बांधे और साथ ही उसे सोचने को बाध्य करे ।  व्यंग्य का उद्देश पाठक का मनोरंजन करना नहीं हो सकता ।

पुस्तक – डांस इण्डिया डांस ( व्यंग्य-संग्रह) 

लेखक – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य – रु 300/-

प्रस्तुत व्यंग्य -संकलन के लेखक श्री जय प्रकाश पाण्डेय अनेक वर्षों से व्यंग्यलेखन मे सक्रिय हैं ।  वे कई वर्षों तक स्टेट बैंक में सेवा देने के बाद सेवानिवृत्त हुए हैं और अपने सेवाकाल में उन्हे शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के सभी वर्गों के लोगों के जीवन को निकट से देखने का अवसर मिला है ।  एक बैंकर से अधिक सामान्य लोगों की समस्याओं को कौन बेहतर समझ सकता है, बशर्ते की उसके पास संवेदनशील मन हो ।  पाण्डेय जी से हमारे कई वर्षो के संबंध से यह समझने का अवसर मिला कि मुहावरे के अनुसार उनका दिल सही जगह पर है और देश के करोड़ों वंचितों और लाचार लोगों के लिए उनके हृदय में पर्याप्त हमदर्दी है ।  यह हमदर्दी ही लेखक को वंचितों, पीड़ितों का प्रतिनिधि और उनकी आवाज़ बना देती है ।

इस संग्रह के विषयों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है की लेखक ने आज की सभी ज्वलंत समस्याओं को छुआ है ।  विषयों के चुनाव और उनके ‘ट्रीटमेण्ट’ से लेखक की पक्षधरता और उसकी संवेदनशीलता ज़ाहिर होती है ।  जीवन के प्रति लेखक का दृष्टिकोण उसकी रचनाओं से पकड़ मे आ जाता है, वहाँ ‘साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं’ वाली बात नहीं चलती ।

विषयों का व्यापक फ़लक हमारे सामने आता है इसमे सरकारी आवासीय योजनाओं की धांधली है तो चीन के प्रति हमारा दोहरा रवैया, जी.एस.टी. की भूलभुलैया, गौमाता पर राजनीति, पवित्र नदियों का प्रदूषण, बाढ़ के अपने अर्थ, देश में पसरे अंध विश्वास, बाबाओं का पाखंड और मूर्तियों की राजनीति भी है ।  इनके अतिरिक्त बैंक कर्मियों की अति-व्यस्तता, ए.टी.एम. की दिक्कतें, गरीब को चैक मिलने पर भी भुगतान की दिक्कतें, नाम बदलने की राजनीति, हिन्दी दिवस की रस्म-आदायगी और बापू की कल्पना के भारत के बरक्स आज के भारत का लेखा जोखा भी यहाँ है ।  लेखों मे आम आदमी के लिए लेखक की ‘कंसर्न’ को साफ महसूस किया जा सकता है ।  इस संबंध में कुछ लेखों की पंक्तियों को उदघ्रत करना उचित होगा ।

“पहले वाले साहब नें  इंद्रा आवास योजना में केस बनवाया था, दीवार भर खड़ी हो पाई थी और आगे कुछ भी नहीं हुआ, साहब सब हितग्राहियों का पैसा खा कर ट्रान्सफर करा लिए थे, सब की दीवार बरसात मे गिर गई थी और शहर में साहब का आलीशान बंगला बन गया था”।  (बंगला बखान)

“तहसीलदार ने रंगैया को बोला कि जाकर बैंक वालों से पूछो कि हीरे के व्यापारी को ग्यारह हज़ार करोड़ रुपये दिये थे तो क्या आधार कार्ड लिया था?’ (बैंक मे रंगैया का खाता)

‘हमारी सरकार ने नोट बंदी करके देश विदेश मे नाम कमाया है, बंद हुए 500 और 1000 रुपये के नोटों को सड़ाकर खाद बनाई है जिससे तंदुरुस्त कमल पैदा किए गए हैं’ ।  (‘ए.टी.एम. में खुचड़’)

‘घर की बहू के हाथ से थोड़ा सा दूध गिर जाता है तो सास गोरस के अपमान की बात करके बहू को पाप का भागी बना देती है और उस समय सास और बहुओं ने मिल कर खूब दूध नालियों में बहाया, तब किसी ने नहीं कहा कि सब पापी थे’ ।   (‘अफवाह उड़ाना है पाप’)

शौचालय का शौक ऐसा चर्राया कि शौचालय बना-बना के लोगों ने बड़े बड़े बंगले खड़े कर लिए और शौचालय बिन पानी के गंदगी फैलाने के दूत बन गए’ ।  (‘कचरे के बहाने बहस’)

यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि पाण्डेय जी नें अधिकतर तात्कालिक विषयों पर अपनी कलम चलाई है फिर भी वे बार बार हमारे समाज की ‘क्रानिक’ व्याधियों तक पहुचाने का प्रयास करते हैं ।  समाज मे व्याप्त अन्याय और भ्रष्टाचार तथा आम आदमी की लाचारी और बेबसी उनकी रचनाओं मे बार बार नुमायां होती हैं ।

पाण्डेय जी परसाई जी के निकट रहे हैं और उन्होने परसाई जी के जीवन का अंतिम इंटरव्यू भी लिया था जो काफी चर्चित रहा ।  अतः वे व्यंग्य के राग-रेशे से भली भांति वाकिफ हैं ।  उम्मीद की जा सकती है की आगे उनकी रचनाशीलता नए आयाम ग्रहण करेगी ।

 – डॉ कुंदन सिंह परिहार, जबलपुर, मध्य प्रदेश

सम्प्रति : जय प्रकाश पाण्डेय, 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अरण्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अरण्य

निराशा के पलों में

आक्रोश के क्षणों में,

कई बार सोचा

आग लगा दूँ

अपनी कविताओं के

अरण्य को,

वैसे भी यह अरण्य

घेर लेता है

दुनिया भर की जगह

और देने के नाम पर

छदाम भी नहीं देता,

संताप बढ़ा

चरम पर पहुँचा,

आश्चर्य!!

तीली के स्थान पर

तूलिका उठाई

नई रचना आई,

सृजन की बयार चली

मन उपजाऊ हुआ

अरण्य और घना हुआ,

पर्यावरणविद सही कहते हैं;

व्यक्ति और समाज के

स्वास्थ्य के लिए

अरण्य अनिवार्य हैं!

अरण्य घने होते रहें। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह *मैं नहीं लिखता कविता* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – ९३ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, उस्मानाबाद ☆ कविता – दिलाची सलामी. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।

उस्मानाबाद में त्रिदिवसीय 93 वां अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मलेन  (10-12 जनवरी 2020) का आयोजन संपन्न हो रहा है।आज 11 जनवरी 2020 (3.30 से 4.30 के मध्य ) को  ९३ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, उस्मानाबाद  में आपकी   गौरवपूर्ण काव्य प्रस्तुति है। आप आज इस  अभूतपूर्व अखिल भारतीय कार्यक्रम में अपनी कविता दिलाची सलामी. . . . ! प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आपकी यह रचना ससम्मान अपने पाठकों से साझा करने जा रहे हैं।  इस उपलब्धि के लिए ई-अभिव्यक्ति की ओर से हार्दिक शुभकामनायें । )

 ☆ दिलाची सलामी. . . . ! ☆

 

बसा सावलीला, जिवा शांतवाया

शिवारात माझ्या, रूजे बापमाया .

परी बापमाया, कशी आकळेना ?

दिठीला दिठीची, मिठी सोडवेना.

 

घरे चंद्रमौळी, तुझ्या काळजाची

तिथे माय माझी, तुला साथ द्याची

मनाच्या शिवारी ,सुगी आसवांची

तिथे सांधली तू, मने माणसांची.

 

जरी दुःख  आले, कुणा गांजवाया

सुखे बाप धावे , तया घालवाया

किती भांडलो ते, क्षणी आठवेना

परी याद त्याची, झणी सांगवेना.

 

कुणा भोवलेली , कुणी भोगलेली

सदा ती गरीबी, शिरी खोवलेली .

कधी ऊत नाही, कधी मात नाही

शिळ्या भाकरीची,  कधी लाज नाही.

 

कधी साहिली ना , कुणाची गुलामी

झुके नित्य माथा, सदा रामनामी .

सणाला सुगीला , तुझा देह राबे

तरी सावकारी, असे पाश मागे .

 

जरी वाहिली रे , नदी आसवांची

तिथे नाव येई , तुझ्या आठवांची

गरीबीतही तू , दिले सौख्य नामी

तुला बापराजा , दिलाची सलामी.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 16 ☆ धुंधुरमास भोजन (पोवाडा) ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका  विनोदपूर्ण  गीत  धुंधुरमास भोजन (पोवाडा)। इस गीत के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आप ‘ लोकमान्य हास्य  योग  संघ, दौलतनगर शाखा आनंदनगर पुणे की सदस्य रही हैं। उनके वर्ग की  सदस्याओं द्वारा धुंधुरमास भोजन का आयोजन किया गया। उस वक्त सुरुचिपूर्ण भोजन के बारे में आपके मन में जो विचार आये उन्हें आपने बड़े ही सुरुचिपूर्ण काव्य में शब्दबद्ध किया है।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 16 ☆

☆ धुंधुरमास भोजन (पोवाडा) ☆

 

आला आला हो धुंधुरमास  !

भोजनाचा बेत केला खास !!

 

आमसुली घेवडा- पापडी !

शेंगा मटाराच्या सोलुनी !

चुका भाजी बोरं घालुनी !

घातली वांगी-गाजरं चिरुनी !

हरभऱ्याचे सोलाणे सोलुनी!

दिली कढीपत्त्याची फोडणी !

लेकुरवाळी भाजी करुनी !

आणली यादवांच्या ताईंनी !

चटण्या लोणची आणली कुणीकुणी !!

 

शुभांगीची गाजर कोशिंबीर !

त्यावर हिरवीगार कोथिंबीर !

अशा भाज्या सजल्या सुंदर !

जिलेबीने आणली मस्त बहार !!

 

मूगडाळ- तांदूळ खिचडी !

दालचिनी मसाला घालुनी !

बनविली पराडकर ताईंनी !!

 

खिचडीच्या जोडीला कढी !

शीतलनं केली हवी तेवढी !!

 

काळ्या पांढऱ्या तिळांनी !

जणू नक्षी सुबक काढुनी !

खमंग बाजरीच्या भाकरी !

उर्मिला वाढी लोणी त्यावरी !!

 

धुंधुरमासाच्या भोजनाचा !

बेत असा छान रंगला !!

 

बेत असा छान रंगला !

छान रंगला..ऽऽ..हो..ऽऽऽ..

जी…जी…जी……..

 

©®उर्मिला इंगळे

सातारा.

दिनांक:-२८-११-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #4 ☆ मित….. (भाग-4) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #4 ☆ मित….. (भाग-4) ☆

रोहित नेहमीच बेफिकीरीने जगणारा, कोणालाही कसल्याही बाबतीत न जुमाननारा मुलगा आज एवढ्या घाबरलेल्या अवस्थेत पाहून मित चकित होता. तो आपल्या खुर्चीवर येऊन बसला.

मित- हं बोल, काय म्हणतोयस.

रोहित- मित दा, मला भिती वाटतेय. कसं सांगु तेच कळत नाहीये.

मित हसला.

मित – तुला पण भिती वाटते?

मितचं चिडवलेलं रोहितला आवडलं नाही.

रोहित- मजा घेतोयस माझी

मितला आता हसू आवरेना. कसं तरी त्याने स्वतःला आवरले.

मित- अरे मजा नाही घेत. सांग तुला काय म्हणायचंय ते. घाबरू नको.

रोहित – अरे काय झालं सांगू का?

आणि त्याने त्याच्यासोबत घडलेली गोष्ट सांगायला सुरुवात केली.

प्रेम साधारणतः तेरा – चौदा वर्षाचा मुलगा त्याची सकाळची शाळा संपवून सायकलने घरी जात होता. दुपारची वेळ होती. म्हणून बाहेर फारसं कोणी नव्हतं. मुस्कानने त्याला हाक मारून थांबवले. पुजाही तीच्या जवळच होती. दोघीही पळत पळत त्याच्याजवळ आल्या.

मुस्कान- फोन कर त्याला

तीने हाफतच म्हटले. प्रेम तीचं म्हणनं त्याला समजलं. त्याने स्मित करत खिशातून त्याचा साधा फोन काढला. आणि रोहितचा नंबर डायल केला.

रोहित शेतात काम करत होता. त्याचे आई – बाबाही सोबतीला होते.  त्याचा फोन वाजला. त्याने नंबर पाहिला आणि उचलून

रोहित- हं बोल प्रेम.

प्रेम- घे मुस्कान बात करतेय.

मुस्कानचं नाव ऐकताच त्याच्या अंगात थर-थर व्हायला लागले. त्याने तसाच भितीने थरथरत म्हटले-

रोहित- फोन ठेव प्रेम.

शांत वातावरण असल्याने त्याचं बोलणं मुस्कान आणि पुजालाही एकू जात होते.  त्याचं असं बोलणं ऐकून प्रेम आणि मुस्कानही चकित झाले.

प्रेम- का रे ?

रोहित- तू फोन ठेव, मला भिती वाटतेय….

त्याने घाई घाईत फोन बंद केला. आणि हातातलं काम सोडून कुणालाही न सांगता तो चालता झाला. त्याचं असं न सांगता जाणं आईला खटकलं. तिने त्याला रोखले. पण तो थांबला नाही. आई म्हटली

“थांब बेटा ये संध्याकाळी मग दावते तूला”

पण ते ऐकण्यासाठी तो थांबला कुठे होता. आईला शांत करण्यासाठी बाबा म्हटले

“अगं गेला तो जाऊ दे”

आई- हो का. जाऊद्या तर जाऊद्या मग. मला काय ? हे सगळं तुम्हाला एकट्यालाच करायला लावते की नाही ते बघाच”

इकडे त्याचं असं बालिशपणे बोलण्याने मुस्कान, पुजा आणि प्रेम एकमेकांकडे बघून हसले.आणि चालले गेले

रस्ताच्या बाजूला मुस्कानचं घर होतं. रोहित जेव्हा आला. तेव्हा त्याने चोरट्या नजरेने पाहिले. त्या दोघीही ओट्यावरच बसले होते. त्याला पाहून दोघीही हसल्या. रोहितने चालणे अजून जोरात  केले.

त्याने पुर्ण एकून घेतल्यावर मित म्हटला- बरं, मग तुझं काय म्हणणं आहे?

रोहित क्षणभर गोंधळला.

रोहित- म्हणजे. मला काही कळत नाहीये. तू सांग मी काय करू ते.

मित – मी काय सांगणार? बरं फोन कर

रोहित ( पुन्हा गोंधळला) – अरे मित दा. असं नको सांगू ना. मला काहीच कळत नाहीये काय बोलायचं ते.  तू सांग काय बोलू ते

मित- अरे, त्यात घाबरण्यासारखं काय आहे? तीने तुला फोन केला तर काहीतरी बोलण्यासाठीच केला असेल ना. तू फक्त हॅलो म्हण. ती बोलेल पुढे काय बोलायचं ते.

सायंकाळी मित आणि रोहित बाहेर गेले फिरायला. मुस्कानचे घराजवळून जातांना रोहितने मितला म्हटले  ” मित दा, ती आहे बघ” मितने वळून पाहिले आणि स्मित केले. आणि पुढे चालता  झाला. मुस्कान गोंधळली. ती त्याच्या हसण्याला काही वेगळंच समजून गेली.

 

 (क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 23 ☆ होशोहवास ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “होशोहवास”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 23 ☆

☆ होशोहवास

 

मेरे शहर में हज़ारों लोग हैं जो

दूसरों के गिरहबान में झाँक रहे हैं

अपने गिरहबान में झाँकने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

मेरे शहर में अनगिनत लोग हैं जो

दूसरों की गलतियों पर ताना देते हैं

अपनी गलतियों पर पछताने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

मेरे शहर में हजारों लोग हैं जो

दूसरों के दुखों पर खुश होते हैं

अपने सुख से परे देखने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

मेरे शहर में लाखों  लोग हैं जो

दूसरों के हार पर खुश होते हैं

अपनी जीत के आगे देखने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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