हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 22 ☆ जिंदगी और हालात ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “जिंदगी और हालात”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 22 ☆

☆ जिंदगी और हालात

बदल जाती है जिंदगी,

हालातों के साथ,

इन्सां के पास क्या होता है?

मलता है हाथ

सामना करते हुए ,

कभी झुक जाता है,

ठोकर खाकर गिरने पर,

रूक जाता है।

हवा का रूख पलटकर ,

कभी चलता है,

जलते चरागों से खुद को,

कभी बचाता है।

बदल जाते हैं रास्ते,

बदल जाते हैं चराग भी

हालातों से बचकर ,

जहां कभी बनता है?

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दौर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  दौर 

आजकल

कविताएँ लिखने पढ़ने का

दौर खत्म हो गया क्या..?

नहीं तो ;

पर तुम्हें ऐसा क्यों लगा..?

फिर रोजाना ये अनगिनत

विकृत,नृशंस कांड

कैसे हो रहे हैं..!!!

बाँचना, गुनना नियमित रहे, मनुष्यता टिकी रहे।

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 24 – इतिहास का सर्वोत्तम सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इतिहास का सर्वोत्तम सच।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 24 ☆

☆ इतिहास का सर्वोत्तम सच

 

भगवान ब्रह्मा ने अपने मस्तिष्क की सिर्फ एक इच्छा से चार कुमार (‘कु’ का अर्थ है ‘कौन’ और ‘मार’ का अर्थ है ‘मृत्यु’, तो कुमार का अर्थ है कि उसे कौन मार सकता है ? अथार्त कोई नहीं । इसलिए कुमार का अर्थ है मृत्यु से परे) मानस  (मन की इच्छा से निर्मित)पुत्रों को पैदा किया।उनके नाम सनक (अर्थ : प्राचीन), सनन्दन (अर्थ : आनंदमय), सनातन (अर्थ : अनंत, जिसकी कोई शुरुवात या अंत ना हो) और सनत (भगवान ब्रह्मा, शाश्वत, एक संरक्षक) थे।जब चार कुमार अस्तित्व में आये, तो वे सभी शुद्ध थे। उनके पास गर्व, क्रोध, लगाव, वासना, भौतिक इच्छा (अहंकर, क्रोध, मोह, कार्य , लोभ) जैसे नकारात्मक गुणों का कोई संकेत तक नहीं था। भगवान ब्रह्मा ने इन चारों को ब्रह्मांड बनाने में सहायता करने के लिए बनाया था, लेकिन कुमारों को कुछ भी बनाना नहीं आता था और उन्होंने खुद को भगवान और ब्रह्मचर्य के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने ब्रह्मा जी से हमेशा पाँच वर्षीय बच्चे बने रहने के वरदान के लिए अनुरोध किया, क्योंकि पाँच वर्षीय बच्चे के मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं आ सकता है। तो वे हमेशा पाँच साल के बच्चे की तरह ही लगते थे ।

जय (अर्थ : जीत, आम तौर पर शारीरिक जीत लेकिन हमेशा नहीं) और विजय (अर्थ: जीत, आम तौर पर मस्तिष्क  की जीत, लेकिन हमेशा नहीं) वैकुंठ के द्वारपाल थे। एक बार उन्होंने वैकुंठ के द्वार पर कुमारों को बच्चे समझ कर रोक दिया। उन्होंने कुमारों को बताया कि श्री विष्णु इस समय आराम कर रहे हैं और वे अभी उनके दर्शन नहीं कर सकते हैं।

सनातन कुमार ने उत्तर दिया, “भगवान अपने भक्तों से प्यार करते हैं और हमेशा उनके लिए उपलब्ध रहते हैं। आपको हमे हमारे प्रिय भगवान के दर्शन करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है” लेकिन जय और विजय उनकी बातों को समझ नहीं पाए और लंबे समय तक कुमारों से बहस करते रहे। यद्यपि कुमार बहुत शुद्ध थे, लेकिन भगवान की योजना के अनुसार अपने द्वारपालों को एक सबक सिखाने और ब्रह्मांड के विकास के लिए, उन्होंने कुमारों के शुद्ध दिल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। गुस्से में कुमारों ने दोनों द्वारपालों जय और विजय को शाप दिया, जिससे की वह अपनी दिव्यता को छोड़ सकें और पृथ्वी पर प्राणियों के रूप में पैदा हो सकें और वहाँ रह सकें।

जब जय और विजय को वैकुंठ के प्रवेश द्वार पर कुमारों ने शाप दिया, तो भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए और द्वारपालों ने विष्णु से कुमारों द्वारा दिए गए अभिशाप को हटाने का अनुरोध किया। विष्णु जी ने कहा कि कुमारों के अभिशाप को वापस नहीं किया जा सकता है। इसके बजाय, वह जय और विजय को दो विकल्प देते हैं। पहला विकल्प पृथ्वी पर सात जन्म विष्णु के भक्त के रूप में लेना है, जबकि दूसरा तीन जन्म विष्णु के दुश्मनों के रूप में लेना है।

इन वाक्यों में से किसी एक पूर्ण करने के बाद ही वे वैकुंठ में अपने पद को पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के साथ स्थायी रूप से रह सकते हैं। जय और विजय सात जन्मों के लिए भगवान विष्णु से दूर रहने का विचार सोच भी नहीं सकते थे तो वे तीन जन्मों तक भगवान विष्णु के दुश्मन बनने के दूसरे विकल्प के लिए सहमत हो गए।

भगवान विष्णु के दुश्मन के रूप में पहले जन्म में, जय और विजय सत्य युग में हिरण्याक्ष (अर्थ : स्वर्ण की आँखों वाला, सोने की धुरी) और हिरण्यकशिपु (अर्थ : सोने में पहने हुए) के रूप में पैदा हुए ।  दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात्रि  में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसके प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आये । वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात्रि, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ। हिरण्याक्ष का वध वाराह अवतारी विष्णु ने किया था। वह हिरण्यकशिपु का छोटा भाई था। हिरण्याक्ष माता धरती को रसातल में ले गया था जिसकी रक्षा के लिए आदि नारायण भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया, कहते हैं वाराह अवतार का जन्म ब्रह्मा जी के नाक से हुआ था । कुछ मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि हिरण्याक्ष और वाराह अवतार में कई वर्षों तक युद्ध चला । क्योंकि जो राक्षस स्वयं धरती को रसातल में ले जा सकता है आप सोचिए उसकी शक्ति कितनी होगी ? फिर वाराह अवतार के द्वारा मारे जाने वाले थप्पड़ की आवाज के द्वारा हिरण्याक्ष का वध हुआ ।

अगले त्रेता युग में, जय और विजय रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए, और भगवान विष्णु ने भगवान राम अवतार के रूप में उनका वध किया।

द्वापर युग के अंत में, जय और विजय शिशुपाल (अर्थ : बच्चे का संरक्षक) और दन्तवक्र (अर्थ : कुटिल दांत) के रूप में अपने तीसरे जन्म में उत्पन्न हुए। दन्तवक्र, शिशुपाल के मित्र जरासंध (अर्थ : थोड़ा सा संदेह) और भगवान कृष्ण के दुश्मन थे। जिनका वध भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार ने किया ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – ☆ मराठी कविता ☆ हायकू ☆ उद्याने ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर ☆ 
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की  हायकू शैली में कविता “”उद्याने”(७ रचना)”। )

 

☆ “उद्याने”(७ रचना) ☆ 

(हायकू शैली)

 

छान उद्याने
गाव असो शहर
वाटे सुंदर           १,

असंख्य फुले
उद्यानातला गंध
करी बेदुंध           २,

फुलपाखरें
हो फुला फुलांवर
रंगीत तारें           ३,

अफाट माया
अनाथांना लाभते
झाडांची छाया         ४,

निवांतक्षणीं
गुजगोष्टी करती
वृध्दांची वस्ती         ५,

आपसूकच
दिसे पिकली पानें
कोवळी मनें           ६,

उद्यानांतच
काव्यांनंदचा स्पर्श
सुखद हर्ष           ७.

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ सावित्रीमाई फुलेंच्या 189 व्या जयंती निमित्त ☆ क्रांती….!!! ☆ – श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

 

(आज प्रस्तुत है श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे जी की  नारी सशक्तिकरण एवं नारी शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति की ज्योति जगाने वाली  स्व सावित्रीबाई फुले जी की  3 जनवरी को  उनकी 189 वी जयंती पर उन्हें सादर नमन करते हुए यह  एक भावप्रवण कविता “☆ क्रांती….!!! ”।)

 

☆ क्रांती….!!! ☆ 

(सावित्रीमाई फुलेंच्या 189 व्या जयंती निमित्त  शिक्षणाच्या क्रांतिज्योतींना विनम्र अभिवादन…. )

 

हे सावित्रीच्या सावित्री

माझी झलकारी,काशी,आनंदीबाई

आम्ही किती केला गाजावाजा

तुझ्या त्या समर्पणाचा….

विद्रोहाने पेटून उठाणाऱ्या

तुझ्या त्याच स्त्रीवादाचा…!

याचं स्त्रीवादाच्या नावाखाली

तुझचं शस्त्र आणि सांत्वन करून

तुलाच पुन्हा नव्याने आज

बेड्या घातल्यात

…त्या मानसिक गुलामीच्या..!!

लग्न,संसार,प्रेम आणि

एकनिष्ठतेच्या रांडाव मर्माखाली

तूचं तुला खरं तर

घेराव घातलायसं,

….सत्ताकतेच्या उंबऱ्याआड़..!!!

शिक्षणाच्या शस्त्रामुळं

तू आता मात्र

झगड़ा करतीयेस

सर्व काही झुगारून

…बेमुदत मुक्त जगण्यासाठी..!!

“अगं ,

तू-

ओरड़तेस..

रडतेस..

झगड़तेस..

लढतेस..नव्हे नव्हे तर

फटकारतेस सुद्धा…

कारण,

तुला तुझं “माणुसपणं” हवं आहे..!!”

पण माफ कर आम्हाला

आम्ही याचचं बाजारीकरण केल गं

आणि तुझं बाईपणं माननं

अजुन सोडलचं नाही..!!

आता मात्र पुन्हा

तुलाच लढावं लागेल

साऊ बरोबर ज्योतीही व्हावं लागेल

तुझच बाईपणं तुलाच सोडाव लागेल

तेव्हाच स्त्रीवादाची क्रांती होईल…

-ती फ़क्त माणुसपणासाठी…!!!

 

©  कवी विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

मु/पो-वेळू (पाणी फाउंडेशन), तालुका-कोरेगाव, जिल्हा-सातारा 415511

मोबाइल-7743884307  ईमेल – [email protected]

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #3 ☆ मित….. (भाग-3) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #3 ☆ मित….. (भाग-3) ☆

(मनावर आधीराज्य गाजवणारं, हक्काने रागावणारं, रूसणारं आणि तळमळत असलेल्या मनाला हळूच स्थिर करणारं असं  कोणीतरी प्रत्येकाच्या आयुष्यात येतं आणि सा-या जीवनाचा थकवा एका क्षणांत घालवून जातं. अशीच सोशल मिडिया अॅप द्वारे ओळख झालेली रिमझिमही आता मनाने मितच्या जवळ येऊ लागली आहे. आणि मित तर तिचा फोटो पाहताच तिच्या प्रेमात पडलाय. मैत्री पर्यत ठीक पण प्रेम ते ही कधीही न पाहिलेल्या व्यक्तीवर? हे शक्य आहे का?? असे एक ना अनेक प्रश्न तिच्या मनात उठताहेत. ती खुप विचार करतेय. पण त्याच्या शब्दांवर तीही भाळतेय. हे आकर्षण तिचं प्रेमात बदलू शकतं का?? हे आपण पुढील भागात पाहू…..

एक महिना झाला होता मितला घरी येऊन. बाबांच्या आजाराचं डाॅक्टरांनी नुकतंच निदान केलं होतं. डाॅक्टरांनी त्यांना पुर्णवेळ आरामाचा सल्ला दिला होता. मित शिक्षित होता. म्हणून बाबांना  दवाखान्यात ने-आण करणं. औषध वगैरे वेळेवर देणं हे सगळं मितच बघत होता. म्हणून मागच्या महिन्याभरात तो होस्टेलला परतला नव्हता. विद्यापीठाच्या अगामी युवारंग महोत्सवासाठी त्याने जे नाटक लिहीलं होतं. त्याच्या तयारीसाठी तो संघरत्न आणि बाकीही त्याच्या टीमच्या संपर्कात होताच. त्याच्या गैरहजरीत श्रोतीका  आणि प्रियंका उत्तम प्रकारे ते नाटक बसवत होत्या. पण त्याची कमी सर्वांना जाणवत होतीच. तसं वेळोवेळी त्याची मदत त्या घेत होत्याच. आणि शिक्षकही होते मदतीला.

इकडे रिमझिमशी गप्पा  दिवसेंदिवस वाढत चालल्या होत्या. जेव्हा तीचा ‘hi’  मॅसेज आल्यानंतर तिच्याबद्दल तो जाणून घ्यायला उत्सुक झाला.

मित- व्हेअर आर यु फ्राॅम?

त्याने प्रश्न केला

रिमझिम- आसाम. यु??

तिनेही उत्तर दिले. आणि लगेच प्रश्नही केला.

मित- ओह. वाॅव आसाम इज व्हेरी बेस्ट प्लेस यु नो. इज इन नाॅर्थ इस्ट आय थिंक??

त्याने प्रोत्साहीत करण्यासाठी लगेच म्हटले.

रिमझिम- येस. यु आर फ्राॅम?

मित- महाराष्ट्रा

रिमझिम- नाईस.

एवढं बोलून ती ऑफलाईन चालली गेली. पहिल्यांदा ते बोलले म्हणेन  मितही जास्त बोलला नाही. दुस-या दिवशी त्याने  ‘गुड माॅर्निंग ‘ चा मॅसेज केला. आणि आपल्या कामाला लागला. त्यांचं बोलणं आता रोजच होऊ लागलं.  लवकरच ते चांगले मित्र बनले. एकमेकांच्या चांगल्या वाईट सवयी, स्वभाव जाणुन घेऊ लागले. तिलाही त्याच्याशी बोलण्यात दिवसेंदिवस रस वाढत जात होता.

आज मित घरीच होता. आई-बाबा बहीणीच्या घरी गेल्यामुळे आज त्याला दवाखान्यातही जायचं नव्हतं म्हणून दुपारच्या वेळी त्याच्या अभ्यासाच्या टेबलावर तो निवांत बसला होता.  Hey तिचा मॅसेज आल्यावर त्यांच्या गप्पा सुरू झाल्या.

मित- आज काॅलेज नही गई

रिमझिम- नही आज छूट्टी है.

मित – ओह. ओके.

रिमझिम- जी.

मित- यार हम इतना दिनो से बाते कर रहे है. और मैने आपका नाम ही नही पूँछा आपका नाम क्या है?

रिमझिम – रिमझिम. लिखा तो है.

मित- अरे एसे नाम के आय डी फेक भी होते है. लडके फेक आय डी बना कर रखते है. इसलिए पूँछा.

रिमझिम- ये तुम लडको की प्रोब्लेम है. इसमे मै क्या कर सकता हूँ . मेरा तो यही नाम है.

आणि हसण्याची इमोजी पाठवली . त्यानेही हसण्याची इमोजी पाठवली.

मित- कोई बात नही. लेकीन नाम बहोत अच्छा है आपका. रिमझिम बरसती सावन की धार पुरे कायनात को ठंडक पहुंचाती हैं और आपकी मुस्कान आँखो को.

त्याचा हा मॅसेज वाचून ती स्मित हसली आणि “शायद” एवढं म्हटली. त्याला वाटलं लाजली असावी.

मित – शायद इसी ठंडक की तलाश मे आँखे बरसों से रिमझिम सी बारिश ढूँढ रही थी. जो आप पर जाकर रूकी.

ये मॅसेजला तीने उत्तर दिले नाही. फक्त स्मित हास्याची एक इमोजी पाठवली. त्याने जास्त वेळ उत्तराची वाट न पाहता वाचनात व्यस्त झाला.

थोडाच वेळ झाला होता. तेव्हा दारावर एक जोराची थाप पडली. “मित दादा, लवकर दार उघड” असा काहीसा घाबरलेल्या आवाजात रोहित दरवाज्यावर दार उघडण्यास सांगत होता. मित उठला आणि दरवाज्याकडे जाऊ लागला. तेवढ्यात रोहितने पुन्हा थाप दिली.

 मित- अरू उघडतोय ना. थांबशील की नाही थोडं

मितने दार उघडलं. रोहित घाई-घाईत आत घुसला.

मित- अरे रोहित, एवढ्या कसल्या घाईत आहेस.  काय झालं?

मितने त्याला प्रश्न केला.

रोहित – अरे मित दादा. तू ये लवकर तूला एक गोष्ट सांगायचीय. लवकर ये ना……

त्याला कसलाच धीर निघत नव्हता.मित त्याच्या जवळ खुर्चीवर जाऊन बसला.

मित- हं. बोल

रोहित खुप घाबरल्यासारखा होता. पण कुठेतरी हास्यही त्याच्या ओठांवर तरळत होतं

   (क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और दैवी प्रकृति वालों के भगवद्भजन का प्रकार )

 

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।।12।।

 

उनकी आशा कर्म ओै” ज्ञान सभी हैं व्यर्थ

क्योकिं भ्रामक आसुरी प्रकृति ही उनका अर्थ।।12।।

      

भावार्थ :  वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को (जिसको आसुरी संपदा के नाम से विस्तारपूर्वक भगवान ने गीता अध्याय 16 श्लोक 4 तथा श्लोक 7 से 21 तक में कहा है) ही धारण किए रहते हैं।।12।।

 

Of vain  hopes,  of  vain  actions,  of  vain  knowledge  and  senseless,  they  verily  are possessed of the deceitful nature of demons and undivine beings.।।12।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 28 ☆ सोSहम् शिवोहं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “सोSहम् शिवोहं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें इस प्रश्न का उत्तर जानने  के लिए प्रेरित करता है कि “मैं  कौन हूँ ?”डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 28☆

☆ सोSहम् शिवोहं

 

सोSहम् शिवोहं…जिस दिन आप यह समझ जाएंगे  कि ‘मैं कौन हूं’  फिर जानने के लिए  कुछ शेष नहीं रहेगा। इस मिथ्या संसार में मृगतृष्णा से ग्रसित मानव दौड़ा चला जाता है और उन इच्छाओं को पूर्ण कर लेना चाहता है, जो उससे बहुत दूर हैं। इसलिए वे मात्र स्वप्न बन कर रह जाती हैं और उसकी दशा  तृषा से आकुल उस मृग के समान हो जाती है, जो   रेत पर पड़ी सूर्य की किरणों को जल समझ दौड़ा चला जाता है और  अंत में अपने प्राण त्याग देता है।  यही दशा मानव की है, जो अधिकाधिक ख-संपदा पाने के का हर संभव प्रयास करता है…  राह में आने वाली आपदाओं की परवाह नहीं करता और संबंधों को नकारता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है । उसे दिन-रात में कोई अंतर नहीं भासता। वह अह- र्निश कर्मशील रहता है और एक अंतराल के पश्चात् वह  बच्चों के मान-मनुहार, पत्नी व परिजनों के सान्निध्य  से  वंचित रह जाता है। वह उसी भ्रम में रहता है  कि सुख-सुविधाएं- स्नेह व प्रेम का विकल्प हैं। परंतु  बच्चों को आवश्यकता होती है…माता के स्नेह, प्यार-दुलार व साहचर्य की…और पिता के सुरक्षा-दायरे की, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं  और उनके सानिध्य में खुद को किसी बादशाह से कम नहीं आंकते। परंतु आजकल बच्चों  व बुज़ुर्गों को  एकांत की त्रासदी से जूझना पड़ता है, जिसके परिणाम-स्वरूप  बच्चे गलत राह पर अग्रसर हो जाते हैं  और मोबाइल व मीडिया की गिरफ़्त में रहते हुए कब अपराध-जगत् में प्रवेश कर जाते हैं,  जिसका ज्ञान उनके माता-पिता को बहुत देरी से होता है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं। वे आंख, कान व मुंह बंद कर के  जीने को विवश होते हैं,  क्योंकि कोई भी माता-पिता अपने व बच्चों के बारे में, एक वाक्य भी हज़म नहीं कर पाते।इतना ही नहीं,उन्हें उसी पल उनकी औक़ात का अहसास  दिला दिया जाता है। अपने अंतर्मन के उद्वेलन से जूझते हुए वे अवसाद के शिकार हो जाते हैं और बच्चों के माता-पिता भी  आत्मावलोकन करने को  विवश हो जाते हैं, जिसका ठीकरा वे एक-दूसरे पर फेंक कर अर्थात् दोषारोपण कर निज़ात पाना चाहते हैं। परंतु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अक्सर ऐसी स्थिति में वे अलगाव की राह तक पहुंच जाते हैं।

संसार में मानव के दु:खों का सबसे बड़ा कारण है… विश्व के बारे में पोथियों से ज्ञान प्राप्त करना, क्योंकि यह भौतिक ज्ञान हमें मशीन बना कर रख देता है और  हम अपनी हसरत को पूरा कर लेना चाहते हैं, चाहे हमें उसके लिए बड़े से बड़ी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े…भले ही हमें उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग देना पड़े। हम अंधाधुंध दौड़ते चले जाते हैं, जबकि हम अपने जीवन के लक्ष्य से भी अवगत नहीं होते। सो! यह तो अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि ‘मैं कौन हूं और मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है?’

वास्तव में इस आपाधापी के युग में यह सब सोचने का समय ही कहां मिलता है… जब हम अपने बारे में ही नहीं जानते, तो जीव-जगत् को समझने का प्रश्न ही कहां उठता है? आदिगुरु शंकराचार्य पांच वर्ष की आयु में घर छोड़ कर चले गए थे… इस तलाश में कि ‘मैं कौन हूं’ और उन्होंने ही सबसे पहले अद्वैत दर्शन अर्थात् परमात्मा की सत्यता से अवगत कराया कि ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है।  संसार में जो कुछ भी है…माया के कारण सत्य भासता है और ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है…वह सत्य है, निराकार है, सर्वव्यापक है, अनश्वर है। परंतु समय अबाध गति से निरंतर चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। प्रकृति के विभिन्न उपादान सूर्य, चंद्रमा,तारे व पृथ्वी आदि सभी क्रियाशील हैं। इसलिए सब कुछ निश्चित समयानुसार घटित हो रहा है और वे सब नि:स्वार्थ भाव से दूसरों  के हित के लिए  काम कर रहे हैं। वृक्ष अपने फल नहीं खाते, जल व वायु अपने तत्वों का उपयोग- उपभोग नहीं करते। श्री परमहंस योगानंद जी का यह सारगर्भित वाक्य ‘खुद के लिए जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता, पर जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तो वे आपके लिए जीते हैं’ बहुत सार्थक संदेश देता है। आप जैसा करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सर्वोत्तम होता है। गीता के  निष्काम कर्म का संदेश…फल की इच्छा न रखने व मानवता-  वादी भावों से आप्लावित है।

स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य हमें ऊर्जस्वित करता है कि ‘किस्मत के भरोसे न बैठें बल्कि पुरुषार्थ यानि मेहनत के दम पर खुद की किस्मत बनाएं।’  परमात्मा में श्रद्धा, आस्था व विश्वास रखना तो ठीक है, परंतु हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने का औचित्य नहीं। अब्दुल कलाम जी के विचार विवेकानंद जी के भाव  को पुष्ट करते हैं, कि जो लोग परिश्रम नहीं करते और भाग्य के सहारे प्रतीक्षा -रत रहते हैं,  तो उन्हें जीवन में उस बचे हुये फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि पुरूषार्थी व्यक्ति अपने अथक परिश्रम से यथासमय उत्तम फल प्राप्त कर ही लेता है। सो!आलसी लोगों को मनचाहा फल कभी भी प्राप्त नहीं होता।

‘अपने सपनों को साकार करने का  सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप जाग जाएं’— पाल वैलेरी का कथन बहुत सार्थक है और अब्दुल कलाम जी मानव को यह संदेश देते हैं कि ‘खुली आंखों से सपने देखो, अर्थात् यदि आप सोते रहोगे, तो परिश्रमी व पुरूषार्थी लोग आप से आगे बढ़कर वांछित फल प्राप्त कर लेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।’ समय बहुत अनमोल है, लौट कर कभी नहीं आता। सो!क्षहर पल की कीमत समझो।’स्वयं को जानो, पहचानो।’ जिस दिन आप समय की महत्ता को अनुभव कर स्वयं को पहचान जाओगे…अपनी बलवती इच्छा से आप वैसे ही बन जाओगे… आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित सुप्त शक्तियों को पहचानने की, क्योंकि पुरुषार्थी लोगों के सम्मुख तो बाधाएं भी खड़ा  रहने का साहस नहीं जुटा पातीं…इसलिए अच्छे लोगों की संगति करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि उस स्थिति में बुरा वक्त आएगा ही नहीं। जब आपके विचार अच्छे होंगे, तो आपकी सोच भी  सकारात्मक होगी और आप सत्य के निकट होंगे और सत्य सदैव  कल्याणकारी होता है, शुभ होता है, सुंदर होता है और सबका प्रिय होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच आपको निराशा रूपी गहन अंधकार में नहीं भटकने देती। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं और खुश-मिजाज़ लोगों की संगति सबको प्रिय होती है। इसलिए  ही रॉय गुडमैन के शब्दों में ‘हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुशी जीवन की यात्रा का  एक तरीका है, न कि जीवन की मंज़िल’ अर्थात् खुशी जीने की राह है, अंदाज़ है, जिसके आधार पर आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

मानव व प्रकृति का निर्माण पंचतत्वों से हुआ है…  पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और मानव भी अंत में इनमें ही विलीन हो जाता है। परंतु दुर्भाग्य- वश वह आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार  के द्वंद्व से मुक्ति  नहीं प्राप्त कर सकता तथा इसी उहापोह में उलझा रहता है। हमारे वेद-शास्त्र,  तीर्थ- स्थल व अन्य धार्मिक-ग्रंथ हमें समय-समय पर जीवन के अंतिम लक्ष्य का ध्यान दिलाते हैं…जिसका प्रभाव स्थायी होता है। कुछ समय के लिए तो मानव निर्वेद भाव से इनकी ओर आकर्षित होता है, परंतु फिर माया के वशीभूत सब कुछ भुला बैठता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है, उसका नाम-सिमरन व ध्यान करना चाहता है, परंतु उस स्थिति में पांचों कर्मेंद्रियां आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। उसका शरीर शिथिल हो जाता है, बुद्धि कमज़ोर हो जाती है तथा सबसे अलग-थलग पड़ जाता है, क्योंकि वह अहंनिष्ठ  स्वयं को आजीवन सर्वश्रेष्ठ समझता रहा। आत्म-चिंतन करने पर  ही उसे अपनी गल्तियों का ज्ञान होता है और वह प्रायश्चित करना चाहता है। परंतु उसके परिवारजन भी उससे कन्नी काटने लग जाते हैं। परंतु समय गुजरने के पश्चात् उन्हें उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती। सो! अब उसे अपना बोझ स्वयं ढोना पड़ता है।

बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन ‘बुद्धिमान लोगों को सलाह की आवश्यकता नहीं होती और मूर्ख लोग इसे स्वीकार नहीं करते’ अत्यंत सार्थक है, जिसके माध्यम से मानव में आत्मविश्वास किया गया है। यदि वह बुद्धिमान है, तो शेष जीवन का एक-एक पल स्वयं को जानने-पहचानने में लगा देता है… और वह प्रभु का नाम-स्मरण करने में रत रहता है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ अर्थात् प्रभु की सत्ता व महिमा अपरंपार है। मानव चाह कर भी उसका पार नहीं पा सकता। उस स्थिति में उसे प्रभुकथा सत्य  और शेष सब जग-व्यथा प्रतीत होती है और मानव मौन रहना अधिक पसंद करता है।ऐसा व्यक्ति निंदा-स्तुति, स्व- पर व राग-द्वेष से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसे  किसी से कोई शिक़वा-शिकायत नहीं रहती क्योंकि उसकी भौतिक इच्छाओं का तो पहले ही शमन हो चुका होता है। इसलिए वह सदैव संतुष्ट रहता है… स्वयं में स्थित रहता है और प्रभु को प्राप्त कर लेता है। वह कबीर की भांति संसार में उस नियंता के अतिरिक्त किसी को देखना नहीं चाहता…

नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं

न हौं देखूं और को, न तुझ  देखन देहुं

अर्थात् वह प्रभु को देखने के पश्चात् नेत्र बंद कर लेता है, ताकि वह उसके सानिध्य में रह सके। यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व तादात्म्य की स्थिति… जहां आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं रह जाता। सूरदास जी की गोपियों का कृष्ण को दिया गया उपालंभ भी इसी तथ्य को दर्शाता है कि ‘भले ही तुम नेत्रों से तो ओझल हो गए हो, गोकुल से मथुरा में जाकर बस गए हो, परंतु उनके हृदय से दूर जाकर दिखाओ, तो मानें’…उनके  प्रगाढ़ प्रेम को  दर्शाता है। ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ अर्थात् प्रेम की तंग गली में उसी प्रकार दो नहीं समा सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार। अत: जब तक आत्मा-परमात्मा का मिलन नहीं हो जाता, तब तक कैवल्य की स्थिति नहीं आएगी क्योंकि जब तक मानव विषय- वासनाओ…काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार का त्याग कर, मैं और तुम की स्थिति से ऊपर  नहीं उठ जाता, वह लख चौरासी अर्थात् जन्म-जन्मांतर तक आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

अंततः मैं यह कहना चाहूंगी कि सोSहम् शिवोहं  ही मानव जीवन का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मानव जब स्वयं को जान जाता है, सांसारिक बंधन व भौतिक सुख सुविधाएं उसे त्याज्य प्रतीत होती हैं।  वह पल भर भी उस प्रभु से अलग रहना नहीं चाहता। उसकी यही कामना होती है कि एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाये और आत्मा- परमात्मा का भेद समाप्त हो जाये। यही है, मानव जीवन का प्रयोजन व अंतिम लक्ष्य…सोSहम् शिवोहं जिसे प्राप्त करने में मानव को जन्म जन्मांतरों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  भोर भई

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाईं ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का आज से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

संतन का साथ बना रहे, मंथन का भाव जगा रहे। वर्ष 2020 सार्थक हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(घटना 31 दिसम्बर 2019, लगभग 11 बजे, लेखन 1.1.2020, भोर 3.55 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 28 ☆ उलझन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण कविता  ‘उलझन।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 28 साहित्य निकुंज ☆

☆ उलझन

(मन के भावों से एक प्रयास उलझन विषय पर)

मैं आज

कुछ बताना चाहती हूं

उलझन को सुलझाना चाहती हूं

मैं सोच रही हूं

उन लम्हों को

जिनको तुम्हारे साथ जिया है

लगा यूं अमृत का घूंट पिया है

मैंने

उन सहजे हुए पल को

अलमारी में रखा है

जब मन करता है

तब उन्हें उलट पलट कर देख लेती हूं।

वो लम्हा जी लेती हूं

आज उलटते हुए

मन हुआ

अंतर्मन ने छुआ

हूं आज मैं गहन उलझन में

शायद तुम ही

सुलझा सको इन्हें

क्या ?

तुम्हारे दिल के किसी कोने में

मेरी महक बाकी है।

मैं अब इस उलझन से निजात चाहती हूं

क्या तुम मुझे अपनाकर

अपने गुलदान की

शोभा बनाओगे

अपने घर आंगन को महकाओगे।

प्रिये

कहो फिर से कहो

ये सुनने के लिए

कान तरस गए

नैन बरस गए

हमने सोचा तुमने

मेरे अहसासों को

नहीं किया स्पर्श

स्पंदन को नहीं छुआ

लेकिन

तुमने महसूस किया

मेरे अहसास को

न जाने कितनी पीड़ा थी

मन में

थी कितनी उलझन

अब

किया तुमने समर्पण।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print