हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 13 – क्या खोया क्या पाया ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना क्या खोया क्या पाया अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 13 – विशाखा की नज़र से

☆ क्या खोया क्या पाया   ☆

 

फिर एक साल बीत रहा

गणना का अंक जीत रहा

इस बीतते हुए वर्ष में

जीवन की उथल -पुथल में

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया …

 

नव विचारों का घर बनाया

पुराने को दूर भगाया

उघड़े चुभते बोलों से

सच को समक्ष लाया

सच के इस भवन में

ऐ ! मेरे मन तूने ,

क्या खोया ,क्या पाया ….

 

फिर से दिन वही आएंगे

क्रम से त्यौहार चले आएँगे

इतने रंग-बिरंगी उत्सवों में

अपने रंग -ढंग छुपाए

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया ..

 

इमारते गढ़ती जाए

आसमां को छू वो आए

नए परिधान में लिपटे हम

हर जगह घूम कर आएँ

इस घूम -घुम्मकड़ जग में

इन भूलभुलैया शहर में

सपनों की उठती लहर में

गोते लगाए मन तूने

क्या खोया क्या पाया

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य # 3 ☆ कविता – अप्सरा . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर कविता  अप्सरा . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #3 ☆ कविता – अप्सरा . . .☆ 

बादलो से झांकती  धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं ,

जब भी मिलती है शरमाया करती हैं ,

अपने आँचल में तारों को रखती हैं ,

चंचल चितवन चंचल सा मन रखती हैं ,

आँखों से जैसे शरारत झलकती हैं ,

गलियों से जब भी गुजरती हैं ,

खुशबू से आँगन भरती हैं ,

जब भी मुझसे बातें करती हैं ,

कानों में जैसे रस घोलती हैं ,

हर झरोखे से झांकती नज़र ,

बस उसको ही देखा करती हैं ,

हाँ वो अप्सरा सी लगती हैं ,

पर ख्वाबों में ही आया करती हैं ,

बादलो से झांकती धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं . . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।।20।।

 

सब भूतों से भिन्न पर है अव्यक्त एक भाव

जो न नष्ट होता कभी, सब से बिना प्रभाव।।20।।

 

भावार्थ :  उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।।20।।

 

But verily there exists, higher than the unmanifested, another unmanifested Eternal who is not destroyed when all beings are destroyed.।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – (जापानी काव्य विधा तांका) ☆ चंद चंद्र तांका  ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  जापानी काव्य विधा  तांका  में एक अतिसुन्दर रचना चंद चंद्र तांका। उनके ही शब्दों में – “जापानी काव्य विधा तांका बहुत उत्तम होती है। इसमें पांच-सात पांच सात सात शब्दों में अपनी मुकम्मल बात की जाती है।  हर पंक्ति का अपना अर्थ होता है।”)

 

चंद चंद्र तांका ☆

 

प्रकृति वधू

चंद्रिम मेखला धारे

पुलक उठी

मयंक ना निरखें

हुलसे  घूंघट में

 

उनींदा चांद

मनुहाया शर्माया

चांदनी छेडे़

आसमान चितेरा

चंद्र उर्मि उकेरे

 

मुंडेर पर

महके रात रानी

हंसी ठिठोली

सोन चिरैया उड़ी

ले चोंच भर खुशी।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मुक्ति ☆

 

देह चाहती है मुक्ति

और आत्मा को

परमात्मा से मोह है,

यूँ देखूँ हर पग सीधी राह

यूँ सोचूँ तो ऊहापोह है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 21 – अनसुलझा सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अनसुलझा सच।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 21 ☆

☆ अनसुलझा सच 

 

रामायण के विषय में सोचने, उसे दर्शाने और भगवान राम के जीवन ने शिक्षा प्राप्त करने के अनंत तरीके है । जीवन के दर्शन के रूप में रामायण की एक व्याख्या निम्न है :

‘रा’ का अर्थ है ‘प्रकाश’, और ‘म’ का अर्थ है ‘मेरे भीतर, मेरे दिल में’ । तो, राम का अर्थ है मेरे भीतर प्रकाश।

राम दशरथ और कौशल्या से पैदा हुए थे।

दशरथ का अर्थ है ‘दस रथ’। दस रथ, ज्ञानेन्द्रियाँ (पाँच ज्ञान के अंग) और कर्मेन्द्रियाँ (क्रिया के पाँच अंग) का प्रतीक है। कौशल्या का अर्थ है ‘कौशल’ । दस रथों के कुशल सवार ही भगवान राम को जन्म दे सकते हैं।

जब दस रथों का कुशलता से उपयोग किया जाता है, तो प्रकाश या आंतरिक चमक का जन्म होता है। भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या का अर्थ है ‘वह जगह जहाँ कभी कोई युद्ध ना हुआ हो और ना होगा’ जब हमारे मस्तिष्क में कोई संघर्ष या युद्ध नहीं होता है, तो आंतरिक चमक अपने आप आ जाती है।

रामायण सिर्फ एक कहानी ही नहीं है जो बहुत पहले सुनी सुनाई या घटी हो।

इसमें दार्शनिक, आध्यात्मिक महत्व और इसमें एक गहरी सच्चाई है। ऐसा कहा जाता है कि रामायण हर समय हमारे शरीर में घटित हो रही है। भगवान राम हमारी आत्मा है, देवी सीता हमारा मस्तिष्क है, भगवान हनुमान हमारे प्राण (जीवन शक्ति) है, लक्ष्मण हमारी जागरूकता है, और रावण हमारी अहंकार है।

जब मन (देवी सीता) अहंकार (रावण) द्वारा चुराया जाता है, तो आत्मा (भगवान राम) बेचैन हो जातेहैं। जिससे आत्मा (भगवान राम) अपने मन (देवी सीता) तक नहीं पहुँच सकते हैं। प्राण (भगवान हनुमान), और जागरूकता (लक्ष्मण) की सहायता से, मस्तिष्क  (देवी सीता) आत्मा (भगवान राम) के साथ मिल जाता है और अहंकार (रावण) मर जाता है।

हकीकत में रामायण हर समय घटित होती एक शाश्वत घटना है।

 

© आशीष कुमार  

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 19 ☆ वैश्विक धर्म समभाव ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “वैश्विक धर्म समभाव”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 19 ☆

☆ वैश्विक धर्म समभाव
जुदा जुदा हैं रंग यहाँ
जुदा जुदा हैं भेस
कोई हिन्दू, मुस्लिम है
कोई सिख, ईसाई वेश।सब रंग की छटाओं से
बनता है हिन्दुस्तान
एकता ही विशालता में
रहता एक है भगवान।

एक रास्ते से चलते हैं
जैसे जुड़ता इंद्रधनुष
आँधी या तूफान हो
हमारा अखंड कल्पवृक्ष।

हरा, नीला या केसरिया हो
रंगे मानवता के रंग से
आओ मिलकर बनाते हैं
वैश्विक धर्म समभाव से।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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सूचना /Information – ☆ हिंदी आंदोलन परिवार – रजतजयंती समारोह, पुणे ☆

☆ सूचना/Information ☆

 ☆ हिंदी आंदोलन परिवार – रजतजयंती समारोह के अंतर्गत
*निमंत्रण*
आप सादर आमंत्रित हैं।
*हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती समारोह के अंतर्गत*
*हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे, राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई और महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी*
*हिंदी : घोषित राजभाषा, उपेक्षित राष्ट्रभाषा*
शनि  दि. 14 दिसम्बर 2019
समय- प्रात: 10 बजे
स्थान- लकाकी सभागृह, मराठा चेंबर ऑफ कॉमर्स, स्वारगेट कॉर्नर, पुणे
*पंजीकरण एवं जलपान*
प्रातः 9:30 से 10:00
*उद्घाटन सत्र*
 प्रातः 10:00 बजे
*उद्घाटनकर्ता- डॉ. सदानंद भोसले*
(हिंदी विभागाध्यक्ष, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय)
*अध्यक्ष*- *डॉ. सुशीला गुप्ता*
(उपाध्यक्ष, राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई)
*वक्तव्य*- 
*श्री ज. गं. फगरे*  
(संचालक, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे)
*श्री संजय भारद्वाज*
(अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे)
*संचालन- सौ.स्वरांगी साने*
*प्रथम सत्र*
11.45  से 1.45 बजे तक
*अध्यक्ष- डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय*
(हिंदी विभागाध्यक्ष, मुंबई विश्वविद्यालय)
*विशेष अतिथि- डॉ. दामोदर खडसे*
(प्रसिद्ध साहित्यकार)
*वक्तव्य-*
*डॉ. नीला बोर्वणकर* 
( पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, आबासाहेब गरवारे महाविद्यालय)
*डॉ. शशिकला राय* 
(एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय)
*डॉ. राजेन्द्र श्रीवास्तव*
सहायक महाप्रबंधक (हिंदी), बैंक ऑफ महाराष्ट्र
*श्री महेश अग्रवाल*
( ट्रस्टी एवं संरक्षक, राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई)
*संचालन- डॉ. अनंत श्रीमाली*
*भोजनावकाश*
 अपराह्न 1.45 से 2.30 बजे
*द्वितीय सत्र*
 अपराह्न 2.30 से 3.30 बजे
*मेरी भाषा के लोग*
( ‘क्षितिज’ द्वारा साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति।)
*समापन सत्र*
*प्रतिनिधि प्रतिक्रियाएँ एवं प्रश्नोत्तर*
*चायपान-* 
संध्या 4:45 बजे
*विनीत*
*सुधा भारद्वाज*
(कार्यकारिणी संयोजक, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे)
*डॉ. अनंत श्रीमाली*
(महासचिव, राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई)
*ज. गं फगरे*
(संचालक, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे)
सम्पर्क- 
संजय भारदाज *9890122603*
*नोट-* 
1) पंजीकरण पहले आएँ, पहले पाएँ के आधार पर। आसनक्षमता पूरी हो जाने पर पंजीकरण की प्रक्रिया रोक दी जाएगी।
2) कुछ आसन आरक्षित हैं।
 3) विद्यार्थियों के लिए आई कार्ड लाना अनिवार्य है।
4) कार्यक्रम को सुचारू रखने के लिए समयपालक की व्यवस्था की गई है।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।19।।

 

सारा जग परवश सा यह बनता मिटता रोज

सृजन प्रलय का चक्र यह चलता बिना विरोध।।19।।

      

भावार्थ :  हे पार्थ! वही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है।।19।।

 

This same multitude of beings, born again and again, is dissolved, helplessly, O Arjuna, (into the unmanifested) at the coming of the night, and comes forth at the coming of the day!।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र”.    नतमस्तक हूँ  डॉ मुक्ता जी की लेखनी का जो  नारी की पीड़ा  जैसे संवेदनशील तथ्यों  पर सतत  लिखकर ह्रदय को उद्वेलित करती हैं ।  चाहे प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की पंक्तियों हों या समाज में हो रही  वीभत्स घटनाएं  उनका संवेदनशील ह्रदय और लेखनी उनको लिखने से रोक नहीं सकती। यदि मैं उन्हें नारी सशक्तिकरण विमर्श की प्रणेता  कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र

हर पल अहसास दिलाती हैं मुझे/ प्रसाद जी की दो पंक्तियां…

‘तुमको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

… और मैं खो जाती हूं अतीत में, आखिर कब तक यह संधि पत्र…जो विवाह की सात भांवरों के समान अटल है, जिसे सात जन्म के बंधन के रूप में स्वीकारा जाता है…लिखा जाता रहेगा। परंतु यह आज के ज़माने की ज़रूरत नहीं है। समय बदल चुका है।भले ही चंद महिलाएं अब नकार चुकी है, इस बंधन को…और पुरुषों की तरह स्वतंत्र जीवन जीने में विश्वास रखती हैं, उन्मुक्त भाव से अपनी ज़िंदगी बसर कर रही हैं…परंतु क्या वे स्वतंत्र हैं … निर्बंध हैं? क्या उन्हें सामाजिक भय नहीं, क्या उन्हें अपने आसपास भयानक साये मंडराते हुए नहीं प्रतीत होते? क्या उन्हें सामाजिक व पारिवारिक प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ता? परिवारजनों का बहिष्कार व उससे संबंध-विच्छेद करने का भय उन्हें हर पल आहत नहीं करता? जिस घर को वह अपना समझती थीं, उसे त्यागने के पश्चात् उन्हें किसी भयंकर व भीषण आपदा का सामना नहीं करना पड़ता? कल्पना कीजिए, कितनी मानसिक यातना से गुज़रना पड़ता होगा उन्हें? क्या किसी ने अनुभव किया है उस मर्मांतक पीड़ा को…शायद! किसी ने नहीं। सब के हृदय से यही शब्द निकलते हैं… ‘ऐसी औलाद से बांझ भली।’ अच्छा था वह पैदा होते ही मर जाती, तो हमारे माथे पर कलंक तो न लगता। देखो! कैसे भटक रही है सड़कों पर…क्या कोई अपना है उसका…शायद इस जहान में वह अकेली रह गई है। सुना था, खून के रिश्ते, कभी नहीं टूटते। परंतु आज कल तो ज़माने का चलन ही बदल गया है।

प्रश्न उठता है…आखिर उसके माता-पिता ने इल्ज़ाम लगा कर उसे कटघरे में क्यों खड़ा कर दिया? उन्होंने उसे उसकी प्रथम भूल समझ कर, उसे अपने घर में पनाह क्यों नहीं दी? परंतु ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि उन्हें अपनी औलाद से अधिक, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा व मान-मर्यादा की परवाह थी, कि ‘लोग क्या कहेंगे’…शायद इसी लिये वे पल भर में उसे प्रताड़ित कर,घर से बेदखल कर देते हैं ताकि समाज में उनका रुतबा बना रहे और उन्हें वहां वाह-वाही मिलती रहे। क्या उन्हें उस  यह ध्यान आता है कि वह निरीह बालिका आखिर जायेगी कहां…क्या हश्र होगा उस की ज़िंदगी का…एक प्रताड़ित बालिका को कौन आश्रय देगा…यह सब बातें उन्हें बेमानी भासती हैं।

आखिर कौन बदल सका है तक़दीर किसी की… इंसान क्यों भुला बैठता है…बुरे कर्मों का फल सदैव बुरा ही होता है। सो! बेटियों को कभी भी घर की चारदीवारी को नहीं लांघना चाहिए। यह उपदेश देते हुए वे भूल जाते हैं कि वह मासूम निर्दोष भी हो सकती है…शायद  किसी मनचले ने उसके साथ ज़बरदस्ती दुष्कर्म किया हो? वे उस हादसे की गहराई तक नहीं जाते और अकारण उस मासूम पर दोषारोपण कर उसे व उनके माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

प्रश्न उठता है…क्या उस पीड़िता ने अपना अपहरण कराया स्वयं करवाया होगा? क्या उसे दुष्कर्मियों का  निवाला बनने का शौक था?क्या उसने चाहा था कि उसकी अस्मत लूटी जाए और वह दरिंदगी की शिकार हो?नहीं… नहीं… नहीं, यह असंभव है। उसके लिए तोउस घर के द्वार सदा के लिए बंद हो जाते हैं।अक्सर उसे बाहर से ही चलता कर दिया जाता है कि अब उनका उस निर्लज्ज से कोई रिश्ता- नाता नहीं। यदि उसे घर में प्रवेश पाने की अनुमति प्रदान कर दी जाती है, तो उसके साथ मारपीट की जाती है, उसे ज़लील किया जाता है और किसी दूरदराज़ के संबंधी के यहां भेजने का फ़रमॉन जारी कर  दिया जाता है, ताकि किसी को कानों-कान खबर न हो कि वह अभागिन बालिका दुष्कर्म की शिकार हुई है।

अब उसके सम्मुख विकल्प होता है… संधिपत्र का, हिटलर के शाही फ़रमॉन को स्वीकारने का…अपने  भविष्य को दांव पर लगाने का… अपने हाथों मिटा डालने का… जहां उसके अरमान,उसकी आकांक्षाएं, उसके सपने पल भर में राख हो जाते हैं और उसे भेज दिया जाता है दूर…कहीं बहुत दूर, अज्ञात- अनजान स्थान पर, जहां वह अजनबी सम अपना जीवन ढोती है। यहां भी उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता… उसे सौंप दिया जाता है, किसी दुहाजू, विधुर पिता-दादा समान आयु के व्यक्ति के हाथों, जहां उसे हर पल मरना पड़ता है। वह चाह कर भी न अपनी इच्छा प्रकट कर पाती है,न ही विरोध दर्ज करा पाती है, क्योंकि वह अपराधिनी कहलाती है,भले ही उसने कोई गलत काम याअपराध न किया हो।

भले ही उसका कोई दोष न हो,परंतु माता-पिता तो पल्ला झाड़ लेते हैं तथा विवाह के अवसर पर खर्च होने वाली धन-संपदा बचा कर, फूले नहीं समाते। सो! उनके लिए तो यह सच्चा सौदा हो जाता है। आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि संबंध तय करने की ऐवज़ में अनेक बार उन्हें धनराशि की पेशकश भी की जाती है, वे अपने भाग्य को सराहते नहीं अघाते। यह हुआ न आम के आम,गुठलियों के दाम। अक्सर उस निर्दोष को उन विषम परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, जो उसके माता-पिता विधाता बन उसकी ज़िंदगी के बही-खाते में लिख देते हैं।

आइए दृष्टिपात करें, उसके दूसरे पहलू पर… कई बार उसे संधिपत्र लिखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िदगी में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है, जहां कोई भी उसकी सुध नहीं लेता। वह हर दिन नई दुल्हन बनती हैं…एक दिन में चालीस-चालीस लोगों के सम्मुख परोसी जाती हैं। यह आंकड़े सत्य हैं… के•बी•सी• के मंच पर,  एक महिला कर्मवीर, जिसने हज़ारों लड़कियों को ऐसी घृणित ज़िंदगी अर्थात् नरक से निकाला था, उनसे साक्षात्कार प्रस्तुत किए गये कि किस प्रकार उन्हें उनके बच्चों का हवाला देकर एक-एक दिन में, इतने लोगों का हम-बिस्तर बनने को विवश किया जाता है…और यह समझौता उन्हें अनचाहे अर्थात् विवश होकर करना ही पड़ता है। ऐसी महिलाओं के समक्ष नतमस्तक है पूरा समाज,जो उन्हें आश्रय प्रदान कर, उस नरक से मुक्ति दिलाने का साहस जुटाती हैं।

वैसे भी आजकल ज़िंदगी शर्तों पर चलती है। बचपन में ही माता-पिता बच्चों को इस तथ्य से अवगत करा देते हैं कि यदि तुम ऐसा करोगे, हमारी बात मानोगे, परीक्षा में अच्छे अंक लाओगे, तो तुम्हें यह वस्तु मिलेगी…यह पुरस्कार मिलेगा।इस प्रकार बच्चे आदी हो जाते हैं, संधि-पत्र लिखने अर्थात् समझौता करने के और अक्सर वे प्रश्न कर बैठते हैं,यदि मैं ऐसा कर के दिखलाऊं, तो मुझे क्या मिलेगा…इसके ऐवज़ में? इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत जारी रहता है। हां! केवल नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना, नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िम हैं। वैसे भी औरत में तो बुद्धि होती ही नहीं, तो सोच-विचार का तो प्रश्न ही कहां उठता है? उदाहरणत: एक प्रशासनिक अधिकारी, जो पूरे देश का दायित्व बखूबी संभाल सकती है, घर में मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन कहलाती है। उसे हर पल प्रताड़ित किया जाता जाता है, सबके बीच ज़लील किया जाता है…अकारण दोषारोपण किया जाता है। यहां पर ही उसकी दास्तान का अंत नहीं होता, उसे विभिन्न प्रकार की शारीरिक व मानसिक यंत्रणाएं दी जाती हैं…ऐसे मुकदमे हर दिन महिला आयोग में आते हैं, जिनके बारे में जानकार हृदय में  ज्वालामुखी की भांति आक्रोश फूट निकलता है और मन सोचने पर विवश हो जाता है,आखिर यह सब कब तक?

हम 21वीं सदी के बाशिंदे…क्या बदल सके हैं अपनी सोच…क्या हम नारी को दे पाए हैं समानाधिकार… क्या हम उसे एक ज़िंदा लाश या रोबोट नहीं समझते … जिसे पति व परिवारजनों के हर उचित-अनुचित आदेश की अनुपालना करना अनिवार्य है… अन्यथा अंजाम से तो आप बखूबी परिचित हैं।आधुनिक युग में हम नये-नये ढंग अपनाने लगे हैं… मिट्टी के तेल का स्थान, ले लिया है पैट्रोल ने, बिजली की नंगी तारों व तेज़ाब से जलाने व पत्नी को पागल करार करने का धंधा भी बदस्तूर जारी है।भ्रूणहत्या के कारण, दूसरे प्रदेशों से खरीद कर लाई गई दुल्हनों से, तो उनका नाम व पहचान भी छीन ली जाती है और वे अनामिका व मोलकी के नाम से आजीवन संबोधित की जाती हैं। मोलकी अर्थात् खरीदी हुई वस्तु… जिससे मालिक मनचाहा व्यवहार कर सकता है और वे अपना जीवन बंधुआ मज़दूर के रूप में ढोने को विवश होती हैं।अक्सर नौकरीपेशा शिक्षित महिलाओं को हर दिन कटघरे में खड़ा किया जाता है। कभी रास्ते में ट्रैफिक की वजह से, देरी हो जाने पर, तो कभी कार्यस्थल पर अधिक कार्य होने की वजह से, उन्हें कोप-भाजन बनना पड़ता है।अक्सर कार्यालय में भी उनका शोषण किया जाता है। परंतु उन्हें अनिच्छा से वह सब झेलना पड़ता है क्योंकि नौकरी करना उनकी मजबूरी होती है। वे यह जानती हैं कि परिवार व  बच्चों के पालन-पोषण व अच्छी शिक्षा के निमित्त उन्हें यह समझौता करना पड़ता है। यह सब ज़िंदगी जीने की शर्तें हैं, जिनका मालिकाना हक़ क्रमशः पिता,पति व पुत्र को हस्तांतरित किया जाता है। परंतु औरत की नियति जन्म से मृत्यु पर्यंत वही रहती है, उसमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं होता।

‘औरत दलित थी,दलित है और दलित रहेगी’ कहने में अतिशयोक्ति नहीं है। वह सतयुग से लेकर आज तक 21सवीं सदी तक शोषित है, दोयम दर्जे की प्राणी है और उसे सदैव सहना है,कहना नहीं…यही  एकतरफ़ा समझौता ही उसके जीने की शर्त है। उसे आंख, कान ही नहीं, मुंह पर भी ताले लगाकर जीना है। वैसे उसकी चाबी उसके मालिक के पास है, जिसे वह बिना सोच-विचार के, अकारण किसी भी पल घुमा सकता है। हर पल औरत के ज़हन में प्रसाद की पंक्तियां दस्तक देकर अहसास दिलाती हैं…जीने का अंदाज से सिखलाती हैं… उसकी औकात दर्शाती हैं  और उसके हृदय को सहनशीलता से आप्लावित करती हैं और वह अपने पूर्वजों की भांति आचार- व्यवहार व ‘हां जी’ कहना स्वीकार लेती हैं क्योंकि नारी तो केवल श्रद्धा है! विश्वास है! उसे आजीवन सब के सुख,आनंद व समन्वय के लिए निरंतर बहना है ताकि जीवन में सामंजस्य बना रहे।

वैसे भी हमारे संविधान निर्माताओं ने सारे कर्त्तव्य अथवा दायित्व नारी के लिए निर्धारित किए हैं और अधिकार प्रदत्त हैं पुरुष को,जिनका वह साधिकार, धड़ल्ले से प्रयोग कर रहा है… उसके लिए कोई नियम व कायदे-कानून निर्धारित नहीं हैं।

पराधीन तो औरत है ही…जन्म लेने से पूर्व, भ्रूण रूप में ही उसे  दूसरों की इच्छा को स्वीकारने की आदत-सी हो जाती है और अंतिम सांस तक वह    अंकुश में रहती है। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ‘ अर्थात्  गुलामी में वह कैसे सुख-चैन की सांस ले सकती है? उसकी ज़िंदगी उधार की होती है, जो दूसरों की इच्छा पर आश्रित है,निर्भर है।

अंततः नारी से मेरी यह इल्तज़ा है कि उसे हंसते- हंसते जीवन में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे…मौन रहकर  सब कुछ सहना होगा।यदि उसने इसका विरोध किया तो भविष्य से वह अवगत है,जो उसके स्वयं के लिए, परिवार व समाज के लिए हितकर नहीं होगा। आइए! इस तथ्य को मन से स्वीकारें,  ताकि यह हमारे रोम-रोम व सांस-सांस में बस जाए और आंसुओं रूपी जल-धारा से उसका अभिषेक होता रहे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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