मराठी साहित्य – कविता ☆ नव वर्ष ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की नव वर्ष पर एक कविता  “ नव वर्ष ”।)

 

☆ नववर्ष ☆

 

धुंद अशा वाऱ्याच्या झुंडीच्या झुंडी

निघाल्यात नववर्षाचं स्वागत करायला

हातात सुरई घेऊन…

 

वाऱ्याचा तोल सुटलाय सर्वत्र दर्प पसरलाय

रस्त्यात मद्याचा वास हुंगणारी काही यंत्र थांबलीत

शिकारी चित्त्यासारखी…

 

डांबराच्या नद्यांवरून वाहणाऱ्या गाड्या

आणि त्यात वळवळणारे काही मासे

लागताहेत गळाला…

 

रात्री बारानंतर फोनचा त्रास नको म्हणून मोबाईल बंद करून झोपलेय मी

पण पहाटे उठून पहातो तर काय

व्हाॕटस्अॕप व फेसबुकवर शुभेच्छांचा

मुसळधार पाऊस होऊन गेलेला…

 

थोड्याच वेळात सूर्यानं उत्साहत

माझ्या शहरात आगमन केलं

मी थोडं वेगळ्या नजरेनं त्याच्याकडे पहात होतो

तो मात्र नेहमी सारखा

नववर्षाचे कुठलेही भाव

त्याच्या चेहऱ्यावर उमटलेले दिसले नाहीत

 

तो मला जवळच्या मित्रासारखा वाटला

उत्तररात्रीपर्यंत चाललेल्या पार्ट्यांचा

आमच्या दोघांवरही काहीच परिणाम झाला नव्हता…

 

मध्य रात्रीच्या गडद अंधारापेक्षा

सूर्याच्या स्वच्छ प्रकाशात,

सूर्याच्या साक्षिणे

मी माझ्या परिवाराकडून,

आपल्या परिवारास,

२०२० ह्या नववर्षासाठी

मनापासून हार्दिक शुभेच्छा देतो…!

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 19 ☆ लो आ गया अब नया साल ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “लो आ गया अब नया साल”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 19 ☆

☆ लो आ गया अब नया साल ☆

लो आ गया अब नया साल

पिछले भूलो सभी मलाल

लो आ गया अब नया साल

 

शीतल सर्द मद मस्त हवा

गिरती ओस अल मस्त सबा

जो नित नये करती कमाल

लो आ गया अब नया साल

 

गुजरा वक्त बड़ा निराला

कुछ ने कीचड़ खूब उछाला

राजनीति के नए जंजाल

लो आ गया अब नया साल

 

नफरतों की होली जलाएँ

एक दूजे को गले लगाएँ

प्रेम संग सब करें धमाल

लो आ गया अब नया साल

 

बना रहे सद्भाव सभी में

हों न कभी दुराव सभी में

शक के रहें न कभी सवाल

लो आ गया अब नया साल

 

खट्टी मीठी यादें शेष

साल बदलता अपना भेष

अब यह बीस रहे खुशहाल

लो आ गया अब नया साल

 

पूर्ण हों अब सबकी आशा

पास रहे ना अब निराशा

हो ना कभी कोई बवाल

लो आ गया अब नया साल

 

सभी के मन “संतोष” रहे

नया वर्ष नया जोश रहे

हो न अब कोई तंगहाल

लो आ गया अब नया साल

 

एक और अब निकला साल

सबको मुबारक नया साल

लो आ गया अब नया साल

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और दैवी प्रकृति वालों के भगवद्भजन का प्रकार )

 

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ।।11।।

 

विश्व महेश्वर भाव से मूढ मेरे अनजान

सहज मानवी रूप में देते कम सम्मान।।11।।

 

भावार्थ :  मेरे परमभाव को (गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में देखना चाहिए) न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान्‌ ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात्‌ अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं॥11॥

 

Fools disregard Me, clad in human form, not knowing My higher Being as the great Lord of (all) beings.।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “निर्विकार”।  कथानक सत्य के धरातल पर  रचित है किन्तु, देख पढ़कर सुन कर  हृदय  द्रवित  हो जाता है कि आज के भौतिक संसार में  मनुष्य इतना निर्विकार कैसे हो सकता है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆

☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ 

 

ट्रेन मनमाड से चलने ही वाली थी कि अचानक प्लेट्फार्म पर भीड़ का एक रेला आया। भीड़ में औरतें और बच्चे ही ज्यादा थे,  संभवतः वे बनजारे थे। इनकी पूरी गृहस्थी, थैलों, गठरियों और बोरियों में सिमट कर चलती है। जहाँ ठिकाना मिला वहाँ इन गठरियों और बोरियों के मुँह खुल जाते हैं। पसर जाती है इनकी जिंदगी, कभी खाली पड़े मैदानों में और कभी रेल की पटरियों के किनारे।

चटक रंग के घेरदार घाघरे, हाथों में प्लास्टिक के रंग-बिरंगे कंगन, कानों में बालियाँ या बड़े-बड़े  झुमके, नाक में बड़ी-सी नथ  (लगभग झूलती हुई)। एक बच्चा पैरों से चिपटा खड़ा , दूसरा गोद में और तीसरे को गर्भ में संभाले बनजारिनें प्लेटफार्म पर ट्रेन के दरवाजे के पास झुंड बनाए खड़ी थीं।

उनका ही एक आदमी झोले और बोरियों  में भरे सामान को दनादन ट्रेन के दरवाजे से अंदर फेंक रहा था , सामान पहले चढ़ जाना चाहिए ? औरतें, बच्चे बाद में चढ़ लेगें, शायद छूट भी जाएं तो कोई फर्क नहीं ?  पुरुषों का क्या वे तो चलती ट्रेन में चढ़-उतर सकते हैं। थैले, गठरी, बोरे चढ़ाए जा रहे थे कि इसी बीच उनका एक बच्चा भी सामान के साथ झटके में ट्रेन में चढ़ गया। कुछ वैसे ही जैसे सारा सामान चढ़ाया जा रहा था। बच्चा छोटा था ट्रेन की सीढ़ी चढ़कर वह ठीक से खड़ा हो पाता कि इससे पहले उसके ऊपर कुछ और गठरियाँ, बोरे लद गए, उसके नीचे दबा बच्चा बिलबिलाने लगा। माई रे, माई रे….. की क्षीण आवाज सुनायी दे रही थी। लेकिन ना तो समान फेंकनेवाले के हाथ थम रहे थे और ना दरवाजे के पास खड़ी औरतों के चेहरे पर कोई शिकन नजर आयी। सभी यथावत, निर्विकार, संवेदनहीन। बोरियों में भरा सामान ज्यादा जरूरी था, बच्चा तो………?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 7 ☆ कविता – अहम ब्रह्मास्मि! ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

 

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता    “अहम ब्रह्मास्मि!.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 7 ☆

☆   कुछ मित्र मिले ☆ 

 

हे सर्वज्ञ

सर्वव्यापक परमपिता

तुम हो विराजे ह्रदय में

अनगिन नाम

अनगिन काम

निराकार

साकार हर रूप में

आते रहे भक्तों का उद्धार करने

मैं क्यों भटकता रहा

इधर से उधर

शहर-शहर

देखा है मैंने उस मूर्तिकार को

जो है गढ़ता रहा काल्पनिक

तुम्हारे चित्र अनेकानेक रूपों में

लेकिन वही है करता व्यभिचार

अनाचार

पड़ा रहा सदैव नर्क में

इस धरती पर

मैंने है देखा बार-बार

 

समझ गया गया हूँ मैं

तुम कारणों के हो कारण

हो अजन्मा

अविनाशी, विश्वासी

मेरी आत्मा के

 

मुझे बसाए रहना

सदैव अपने ह्रदय में

सुख-दुख में न भूलूँ

माया के आवरण भी

न घेरें

जन्मजन्मांतर न फेरें

 

न मैं आर्त् हूँ

न जिज्ञासु

न ज्ञानी

न अर्थार्थी

मैं हूँ बस एक रसिक

बिना एक आसन में बैठे

सुमिरन रहा करता

चलते-फिरते

भोग-विलास

और काम-धंधा दिनचर्या

करते-करते

 

तुम हो विराजमान

प्राण स्वरूप

दिव्य स्वरूप

प्रकाश स्वरूप

ज्योतिरीश्वर

सदैव करते रहे मार्गदर्शन

अतः मैं हूँ कह रहा

अहम ब्रह्मास्मि!

मैं हूँ आत्मा !

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जाता साल और आता साल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  जाता साल और आता साल   

(जाता साल’ और ‘आता साल’ पर कुछ वर्ष पूर्व लिखी  दो रचनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

एक

☆ जाता साल ☆
(संवाद 2019 से)

करीब पचास साल पहले
तुम्हारा एक पूर्वज
मुझे यहाँ लाया था,
फिर-
बरस बीतते गए
कुछ बचपन के
कुछ अल्हड़पन के
कुछ गुमानी के
कुछ गुमनामी के,
कुछ में सुनी कहानियाँ
कुछ में सुनाई कहानियाँ
कुछ में लिखी डायरियाँ
कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,
कुछ सपनों वाले
कुछ अपनों वाले
कुछ हकीकत वाले
कुछ बेगानों वाले,
कुछ दुनियावी सवालों के
जवाब उतारते
कुछ तज़ुर्बे को
अल्फाज़ में ढालते,
साल-दर-साल
कभी हिम्मत, कभी हौसला
और हमेशा दिन खत्म होते गए
कैलेंडर के पन्ने उलटते और
फड़फड़ाते गए………
लो,
तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया
पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया
पर रुको, सुनो-
जब भी बीता
एक दिन, एक घंटा या एक पल
तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ
मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,
समझ चुका हूँ
भ्रमण नहीं है
परिभ्रमण नहीं है
जीवन परिक्रमण है
सो-
चोले बदलते जाते हैं
नए किस्से गढ़ते जाते हैं,
पड़ाव आते-जाते हैं
कैलेंडर हो या जीवन
बस चलते जाते हैं।

दो

☆ आता साल ☆
(संवाद 2020 से)

शायद कुछ साल
या कुछ महीने
या कुछ दिन
या….पता नहीं;
पर निश्चय ही एक दिन,
तुम्हारा कोई अनुज आएगा
यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,
तब तुम नहीं
मैं फड़फड़ाऊँगा
अपने जीर्ण-शीर्ण
अतीत पर इतराऊँगा
शायद नहीं जाना चाहूँ
पर रुक नहीं पाऊँगा,
जानता हूँ-
चला जाऊँगा तब भी
कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे
सजेंगे-रँगेंगे
रीतेंगे-बीतेंगे
पर-
सुना होगा तुमने कभी
इस साल 14, 24, 28,
30 या 60 साल पुराना
कैलेंडर लौट आया है
बस, कुछ इसी तरह
मैं भी लौट आऊँगा
नए रूप में,
नई जिजीविषा के साथ,
समझ चुका हूँ-
भ्रमण नहीं है
परिभ्रमण नहीं है
जीवन परिक्रमण है
सो-
चोले बदलते जाते हैं
नए किस्से गढ़ते जाते हैं,
पड़ाव आते-जाते हैं
कैलेंडर हो या जीवन
बस चलते जाते हैं।

आपको और आपके परिवार को 2020 के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 26 ☆ व्यंग्य – डरने और डराने के मजे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “डरने और डराने के मजे”.   श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए ।  कई बार बचपन में खेले जाने वाले खेल का सम्बन्ध भविष्य के खेलों से कैसे जुड़ जाता है बेशक हम उस खेल के पात्र न हो तो भी।  इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 26 ☆ 

☆  डरने और डराने के मजे 

 

बचपन में मैं दरवाजे के पीछे छिप जाया करता था, जैसे ही कोई दरवाजे से निकलता मैं चिल्लाते हुये बाहर आता और इस अचानक, अप्रत्याशित हो हल्ले से, आने वाला अनायास डर जाता था. इस खेल में मुझे डराने में बड़ा मजा आता था, गलती से कही मां या पिताजी को डराने की कोशिश कर दी तो फिर जो डांट पड़ती थी उससे डरने का मजा भी अलग ही था. आशय यह है कि डरने और डराने में भी मजे हैं. आज सारे देश में यही डरने और डराने के खेल कुशल राजनीति के साथ खेले जा रहे हैं. एक हमारे जैसे नाकारा लोग हैं जिन्हें स्वयं अपने आप के लिये ही समय नही है, अपना टैक्स रिटर्न भरना हो, बिजली बिल जमा करना हो, किसी संपादक की मांग पर कोई रचना लिख भेजनी हो हम कल पर टालते रहते हैं. यदि अंतिम तिथि न हो तो शायद हमारे जैसो के कोई काम ही न हो पायें. पर भला हो उन महान समाज सेवियो का जो संविधान की रक्षा के लिये फटाफट समय निकाल लेते हैं. पत्थर, आगजनी के सामान सहित धरने आंदोलन कर डालते हैं. कोई नियम बना नहीं कि उससे किस किस को किस तरह डराया जा सकता है, इसका झूठा सच्चा पूरा हिसाब लगाकर ऐसे लोग भरी ठण्ड में भीड़ इकट्ठी कर डराने का खेल खेलने के विशेषज्ञ होते हैं . उन्हें पता होता है कि किसे डर बता कर बरगलाया जा सकता है, वे अपनी टारगेट आडियेंस को प्रभावित करने में बिना किसी कोताही के जुट जाते हैं. कहने को तो देश में सब समझदार हैं, पढ़े लिखे हैं पर जब उन्हें धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर डराया जाता है तो सब बिना सोचे समझे डरने लगते हैं. ज्यादा पढ़े लिखे लोग बिना वास्तविकता जाने समझे ट्वीटर पर अपना डर अभिव्यक्त कर डालते हैं. मजे की बात यह भी है कि वही सरकार जो आयोडीन नमक के फायदे गिनाने के लिये वातावरण निर्माण पर करोड़ो के विज्ञापन जारी करती है, बच्चो की रैली निकाल कर जागरूखता लाती है. चुनावो में मतदान करने के लिये प्रेरित करने के जन आंदोलन अभियान पर बेहिसाब खर्च करती है, प्रसिद्ध फिल्मी हस्तियों को इंडोर्स करते हुये हाथ धोने की हर छोटी बड़ी बारीकियां समझाती है, वही सरकार ऐसे कानून बनाते समय चुप्पे चाप यह मान लेती है कि सरकार के इस कदम से कोई नही डरेगा. बिना किसी पूर्व नियोजित तैयारी के सरकार नोट बंद कर डालती है, टैक्स कानून में रातो रात बदलाव कर देती है. सरकार को लगता है कर डालो जो होगा देखा जायेगा. जैसे बिना यह समझे कि दरवाजे पर आने वाला हार्ट पेशेंट भी हो सकता था बचपन मैं उसे डराकर स्वयं को बहुत तीसमारखां समझा करता था, कुछ वैसे ही सरकार भी चल रही है. या तो सरकार ने तुलसी की चौपाई पढ़ ली है ” भय बिन होई न प्रीति “. जो भी हो मैं तो यही सोचकर खुश हूं कि “डर के आगे जीत है”.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ दमदार ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “दमदार ”.)

☆ लघुकथा – दमदार 

 

पूस की ठंड से कंपकपाती रात , आफिसर्स कालोनी सन्नाटे में डूबी थी । रात्रि के ग्यारह बज रहे थे , लोग अपने – अपने घरों में रजाइयों में दुबके मानो ठंड से निजात पाने की कोशिश कर रहे थे ।

तभी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई एक कार आकर रुकी । उसमें से चार पांच युवक उतरे और कार में लगे टेप को , जो पहले से ही बज रहा था और तेज आवाज में बजाना शुरू कर दिया। गाने के बोल ‘ बोलो तारा — रा–रा– तारा –रा– की धुन पर नाचने एवं शोर मचाने लगे ।

कालोनी में जिस घर के सामने ये लोग नाच रहे थे , उस घर के सदस्य भी नाच गाने में शामिल हो गये । कुछ देर के लिये कालोनी का सन्नाटा अचानक उठे शोर से घबराकर न जाने कहां दुबक गया था । आसपास के घरों में नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ । लोगों ने कमरे की खिड़की थोड़ी सी खोलकर बाहर झांका , लेकिन किसी की भी हिम्मत इस शोर-गुल को बंद करवाने की नहीं हुई । सब बाहर का नजारा देखकर , चुपचाप अपने घरों में दुबके रहे ।

सुबह सामान्य ढंग से हुई । रात में जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने की किसी में भी  हिम्मत नहीं थी , क्योंकि कल थानेदार साहब के साले की सालगिरह थी और वे अपने दोस्तों के साथ सालगिरह मनाकर लौटे थे और रात में कुछ घंटे यहां पर भी खुशियां मनाई गई थीं ।

थानेदार के साले की जगह किसी और की  सालगिरह का शोर होता तो रात में ही एक  फोन करके शोर मचाने वालों को थाने पहुंचा दिया गया होता ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

दमदार

 

पूस की ठंड से कंपकपाती रात , आफिसर्स कालोनी सन्नाटे में डूबी थी । रात्रि के ग्यारह बज रहे थे , लोग अपने – अपने घरों में रजाइयों में दुबके मानो ठंड से निजात पाने की कोशिश कर रहे थे ।

तभी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई एक कार आकर रुकी । उसमें से चार पांच युवक उतरे और कार में लगे टेप को , जो पहले से ही बज रहा था और तेज आवाज में बजाना शुरू कर दिया। गाने के बोल ‘ बोलो तारा — रा–रा– तारा –रा– की धुन पर नाचने एवं शोर मचाने लगे ।

कालोनी में जिस घर के सामने ये लोग नाच रहे थे , उस घर के सदस्य भी नाच गाने में शामिल हो गये । कुछ देर के लिये कालोनी का सन्नाटा अचानक उठे शोर से घबराकर न जाने कहां दुबक गया था । आसपास के घरों में नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ । लोगों ने कमरे की खिड़की थोड़ी सी खोलकर बाहर झांका , लेकिन किसी की भी हिम्मत इस शोर-गुल को बंद करवाने की नहीं हुई । सब बाहर का नजारा देखकर , चुपचाप अपने घरों में दुबके रहे ।

सुबह सामान्य ढंग से हुई । रात में जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने की किसी में भी  हिम्मत नहीं थी , क्योंकि कल थानेदार साहब के साले की सालगिरह थी और वे अपने दोस्तों के साथ सालगिरह मनाकर लौटे थे और रात में कुछ घंटे यहां पर भी खुशियां मनाई गई थीं ।

थानेदार के साले की जगह किसी और की  सालगिरह का शोर होता तो रात में ही एक  फोन करके शोर मचाने वालों को थाने पहुंचा दिया गया होता ।

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 28 – उत्तर..! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता उत्तर..!)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #28☆ 

☆  उत्तर..! ☆ 

 

परवा बाप झालो

खूप आनंद झाला आणि

खूप तांराबळ ही उडाली

काय करायच काहीच कळत नव्हतं

तेव्हा आईची आठवण आली

मी म्हटलं तिला..,

अत्ता आई हवी होती..

ती एकटक माझ्याकडे

पहात राहिली..आणि

काहीशा

तुसड्या शब्दांतच तिनं

मला उत्तर दिलं…

घेऊन या तिला वृध्दाश्रमातून

माझी आई येई पर्यंत..

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( जगत की उत्पत्ति का विषय)

 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।10।।

 

मेरे ही संकल्प से प्रकृति सृजित,हर बात

इससे ही कौन्तेय सब,परिवर्तन दिन रात।।10।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है।10।।

 

Under Me as supervisor, Nature produces the moving and the unmoving; because of this, O Arjuna, the world revolves!।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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