हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 4 ☆ कविता ☆ वतन के सिपाही ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है वतन  के सिपाही पर एक कविता  / गीत  “ वतन के सिपाही ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 4 ☆

☆ कविता/ गीत  – वतन के सिपाही  ☆

 

वतन के सिपाही फना हो ग‌ए हैं.

वो धरणी को शैय्या समझ सो ग‌ए हैं.

 

देती है माँ पुत्र, बेटा व भाई भी

सुहागिन का सिंदूर तक ले ग‌ए हैं.

 

तपे खूब चिंगारी, अंगार सह कर

मिले घाव सरहद पै’ सब सह ग‌ए हैं

 

अपमान, की मौन पीड़ा सही है

बनाकर वो इतिहास खुद खो ग‌ए हैं

 

बिछड़े हैं वे, देशवासी दुखी हैं

ग‌ए, आँसुओं से वो मुख धो ग‌ए हैं

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆ वक्त के उस मोड़ पर ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “वक्त के उस मोड़ पर ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆

☆ वक्त के उस मोड़ पर

वक़्त के किसी-किसी मोड़ पर

ये आदमी भी

न जाने कौनसी छोटी-छोटी चीज़ों में

ख़ुशी ढूँढ़ लेता है, है ना?

 

कभी वो सहर की ताज़गी से मंत्रमुग्ध हो

कोई मुहब्बत की ग़ज़ल गुनगुनाने लगता है,

कभी वो दरिया की लहरों संग बहते हुए

अपने अलफ़ाज़ को साज़ दे देता है,

कभी वो बारिश की नन्ही-नहीं बूंदों में

अपने अक्स को खोज मुस्कुरा उठता है,

कभी वो लहराती हुई सीली हवाओं से

न जाने क्या गुफ्तगू करने लगता है,

कभी वो ऊंचे खड़े हुए दरख़्त को देखते हुए

उसकी हरी-हरी पत्तियों सा खिलखिला उठता है,

कभी वो शाम के केसरियापन से रंगत चुरा

अपनी बातों में उसे चाशनी सा घोल देता है,

और कभी-कभी तो सारी रात बिता देता है

दूधिया चाँदनी के इठलाने को निहारते हुए!

 

शायद ये आदमी

वक़्त के उस मोड़ पर

जान लेता है

कि वो मात्र एक सूखा हुआ पत्ता है

और वो ज़िंदगी के आखिरी पल जी रहा है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बहुआयामी  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – बहुआयामी  ☆

दूर तक

लिख रहा हूँ

ख़ामोशी..!

सब पढ़ना,

सब गुनना

अपना अर्थ कहना,

लोभी हूँ,

अपनी कविता को

बहुआयामी होते

देखना चाहता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तो कुछ कहूँ……  ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

( काफी समय से  ह्रदय  विचलित था। चाहकर भी स्वयं को रोक न सका और जो कुछ मन में चल रहा था लिख दिया। आप निर्भया नाम दें या कुछ भी। कल्पना किया है कि वे सम्माननीय आत्माएं आज  क्या सोचती होंगी। प्रस्तुत है  “तो कुछ कहूँ…… ” ) 

☆  तो कुछ कहूँ……   
 

जिस किसी

‘स्त्री’ देह ने

किसी भी अवस्था में

मृत्यु तक का सफर

तय किया हो बलात।

जिस किसी को

तुम कहते हो ‘स्त्री’

या देवी साक्षात।

किन्तु,

कुछ लोगों के लिए

सिर्फ और सिर्फ

‘स्त्री’ देह हूँ

यदि पढ़-सुन सकते हो

तो कुछ कहूँ……

 

जिस किसी की

तुम बचा न सके

अस्थियाँ तक

मैं उनका प्रतीक हूँ

और

जिस किसी ‘स्त्री’ देह को

तुमने सिर्फ देह समझा था

मैं उन सबका अतीत हूँ

यदि उस अतीत में

झांक सकते हो

तो कुछ कहूँ……

 

हर बार की तरह

हो गई एक अनहोनी।

एक ब्रेकिंग न्यूज़ आई

फैला गई सनसनी।

राष्ट्र के

अंतिम नागरिक से

प्रथम नागरिक तक ने

मानवीय संवेदना

और

राष्ट्रधर्म के तहत

अगली ब्रेकिंग न्यूज़ तक के लिए

बहाये थे आँसू।

फिर व्यस्त हो गए हों

राष्ट्र धर्म कर्म में

तो कुछ कहूँ…….

 

लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ

छुपाते रहे चेहरा

लिखते रहे

मेरा काला भविष्य सुनहरा

और

चौथा स्तम्भ

तीनों स्तंभों पर

देता रहा पहरा

मैं देखती रही निःशब्द

यदि तुम कुछ देख सकते हो

तो कुछ कहूँ……

 

एक स्तम्भ करता रहा

एक दूसरे पर दोषारोपण

किसकी जुबान कब फिसल गई

किसके समय कितनी देह

कुचल दी गई

गिनाते रहे हादसों के आंकड़े

यदि आंकड़े बढ़ने

कुछ कम हो गए हों

तो कुछ कहूँ……

 

कोई स्तम्भ ढूँढता रहा

कानून की धाराएँ

किस धारा में

किस दोषी को बचाया जा सकता है

किस धारा में

मुझे दोषी बनाया जा सकता है

कितने सामाजिक दबाव में

मुझे निर्दोष बनाया जा सकता है

यदि दोषारोपण थम जाये

तो कुछ कहूँ……

 

एक स्तम्भ ढूँढता रहा

किसके क्षेत्र में

पड़ी रही मेरी ‘स्त्री’ देह

यदि जीवित रहती तो

नजरें झुकाये देती  रहती

न सुन सकने लायक

प्रश्नों के उत्तर

उन प्रश्नों ने वही कुछ

मेरी आत्मा के साथ किया

जो कुछ

मेरी देह के साथ हुआ

लज्जा से झुकी आँखें

यदि उठ सकती हों

तो कुछ कहूँ……

 

चौथा स्तम्भ के चौथे नेत्र

तो तब तक ढूंढ चुके थे

मेरी ‘स्त्री’ देह

ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए

तैयार कर रहे थे

कुछ तथाकथित विशेषज्ञों को

शाम की निरर्थक वार्ता के लिए

यदि उनकी टी आर पी

बढ़  चुकी हो

तो कुछ कहूँ……

 

क्या फर्क पड़ता है ?

दोषी को सजा मिलती है

या

निर्दोष को

जीवित रहती तो

‘स्त्री’ देह सहित

पल पल मरती

यदि जी भी जाती

तो क्या कर लेती ?

कानून के हाथ बड़े हैं

या

अपराधी के हाथ

यही नापती रह जाती

एक एक पल

सबकी निगाहों से

मेरी ‘स्त्री’ देह रौंदी जाती।

जीते जी ससम्मान जी पाती

तो कुछ कहूँ……

 

ऐसे नाम में क्या रखा है

जिसमें कोई नया उपनाम

कैसे जुड़ सकता है?

निर्भया नाम के साथ

जीवन के उस मोड़ से

कोई कैसे मुड़ सकता है ?

यदि कोई मुड़ने दे

या कोई मुड़ सकता हो

तो कुछ कहूँ……

 

देख सकती हूँ

संवेदनशील दुखी चेहरे

हाथों में मोमबत्तियाँ लिए

‘स्त्री’ अस्मिता के नारों के साथ।

यदि उनके हाथों की तख्तियाँ

गिर गई हों

और

मोमबत्तियाँ बुझ चुकी हों

तो कुछ कहूँ……

 

मेरी ‘स्त्री’ देह को

‘स्त्री’ देह ही रहने दो

‘स्त्री’ देह को

जाति-धर्म-संप्रदाय से मत जोड़ो

सर्वधर्म सद्भाव के

ताने बाने को मत तोड़ो

यदि मेरी ‘स्त्री’ देह में

छोटी सी गुड़िया

प्यारी सी बहना

किसी की प्रेयसी या पत्नी

किसी की बेटी या माँ

देख सको

तो कुछ कहूँ ……

 

अत्यंत दुखी हूँ

माँ और पिता के लिए

उनके आँसू तो

कब के सूख चुके हैं

मेरी अस्थियां बटोरते

मेरी कल्पना मात्र से

बुरी तरह टूट चुके हैं

यदि मुझे ससम्मान वापिस

वो दिन दुबारा दिला सको

तो कुछ कहूँ ……

 

मुझको अब उनकी आंखे

कैसे भूल पाएँगी

मेरी स्मृतियाँ

उनको जीवन भर रुलाएगी।

मेरी नश्वर ‘स्त्री’ देह

अपना सम्मान और

अपना अस्तित्व खो चुकी हैं

अगली निर्भया की प्रतीक्षा में

सो चुकी हैं

ऐसे में अब कुछ कहूँ भी

तो क्या कहूँ …..

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #28 – सदरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “सदरा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 28 ☆

☆ सदरा ☆

 

चुलीत नाही आग म्हणूनी जळतो आहे

आयुष्याचा मला निखारा छळतो आहे

 

जुनाट गळक्या छपरावरती धुके उतरले

पत्र्याच्या डोळ्यांतुन अश्रू गळतो आहे

 

तारुण्याला सावरणारा पदर फाटका

पिसाटलेला चहाड वारा चळतो आहे

 

तुझे पावसा रूप असे की वैरी कोणी

संसाराची करून माती पळतो आहे

 

डोंब भुकेचा ज्याला त्याला छळतो आहे

संसाराचा अर्थ कुणाला कळतो आहे

 

सफेद सदरा चारित्र्याचा किती जपावा

चिखल फेकिने सदरा माझा मळतो आहे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह) ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  व्यंग्यकार श्री विनोद कुमार विक्की की प्रसिद्ध पुस्तक “मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह पुस्तक 43 विषयों पर लिखित व्यंग्य संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)  

पुस्तक – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)

लेखक – विनोद कुमार विक्की
प्रकाशक –  दिल्ली पुस्तक सदन दिल्ली
आई एस बी एन ८३‍८८०३२‍६४‍६
मूल्य –  ३९५ रु प्रथम संस्करण २०१९

☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ऐसे समय में जब पुस्तक प्रकाशन का सारा भार लेखक के कंधो पर डाला जाने लगा है, दिल्ली पुस्तक सदन ने व्यंग्य, कहानी, उपन्यास , जीवन दर्शन आदि विधाओ की अनेक पाण्डुलिपियां आमंत्रित कर, चयन के आधार पर स्वयं प्रकाशित की हैं.

दिल्ली पुस्तक सदन का इस  अभिनव साहित्य सेवा हेतु अभिनंदन. इस चयन में जिन लेखको की पाण्डुलिपिया चुनी गई हैं, विनोद कुमार विक्की युवा व्यंग्यकार इनमें से ही एक हैं, उन्हें विशेष बधाई. अपनी पहली ही कृति भेलपुरी से विनोद जी नें व्यंग्य की दुनियां में अपनी सशक्त  उपस्थिति दर्ज की थी.

आज लगभग सभी पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते हैं. उनकी अपने समय को और घटनाओ को बारीकी से देखकर, समझकर, पाठक को गुदगुदाने वाले कटाक्ष से परिपूर्ण लेखनी, अभिव्यक्ति हेतु  उनका विषय चयन, प्रवाहमान, पाठक को स्पर्श करती सरल भाषा विनोद जी की विशिष्टता है.

मूर्खमेव जयते युगे युगे प्रस्तुत किताब का प्रतिनिधि व्यंग्य है. सत्यमेव जयते अमिधा में कहा गया शाश्वत सत्य है, किन्तु जब व्यंग्यकार लक्षणा में अपनी बात कहता है तो वह मूर्खमेव जयते युगे युगे लिखने पर मजबूर हो जाता है. इस लेख में वे देश के वोटर से लेकर पड़ोसी पाकिस्तान तक पर कलम से प्रहार करते हैं और बड़ी ही बुद्धिमानी से मूर्खता का महत्व बताते हुये छोटे से आलेख में बड़ी बात की ओर इंगित कर पाने में सफल रहे हैं. इसी तरह के कुल ४३ अपेक्षाकृत दीर्घजीवी विषयो का संग्रह है इस किताब में. अन्य लेखो के शीर्षक  ही विषय बताने हेतु उढ़ृत करना पर्याप्त है, जैसे कटघरे में मर्यादा पुरुषोत्तम, आश्वासन और शपथ ग्रहण, चुनावी हास्यफल, सोशल मीडिया शिक्षा केंद्र, मैं कुर्सी हूं, सेटिंग, पुस्तक मेला में पुस्तक विमोचन, हाय हाय हिन्दी, अरे थोड़ा ठहरो बापू, जिन्ना चचा का इंटरव्यू, फेसबुक पर रोजनामचा जैसे मजेदार रोजमर्रा के सर्वस्पर्शी विषयो पर सहज कलम चलाने वाले का नाम है विनोद कुमार विक्की. आशा है कि किताब पाठको को भरपूर मनोरंजन देगी, यद्यपि जो मूल्य ३९५ रु रखा गया है, उसे देखते हुये लगता कि प्रकाशक का लक्ष्य किताब को पुस्तकालय पहुंचाने तक है.

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य ☆ मराठी कविता ☆ लढाई ☆ सौ .योगिता किरण पाखले

सौ .योगिता किरण पाखले

(आदरणीया सौ .योगिता किरण पाखले जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की  सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी रचनाएँ स्तरीय पत्र पत्रिकाओं / चैनलों में प्रकाशित/प्रसारित हुई हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक सामयिक एवं समाजकंटकों के प्रति युद्ध के उद्घोष  तथा नारी सशक्तिकरण  पर मानसिक द्वंद्व से उपजी  कविता “लढाई”। हम भविष्य में आपकी और चुनिन्दा रचनाओं को प्रकाशित करने की अपेक्षा करते हैं।)   

 ☆ लढाई ☆

 

हृदय हेलावणारी

दिशादिशात घुमणारी

ती आर्त किंकाळी

अनंतात विलीन झाली

नराधमांची भूक भागता

सारे काही स्तब्ध….

एक निरव भयाण शांतता

नव्यानं येणार वादळ शांत करण्यासाठी….

बस ……..

आता बस…..

उठ निर्भया ,उठ..

यदा यदा हि धर्मस्य

नकोच आठवू

नाही येणार तो कृष्ण

घट्ट कर ती साडी  निर्भयतेची ……

अन हो सारथी तू तुझ्याच रथाची…

धृतराष्ट्र बसलेत सारे

दु:शासनाचा पराक्रम पाहण्यासाठी….

सांग एकदा त्यांना,

तुझ्या जीवाची किंमत फक्त नाही फाशीचा दोर

अजूनही लपलेत येथे काही सावज अन चोर

नवीन निर्भया चिरडण्यासाठी…..

आता तरी पेटू दे गं

तुझ्यातील अंगार

जातांना देऊन गेलीय निर्भया

एक चिंगार…..

भडकू दे वणवा, भस्मसात कर सारे दु:शासन

कशाला हवे न्यायव्यवस्थेचे शासन….

एका निकालाने वासनांधांची भूक नाही शमनार इतक्यात

म्हणूनच …….उठ

लढाई अजून संपलेली नाही

कारण तू अजून जिंकलेली नाही

तू अजून जिकलेली नाही….

 

© सौ. योगिता किरण पाखले, पुणे

मोबा 9225794658

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 28 – गुदड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  इस भौतिकवादी  स्वार्थी संसार में ख़त्म होती संवेदनशीलता पर एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “गुदड़ी”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 28 ☆

☆ लघुकथा – गुदड़ी ☆

अमरनाथ और भागवती दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन यापन कर रहे थे। उनका एक बेटा सरकारी नौकरी पर था। बड़े ही उत्साह से उन्होंने अपने बेटे का विवाह किया। बहू आने पर सब कुछ अच्छा रहा, परंतु वही घर गृहस्थी की कहानी।  बूढ़े मां बाप को घर में रखने से इनकार करने पर बेटे ने सोचा मां पिताजी को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं। और कभी कभी देखभाल कर लिया करेंगे।

अमरनाथ और भागवती बहुत ही सज्जन और पेशे से दर्जी का काम किया करते थे। भागवती ने बचे खुचे कपड़ों से एक गुदड़ी बनाई थी। जिसे वह बहुत ज्यादा सहेज कर रखती थी। हमेशा अपने सिरहाने रखे रहती थी। जब वृद्ध आश्रम में जाने को तैयार हो गए तो बेटे ने कहा…. तुम्हें घर से कुछ चाहिए तो नहीं। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटे मुझे मेरी गुदड़ी दे दो। जो मैं हमेशा ओढती हूं।  बेटे को बहू ने टेड़ी नजर से देखकर कहा.. वैसे भी यह गुदड़ी हमारे किसी काम की नहीं है, फेंकना ही पड़ेगा दे दो। फटी सी गुदड़ी को देख अमरनाथ भी बोल पड़े.. क्यों ले रही हो जहां बेटा भेज रहा है। वहां पर कुछ ना कुछ तो इंतजाम होगा। परंतु भागवती अपनी गुदड़ी को लेकर गई।

वृद्ध आश्रम पहुंचने पर मैनेजर ने उन दोनों को रख लिया और सभी वृद्धजनों के साथ रहने को जगह दे दी। दोनों रहने लगे।

कुछ दिनों बाद इस सदमे को अमरनाथ बर्दाश्त नहीं कर सके और अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। बेटे ने खर्चा देने से साफ मना कर दिया। अस्पताल में खर्च को लेकर वृद्धा – आश्रम वालों भी कुछ आनाकानी करने लगे। तब भागवती ने कहा.. आप चिंता ना करें पैसे मैं स्वयं आपको दूंगी। उन्होंने सोचा शायद  बुढ़ापे की वजह से ऐसा बोल रही हैं।

भागवती ने अपनी गुदड़ी एक तरफ से सिलाई खोल नोटों को निकालने लगी। जो उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में बचाकर उस गुदड़ी पर जमा कर रखी थी। सभी आश्चर्य से देखने लगे अमरनाथ जल्द ही स्वस्थ हो गए। पता चला कि खर्चा पत्नी भागवती ने अपने गुदड़ी से दिए।

उन्होंने आश्चर्य से अपने पत्नी को देखा और कहा.. तभी मैं कहूं कि रोज  गुदड़ी की सिलाई कैसे खुल जाती है और रोज उसे क्यों सिया  किया जाता है। अब समझ में आया तुम वास्तव में बहुत समझदार हो। भागवती ने  हंस कर कहा.. घर के कामों में बच  जाने के बाद जो बचत होती थी मैं भविष्य में नाती पोतों के लिए जमा कर रही थी, परंतु अब बेटा ही अपना नहीं रहा। तो इन पैसों का क्या करूंगी। यह आपकी मेहनत की कमाई आपके ही काम आ गई।

स्वस्थ होकर दोनों वृद्ध आश्रम को ही अपना घर मानकर रहने लगे। बेटे को पता चला उसने सोचा मां पिताजी को घर ले आए उसके पास और भी कुछ सोने-चांदी और रुपए पैसे होंगे। परंतु अमरनाथ और भागवती ने घर जाने से मना कर दिया उन्होंने हंसकर कहा मैं और मेरी ‘गुदड़ी’ भली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।

यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌।।22।।

 

सब जग में जो व्याप्त है जिसमें सब जग व्याप्त

परम पुरूष वह सृष्टि का परम भक्ति से प्राप्त।।22।।

 

भावार्थ :  हे पार्थ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत है और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है (गीता अध्याय 9 श्लोक 4 में देखना चाहिए), वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य (गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में इसका विस्तार देखना चाहिए) भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है ।।22।।

 

That highest Purusha, O Arjuna, is attainable by unswerving devotion to him alone within whom all beings dwell and by whom all this is pervaded.।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन – प्रक्रिया ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – लेखन – प्रक्रिया  ☆

लिखने की प्रक्रिया में

वांछनीय था

पैदा होते लेखन के

आलोचक और प्रशंसक,

उलटबाँसी देखिए,

लिखने की प्रक्रिया में

पैदा होते गए लेखक के

आलोचक और प्रशंसक!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print